साहित्य में आमतौर पर गरीबों को बड़ा उदार दिखाने की कोशिश की जाती है कि एक गरीब ही  गरीब के काम आता और ये तो अमीर हैं जो उन को लूटते हैं और जिन के पास गरीबों के लिए दिल नहीं होता. सच तो शायद इस का उलट है. गरीबों को अपनी बेवकूफियों और कम पढ़ेलिखा होने के कारण गरीब चोरउचक्कों का ज्यादा शिकार बनना पड़ता है.

कोविड के दौरान जब लाखों की तादाद में गरीब अपना छोटाछोटा सामान सिरों पर लाद कर पैदल सैंकड़ों मील अपने घर के लिए चले थे तो उन में से बहुतों को लूटा गया. कहींकहीं उन को अमीरों ने खाना खिलाया, दवाएं दीं, रात को सोने की जगह दी पर आमतौतर पर कोविड की वजह से गांवों में घुसने नहीं दिया गया और साथ ही उन का सामान भी चोरी कर लिया गया. जो थोड़ेबहुत पैसे लेकर वे चले थे, आखिर तक चोरी ही हो गए.

रेलवे स्टेशनों और रेलों में गिरोह बाकायदा गरीबों को लूटते हैं और घर ले जा रहे 4 कपड़ों, 2-3 बर्तन मोबाइल, बच्चों के खिलौने तक लूट ले जाते हैं. ये चोर अमीर नहीं, गरीब ही होते हैं. इन गरीब चोरों की बातों में गरीब मजदूर आसानी से आ जाते हैं.

रेलवे स्टेशनों के पास बनाई गई झुग्गियों में चोर अक्सर अपना ठिकाना बना लेते हैं और रिजर्व व जनरल बोगियों, प्लेटफार्मों, टिकट की लाइन, सिक्योरिटी लाइनों में से अटैचियां, बंडल चोरी कर लेते हैं.

जहां भी गाडिय़ां धीमी होती है या तकनीकी कारण से टे्रन रुकती है, चोर चढ़ कर सोते मजदूरों का सामान उठा कर भाग जाते हैं. 3-4 के गिरोह में चलने वाले ये लोग तेजी से चोरी का सामान एक से दूसरे हाथ देते हैं ताकि बेचारा मजदूर समझ ही न पाए कि हुआ क्या, उस के सिरहाने रखी अटैची गई कहां, जेब का मोबाइल गया कहां. कंपार्टमैंट में तो सभी उसी की तरह लोग होते हैं. इसलिए वह बेचारा किसी पर आरोप भी नहीं लगा पाता. बस रोता रह जाता है.

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