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Writer- वीरेंद्र सिंह

सुधा की जबान अभी भी कैंची की तरह चल रही थी, ‘‘सुन रहे हो न?’’ सुधा की कर्कश आवाज सुनते ही प्रताप की सोच टूटी. सुधा कह रही थी, ‘‘सुबह उठते ही किचन में घुस जाती हूं. तुम्हारे लिए चायनाश्ता और खाना बनाती हूं. एक दिन रसोई में जाओ तो पता चले. इस गरमी में खाने के साथ खुद सुलगते हुए तुम्हारे लिए रोटियां सेंकती हूं. इतना करने पर भी एहसान मानने के बजाय तुम...’’

प्रताप सिर झुकाए किसी तरह एकएक कौर मुंह में ठूंस रहा था. सुधा की बातों से प्रताप समझ गया था कि अभी तो यह शुरुआत है. पिछली रात भैयाभाभी आए थे. उन्होंने जो बातें की थीं, अभी तो वह मुद्दा पूरी उग्रता के साथ सामने आएगा. कोई बड़ा झगड़ा करने की शुरुआत सुधा छोटी बात से करती थी. उस के बाद मुख्य मुद्दे पर आती थी. प्रताप सुधा की लगभग हर आदत से परिचित हो चुका था.

‘‘और सुनो...’’ दाहिना हाथ आगे बढ़ा कर उंगली प्रताप की आंखों के सामने कर के सुधा तीखे स्वर में बोली, ‘‘मुझ से पूछे बगैर किसी को एक भी पैसा दिया तो मुझ से बुरा कोई न होगा. मुझ से हंस कर बातें करने में तो तुम्हारी नानी मरती है. कल भैयाभाभी आए थे तो किस तरह उछलउछल कर बातें कर रहे थे. मैं भी अनाज खाती हूं, घास नहीं खाती. सबकुछ अच्छी तरह समझती हूं मैं. मकान की मरम्मत करवानी है, इसलिए भिखारियों की तरह पैसा मांगने चले आए थे,’’ भैया ने जो बात कही थी, सुधा ने उस का ताना मारा, ‘‘80 हजार रुपए की जरूरत है. अपने स्टाफ कोऔपरेटिव से लोन दिला दो, तो बड़ी मेहरबानी होगी. हजार रुपए महीने दे कर धीरेधीरे अदा कर दूंगा.’’

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