बहुत पहले कहीं पढ़ा था, ‘हाथ नचावे, गाल बजावे सो कलियुग में नाम कमावे.’ इस कथन की सार्थकता आज समझ में आती है. सिनेमा को लीजिए, मोबाइल को लीजिए, टीवी को लीजिए : बातें, बातें और बातें. टाक, टाक एंड टाक.

बात को तूल देने में मोबाइल का बहुत बड़ा हाथ है. मोबाइल दरें कम हो रही हैं और प्रति व्यक्ति टाक टाइम बढ़ रहा है. प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यकलाप की वी.आई.पी. अंदाज में जानकारी दे रहा है.

‘‘टे्रन प्लेटफार्म पर आ रही है, प्लेटफार्म नंबर 3 पर कुली आ गया है, लगेज उठा रहा है, बबली शूशू कर के टायलेट से निकल रही है, अच्छा, रखता हूं, टैक्सी में बैठते ही फिर फोन करूंगा.’’

पहले जब लिफाफे और पोस्टकार्ड का समय था, यह सब जानकारी नहीं दी जाती थी. इसे देना जरूरी नहीं समझा जाता था. किंतु अब यह सब जानकारी आवश्यक हो गई है.

‘‘मम्मी चाय ला रही हैं, कल बिस्कुट लाना भूल गया था, आज बिना बिस्कुट की चाय का लुत्फ लिया जा रहा है, रखता हूं, अगला फोन टायलेट से करूंगा.’’

पहले लोग टायलेट में चुप रहते थे, कार या स्कूटर चलाते चुप रहते थे. अब चुप रहने की यह घडि़यां भी लुप्त हो रही हैं... इन घडि़यों में भी अब भाई लोग मोबाइल से बात करते हैं. सीधी गरदन को टेढ़ी कर के बात करते हैं.

यह बात करने का दौर चल रहा है.

सुबह टेलीविजन आन करते ही रामदेव आन हो जाएंगे और आप को लौकी के जूस से अधिक अपनी बातों का जूस पिलाएंगे. चैनल बदलिए तो सुधांशुजी का प्रवचन चल रहा है. लच्छेदार बातों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया जा रहा है. फिर चैनल बदलिए तो एक और स्वामीजी...समझ में नहीं आता कि इतने स्वामीप्रवचनों के बाद, इतने आध्यात्मिक  विकास के बाद अपराधों की संख्या में, आत्महत्याओं की संख्या में, मंदिरों और प्लेटफार्मों पर आएदिन होने वाले विस्फोटों की संख्या में वृद्धि क्यों हो रही है.

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