लड़का अपने शहर रायपुर को छोड़ कर भिलाई पहुंच गया, वहां के बारे में वह बहुत कुछ सुन चुका था. वह किसी घरेलू नौकरी की तलाश में था ताकि उसे पढ़नेलिखने की सुविधा भी मिल सके. ऐसा ही एक परिवार था, जहां से दोचार दिन में ही नौकरनौकरानियां काम छोड़ कर चल देते, क्योंकि उस घर की मालकिन के कर्कश स्वभाव से तंग आ कर वे टिक ही नहीं पाते थे. एक दिन लड़का उसी बंगले के सामने जा खड़ा हुआ और उस मालकिन से नौकरी देने का आग्रह करने लगा.
पहले तो उस ने लड़के की बातों पर कोई गौर नहीं किया, लेकिन फिर बोली, ‘‘लड़के, तुम क्याक्या काम कर सकते हो ’’ लड़के का आग्रह सुन कर मालकिन को लगा कि जरूर वह पहले कहीं काम कर चुका है. वह उस से बोली, ‘‘ठीक है, आज और अभी से मैं तुम्हें काम पर रखती हूं.’’
‘‘मालकिन, एक शर्त मेरी भी है,’’ लड़के ने हाथ जोड़ कर कहा.
‘‘बताइए, क्या है तुम्हारी शर्त ’’
‘‘मैं काम के बदले पैसा नहीं लूंगा बल्कि आप मुझे खाना, कपड़ा और मेरी पढ़ाईलिखाई की व्यवस्था कर दें,’’ लड़के ने दयनीय स्वर में कहा. पहले तो यह सुन कर मालकिन हड़बड़ा गई लेकिन अपनी मजबूरी को देखते हुए उस ने कह दिया, ‘‘ठीक है, लेकिन पढ़ाई-लिखाई के कारण घर का काम प्रभावित नहीं होना चाहिए.’’ लड़के को उस घर में काम मिल गया. वह सब से आखिर में सोता और सवेरे सब से पहले उठ कर काम शुरू कर देता. फिर काम निबटा कर स्कूल जाता. लड़का इस घर, नौकरी और पढ़ाईलिखाई, सभी से बड़ा खुश था. वह अपना काम भी पूरी ईमानदारी, लगन और मेहनत से करता. मालकिन को घरेलू नौकरचाकरों पर रोब झाड़ने की बुरी आदत थी, लेकिन उसे भी लड़के में जरा भी खोट दिखाई नहीं दिया. वह उस के काम से खुश थी.
घर वालों से प्यार और अपनापन मिलने के बावजूद लड़का इस बात का बराबर खयाल रखता कि वह एक नौकर है और उसे पढ़लिख कर एक दिन अच्छा आदमी बनना है. अपनी विधवा मां और भाईबहनों का सहारा बनना है. इधर इतना अच्छा और गुणी नौकर आज तक इस परिवार को नहीं मिला था. घर के बच्चों और खुद मालिक को दिनरात इसी बात का खटका लगा रहता था कि कहीं मालकिन इसे भी निकाल न दे. उधर आदत से मजबूर मालकिन उस लड़के से लड़ने का बहाना ढूंढ़ रही थी. एक दिन वह सोचने लगी कि यह दो कौड़ी का छोकरा इस घर में इतना घुलमिल कैसे गया न काम में सुस्ती, न अपनी पढ़ाईलिखाई में आलस और खाने के नाम पर बचाखुचा जो कुछ भी मिल जाए खा कर वह इतना खुश रहता है. एक दिन मालकिन ने सब की उपस्थिति में लड़के से कहा, ‘‘देखो, अब से तुम हर महीने अपना वेतन ले लिया करना, ताकि तुम अपने खानेपीने, रहने और पढ़नेलिखने का अलग से इंतजाम कर सको.’’
लड़का आश्चर्य से मालकिन की ओर देखने लगा. उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. उस ने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘मालकिन, मुझे मौका दो मैं अपना काम और अच्छी तरह से करूंगा.’’ लड़के की बातों से ऐसा लगा जैसे मातापिता की सेवा करने वाले इकलौते और गरीब श्रवणकुमार को किसी राजा ने अपना शिकार समझ कर आहत कर दिया हो और बाकी लोग राजा के डर से मात्र मूकदर्शक बने बैठे हों. मालकिन को अपने पति और बच्चों की चुप्पी से ठेस लगी. वह भीतर ही भीतर तिलमिला कर रह गई, लेकिन कुछ नहीं बोली. अब तक ऐसे मौकों पर सभी उस का साथ दिया करते थे, लेकिन इस बार घर के सब से छोटे बच्चे ने ही टोक दिया, ‘‘मां, इस तरह इस बेचारे को अलग करना ठीक नहीं.’’
यह सुन कर मालकिन आगबबूला हो गई और चिढ़ कर बोली, ‘‘यह छोटा सा चूहा भी अच्छेबुरे की पहचान करने लगा है और मैं अकेली ही इस घर में अंधी हूं.’’वहां पर कुछ देर के लिए अदालत जैसा दृश्य उपस्थित हो गया. न्यायाधीश की मुद्रा में साहब ने कहा, ‘‘किसी नौकर को निकालने या रखने के नाम से ही घर वाले आपस में लड़ने लगें तो नौकर समझ जाएगा कि इस घर में राज किया जा सकता है.’’
‘‘क्या मतलब ’’ मालकिन की आवाज में कड़कपन था.
‘‘मतलब साफ है, नौकर से मुकाबला करने के लिए हमें आपसी एकता मजबूत कर लेनी चाहिए,’’ साहब ने शांत स्वर में कहा. मालकिन अपनी गलती स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थी. बुरा सा मुंह बनाते हुए वह भीतर कमरे में चली गई. साहब ने बाहर जाते हुए लड़के को समझा दिया कि वह उन की बातों का बुरा न माने और भीतर कमरे में सब को समझाते हुए कहा कि लड़के पर कड़ी नजर रखी जाए. जहां तक हो सके उसे रंगेहाथों पकड़ा जाना चाहिए, ताकि उसे भी तो लगे कि उस ने गलती की है, चोरी की है और उस से अपराध हुआ है.
वह दिन भी आ गया, जब लड़के को निकालने के बारे में अंतिम निर्णय लिया जाना था. लड़का उस समय रसोई साफ कर रहा था. घर के सभी सदस्य एक कमरे में बैठ गए. साहब ने पूछा, ‘‘अच्छा, किसी को कोई ऐसा कारण मिला है, जिस से लड़के को काम से अलग किया जा सके ’’ मालकिन चुप थी. उसे अपनेआप पर ही गुस्सा आ रहा था कि वह भी कैसी मालकिन है, जो एक गरीब नौकर में छोटी सी खोट भी नहीं निकाल सकी. मालकिन की गंभीरता और चुप्पी को देख कर साहब ने मजाक में ही कह दिया, ‘‘मुझे नहीं लगता कि बबूल में भी गुलाब खिल सकते हैं.’’
‘‘जिस माली की सेवा में दम हो, वह बबूल और नागफनी में भी गुलाब खिला सकता है,’’ मालकिन के मुंह से ऐसी बात सुन कर, दोनों बच्चों और साहब का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया. जब बात बनने के लक्षण दिखने लगे तो साहब ने कहा, ‘‘देखो भाई, जो भी कहना है, साफसाफ कह दो. बेचारे लड़के का मन दुविधा में क्यों डाल रहे हो ’’ तब मालकिन ने चिल्ला कर उस लड़के को बुलाया. लड़का आया तो मालकिन ऐसे चुप हो गई, जैसे उस ने लड़के को पुकारा ही न हो. वह ऐसे मुंह फुला कर बैठ गई, जैसे लड़के की कोई बड़ी गलती उस ने पकड़ ली हो.
अभीअभी बबूल, नागफनी, गुलाब और माली की बातें करने वाली मालकिन को फिर यह कैसी चाल सूझी यह सोच कर साहब ने कहा, ‘‘जो कहना है साफसाफ कह दो, बेचारा कहीं और काम कर लेगा.’’
‘‘मुझे साफसाफ कहने के लिए समय चाहिए,’’ मालकिन बोली और वैसे ही मुंह फुला कर बैठी रही.
‘‘और कब तक इस बेचारे को अधर में लटका कर रखोगी, जो कहना है अभी कह दो,’’ साहब ने कहा, इस बार साहब और बच्चों ने भी तय कर लिया था कि मालकिन की इस तरह बारबार नौकर बदलने की आदत को सुधार कर ही दम लेंगे. मालकिन ने ताव खा कर कहा, ‘‘तो सुनो, जब तक यह लड़का अपने पांव पर खड़ा नहीं हो जाता, तब तक इसी घर में रहेगा, समझे.’’ एकाएक मालकिन में हुए इस परिवर्तन से सभी को आश्चर्य तथा अपार खुशी हुई. वैसे बबूल, नागफनी, गुलाब और माली वाली बातों का खयाल आते ही, सब को लगा कि मालकिन लड़के को पहले से ही अच्छी तरह परख चुकी थी और उस की जिंदगी संवारने के लिए मन ही मन अंतिम निर्णय भी ले चुकी थी.
काफी देर सोचने के बाद महेश ने फैसला किया कि उसे बिना टिकट खरीदे ही रेल में बैठ जाना चाहिए, बाद में जोकुछ होगा देखा जाएगा, क्योंकि रेल कुछ ही देर में प्लेटफार्म पर आने वाली है. महेश रेल में बिना टिकट के बैठना नहीं चाहता था. जब वह घर से चला था, तब उस की जेब में 2 हजार के 2 कड़क नोट थे, जिन्हें वह कल ही बैंक से लाया था. घर से निकलते समय सौसौ के 2 नोट जरूर जेब में रख लिए थे कि 2 हजार के नोट को कोई खुला नहीं करेगा. जैसे ही महेश घर से बाहर निकला कि सड़क पर उस का दोस्त दीनानाथ मिल गया, जो उस से बोला था, ‘कहां जा रहे हो महेश?’
महेश ने कहा था, ‘उदयपुर.’
दीनानाथ बोला था, ‘जरा 2 सौ रुपए दे दे.’
‘क्यों भला?’ महेश ने चौंकते हुए सवाल किया था.
‘अरे, कपड़े बदलते समय पैसे उसी में रह गए…’ अपनी मजबूरी बताते हुए दीनानाथ बोला था, ‘अब घर जाऊंगा, तो देर हो जाएगी. मिठाई और नमकीन खरीदना है. थोड़ी देर में मेहमान आ रहे हैं.’
‘मगर, मेरे पास तो 2 सौ रुपए ही हैं. मुझे भी खुले पैसे चाहिए और बाकी 2 हजार के नोट हैं,’ महेश ने भी मजबूरी बता दी थी.
‘देख, रेलवे वाले खुले पैसे कर देंगे. ला, जल्दी कर,’ दीनानाथ ने ऐसे कहा, जैसे वह अपना कर्ज मांग रहा है.
महेश ने सोचा, ‘अगर इसे 2 सौ रुपए दे दिए, तो पैसे रहते हुए भी मेरी जेब खाली रहेगी. अगर टिकट बनाने वाले ने खुले पैसे मांग लिए, तब तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी. कोई दुकानदार भी कम पैसे का सामान लेने पर नहीं तोड़ेगा.’
दीनानाथ दबाव बनाते हुए बोला था, ‘क्या सोच रहे हो? मत सोचो भाई, मेरी मदद करो.’
‘मगर, टिकट बाबू मेरी मदद नहीं करेगा,’ महेश ने कहा, पर न चाहते हुए भी उस का मन पिघल गया और जेब से निकाल कर उस की हथेली पर 2 सौ रुपए धर दिए.
दीनानाथ तो धन्यवाद दे कर चला गया.
जब टिकट खिड़की पर महेश का नंबर आया, तो उस ने 2 हजार का नोट पकड़ाया.
महेश ने कहा कि खुले पैसे नहीं हैं, पर वह खुले पैसों के लिए अड़ा रहा. उस की एक न सुनी.
इसी बीच गाड़ी का समय हो चुका था. खुले पैसे न होने के चलते महेश को टिकट नहीं मिला, इसलिए वह प्लेटफार्म पर आ गया.
प्लेटफार्म पर बैठ कर महेश ने काफी विचार किया कि उदयपुर जाए या वापस घर लौट जाए. उस का मन बिना टिकट के रेल में जाने की इजाजत नहीं दे रहा था, फिर मानो कह रहा था कि चला जा, जो होगा देखा जाएगा. अगर टिकट चैकर नहीं आया, तो उदयपुर तक मुफ्त में चला जाएगा.
इंदौरउदयपुर ऐक्सप्रैस रेल आउटर पर आ चुकी थी. धीरेधीरे प्लेटफार्म की ओर बढ़ रही थी. महेश ने मन में सोचा कि बिना टिकट नहीं चढ़ना चाहिए, मगर जाना भी जरूरी है. वहां वह एक नजदीकी रिश्तेदार की शादी में जा रहा है. अगर वह नहीं जाएगा, तो संबंधों में दरार आ जाएगी.
जैसे ही इंजन ने सीटी बजाई, महेश यह सोच कर फौरन रेल में चढ़ गया कि जब ओखली में सिर दे ही दिया, तो मूसल से क्या डरना?
रेल अब चल पड़ी. महेश उचित जगह देख कर बैठ गया. 6 घंटे का सफर बिना टिकट के काटना था. एक डर उस के भीतर समाया हुआ था. ऐसे हालात में टिकट चैकर जरूर आता है.
भारतीय रेल में यों तो न जाने कितने मुसाफिर बेटिकट सफर करते हैं. आज वह भी उन में शामिल है. रास्ते में अगर वह पकड़ा गया, तो उस की कितनी किरकिरी होगी.
जो मुसाफिर महेश के आसपास बैठे हुए थे, वे सब उदयपुर जा रहे थे. उन की बातें धर्म और राजनीति से निकल कर नोटबंदी पर चल रही थीं. नोटबंदी को ले कर सब के अपनेअपने मत थे. इस पर कोई विरोधी था, तो कोई पक्ष में भी था. मगर उन में विरोध करने वाले ज्यादा थे.
सब अपनेअपने तर्क दे कर अपने को हीरो साबित करने पर तुले हुए थे. मगर इन बातों में उस का मन नहीं लग रहा था. एकएक पल उस के लिए घंटेभर का लग रहा था. उस के पास टिकट नहीं है, इस डर से उस का सफर मुश्किल लग रहा था.
नोटबंदी के मुद्दे पर सभी मुसाफिर इस बात से सहमत जरूर थे कि नोटबंदी के चलते बचत खातों से हफ्तेभर के लिए
24 हजार रुपए निकालने की छूट दे रखी है, मगर यह समस्या उन लोगों की है, जिन्हें पैसों की जरूरत है.
महेश की तो अपनी ही अलग समस्या थी. गाड़ी में वह बैठ तो गया, मगर टिकट चैकर का भूत उस की आंखों के सामने घूम रहा था. अगर उसे इन लोगों के सामने पकड़ लिया, तो वह नंगा हो जाएगा. उस का समय काटे नहीं कट रहा था.
फिर उन लोगों की बात रेलवे के ऊपर हो गई. एक आदमी बोला, ‘‘आजादी के बाद रेलवे ने बहुत तरक्की की है. रेलों का जाल बिछा दिया है.’’
दूसरा आदमी समर्थन करते हुए बोला, ‘‘हां, रेल व्यवस्था अब आधुनिक तकनीक पर हो गई है. इक्कादुक्का हादसा छोड़ कर सारी रेल व्यवस्था चाकचौबंद है.’’
‘‘हां, यह बात तो है. काम भी खूब हो रहा है.’’
‘‘इस के बावजूद किराया सस्ता है.’’
‘‘हां, बसों के मुकाबले आधे से भी कम है.’’
‘‘फिर भी रेलों में लोग मुफ्त में चलते हैं.’’
‘‘मुफ्त चल कर ऐसे लोग रेलवे का नुकसान कर रहे हैं.’’
‘‘नुकसान तो कर रहे हैं. ऐसे लोग समझते हैं कि क्यों टिकट खरीदें, जैसे रेल उन के बाप की है.’’
‘‘हां, सो तो है. जब टिकट चैकर पकड़ लेता है, तो लेदे कर मामला रफादफा कर लेते हैं.’’
‘‘टिकट चैकर की यही ऊपरी आमदनी का जरीया है.’’
‘‘इस रेल में भी बिना टिकट के लोग जरूर बैठे हुए मिलेंगे.’’
‘हां, मिलेंगे,’ कई लोगों ने इस बात का समर्थन किया.
महेश को लगा कि ये सारी बातें उसे ही इशारा कर के कही जा रही हैं. वह बिना टिकट लिए जरूर बैठ गया, मगर भीतर से उस का चोर मन चिल्ला कर कह रहा है कि बिना टिकट ले कर रेल में बैठ कर उस ने रेलवे की चोरी की है. सरकार का नुकसान किया है.
रेल अब भी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी. मगर रेल की रफ्तार से तेज महेश के विचार दौड़ रहे थे. उसे लग रहा था कि रेल अब भी धीमी रफ्तार से चल रही है. उस का समय काटे नहीं कट रहा था. भीतरी मन कह रहा था कि उदयपुर तक कोई टिकट चैकर न आए.
अभी रेल चित्तौड़गढ़ स्टेशन से चली थी. वही हो गया, जिस का डर था. टिकट चैकर आ रहा था. महेश के दिल की धड़कनें बढ़ गईं. अब वह भी इन लोगों के सामने नंगा हो जाएगा. सब मिल कर उस की खिल्ली उड़ाएंगे, मगर उस के पास तो पैसे थे. टिकट खिड़की बाबू ने खुले पैसे न होने के चलते टिकट नहीं दिया था. इस में उस का क्या कुसूर? मगर उस की बात पर कौन यकीन करेगा? सारा कुसूर उस पर मढ़ कर उसे टिकट चोर साबित कर देंगे और इस डब्बे में बैठे हुए लोग उस का मजाक उड़ाएंगे.
टिकट चैकर ने पास आ कर टिकट मांगी. उस का हाथ जेब में गया. उस ने 2 हजार का नोट आगे बढ़ा दिया.
टिकट चैकर गुस्से से बाला, ‘मैं ने टिकट मांगा है, पैसे नहीं.’’
‘‘मुझे 2 हजार के नोट के चलते टिकट नहीं मिला. कहा कि खुले पैसे दीजिए. आप अपना जुर्माना वसूल कर के उदयपुर का टिकट काट दीजिए,’’ कह कर महेश ने अपना गुनाह कबूल कर लिया.
मगर टिकट चैकर कहां मानने वाला था. वह उसी गुस्से से बोला, ‘‘सब टिकट चोर पकड़े जाने के बाद यही बोलते हैं… निकालो साढ़े 5 सौ रुपए खुले.’’
‘‘खुले पैसे होते तो मैं टिकट ले कर नहीं बैठता,’’ एक बार फिर महेश आग्रह कर के बोला, ‘‘टिकट के लिए मैं उस बाबू के सामने गिड़गिड़ाया,
मगर उसे खुले पैसे चाहिए थे. मेरा उदयपुर जाना जरूरी था, इसलिए बिना टिकट लिए बैठ गया. आप मेरी मजबूरी क्यों नहीं समझते हैं.’’
‘‘आप मेरी मजबूरी को भी क्यों नहीं समझते हैं?’’ टिकट चैकर बोला, ‘‘हर कोई 2 हजार का नोट पकड़ाता रहा, तो मैं कहां से लाऊंगा खुले पैसे. अगर आप नहीं दे सकते हो, तो अगले स्टेशन पर उतर जाना,’’ कह कर टिकट चैकर आगे बढ़ने लगा, तभी पास बैठे एक मुसाफिर ने कहा, ‘‘रुकिए.’’
उस मुसाफिर ने महेश से 2 हजार का नोट ले कर सौसौ के 20 नोट गिन कर दे दिए.
उस टिकट चैकर ने जुर्माना सहित टिकट काट कर दे दिया.
टिकट चैकर तो आगे बढ़ गया, मगर उन लोगों को नोटबंदी पर चर्र्चा का मुद्दा मिल गया.
अब महेश के भीतर का डर खत्म हो चुका था. उस के पास टिकट था. उसे अब कोई टिकट चोर नहीं कहेगा. उस ने उस मुसाफिर को धन्यवाद दिया कि उस ने खुले पैसे दे कर उस की मदद की. रेल अब भी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी.
वह सरकार की मनमानी की वजह से टिकट चोर बन जाता. गनीमत है कि कुछ लोग सरकार और प्रधानमंत्री से ज्यादा समझदार थे और इस बेमतलब की आंधी में अपनी मुसीबतों की फिक्र करे बिना ही दूसरों की मदद करने वाले थे.
शुचि शाम को मेरा हालचाल जानने मेरे घर आई. मैं ने उसे अपने पास बिठाया और एक चेक उसे दिखाते हुए बोला, ‘‘यह 5 लाख रुपए का चेक मैं ने तुम्हारे नाम से आज ही भर दिया है. अब मुझ से पूछो कि इस रकम की हकदार बनने के लिए तुम्हें क्या करना पड़ेगा.
’’‘‘क…क्या करना पड़ेगा, सर?’’ वह एकदम से टेंशन का शिकार तो बन गई पर डरी हुई बिलकुल नजर नहीं आ रही थी.
‘‘क्या तुम मेरी सारी बातें खुशी- खुशी मानोगी?’’
‘‘सर, आप के इस एहसान का बदला मैं कैसे भी चुकाने को तैयार हूं.’’
सीमा की अपनी बेटी के प्रति चिंता जायज थी. मैं चाहता तो भावुकता की शिकार बनी शुचि को गलत राह पर कदम रखने को आसानी से राजी कर सकता था.
‘‘मैं ने कुछ दिन पहले कहा था न कि दोस्तों के बीच एहसान शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है. अब तो मैं तुम्हारे परिवार से भी जुड़ गया हूं. इसलिए यह शब्द मैं फिर कभी नहीं सुनना चाहूंगा.’’
‘‘ठीक है, सर.’’
‘‘अब इस ‘सर’ को भी विदा कह कर मुझे ‘नरेश अंकल’ बुलाओ. इस संबोधन में ज्यादा अपनापन है.’’
‘‘ओ के, नरेश अंकल…’’ वह मेरे चेहरे को बड़े ध्यान से पढ़ने की कोशिश कर रही थी.
‘‘यह मेरी दिली इच्छा है कि एम.बी.ए. के लिए तुम्हें अच्छे कालिज में प्रवेश मिले. इस लक्ष्य को पाने के लिए तुम्हें बहुत मेहनत करने का वचन मुझे देना होगा, शुचि.’’
‘‘मैं बहुत मेहनत करूंगी,’’ उस की आंखों में दृढ़ निश्चय के भाव उभरे.
‘‘आज से ही?’’
‘‘हां, मैं आज से ही दिल लगा कर मेहनत करूंगी, नरेश अंकल,’’ वह जोश भरी आवाज में चिल्लाई और फिर हम दोनों ही खुल कर हंस पड़े थे.
‘‘गुड,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ रख कर दिल की गहराइयों से उसे आशीर्वाद दिया तो वह एक आदर्श बेटी की तरह मेरे पैर छू कर सीने से लग गई.
उस के मार्गदर्शन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मैं जिस जोश और उत्साह को अपने भीतर महसूस कर रहा था, उस ने मेरे अकेलेपन के एहसास की जड़ें पूरी तरह नष्ट कर दी थीं.
‘‘आरती, प्लीज मेरी बात सुनो. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. प्लीज, मुझे माफ कर दो,’’ रंजन बहुत देर तक दरवाजा पीटता रहा, मगर आरती ने कोई जवाब नहीं दिया और न ही दरवाजा खोला. थकहार कर रंजन हाल में आ कर दीवान पर अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.
कानपुर, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कसबे झींझक से नौकरी की तलाश में आए रंजन को बरलाई शुगर मिल में सिक्योरिटी इंचार्ज की पोस्ट उस की अच्छी बौडी की वजह से मिल गई थी. वहीं फैक्टरी के एरिया में उसे 2 कमरों का क्वार्टर भी मिला था.
अच्छे से सर्विस में जमने के बाद रंजन अपनी पत्नी आरती को भी यहीं ले आया था. शादी हुए तकरीबन 2 साल हो चुके थे, पर अभी तक उन के कोई औलाद नहीं थी.
शुगर फैक्टरी में अक्तूबर से फरवरीमार्च महीने तक का समय सीजन कहलाता है यानी इस समय फैक्टरी में चीनी बनने का प्रोसैस चालू रहता है. यह समय सभी मुलाजिमों के लिए बहुत अहम रहता है. यहां तक कि सभी अफसरों के लिए भी.
उस दिन रंजन की छुट्टी थी. पास ही देवास से उस के कुछ दोस्त फैक्टरी देखने आए हुए थे. चलती फैक्टरी में चीनी बनाने का प्रोसैस देखना बहुत दिलचस्प होता है. सभी बड़े ध्यान से गन्ने को क्रेन द्वारा उठा कर क्रेन कैरियर में डाला जाना देख रहे थे.
जिस ट्रक से गन्ना उठाया जा रहा था, खाली होने के बाद वह वापस मुड़ने लगा कि अचानक ही रंजन की नजर एक नन्हीं सी बच्ची पर पड़ी, जो अपनी ही धुन में हाथ में एक छोटा सा गन्ना लिए उस ट्रक के ठीक पीछे खेल रही थी.
रंजन बिना एक भी पल गंवाए चिल्लाता हुआ उस ओर फुरती से दौड़ पड़ा. ट्रक उस बच्ची से हाथ भर की दूरी पर ही था कि रंजन ने बच्ची को खींच कर अपनी गोद में उठा लिया.
लोगों के शोरगुल से सारा माजरा समझ कर ट्रक वाले ने तुरंत ब्रेक लगाया. आननफानन वहां भीड़ जमा हो गई. ट्रक वाले ने उतर कर हाथ जोड़ते हुए सभी से माफी मांगी और रंजन का शुक्रिया अदा किया.
इस घटना से घबराई बच्ची रंजन से कस कर लिपट गई, तभी पीछे से किसी ने रंजन की बांह पकड़ कर उसे खींचा और एक झन्नाटेदार थप्पड़ उस के गाल पर जड़ दिया, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी बेटी को हाथ लगाने की?’’
बच्ची अब रंजन को छोड़ कर ‘मांमां’ कहते हुए उस औरत के गले
जा लगी.
‘‘अरे मैडम, आप बिना सोचेसमझे जिस इनसान को मार रही हैं, उसी ने आप की बेटी को ट्रक की चपेट में आने से बचाया है. कैसी मां हैं आप? खुद बच्ची का खयाल नहीं रखतीं और दूसरों पर तोहमत लगाती हैं?’’ रंजन के दोस्त ने थोड़ा तैश में आ कर कहा.
पूरी बात समझने के बाद वह औरत नेहा बहुत ही शर्मिंदा हुई. उस ने तत्काल रंजन से माफी मांगी और उसे ‘थैंक्यू’ कहा.
रात को बिस्तर पर लेटे हुए रंजन को उस बच्ची की याद हो आई. फिर उसे उस की मां का वह थप्पड़ भी याद आया. कितनी घबराई हुई थी उस बच्ची की मां.
2-3 दिन बाद रंजन केबिन में बैठा था कि सामने से उसे वही औरत आती दिखी. वह उसी की तरफ बढ़ी चली आ रही थी.
‘‘मैं सच में उस दिन के लिए बहुत शर्मिंदा हूं. कई बार सोचा कि तुम से मिल कर माफी मांग लूं, पर हिम्मत नहीं हो रही थी. अगर उस दिन तुम मेरी परी को न बचाते, तो मेरी पूरी दुनिया ही उजड़ जाती. समझ नहीं आ रहा कि कैसे तुम्हारा शुक्रिया अदा करूं रंजन,’’ कह कर नेहा ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए.
‘‘प्लीज, ऐसी बातें न करें. मैं ने उस दिन जो किया, वह मेरा फर्ज था. क्या आप यहीं फैक्टरी में रहती हैं?’’ बात बदलने के मकसद से रंजन ने पूछा.
‘‘हां, शाम को पार्क में मिलो न, वहीं बात करते हैं. परी भी तुम्हें देख कर खुश हो जाएगी. अभी मेरे औफिस का समय हो रहा है,’’ कहते हुए नेहा तेजी से जनरल औफिस की तरफ चल दी.
शाम को रंजन पार्क में पहुंचा, तभी परी चिल्लाई, ‘‘मम्मी, मुझे बचाने वाले अंकल…’’
नेहा ने मुड़ कर पीछे देखा, तो रंजन को अपनी ओर अपलक ताकते देख वह हौले से मुसकरा उठी. रंजन थोड़ा अचकचा गया, जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो.
रंजन और नेहा देर तक बतियाते रहे. नेहा ने अपने बारे में रंजन को बताया कि तकरीबन सालभर पहले उस के पति एक सड़क हादसे में चल बसे है. बहुत टूट गई थी वह, लेकिन परी का मुंह देख कर उस ने जिंदगी जीने की ठान ली. मिल की नीतियों के तहत पति की नौकरी उसे मिल गई थी. तब से वह यहीं है.
नेहा के खुले बरताव ने रंजन पर बहुत असर डाला. आरती घर पर थी नहीं, रंजन के कोई ज्यादा यारदोस्त भी नहीं थे. उस के पास अभी समय ही समय था. इधर जिंदगी के अकेलेपन से ऊबी हुई नेहा भी रंजन में काफी दिलचस्पी दिखा रही थी. नतीजतन, वे काफी समय साथ बिताने लगे. परी भी रंजन से काफी घुलमिल चुकी थी.
‘‘कल परी का बर्थडे है और तुम्हें घर आना है,’’ एक शाम नेहा ने रंजन
से कहा.
‘‘अरे वाह, बिलकुल आऊंगा, वैसे और कौनकौन आ रहा है?’’ रंजन ने हंस कर पूछा.
‘‘तुम, मैं और हमारी परी बस,’’ परी के गालों पर एक प्यारी सी चुम्मी लेते हुए नेहा ने कहा.
रंजन को कुछ अजीब सा लग रहा था. दरअसल, उसे इस तरह अकेले नेहा के घर जाने में सकुचाहट महसूस हो रही थी, लेकिन नेहा और परी से हो चुके जुड़ाव के चलते आखिरकार उस ने उन के घर जाने का फैसला कर लिया.
दूसरे दिन शाम साढ़े 6 बजे रंजन नेहा के घर जा पहुंचा. परी ने दरवाजा खोला, तो उस ने उसे बर्थडे विश करते हुए एक खूबसूरत गिफ्ट उस के हाथों में रख दिया.
‘‘अंकल, आप क्या लाए हो मेरे लिए?’’ पूछते हुए परी गिफ्ट को खोलने में लग गई.
‘‘खुद ही खोल कर देख लो,’’ हंस कर कहते हुए रंजन ने बैठक में चारों तरफ नजर दौड़ाई. कमरे में सामने की दीवार पर एक फोटो में नेहा के साथ उस के पति व परी को देख कर रंजन हैरानी से भर गया.
‘‘क्या देख रहे हो रंजन, ये परी के पापा हैं,’’ नेहा की आवाज सुन रंजन पीछे मुड़ा. उस की नजरें एकटक नेहा पर जा टिकीं. शानदार इवनिंग गाउन में नेहा बला की खूबसूरत नजर आ रही थी.
तीनों ने मिल कर केक काटा. फिर खाना खा कर ढेर सारी मस्ती और डांस किया. 8 बजने को थे. परी थक कर सो चुकी थी. नेहा के कहने पर रंजन ने उसे बैडरूम में ले जा कर सुला दिया.
‘‘काफी देर हो चुकी है. अब मुझे चलना चाहिए,’’ रंजन ने नेहा से चलने की इजाजत लेनी चाही.
‘‘मुझे छोड़ कर जा सकोगे तुम?’’ नेहा की मदभरी आवाज ने उस के बढ़ते कदमों को जैसे रोक दिया. उस ने आगे बढ़ कर रंजन का हाथ थाम उसे खींच कर सोफे पर बिठा दिया.
‘‘नेहाजी, यह सही नहीं है,’’ रंजन के हिलते होंठों की आवाज गले में ही घुट कर रह गई. नेहा ने उस के मुंह पर उंगली रखी और उस पर झुकती चली गई.
नेहा का संगमरमरी बदन और उस से आती खुशबू ने रंजन को दीवाना कर दिया. नेहा की सांसें और ऊपरनीचे होते उभार रंजन को मदहोश करने के लिए काफी थे. वह पहले झिझकता, पर बाद में नेहा की इस रसीली दावत को नकार न सका और उस के बदन से खेलने लगा.
पर, घर आ कर रंजन को बहुत पछतावा होने लगा. वह एक शादीशुदा खुशहाल इनसान था, लेकिन वक्ती नजाकत में उसे भी होश नहीं रह गया था. नेहा की खूबसूरती ने उस से वह करवा लिया था, जिसे सोच कर भी उसे शर्म आ रही थी. वह नेहा से दूर रहने लगा.
ऐसे ही एक दिन शाम को औफिस से आने के बाद रंजन चाय पीते हुए टैलीविजन देख रहा था कि डोरबैल बजी. दरवाजा खोलते ही रंजन चौंक पड़ा. दरवाजे पर नेहा परी को लिए खड़ी थी.
‘‘अंकल देखो, मम्मी ने मुझे कितनी अच्छी घड़ी दिलाई है. यह अंधेरे में भी टाइम बताती है.’’
‘‘अरे वाह, यह तो सच्ची में बहुत सुंदर है,’’ रंजन ने उसे प्यार से दुलारते हुए कहा.
‘‘आप थोड़ी देर टीवी देखो, मम्मी को अंकल से कुछ जरूरी बात करनी है,’’ नेहा ने परी से कहा.
‘‘ओके मम्मी,’’ परी रिमोट ले कर चैनल बदलने लगी.
‘‘इधर आओ,’’ नेहा ने रंजन का हाथ पकड़ कर उसे उसी के बैडरूम में खींच लिया.
‘‘यह क्या कर रही हैं आप?’’ रंजन ने अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा.
‘‘मेरा फोन क्यों नहीं उठा रहे थे तुम?’’ नेहा ने गुस्से से पूछा.
‘‘देखिए, उस दिन जो भी हुआ, सही नहीं था.’’
‘‘तुम कहना चाहते हो, जो भी हुआ उस में तुम्हारी मरजी नहीं थी?’’
‘‘अगर आप मुझे न उकसाती, तो यह न होता.’’
‘‘अच्छा तो मेरी आंखों में देख कर कहो कि तुम मुझे नहीं चाहते?’’
‘‘देखिए, मैं आप को पसंद करता हूं, परी को भी बहुत प्यार करता हूं, पर…’’
‘’छोड़ दीजिए मुझे,‘‘ आखिर मीनाक्षी गिड़गिड़ाती हुई बोली.
‘‘छोड़ दूंगा, जरूर छोड़ दूंगा,’’ उस मोटे पिलपिले खूंख्वार चेहरे वाले व्यक्ति ने कहा, ‘‘मेरा काम हो जाए फिर छोड़ दूंगा.’’
वह व्यक्ति मीनाक्षी को कार में बैठा कर ले जा रहा था जब वह सहेली के यहां से रात 11 बजे पार्टी से निबट कर अकेली अपने घर जाने के लिए सुनसान सड़क पर औटो की प्रतीक्षा कर रही थी तभी काले शीशे वाली एक कार न जाने कब उस के पास आ कर खड़ी हो गई. वह संभले तब तक कार का दरवाजा खुला और उसे खींच कर कार में बैठा लिया गया. कार अपनी गति से दौड़ रही थी. यह सब अचानक उस के साथ हुआ. जब वह सहेली के यहां से निकली थी, तो उस ने अपने पति धर्मेंद्र को फोन किया था, ‘‘मैं निकल रही हूं,‘‘ तब धर्मेंद्र ने कहा था, ‘‘मैं आ रहा हूं तुम्हें लेने. तुम वहीं रुकना.’’
उस ने इनकार करते हुए कहा था, ‘‘नहीं धर्मेंद्र, मत आना लेने. मैं आ जाऊंगी. औरत को भी खुद पर निर्भर रहने दो. मैं औटो कर के आ जाऊंगी.‘‘
सच, अकेली औरत का रात को घर से बाहर निकलना खतरे को न्योता देना था. इस संदर्भ में कई बार वह धर्मेंद्र को कहती थी कि औरत को अकेली रहने दो. मगर आज उस के जोश की हवा निकल गई थी. उस को किडनैप कर लिया गया था. वह व्यक्ति उस के साथ क्या करेगा? वह उस व्यक्ति से गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘मुझे छोड़ दीजिए, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं.’’
‘‘मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. यह बताओ तुम्हारा नाम क्या है?’’
‘‘मीनाक्षी.’’
‘‘पति का नाम?’’
‘‘धर्मेंद्र.’’
‘‘क्या करता है, वह?’’
‘‘नगर निगम में लेखाधिकारी हैं.’’
‘‘उस सुनसान सड़क पर क्या कर रही थी?’’
‘‘सहेली के यहां पार्टी में गई थी. औटो का इंतजार कर रही थी.’’
‘‘झूठ बोल रही है, एक सभ्य औरत रात को अकेली नहीं घूमती. यदि घूमती भी है तो साथ में कोई पुरुष होता है. यह क्यों नहीं कहती कि ग्राहक ढूंढ़ रही थी. निश्चित ही तू वेश्यावृत्ति करती है.’’
‘‘नहींनहीं… मैं वेश्यावृत्ति नहीं करती. मैं सभ्य घराने की महिला हूं.’’
‘‘बकवास बंद कर, यदि सभ्य घराने की होती तो रात को अकेली यों सड़क पर न घूमती. तुझ जैसी सभ्य घराने की औरतें पैसों के लिए आजकल चुपचाप वेश्यावृत्ति करती हैं,’’ उस व्यक्ति ने यह कह कर उसे वेश्या घोषित कर दिया.
वह पछता रही थी कि अकेली रात को क्यों बाहर निकली. फिर भी साहस कर के वह बोली, ‘‘अब आप को कैसे समझाऊं?’’
‘‘मुझे समझाने की कोई जरूरत नहीं. मैं तुझ जैसी औरतों को अच्छी तरह जानता हूं. तुम अपने पति को धोखा दे कर धंधा करती हो. पति को कह दिया, सहेली के यहां जा रही हूं. आज मैं तुम्हारा ग्राहक हूं, समझी,’’ कह कर उस ने कस कर मीनाक्षी का हाथ पकड़ लिया.
अब इस के चंगुल से वह कैसे निकले. कैसे कार से बाहर निकले. उस के भीतर द्वंद्व चलने लगा. इस समय उस के पांव पूरी तरह खुले थे. बस, पांवों का ही इस्तेमाल कर सकती है. उस ने चौराहे के पहले स्पीडब्रेकर को देख उस की जांघों के बीच जम कर लात दे मारी. खिड़की से टकरा कर उस का हाथ छूट गया. तत्काल उस ने दरवाजा खोला और कूद पड़ी.
जिस सड़क पर वह गिरी वहां 3-4 लोग खड़े थे. इस तरह फिल्मी दृश्य देख कर वे हतप्रभ रह गए. वे दौड़ कर उस के पास आए. उसे चोट तो जरूर लगी, मगर वह सुरक्षित थी. उन में से एक व्यक्ति बोला, ‘‘उस कार वाले ने गिराया.’’
‘‘नहीं,’’ वह हांफती हुई बोली.
‘‘क्या खुद गिरी?’’ दूसरे व्यक्ति ने पूछा.
‘‘हां,’’ कह कर उस ने केवल सिर हिलाया.
‘‘मगर क्यों गिरी?’’ तीसरे ने पूछा.
‘‘उस व्यक्ति ने मेरा किडनैप किया था.’’
‘‘कहां से किया?’’ चौथे व्यक्ति ने पूछा.
‘‘आजाद चौक से,’’ उस ने उत्तर दे कर सड़क की तरफ उस ओर देखा कि कहीं कार पलट कर तो नहीं आ रही है. उसे तसल्ली हो गई कि कार चली गई है तब उस ने राहत की सांस ली.
‘‘मगर उस व्यक्ति ने तुम्हारा किडनैप क्यों किया?’’ पहले व्यक्ति ने उस की तरफ शरारत भरी नजरों से देखा. उस की आंखों में वासना झलक रही थी.
‘‘उस्ताद, यह भी कोई पूछने की बात है कि इस परी का किडनैप क्यों किया होगा.’’
दूसरा व्यक्ति लार टपकाते हुए बोला, ‘‘भला हो, उस कार वाले का, जो इसे यहां पटक गया.’’
सड़क पर सन्नाटा था. इक्कादुक्का दौड़ते वाहन सड़क पर पसरे सन्नाटे को तोड़ रहे थे. उस ने देखा कि वह उन चारों के बीच घिर गई है, ‘इन की नीयत भी ठीक नहीं लगती. यदि इन्होंने भी वही हरकत की तो…’ सोच कर वह सिहर उठी.
‘‘अरे बेवकूफ, कार वाले ने हमारे लिए फेंका है और तू पूछ रहा है कहां रहती हो,’’ चौथे ने तीसरे को डांटते हुए कहा, ‘‘अरे, यह तो हम चारों की द्रौपदी है. चलो, ले चलो.‘‘
वह समझ गई, उन की नीयत में खोट है. एक गुंडे से उस ने पिंड छुड़ाया. अब 4 गुंडों के बीच फंस गई है. यहां से निकलना मुश्किल है. वह एक औरत है. उसे यहां भी बहादुरी दिखानी है. उसे इस जगह अब झांसी की रानी बनना है. इन गुंडों को सबक सिखाना है. वे चारों गुंडे उसे देख कर लार टपका रहे थे. ‘मीनाक्षी असली परीक्षा की घड़ी तो अब है. यदि इन से बच गई तो समझ लो जीत गई. गुंडों से लड़ना पड़ेगा. इन्होंने औरत को अबला समझ रखा है. बन जा सबला.’ वे चारों गुंडे कुछ करें इस के पहले ही वह बोली, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ लगाया?’’
‘‘हम तुझे हाथ कहां लगाएंगे? हम तो 4 पांडव हैं. तू तो खुद हमें समर्पण करेगी?‘‘
वह व्यक्ति आगे बढ़ा तो वह पीछे हटी. और उस ने रास्ते की धूल उठा कर उस की आंखों में फेंकी और भाग ली. वे चारों उस के पीछेपीछे थे. वह हांफती हुई दौड़ रही थी. उस में गजब की ताकत आ गई थी. अगर आदमी में हौसला है तो सबकुछ पा सकता है. मीनाक्षी ने देखा, सामने से एक औटो आ रहा है. उसे हाथ से रोकती हुई बोली, ‘‘भैया, रुको.’’
औटो वाला जब तक रुके तब तक वे बहुत पास आ चुके थे. मगर तब तक वह भी औटो में बैठ चुकी थी. औटो वाले ने भी मौके की नजाकत देखते हुए तेज रफ्तार से औटो बढ़ा दिया. एक मिनट यदि औटो लेट हो जाता तो वे गुंडे उसे पकड़ चुके होते. वे थोड़ी देर तक औटो के साथ दौड़ते रहे, मगर थक कर चूर हो गए. अब औटो उन की पहुंच से दूर हो चुका था. उस ने राहत की सांस ली. औटो वाला बोला, ‘‘किधर जाना है?’’
‘‘आजाद चौक तक, बहुतबहुत धन्यवाद भैया, आप ने मेरी जान बचा ली.’’
‘‘लेकिन वे लोग कौन थे?‘‘
‘‘मुझे नहीं मालूम कौन लोग थे वे सब,’’ घबराती हुई मीनाक्षी कहतकहते चुप हो गई. उस ने सोचा औटो वाला कहीं और न ले जाए. आगे मीनाक्षी असलियत बता कर अपने को गिराना नहीं चाहती थी. औटो सड़क पर दौड़ रहा था. अब उन के बीच सन्नाटा पसरा हुआ था. वह उस की हर गतिविधि पर नजर रखे हुए थी. उस के भीतर एक दहशत भी थी. औटो में अकेली बैठी है. एकएक मिनट एकएक घंटे के बराबर लग रहा था. चेहरे पर भय की रेखाएं थीं. मगर, वह उसे बाहर ला कर अपने को कमजोर नहीं दिखाना चाहती थी. अंतत: उस का बंगला आ गया. उस ने औटो रुकवाया. ड्राइवर से किराया पूछा.
’’50 रुपए,’’ ड्राइवर के कहने के साथ ही उस ने पर्स में से 50 का नोट निकाल कर दे दिया. फिर उसे धन्यवाद दिया और भाग कर भीतर पहुंच गई.
धर्मेंद्र बोले, ‘‘बहुत देर कर दी, मीनाक्षी?’’
‘‘हां, धर्मेंद्र आज गुंडों के बीच मैं बुरी तरह से फंस गई थी, मगर उन का सामना किया, लेकिन मैं हारी नहीं,’’ यह कहते समय उस के चेहरे पर संतोष के भाव थे.
धर्मेंद्र घबरा गए और बिना रुके एकदम बोल पड़े, ‘‘झूठ बोल रही हो, तुम. गुंडों से क्या मुकाबला करोगी, इतनी ताकत है एक औरत में.’’
‘‘ताकत थी तभी तो सामना किया,’’ कह कर उस ने संक्षिप्त में सारी कहानी धर्मेंद्र को सुना दी. धर्मेंद्र आश्वस्त हो गए और उसे अपनी बांहों में भर लिया.
दुकान का काम समाप्त कर के रमेश तेजी से घर की ओर चला जा रहा था. आसमान में कालेकाले बादल छाए हुए थे अत: वर्षा आने से पहले ही वह घर पहुंच जाना चाहता था. तभी अचानक तेज वर्षा होने लगी. रमेश वर्र्षा से बचने के लिए फुटपाथ के पास बनी अपने मित्र राकेश की दुकान की ओर दौड़ा. दुकान के बाहर लगी परछत्ती के नीचे एक बूढे़ सज्जन पहले से ही खड़े थे. परछत्ती बहुत छोटी थी. वर्षा के पानी से उन का केवल सिर ही बच पा रहा था. रमेश का ध्यान उस बूढे़ आदमी की ओर नहीं गया. वह सीधा दौड़ता हुआ आया और राकेश के पास जा कर दुकान में बैठ गया.
थोड़ी देर में वर्षा और तेज हो गई. रमेश का ध्यान उन बूढ़े सज्जन की ओर गया. वह तुरंत उठा और उन के पास आ कर विनम्रता से बोला, ‘‘यहां तो आप पूरी तरह भीग जाएंगे. कृपया भीतर आ कर बैठिए.’’ बूढे़ आदमी को ठंड भी लग रही थी, पर उन्होंने भीतर चलने से मना किया, लेकिन रमेश के बारबार आग्रह करने पर वे भीतर आ गए और अंदर आ कर एक कुरसी पर बैठ गए.
रमेश ने सामान्य शिष्टाचार के नाते उन्हें चाय भी पिला दी तथा उन की भीगी कमीज को सुखाने का भी प्रयास किया.
बूढ़े सज्जन ने रमेश से पूछा, ‘‘क्यों भाई, क्या आप मुझे जानते हो?’’
रमेश ने जवाब दिया, ‘‘जी नहीं, मैं ने तो आप को कभी देखा भी नहीं. वैसे मैं एक दुकान पर काम करता हूं. वहां भी मैं ने कभी आप को नहीं देखा.’’ धीरेधीरे बातचीत का सिलसिला चल निकला. बातोंबातों में बूढ़े ने रमेश की दुकान का पता, उस का वेतन, घर के हालात आदि का पता किया. लेकिन उस ने अपना परिचय नहीं दिया. केवल इतना ही कहा, ‘‘टहलने निकला था, बरसात होने लगी. यहां पानी से बचने के लिए रुक गया.’’ धीरेधीरे पानी कम हुआ. रमेश और बूढ़े सज्जन दोनों निकल कर सड़क पर आ गए. दोनों कुछ दूर तक एकसाथ चले. मानो दोनों को अलगअलग दिशाओं में जाना था. रमेश ने कहा, ‘‘मैं आप को घर तक छोड़ देता हूं. रात का समय है. देर भी काफी हो गई है.’’
बूढे़ ने रमेश को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘‘मैं अकेला ही चला जाऊंगा, आप को कष्ट करने की आवश्यकता नहीं है.’’
बात आईगई हो गई. रमेश अपने स्वभाव अनुसार समय पर दुकान पर जाता और मेहनत व लगन से काम करता. एक दिन वह दुकान के बाहर खड़ा, दुकान खुलने का इंतजार कर रहा था कि वही बूढ़े सज्जन वहां से निकले. दोनों ने एकदूसरे को देखा और एकदूसरे को अभिवादन किया. रोज की तरह दुकान खुली. रमेश ने अपना काम शुरू कर दिया. वह 10वीं कक्षा तक पढ़ा था, पर दुकान पर हर तरह का काम, जैसे सफाई, सामान तोलना, सामान उठाना और हिसाबकिताब करना पड़ता था. लेकिन वह सब काम पूरी निष्ठा से करता था. उस के काम से दुकान का मालिक बड़ा संतुष्ट था. शाम को दुकान बंद होने का समय हो गया था. तभी एक सज्जन दुकान पर आए. उन के आते ही दुकान का मालिक खड़ा हो गया और उन की बड़ी आवभगत करने लगा. रमेश के साथ काम करने वाले लड़कों ने बताया, ‘‘यह नगर के बहुत बड़े उद्योगपति का लड़का सुरेश है.’’
सुरेश ने दुकानदार से पूछा, ‘‘आप के यहां कोई रमेश नाम का लड़का काम करता है?’’
‘‘जी हां, काम करता है, वह है, रमेश,’’ दुकानदार ने झट इशारा करते हुए उत्तर दिया.
सुरेश ने कुछ तेज स्वर में कहा, ‘‘आप को रमेश को अपने यहां से नौकरी से निकालना होगा.’’ दुकानदार ने आव देखा न ताव, तुरंत रमेश को अपने पास बुला कर आदेश दिया, ‘‘रमेश, कल से तुम नौकरी पर मत आना, अपना हिसाब आज ही कर लो.’’ रमेश भौचक्का रह गया. उस ने साहस जुटा कर पूछा, ‘‘पर मेरी गलती क्या है?’’ दुकानदार नाराज हो कर बोला, ‘‘गलतीवलती कुछ नहीं. सुरेशजी ने कहा और हम ने तुम्हें नौकरी से तुरंत निकाल दिया.’’ सुरेश ने दुकानदार को बीच में टोकते हुए कहा, ‘‘तुम ने हमारे पिताजी के साथ कुछ गड़बड़ की है. उस की तुम्हें सजा भी मिलेगी. पिताजी सामने गाड़ी में बैठे हैं.’’ रमेश कुछ समझ न पाया, ‘‘मैं ने तो कभी किसी के साथ बुरा बरताव किया ही नहीं. आखिर, मुझे किस बात की सजा मिल रही है? नौकरी छूट जाने पर मेरी बूढ़ी मां का क्या होगा, जिस का मैं एकमात्र सहारा हूं?’’ रमेश की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.
सुरेश ने रमेश का हाथ पकड़ा और लगभग खींचते हुए सड़क के उस पार ले गया, जहां उस की कार खड़ी थी और उस में एक बूढ़े सज्जन बैठे हुए थे. रमेश ने देखा कि वह बूढ़े सज्जन वही हैं, जो उस दिन राकेश की दुकान पर मिले थे.
रमेश ने संयमित हो कर पूछा, ‘‘मैं ने तो आप के साथ कोई बुरा बरताव नहीं किया. फिर मुझे यह सजा क्यों दी जा रही है?’’
बूढ़े सज्जन ने कहा, ‘‘बेटे, सजा अभी मिली कहां है. सजा तो अब मिलेगी. कल से आप की नौकरी हमारे यहां और वेतन भी 10 हजार रुपए महीना.’’
रमेश ने फौरन कहा, ‘‘मैं इस योग्य नहीं हूं. कृपया मुझे क्षमा करें.’’
बूढ़े सज्जन ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की योग्यता मैं ने परख ली है. उस योग्यता की सजा के रूप में यह नौकरी दे रहा हूं. अब दुकानदार से अपना हिसाब कर लीजिए और मेरे साथ चलिए. आज हम आप के घर चलेंगे. आप की माताजी से मिलेंगे और आप की सुयोग्यता उन्हें बताएंगे.’’ उस के बाद रमेश के पास उस अनोखी सजा को सहर्ष स्वीकार करने के अलावा कोई चारा न था.
मैं सुबह की सैर पर था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. इस समय कौन हो सकता है, मैं ने खुद से ही प्रश्न किया. देखा, यह तो अमृतसर से कौल आई है.
‘‘हैलो.’’
‘‘हैलो फूफाजी, प्रणाम, मैं सुरेश बोल रहा हूं?’’
‘‘जीते रहो बेटा. आज कैसे याद किया?’’
‘‘पिछली बार आप आए थे न. आप ने सेना में जाने की प्रेरणा दी थी. कहा था, जिंदगी बन जाएगी. सेना को अपना कैरियर बना लो. तो फूफाजी, मैं ने अपना मन बना लिया है.’’
‘‘वैरी गुड’’
‘‘यूपीएससी ने सेना के लिए इन्वैंट्री कंट्रोल अफसरों की वेकैंसी निकाली है. कौमर्स ग्रैजुएट मांगे हैं, 50 प्रतिशत अंकों वाले भी आवेदन कर सकते हैं.’’
‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है.’’
‘‘फूफाजी, पापा तो मान गए हैं पर मम्मी नहीं मानतीं.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘कहती हैं, फौज से डर लगता है. मैं ने उन को समझाया भी कि सिविल में पहले तो कम नंबर वाले अप्लाई ही नहीं कर सकते. अगर किसी के ज्यादा नंबर हैं भी और वह अप्लाई करता भी है तो बड़ीबड़ी डिगरी वाले भी सिलैक्ट नहीं हो पाते. आरक्षण वाले आड़े आते हैं. कम पढ़ेलिखे और अयोग्य होने पर भी सारी सरकारी नौकरियां आरक्षण वाले पा जाते हैं. जो देश की असली क्रीम है, वे विदेशी कंपनियां मोटे पैसों का लालच दे कर कैंपस से ही उठा लेती हैं. बाकियों को आरक्षण मार जाता है.’’
‘‘जीती रहो,’’ वह हमेशा फोन पर मुझे पैरी पैना ही कहती है.
‘‘क्या है शकुन, जाने दो न इसे फौज में.’’
‘‘मुझे डर लगता है.’’
‘‘किस बात से?’’
‘‘लड़ाई में मारे जाने का.’’
‘‘क्या सिविल में लोग नहीं मरते? कीड़ेमकोड़ों की तरह मर जाते हैं. लड़ाई में तो शहीद होते हैं, तिरंगे में लिपट कर आते हैं. उन को मर जाना कह कर अपमानित मत करो, शकुन. फौज में तो मैं भी था. मैं तो अभी तक जिंदा हूं. 35 वर्ष सेना में नौकरी कर के आया हूं. जिस को मरना होता है, वह मरता है. अभी परसों की बात है, हिमाचल में एक स्कूल बस खाई में गिर गई. 35 बच्चों की मौत हो गई. क्या वे फौज में थे? वे तो स्कूल से घर जा रहे थे. मौत कहीं भी किसी को भी आ सकती है. दूसरे, तुम पढ़ीलिखी हो. तुम्हें पता है, पिछली लड़ाई कब हुई थी?’’
‘‘जी, कारगिल की लड़ाई.’’
‘‘वह 1999 में हुई थी. आज 2018 है. तब से अभी तक कोई लड़ाई नहीं हुई है.’’
‘‘जी, पर जम्मूकश्मीर में हर रोज जो जवान शहीद हो रहे हैं, उन का क्या?’’
‘‘बौर्डर पर तो छिटपुट घटनाएं होती ही रहती हैं. इस डर से कोईर् फौज में ही नहीं जाएगा. यह सोच गलत है. अगर सेना और सुरक्षाबल न हों तो रातोंरात चीन और पाकिस्तान हमारे देश को खा जाएंगे. हम सब जो आराम से चैन की नींद सोते हैं या सो रहे हैं वह सेना और सुरक्षाबलों की वजह से है, वे दिनरात अपनी ड्यूटी पर डटे रहते हैं.’’
मैं थोड़ी देर के लिए रुका. ‘‘दूसरे, सुरेश इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के रूप में जाएगा. इन्वैंट्री का मतलब है, स्टोर यानी ऐसे अधिकारी जो स्टोर को कंट्रोल करेंगे. वह सेना की किसी सप्लाई कोर में जाएगा. ये विभाग सेना के मजबूत अंग होते हैं, जो लड़ने वाले जवानों के लिए हर तरह का सामान उपलब्ध करवाते हैं. लड़ाई में भी ये पीछे रह कर काम करते हैं. और फिर तुम जानती हो, जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु तक का रास्ता तय हो जाता है. जीवन उसी के अनुसार चलता है.
‘‘तो कोई डर नहीं है?
‘‘मौत से सब को डर लगता है, लेकिन इस डर से कोईर् फौज में न जाए यह एकदम गलत है. दूसरे, सुरेश के इतने नंबर नहीं हैं कि वह हर जगह अप्लाई कर सके. कंपीटिशन इतना है कि अगर किसी को एमबीए मिल रहे हैं तो एमए पास को कोई नहीं पूछेगा. एकएक नंबर के चलते नौकरियां नहीं मिलती हैं. बीकौम 54 प्रतिशत नंबर वाले को तो बिलकुल नहीं. सुरेश अच्छी जगहों के लिए अप्लाई कर ही नहीं सकता. तुम्हें अब तक इस का अनुभव हो गया होगा शकुन, इसलिए उसे जाने दो.’’
कैफेकौफी डे में पहुंच कर सौम्या, नीतू और मिताली कौफी और स्नैक्स का और्डर दे कर आराम से बैठ गईं. नीतू ने सौम्या को टोका, ‘‘आज तेरा मूड कुछ खराब लग रहा है… शौपिंग भी तूने बुझे मन से की. पति से झगड़ा हुआ है क्या?’’
‘‘नहीं यार… छोड़, घर से निकल कर भी क्या घर के ही झमेलों में पड़े रहना? कोई और बात कर… मेरा मूड ठीक है.’’
‘‘ऐसा तो है नहीं कि तेरा खराब मूड हमें पता न चले. हमेशा खुश रहने वाली हमारी सहेली को क्या चिंता सता रही है, बता दे? मन हलका हो जाएगा,’’ मिताली बोली.
म्या ने फिर टालने की कोशिश की, लेकिन उस की दोनों सहेलियों ने पीछा नहीं छोड़ा. तीनों पक्की सहेलियां थीं. शौपिंग के बाद कौफी पीने आई थीं. तीनों अंधेरी की एक सोसायटी में रहती थीं. सौम्या ने उदास स्वर में कहा, ‘‘क्या बताऊं, निक्की के तौरतरीकों से परेशान हो गई हूं… हर समय फोन… हम लोगों से बात भी करेगी तो ध्यान फोन में ही रहेगा. पता नहीं क्या चक्कर है… सोएगी तो फोन को तकिए के पास रख कर सोएगी. 16 साल की हो गई है. चिंता लगी रहती है कि कहीं किसी लड़के के चक्कर में तो नहीं पड़ गई.’’
‘‘अरे, इस बात ने तो मेरी भी नींद उड़ाई हुई है… सोनू का भी यही हाल है. टोकती हूं तो कहता है कि चिल मौम, टेक इट इजी. मैं बड़ा हो गया हूं. बताओ, वह भी तो 16 साल का ही हुआ है. कैसे छोड़ दूं उस की चिंता. कितना समझाया… हर समय मैसेज में ध्यान रहेगा तो पढ़ेगा कब? पता नहीं क्या होगा इन बच्चों का?’’ नीतू बोली. तभी वेटर कौफी और स्नैक्स रख गया. कौफी का 1 घूंट पी कर नीतू मिताली से बोली, ‘‘हमारा तो 1-1 ही बच्चा है… तू तो पागल हो गई होगी 2 बच्चों की देखरेख करते… तेरी तानिया और यश भी तो इसी उम्र से गुजर रहे हैं.’’ मिताली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हां, यश 16वां साल पूरा करने वाला है. तानिया उस से 2 ही साल छोटी है.’’
‘‘दोनों पागल कर देते होंगे तुझे? मैं तो निक्की पर नजर रखतेरखते थक गई हूं. रात में कई बार उठ कर चैक करती हूं कि क्या कर रही है. पता नहीं इतनी रात तक क्या करती रहती है, कब सोती है. आजकल तो बच्चनजी की यह पंक्ति बारबार याद आती है कि कुछ अवगुन कर ही जाती है चढ़ती जवानी…’’ सौम्या ने कहा. नीतू ठंडी सांस लेते हुए बोली, ‘‘सोनू का तो फोन चैक भी नहीं कर सकती. लौक लगाए रखता है. देख लो, अभी 16-16 साल के ही हैं ये बच्चे और नाच नचा देते हैं मांबाप को.’’ मिताली के होंठों पर मुसकराहट देख कर नीतू ने कहा, ‘‘तू लगातार क्यों मुसकरा रही है? क्या तू परेशान नहीं होती?’’
‘‘परेशान? मैं? नहीं, बिलकुल नहीं.’’
‘‘क्या कह रही हो, मिताली?’’
‘‘हां, माई डियर फ्रैंड्स. मैं तो यश और तानिया के साथ मन ही मन 16वें साल में जी रही हूं.’’
‘‘मतलब?’’ दोनों एकसाथ चौंकी.
‘‘मतलब यह कि बच्चों के साथ फिर से जी उठी हूं मैं… मैं बच्चों की हरकतें देखती हूं तो मन ही मन 16वें साल की अपनी कारगुजारियां याद कर हंसती हूं.’’
सौम्या मुसकरा दी, ‘‘मिताली ठीक कह रही है. अब हम मांएं बन गई हैं तो हमारा सोचने का ढंग कितना बदल गया है. मां बनते ही हम अपनी साफसुथरे चरित्र वाली मां की छवि बनाने में लग जाती हैं.’’
मिताली हंसी, ‘‘मैं तो यह सोचती हूं कि मेरे पास तो आज के बच्चों जितनी सुविधाएं भी नहीं थीं, फिर भी उस उम्र का 1-1 पल का भरपूर लुत्फ उठाया.’’
‘‘तेरा कोई बौयफ्रैंड था?’’ सौम्या ने अचानक पूछा.
‘‘हां, था.’’
नीतू चहकते हुए बोली, ‘‘यार थोड़ा विस्तार से बता न.’’
‘‘ठीक है, हम तीनों उस उम्र की अपनीअपनी कारगुजारियां शेयर करती हैं और हां, ये बातें हम तीनों तक ही रहें.’’ थोड़ी देर रुक कर मिताली ने बताना शुरू किया, ‘‘मेरे सामने वाली आंटी का बेटा था. खूब आनाजाना था. मम्मी घर पर ही रहती थीं. जब वे बाहर जाती थीं तो मैं घर पर अकेली होती थी. बस उस समय के इंतजार में दिनरात बीता करते थे. वह भी अकेले मिलने का मौका देखता रहता था.’’ सौम्या ने बेताबी से पूछा, ‘‘बात कहां तक पहुंची थी?’’
‘‘वहां तक नहीं जहां तक तू सोच रही है,’’ मिताली ने प्यार से झिड़का.
‘‘मम्मी के घर से बाहर जाते ही एक लवलैटर वह पकड़ाता था और एक मैं. थोड़ी देर एकदूसरे को देखते थे और बस. उफ, जिस दिन मम्मी घर से बाहर नहीं जाती थीं वह पूरा दिन बेचैनी में बीतता था.’’
‘‘फिर क्या हुआ? शादी नहीं हुई उस से?’’ सौम्या ने पूछा.
मिताली हंसी, ‘‘नहीं, जब पापा ने मेरा विवाह तय किया तब वह पढ़ ही रहा था. मैं उस समय उदास तो हुई थी, लेकिन शादी के बाद अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त हो गई पर
बेटे यश के हावभाव, रंगढंग देख कर अपनी पुरानी बातें जरूर याद कर लेती हूं. फिर मुझे बच्चों पर गुस्सा नहीं आता. जानती हूं एक उम्र है जो सब के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है. बच्चों पर नजर तो रखती हूं, लेकिन उन की रातदिन जासूसी नहीं करती,’’ फिर नीतू से पूछा, ‘‘तेरा क्या हाल था?’’
‘‘सच बताऊं? तुम लोग हंसेंगी तो नहीं?’’
‘‘जल्दी बता… नहीं हंसेंगी,’’ सौम्या ने पूछा.
‘‘मुझे तो उस उम्र में बहुत मजा आया था. जब मैं स्कूल से साइकिल पर निकलती थी, स्कूल के बाहर ही एक लड़का मेरे इंतजार में रोज खड़ा रहता था. अपनी साइकिल पर मेरे पीछेपीछे हमारी गली तक आ कर मुड़ जाता था. कड़ाके की ठंड, घना कुहरा और मेरे इंतजार में खड़ा वह लड़का… आज भी कुहरे में उस का पीछेपीछे आना याद आ जाता है.’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं. 2 महीनों तक साथसाथ आता रहा, फिर मुड़ जाता. मुझे बाद में पता चला उस का लड़कियों को पटाने का यही ढंग था. मैं अकेली नहीं थी जिस के पीछे वह साइकिल पर आता था. तब मैं ने उसे देखना एकदम छोड़ दिया. कभी रास्ता बदल लेती, कभी किसी सहेली के साथ आती. धीरेधीरे उस ने आना छोड़ दिया. मजेदार बात यह है कि फिर मुझे उस का एक दोस्त अच्छा लगने लगा, जिस के साथ मैं ने कई दिनों तक आंखमिचौली खेली. उस के बाद भी मेरा एक और गंभीर प्रेमप्रसंग चला.’’
सौम्या हंस पड़ी, ‘‘मतलब 16वां साल बड़ी हलचल मचा कर गया… 1 साल में 3 अफेयर.’’
‘‘हां यार, तीसरा कुछ दिन टिका, फिर मेरी संजीव से शादी हो गई,’’ और फिर तीनों हंस दीं. कौफी और स्नैक्स खत्म हो गए थे. तीनों का उठने का मन नहीं हो रहा था. फिर कौफी का और्डर दे दिया.
मिताली ने कहा, ‘‘सौम्या, चल अब तेरा नंबर है.’’
सौम्या ने ठंडी सांस ली और फिर बोलना शुरू किया, ‘‘अब सोच रही हूं कि बहुत कुछ किया है उस उम्र में शायद इसीलिए निक्की पर ज्यादा पहरे लगाती हूं मैं… आकर्षण था, प्यार था, जो भी था, मैं भी उस उम्र के एहसास से बच नहीं पाई थी. हां, प्यार ही तो समझी थी मैं उसे, जो मेरे और उस के बीच था. काफी बड़ा था से. मेरी एक सहेली का रिश्तेदार था. जब भी आता मैं बहाने से उस के घर जाती. वह भी समझ गया था. बातें होने लगीं. मैं उस से शादी के सपने देखती, मेरी सहेली को अंदाजा नहीं हुआ. कभीकभी बाहर अकेले आतेजाते… बातें होने लगीं. संस्कारों की दीवार, मर्यादा की लक्ष्मणरेखा सब कुछ सलामत था. पर कुछ था जो बदल गया था और वह अच्छा लगता था. लेकिन जब एक दिन सहेली ने बातोंबातों में बताया कि वह शादीशुदा है, तो मैं घर आ कर खूब रोई थी. बड़ी मुश्किल से संभाला था खुद को,’’ फिर सौम्या कुछ पल चुप रही और फिर जोर से हंस पड़ी, ‘‘फिर मुझे 1 महीने बाद ही कोई और अच्छा लगने लगा.’’ वेटर खाली कप उठाने आ गया था. सौम्या ने बिल मंगवाया.
मिताली ने कहा, ‘‘देखा, इसीलिए मुझे अपने बच्चों पर गुस्सा नहीं आता. हम सब इस उम्र से गुजरी हैं. इस उम्र के उन के एहसास, शोखियों, चंचलता का आनंद उठाओ, उन्हें बस अच्छाबुरा समझा कर चैन से जीने दो. आजकल के बच्चे समझदार हैं, जब भी उन पर गुस्सा आए अपनी यादों में खो कर देखो, बिलकुल गुस्सा नहीं आएगा. एक बार नौकरी, घरगृहस्थी के झंझट शुरू हो गए तो जीवन भर वही चलते रहेंगे, बाद में उम्र के साथ दुनिया कब आप को बदल देती है, पता भी नहीं चलता. इस उम्र में बच्चे दूसरी दुनिया में ही जीते हैं. उसी दुनिया में जिस में कभी हम भी जीए हैं, उन्हें इस समय संसार के दांवपेचों की न तो कोई जानकारी होती है और न ही परवाह. उन्हें चैन से जीने दें और खुद भी चैन से जीएं, यही ठीक है.’’
‘‘हां, ठीक कहती हो मिताली,’’ नीतू ने कह कर पर्स निकाला.
वेटर बिल ले आया था. तीनों ने हमेशा की तरह बिल शेयर किया. फिर उठ गईं. बाहर आ कर सौम्या अपनी कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गई. मिताली और नीतू भी बैठ गईं. तीनों चुप थीं. शायद अभी तक अपनेअपने 16वें साल की कुछ कही कुछ अनकही कारगुजारियों में खोई हुई थीं.
माधव कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, 50 साल की उम्र. सफेद दाढ़ी. उस पर भी बीमारी के बाद की कमजोर हालत. यह सब देख कर घर के लोगों ने माधव को बेटी की शादी कर देने की सलाह दे दी. कहते थे कि अपने जीतेजी लड़की की शादी कर जाओ. माधव ने अपने छोटे भाई से कह कर अपनी लड़की के लिए एक लड़का दिखवा लिया. माधव की लड़की गौरा 15 साल की थी. दिनभर एक छोटी सी फ्रौक पहने सहेलियों के साथ घूमती रहती, गोटी खेलती, गांव के बाहर लगे आम के पेड़ पर चढ़ कर गिल्ली फेंकने का खेल भी खेलती. जैसे ही गौरा की शादी के लिए लड़का मिला, वैसे ही उस का घर से निकलना कम कर दिया गया.
अब गौरा घर पर ही रहती थी. महल्ले की लड़कियां उस के पास आती तो थीं, लेकिन पहले जैसा माहौल नहीं था. गौरा की शादी की खबर जब उन लड़कियों को लगी, तो गौरा को देखने का उन का नजरिया ही बदल गया था. माधव ने फटाफट गौरा की शादी उस लड़के से तय कर दी. माधव की माली हालत तो ठीक नहीं थी, लेकिन जितना भी कर सकते थे, करने में लग गए.
शादी की तारीख आई. लड़के वाले बरात ले कर माधव के घर आ गए. लड़का गौरा से बड़ा था. वह 20-22 साल का था. गौरा को इन बातों से ज्यादा मतलब तो नहीं था, लेकिन इस वक्त उसे अपना घर छोड़ कर जाना कतई अच्छा नहीं लग रहा था. शादी के बाद गौरा अपनी ससुराल चली गई, लेकिन रोते हुए.
गौरा की शादी के कुछ दिन बाद ही माधव की बीमारी ठीक होने लगी, फिर कुछ ही दिनों में वे पूरी तरह से ठीक भी हो गए, मानो उस मासूम गौरा की शादी करने के लिए ही वे बीमार पड़े थे.
उधर गौरा ससुराल पहुंची तो देखा कि वहां घर जैसा कुछ भी नहीं था. न साथ खेलने के लिए सहेलियां थीं और न ही अपने घर जैसा प्यार करने वाला कोई. गौरा की सास दिनभर मुंह ऐंठे रहती थीं. ऐसे देखतीं कि गरा को बिना अपराध किए ही अपराधी होने का अहसास होने लगता. जिस दिन गौरा अपने घर से विदा हो कर ससुराल पहुंची, उस के दूसरे दिन से ही उस से घर के सारे काम कराए जाने लगे. गौरा को चाय बनाना तो आता था, लेकिन सब्जी छोंकना, गोलगोल रोटी बनाना नहीं आता था.
जब ये बातें उस की सास को पता चलीं, तो वे गौरा को खरीखोटी सुनाने लगीं, ‘‘बहू, तेरी मां ने तुझे कुछ नहीं सिखाया. न तो दहेज दिया और न ही ढंग की लड़की. कम से कम लड़की ही ऐसी होती कि खाना तो बना लेती…’’
गौरा चुपचाप सास की खरीखोटी सुनती रहती और जब भी अकेली होती, तो घर और मां की याद कर के खूब रोती. दिनभर घर के कामों में लगे रहना और सास भी जानबूझ कर उस से ज्यादा काम कराती थीं.
बेचारी गौरा, जो सास कहतीं, वही करती. शाम को पति के हाथों का खिलौना बन जाती. वह तो ठीक से दो मीठी बातें भी उस से नहीं करता था. दिनभर यारदोस्तों के साथ घूमता और रात होते ही घर में आता, खाना खाता और गौरा को बेहाल कर चैन से सो जाता.
एक दिन गौरा का बहुत मन हुआ कि घर जा कर अपने मांबाप से मिल ले. मां से तो लिपट कर रोने का मन करता था. मौका देख कर गौरा अपनी सास से बोली, ‘‘माताजी, मैं अपने घर जाना चाहती हूं. मुझे घर की याद आती है.’’ सास तेज आवाज में बोलीं, ‘‘घर जाएगी तो यहां क्या जंगल में रह रही है? यहां कौन सा तुझ पर आरा चल रहा है… घर के बच्चों से ज्यादा तेरी खातिर होती है यहां, फिर भी तू इसे अपना घर नहीं समझती.’’
गौरा घबरा कर रह गई, लेकिन घर की याद अब और ज्यादा आ रही थी. दिन यों ही गुजर रहे थे कि एक दिन माधव गौरा की ससुराल आ पहुंचे. अपने पिता को देख गौरा जी उठी थी. भरे घर में अपने पिता से लिपट गई और खूब सिसकसिसक कर रोई.
माधव का दिल भी पत्थर से मोम हो गया. वे खुद रोए तो नहीं, लेकिन आंखें कई बार भीग गईं. उसी दिन शाम को वे गौरा को अपने साथ ले आए.
घर आ कर गौरा फिर उसी मनभावन तिलिस्म में खो गई. वही गलियां, वही रास्ता, वैसे ही घर, वही आबोहवा, वैसी ही खुशबू. इतने में मां सामने आ गईं. गौरा की हिचकी बंध गई, दोनों मांबेटी लिपट कर खब रोईं.
घर में आई गौरा ने मां को ससुराल की सारी हालत बता दी और बोली, ‘‘मां, मैं वहां नहीं जाना चाहती. मुझे अब तेरे ही पास रहना है.’’ मां गौरा को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, अब तेरी शादी हो चुकी है. तेरा घर अब वही है. हम चाह कर भी तुझे इस घर में नहीं रख सकते.
‘‘हर लड़की को एक न एक दिन अपनी ससुराल जाना ही होता है. मैं इस घर आई और तू उस घर में गई. इसी तरह अगर तेरी लड़की हुई, तो वह भी किसी और के घर जाएगी. इस तरह तो कोई हमेशा अपने घर नहीं रुक सकता.’’ गौरा चुप हो गई. मां से अब और क्या कहती. जो सास कहती थीं, वही मां भी कहती हैं.
रात को गौरा नींद भर सोई, दूसरी सुबह उठी तो साथ की लड़कियां घर आ पहुंचीं. अभी तक सब की सब कुंआरी थीं, जबकि गौरा शादीशुदा थी. वे सब सलवारसूट पहने घूम रहीं थीं, जबकि गौरा साड़ी पहने हुए थी. आज गौरा सारी सहेलियों से खुद को अलग पाती थी, उन से बात करने और मिलने में उसे शर्म आती थी. मन करता था कि घर से उठ कर कहीं दूर भाग जाए, जिस से न तो ससुराल जाना पड़े और न ही किसी से शर्म आए.
सुबह के 10 बजने को थे. गौरा ने घर में रखा पुराना सलवारसूट पहना, जिसे वह शादी से पहले पहना करती थी और मां के पास जा कर बड़े प्यार से बोली, ‘‘मां, तुम कहो तो मैं थोड़ी देर बाहर घूम आऊं?’’ गौरा बोलीं, ‘‘हां बेटी, घूम आ, लेकिन जल्दी घर आ जाना. अब तू छोटी बच्ची नहीं है.’’
गौरा मुसकराते हुए घर से निकल गई. उस की नजर गांव के बाहर लगे आम के पेड़ के पास गई. मन खिल उठा. लगा, जैसे वह पेड़ उस का अपना है, कदम बरबस ही गांव से बाहर की ओर बढ़ गए. हवा के हलके झोंके और खेतोंपेड़ों का सूनापन, चारों तरफ शांत सा माहौल और बेचैन मन, मानो फिर से लौट पड़ा हो गौरा का बचपन. हवा में पैर फेंकती सीधी आम के पेड़ के नीचे जा पहुंची.
यह वही आम का पेड़ था, जिस के ऊपर चढ़ कर गिल्ली फेंकने वाले खेल खेले जाते थे, जहां सहेलियों के साथ बचपन के सुख भरे दिन गुजारे थे. गौरा दौड़ कर आम के पेड़ से लिपट गई. उस मौन खड़े पेड़ से रोरो कर अपने दिल का हाल कह दिया. पेड़ भी जैसे उस का साथी था. उस ने गौरा के मन को बहुत तसल्ली दी.
थोड़ी देर तक गौरा पेड़ से लिपटी बचपन के दिनों को याद करती रही, बचपन तो अब भी था, लेकिन कोई उसे छोटी लड़की मानने को तैयार न था. सब कहते कि वह बड़ी हो गई है, लेकिन खुद गौरा और उस का दिल नहीं मानता था कि वह इतनी बड़ी हो गई है कि घर से बाहर किसी और के साथ रहने लगे. बड़ी औरतों की तरह काम करने लगे, सास की खरीखोटी सुनने लगे.
गौरा बैठी सोचती रही, मन में गुबार की आंधी चलती थी, फिर न जाने क्या सोच कर अपना दुपट्टा उतारा और आम के पेड़ पर चढ़ कर छोर को उस की डाली से कस कर बांध दिया. फिर आम के पेड़ से उतर कर दूसरा छोर अपने गले में बांध लिया.
अभी तक गौरा ठीकठाक थी. खड़ीखड़ी थोड़ी देर तक वह अपने गांव को देखती रही, फिर एकदम से पैरों को हवा में उठा लिया, शरीर का सारा भार गले में पड़े दुपट्टे पर आ गया, दुपट्टा गले को कसता चला गया, आंखें बाहर निकली पड़ी थीं, मुंह लाल पड़ गया था. थोड़ी ही देर में गौरा की मौत हो गई. अब उसे ससुराल नहीं जाना था और न ही कोई परेशानी सहनी थी. कांटों पर चल रही मासूम सी जिंदगी का अंत हो गया था. जिस बच्ची के खेलने की उम्र थी, उस उम्र में उसे न जाने क्याक्या देखना पड़ा था. उस की दिमागी हालत का अंदाजा सिर्फ वही लगा सकती थी. एक भी ऐसा शख्स नहीं था, जो उस अबोध बच्ची को समझता, लेकिन आज सब खत्म हो गया था, उस की सारी समस्याएं और उस की जिंदगी.
घड़ी के अलार्म की घंटी बजी और डाक्टर विवेक जागा. साथ में सोती हुई उस की पत्नी सुधा भी उठ रही थी.
‘‘शादी की सालगिरह बहुतबहुत मुबारक हो, डार्लिंग,’’ विवेक ने उस का आलिंगन किया.
‘‘आप को भी बहुतबहुत मुबारक हो,’’ सुधा ने उत्तर दिया.
नहाधो कर जब विवेक नाश्ता खाने बैठा तो सुधा ने उस के सामने उस के मनपंसद गरमागरम बेसन के चीले और पुदीने की चटनी रखी. विवेक बहुत खुश हुआ.
‘‘पत्नी हो तो तुम्हारे जैसी,’’ उस ने सुधा से कहा, ‘‘बोलो, आज तुम्हारे लिए क्या उपहार लाऊं? जो जी चाहे मांग लो.’’
‘‘मुझे कोई उपहार नहीं चाहिए, बस, एक अनुरोध है,’’ सुधा ने कहा.
‘‘अनुरोध क्यों, आदेश दीजिए, डार्लिंग,’’ विवेक ने उदारतापूर्ण स्वर में कहा.
‘‘मैं सिर्फ इतना चाहती हूं कि कम से कम आज जल्दी घर आने की कोशिश कीजिएगा. आज हमारी शादी की दूसरी सालगिरह है. मैं आप के साथ कहीं बाहर, किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में खाना खाने जाना चाहती हूं.’’
‘‘मैं पूरी कोशिश करूंगा,’’ विवेक ने उसे आश्वासन दिया, पर वह जानता था कि घर लौटने का समय उस के हाथ में नहीं था. और वह यह भी जानता था कि सुधा को भी इस बात का पूरी तरह पता था. आखिरकार, वह भी एक डाक्टर की बेटी थी और, पिछले 2 सालों से एक डाक्टर की पत्नी भी.
अस्पताल जाते हुए ट्रैफिक जाम में फंसा विवेक सोचने लगा कि डाक्टरों का जीवन भी कितना विचित्र होता है. अगर उन की जिम्मेदारी का कोई रोगी ठीक हो जाए तो वह और उस के संबंधी आमतौर से डाक्टर के एहसानमंद नहीं होते हैं.
वे सोचते हैं कि मेहनताना दे कर उन्होंने सारा कर्ज चुका दिया है. आखिरकार डाक्टर अपना काम ही तो कर रहा था. पर अगर किसी कारण से रोगी की हालत न सुधरे, उस का देहांत हो जाए, तो गलती हमेशा डाक्टर की ही होती है, चाहे कितनी ही बुरी हालत में रोगी को चिकित्सा के लिए लाया गया हो.
ऐसी स्थिति में मृतक के घर वाले और अन्य रिश्तेदार कई बार डाक्टर को दोष देते हुए मारामारी और तोड़फोड़ करना आरंभ कर देते हैं. और ऐसे हालात में कुछ लोग तो डाक्टर और अस्पताल पर रोगी की अवहेलना का मुकदमा भी ठोक देते हैं.
विवेक को उसी के अस्पताल में डेढ़ साल पहले हुए एक हादसे का खयाल आया. वह उस हादसे को भला कैसे भूल सकता था, जिस का बेहद गंभीर परिणाम निकला था.
एक अमीर घराने का नाबालिग लड़का अपनी 2 करोड़ रुपए की गाड़ी अंधाधुंध रफ्तार से चला रहा था. गाड़ी बेकाबू हो कर सड़क के बीच के डिवाइडर से टकराई. फिर पलट कर सड़क के दूसरी ओर जा गिरी.
उस तरफ एक युवक मोबाइल पर बात करते हुए अपने स्कूटर पर आ रहा था. कलाबाजी मारती हुई कार, उस के ऊपर गिरी. कार चलाने वाले लड़के की वहीं मौत हो गई. स्कूटर चालक बुरी तरह घायल था. जिस से वह बात कर रहा था, वह शायद कोई उस के घर वाला था, क्योंकि पुलिस के आने से पहले लड़के के रिश्तेदार उसे उठा कर विवेक के अस्पताल ले आए. इमरजैंसी वार्ड में विवेक उस समय ड्यूटी कर रहा था.
6-7 लोग घायल लड़के को ले कर अंदर घुस गए. कुछ विवेक को जल्दी करने को कह रहे थे, कुछ आपस में हादसे की बात कर रहे थे. विवेक ने लड़के की जांच की. वह मर चुका था. जब उस ने यह सच उस के रिश्तेदारों को बताना चाहा तो उन्होंने मानने से इनकार किया.
‘पर वह अभी तक तो जीवित था,’ एक ने बहस की, ‘वह एकदम मर कैसे सकता है, तुम उसे बचाने की कोशिश नहीं करना चाहते हो.’
बीच में एक और रिश्तेदार बोलने लगा, ‘आजकल के डाक्टर सब एकजैसे निकम्मे हैं. ये लोग भारी पगार चाहते हैं, पर पूरे कामचोर हैं.’ विवेक ने मुश्किल से अपने गुस्से को संभाला, ‘देखिए मिस्टर…’ तब तक एक नर्स उस के पास आई और बोली, ‘डाक्टर साहब, एक मरीज आया है, लगता है उसे दिल का दौरा पड़ा है. जरा जल्दी चलिए.’
विवेक उस के साथ जाने के लिए घूमा पर तभी लड़के के चाचा ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘पहले मेरे भतीजे की अच्छी तरह जांच करो, फिर तुम यहां से जा सकोगे. मुझे तो लगता है कि मेरा भतीजा अभी जिदा है.’
एक नर्सिंग अरदली ने विवेक का हाथ छुड़ाने की कोशिश की. एक और डाक्टर और कुछ रिश्तेदार बीच में घुसे. देखते ही देखते हाथापाई शुरू हो गई. कई लोगों को चोट लगी. अस्पताल का सामान भी तोड़ा गया. सिक्योरिटी गार्ड बुलाए गए और उन्होंने सब को शांत किया. विवेक के माथे पर, जहां किसी की अंगूठी से चोट लगी थी, 5 टांके लगाए गए.
इस घटना के बाद विवेक के अस्पताल ने एक सख्त नियम बनाया. किसी भी मरीज के साथ 2 से अधिक साथवाले, अस्पताल के अंदर नहीं आ सकते, चाहे वे जो हों. इस नियम को कुछ लोगों ने कानूनी चुनौती दी थी और मामला अब भी अदालत में था.
गाडि़यों के जाम के खुलने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी. विवेक की विचारधारा वर्तमान में लौट आई. रहा डाक्टरों का निजी जीवन, वह भी काफी अनिश्चित होता है. कुछ पता नहीं कब किस रोगी की तबीयत अचानक बिगड़ जाए, या किसी हादसे में घायल हुए व्यक्ति को डाक्टर की जरूरत पड़े. ऐसी हालत में डाक्टर होने के नाते, उन्हें सबकुछ छोड़ कर, अपना कर्तव्य निभाने जाना पड़ता है, चाहे पत्नी के साथ सिनेमा देख रहे हों, या बच्चों के साथ उन का जन्मदिन मना रहे हों. डाक्टर बनने से पहले उन को ऐसा व्यवहार करने की प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है.
जाम आखिर खुलने लगा और विवेक ने गाड़ी बढ़ाई. अस्पताल पहुंच कर विवेक ने डाक्टरों के लौकर में जा कर अपना सफेद कोट निकाल कर पहन लिया. फिर उस ने, हमेशा की तरह, उन 3 वार्डों के चक्कर लगाने लगा, जिन के मरीजों के रोगों के बारे में रिकौर्ड रखने के लिए वह जिम्मेदार था.
हर वार्ड में 10-12 मरीज थे. उन में हर एक की अपनी ही एक खास कहानी थी. पहले वार्ड में उस की मरीज राधा नामक एक विधवा थी. वह पीलियाग्रस्त थी. तकरीबन 1 महीने से वह अस्पताल में पड़ी हुई थी. उस के साथ उस की 5 साल की बेटी भी भरती कराई गई थी क्योंकि घर पर उस की देखभाल करने वाला कोई नहीं था. लड़की का नाम मीनू था और वह डाक्टर विवेक की दोस्त बन गई थी.
मीनू रोज सुबह एक नर्स के साथ अस्पताल के बगीचे में घूमने जाती थी. और जब विवेक अपने राउंड पर आता, तो पहले मीनू उसे बताती थी कि उस ने बगीचे में क्या देखा, फिर उसे बाकी काम करने देती.
आज वह बहुत उत्तेजित लग रही थी, जैसे उस के पास कोई बड़ी खबर हो. विवेक को देखते ही वह बोलने लगी, ‘‘अंकल अंकल, आप कभी नहीं बता सकेंगे कि मैं ने आज क्या देखा. मैं ने तितली देखी. बड़ी सुंदर रंग वाली. वह इधरउधर उड़ रही थी जैसे कोई परी हो. मैं ने उस से बात करने की कोशिश की, पर वह चली गई. किसी दिन मैं एक तितली से दोस्ती करूंगी.’’
उस की मासूमियत देख कर विवेक ने सोचा, ‘काश, यह बच्ची जीवनभर ऐसी ही रह सकती. पर मतलबी दुनिया में यह संभव नहीं है.’
अगले वार्ड में, एक पलंग पर वृद्ध गेनू लेटा था. वह मौत के द्वार पर खड़ा था और वह यह जानता था कि वह अब केवल मशीनों के जरिए जी रहा है. उस के दोनों बेटे विदेश में बसे हुए थे. गेनू की पत्नी का देहांत कुछ साल पहले हो चुका था. 6 महीने पहले, गेनू को दिल का दौरा पड़ा.
उस का एक पड़ोसी उसे अस्पताल ले आया. जांच के बाद पता चला कि उस के दिल को भारी नुकसान पहुंचा है. उस की उम्र 70 वर्ष से ऊपर थी और वह बहुत कमजोर भी था. सो, डाक्टरों ने औपरेशन करना उचित नहीं समझा और उस के अधिक से अधिक एक साल और जीने की संभावना बताई. उस के बेटों को जब उस की हालत का पता चला और उस के अस्पताल में भरती होने का समाचार मिला, तो वे विदेश से भागेभागे आए. उन्हें यहां आ कर यह मालूम हुआ कि पिताजी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है और वे इस दुनिया में अब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं.
दोनों ने आपस में बात की होगी कि पिताजी की मृत्यु तक वे रुकना नहीं चाहते. चूंकि अस्पताल का खर्चा बीमा कंपनी दे रही थी, उन्होंने साथ मिल कर सोचा कि पिताजी को अब पैसों की जरूरत नहीं होगी. सो, पिताजी को दोनों बेटों ने बताया कि उस के घर में काफी लंबीचौड़ी मरम्मत करवा कर उस को बिलकुल नया बनाना चाहते हैं.
काम के लिए काफी पैसे लगेंगे. इस बहाने उन्होंने कोरे कागज और कोरे चैक पर पिताजी के हस्ताक्षर ले लिए. फिर क्या कहना. चंद दिनों में उन्होंने घर भी बेच दिया और पिताजी का खाता भी खाली कर दिया. और तो और, उस के बाद पिताजी को बताए बिना वे विदेश लौट गए. उन की धांधली के बारे में पिताजी को तब पता चला, जब उस के पड़ोस में रहने वाला दोस्त उस से मिलने आया था.
अगले वार्ड में एक शराबी, मीनक पड़ा था. 2 हफ्ते पहले वह नशे की हालत में सीढि़यों से नीचे गिर कर बुरी तरह घायल हो गया था. अस्पताल में भरती होने के बाद वह रोज शाम को ऊंची आवाज में शराब मांगता था और शराब न मिलने पर काफी शोर मचाता था. पूरा स्टाफ उस से दुखी था. इसलिए सब बहुत खुश थे कि अब वह ठीक हो गया था और आज उसे अस्पताल से छुट्टी मिल रही थी.
पिछली शाम, जब यह खबर उस की पत्नी को दी गई, तो वह खुश होने के बजाय, घबरा गई. वह भागीभागी विवेक के पास गई. उस के सामने वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘डाक्टर साहब, मुझ पर दया कीजिए. मेरे पति कुछ काम नहीं करते हैं. घर को चलाने का और 2 बच्चों को पढ़ाने का पूरा खर्चा मैं संभालती हूं. मेरी अच्छी नौकरी है पर फिर भी हमें पैसों की कमी हमेशा महसूस होती है. अभी महीने की शुरुआत है. मुझे हाल में वेतन मिला है. अगर आप कल मेरे पति को डिस्चार्ज कर देंगे, तो वह घर आ कर मुझे पीटपाट कर, सारे पैसे बैंक से निकलवाएगा. फिर सब पैसा शराब में उड़ा देगा.
‘‘अभी मुझे पिछले महीने का कर्ज भी चुकाना है. इस महीने का खर्च चलाना है. बच्चों की स्कूल की फीस भी देनी है. मैं कैसे काम चलाऊंगी. मैं आप से हाथ जोड़ कर विनती करती हूं, मेरे पति को कम से कम 4-5 दिन और अस्पताल में रख लीजिए.’’
‘‘माफ करना बहनजी,’’ विवेक ने जवाब दिया, ‘‘पर आप के पति को अस्पताल में रखना या न रखना मेरे हाथ में नहीं. वैसे भी, हम किसी रोगी को ठीक होने के बाद यहां रखना नहीं चाहते हैं क्योंकि बहुत और बीमार लोग हैं जो यहां बैड के खाली होने का इंतजार कर रहे हैं.’’ रोगियों की और रिश्तेदारों की कोई कमी नहीं थी. कहीं बेटी मां के बारे में चिंतित थी, कहीं चाचा भतीजे के बारे में. हर रोगी की रिपोर्ट जांचना और उस की आगे की चिकित्सा का आदेश देना आवश्यक था और ऊपर से उस को आश्वासन भी देना होता था कि डाक्टर पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह जल्द से जल्द पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएगा.
विवेक मैटरनिटी वार्ड के सामने से निकल रहा था कि वार्ड का दरवाजा अचानक खुला और वरिष्ठ डाक्टर प्रशांत बाहर आए. वे काफी चिंतित लग रहे थे पर विवेक को देख कर उन का चेहरा खिल उठा. ‘‘डाक्टर विवेक,’’ वे बोले, ‘‘अच्छा हुआ कि तुम मिल गए. हमारे वार्ड में इस समय कोईर् खाली नहीं है, और एक जरूरी संदेश वेटिंगरूम तक पहुंचाना था. कृपा कर के, क्या तुम यह काम कर दोगे?’’
‘‘कर दूंगा, सर’’ विवेक ने उत्तर दिया, ‘‘संदेश क्या है और किस को पहुंचाना है?’’
‘‘वेटिंगरूम में एक मिस्टर विनोद होंगे,’’ डाक्टर प्रशांत ने कहा, ‘‘उन को यह बताना है कि उन की पत्नी को एक प्रिमैच्योर यानी उचित समय से पहले बच्चा हुआ है और वह लड़का है. हम पूरी कोशिश कर रहे हैं पर उसे बचाना काफी कठिन लग रहा है. और उन को यह भी कहना कि इस समय वे अपनी पत्नी और बच्चे से नहीं मिल सकेंगे. पर शायद 3-4 घंटे के बाद यह संभव होगा.’’
वेटिंगरूम की ओर जाते हुए विवेक सोचने लगा कि यह क्यों होता है कि बुरा समाचार देने के लिए हमेशा जूनियर डाक्टर को ही जिम्मेदारी दी जाती है. डरतेडरते विवेक ने बच्चे के बाप को अपना परिचय दिया और फिर संदेश सुनाया. बाप कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘मैं जानता हूं कि आप लोग बच्चे को बचाने के लिए जीजान लगाएंगे.’’
विवेक ने वापस जा कर बच्चे की मां की फाइल निकाली और पढ़ कर उस को पता लगा कि उस औरत को इस से पहले 2 मिसकैरिज यानी गर्भपात हुए थे, और दोनों वक्त बच्चा मृतक पैदा हुआ था. यह उस औरत का तीसरा गर्भ था. डाक्टरों ने बच्चे को बचाने की जितनी कोशिश कर सकते थे, उतनी की. बच्चा 5 दिन जीवित रहा. इस दौरान उस के बाप ने उस का नाम विजय रख दिया. चंद गिनेचुने रिश्तेदार भी उस से मिल सके. विवेक भी दिन में 2-3 बार जा कर बच्चे की हालत पता करता था.
पर 5वें दिन विजय का छोटा सा दिल हमेशाहमेशा के लिए शांत हो गया. विवेक भी उन डाक्टरों में था जिन्होंने अस्पताल के दरवाजे के पास खामोश खड़ेखड़े उस के पिता को विजय का नन्हा मृतक शरीर अपनी छाती से लगा कर बाहर जाते देखा.
कुछ दिनों बाद डाक्टर विवेक के नाम अस्पताल में एक पत्र आया. उस ने लिफाफा खोला और पढ़ा, ‘डाक्टर विवेक, मैं यह पत्र आप को भेज रहा हूं, क्योंकि मुझे सिर्फ आप का नाम याद था, पर यह उन सब डाक्टरों के लिए है जिन्होंने मेरे बेटे विजय की देखभाल की थी.
‘आप लोगों ने उस को इतनी देर जीवित रखा ताकि हम उस को नाम दे सकें, उस को हम अपना प्यार दे सकें, उस के दादादादी और नानानानी उस से मिल सकें. दवाइयों ने उसे जिंदा नहीं रखा, बल्कि आप लोगों के प्यार ने उसे चंद दिनों की सांसें दीं. धन्यवाद डाक्टर साहब. मैं आप सब का एहसानमंद हूं.’ नीचे हस्ताक्षर की जगह लिखा था, ‘विजय का पिता.’ विवेक की आंखें भर आईं और उस के गाल गीले हो गए. पर उस ने अपने आंसुओं को रोकने की कोई कोशिश नहीं की.
VIDEO : फंकी पाइनएप्पल नेल आर्ट
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