कहते हैं आजादी के समय देश में 33 करोड़ देवीदेवता थे और लगभग इतनी ही देश की जनसंख्या थी. आजादी के बाद जनगणना तो हुई मगर देवगणना रुक गई. देवगणना इसलिए रुक गई क्योंकि सभी देवीदेवतागण बिना सिरपैर के थे और मात्र पंडेपुजारियों द्वारा धर्मभीरू जनता को लूटने के लिए बताएसमझाए गए थे. मगर, इस धर्मभीरू देश में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं द्वारा धड़ल्ले से अपने नेताओं को देवता, देवी और दूसरे दल के नेताओं को दानव करार दिया गया. ज्योंज्यों चुनावी खुमार बढ़ता गया त्योंत्यों देवी, देवता और दैत्य बढ़ते गए. देश का सब से बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश इस मसले में सब से आगे निकला. सीधी बात है कि पहले अभिनेता अपने ग्लैमर के बूते आसानी से नेता बन जाया करते थे, वहीं अब नेता अपने चापलूस कार्यकर्ताओं के जरिए आसानी से देवी व देवता बन जाते हैं.
राजनीति में हर समय साम, दाम, दंड और भेद से लदे ये नेता अपने को देवता करार दिए जाने वाले छुटभैया नेताओं पर कोई रोकटोक नहीं लगाते हैं और खुद को देवता समझ शान से रहते हैं. मामला यहीं खत्म नहीं होता है, बल्कि इन नए देवताओं के नाम पर मंदिर बन चुके हैं, चालीसा होती है, आरती होती है, भजन गाए जाते हैं. हालांकि देश का यह रिवाज बहुत ही पुराना है मगर 2014 के संसदीय चुनावों के समय से इस में गति आ चुकी है. इस भेड़चाल में जो कसर रह गई थी, वह मैसेज को इधर से उधर करने वाले व्हाट्सऐप, फेसबुक जैसे सोशल नैटवर्किंग के मैसेंजर्स ने पूरी कर दी है.