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लेखक-  राजीव रोहित

शिवानी और शिवेश दोनों मुंबई के शिवाजी छत्रपति रेलवे स्टेशन पर लोकल से उतर कर रोज की तरह अपने औफिस की तरफ जाने के लिए मुड़ ही रहे थे कि शिवानी ने कहा, ‘‘सुनो, आज मुझे नाइट शो में ‘रईस’ देखनी ही देखनी है, चाहे कुछ भी हो जाए.’’ ‘‘अरे, यह कैसी जिद है?’’

शिवेश ने हैरान हो कर कहा. ‘‘जिदविद कुछ नहीं. मुझे बस आज फिल्म देखनी है तो देखनी है,’’ शिवानी ने जैसे फैसला सुना दिया हो.  ‘‘अच्छा पहले इस भीड़ से एक तरफ आ जाओ, फिर बात करते हैं,’’ शिवेश ने शिवानी का हाथ पकड़ कर एक तरफ ले जाते हुए कहा.

‘‘आज तो औफिस देर तक रहेगा. पता नहीं, कितनी देर हो जाएगी. तुम तो जानती हो,’’ शिवेश ने कहा.  ‘‘मुझे भी मालूम है. पर जनाब, इतनी भी देर नहीं लगने वाली है. ज्यादा बहाना बनाने की जरूरत नहीं है. यह कोई मार्च भी नहीं है कि रातभर रुकना पड़ेगा. सीधी तरह बताओ कि आज फिल्म दिखाओगे या नहीं?’’

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‘‘अच्छा, कोशिश करूंगा,’’ शिवेश ने मरी हुई आवाज में कहा.

‘‘कोशिश नहीं जी, मुझे देखनी है तो देखनी है,’’ शिवानी ने इस बार थोड़ा मुसकरा कर कहा. शिवेश ने शिवानी की इस दिलकश मुसकान के आगे हथियार डाल दिए.

‘‘ठीक है बाबा, आज हम फिल्म जरूर देखेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए.’’  शिवानी की इसी मुसकान पर तो शिवेश कालेज के जमाने से ही अपना दिल हार बैठा था. दोनों ही कालेज के जमाने से एकदूसरे को जानते थे, पसंद करते थे.  शिवानी ने उस के प्यार को स्वीकार तो किया था, लेकिन एक शर्त भी रख दी थी कि जब तक दोनों को कोई ढंग की नौकरी नहीं मिलेगी, तब तक कोई शादी की बात नहीं करेगा.

शिवेश ने यह शर्त खुशीखुशी मान ली थी. दोनों ही प्रतियोगिता परिक्षाओं की तैयारी में जीजान से लग गए थे. आखिरकार दोनों को कामयाबी मिली. पहले शिवेश को एक निजी पर सरकार द्वारा नियंत्रित बीमा कंपनी में क्लर्क के पद पर पक्की नौकरी मिल गई, फिर उस के 7-8 महीने बाद शिवानी को भी एक सरकारी बैंक में अफसर के पद पर नौकरी मिल गई थी.

मुंबई में उन का यह तीसरा साल था. तबादला तो सरकारी कर्मचारी की नियति है. हर 3-4 साल के अंतराल पर उन का तबादला होता रहा था. 15 साल की नौकरी में अब तक दोनों 3 राज्यों के  4 शहरों में नौकरी कर चुके थे.  शिवानी ने इस बार तबादले के लिए मुंबई आवेदन किया था. दोनों को मुंबई अपने नाम से हमेशा ही खींचती आई थी. वैसे भी इस देश में यह बात आम है कि किसी भी शहर के नागरिकों में कम से कम एक बार मुंबई घूमने की ख्वाहिश जरूर होती है. कुछ लोगों को यह इतनी पसंद आती है कि वे मुंबई के हो कर ही रह जाते हैं.

इस शहर की आबादी दिनोंदिन बढ़ते रहने की एक वजह यह भी है. हालांकि शिवानी और शिवेश ने अभी तक मुंबई में बस जाने का फैसला नहीं लिया था, फिर भी फिलहाल मुंबई में कुछ दिन बिताने के बाद वे यहां के लाइफ स्टाइल से अच्छी तरह परिचित तो हो ही चुके थे.  वे तकरीबन पूरी मुंबई घूम चुके थे. जब कभी उन की मुंबई घूमने की इच्छा होती थी, तो वे मुंबई दर्शन की बस में बैठ जाते और पूरी मुंबई को देख लेते थे. अपने रिश्तेदारों के साथ भी वे यह तकनीक अपनाते थे.

कभीकभी जब शिवानी की इच्छा होती तो दोनों अकसर शनिवार की रात कोई फिल्म देख लेते थे. खासतौर पर जब शाहरुख खान की कोई नई फिल्म लगती तो शिवानी फिर जिद कर के रिलीज के दूसरे दिन यानी शनिवार को ही वह फिल्म देख लेती थी. आज भी उस के पसंदीदा हीरो की फिल्म की रिलीज का दूसरा ही दिन था. समीक्षकों ने फिल्म की धज्जियां उड़ा दी थीं, फिर भी शिवानी पर इस का कोई असर नहीं पड़ा था. बस देखनी है तो देखनी है.

‘‘ये फिल्मों की समीक्षा करने वाले फिल्म बनाने की औकात रखते हैं क्या?’’ वह चिढ़ कर कहती थी.  ‘‘ऐसा न कहो.

सब लोग अपने पेशे के मुताबिक ही काम करते हैं. समीक्षक  भी फिल्म कला से अच्छी तरह परिचित होते हैं. प्रजातांत्रिक देश है मैडमजी. कहने, सुनने और लिखने की पूरीपूरी आजादी है.  ‘‘यहां लोग पहले की समीक्षाएं पढ़ कर फिल्म समीक्षा करना सीखते हैं, जबकि विदेशों में फिल्म समीक्षा  भी पढ़ाई का एक जरूरी अंग है,’’ शिवेश अकसर समझाने की कोशिश करता था. ‘‘बसबस, ज्यादा ज्ञान देने की जरूरत नहीं. मैं समझ गई. लेकिन फिल्म मैं जरूर देखूंगी,’’ अकसर किसी भी बात का समापन शिवानी हाथ जोड़ते हुए मुसकरा कर अपनी बात कहती थी और शिवेश हथियार डाल देता था. आज भी वैसा ही हुआ. ‘‘अच्छा चलो महारानीजी, तुम जीती मैं हारा. रात का शो हम देख रहे हैं. अब खुश?’’ शिवेश ने भी हाथ जोड़ लिए.  ‘‘हां जी, जीत हमेशा पत्नी की होनी चाहिए.’’  ‘‘मान लिया जी,’’ शिवेश ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मन तो कर रहा है कि तुम्हारा मुंह  चूम लूं, लेकिन जाने दो. बच गए. पब्लिक प्लेस है न,’’ शिवानी ने बड़ी अदा से कहा. इस मस्ती के बाद दोनों अपनेअपने औफिस की तरफ चल दिए. औफिस पहुंच कर दोनों अपने काम में बिजी हो गए. काम निबटातेनिबटाते कब साढ़े  5 बज जाते थे, किसी को पता ही नहीं चलता था. शिवेश ने आज के काम जल्दी निबटा लिए थे. ऐसे भी अगले दिन रविवार की छुट्टी थी.

लिहाजा, आराम से रात के शो में फिल्म देखी जा सकती थी. उस ने शिवानी से बात करने का मन बनाया. अपने मोबाइल से उस ने शिवानी को फोन लगाया. ‘हांजी पतिदेव महोदय, क्या इरादा है?’ शिवानी ने फोन उठाते हुए पूछा. ‘‘जी महोदया, मेरा काम तो पूरा हो चुका है. क्या हम साढ़े 6 बजे का शो भी देख सकते हैं?’’ ‘जी नहीं, माफ करें स्वामी. हमारा काम खत्म होने में कम से कम एक घंटा और लगेगा. आप एक घंटे तक मटरगश्ती भी कर सकते हैं,’ शिवानी ने मस्ती में कहा.

‘‘आवारागर्दी से क्या मतलब है तुम्हारा?’’ शिवेश जलभुन गया.

‘अरे बाबा, नाराज नहीं होते. मैं तो मजाक कर रही थी,’ कह कर शिवानी हंस पड़ी थी.  ‘‘मैं तुम्हारे औफिस आ जाऊं?’’ ‘नो बेबी, बिलकुल नहीं. तुम्हें यहां चुड़ैलों की नजर लग जाएगी. ऐसा करो, तुम सिनेमाघर के पास पहुंच जाओ. वहां किताबों की दुकान है. देख लो कुछ नई किताबें आई हैं क्या?’ ‘‘ठीक है,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘और हां, टिकट खरीदने की बारी तुम्हारी है. याद है न?’’ ‘हां जी याद है. अब चलो फोन रखो,’ शिवानी ने हंस कर कहा.

शिवेश औफिस से निकल कर सिनेमाघर की तरफ चल पड़ा. मुंबई में ज्यादातर सिनेमाघर अब मल्टीप्लैक्स में शिफ्ट हो गए थे. यह हाल अभी तक सिंगल स्क्रीन वाला था. स्टेशन के नजदीक होने के चलते यहां किसी भी नई फिल्म का रिलीज होना तय था. मुंबई का छत्रपति शिवाजी रेलवे टर्मिनस, जो पहले विक्टोरिया टर्मिनस के नाम से मशहूर था, आज भी पुराने छोटे नाम ‘वीटी’ से ही मशहूर था.

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स्टेशन से लगा हुआ बहुत बड़ा बाजार था, जहां एक से एक हर किस्म के सामानों की दुकानें थीं. हुतात्मा चौक के पास फुटपाथों पर बिकने वाली किताबों की खुली दुकानों के अलावा भी किताबों की दुकानों की भरमार थी.  रेलवे स्टेशन से गेटवे औफ इंडिया तक मुंबई 2 भागों डीएन रोड और फोर्ट क्षेत्र में बंटा हुआ था. दुकानें दोनों तरफ थीं. एक मल्टीस्टोर भी था. यहां सभी ब्रांडों के म्यूजिक सिस्टम मिलते थे. इस के अलावा नईपुरानी फिल्मों की सीडी या फिर डीवीडी भी मिलती थी.

शिवेश ने यहां अकसर कई पुरानी फिल्मों की डीवीडी और सीडी खरीदी  थी. आज  उस के पास किताबें और फिल्मों की डीवीडी और सीडी भरपूर मात्रा में थीं. हिंदी सिनेमा के सभी कलाकारों की पुरानी से पुरानी और नई फिल्मों की उस ने इकट्ठी कर के रखी थीं. ‘चलो आज नई किताबें ही देख लेते हैं,’ यह सोच कर के वह किताबों की दुकान में घुसने ही वाला था कि सामने एक पुराना औफिस साथी नरेश दिख दिख गया.

‘‘अरे शिवेश, आज इधर?’’  ‘‘हां, कुछ किताबें खरीदनी थीं,’’ शिवेश ने जवाब दिया.  ‘‘तुम तो दोनों कीड़े हो, किताबी भी और फिल्मी भी. फिल्में नहीं खरीदोगे?’’ ‘‘वे भी खरीदनी हैं, पर ब्रांडेड खरीदनी हैं.’’ ‘‘फिर तो इंतजार करना होगा. नई फिल्में इतनी जल्दी तो आएंगी नहीं.’’ ‘‘वह तो है, इसलिए आज सिर्फ किताबें खरीदनी हैं. आओ, साथ में अंदर चलो.’’

‘‘रहने दो यार. तुम तो जानते ही हो, किताबों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा है,’’ यह कह कर हंसते हुए नरेश वहां से चला गया. शिवेश ने चैन की सांस ली कि चलो पीछा छूटा. इस बीच मोबाइल की घंटी बजी. ‘कहां हो बे?’ शिवानी ने पूछा.

‘‘अरे यार, कोई आसपास नहीं है क्या? कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?’’ शिवेश ने झूठी नाराजगी जताई. शिवानी अकसर टपोरी भाषा में बात करती थी.  ‘अरे कोई नहीं है. सब लोग चले गए हैं. मैं भी शटडाउन कर रही हूं. बस निकल ही रही हूं.’ ‘‘इस का मतलब है, औफिस तुम्हें ही बंद करना होगा.’’ ‘बौस है न बैठा हुआ. वह करेगा औफिस बंद. पता नहीं, क्याक्या फर्जी आंकड़े तैयार कर रहा है?’ ‘‘मार्केटिंग का यही तो रोना है बेबी. खैर, छोड़ो. अपने को क्या करना है. तुम बस निकल लो यहां के लिए.’’

‘हां, पहुंच जाऊंगी.’ ‘‘साढ़े 9 बजे का शो है. अब भी सोच लो.’’ ‘अब सोचना क्या है जी. देखना है तो बस देखना है. भले ही रात स्टेशन पर गुजारनी पड़े.’ ‘‘पूछ कर गलती हो गई जानेमन. सहमत हुआ. देखना है तो देखना है.’’ शिवेश ने बात खत्म की और किताब  की दुकान के अंदर चला गया.

शिवेश ने कुछ किताबें खरीदीं और फिर बाहर आ कर शिवानी का इंतजार करने लगा. थोड़ी देर में ही शिवानी आ गई. दोनों सिनेमाघर पहुंच गए, जो वहां से कुछ ही दूरी पर था. भीड़ बहुत ज्यादा नजर नहीं आ रही थी.  ‘‘देख लो, तुम्हारे हीरो की फिल्म के लिए कितनी जबरदस्त भीड़ है,’’ शिवेश ने तंज कसते हुए कहा.  ‘‘रात का शो है न, इसलिए भी कम है.’’ शिवानी हार मानने वालों में कहां थी.  ‘‘बिलकुल सही. चलो टिकट लो,’’ शिवेश ने शिवानी से कहा.

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‘‘लेती हूं बाबा. याद है मुझे कि  आज मेरी  बारी है,’’ शिवानी ने हंसते हुए कहा.  शिवानी ने टिकट ली और शिवेश के साथ एक कोने में खड़ी हो गई.  शो अब शुरू ही होने वाला था. दोनों सिनेमाघर के अंदर चले गए. परदे पर फिल्म रील की लंबाई देख कर दोनों चिंतित हो गए. ‘‘ठीक 12 बजे हम लोग बाहर निकल जाएंगे, वरना आखिरी लोकल मिलने से रही,’’ शिवेश ने धीमे से शिवानी के कान में कहा.  ‘‘जो हो जाए, पूरी फिल्म देख कर ही जाएंगे.’’ ‘‘ठीक है बेबी. आज पता चलेगा कि नाइट शो का क्या मजा होता है.’’  फिर दोनों फिल्म देखने में मशगूल हो गए.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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