उत्तर प्रदेश में कभी अपने दम पर सरकार बना सकने वाली मायावती की बहुजन समाज पार्टी इस विधानसभा चुनाव में 22 प्रतिशत वोट पा कर सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई तो इस की वजह वे खुद हैं. मायावती 4 बार मुख्यमंत्री बनीं पर उन का एजेंडा कभी दलितों का विकास नहीं रहा. वे उसी ब्राह्मणवादी सोच में डूबी रहीं जिस की वजह से सदियों से हिंदू गुलाम रहे-मूर्तिपूजा. उन्होंने अंबेडकर, कांशीराम व अपनी मूर्तियां स्थापित कराईं पर यह नहीं सोचा कि इन मूर्तियों से दलितों को कोई लाभ नहीं मिलेगा जैसे कि राम, कृष्ण और शिव की मूर्तियों से कभी हिंदुओं को लाभ नहीं मिला.

यह ठीक है कि अपने देवताओं की मूर्तियां दुनियाभर में बनती रही हैं चाहे वे यूरोप में ईसा मसीह की हों, मिस्र में रेमसे शासकों की हों, बुद्घ की भारत, चीन, जापान में हों या कम्युनिस्ट देशों में लेनिन, मार्क्स और स्टालिन की हों पर यह समझना चाहिए कि उन से समर्थकों को एक जगह एकत्र होने का मौका तो मिलता है पर वे दूसरों से कट जाते हैं.

मायावती को ज्यादा सीटें जीतने के लिए जो 3-4 प्रतिशत वोट और चाहिए थे वे इसलिए नहीं मिल पाए क्योंकि मायावती किसी भी तरह के दलितविकास का मौडल नहीं दिखा सकती थीं. मायावती ने सोच रखा था कि चूंकि उन्होंने अंबेडकर स्मारक बनवा दिए, सो वे वोट पा जाएंगी. जबकि सच यह है कि हर वोट के लिए बेहद जुझारू होना पड़ता है और ऐसा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने किया.

मायावती को अगर दलितों का उद्घार करना है तो उन्हें अब उस मानसिकता को तोड़ने के लिए लड़ना होगा जिस की वजह से दलित ही नहीं, वैश्य, पिछड़े यानी शूद्र और अछूत सदियों मुगलों और अंगरेजों के शासनों में भी निचले स्तर पर बने रहे. मायावती यदि यह खुद नहीं कर सकतीं तो उन्हें राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए क्योंकि वे देशभर में फैले दलितों को अपने मंच पर खड़ा नहीं कर पाईं.

2014 के बाद 2017 में उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में भाजपा की जीतों ने यह साफ कर दिया है कि राजनीति चतुराई, तिकड़मी, लेनदेन, समझौतों से चलती है. 1915 से 1977 तक इसी वजह से कांग्रेस सफल रही और अब वही नरेंद्र मोदी व अमित शाह कर रहे हैं. मायावती को अपने समर्थकों से कहना होगा कि वे अपने बलबूते तब तक समाज में बराबरी की जगह न पा सकेंगे जब तक वे आर्थिक तौर पर मजबूत न होंगे. मायावती को सीटों की राजनीति छोड़ कर दबेकुचलों के विकास का मार्ग अपनाना पड़ेगा.

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