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ग्राहक ने अपने लिफाफे से एक आम निकाल कर उस की ओर बढ़ा दिया, ‘‘ले, खा ले.’’ ग्राहक के बढ़े हाथ को देख कर झुमकी स्तब्ध रह गई. ताजा और साबुत लंगड़ा आम दे रहा है ग्राहक बाबू. मजाक तो नहीं कर रहा? एक पल के लिए मौन रखने के बाद इनकार में सिर हिलाते हुए उस ने तर्जनी से उन परित्यक्त आमों की ओर संकेत कर दिया. ‘‘छी…’’ ग्राहक खिलखिला कर हंस पड़ा, अरे, ‘‘पूरे समकालीन साहित्य के दलित स्त्री विमर्श की नायिका है तू. बदबूदार आम तुझे शोभा देंगे? न, न, ये ले ले.’’

ग्राहक की व्यंग्योक्ति में चुटकीभर हंसी पांडेजी भी मिलाए बिना नहीं रह सके. झुमकी ने फिर भी इनकार में सिर हिला दिया. तर्जनी उन्हीं आमों की तरफ उठी रही, मुंह से बोल न फूटे.

‘‘अजीब खब्ती लड़की है रे तू,’’ ग्राहक झुंझला उठा. झुमकी का रिरियाना और ऐसी शैली में बतियाना ग्राहक की खीझ को बढ़ा रहा था. उसे उम्मीद थी कि अच्छा आम पा कर लड़की एकदम से खिल उठेगी. पर यहां तो वही मुरगे की डेढ़ टांग. झिड़की में पुचकार का छौंक डालते हुए फनफनाया, ‘‘अरे हम अपनी मरजी से न दे रहे हैं यह आम. इतनीइतनी सरकारी योजनाएं, इतनेइतने फंड, इतनेइतने अनुदान…सारी कवायदें तुम लोगों को ऊपर उठाने के लिए ही न हो रही हैं? इन सरकारी कवायदों में एक छोटा सा सहयोग हमारा भी, बस.’’

झुमकी कभी आम को और कभी ग्राहक के चेहरे को टुकुरटुकुर ताकती रही. आंखों में भय सिमटा हुआ था. भीतर के बिखरेदरके साहस को केंद्रीभूत करती आखिरकार मिमियायी, ‘‘नहीं सर, इ आम नहीं, ऊ वाला आम दे दो.’’ ‘‘क्यों? जब हम खुद दे रहे हैं तो लेने में क्या हर्ज है रे, अयं?’’

‘‘हम भिखारी हैं, सर. अच्छा आम हमारे तकदीर में नहीं लिखा. ऊहे आम ठीक लगता है.’’ पूरे एपिसोड में पहली बार लड़की के मुंह से इतना लंबा वाक्य फूटा था. ‘‘देखा पांडेजी?’’

‘‘एक बात है, सर,’’ हथेली पर खैनी मसलते हुए पांडेजी ने कहा, ‘दलितों के लिए सरकारी सारे अनुदान, योजना वगैरावगैरा राजधानी से ऐसे कार्टून में भर कर लादान किया जाता है जिस के तल में बड़ा सा छेद बना होता. सारा कुछ ससुर रस्ते में ही रिस जाता है और कार्टून जब इन लोगन के दरवाजे आ कर लगता है तो पूरा का पूरा छूछा. हा, हा, हा.’’ ‘‘कुछ हद तक ठीक है आप की बात, पांडेजी,’’ ग्राहक भी हंसे बिना नहीं रह सका, ‘‘पर इस में सारा दोष सरकार को देना भी ठीक नहीं. कुछ दोष इन लोग का भी है. इन लोगों को भी तो अपना हक बूझना होगा, उस को पाने के लिए हाथपांव चलाना होगा. मतलब, पहल तो इन लोगों को ही न करना है. एक बार तन कर देखें तो. सारे हक मिलते चले जाते हैं कि नहीं? सब से पहले तो रिरियाना छोड़ना होगा.’’

‘‘हां साहब, ठीक कह रहे हैं आप. माओवादी लड़ाई कुछकुछ हक के प्रति सचेत हो जाने का परिणाम ही तो है,’’ पांडे ने कहा और फिर झुमकी की ओर मुखाबित होते हुए बोले, ‘लेले रे, लेले. साहब और तेरे बीच कोई बिचौलिया नहीं है न. साहब के हाथ से सीधे तेरे हाथ में आ रहा है इ अनुदान.’’

ग्राहक आगे बढ़ा और आम को झुमकी की हथेली में ठूंसते हुए हिनहिनाया, ‘‘तकदीर, मुकद्दर और भाग्य, सब बेकार बातें हैं, रे. जरूरी है हक बचाने के लिए लड़ाई की पहल. देख, इस आम की मालकिन अब तू हुई. यह पूरी तरह तेरा है. अब इस पर तेरा हक है. तकदीर तेरी मुट्ठी में कैद हो गई कि नहीं?’’ आम थामे झुमकी की हथेली थरथरा रही थी. आम की साफ पुखराजी रंगत और खरगोश सा मुलायम स्पर्श रोमांचित कर रहा था. पर आंखों में अविश्वास और डर अभी भी दुबका हुआ था.

‘‘बाबू, इ आम हम नहीं ले सकते. हम को उहे आम दिला दें,’’ फिर से लिजलिजी गिड़गिड़ाहट. ‘‘भाग सुसरी,’’ ग्राहक इस बात से उखड़ गया, ‘‘भाग, नहीं तो दू थप्पड़ लगा देंगे.’’

झुमकी चुपचाप पांडेजी की गुमटी से उतर आई और धीरेधीरे घर को जाने वाली राह पर आगे बढ़ने लगी. उसे अभी भी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि हथेली में ताजा गोराचिट्टा लंगड़ा आम दुबका हुआ है. चलतेचलते अचानक रुकी और एक ओर खड़ी हो कर आम को भरपूर नजरों से निहारने लगी. उस निहार में एकसाथ आश्वस्ति, प्यार और तृप्ति के कईकई रंग घुले हुए थे. इतने करीब से इस तरह के साबुत आम को पहली बार देख रही है.

आज तक जितने भी ग्राहक मिले, भीख में या तो एकाध सिक्का दिया या फिर परित्यक्त आमों में से एकाध दिला दिया. ताजा व पक्का आम पहली बार झोली में आया है. लग रहा था जैसे दलितों के लिए घोषित असंख्य सरकारी अनुदानों में से एक अनुदान एकदम मूर्त हो कर उस की झोंपड़ी के भीतर आ टपका हो. वह मन ही मन आम के रसीले स्वाद की कल्पना में खोने लगी. कदम तेजी से बस्ती की ओर बढ़ चले. स्टेशन लांघ कर कदम कब लाइन पार आ गए और देखतेदेखते संन्यासी मोड़ भी कब आ पहुंचा, झुमकी को पता ही नहीं चला.

तंद्रा टूटी तो सामने स्कूल का गेट दिखा. गेट बंद था. पीछे का ग्राउंड सूना. कक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं न. झुमकी के पांव एक पल को गेट के पास थम गए. नजरें पखेरु सी उड़ती हुई पेड़ पर टंगे ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के बोर्ड पर जा बैठीं. बोर्ड में चित्रित निश्ंिचत मुसकराहटों को देख कर मन कचोट से भर गया. वह आगे बढ़ने को उद्यत हुई ही थी कि सामने वाली पतली गली से निकल कर हवलदार निमाई बाबू प्रकट हो गए. खाकी वरदी, हाथ में रूल, आंखों में लोमड़ सी चमक.

खाकी वरदी देख कर न जाने क्यों झुमकी की जान सूखने लगती है. मन में एक किस्म का डर रेंग जाता है. इस बार भी वही हुआ. भीतर ही भीतर कलेजा धकधक करने लगा. आसपास निपट सन्नाटा. दूरदूर तक कोई भी नहीं. एहतियात बरतते हुए आम वाली हथेली को पीछे ले जा कर फ्रौक के भीतर कर लिया.

‘का रे झुमकी?’ निमाई बाबू ने खींसें निपोर दिए, ‘धंधा से लौट रही?’ ‘हां सर, एही वक्त तो लौटते हैं रोज,’ झुमकी मन ही मन फनफना उठी. हमरे काम को धंधा कहते हैं. खुद बाजार की दुकानों से और बस्ती वालों से वसूली करते हैं, वह धंधा नहीं है?

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