Superstition: मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों में रहने वाले आदिवासी समुदाय में अगर ठंड के समय जब नवजातों को निमोनिया या डबल निमोनिया हो जाता है, तब उन्हें सांस लेने में तकलीफ होती है.

पेटदर्द, दस्त की शिकायत पर परिवार वाले बीमार बच्चे को इलाज के लिए अस्पताल न ले जा कर नवजातों और बच्चों को को ठीक करने के लिए दगना कुप्रथा का सहारा लेते हैं.

आदिवासियों का मानना है कि बच्चों को यह समस्या किसी बीमारी की वजह से नहीं, बल्कि रूहानी ताकत के चलते होती है. ऐसे में दागने से उन के बच्चों की यह बीमारी ठीक हो जाएगी.

जब नवजात को सांस लेने में तकलीफ होती है या दस्त के कारण उस के पेट की नसें बाहर दिखने लगती हैं, तब उन्ही नसों को गरम लोहे की कील, काली चूड़ी, नीम या बांस की डंठल से दागा जाता है.

यह काम गांव में ?ाड़फूंक करने वाली विशेष समुदाय की महिलाएं करती हैं. इन महिलाओं को नवजातों की मालिश के अलावा दागने की जिम्मेदारी दी जाती है. इन इलाकों में काली चूड़ी से टोटका दूर करने की भी कुरीति चलन में है.

दागना है खौफनाक

मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल गांवों में यह प्रथा छोटे बच्चों के लिए बहुत पीड़ादायी है और ज्यादातर मामलों में दागे जाने वाले बच्चों और बच्चियों की मौत हो जाती है, क्योंकि वे दर्द सहन नहीं कर पाते हैं.
जरा सोचिए, गरम सलाखों से महज कुछ ही दिनों के मासूम को अगर जगहजगह पर दाग दिया जाए, तो उसे कितनी तकलीफ होती होगी. उस तकलीफ को आप सिर्फ एहसास ही कर सकते हैं, जबकि वे मासूम तो बोल कर बयां भी नहीं कर सकते हैं.

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