गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में मिली करारी हार के बाद भाजपा को सपाबसपा की दोस्ती किसी भी तरह से हजम नहीं हो रही है.
भाजपा को अखिलेश यादव और मायावती के बीच दोस्ती की उम्मीद नहीं लग रही थी, पर उन दोनों नेताओं ने जिस तरह से बहुत सारे विवादों को किनारे कर के दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया है, वह भाजपा के लिए खतरे की घंटी है.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव की नजर से उत्तर प्रदेश सब से अहम राज्य है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा और उस के सहयोगी दलों को वहां की कुल 80 सीटों में से 72 सीटें मिली थीं. 2 उपचुनाव हार कर यह तादाद अब 70 हो गई है.
पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को तकरीबन 42 फीसदी वोट मिले थे. इस चुनाव में सपा को 22 और बसपा को 20 फीसदी वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को तकरीबन 7 फीसदी वोट हासिल हुए थे. ऐसे में सपाबसपा और कांग्रेस के गठबंधन का वोट फीसदी मिला कर 49 फीसदी हो जाता है. इस से उत्तर प्रदेश से भाजपा का सूपड़ा साफ हो सकता है.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पास नरेंद्र मोदी का चेहरा भले हो, पर ‘मोदी मैजिक’ असरकारक नहीं रहेगा. पिछले 4 साल के दौरान ‘शाहमोदी’ की जोड़ी ने भाजपा के अंदर भी लोकतंत्र को खत्म कर दिया है. ऐसे में विरोध की आवाजें वहां भी उभरने लगी हैं.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ‘दलित, अतिपिछड़ा और सवर्ण’ समीकरण के साथ हिंदुत्व का सहारा ले कर कामयाबी हासिल की थी. तब ‘दलित और अतिपिछड़ा वर्ग’ हिंदुत्व के नाम पर अपनी पुश्तैनी पार्टियों से किनारा कर के भाजपा में शामिल हो गया था. पर नवहिंदुत्व का शिकार हुए इस तबके को चुनाव के बाद कुछ हासिल नहीं हुआ. यही वजह है कि इन जातियों के नेता अब भाजपा के खिलाफ मुखर होने लगे हैं.
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