लेखक- दिनकर कुमार

असम में 30 जुलाई, 2019 को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी का प्रकाशन होने वाला है. राज्य के लाखों भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों से नागरिकता छीन कर उन को यातना शिविरों में बंद करने की पूरी तैयारी हो चुकी है और सब से ज्यादा हैरानी की बात यह है कि यह काम उस सर्वोच्च अदालत की देखरेख में पूरा किया जा रहा है, जिस पर संविधान और मानवाधिकार की सुरक्षा की जिम्मेदारी है.

अदालत भी अपने मूल कर्तव्य को भूल कर देश के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व के साथ जुगलबंदी कर रही है. एक ऐसे प्रयोग के लिए जमीन तैयार की जा रही है जो आने वाले समय में देशभर में आजमाया जा सकता है और एक

ही झटके में अल्पसंख्यकों से नागरिकता छीन कर उन का सामूहिक संहार किया जा सकता है.

देश के नए गृह मंत्री अमित शाह ने चुनावी भाषणों में घुसपैठियों की तुलना दीमक से करते हुए उन को कुचलने की मंशा जाहिर करते हुए कहा था, ‘‘हम पूरे देश में एनआरसी को लागू करेंगे और एकएक घुसपैठिए को निकाल बाहर करेंगे.

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‘‘हम घुसपैठियों को अपना वोट बैंक नहीं मानते. हमारे लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सब से अहम है. हम तय करेंगे कि हर हिंदू और बौद्ध शरणार्थी को भारत की नागरिकता मिले.’’

सत्ता में आते ही अमित शाह ने अपनी घोषणा पर गंभीरता से काम करना शुरू कर दिया है. 30 मई, 2019 को भाजपा सरकार की तरफ से विदेशी (ट्रिब्यूनल) संशोधन आदेश, 2019 जारी कर देश के सभी राज्यों में ऐसे ट्रिब्यूनल बनाने का निर्देश दिया है. इस से साफ संकेत मिलता है कि अमित शाह अगले 5 सालों में एनआरसी के बहाने पूरे देश में नागरिकता छीनने का अभियान शुरू करना चाहते हैं.

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