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‘तब तो गोष्ठी के लिए यहां तक आने की जरूरत ही नहीं थी. इंटरनेट पर सारी जानकारी तो भारत में भी उपलब्ध थी,’’ गायत्रीजी ने नहले पर दहला जड़ा था.

‘‘चलिए महोदय, देर हो रही है. गाड़ी आ गई है,’’ राजा भैया बोले.

‘‘ठीक है, फिर हम लोग चलते हैं... आप गोष्ठी का आनंद लीजिए,’’ रामआसरेजी ने विदा ली थी.

मलयेशिया में 4 दिन पलक झपकते ही बीत गए. लगे हाथों सिंगापुर में भी घूमने का कार्यक्रम बन गया था. गोष्ठी के आयोजकों ने भी अतिथियों के स्वागत- सत्कार के साथसाथ घुमानेफिराने का प्रबंध किया था.

लौटते समय राजा भैया ने चुटकी ली, ‘‘गायत्रीजी, आप तो गोष्ठी में ही उलझी रही हैं. हमें भी कुछ बताइए न, क्या विचारविमर्श हुए... वैसे छपी हुई सामग्री हम ने भी ले ली है.’’

‘‘यों भी होता क्या है इन गोष्ठियों में. उद्घाटन और अंतिम सत्र के अलावा इन में किसी की रुचि नहीं होती,’’ प्रताप सिंह ने भी अपने दिल की बात कह दी.

स्वदेश पहुंचते ही सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. मित्रोंसंबंधियों को विदेश से लाए उपहार देना भी इसी दिनचर्या का हिस्सा था. वहां से लाए हुए छायाचित्र और वीडियो भी सब के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे.

एक दिन अचानक ही मुख्यमंत्रीजी ने वक्तव्य दे दिया कि वह अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करने वाले हैं. फिर क्या था राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गईं. विधायकगण अपने तरीके से अपनी बात हाईकमान तक पहुंचाने लगे. साम दाम, दंड भेद का सहारा लिया जाने लगा और उन की बात न सुने जाने पर दबी जबान धमकियां भी दी जाने लगीं. रामआसरेजी अपने असंतुष्ट विधायकों के साथ कई बार रवि बाबू से मिल आए थे और अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए मांगों की पूरी सूची भी उन्हें थमा दी थी.

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