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लेखक- कमल कपूर

भोर हुई तो चिरैया का मीठासुरीला स्वर सुन कर पूर्वा की नींद उचट गई. उस की रिस्टवाच पर नजर गई तो उस ने देखा अभी तो 6 भी नहीं बजे हैं. ‘छुट्टी का दिन है. न अरुण को दफ्तर जाना है और न सूर्य को स्कूल. फिर क्या करूंगी इतनी जल्दी उठ कर? क्यों न कुछ देर और सो लिया जाए,’ सोच कर उस ने चादर तान ली और करवट बदल कर फिर से सोने की कोशिश करने लगी. लेकिन फोन की बजती घंटी ने उस के छुट्टी के मूड की मिठास में कुनैन घोल दी. सुस्त मन के साथ वह फोन की ओर बढ़ी. इंदु भाभी का फोन था.

‘‘इंदु भाभी आप? इतनी सुबह?’’ वह बोली.

‘‘अब इतनी सुबह भी नहीं है पुरवैया रानी, तनिक परदा हटा कर खिड़की से झांक कर तो देख, खासा दिन चढ़ गया है. अच्छा बता, कल शाम सैर पर क्यों नहीं आई?’’

‘‘यों ही इंदु भाभी, जी नहीं किया.’’

‘‘अरी, आती तो वे सब देखती, जो इन आंखों ने देखा. जानती है, तेरे वे संदीप भाई हैं न, उन्होंने…’’

और आगे जो कुछ इंदु भाभी ने बताया उसे सुन कर तो जैसे पूर्वा के पैरों तले की जमीन ही निकल गई. रिसीवर हाथ से छूटतेछूटते बचा. अपनेआप को संभाल कर वह बोली, ‘‘नहीं इंदु भाभी, ऐसा हो ही नहीं सकता. मैं संदीप भाई को अच्छी तरह जानती हूं, वे ऐसा कर ही नहीं सकते. आप से जरूर देखने में गलती हुई होगी.’’

‘‘पूर्वा, मैं ने 2 फुट की दूरी से उस मोटी खड़ूस को देखा है. बस, लड़की कौन है, यह देख न पाई. उस की पीठ थी मेरी तरफ.’’

इंदु भाभी अपने खास अक्खड़ अंदाज में आगे क्या बोल रही थीं, कुछ सुनाई नहीं दे रहा था पूर्वा को. रिसीवर रख कर जैसेतैसे खुद को घसीटते हुए पास ही रखे सोफे तक लाई और बुत की तरह बैठ गई उस पर. सुबहसुबह यह क्या सुन लिया उस ने? साक्षी के साथ इतनी बड़ी बेवफाई कैसे कर सकते हैं संदीप भाई और वह भी इतनी जल्दी? अभी वक्त ही कितना हुआ है उस हादसे को हुए. बमुश्किल 8 महीने ही तो. हां, 8 महीने पहले की ही तो बात है, जब भोर होते ही इसी तरह फोन की घंटी बजी थी. वह दिन आज भी ज्यों का त्यों उस की यादों में बसा है…

उस रात पूर्वा बड़ी देर से अरुण और सूर्य के साथ भाई की शादी से लौटी थी. थकान और नींद से बुरा हाल था, इसलिए आते ही बिस्तर पर लेट गई थी. आंख लगी ही थी कि रात के सन्नाटे को चीरती फोन की घंटी ने उसे जगा दिया. घड़ी पर नजर गई तो देखा 4 बजे थे. ‘जरूर मां का फोन होगा… जब तक बेटी के सकुशल पहुंचने की खबर नहीं पा लेंगी उन्हें चैन थोड़े ही आएगा,’ सोचते हुए वह नींद में भी मुसकरा दी, लेकिन आशा के एकदम विपरीत संदीप का फोन था.

‘पूर्वा भाभी, मैं संदीप बोल रहा हूं,’ संदीप बोला.

वह चौंकी, ‘संदीप भाई आप? इतनी सुबह? सब ठीक तो है न?’

‘कुछ ठीक नहीं है पूर्वा भाभी, साक्षी चली गई,’ भीगे स्वर में वह बोला था.

‘साक्षी चली गई? कहां चली गई संदीप भाई? कोई झगड़ा हुआ क्या आप लोगों में? आप ने उसे रोका क्यों नहीं?’

‘भाभी… वह चली गई हमेशा के लिए…’

‘क्या? संदीप भाई, यह क्या कह रहे हैं आप? होश में तो हैं? कहां है मेरी साक्षी?’ पागलों की तरह चिल्लाई पूर्वा.

‘पूर्वा, वह मार्चुरी में है… हम अस्पताल में हैं… अभी 2-3 घंटे और लगेंगे उसे घर लाने में, फिर जल्दी ही ले जाएंगे उसे… तुम समझ रही हो न पूर्वा? आखिरी बार अपनी सहेली से मिल लेना…’ यह सुनंदा दीदी थीं. संदीप भाई की बड़ी बहन.

फोन कट चुका था, लेकिन पूर्वा रिसीवर थामे जस की तस खड़ी थी. तभी अपने कंधे पर किसी हाथ का स्पर्श पा कर डर कर चीख उठी वह.

‘अरेअरे, यह मैं हूं पूर्वा,’ अरुण ने सामने आ कर उसे बांहों में भर लिया, ‘बहुत बुरा हुआ पूर्वा… मैं ने सब सुन लिया है. अब संभालो खुद को,’ उसे सहारा दे कर अरुण पलंग तक ले गए और तकिए के सहारे बैठा कर कंबल ओढ़ा दिया, ‘सब्र के सिवा और कुछ नहीं किया जा सकता है पूर्वा. मुझे संदीप के पास जाना चाहिए,’ कोट पहनते हुए अरुण ने कहा तो पूर्वा बोली, ‘मैं भी चलूंगी अरुण.’

‘तुम अस्पताल जा कर क्या करोगी? साक्षी तो…’ कहतेकहते बात बदल दी अरुण ने, ‘सूर्य जाग गया तो रोएगा.’

अरुण दरवाजे को बाहर से लौक कर के चले गए. कैसे न जाते? उन के बचपन के दोस्त थे संदीप भाई. उन की दोस्ती में कभी बाल बराबर भी दरार नहीं आई, यह पूर्वा पिछले 9 साल से देख रही थी. पिछली गली में ही तो रहते हैं, जब जी चाहता चले आते. यों तो संदीप अरुण के हमउम्र थे, लेकिन विवाह पहले अरुण का हुआ था. संदीप भाई को तो कोई लड़की पसंद ही नहीं आती थी. खुद तो देखने में ठीकठाक ही थे, लेकिन अरमान पाले बैठे थे स्वप्नसुंदरी का, जो उन्हें सुनंदा दीदी के देवर की शादी में कन्या पक्ष वालों के घर अचानक मिल गई. बस, संदीप भाई हठ ठान बैठे और हठ कैसे न पूरा होता? आखिर मांबाप के इकलौते बेटे और 2 बहनों के लाड़ले छोटे भाई जो थे. लड़की खूबसूरत, गुणवान और पढ़ीलिखी थी, फिर भी मां बहुत खुश नहीं थीं, क्योंकि उन की तुलना में लड़की वालों का आर्थिक स्तर बहुत कम था. लड़की के पिता भी नहीं थे. बस मां और एक छोटी बहन थी.

बिना मंगनीटीका या सगाई के सीधे विवाह कर दुलहन को घर ले आए थे संदीप भाई के घर वाले. साक्षी सुंदर और सादगी की मूरत थी. पूर्वा ने जब पहली बार उसे देखा था, तो संगमरमर सी गुडि़या को देखती ही रह गई थी.

संदीप भाई के विवाह के 18वें दिन बाद सूर्य का पहला जन्मदिन था और साक्षी ने पार्टी का सारा इंतजाम अपने हाथों में ले लिया था.

संदीप भाई बहुत खुश और संतुष्ट थे अपनी पत्नी से, लेकिन घोर अभावों में पली साक्षी को काफी वक्त लगा था उन के घर के साथ सामंजस्य बैठाने में. फिर 5 महीने बाद जब साक्षी ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो संदीप भाई खुशी से नाच उठे थे. पलकों पर सहेज कर रखते थे उसे.

डाक्टर ने सुबहशाम की सैर बताई थी साक्षी को और यह जिम्मेदारी संदीप भाई ने पूर्वा को सौंप दी थी यह कहते हुए कि पूर्वा भाभी, आप तो सुबहशाम सैर पर जाती हैं न, मेरी इस बावली को भी ले जाया करें. मेरी तो ज्यादा चलने की आदत नहीं.

और सुबहशाम की सुहानी सैर ने पूर्वा और साक्षी के दिलों के तारों को जैसे जोड़ दिया था. साक्षी चलतेचलते थक जाती तो पार्क की बेंच पर बैठ जाती और छोटी से छोटी बात भी उसे बताती, ‘पूर्वा भाभी, बाकी सब तो ठीक है. संदीप तो जान छिड़कते हैं मुझ पर, लेकिन मम्मीजी मुझे ज्यादा पसंद नहीं करतीं. गाहेबगाहे सीधे ही ताना देती हैं कि मैं खाली हाथ ससुराल आई हूं, एक से एक धन्नासेठ उन के घर संदीप के लिए रिश्ता ले कर आते रहे पर… और दुनिया में गोरी चमड़ी ही सब कुछ नहीं होती वगैरहवगैरह.’

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