उत्तर प्रदेश के नोएडा के एक मुसलिम परिवार की 19 साला चांदनी ने यह साबित कर दिया है कि गंदी बस्तियों और रास्ते पर जिंदगी बिताने वालों का भी एक सपना होता है और उसे पूरा करने की जिम्मेदारी भी खुद की ही होती है.

चांदनी की इस कोशिश को रीबौक ने ‘फिट टू फाइट’ के तहत पुरस्कार से नवाजा है जिसे पा कर वह खुश है और आगे और अच्छा करने की कोशिश कर रही है. आज चांदनी ‘वौइस औफ स्लम’ संस्था की अध्यक्ष है और अपना काम बखूबी कर रही है.

चांदनी बताती है, ‘‘मैं 5 साल की उम्र से काम करती आई हूं. मेरी मां कहती हैं कि उस समय मैं अपने पिता के साथ खेलतमाशा करती थी. हमें एक शहर से दूसरे शहर जाना पड़ता था. उस काम से जो पैसा मिलता था उस से परिवार को भरपेट भोजन मिल जाता था.

‘‘ऐसा करतेकरते हम दिल्ली आ गए. पर मेरे पिता की मौत लकवा मारने से हो गई. उस समय मैं ही घर में बड़ी थी. मेरे 2 छोटे भाईबहन थे.

‘‘फिर मैं ने अट्टा मार्केट और नोएडा में कूड़ा बीनना शुरू कर दिया. नौकरी तो मिल नहीं सकती थी क्योंकि मैं पढ़ीलिखी नहीं थी और मेरी उम्र तब केवल 8 साल थी.

‘‘कूड़ा बीनने के दिनों में पुलिस वालों ने चोरी करने का आरोप लगा कर मुझे एक दिन के लिए जेल में डाल दिया था. फिर मैं ने डर के मारे कूड़ा बीनना छोड़ कर ट्रैफिक सिगनल पर फूल और भुट्टे बेचना शुरू कर दिया.’’

इतनी कम उम्र में चांदनी के लिए परिवार के लिए रोजीरोटी का इंतजाम करना आसान नहीं था. कितना मुश्किल था किसी छोटी लड़की का बाहर जा कर कूड़ा बीनना और उसे बाजार में बेचना.

बीते दिनों को याद करते हुए चांदनी कहती है, ‘‘मैं रात के 3 बजे कूड़ा बीनने जाती थी और इतनी रात को कोई भी इनसान अच्छी नीयत का नहीं होता

था. ऐसे में उन से अपनेआप को बचाना पड़ता था. इस के लिए मैं कूड़ा बीनने वाली बड़ी औरतों के पीछेपीछे जाती थी ताकि ऐेसे लोगों से बच जाऊं.

‘‘जब कूड़ा बीनना बंद किया तो रात को फूल बेचती थी ताकि पब से निकल कर लोग मेरे फूल खरीद लें. उस समय समस्या सर्दी में आती थी, जब तन पर गरम कपड़े नहीं हुआ करते थे. ऐसे में मैं किसी गाड़ी या दीवार के पीछे बैठ कर ठंड से अपनेआप को बचाती थी.

‘‘मेरा एक सपना था कि मैं स्कूल डै्रस पहनूं, अच्छीअच्छी किताबें पढूं. उस एनजीओ के एक संगठन का नाम ‘बढ़ते कदम’ था. मैं उस से जुड़ कर उन के साथ काम और पढ़ाई करने लगी.

‘‘बाद में मैं वहां नैशनल लैवल पर सचिव बनी और उन की एक मैगजीन की एडिटर भी बन गई. इस तरह से मैं सड़क और कामकाजी 10 हजार बच्चों के साथ उन की पढ़ाईलिखाई और उन के हकों पर ट्रेनिंग देती रही.

‘‘इस दौरान मुझे कई उपलब्धियां भी मिलीं. मैं ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग संगठन से मिल कर भी काम किया. जब मेरी उम्र 18 साल से ज्यादा हो गई तब मुझे उस संस्था को छोड़ना पड़ा क्योंकि ऐसी संस्था 18 साल तक के बच्चों के लिए ही काम करती है.

‘‘इस के बाद मैं फिर वापस स्लम और भुट्टे की दुकान पर पहुंच गई लेकिन तब तक मेरी 8वीं जमात की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. फिर मैं ने कई दूसरे बच्चों को भी देखा जो 18 साल का होने के बाद संस्था से निकाले जा चुके हैं और इधरउधर घूम रहे हैं. मैं ने उन सब को मिला कर एक टीम बनाई क्योंकि भले ही वे बच्चे पढ़ेलिखे नहीं थे, पर उन्हें ऐसे गरीब बच्चों को मैन स्ट्रीम से जोड़ना आता था. वे उन की सोच को समझते थे जिस से उन्हें वहां से लाना आसान था. ऐसे में मैं ने 20 लड़के और लड़कियों के साथ मिल कर एक संस्था खोलने का मन बनाया, जिस का नाम ‘वौइस औफ स्लम’ रखा.’’

चांदनी के लिए इस संस्था को खोलना आसान नहीं था. अभी तक वह केवल झुग्गीझोंपडि़यों में जा कर बच्चों को संस्था में लाने का काम करती थी लेकिन खुद की संस्था खोलते ही कई समस्याएं सामने आने लगीं. रजिस्ट्रेशन के काम में जहां सिर्फ 50 रुपए लगे, पर लोगों ने कभी 5 हजार तो कभी 10 हजार रुपए मांगे.

चांदनी ने खुद सब काम किया. पैसे के लिए उस ने फेसबुक का सहारा लिया. अपने दोस्तों को केवल एक रुपए चंदा देने की मांग की. 2 घंटे के अंदर पेटीएम में 25 हजार रुपए आ गए. इस तरीके से उस ने नोएडा में 2 से 3 सैंटर खोले हैं. इन में वह जरूरतमंद बच्चों को ला कर उन के हुनर पर काम करती है.

चांदनी बताती है, ‘‘ऐसे बच्चों की सोच होती है कि वे कुछ नहीं कर सकते इसलिए वे भीख मांगना या कूड़ा बीनने का काम कर रहे हैं. पहले उन की सोच को बदलने पर काम किया जाता है, फिर उन्हें पढ़ाईलिखाई और उन के हक को समझाने के बाद काम पर लगाया जाता है.’’

अपने एक अनुभव के बारे में चांदनी बताती है, ‘‘कुछ दिनों पहले नेपाल में 13 साल की लड़की को एक अधेड़ उम्र के आदमी ने शादी कर उसे बहुत सताया. वह एक बच्चे की मां भी बन चुकी थी. ऐसे में किसी तरह वह भाग कर मेरे पास आई. मैं ने उस की मदद की, उसे उस के परिवार से मिलवाया और जिन लोगों ने उस के साथ गलत किया उन्हें जेल की सजा दिलवाई.’’

अभी चांदनी 10वीं जमात की पढ़ाई कर रही है. इस काम में उसे सब से मुश्किल लगता है स्लम के बच्चों और उन के मातापिता की सोच को बदलना. वे अपने बच्चों को संस्था में भेजना नहीं चाहते. उन के हिसाब से जितने हाथ उतनी कमाई से रोजीरोटी चलती है लेकिन चांदनी को पता है कि उन्हें कैसे यहां तक लाना है क्योंकि वह खुद भी इन्हीं हालात से गुजर चुकी है.

चांदनी कहती है, ‘‘यह सही है कि उन्हें अच्छी जिंदगी पता नहीं इसलिए मैं उन्हें आईना ही दिखाने की कोशिश करती हूं जिस से उन के मन बदलते हैं. इस के लिए हम ऐसी जगहों पर ले जाते हैं जहां वे कभी भी नहीं जा सकते. वहां उन्हें अच्छा भोजन खिलाते हैं, कई कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं. इस से  वे मेरे पास आ जाते हैं.

‘‘कई बार तो बच्चे कुछ दिन पढ़ने के बाद ही स्कूल आना बंद कर देते हैं. ऐसे बच्चों से मिल कर उन की समस्या और उस का हल भी उन से ही जानने की कोशिश की जाती है जिस से उन में अपनी समस्या खुद हल करने की कूवत हो. अभी तक तकरीबन एक हजार बच्चे मेरे साथ जुड़ चुके हैं और आगे एक लाख बच्चों को मेन स्ट्रीम में लाने की कोशिश है.

‘‘इस के अलावा मैं पूरे देश के झुग्गीझोंपड़ी के बच्चों को अच्छी जिंदगी देने की इच्छा रखती हूं. मुझे कभी भी तनाव या दुख होता है तो मैं इन्हीं बच्चों के साथ समय बिता लेती हूं.’’

चांदनी आगे कहती है, ‘‘हमारे परिवार में 18 साल का होने पर शादी कर दी जाती है. मैं अपने परिवार की पहली लड़की हूं जो पढ़ रही है. मैं ने अभी तक शादी नहीं की और एनजीओ चलाती है. मैं बहुत मेहनत कर के यहां तक पहुंची हूं और अब आगे जो करना है उसे जरूर करूंगी.’’

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