चुनावी साल में नेताओं को वोट पाने के लिए जुगाड़ करना जरूरी हो जाता है. यही वजह है कि धर्म और जाति के मुद्दे हावी हो जाते हैं.
‘दलित ऐक्ट’ पर हुए प्रदर्शन को विपक्षी दलों ने हथियार बनाना शुरू किया तो भाजपा ने अपनी पार्टी के दलित सांसदों को भी मुखर होने का संकेत दे दिया.
दलित ऐक्ट पर बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने यूटर्न तभी ले लिया था जब वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं.
‘दलित ऐक्ट’ को मुद्दा बनते देख भाजपा ने अपनी रणनीति को बदल दिया है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस के नेता सरदार वल्लभभाई पटेल को अपने पाले में लिया था. लगता है कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव अंबेडकर को अपने साथ रखने की योजना बनाई है. अगले एक साल के दौरान वह डाक्टर भीमराव अंबेडकर को महिमामंडित करेगी.
विरोधी दलों की परेशानी यह है कि उन्होंने आम दलितों की कभी चिंता नहीं की. जिस मनुवाद की बुराई होती है, दलित धीरेधीरे उसी मनुवाद की पूजा पद्धति से जुड़ गए.
दलितों की अगुआई करने वाले दल भी उन को यह बताने में पिछड़ गए कि इसी पूजा और जाति की सोच से उन को गैरबराबरी का दर्जा मिला है. जातीय भेदभाव केवल अगड़ों और दलितों के बीच ही नहीं है, बल्कि दलितों में आपस में भी ऐसे बहुत सारे भेदभाव हैं.
‘दलित ऐक्ट’ में बदलाव को ले कर हुए विरोधप्रदर्शन और उस के बाद शुरू हुई राजनीति में भाजपा के सांसद उदित राज, अशोक कुमार दोहरे और सावित्रीबाई फुले की नाराजगी को बसपा नेता मायावती ने निजी फायदे की राजनीति और मौकापरस्ती बताया है.
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