लेखक- मधु शर्मा कटिहा

‘‘बाजार से खाने के लिए कुछ ले आती हूं,’’  झुमकी पलंग पर लेटे बिछुआ को देख कर बोली और बाहर निकल गई.  बटुए से पैसे निकाल कर गिनते हुए  झुमकी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंची हुई थीं. उत्तर प्रदेश के कमालपुर गांव से वह अपने बीमार पति बिछुआ का इलाज कराने दिल्ली आई थी. उसे यहां आए हुए 2 हफ्ते हो चुके थे. कोई जानपहचान वाला तो था नहीं, सो अस्पताल के पास ही एक कमरा किराए पर ले कर रह रही थी.

कई दिनों से चल रही जांच के बाद ही पता लग पाया कि बिछुआ के पेट की छोटी आंत में एक गांठ थी. आपरेशन जल्द कराने को कह रहे थे अस्पताल वाले, लेकिन  झुमकी यह सोच कर परेशान थी कि पैसों का जुगाड़ कैसे होगा? सरकारी अस्पताल है तो क्या हुआ... कुछ खर्चा तो होगा ही आपरेशन का. फिर इस कमरे का किराया, खानापीना और बिछुआ की दवाएं... पैसे के बिना तो कुछ मुमकिन था ही नहीं. क्या बिछुआ का इलाज कराए बिना ही वापस लौट जाना पड़ेगा?

सड़क पर चलते हुए अचानक ही  झुमकी को किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी. पास जा कर देखा तो एक 35-40 साल की औरत जमीन पर गिरी हुई थी. उठने की भरपूर कोशिश करने के बावजूद वह उठ नहीं पा रही थी.  झुमकी ने सहारा दे कर उसे उठाया और पास ही पड़े एक बड़े से पत्थर पर बैठा दिया.

झुमकी को उस औरत ने बताया कि वह आराम से चलती हुई जा रही थी कि अचानक एक लड़का तेजी से साइकिल चलाता हुआ पीछे से आया और धक्का मार दिया. उस के धक्के से वह इतनी जोर से गिरी कि एक पैर बुरी तरह मुड़ गया और कुहनियां भी छिल गईं.

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