राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गुमनाम चेहरों को सत्ता सौंप कर भारतीय जनता पार्टी के आलाकमान ने जो संदेश देने की कोशिश की है, वह नेताओं को तो मिल चुका है, पर राजनीति के तमाम जानकार इस के अपने अलगअलग मतलब निकाल रहे हैं, लेकिन यह एकदम सौ फीसदी तय है कि केंद्र में ऐसा नहीं होने वाला है, बल्कि केंद्र की सत्ता को और मजबूत करने के लिए ही इन राज्यों में इतनी कवायद की गई है.

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह राजनीति के व्याकरण को ही बदल रहे हैं. वह व्याकरण यह है कि फैसला एक है, लेकिन उस के संदेश कई निकल रहे हैं. एक पौजिटिव संदेश यह निकला है कि पिछली कतार में बैठा संगठन के लिए काम करने वाला कार्यकर्ता भी किसी दिन बड़ा नेता बन कर मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ सकता है, लेकिन इसे भाजपा में साल 2014 के बाद समयसमय पर लाई जा रही वीआरएस स्कीम भी माना जाना चाहिए.

अगर थोड़ा पीछे मुड़ कर देखा जाए, तो इसी स्कीम के शिकार भाजपा के बड़े मुसलिम चेहरे मुख्तार अब्बास नकवी और शहनवाज हुसैन के साथ बिहार में सुशील मोदी भी हुए थे. यह संदेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के लिए भी है, क्योंकि साल 2023 की राजस्थान और मध्य प्रदेश की जीत के बाद वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान मान कर चल रहे थे कि उन्हें तो कोई हटाने की हिम्मत ही नहीं करेगा, मगर वैसा हुआ नहीं.

राज्यों में भाजपा का शिवराज सिंह चौहान के कद का कोई नेता नहीं है, इसलिए भाजपा आलाकमान ने साल 2022 में उत्तर प्रदेश के घटनाक्रम को देखते हुए कोई जोखिम नहीं लेना चाहा. जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद नौकरशाह रहे अरविंद शर्मा से जिस तरह से पेश आए थे, किसी ने ऐसी कल्पना तक नहीं की थी, जबकि वसुंधरा राजे के तीखे तेवर और भाजपा नेतृत्व से टकराव के किस्से कोई नए नहीं हैं. साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भाजपा की कमान संभालने से पहले भी वसुंधरा राजे अकसर भाजपा आलाकमान की परवाह न करते देखी गई हैं.

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