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छुट्टियों में अकी को बेफिक्र देख कर नानी ने स्नेह से कहा कि बच्चों के कुदरती विकास के लिए जरूरी है कि उन्हें पूरा समय मिले, पढ़ने के साथ खेलने का मौका मिले. क्या तू भूल गई, किस तरह बचपन में तू पड़ोस की लड़कियों के साथ खेलती थी और पूरा महल्ला शोर से सिर पर उठाती थी. हम अपना बचपन भूल जाते हैं कि हम ने भी शैतानियां की थीं. बच्चों पर आदर्श थोपते हैं, जो एकदम अनुचित है.

‘‘मां, तुम भाषण पर आ गई हो,’’ स्नेह ने तुनक कर कहा.

‘‘तुम खुद देखो कि अकी आजकल कितनी खुश है, जितने दिन स्कूल गई, एकदम थकी सी रहती थी, अब एकदम चुस्त रहती है. इसलिए कहती हूं कि अनुभव की बात मान ले.’’

‘‘मम्मी, तुम और अनु एक जैसे हो, एकदूसरे की हां में हां मिलाते रहते हो. मेरी भावनाओं की तरफ सोचते भी नहीं हो. आखिर आप ने मुझे इतना क्यों पढ़ाया. एमबीए के बाद शादी कर दी. मेरा कैरियर भी नहीं बनने दिया. मुश्किल से 1 साल भी नौकरी नहीं की, शादी हो गई. शादी के बाद शहर बदल गया, फिर अकी के जन्म के कारण नौकरी नहीं की. अकी स्कूल जाने लगी, तब बड़ी मुश्किल से अनु को राजी किया. 3-4 साल ही नौकरी की, अब फिर छोटे काका के जन्म पर नौकरी छोड़नी पड़ रही है.’’

‘‘स्नेह, एक बात तुम समझ लो, परिवार के लालनपालन और बच्चों में अच्छी आदतों की नींव डालने के लिए मांबाप को अपनी कई इच्छाओं को मारना पड़ता है. परिवार को सही तरीके से पालना नौकरी करने से अधिक कठिन है. गृहस्थी की कठिन राह से परेशान लोग संन्यास लेते हैं, लेकिन दरदर भटकने पर भी न तो शांति मिलती है और न ही सुख. कठिन गृहस्थी में ही सच्चा सुख है.’’

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