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कौस्तुभ और प्रिया का शरीर अब जर्जर होता रहा था. कहते हैं न कि आप के शरीर का स्वास्थ्य बहुत हद तक मन के सुकून और खुशी पर निर्भर करता है और जब यही हासिल न हो तो स्थिति खराब होती चली जाती है. यही हालत थी इन दोनों की. मन से एकाकी, दुखी और शरीर से लाचार. बस एकदूसरे की खातिर दोनों जी रहे थे. पूरी ईमानदारी से एकदूसरे का साथ दे रहे थे. एक दिन दोनों बाहर बालकनी में बैठे थे, तो एक महिला अपने बच्चे के साथ उन के घर की तरफ आती दिखी. कौस्तुभ सहसा ही बोल पड़ा, ‘‘उस बच्चे को देख रही हो प्रिया, हमारा पोता भी अब इतना बड़ा हो गया होगा न? अच्छा है, उसे हमारा चेहरा देखने को नहीं मिला वरना मोहित की तरह वह भी डर जाता,’’ कहतेकहते कौस्तुभ की पलकें भीग गईं. प्रिया क्या कहती वह भी सोच में डूब गई कि काश मोहित पास में होता.

तभी दरवाजे पर हुई दस्तक से दोनों की तंद्रा टूटी. दरवाजा खोला तो सामने वही महिला खड़ी थी, बच्चे की उंगली थामे. ‘‘क्या हुआ बेटी, रास्ता भूल गईं क्या?’’ हैरत से देखते हुए प्रिया ने पूछा.

‘‘नहीं मांजी, रास्ता नहीं भूली, बल्कि सही रास्ता ढूंढ़ लिया है,’’ वह महिला बोली. वह चेहरे से विदेशी लग रही थी मगर भाषा, वेशभूषा और अंदाज बिलकुल देशी था. प्रिया ने प्यार से बच्चे का माथा चूम लिया और बोली, ‘‘बड़ा प्यारा बच्चा है. हमारा पोता भी इतना ही बड़ा है. इसे देख कर हम उसे ही याद कर रहे थे. लेकिन वह तो इतनी दूर रहता है कि हम आज तक उस से मिल ही नहीं पाए.’’

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