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लेखक-  राजीव रोहित

शिवानी पूरी मगन हो कर फिल्म देख रही थी. शिवेश का ध्यान बारबार घड़ी की तरफ था. इंटरवल हुआ तो उस समय तकरीबन 11 बज रहे थे. शिवानी ने उस की तरफ देखा और उस से पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, बहुत चिंतित लग रहे हो?’’ ‘‘11 बज रहे हैं. फिल्म खत्म होतेहोते साढ़े 12 बज जाएंगे. स्टेशन पहुंचने तक तो एक जरूर बज जाएगा.’’ ‘‘बजने दो. कौन परवाह करता है?’’ शिवानी ने बेफिक्र हो कर जवाब दिया.  इस बीच इंटरवल खत्म हो चुका था. फिल्म फिर शुरू हो गई. पूरी फिल्म के दौरान शिवेश बारबार घड़ी देख रहा था, जबकि शिवानी फिल्म देख रही थी.

फिल्म साढ़े 12 बजे खत्म हुई. दोनों बाहर निकले. पौने 1 बजे की लास्ट लोकल उन की आखिरी उम्मीद थी. तेजी से वे दोनों स्टेशन की तरफ बढ़ चले.  ‘‘आखिरी लोकल तो एक चालीस की खुलती है न?’’ शिवानी ने चलतेचलते पूछा.  ‘‘वह फिल्मी लोकल थी. हकीकत में रात 12 बज कर 45 मिनट पर आखिरी लोकल खुलती है.’’ शिवानी के चेहरे पर पहली बार डर नजर आया. ‘‘डरो मत. देखा जाएगा,’’ शिवेश ने आत्मविश्वास से भरी आवाज में जवाब दिया. आखिर वही हुआ, जिस का डर था. लोकल ट्रेन परिसर के फाटक बंद हो रहे थे. अंदर जो लोग थे, सब को बाहर किया जा रहा था. ‘अब कहां जाएंगे?’ दोनों एकदूसरे से आंखों में सवाल कर रहे थे.

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‘‘अब क्या करेंगे हम? पहली लोकल ट्रेन सुबह साढ़े 3 बजे की है?’’ शिवेश ने कहा.  शिवानी एकदम चुपचाप थी, जैसे सारा कुसूर उसी का था.  ‘‘मुझे माफ कर दो. मेरी ही जिद से यह सब हो रहा है,’’ शिवानी बोली. ‘‘कोई बात नहीं. आज हमें एक मौका मिला है. मुंबई को रात में देखने का, तो क्यों न इस मौके का भरपूर फायदा उठाया जाए.  ‘‘बहुत सुन रखा था, मुंबई रात को सोती नहीं है. रात जवान हो जाती है वगैरह. क्या खयाल है आप का?’’ शिवेश ने मुसकरा कर शिवानी की तरफ देखते हुए पूछा.

‘‘यहां पर तो मेरी जान जा रही है और तुम्हें मस्ती सूझ रही है. पता नहीं, घर वाले क्याक्या सोच रहे होंगे?’’ ‘‘तुम तो ऐसे डर रही हो, जैसे मैं तुम्हें यहां पर भगा कर लाया हूं.’’  शिवेश ने जोरदार ठहाका लगाते हुए कहा. ‘‘चलो, घर वालों को बता दो.’’ ‘‘बता दिया जी.’’ ‘‘वैरी गुड.’’ ‘‘जी मैडम, अब चलो कुछ खायापीया जाए.’’ दोनों स्टेशन परिसर से बाहर आए. कई होटल खुले हुए थे.  ‘‘चलो फुटपाथ के स्टौल पर खाते हैं,’’ शिवेश ने कहा.

स्टेशन के बाहर सभी तरह के खाने के कई स्टौल थे. वे एक स्टौल के पास रुके.  एक प्लेट चिकन फ्राइड राइस और एक प्लेट चिकन लौलीपौप ले कर एक ही प्लेट में दोनों ने खाया.  ‘‘अब मैरीन ड्राइव चला जाए?’’ शिवेश ने प्रस्ताव रखा. ‘‘इस समय…? रात के 2 बजने वाले हैं. मेरा खयाल है, स्टेशन के आसपास ही घूमा जाए. एकडेढ़ घंटे की ही तो बात है,’’ शिवानी ने उस का प्रस्ताव खारिज करते हुए कहा. ‘‘यह भी सही है,’’ शिवेश ने भी हथियार डाल दिए. वे दोनों एक बस स्टौप के पास आ कर रुके. यहां मेकअप में लिपीपुती कुछ लड़कियां खड़ी थीं.

शिवेश और शिवानी ने एकदूसरे की तरफ गौर से देखा. उन्हें मालूम था कि रात के अंधेरे में खड़ी ये किस तरह की औरतें हैं.  वे दोनों जल्दी से वहां से निकलना  चाहते थे. इतने में जैसे भगदड़ मच गई. बस स्टौप के पास एक पुलिस वैन आ कर रुकी. सारी औरतें पलभर में गायब हो गईं. लेकिन मुसीबत तो शिवानी और शिवेश पर आने वाली थी. ‘‘रुको, तुम दोनों…’’ एक पुलिस वाला उन पर चिल्लाया. शिवानी और शिवेश दोनों ठिठक कर रुक गए.

‘‘इतनी रात में तुम दोनों इधर कहां घूम रहे हो?’’ एक पुलिस वाले ने पूछा. ‘‘अरे देख यार, यह औरत तो धंधे वाली लगती है,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बेशर्मी से कहा.  ‘‘किसी शरीफ औरत से बात करने का यह कौन सा नया तरीका है?’’ शिवेश को गुस्सा आ रहा था.  ‘‘शरीफ…? इतनी रात में शराफत दिखाने निकले हो शरीफजादे,’’ एक सिपाही ने गौर से शिवानी को घूरते हुए कहा. ‘‘वाह, ये धंधे वाली शरीफ औरतें कब से बन गईं?’’ दूसरे सिपाही ने  एक भद्दी हंसी हंसते हुए कहा.

शिवेश का जी चाहा कि एक जोरदार तमाचा जड़ दे.  ‘‘देखिए, हम लोग सरकारी दफ्तर में काम करते हैं. आखिरी लोकल मिस हो गई, इसलिए हम लोग फंस गए,’’ शिवेश ने समाने की कोशिश की. ‘‘वाह, यह तो और भी अजीब बात है. कौन सा सरकारी विभाग है, जहां रात के 12 बजे छुट्टी होती है? बेवकूफ बनाने की कोशिश न करो.’’ ‘‘ये रहे हमारे परिचयपत्र,’’ कहते हुए शिवेश ने अपना और शिवानी का परिचयपत्र दिखाया.  ‘‘ठीक है. अपने किसी भी औफिस वाले से बात कराओ, ताकि पता चल सके कि तुम लोग रात को 12 बजे तक औफिस में काम कर रहे थे,’’ इस बार पुलिस इंस्पैक्टर ने पूछा, जो वैन से बाहर आ गया था. ‘‘इतनी रात में किसे जगाऊं? सर, बात यह है कि हम ने औफिस के बाद नाइट शो का प्लान किया था. ये रहे टिकट,’’ शिवेश ने टिकट दिखाए.

‘‘मैं कुछ नहीं सुनूंगा. अब तो थाने चल कर ही बात होगी. चलो, दोनों को वैन में डालो,’’ इंस्पैक्टर वरदी के रोब में कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था.  शिवानी की आंखों में आंसू आ गए.  बुरी तरह घबराए हुए शिवेश की समा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? किसे फोन करे? अचानक एक सिपाही शिवेश को पकड़ कर वैन की तरफ ले जाने लगा.  शिवानी चीख उठी, ‘‘हैल्प… हैल्प…’’ लोगों की भीड़ तो इकट्ठा हुई, पर पुलिस को देख कर कोई सामने आने की हिम्मत नहीं कर पाया.

थोड़ी देर में एक अधेड़ औरत भीड़ से निकल कर सामने आई. ‘‘साहब नमस्ते. क्यों इन लोगों को तंग कर रहे हो? ये शरीफ इज्जतदार लोग हैं,’’ वह औरत बोली. ‘‘अब धंधे वाली बताएगी कि कौन शरीफ है? चल निकल यहां से, वरना तुझे भी अंदर कर देंगे,’’ एक सिपाही गुर्राया. ‘‘साहब, आप को भी मालूम है कि इस एरिया में कितनी धंधे वाली हैं. मैं भी जानती हूं कि यह औरत हमारी तरह  नहीं है.’’ ‘‘इस बात का देगी बयान?’’ ‘‘हां साहब, जहां बयान देना होगा, दे दूंगी. बुला लेना मुझे. हफ्ता बाकी है, वह भी दे दूंगी. लेकिन अभी इन को छोड़ दो,’’ इस बार उस औरत की आवाज कठोर थी. ‘हफ्ता’ शब्द सुनते ही पुलिस वालों को मानो सांप सूंघ गया. इस बीच भीड़ के तेवर भी तीखे होने लगे.

पुलिस वालों को समा में आ गया कि उन्होंने गलत जगह हाथ डाला है. ‘‘ठीक है, अभी छोड़ देते हैं, फिर कभी रात में ऐसे मत भटकना.’’ ‘‘वह तो कल हमारे मैनेजर ही एसपी साहब से मिल कर बताएंगे कि रात में उन के मुलाजिम क्यों भटक रहे थे,’’ शिवेश बोला.   ‘‘जाने दे भाई, ये लोग मोटी चमड़ी के हैं. इन पर कोई असर नहीं  होगा,’’ उस अधेड़ औरत ने शिवेश को समाते हुए कहा. ‘‘अब निकलो साहब,’’ उस औरत ने पुलिस इंस्पैक्टर से कहा. सारे पुलिस वाले उसे, शिवानी, शिवेश और भीड़ को घूरते हुए वैन में सवार हो गए. वैन आगे बढ़ गई. शिवेश और शिवानी ने राहत की सांस ली.

‘‘आप का बहुतबहुत शुक्रिया. आप नहीं आतीं तो उन पुलिस वालों को समाना मुश्किल हो जाता,’’ शिवानी ने उस औरत का हाथ पकड़ कर कहा.  ‘‘पुलिस वालों को समाना शरीफों के बस की बात नहीं. अब जाओ और स्टेशन के आसपास ही रहो,’’ उस अधेड़ औरत ने शिवानी से कहा. ‘‘फिर भी, आप का एहसान हम जिंदगीभर नहीं भूल पाएंगे. कभी कोई काम पड़े तो हमें जरूर याद कीजिएगा,’’ शिवेश ने अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर उसे देते हुए कहा. ‘‘यह कार्डवार्ड ले कर हम क्या करेंगे? रहने दे भाई,’’ उस औरत ने कार्ड लेने से साफ इनकार कर दिया.

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शिवानी ने शिवेश की तरफ देखा, फिर अपने पर्स से 500 रुपए का एक नोट निकाल कर उसे देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया. ‘‘कर दी न छोटी बात. तुम शरीफों की यही तकलीफ है. हर बात के लिए पैसा तैयार रखते हो. हर काम पैसे के लिए नहीं करती मैं…’’ उस औरत ने हंस कर कहा. ‘‘अब जाओ यहां से. वे दोबारा भी आ सकते हैं.’’ शिवेश और शिवानी की भावनाओं पर मानो घड़ों पानी फिर गया. वे दोनों वहां से स्टेशन की तरफ चल पड़े, पहली लोकल पकड़ने के लिए.  पहली लोकल मिली. फर्स्ट क्लास का पास होते हुए भी वे दोनों सैकंड क्लास के डब्बे में बैठ गए. ‘‘क्यों जी, आज सैकंड क्लास की जिद क्यों?’’ शिवानी ने पूछा.  ‘‘ऐसे ही मन किया. पता है, एक जमाने में ट्रेन में थर्ड क्लास भी हुआ करती थी,’’ शिवेश ने गंभीरता से कहा.

‘‘उसे हटाया क्यों?’’ शिवानी ने बड़ी मासूमियत से पूछा.  ‘‘सरकार को लगा होगा कि इस देश में 2 ही क्लास होनी चाहिए. फर्स्ट और सैकंड,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘क्योंकि, सरकार को यह अंदाजा हो गया कि जिन का कोई क्लास नहीं होगा, वे लोग ही फर्स्ट और सैकंड क्लास वालों को बचाएंगे और वह थर्ड, फोर्थ वगैरहवगैरह कुछ भी हो सकता है,’’ शिवेश ने हंसते हुए कहा.  ‘‘बड़ी अजीब बात है. अच्छा, उस औरत को किस क्लास में रखोगे?’’ शिवानी ने मुसकरा कर पूछा. ‘‘हर क्लास से ऊपर,’’ शिवेश ने जवाब दिया.  ‘‘सच है, आज के जमाने में खुद आगे बढ़ कर कौन इतनी मदद करता है.

हम जिस्म बेचने वालियों के बारे में न जाने क्याक्या सोचते रहते हैं. कम से कम अच्छा तो नहीं सोचते. वह नहीं आती तो पुलिस वाले हमें परेशान करने की ठान चुके थे. हमेशा सुखी रहे वह. अरे, हम ने उन का नाम ही नहीं पूछा.’’ ‘‘क्या पता, वह अपना असली नाम बताती भी या नहीं. वैसे, एक बात तो तय है,’’ शिवेश ने कहा. ‘‘क्या…?’’ ‘‘अब हम कभी आखिरी लोकल पकड़ने का खतरा नहीं उठाएंगे. चाहे तुम्हारे हीरो की कितनी भी अच्छी फिल्म क्यों न हो?’’ शिवेश ने उसे चिढ़ाने की कोशिश की.

‘‘अब इस में उस बेचारे का क्या कुसूर है? चलो, अब ज्यादा खिंचाई  न करो. मो सोने दो,’’ शिवानी ने अपना सिर उस के कंधे पर टिकाते  हुए कहा. ‘‘अच्छा, ठीक है,’’ शिवेश ने बड़े प्यार से शिवानी की तरफ देखा. कई स्टेशनों पर रुकते हुए लोकल ट्रेन यानी मुंबई के ‘जीवन की धड़कन’ चल रही थी.

शिवेश सोच रहा था, ‘सचमुच जिंदगी के कई पहलू दिखाती है यह लोकल. आखिरी लोकल ट्रेन छूट जाए तब भी और पकड़ने के बाद तो खैर कहना ही क्या…’ शिवेश ने शिवानी की तरफ देखा, उस के चेहरे पर बेफिक्री के भाव थे. बहुत प्यारी लग रही थी वह.

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