दिल आज फिर दिमाग से विद्रोह कर बैठा. क्या ऐसी ही जिंदगी की उम्मीद की थी उस ने? क्या ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने? खुद वह कितनी संभावनाओं से भरी हुई थी, अपना रास्ता तलाश कर मंजिल तक पहुंचना वह जानती है, रिश्तों के तारों के छोर सहला कर उन्हें जोड़ना भी उसे आता है. जीवनसाथी ऐसा हो जिस पर नाज कर सके. उस का कोई तो रूप ऐसा हो, वह शारीरिक रूप से ताकतवर हो या मानसिक रूप से परिपक्व हो, खुला व्यक्तित्व हो या फिर आर्थिक रूप से हर सुख दे सके या फिर भावनात्मक रूप से इतना प्रेमी हो कि उस के माधुर्य में डूब जाओ. कोई तो कारण होना चाहिए किसी पर आसक्ति का. प्यार सिर्फ साथ रहने भर से हो सकता है, एकदूसरे की कुछ मूलभूत जरूरतें पूरी करने से हो सकता है. लेकिन आसक्ति, बिना काण नहीं हो सकती.
छलकपट से भरा दिमाग, कभी किसी को निस्वार्थ प्यार नहीं कर सकता और न पा सकता है. ऐसे इंसान पर प्यार लुटाना लुटने जैसा प्रतीत होता है. दिमाग समझता है जिंदगी को नहीं बदल सकते हम. इंसान को नहीं बदल सकते. पति की काबिलीयत, स्वभाव या क्षमता को घटाबढ़ा नहीं सकते, सबकुछ ले कर चालाकी से अपनी टांग ऊपर रखने की आदत को नहीं बदल सकते. पर खुद को बदल सकते हैं, खुद के नजरिए को बदल सकते हैं. दिमाग की यह घायल समझ दिल से आंसुओं के सैलाब में बह जाती है जब दिल नहीं सुन पाता है किसी की, जब दिल खुद से ही तर्क करने लग जाता है. पूरी जिंदगी रीत गई, अब क्या समेटना है. अब तक जिंदगी के हर पहलू को अपने सकारात्मक नजरिए से देखती रही. पर कब तक दिल में उठ रही नफरत को दबाती रहती. क्या किसी ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने जो सिर्फ बिस्तर पर ही रोमांटिक प्रणयी हो.
आज वैभवी के दिल के तार झनझना गए थे. उस के पिताजी ने अपनी छोटी सी जायदाद के 2 हिस्से कर अपने दोनों बच्चों में बांट दिए थे. भैया का परिवार मुंबई में रहता था. उस की नौकरी वहीं पर थी. वह खुद दिल्ली में रहती थी और मांपिताजी चंडीगढ़ में रहते थे. डाक्टर ने पिताजी को हर्निया का औपरेशन कराने के लिए कह दिया था. पिताजी काफी समय से तकलीफ में थे. जब वह पिछली बार चंडीगढ़ गई थी तो मां ने पिताजी की तकलीफ के बारे में उसे बताया था. वह विचलित हो गई थी. उस ने भैया से फोन पर बात की तो भाई ने यह कह कर मजबूरी जता दी थी कि इतनी छुट्टी उसे एकसाथ नहीं मिल सकती कि वह चंडीगढ़ जा कर औपरेशन करा सके और साथ ही मां से तेरी भाभी की बिलकुल नहीं बनती, इसलिए मुंबई ला कर भी औपरेशन की बात नहीं सोच सकता.
‘‘वैसे भी तू जानती है वैभवी, छोटा सा फ्लैट, पढ़ने वाले बच्चे, बीमार आदमी के साथ बडे़ शहर में बहुत मुश्किल हो जाती है,’’ भैया ने मजबूरी जताते हुए कहा.
‘‘तो फिर क्या पिताजी को ऐसे ही तकलीफ में मरने के लिए छोड़ दें,’’ वैभवी के स्वर में तल्खी आ गई थी.
‘‘तो फिर तू चली जा या फिर प्रकाश चला जाए. उस की तो सरकारी नौकरी है, छुट्टी मिलने में इतनी दिक्कत भी नहीं होगी,’’ उस के स्वर की तल्खी भांप कर वह भी चिढ़ गया था.
‘‘लेकिन भैया, बेटे के होते हुए दामाद का एहसान लेना क्या ठीक है?’’ वह अपने को संयमित कर लाचारी से बोली थी.
‘‘क्यों? जब हिस्सा मिला तब तो बेटीदामाद जैसी कोई बात नहीं हुई और जब जिम्मेदारी निभाने की बात आई तो वह दामाद हो गया,’’ भैया भुन्नाता हुआ बोला.
वह दुखी हो गई थी. दिल किया कि कोई तीखा सा जवाब दे दे. पर चुप रह गई. आखिर गलत भी नहीं कहा था. पर यह सब कहने का अधिकार भी भैया को तब ही था जब वह अपने कर्तव्य का हर समय पालन करता.
वह तो जायदाद में हिस्सा बिलकुल भी नहीं चाहती थी. उस ने पिताजी को बहुत मना भी किया था पर एक तो मांपिताजी की जिद और दूसरे, प्रकाश की चाहत भांप कर उस ने हां बोल दी. सोचा, जायदाद पा कर ही सही, प्रकाश उस के मांपिताजी के लिए नरम रुख अपना ले. इस के अलावा जरूरत पड़ने पर उसे चंडीगढ़ जाने में भी आसानी हो जाएगी. एकदम मना नहीं कर पाएगा प्रकाश उसे. पर भैया के व्यवहार में तब से तटस्थता आ गई थी. भाभी तो हमेशा से ही तटस्थ थीं. पर भैया का व्यवहार वैसे सामान्य था. उसे अपनी परवा नहीं थी. बस, मांपिताजी का ध्यान रख ले भैया, इसी से वह खुश रहती. पर भैया के जवाब से उस का दिल टूट गया था. भैया का अगर जवाब ऐसा है तो प्रकाश का जवाब तो वह पहले से ही जानती है. फिर भी उस ने सोचा एक बार तो प्रकाश से बात कर के देख ले. उस से और मां से पिताजी के औपरेशन का तामझाम नहीं संभलेगा. कोई भी परेशानी खड़ी हो गई तो एक पुरुष का साथ तो होना ही चाहिए औपरेशन के समय. प्रकाश का मूड ठीक सा भांप कर एक दिन उस ने प्रकाश से बात कर ही ली.
‘‘पिताजी की तकलीफ बढ़ती ही जा रही है प्रकाश, कल भी बात हुई थी मां से. डाक्टर कह रहे हैं कि समय से औपरेशन करवा लो.’’
‘‘हां तो करवा लें,’’ प्रकाश के चेहरे के भाव एकदम से बदल गए थे.
‘‘तुम चलोगे चंडीगढ़, कुछ दिन की छुट्टी ले कर?’’
‘‘क्यों, उन के बेटे का क्या हुआ?’’
‘‘किस तरह से बोल रहे हो, प्रकाश. बात की थी मैं ने भैया से, छुट्टी नहीं मिल रही उन्हें. थोड़े दिन की छुट्टी तुम ले लो न. औपरेशन करवा कर तुम आ जाना. फिर कुछ दिन मैं रह लूंगी. फिर थोड़े दिन के लिए भैया भी आ जाएंगे. तो पिताजी की देखभाल हो जाएगी.’’
‘‘मुझे भी छुट्टी नहीं मिलेगी अभी,’’ कह कर प्रकाश उठ कर बैडरूम की तरफ चल दिया, ‘‘और हां,’’ वह रुक कर बोला, ‘‘तुम भी वहां लंबा नहीं रह सकती हो, यहां खानेपीने की दिक्कत हो जाएगी मुझे,’’ इतना कह कर प्रकाश चला गया.
उस ने भी हार नहीं मानी. और उस के पीछे चल दी, चलतेचलते उस ने कहा, ‘‘प्रकाश, उन्होंने हम दोनों भाईबहन को अपना सबकुछ बांट दिया है तो हमारा भी तो उन के प्रति फर्ज बनता है.’’
‘‘तो,’’ प्रकाश तल्खी से बोला, ‘‘बेटी को ही दिया है क्या, बेटे को नहीं दिया, वह क्यों नहीं आ जाता?’’