बिहार के आरा रेलवे स्टेशन के पास ही एक छोटा सा इलाका बसा हुआ है अनाइठ. यह इलाका पटनामुगलसराय रेलवे लाइन के किनारे पर स्थित है और वहीं है कोढ़ के मरीजों की छोटी सी बस्ती ‘गांधी कुष्ठ आश्रम’.

कहने को तो यह कोढ़ के मरीजों के लिए आश्रम है, पर हर ओर अंधेरा, बेबसी, गंदगी और बदबू का आलम है. आश्रम के अंदर जाने की बात तो दूर उस के आसपास तकरीबन 25-30 मीटर पहले ही नथुने बदबूदार हवा से भभक उठते हैं. बजबजाती गंदगी के बीच कोढ़ से पीडि़त 68 परिवार रहते हैं, जिन की आबादी 152 है.

आश्रम के पास खड़े होने से यही महसूस होता है कि वहां तक सरकारी योजनाओं और दावोंवादों का रत्तीभर भी हिस्सा नहीं पहुंच सका है. बस्ती में गरीब कोढ़ के मरीजों को राहत और मदद देने की तमाम सरकारी योजनाओं और गैरसरकारी संस्थाओं की लूटखसोट की बानगी यहां साफ देखी जा सकती है. ऊपर से पोंगापंथ की वजह से भी मरीजों की हालत बद से बदतर होती जा रही है.

देश में कोढ़ के मरीजों की तकरीबन 850 कालोनियां हैं, जहां वे समाज के भेदभाव को झेलते हुए अपनी जिंदगी काट रहे हैं. सरकारी सुविधाओं और इलाज के नाम पर वहां कुछ नहीं पहुंच पाता है, जिस से मरीज तिलतिल कर मरने के लिए मजबूर हैं.

सेहत, पढ़ाईलिखाई, रोजगार वगैरह का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं होने की वजह से कोढ़ के मरीज भीख मांग कर गुजारा करते हैं और धीरेधीरे उन के बच्चे भी भिखारी बन रहे हैं.

कोढ़ के मरीजों के बारे में समाज में गलत बातें फैलाने की वजह से भी वे अलग रहने को मजबूर हैं. न तो उन को बेहतर इलाज और आम जिंदगी देने के उपाय किए जाते हैं और न ही समाज में उन के प्रति कोई जागरूकता फैलाने के लिए कदम उठाए जाते हैं.

कोढ़ को ले कर समाज में फैले कई तरह के अंधविश्वासों और अफवाहों की वजह से भी कोढ़ के मरीजों की हालत ऐसी है. इस के बारे में आम लोग यही कहते हैं कि गलत काम करने की वजह से यह बीमारी होती है.

बहुत से तो यह भी कहते हैं कि यह बीमारी पिछले जन्म के पापों का नतीजा है. इसे ले कर समाज में पोंगापंथियों ने जम कर भरम फैला रखा है. बाबाओं ने यह प्रचार कर रखा है कि गलत काम करने, गलत संबंध बनाने, खून गंदा होने या सूखी मछली खाने से कोढ़ होता है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है.

इस सिलसिले में डाक्टर दिवाकर तेजस्वी कहते हैं कि जिस किसी को कोढ़ हो जाता है, उस मरीज को ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है. परिवार और समाज उस से नफरत करने लगता है और उसे ठुकरा कर दरदर भटकने के लिए छोड़ देता है.

यह बीमारी एक से दूसरे इनसान में पुरानी माइक्रो बैक्टिरियल लेप्री से फैलती है. यह आमतौर पर चमड़ी पर असर डालती है और उंगलियां समेत कई अंग धीरेधीरे गलने लगते हैं. इस बीमारी का सही तरीके से इलाज किया जाए, तो यह पूरी तरह ठीक हो जाती है. साल 1991 में आई एमडीटी दवा के सेवन से यह बीमारी ठीक हो जाती है.

भारत में तकरीबन 15 लाख से ज्यादा कोढ़ के मरीज हैं. इन में से 24 फीसदी बिहार में हैं. बिहार में ही ऐसे लोगों की 40 बस्तियां हैं. यहां प्रति 10 हजार की आबादी पर 1.12 लोग कोढ़ के मरीज हैं. बिहार के अलावा झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में सब से ज्यादा कोढ़ के मरीज हैं.

बिहार अनुसूचित एवं पिछड़ी जाति संघर्ष मोरचा के संयोजक किशोरी दास कहते हैं कि गरीब और पिछड़ों के दर्द को सुनने और उसे दूर करने वाला कोई नहीं है. उन के नाम पर पटना से ले कर दिल्ली तक सत्ता की रोटियां सेंकी जाती रही हैं, पर उन के हालात में बदलाव नहीं हो सका है.

कोढ़ को जड़ से मिटाने के लिए साल 1955 में राष्ट्रीय कुष्ठ नियंत्रण कार्यक्रम की शुरुआत की गई. उस के बाद साल 1983 में राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया गया और उसी साल मल्टी ड्रग थैरैपी की शुरुआत हुई.

साल 2005 में नैशनल लैवल पर इस बीमारी को जड़ से मिटाने का काम शुरू किया गया. साल 2012 में देश के 16 राज्यों और संघीय क्षेत्रों में विशेष कार्य योजना चालू की गई थी.

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भारत में कोढ़ के मरीजों की तादाद में इजाफा होने से यह साबित हो गया है कि देश में इस पर काबू पाने के तमाम उपाय नाकाम रहे हैं. अगर इसी कछुआ गति से इसे मिटाने की कवायद चलती रही, तो भारत से यह बीमारी खत्म करने में अभी भी 40 साल लगेंगे.

सरकार ने साल 2005 में दावा किया था कि देश से कोढ़ को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है. इस के बावजूद कोढ़ के मरीजों की तादाद में इजाफा होता जा रहा है, जिस से सरकार के दावों की पोल खुल गई है.

राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम ही कहता है कि कोढ़ के एक लाख, 27 हजार, 595 मामले हर साल भारत में होते हैं. अकेले दिल्ली में पिछले साल कुल 23 सौ नए मामले सामने आए हैं.

गांधी कुष्ठ आश्रम में रहने वाले बालेश्वर साव को उस के घर वालों ने घर से निकाल दिया. उसे कोढ़ हो गया था. गरीब होने की वजह से उस का समय पर इलाज नहीं हो सका. उस के जिस्म के कई हिस्सों में गहरे जख्म हो गए हैं, हाथपैरों की कई उंगलियां गल चुकी हैं. पिछले 20 सालों से वह सरकारी मदद के इंतजार में है, पर आज तक केवल भरोसे के अलावा उसे और कुछ नहीं मिल सका.

एनजीओ वाले कभीकभार बालेश्वर साव को खाने को कुछ अनाज और पहनने को कुछ कपड़े दे जाते हैं. इस से गुजारा नहीं चल पाता है. वह लकड़ी की गाड़ी पर बैठ कर दिनभर घूमता है. ‘माताबहन करिए दान, बाबू भइया करिए दान’ की गुहार लगालगा कर वह भीख मांगता है, तो दिनभर में 100-150 रुपए जमा हो जाते हैं.

पटना की सड़कों पर भीख मांगने वाले कोढ़ी शिवलाल यादव के झोंपड़े के अंदर घुसने पर हर ओर अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है. अंधेरे के बीच कुछ चमकती आंखों को देख कर एहसास होता है कि झोंपड़े में कुछ और लोग भी रह रहे हैं.

शिवलाल यादव बताता है कि उस के साथ 3 और कोढ़ी रहते हैं. वे भी दिनभर भीख मांगते हैं. कभीकभार जब तबीयत ज्यादा खराब हो जाती है, तो सौ रुपए कर्ज लेने पर 10 रुपए रोज के हिसाब से सूद चुकाना पड़ता है.

वह आगे कहता है, ‘‘सुनते हैं कि कोढ़ के मरीजों और गरीब लाचारों के लिए सरकार ने बहुत सी योजनाएं बनाई हैं, पर आज तक उस के पास एक पैसा भी नहीं पहुंच सका है. सारा पैसा तो अफसरों और बाबुओं के पेट में चला जाता है.’’

शिवलाल यादव बड़ी ही मासूमियत से अफसरशाही के मुंह पर करारा तमाचा जड़ देता है और सरकारी योजनाओं की पोलपट्टी भी खोल देता है.

झोंपड़ी में रहने वाले को बिजली का कनैक्शन लेने के लिए सरकारी बिजली महकमे के बजाय प्राइवेट जैनरेटर चलाने का धंधा करने वाले दबंगों की चिरौरी करनी पड़ती है. जैनरेटर के जरीए झोंपडि़यों में एक बल्ब का कनैक्शन देने पर हर महीने सौ रुपए वसूले जाते हैं. कनैक्शन लेने वालों की मरजी न भी हो, तब भी जबरन कनैक्शन दे दिया जाता है.

बालेश्वर, मुन्ना, सुदन, लाल बिहारी और प्रभु ने जैनरेटर का कनैक्शन लेने से इनकार कर दिया था, तो उन सब पर बिजली चोरी करने का आरोप लगा कर मुकदमे में फंसा दिया गया. पिछले 9 साल से वे लोग बिजली चोरी के आरोप में थाने और कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं.

पटना के पास खगौल इलाके की रेलवे क्रौसिंग के पास बसी कोढ़ के मरीजों की बस्ती प्रेम नगर में रहने वाली कोढ़ से पीडि़त ललिता बेगम बताती हैं कि लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के राज में उन जैसे मरीजों के रहने के लिए थोड़ी सी जमीन मुहैया कराने के लिए अर्जी दी थी. उस के बाद नीतीश कुमार की सरकार बनने के बाद भी पिछले 8-9 साल में तकरीबन 50 बार से ज्यादा अर्जी दी जा चुकी है. मुखिया, बीडीओ, एसडीओ, डीएम, विधायक से ले कर मंत्री और मुख्यमंत्री को अर्जी दी गई, पर अभी तक कुछ भी नहीं हो सका है. हर कोई जमीन देने का भरोसा दे कर चलता कर देता है.

गंदी झोंपड़ी में रहने से और भी कई तरह की बीमारियां हो गई हैं. किसी को टीबी हो गई है, तो किसी की आंत में अल्सर हो गया है. किसी का लिवर खराब हो चुका है, तो किसी की आंखों की रोशनी ही चली गई है.

कालोनी में हर झोंपड़ी के चारों ओर पूरे साल गंदा पानी भरा रहता है. बांस के टुकड़े, पौलीथिन, जूट के बोरे और फटेपुराने कपड़ों को जोड़ कर बनाई गई झोंपडि़यों की दीवारें हर समय गीली रहती हैं. भिनभिनाती मक्खियों के झुंड, बजबजाते कीचड़ में अपनी थूथन घुसेड़े सूअरों की फौज, बिलों से झांकते मोटेमोटे चूहे आश्रम को नरक बनाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ते हैं.

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एक मरीज प्रभु मुसहर कहता है कि आधी से ज्यादा जिंदगी तो इसी गंदगी में कट गई, बाकी जिंदगी भी कट जाएगी. समाज ने हम लोगों को ठुकरा दिया है. ऐसे में किस से मदद की उम्मीद करें?

समाजसेवी आलोक कुमार बताते हैं कि बिहार सरकार की नजर इस कुष्ठ आश्रम पर नहीं पड़ सकी है, पर जरमनी की लिबेल और लेप्रा की कोशिश से कुष्ठ रोगियों को थोड़ी ही सही, पर मदद मिल रही है.

अच्छी बात यह है कि अनपढ़ मरीजों को पढ़ाने के लिए एक टीचर का इंतजाम किया गया है और सिलाई मशीनें दी गई हैं, जिस से काम सीख कर कोढ़ी भीख मांगने के बजाय दो वक्त की रोटी खाकमा सकें.

भारत में इस समय दुनिया का सब से बड़ा कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम चल रहा है. इस कार्यक्रम के तहत तकरीबन एक लाख, 20 हजार मरीजों के नए मामले दर्ज हुए हैं. गरीबी इस बीमारी के पनपने की सब से बड़ी वजह है.

इंडियन मैडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष रह चुके डाक्टर अजय कुमार कहते हैं कि आज मल्टी ड्रग थैरैपी के जरीए इस बीमारी का आसान इलाज मुमकिन है. पर समाज और परिवार द्वारा ठुकराए जाने की वजह से मरीज का इलाज नहीं हो पाता है और वे तिलतिल कर मरने के लिए मजबूर हो जाते हैं.

अगर कोढ़ का शुरुआती दौर में ही पता लग जाए और सही इलाज चालू कर दिया जाए, तो उस के असर को काफी हद तक कम किया जा सकता है और  अंगों को गलने से बचाया जा सकता है.

सरकार, समाज और परिवार के साथसाथ कानून भी कोढ़ के मरीजों के साथ भेदभाव करता रहा है. राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में स्थानीय चुनावों में ऐसे मरीजों के हिस्सा लेने पर मनाही है.

साल 1939 में ही कोढ़ के मरीजों को ड्राइविंग लाइसैंस देने और साल 1990 से उन के रेलगाडि़यों में सफर करने पर रोक लगा दी गई है.

भारत में 16 ऐसे कानून हैं, जो कोढ़ के मरीजों के साथ भेदभाव करता है और उन्हें समाज की मुख्यधारा से दूर करता है. उस के बाद करेले पर नीम की तरह अंधविश्वास, कलंक वगैरह से इस बीमारी को जोड़ दिया गया है.

कोढ़ पर काबू पाने के लिए बना टीका

भारत ने कोढ़ के इलाज के लिए दुनिया का पहला टीका ईजाद करने में कामयाबी हासिल की है. बिहार और गुजरात के 5 जिलों में इसे ट्रायल के तौर पर शुरू किया गया है.

डाक्टर विमल कारक कहते हैं कि भारत पहला देश है, जहां कोढ़ के लिए टीका लगाने के लिए कार्यक्रम शुरू किया जा रहा है. इस के टैस्ट में पाया गया है कि कोढ़ के मरीजों के करीब रहने वालों को यह टीका दिया जाए, तो 3 साल के अंदर ही कोढ़ के मामलों में 60 फीसदी तक की कमी आ सकती है. इतना ही नहीं, अगर कोढ़ की वजह से किसी की चमड़ी जख्मी हुई हो, तो यह टीका उस के ठीक होने की रफ्तार को बढ़ा देगा.

इस टीके को नैशनल इंस्टीट्यूट औफ इम्यूनोलौजी के फाउंडर डायरैक्टर जीपी तलवार ने ईजाद किया है. ड्रग कंट्रोलर जनरल औफ इंडिया और अमेरिका के एफडीए ने भी इसे मंजूरी दे दी है.

केंद्र सरकार ने देशभर के सब से ज्यादा कोढ़ के असर वाले 50 जिलों में घरघर जा कर मरीजों की पहचान करने और टीका लगाने का काम शुरू किया है. अब तक तकरीबन साढ़े 7 करोड़ लोगों की जांच की जा चुकी है और तकरीबन 6 हजार लोगों को कोढ़ होने का पता चला है.

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