अगर शीला कभी दबी जबान से कह देती, ‘‘माताजी, आप को ध्यान नहीं रहा है. घी आप ने पिछले महीने दिया था, कल तो तेल निकाला था. बाबूजी परसों बाजार से नमक लाए थे, शक्कर तो वे 15 दिन पहले लाए थे,’’ तो रमेश की मां पैतरा बदल कर गरजतीं, ‘‘हांहां, मैं तो सठिया गईर् हूं. मु?ो कुछ याद थोड़े ही रहता है. देखो तो... मु?ा से जबान लड़ाती है. तेरे बाप के घर में हराम की कमाई आती होगी. सो, तेरी मां फूहड़पन से लुटाती होगी. यहां तो बीस नाखूनों की कमाई खाते हैं. अगर आंख खोल कर न चलें, तो रोटी मिलना भी मुश्किल हो जाए. अभी तो मेरा खसम ही सारे घर को कमा कर खिला रहा है. जिस दिन रमेश कमाने लगेगा, उस दिन तो तू बोलने भी नहीं देगी.’’
शीला के सब्र ने रमेश की मां को पागल सा बना दिया था. वे चाहती थीं कि बहू उन से लड़े, जिस से उन्हें बात आगे बढ़ाने का मौका मिले. पर रमेश की मां के तीखे वचन शीला की चुप्पी में इस तरह घुल जाते, जैसे पानी में अंगारा बु?ा जाता है.
कहने का कोई खास असर न देख कर सास ने और तरीका शुरू किया. वे ढके हुए दूध, घी, चीनी, आटे को खोल कर रख देतीं और सब को दिखादिखा कर शीला को ‘लापरवाह’, ‘फूहड़’ कहतीं. आंख बचा कर दालसाग में नमक डाल देतीं और घर वालों द्वारा ज्यादा नमक की शिकायत करने पर बरस पड़तीं, ‘‘इसे घर का काम कुछ आता ही नहीं है. आए भी कहां से? कल तक तो पढ़ने के बहाने शहर में घूमती फिरी है. अब भला घर में इस का मन लगेगा?’’
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