हाईकोर्ट में सुनवाई का दौर शुरू हो चुका था. वे पांचों जेल के अंदर जितनी योजनाएं बनाते, उन में कहीं न कहीं कोई गलती नजर आती. एकदम जबरदस्त प्लान नहीं था उन के पास. शायद उन के अंदर पकड़े जाने का डर था. वे भागने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे. योजना पर बात करते लंबा समय हो गया था.
झुंझला कर पहले कैदी ने कहा, ‘‘आजादी का सपना अब सपना ही रहेगा. हमारे नसीब में कैद ही है. हम क्यों बात कर के अपना दिमाग खराब कर रहे हैं.’’
दूसरे कैदी ने कहा, ‘‘हां, एक ही बात बारबार करने से दिमाग पक चुका है. तय कर लो कि भागना है या नहीं.’’
तीसरे कैदी ने कहा, ‘‘कोई तो रास्ता होगा यहां से निकलने का. क्या हम उम्रभर जेल में सड़ते रहेंगे.’’
चौथे कैदी ने कहा, ‘‘उम्रकैद का मतलब है पूरी जिंदगी जेल में. जब तक शरीर में जान है, तब तक कैद में.’’
अब 5वें यानी उस की बारी थी. उस ने कहा, ‘‘मुझे तो सोच कर ही घबराहट होती है कि हमारी लाश जेल से बाहर जाएगी. मैं बिना कुसूर के जेल में सड़ने को तैयार नहीं हूं.
‘‘किस आदमी ने बनाया कैदखाना. कितना जालिम होगा वह. मैं कोई तोता नहीं हूं कि पिंजरे में कैद रहूं. अगर कोई कुसूरवार है तब भी उसे किसी दूसरे किस्म की सजा दी जा सकती है.
‘‘कैदखाना वह जगह है जहां आदमी पलपल मरता है. उसे दूर कर दिया जाता है अपने परिवार से, अपनी जिम्मेदारियों से.
‘‘मेरे बूढ़े बाप का क्या कुसूर है? उन्हें किस बात की सजा दी जा रही है? क्या गुनाह है उस बेटी का जिस से छीन लिया जाता है उस का पिता? क्या गुनाह है उस बेटे का जिसे बाप के होते हुए यतीम कर दिया जाता है? उस मां के बारे में नहीं सोचा कैद करने वाले ने कि उस की देखरेख कौन करेगा? उस पत्नी का क्या जो जीतेजी विधवा की जिंदगी भोगती है. हमें मौत की सजा दे दो. कम से कम बाहर कोई इंतजार तो न करता रहे.
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