आज ज्यादातर नौजवानों से बात कर के देखिए तो वे किसी न किसी तरह से अपनी बेरोजगारी का रोना रोते नजर आएंगे. जब पढ़लिख कर उन्हें कोई नौकरी नहीं मिल पाती है, तो वे निराश होने लगते हैं. फिर वे अपने भाग्य को दोष देने लगते हैं या सरकार को कोसने लगते हैं, जबकि भाग्य तो हमारे काम और मेहनत से बनते हैं. दूसरी ओर सरकार के पास कोई ऐसा इंतजाम नहीं है कि सभी बेरोजगारों को एकसाथ नौकरी या रोजगार मुहैया करा दे.
अगर नौजवान तबका कभी अपने धंधे की बात सोचता है, तो उसे अपने घर की माली हालत के बारे में ध्यान जाता है. उसे एहसास होता है कि उस के पास तो उतनी पूंजी नहीं है, जितना कारोबार करने के लिए चाहिए, और फिर वह निराशा के अंधेरे में डूबने लगता है या फिर वह कारोबार करने के बारे में कभी सोच भी नहीं पाता है.
बिहार के औरंगाबाद जिले का एक नौजवान विनय कुमार दिल्ली में प्राइवेट नौकरी करता था. किसी वजह से उस की नौकरी चली गई थी और वह बेरोजगार हो गया था. उसे किसी परिचित ने सलाह दी कि थोड़ीबहुत पूंजी लगा कर पहले बाजार में बैठना सीख और जब अनुभव हो जाएगा तो ज्यादा पूंजी लगा कर कारोबार करना.
वह नौजवान शुरू में फुटपाथ पर बैठने में झिझक महसूस कर रहा था. उस ने फुटपाथ पर ही रोजमर्रा के इस्तेमाल के रेडीमेड कपड़े बेचने शुरू कर दिए. धीरेधीरे उसे अच्छी आमदनी होने लगी. बहुत सारे अनुभव भी हुए. अब उस ने पूंजी इकट्ठा कर उसी बाजार में रेडीमेड कपड़े की दुकान खोल ली.