सुधा ने प्रताप के सामने खाने की प्लेट रखी तो उस में मूंग की दाल देख कर वह फुसफुसाया, ‘बाप रे, फिर वही मूंग की दाल.’
प्रताप के यह कहने में न शिकायत थी, न ही उग्रता. उस की आवाज में लाचारी एकदम साफ झलक रही थी. अभी कल ही यानी अपने नियम के अनुसार बुधवार को सुधा ने मूंग की दाल बनाई थी. आज फिर वही दाल खाने का बिलकुल मन नहीं था, फिर भी बिना कुछ बोले प्रताप ने खा ली थी. प्रताप ने धीरे से कहा, ‘‘जानती हो कि मुझे मूंग की दाल जरा भी अच्छी नहीं लगती, फिर भी आज तुम ने वही बना दी है. तुम ने हद कर दी है.’’
प्रताप की पत्नी सुधा रसोई में चुपचाप खड़ी थी. 27 वर्षीया सुधा की गठीली देह गहरे आसमानी रंग के गाउन में कुछ अधिक ही गोरी लग रही थी. प्रताप ने जो कहा था, उसे सुन कर उस के सुंदर चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं आया था. अपने पतले होंठों को सटाए वह प्रताप को ही ताक रही थी. प्रताप के ये शब्द उस के कानों में पड़े, तो पलभर में ही उस की आंखों की चमक बदल गई.
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प्रताप ने चेहरा उठा कर उस की ओर देखा. सामने चूहा पड़ने पर जो चमक सांप की आंखों में होती है, कुछ वैसी ही चमक सुधा की आंखों में भी तैरने लगी थी. सुधा के बंद होंठों के पीछे जो बवंडर उठ रहा था वह तबाही मचाने के लिए बेचैन होने लगा था.