शादी के कानूनों पर लंबीचौड़ी बहस चल रही है. हिंदू आदमी औरतों के मन में अचानक मुसलिम औरतों पर मेहरबानी होने लगी है और वे ‘तलाक तलाक तलाक’ को बेहूदा, औरतों के खिलाफ मान कर देशभर में हल्ला मचा रहे हैं. ज्यादा हल्ला सोशल मीडिया में मोबाइलों पर हो रहा है और सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से इस तिहरे तलाक पर कहा है कि यह गलत है, क्योंकि यह औरतों के खिलाफ है. यह सही हो सकता है कि सिर्फ ‘तलाक तलाक तलाक’ कह कर छुटकारा पाना गलत हो और अगर इसलाम धर्म इसे कानून मानता है, तो गलत है, पर सवाल है कि उसे भलाबुरा कहने वाले औरतों के हमदर्द हैं क्या और क्या वे वाकई मुसलिम औरतों के दुख को समझ रहे हैं? इस समय तो लगता है कि इस बहाने एक धर्म की कट्टरता की पोल खोलने का बहाना मिला है, और सरकार का साथ मिला है, इसलिए जितनी चाहे बातें बना लो.
असल में तो किसी भी धर्म का आदमीऔरत की निजी पसंदनापसंद में दखल देना गलत है. औरतें क्या कब पहनें, कैसे चलें, किन रीतिरिवाजों को मानें, यह सब धर्म तय करने वाला कौन होता है? धर्म के खेवनहार तो कहते हैं कि धर्म स्वयं ऊपर वाले ने दिया है, तो उसे आदमीऔरत में फर्क करने की जरूरत ही क्या? बीवी बनेगी तो धर्म के अनुसार, छूटेगी तो धर्म के हिसाब से. क्यों?
अग्नि देवता के समक्ष कन्यादान हो, चर्च में जीसस के सामने आई डू हो या काजी के सामने कबूल है, आखिर इस में धर्म और दुनिया बनाने वाला कहां से टपक पड़ा? शादी का फैसला तो आदमीऔरत खुद करें, मुहर ऊपर वाले का एजेंट लगाए. क्यों? झगड़ा आदमीऔरत करें, पर अलग होना है तो ऊपर वाले के इशारे पर लिखी किताब से होगा. ऐसा क्यों? ईसाई धर्म के तो 2 बड़े टुकड़ों के पीछे एक राजा का अपनी बीवी को न छोड़ देना ही था. धर्म के ठेकेदार अड़ गए कि शादी तो ऊपर वाले ने कराई है और टूट नहीं सकती. हिंदू धर्म में भी ऐसा ही है. ईसाई और हिंदू हमेशा एक ही औरत के साथ रहे हैं, इस का सुबूत तो कहीं नहीं मिलेगा. इसलाम में मर्दों को खास छूट है, पर इस पर थोड़ी जलन हो सकती है, यह गलत भी हो सकता है, पर जब तक लोग धर्म और शादी को जोड़ेंगे, तो गलत होगा ही.