गड़ा धन: एक गुस्सैल बाप की सीख

‘‘चल बे उठ… बहुत सो लिया… सिर पर सूरज चढ़ आया, पर तेरी नींद है कि पूरी होने का नाम ही नहीं लेती,’’ राजू का बाप रमेश को झकझोरते हुए बोला.

‘‘अरे, अभी सोने दो. बेचारा कितना थकाहारा आता है. खड़ेखड़े पैर दुखने लगते हैं… और करता भी किस के लिए है… घर के लिए ही न… कुछ देर और सो लेने दो…’’ राजू की मां लक्ष्मी ने कहा.

‘‘अरे, करता है तो कौन सा एहसान करता है. खुद भी तो रोटी तोड़ता है चार टाइम,’’ कह कर बाप रमेश फिर से राजू को लतियाता है, ‘‘उठ बे… देर हो जाएगी, तो सेठ अलग से मारेगा…’’

लात लगने और चिल्लाने की आवाज से राजू की नींद तो खुल ही गई थी. आंखें मलता, दारूबाज बाप को घूरता हुआ वह गुसलखाने की ओर जाने लगा.

‘‘देखो तो कैसे आंखें निकाल रहा है, जैसे काट कर खा जाएगा मु?ो.’’

‘‘अरे, क्यों सुबहसुबह जलीकटी बक रहे हो,’’ राजू की मां बोली.

‘‘अच्छा, मैं बक रहा हूं और जो तेरा लाड़ला घूर रहा है मुझे…’’ और एक लात राजू की मां को भी मिल गई.

राजू जल्दीजल्दी इस नरक से निकल जाने की फिराक में है और बाप रमेश सब को काम पर लगा कर बोतल में मुंह धोने की फिराक में. छोटी गलती पर सेठ की गालियां और कभीकभार मार भी पड़ती थी बेचारे 12 साल के राजू को.

यहां राजू की मां लक्ष्मी घर का सारा काम निबटा कर काम पर चली गई. वह भी घर का खर्च चलाने के लिए दूसरों के घरों में झाड़ूबरतन करती थी.

‘‘लक्ष्मी, तू उस बाबा के मजार पर गई थी क्या धागा बांधने?’’ मालकिन के घर कपड़े धोने आई एक और काम वाली माला पूछने लगी.

माला अधेड़ उम्र की थी और लक्ष्मी की परेशानियों को जानती भी थी, इसलिए वह कुछ न कुछ उस की मदद करने को तैयार रहती.

‘‘हां गई थी उसे ले कर… नशे में धुत्त रहता है दिनरात… बड़ी मुश्किल से साथ चलने को राजी हुआ…’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया, ‘‘पर होगा क्या इस सब से… इतने साल तो हो गए… इस बाबा की दरगाह… उस बाबा का मजार… ये मंदिर… उस बाबा के दर्शन… ये पूजा… चढ़ावा… सब तो कर के देख लिया, पर न ही कोख फलती है और न ही घर पनपता है. बस, आस के सहारे दिन कट रहे हैं,’’ कहतेकहते लक्ष्मी की आंखों से आंसू आ गए.

माला उसे हिम्मत बंधाते हुए बोली, ‘‘सब कर्मों के फल हैं री… और जो भोगना लिखा है, वह तो किसी न किसी तरह भोगना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…’’ बोलते हुए लक्ष्मी ने अपने  आंसुओं को पीने की कोशिश की.

‘‘सुन, एक बाबा और है. उसी के कहे अनुसार पूजा करने से बिगड़े काम बन जाते हैं,’’ माला ने बताया.

‘‘अच्छा, तुझे कैसे पता?’’ लक्ष्मी ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘कल ही मेरी रिश्ते की मौसी बता रही थी कि किस तरह उस की लड़की की ननद की गोद हरी हो गई और बच्चे के आने से घर में खुशहाली भी छा गई. मुझे तभी तेरा खयाल आया और उस बाबा का पताठिकाना पूछ कर ले आई. अब तू बोल कि कब चलना है?’’

‘‘उस से पूछ कर बताऊंगी… पता नहीं किस दिन होश में रहेगा.’’

‘‘हां, ठीक है. वह बाबा सिर्फ इतवार और बुधवार को ही बताता है. और कल बुधवार है, अगर तैयार हो जाए, तो सीधे मेरे घर आ जाना सुबह ही, फिर हम साथ चलेंगे… मुझे भी अपनी लड़की की शादी के बारे में पूछना है,’’ माला बोली.

लक्ष्मी ने हां भरी और दोनों काम निबटा कर अपनेअपने रास्ते हो लीं.

लक्ष्मी माला की बात सुन कर खुश थी कि अगर सबकुछ सही रहा, तो उस के घर की भी मनहूसियत दूर हो जाएगी. पर कहीं राजू का बाप न सुधरा तो? आने वाली औलाद के साथ भी उस ने यही किया तो? जैसे सवालों ने उस की खुशी को ग्रहण लगाने की कोशिश की, पर उस ने खुद को संभाल लिया.

सामने आम का ठेला देख कर लक्ष्मी को राजू की याद आ गई.

‘राजू के बाप को भी तो आम का रस बहुत पसंद है. सुबहसुबह बेचारा राजू उदास हो कर घर से निकला था, आम के रस से रोटी खाएगा, तो खुश हो जाएगा और राजू के बाप को भी बाबा के पास जाने को मना लूंगी,’ मन में ही सारे तानेबाने बुन कर लक्ष्मी रुकी और एक आम ले कर जल्दीजल्दी घर की ओर चल दी.

घर पहुंच कर दोनों को खाना खिला कर सारे कामों से फारिग हो लक्ष्मी राजू के बाप से बात करने लगी. शराब का नशा कम था शायद या आम के रस का नशा हो आया था, वह अगले ही दिन जाने को मान गया.

अगले दिन राजू, उस का बाप और लक्ष्मी सुबह ही माला के घर पहुंच गए और वहां से माला को साथ ले कर बाबा के ठिकाने पर चल दिए.

बाबा के दरवाजे पर 8-10 लोग पहले से ही अपनीअपनी परेशानी को दूर कर सुखों में बदलवाने के लिए बाहर ही बैठे थे. एकएक कर के सब को अंदर बुलाया जाता. वे लोग भी जा कर बाबा के घर के बाहर वाले कमरे में उन लोगों के साथ बैठ गए.

सभी लोग अपनीअपनी परेशानी में खोए थे. यहां माला लक्ष्मी को बीचबीच में बताती जाती कि बाबा से कैसा बरताव करना है और इतनी जोर से समझाती कि नशेड़ी रमेश के कानों में भी आवाज पहुंच जाती. एकदो बार तो रमेश को गुस्सा आया, पर लक्ष्मी ने उसे हाथ पकड़ कर बैठाए रखा.

तकरीबन 2 घंटे के इंतजार के बाद उन की बारी आई, तब तक 5-6 परेशान लोग और आ चुके थे. खैर, अपनी बारी आने की खुशी लक्ष्मी के चेहरे पर साफ झलक रही थी. यों लग रहा था, मानो यहां से वह बच्चा ले कर और घर की गरीबी यहीं छोड़ कर जाएगी.

चारों अंदर गए. बाबा ने उन की समस्या सुनी. फिर थोड़ी देर ध्यान लगा कर बैठ गया.

कुछ देर बाद बाबा ने जब आंखें खोलीं, तो आंखें आकार में पहले से काफी बड़ी थीं. अब लक्ष्मी को भरोसा हो गया था कि उस की समस्या का खात्मा हो ही जाएगा.

बाबा ने कहा, ‘‘कोई है, जिस की काली छाया तुम लोगों के घर पर पड़ रही है. वही तुम्हारे बच्चा न होने की वजह है. जहां तुम रहते हो, वहां गड़ा धन भी है, चाहो तो उसे निकलवा कर रातोंरात सेठ बन सकते हो…’’

रमेश और लक्ष्मी की आंखें चमक उठीं. उन दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर रमेश बाबा से बोला, ‘‘हम लोग खुद ही खुदाई कर के धन निकाल लेंगे और आप को चढ़ावा भी चढ़ा देंगे. आप तो जगह बता दो बस…’’

बाबा ने जोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘‘यह सब इतना आसान नहीं…’’

‘‘तो फिर… क्या करना होगा,’’ रमेश उतावला हो उठा.

‘‘कर सकोगे?’’

‘‘आप बोलिए तो… इतने दुख सहे हैं, अब तो थोड़े से सुख के बदले कुछ भी कर जाऊंगा.’’

‘‘बलि लगेगी.’’

‘‘बस, इतनी सी बात. मैं बकरे का इंतजाम कर लूंगा.’’

‘‘बकरे की नहीं.’’

‘‘तो फिर…’’

‘‘नरबलि.’’

रमेश को काटो तो खून नहीं. लक्ष्मी और राजू भी सहम गए.

‘‘मतलब, किसी इनसान की हत्या?’’ रमेश बोला.

‘‘तो क्या गड़ा धन और औलाद पाना मजाक लग रहा था तुम लोगों को? जाओ, तुम लोगों से नहीं हो पाएगा,’’ बाबा तकरीबन चिल्ला उठा.

माला बीच में ही बोल उठी, ‘‘नहीं बाबा, नाराज मत हो. मैं सम?ाती हूं दोनों को,’’ और लक्ष्मी को अलग ले जा कर माला बोलने लगी, ‘‘एक जान की ही तो बात है. सोच, उस के बाद घर में खुशियां ही खुशियां होंगी. बच्चापैसा सब… देदे बलि.’’

लक्ष्मी तो जैसे होश ही खो बैठी थी. तब तक रमेश भी उन दोनों के पास आ गया और माला की बात बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘किस की बलि दे दें?’’

‘‘जिस का कोई नहीं उसी की. अपना खून अपना ही होता है. पराए और अपने में फर्क जानो,’’ माला बोली.

यह बात सुन कर रमेश का जमा हुआ खून अचानक खौल उठा और माला पर तकरीबन ?झपटते हुए बोला, ‘‘किस की बात कर रही है बुढि़या… जबान संभाल… वह मेरा बेटा है. 2 साल का था, जब वह मुझे बिलखते हुए रेलवे स्टेशन पर मिला था. कलेजे का टुकड़ा है वह मेरा,’’ राजू कोने में खड़ा सब सुनता रहा और आंखें फाड़फाड़ कर देखता रहा.

बाबा सब तमाशा देखसम?ा चुका था कि ये लोग जाल में नहीं फंसेंगे और न ही कोई मोटी दक्षिणा का इंतजाम होगा, इसलिए शिष्य से कह कर उन चारों को वहां से बाहर निकलवा दिया.

राजू हैरान था. बाहर निकल कर राजू के मुंह से बस यही शब्द निकले, ‘‘बाबा, मैं तेरा गड़ा धन बनूंगा.’’

यह सुन कर रमेश ने राजू को अपने सीने से लगा लिया. उस ने कसम खाई कि आज के बाद वह कभी शराब को हाथ नहीं लगाएगा.

दर्द : जिंदगी के उतार चढ़ावों को झेलती कनीजा

कनीजा बी करीब 1 घंटे से परेशान थीं. उन का पोता नदीम बाहर कहीं खेलने चला गया था. उसे 15 मिनट की खेलने की मुहलत दी गई थी, लेकिन अब 1 घंटे से भी ऊपर वक्त गुजर गया था. वह घर आने का नाम ही नहीं ले रहा था.

कनीजा बी को आशंका थी कि वह महल्ले के आवारा बच्चों के साथ खेलने के लिए जरूर कहीं दूर चला गया होगा.

वह नदीम को जीजान से चाहतीं. उन्हें उस का आवारा बच्चों के साथ घर से जाना कतई नहीं सुहाता था.

अत: वह चिंताग्रस्त हो कर भुनभुनाने लगी थीं, ‘‘कितना ही समझाओ, लेकिन ढीठ मानता ही नहीं. लाख बार कहा कि गली के आवारा बच्चों के साथ मत खेला कर, बिगड़ जाएगा, पर उस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. आने दो ढीठ को. इस बार वह मरम्मत करूंगी कि तौबा पुकार उठेगा. 7 साल का होने को आया है, पर जरा अक्ल नहीं आई. कोई दुर्घटना हो सकती है, कोई धोखा हो सकता है…’’

कनीजा बी का भुनभुनाना खत्म हुआ ही था कि नदीम दौड़ता हुआ घर में आ गया और कनीजा की खुशामद करता हुआ बोला, ‘‘दादीजान, कुलफी वाला आया है. कुलफी ले दीजिए न. हम ने बहुत दिनों से कुलफी नहीं खाई. आज हम कुलफी खाएंगे.’’

‘‘इधर आ, तुझे अच्छी तरह कुलफी खिलाती हूं,’’ कहते हुए कनीजा बी नदीम पर अपना गुस्सा उतारने लगीं. उन्होंने उस के गाल पर जोर से 3-4 तमाचे जड़ दिए.

नदीम सुबकसुबक कर रोने लगा. वह रोतेरोते कहता जाता, ‘‘पड़ोस वाली चचीजान सच कहती हैं. आप मेरी सगी दादीजान नहीं हैं, तभी तो मुझे इस बेदर्दी से मारती हैं.

‘‘आप मेरी सगी दादीजान होतीं तो मुझ पर ऐसे हाथ न उठातीं. तब्बो की दादीजान उसे कितना प्यार करती हैं. वह उस की सगी दादीजान हैं न. वह उसे उंगली भी नहीं छुआतीं.

‘‘अब मैं इस घर में नहीं रहूंगा. मैं भी अपने अम्मीअब्बू के पास चला जाऊंगा. दूर…बहुत दूर…फिर मारना किसे मारेंगी. ऊं…ऊं…ऊं…’’ वह और जोरजोर से सुबकसुबक कर रोने लगा.

नदीम की हृदयस्पर्शी बातों से कनीजा बी को लगा, जैसे किसी ने उन के दिल पर नश्तर चला दिया हो. अनायास ही उन की आंखें छलक आईं. वह कुछ क्षणों के लिए कहीं खो गईं. उन की आंखों के सामने उन का अतीत एक चलचित्र की तरह आने लगा.

जब वह 3 साल की मासूम बच्ची थीं, तभी उन के सिर से बाप का साया उठ गया था. सभी रिश्तेदारों ने किनारा कर लिया था. किसी ने भी उन्हें अंग नहीं लगाया था.

मां अनपढ़ थीं और कमाई का कोई साधन नहीं था, लेकिन मां ने कमर कस ली थी. वह मेहनतमजदूरी कर के अपना और अपनी बेटी का पेट पालने लगी थीं. अत: कनीजा बी के बचपन से ले कर जवानी तक के दिन तंगदस्ती में ही गुजरे थे.

तंगदस्ती के बावजूद मां ने कनीजा बी की पढ़ाईलिखाई की ओर खासा ध्यान दिया था. कनीजा बी ने भी अपनी बेवा, बेसहारा मां के सपनों को साकार करने के लिए पूरी लगन व मेहनत से प्रथम श्रेणी में 10वीं पास की थी और यों अपनी तेज बुद्धि का परिचय दिया था.

मैट्रिक पास करते ही कनीजा बी को एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. अत: जल्दी ही उन के घर की तंगदस्ती खुशहाली में बदलने लगी थी.

कनीजा बी एक सांवलीसलोनी एवं सुशील लड़की थीं. उन की नौकरी लगने के बाद जब उन के घर में खुशहाली आने लगी थी तो लोगों का ध्यान उन की ओर जाने लगा था. देखते ही देखते शादी के पैगाम आने लगे थे.

मुसीबत यह थी कि इतने पैगाम आने के बावजूद, रिश्ता कहीं तय नहीं हो रहा था. ज्यादातर लड़कों के अभिभावकों को कनीजा बी की नौकरी पर आपत्ति थी.

वे यह भूल जाते थे कि कनीजा बी के घर की खुशहाली का राज उन की नौकरी में ही तो छिपा है. उन की एक खास शर्त यह होती कि शादी के बाद नौकरी छोड़नी पड़ेगी, लेकिन कनीजा बी किसी भी कीमत पर लगीलगाई अपनी सरकारी नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थीं.

कनीजा बी पिता की असमय मृत्यु से बहुत बड़ा सबक सीख चुकी थीं. अर्थोपार्जन की समस्या ने उन की मां को कम परेशान नहीं किया था. रूखेसूखे में ही बचपन से जवानी तक के दिन बीते थे. अत: वह नौकरी छोड़ कर किसी किस्म का जोखिम मोल नहीं लेना चाहती थीं.

कनीजा बी का खयाल था कि अगर शादी के बाद उन के पति को कुछ हो गया तो उन की नौकरी एक बहुत बड़े सहारे के रूप में काम आ सकती थी.

वैसे भी पतिपत्नी दोनों के द्वारा अर्थोपार्जन से घर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सकती थी, जिंदगी मजे में गुजर सकती थी.

देखते ही देखते 4-5 साल का अरसा गुजर गया था और कनीजा बी की शादी की बात कहीं पक्की नहीं हो सकी थी. उन की उम्र भी दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. अत: शादी की बात को ले कर मांबेटी परेशान रहने लगी थीं.

एक दिन पड़ोस के ही प्यारे मियां आए थे. वह उसी शहर के दूसरे महल्ले के रशीद का रिश्ता कनीजा बी के लिए लाए थे. उन के साथ एक महिला?भी थीं, जो स्वयं को रशीद की?भाभी बताती थीं.

रशीद एक छोटे से निजी प्रतिष्ठान में लेखाकार था और खातेपीते घर का था. कनीजा बी की नौकरी पर उसे कोई आपत्ति नहीं थी.

महल्लेपड़ोस वालों ने कनीजा बी की मां पर दबाव डाला था कि उस रिश्ते को हाथ से न जाने दें क्योंकि रिश्ता अच्छा है. वैसे भी लड़कियों के लिए अच्छे रिश्ते मुश्किल से आते हैं. फिर यह रिश्ता तो प्यारे मियां ले कर आए थे.

कनीजा बी की मां ने महल्लेपड़ोस के बुजुर्गों की सलाह मान कर कनीजा बी के लिए रशीद से रिश्ते की हामी भर दी थी.

कनीजा बी अपनी शादी की खबर सुन कर मारे खुशी के झूम उठी थीं. वह दिनरात अपने सुखी गृहस्थ जीवन की कल्पना करती रहती थीं.

और एक दिन वह घड़ी भी आ गई, जब कनीजा बी की शादी रशीद के साथ हो गई और वह मायके से विदा हो गईं. लेकिन ससुराल पहुंचते ही इस बात ने उन के होश उड़ा दिए कि जो महिला स्वयं को रशीद की भाभी बता रही थी, वह वास्तव में रशीद की पहली बीवी थी.

असलियत सामने आते ही कनीजा बी का सिर चकराने लगा. उन्हें लगा कि उन के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है और उन्हें फंसाया गया है. प्यारे मियां ने उन के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया था. वह मन ही मन तड़प कर रह गईं.

लेकिन जल्दी ही रशीद ने कनीजा बी के समक्ष वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी, ‘‘बेगम, दरअसल बात यह थी कि शादी के 7 साल बाद भी जब हलीमा बी मुझे कोई औलाद नहीं दे सकी तो मैं औलाद के लिए तरसने लगा.

‘हम दोनों पतिपत्नी ने किसकिस डाक्टर से इलाज नहीं कराया, क्याक्या कोशिशें नहीं कीं, लेकिन नतीजा शून्य रहा. आखिर, हलीमा बी मुझ पर जोर देने लगी कि मैं दूसरी शादी कर लूं. औलाद और मेरी खुशी की खातिर उस ने घर में सौत लाना मंजूर कर लिया. बड़ी ही अनिच्छा से मुझे संतान सुख की खातिर दूसरी शादी का निर्णय लेना पड़ा.

‘मैं अपनी तनख्वाह में 2 बीवियों का बोझ उठाने के काबिल नहीं था. अत: दूसरी बीवी का चुनाव करते वक्त मैं इस बात पर जोर दे रहा था कि अगर वह नौकरी वाली हो तो बात बन सकती है. जब हमें, प्यारे मियां के जरिए तुम्हारा पता चला तो बात बनाने के लिए इस सचाई को छिपाना पड़ा कि मैं शादीशुदा हूं.

‘मैं झूठ नहीं बोलता. मैं संतान सुख की प्राप्ति की उत्कट इच्छा में इतना अंधा हो चुका था कि मुझे तुम लोगों से अपने विवाहित होने की सचाई छिपाने में कोई संकोच नहीं हुआ.

‘मैं अब महसूस कर रहा हूं कि यह अच्छा नहीं हुआ. सचाई तुम्हें पहले ही बता देनी चाहिए थी. लेकिन अब जो हो गया, सो हो गया.

‘वैसे देखा जाए तो एक तरह से मैं तुम्हारा गुनाहगार हुआ. बेगम, मेरे इस गुनाह को बख्श दो. मेरी तुम से गुजारिश है.’

कनीजा बी ने बहुत सोचविचार के बाद परिस्थिति से समझौता करना ही उचित समझा था, और वह अपनी गृहस्थी के प्रति समर्पित होती चली गई थीं.

कनीजा बी की शादी के बाद डेढ़ साल का अरसा गुजर गया था, लेकिन उन के भी मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. उस के विपरीत हलीमा बी में ही मां बनने के लक्षण दिखाई दे रहे थे. डाक्टरी परीक्षण से भी यह बात निश्चित हो गई थी कि हलीमा बी सचमुच मां बनने वाली हैं.

हलीमा बी के दिन पूरे होते ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई, लेकिन बच्चा था कि बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहा था. आखिर, आपरेशन द्वारा हलीमा बी के बेटे का जन्म हुआ. लेकिन हलीमा बी की हालत नाजुक हो गई. डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद वह बच नहीं सकी.

हलीमा बी की अकाल मौत से उस के बेटे गनी के लालनपालन की संपूर्ण जिम्मेदारी कनीजा बी पर आन पड़ी. अपनी कोख से बच्चा जने बगैर ही मातृत्व का बोझ ढोने के लिए कनीजा बी को विवश हो जाना पड़ा. उन्होंने उस जिम्मेदारी से दूर भागना उचित नहीं समझा. आखिर, गनी उन के पति की ही औलाद था.

रशीद इस बात का हमेशा खयाल रखा करता था कि उस के व्यवहार से कनीजा बी को किसी किस्म का दुख या तकलीफ न पहुंचे, वह हमेशा खुश रहें, गनी को मां का प्यार देती रहें और उसे किसी किस्म की कमी महसूस न होने दें.

कनीजा बी भी गनी को एक सगे बेटे की तरह चाहने लगीं. वह गनी पर अपना पूरा प्यार उड़ेल देतीं और गनी भी ‘अम्मीअम्मी’ कहता हुआ उन के आंचल से लिपट जाता.

अब गनी 5 साल का हो गया था और स्कूल जाने लगा था. मांबाप बेटे के उज्ज्वल भविष्य को ले कर सपना बुनने लगे थे.

इसी बीच एक हादसे ने कनीजा बी को अंदर तक तोड़ कर रख दिया.

वह मकर संक्रांति का दिन था. रशीद अपने चंद हिंदू दोस्तों के विशेष आग्रह पर उन के साथ नदी पर स्नान करने चला गया. लेकिन रशीद तैरतेतैरते एक भंवर की चपेट में आ कर अपनी जान गंवा बैठा.

रशीद की असमय मौत से कनीजा बी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन उन्होंने साहस का दामन नहीं छोड़ा.

उन्होंने अपने मन में एक गांठ बांध ली, ‘अब मुझे अकेले ही जिंदगी का यह रेगिस्तानी सफर तय करना है. अब और किसी पुरुष के संग की कामना न करते हुए मुझे अकेले ही वक्त के थपेड़ों से जूझना है.

‘पहला ही शौहर जिंदगी की नाव पार नहीं लगा सका तो दूसरा क्या पार लगा देगा. नहीं, मैं दूसरे खाविंद के बारे में सोच भी नहीं सकती.

‘फिर रशीद की एक निशानी गनी के रूप में है. इस का क्या होगा? इसे कौन गले लगाएगा? यह यतीम बच्चे की तरह दरदर भटकता फिरेगा. इस का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. मेरे अलावा इस का भार उठाने वाला भी तो कोई नहीं.

‘इस के नानानानी, मामामामी कोई भी तो दिल खोल कर नहीं कहता कि गनी का बोझ हम उठाएंगे. सब सुख के साथी?हैं.

‘मैं गनी को लावारिस नहीं बनने दूंगी. मैं भी तो इस की कुछ लगती हूं. मैं सौतेली ही सही, मगर इस की मां हूं. जब यह मुझे प्यार से अम्मी कह कर पुकारता है तब मेरे दिल में ममता कैसे उमड़ आती है.

‘नहींनहीं, गनी को मेरी सख्त जरूरत है. मैं गनी को अपने से जुदा नहीं कर सकती. मेरी तो कोई संतान है ही नहीं. मैं इसे ही देख कर जी लूंगी.

‘मैं गनी को पढ़ालिखा कर एक नेक इनसान बनाऊंगी. इस की जिंदगी को संवारूंगी. यही अब जिंदगी का मकसद है.’

और कनीजा बी ने गनी की खातिर अपना सुखचैन लुटा दिया, अपना सर्वस्व त्याग दिया. फिर उसे एक काबिल और नेक इनसान बना कर ही दम लिया.

गनी पढ़लिख कर इंजीनियर बन गया.

उस दिन कनीजा बी कितनी खुश थीं जब गनी ने अपनी पहली तनख्वाह ला कर उन के हाथ पर रख दी. उन्हें लगा कि उन का सपना साकार हो गया, उन की कुरबानी रंग लाई. अब उन्हें मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.

फिर गनी की शादी हो गई. वह नदीम जैसे एक प्यारे से बेटे का पिता भी बन गया और कनीजा बी दादी बन गईं.

कनीजा बी नदीम के साथ स्वयं भी खेलने लगतीं. वह बच्चे के साथ बच्चा बन जातीं. उन्हें नदीम के साथ खेलने में बड़ा आनंद आता. नदीम भी मां से ज्यादा दादी को चाहने लगा था.

उस दिन ईद थी. कनीजा बी का घर खुशियों से गूंज रहा था. ईद मिलने आने वालों का तांता लगा हुआ था.

गनी ने अपने दोस्तों तथा दफ्तर के सहकर्मियों के लिए ईद की खुशी में खाने की दावत का विशेष आयोजन किया था.

उस दिन कनीजा बी बहुत खुश थीं. घर में चहलपहल देख कर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुनिया की सारी खुशियां उन्हीं के घर में सिमट आई हों.

गनी की ससुराल पास ही के शहर में थी. ईद के दूसरे दिन वह ससुराल वालों के विशेष आग्रह पर अपनी बीवी और बेटे के साथ स्कूटर पर बैठ कर ईद की खुशियां मनाने ससुराल की ओर चल पड़ा था.

गनी तेजी से रास्ता तय करता हुआ बढ़ा जा रहा था कि एक ट्रक वाले ने गाय को बचाने की कोशिश में स्टीयरिंग पर अपना संतुलन खो दिया. परिणामस्वरूप उस ने गनी के?स्कूटर को चपेट में ले लिया. पतिपत्नी दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए और डाक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद बचाए न जा सके.

लेकिन उस जबरदस्त दुर्घटना में नन्हे नदीम का बाल भी बांका नहीं हुआ था. वह टक्कर लगते ही मां की गोद से उछल कर सीधा सड़क के किनारे की घनी घास पर जा गिरा था और इस तरह साफ बच गया था.

वक्त के थपेड़ों ने कनीजा बी को अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. मुश्किल यह थी कि वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पातीं. उन्हें मालूम था कि लोगों की झूठी हमदर्दी से दिल का बोझ हलका होने वाला नहीं.

उन्हें लगता कि उन की शादी महज एक छलावा थी. गृहस्थ जीवन का कोई भी तो सुख नहीं मिला था उन्हें. शायद वह दुख झेलने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं.

रशीद तो उन का पति था, लेकिन हलीमा बी तो उन की अपनी नहीं थी. वह तो एक धोखेबाज सौतन थी, जिस ने छलकपट से उन्हें रशीद के गले मढ़ दिया था.

गनी कौन उन का अपना खून था. फिर भी उन्होंने उसे अपने सगे बेटे की तरह पालापोसा, बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया, किसी काबिल बनाया.

कनीजा बी गनी के बेटे का भी भार उठा ही रही थीं. नदीम का दर्द उन का दर्द था. नदीम की खुशी उन की खुशी थी. वह नदीम की खातिर क्या कुछ नहीं कर रही थीं. कनीजा बी नदीम को डांटतीमारती थीं तो उस के भले के लिए, ताकि वह अपने बाप की तरह एक काबिल इनसान बन जाए.

‘लेकिन ये दुनिया वाले जले पर नमक छिड़कते हैं और मासूम नदीम के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भरते हैं कि मैं उस की सगी दादी नहीं हूं. मैं ने तो नदीम को कभी गैर नहीं समझा. नहीं, नहीं, मैं दुनिया वालों की खातिर नदीम का भविष्य कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.’ कनीजा बी ने यादों के आंसू पोंछते हुए सोचा, ‘दुनिया वाले मुझे सौतेली दादी समझते हैं तो समझें. आखिर, मैं उस की सौतेली दादी ही तो हूं, लेकिन मैं नदीम को काबिल इनसान बना कर ही दम लूंगी. जब नदीम समझदार हो जाएगा तो वह जरूर मेरी नेकदिली को समझने लगेगा.

‘गनी को भी लोगों ने मेरे खिलाफ कम नहीं भड़काया था, लेकिन गनी को मेरे व्यवहार से जरा भी शंका नहीं हुई थी कि मैं उस की बुराई पर अमादा हूं.

अब नदीम का रोना भी बंद हो चुका था. उस का गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. उस ने चोर नजरों से दादी की ओर देखा. दादी की लाललाल आंखों और आंखों में भरे हुए आंसू देख कर उस से चुप न रहा गया. वह बोल उठा, ‘‘दादीजान, पड़ोस वाली चचीजान अच्छी नहीं हैं. वह झूठ बोलती हैं. आप मेरी सौतेली नहीं, सगी दादीजान हैं. नहीं तो आप मेरे लिए यों आंसू न बहातीं.

‘‘दादीजान, मैं जानता हूं कि आप को जोरों की भूख लगी है, अच्छा, पहले आप खाना तो खा लीजिए. मैं भी आप का साथ देता हूं.’’

नदीम की भोली बातों से कनीजा बी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘बड़ा शरीफ बन रहा है रे तू. ऐसे क्यों नहीं कहता. भूख मुझे नहीं, तुझे लगी है.’’

‘‘अच्छा बाबा, भूख मुझे ही लगी है. अब जरा जल्दी करो न.’’

‘‘ठीक है, लेकिन पहले तुझे यह वादा करना होगा कि फिर कभी तू अपने मुंह से अपने अम्मीअब्बू के पास जाने की बात नहीं करेगा.’’

‘‘लो, कान पकड़े. मैं वादा करता हूं कि अम्मीअब्बू के पास जाने की बात कभी नहीं करूंगा. अब तो खुश हो न?’’

कनीजा बी के दिल में बह रही प्यार की सरिता में बाढ़ सी आ गई. उन्होंने नदीम को खींच कर झट अपने सीने से लगा लिया.

अब वह महसूस कर रही थीं, ‘दुनिया वाले मेरा दर्द समझें न समझें, लेकिन नदीम मेरा दर्द समझने लगा है.’

गनी ने अपने दोस्तों तथा दफ्तर के सहकर्मियों के लिए ईद की खुशी में खाने की दावत का विशेष आयोजन किया था. उस दिन कनीजा बी बहुत खुश थीं. घर में चहलपहल देख कर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुनिया की सारी खुशियां उन्हीं के घर में सिमट आई हों.

गनी की ससुराल पास ही के शहर में थी. ईद के दूसरे दिन वह ससुराल वालों के विशेष आग्रह पर अपनी बीवी और बेटे के साथ स्कूटर पर बैठ कर ईद की खुशियां मनाने ससुराल की ओर चल पड़ा था. गनी तेजी से रास्ता तय करता हुआ बढ़ा जा रहा था कि एक ट्रक वाले ने गाय को बचाने की कोशिश में स्टीयरिंग पर अपना संतुलन खो दिया. परिणामस्वरूप उस ने गनी के?स्कूटर को चपेट में ले लिया. पतिपत्नी दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए और डाक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद बचाए न जा सके.

लेकिन उस जबरदस्त दुर्घटना में नन्हे नदीम का बाल भी बांका नहीं हुआ था. वह टक्कर लगते ही मां की गोद से उछल कर सीधा सड़क के किनारे की घनी घास पर जा गिरा था और इस तरह साफ बच गया था. वक्त के थपेड़ों ने कनीजा बी को अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. मुश्किल यह थी कि वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पातीं. उन्हें मालूम था कि लोगों की झूठी हमदर्दी से दिल का बोझ हलका होने वाला नहीं.

उन्हें लगता कि उन की शादी महज एक छलावा थी. गृहस्थ जीवन का कोई भी तो सुख नहीं मिला था उन्हें. शायद वह दुख झेलने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं. रशीद तो उन का पति था, लेकिन हलीमा बी तो उन की अपनी नहीं थी. वह तो एक धोखेबाज सौतन थी, जिस ने छलकपट से उन्हें रशीद के गले मढ़ दिया था.

गनी कौन उन का अपना खून था. फिर भी उन्होंने उसे अपने सगे बेटे की तरह पालापोसा, बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया, किसी काबिल बनाया. कनीजा बी गनी के बेटे का भी भार उठा ही रही थीं. नदीम का दर्द उन का दर्द था. नदीम की खुशी उन की खुशी थी. वह नदीम की खातिर क्या कुछ नहीं कर रही थीं. कनीजा बी नदीम को डांटतीमारती थीं तो उस के भले के लिए, ताकि वह अपने बाप की तरह एक काबिल इनसान बन जाए.

‘लेकिन ये दुनिया वाले जले पर नमक छिड़कते हैं और मासूम नदीम के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भरते हैं कि मैं उस की सगी दादी नहीं हूं. मैं ने तो नदीम को कभी गैर नहीं समझा. नहीं, नहीं, मैं दुनिया वालों की खातिर नदीम का भविष्य कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.’ कनीजा बी ने यादों के आंसू पोंछते हुए सोचा, ‘दुनिया वाले मुझे सौतेली दादी समझते हैं तो समझें. आखिर, मैं उस की सौतेली दादी ही तो हूं, लेकिन मैं नदीम को काबिल इनसान बना कर ही दम लूंगी. जब नदीम समझदार हो जाएगा तो वह जरूर मेरी नेकदिली को समझने लगेगा. ‘गनी को भी लोगों ने मेरे खिलाफ कम नहीं भड़काया था, लेकिन गनी को मेरे व्यवहार से जरा भी शंका नहीं हुई थी कि मैं उस की बुराई पर अमादा हूं.

अब नदीम का रोना भी बंद हो चुका था. उस का गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. उस ने चोर नजरों से दादी की ओर देखा. दादी की लाललाल आंखों और आंखों में भरे हुए आंसू देख कर उस से चुप न रहा गया. वह बोल उठा, ‘‘दादीजान, पड़ोस वाली चचीजान अच्छी नहीं हैं. वह झूठ बोलती हैं. आप मेरी सौतेली नहीं, सगी दादीजान हैं. नहीं तो आप मेरे लिए यों आंसू न बहातीं. ‘‘दादीजान, मैं जानता हूं कि आप को जोरों की भूख लगी है, अच्छा, पहले आप खाना तो खा लीजिए. मैं भी आप का साथ देता हूं.’’

नदीम की भोली बातों से कनीजा बी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘बड़ा शरीफ बन रहा है रे तू. ऐसे क्यों नहीं कहता. भूख मुझे नहीं, तुझे लगी है.’’

‘‘अच्छा बाबा, भूख मुझे ही लगी है. अब जरा जल्दी करो न.’’ ‘‘ठीक है, लेकिन पहले तुझे यह वादा करना होगा कि फिर कभी तू अपने मुंह से अपने अम्मीअब्बू के पास जाने की बात नहीं करेगा.’’

‘‘लो, कान पकड़े. मैं वादा करता हूं कि अम्मीअब्बू के पास जाने की बात कभी नहीं करूंगा. अब तो खुश हो न?’’ कनीजा बी के दिल में बह रही प्यार की सरिता में बाढ़ सी आ गई. उन्होंने नदीम को खींच कर झट अपने सीने से लगा लिया.

अब वह महसूस कर रही थीं, ‘दुनिया वाले मेरा दर्द समझें न समझें, लेकिन नदीम मेरा दर्द समझने लगा है.’

अच्छे शेर की तलाश : नेताओं के पालने के शौक

मैं कुछ सम झ नहीं पाया. मु झे लगा कि वे वन्य पशु संरक्षण बिल के खिलाफ जा कर अपने बंगले में शेर बांधना चाहते हैं. मैं ने उन्हें याद दिलाना चाहा  झ्कि वन्य प्राणी संरक्षा बिल के चलते वे शेर नहीं पाल सकते. लेकिन नेताओं का क्या, कुछ भी कर सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के एक नेता ने तो अपने बंगले में मगरमच्छ पाल रखे थे. नेता हैं तो अपने आलीशान बंगले में शेर, हाथी, गैंडा, हिरन, कछुआ कुछ भी रख सकते हैं. मु झे उन की शेर मंगवाने की वजह सम झ में नहीं आ रही थी. नेता तो कुछ भी पाल सकते हैं. गुंडे तो पालते ही हैं.

‘‘वह कवि सम्मेलनों या ऐसे ही किसी साहित्यिकफाहित्यिक कार्यक्रम में गा कर पढ़ते हैं न, उस वाले शेर की बात कर रहा हूं. लगता है कि तुम कवि सम्मेलनों में नहीं जाते?’’ उन्होंने मेरी जानकारी पर तरस खाते हुए कहा.

मु झे उन की इस 180 डिगरी की छलांग पर हैरानी हुई. बातबात में संस्कृत के श्लोक पढ़ने वाला आज उर्दू के शेर की बात कर रहा है. दल बदल तो नहीं कर लिया? वैसे भी अच्छे दिनों का सपना देखतेदेखते दोपहर हो गई है.

‘‘कहीं से भी लाओ, जल्दी लाओ. लाते रहो. काम आते जाएंगे. मु झे भाषण देना है. अब मैं घिसेपिटे भाषण देने

के बजाय शेर के जरीए अपनी बात कहूंगा,’’ उन्होंने कहा.

मैं शेर का मतलब सम झ तो गया था, लेकिन भाषण और शेर का नाता नहीं जोड़ पाया. मैं ने कलैंडर देखा. बजट या उस का संशोधन भी नहीं आया, जो वित्त मंत्री जातेजाते परंपरा के मुताबिक कोई शेर पढ़ें और ये भी उस का शेर में ही जवाब दें.

अपना तो शेरोशायरी से नाता कभी का टूट चुका था. कालेज के दिनों में तो जरूर मौकेबेमौके शेर ठूंस दिया करता था. साथ में पढ़ने वाली किसी लड़की की भी शादी हो गई तो उदासी का शेर गुनगुना लेता था. किसी लड़की ने खुद बात कर ली तो दिनभर रोमांटिक शेर जबान पर खेलता रहता था.

शादी के बाद जिंदगी से रोमांटिसिज्म विदा हो जाता है और उस की जगह रियलिज्म ले लेता है. अब तो ‘मेक इन इंडिया’ का नशा उतरने के बाद शेर की याद भी डराती है. बस याद आता है तो ‘अप्लाई अप्लाई बट नो रिप्लाई’.

अखबारों में बढ़ती रोजगारी और जमीन चूमने को बेचैन जीडीपी खबरों के चलते कोई शेर कैसे कह सकता है. सुनने की ही ताकत नहीं रही. फिर भी मैं ने उन्हें यकीन दिलाया कि जल्द ही शेर ढूंढ़ लाऊंगा.

‘‘कैसा शेर चाहिए आप को? खुशी का चाहिए या गम का? स्पिरिचुअल या रिवौलूशनल?’’ मैं ने जानना चाहा.

सच ही तो है. उन्हें गुस्से का शेर चाहिए हो और मैं मजाक का शेर पकड़ा दूं. खुशी का शेर चाहिए और मैं गम का ले आऊं तो बेइज्जती मेरी पढ़ाईलिखाई की होगी. उन का क्या, उन की शैक्षणिक योग्यता का पता तो उन्हें खुद को नहीं है.

‘‘सिचुएशनल… मु झे सिचुएशनल शेर चाहिए. आज की मांग सिचुएशनल शेर की है. कल तक जो अपने थे, वे आज बेगाने हो गए,’’ उन्होंने हताशा से शायराना अंदाज में कहा.

उन की बात में दम तो था. आजकल सामने वाले की खिल्ली उड़ाने के लिए शेरोशायरी का इस्तेमाल होने लगा है.

उन की फरमाइश पूरी करने के लिए मैं ने दोस्तों के घर जा कर शायरी की किताबें इकट्ठा कीं. सभी को हैरानी हो रही थी कि जो आदमी खर्चे कैसे कम करें, कम आमदनी में घर कैसे चलाएं, अखबार की रद्दी का सब से अच्छा भाव पाएं जैसे विषयों पर किताबें ढूंढ़ता रहता था, वह आज शेरोशायरी की किताबें मांग रहा है. उसे अब शायरी में फिर से कैसे दिलचस्पी हो आई. कहीं कोई ऐसावैसा चक्करवक्कर तो नहीं है.

लेकिन मैं ने सही बात नहीं बताई. मेरा ज्यादातर समय नौकरी ढूंढ़ने के साथसाथ शायरी की किताबें पढ़ने में जाने लगा. गालिब, मोमिन, अकबर इलाहाबादी से लगा कर साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, जां निसार, जावेद अख्तर, सरदार जाफरी, राहत इंदौरी, मुनव्वर राना तक को खंगाल डाला. कुछ शेर इस के लिए चुरा लिए तो कुछ उस के और 2 अलगअलग शेरों को जोड़ कर नया शेर बनाने की तिकड़म भी भिड़ाई.

सच कहूं तो खुद भी कुछ शेर लिख मारे. काफिया नहीं मिला तो क्या, भाषण देने वालों का शायरी से कोई मतलब नहीं होता. कभी सुना या देखा है नेता लोगों से मुशायरों में जाते हुए.

सब महाराष्ट्र के चलते हो रहा है, 2 हफ्ते बाद नेताजी ने मेरे चुने हुए सारे शेर खारिज कर दिए.

‘‘बयानों में शायरी का चलन वहीं से शुरू हुआ है. न वहां के नेता अपने अखबार में शेर पर शेर लिख कर सामने वाली पार्टी को ललकारते और न ही सामने वाले उस का जवाब शेर में देते. वह क्या, किसी ने कहा है कि मैं लहर हूं, लौट कर आऊंगा या ऐसा ही कुछ. अब तो इधर से एक शेर गया नहीं कि उधर से एक शेर दौड़ा चला आता है.

‘‘लगता है कि जिंदाबादमुरदाबाद के नारे घिस गए हैं जो शेर पर शेर चले आ रहे हैं. मेरे पास कोई शेर नहीं होता मौके पर. ऐसे में मैं खुद को पिछड़ा सम झने लगता हूं. तुम्हारी किताबों का एक भी शेर आज के हालात पर हो तो लगी शर्त.’’

वे बोले, ‘‘पढ़ाई के नाम पर फिल्में देखने या लड़कियों के साथ होटल में गुजारने के बजाय 2-4 शेर ही रट लेते, तो आज यह शर्मनाक नौबत नहीं आती. लगता है कि खुद ही शेर लिखना होगा.’’

मैं ने तो अपना काम कर दिया. रोज अखबार तो खरीदता ही था कि नौकरी का कोई इश्तिहार दिख जाए, लेकिन इस बार उन का कोई दहाड़ता शेर पढ़ने को मिल जाए, इस पर भी नजर दौड़ाने लगा हूं.

बहुत दिन हो गए, लेकिन उन का शेर मांद में ही रहा. उन्हें भी बिना शेर के चैन नहीं था. एक दिन मेरे घर आए और डांटने लगे कि मैं ने कोई नया शेर नहीं सु झाया. बड़ी देर तक वे हमारी दोस्ती का वास्ता देते रहे. मुसीबत के समय दोस्त ही काम आता है जैसी किताबी बातें करते रहे.

मैं सम झ गया कि अब मामला आईसीयू में ले जाने जितना गंभीर हो गया है. मैं उन्हें हाईवे के टोल नाके पर ले गया.

मैं ने उन से अदब से कहा, ‘‘कुछ पल गुजारिए टोल नाके पर, शेरों की बरात निकलेगी. इस रास्ते से दिनरात कई ट्रक गुजरते हैं. उन के पीछे देखते रहिए. नएनए शेर मिल जाएंगे.’’

दरिंदे से बदला: सोनाली का दर्द

पड़ोसी राजेश सिंह के घर मन रहे जश्न का शोर सोनाली के कानों में पिघले सीसे की तरह उतर रहा था. सारे खिड़कीदरवाजे बंद कर कानों को कस कर दबाए वह अपना सिर घुटनों में छिपा कर बैठी थी लेकिन रहरह कर एक जोर का कह कहा लगता और सारी मेहनत बेकार हो जाती.

पास बैठा सोनाली का पति सुरेंद्र भरी आवाज में उसे दिलासा देने में जुटा था, ‘‘ऐसे हिम्मत मत हारो… ठंडे दिमाग से सोचेंगे कि आगे क्या करना है.’’

सुरेंद्र के बहते आंसू सोनाली की साड़ी और चादर पर आसरा पा रहे थे. बच्चों को दूसरे कमरे में टैलीविजन देखने के लिए कह दिया गया था.

6 साल का विकी तो अपनी धुन में मगन था लेकिन 10 साल का गुड्डू बहुतकुछ समझने की कोशिश कर रहा था. विकी बीचबीच में उसे टोक देता मगर वह किसी समझदार की तरह उसे कोई नया चैनल दिखा कर बहलाने लगता था.

2 साल पहले तक सोनाली की जिंदगी में सबकुछ अच्छा चल रहा था. पति की साधारण सरकारी नौकरी थी, पर उन के छोटेछोटे सपनों को पूरा करने में कभी कोई अड़चन नहीं आई थी. पुराना पुश्तैनी घर भी प्यार की गुनगुनाहट से महलों जैसा लगता था. बूढ़े सासससुर बहुत अच्छे थे. उन्होंने सोनाली को मांबाप की कमी कभी महसूस नहीं होने दी थी.

एक दिन सुरेंद्र औफिस से अचानक घबराया हुआ लौटा और कहने लगा था, ‘कोई नया मंत्री आया है और उस ने तबादलों की झड़ी लगा दी है. मुझे भी दूसरे जिले में भेज दिया गया है.’

‘क्या…’ सोनाली का दिल धक से रह गया था. 2 घंटे तक अपने परिवार से दूर रहने से घबराने वाला सुरेंद्र अब

2 हफ्ते में एक बार घर आ पाता था. बच्चे भी बहुत उदास हुए, लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता. मनचाही जगह पर पोस्टिंग मिल तो जाती, मगर उस की कीमत उन की पहुंच से बाहर थी.

हार कर सोनाली ने खुद को किसी तरह समझा लिया था. वीडियो काल, चैटिंग के सहारे उन का मेलजोल बना रहता था. जब भी सुरेंद्र घर आता था, सोनाली को रात छोटी लगने लगती थी. सुरेंद्र की बांहों में भिंच कर वह प्यार का इतना रस निचोड़ लेने की कोशिश करती थी कि उन का दोबारा मिलन होने तक उसे बचाए रख सके. उस के दिल की इस तड़प को समझ कर निंदिया रानी तो उन्हें रोकटोक करने आती नहीं थी. बिस्तर से ले कर जमीन तक बिखरे दोनों के कपड़े भी सुबह होने के बाद ही उन को आवाज देते थे.

जिंदगी की गाड़ी चलती रही, लेकिन अपनी दुनिया में मगन रहने वाली सोनाली एक बड़े खतरे से अनजान थी. उस खतरे का नाम राजेश सिंह था जो ठीक उन के पड़ोस में रहता था.

शरीर से बेहद लंबेतगड़े राजेश को न अपनी 55 पार कर चुकी उम्र का कोई लिहाज था और न ही गांव के रिश्ते से कहे जाने वाले ‘चाचा’ शब्द का. उस की गंदी नजरें खूबसूरत बदन की मालकिन सोनाली पर गड़ चुकी थीं.

दबंग राजेश सिंह हत्या, देह धंधा जैसे अनेक मामलों में फंस कर कई बार जेल जा चुका था लेकिन हमेशा किसी न किसी से पैरवी करा कर बाहर आ जाता था. सुरेंद्र का साधारण समुदाय से होना भी राजेश सिंह की हिम्मत बढ़ाता था.

राजेश सिंह का कोई तय काम नहीं था. बेटों की मेहनत पर खेतों से आने वाला अनाज खा कर पड़े रहना और चुनाव के समय अपनी जाति के नेताओं के पक्ष में इधर से उधर दलाली करना उस का पेशा था. हालांकि बेटे भी कोई दूध के धुले नहीं थे. बाकी सारा समय अपने दरवाजे पर किसीकिसी के साथ बैठ कर यहांवहां की गप हांकना राजेश सिंह की आदत थी.

सोनाली बाहर कम ही निकलती थी, लेकिन जब भी जाती और राजेश सिंह को पता चल जाता तो घर से निकलने से ले कर वापस लौटने तक वह उस को ही ताकता रहता. उस के उभारों और खुले हिस्सों को तो वह ऐसे देखता जैसे अभी खा जाएगा.

एक दिन सोनाली जब आटोरिकशा पर चढ़ रही थी तो उस की साड़ी के उठे भाग के नीचे दिख रही पिंडलियों को घूरने की धुन में राजेश सिंह अपने दरवाजे पर ठोकर खा कर गिरतेगिरते बचा. उस के साथ बैठे लोग जोर से हंस पड़े. सोनाली ने घूम कर उन की हंसी देखी भी, पर उन की भावना नहीं समझ पाई.

आखिर वह दिन भी आया जिस ने सोनाली का सबकुछ छीन लिया. उस के सासससुर किसी संबंधी के यहां गए हुए थे और छोटा बेटा विकी नानी के घर था. बड़ा बेटा गुड्डू स्कूल में था. बाहर हो रही तेज बारिश की वजह से मोबाइल नैटवर्क भी खराब चल रहा था जिस के चलते सोनाली और सुरेंद्र की ठीक से बात नहीं हो पा रही थी. ऊब कर उस ने मोबाइल फोन बिस्तर पर रखा और नहाने चली गई.

सोनाली ने दोपहर के भोजन के लिए दालचावल चूल्हे पर पहले ही चढ़ा दिए थे और नहाने के बीच में कुकर की सीटियां भी गिन रही थी. हमेशा की तरह उस का नहाना पूरा होतेहोते कुकर ने अपना काम कर लिया. सोनाली ने जल्दीजल्दी अपने बालों और बदन पर तौलिए लपेटे और बैडरूम में भागी आई. बालों को झटपट पोंछ कर उस ने बिस्तर पर रखे नए सूखे कपड़े पहनने के लिए जैसे ही अपने शरीर पर बंधा तौलिया हटाया कि अचानक 2 मजबूत हाथों ने उसे पीछे से दबोच लिया.

अचानक हुए इस हमले से बौखलाई सोनाली ने पीछे मुड़ कर देखा तो हमलावर राजेश सिंह था जो छत के रास्ते उस के घर में घुस आया था और कमरे में पलंग के नीचे छिप कर उस का ही इंतजार कर रहा था. उस के मुंह से शराब की तेज गंध भी आ रही थी.

सोनाली चीखती, इस से पहले ही किसी दूसरे आदमी ने उस का मुंह भी दबा दिया. वह जितना पहचान पाई उस के मुताबिक वह राजेश सिंह का खास साथी भूरा था और उम्र में राजेश सिंह के ही बराबर था.

सोनाली के कुछ सोचने से पहले ही वे दोनों उसे पलंग पर लिटा कर वहां रखी उस की ही साड़ी के टुकड़े कर उसे बांध चुके थे. सोनाली के मुंह पर भूरा ने अपना गमछा लपेट दिया था.

इस के बाद राजेश सिंह ने पहले तो कुछ देर तक अपनी फटीफटी आंखों

से सोनाली के जिस्म को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर उस के ऊपर झुकता चला गया.

काफी देर बाद हांफता हुआ राजेश सिंह सोनाली के ऊपर से उठा. भयंकर दर्द से जूझती, पसीने से तरबतर सोनाली सांयसांय चल रहे सीलिंग फैन को नम आंखों से देख रही थी. टैलीविजन पर रखा सोनाली, सुरेंद्र और बच्चों का ग्रुप फोटो गिर कर टूट चुका था. रसोईघर में चूल्हे पर चढ़े दालचावल सोनाली के सपनों की तरह जल कर धुआं दे रहे थे.

इस के बाद भूरा बेशर्मी से हंसता हुआ अपनी हवस मिटाने के लिए बढ़ा. राजेश सिंह बिस्तर पर पड़े सोनाली के पेटीकोट से अपना पसीना पोंछ रहा था.

भूरा ने अपने हाथ सोनाली के कूल्हों पर रखे ही थे कि तभी दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई. राजेश सिंह ने दरवाजे की झिर्री से झांका तो गुड्डू की स्कूल वैन का ड्राइवर उसे साथ ले कर खड़ा था.

राजेश सिंह ने जल्दी से भूरा को हटने का इशारा किया. वह झल्लाया चेहरा लिए उठा और अपने कपड़े ठीक करने लगा.

‘तुम ने बहुत ज्यादा समय ले ही लिया इस के साथ, नहीं तो हम को भी मौका मिल जाता न,’ भूरा भुनभुनाया. लेकिन राजेश सिंह ने उस की बात पर ध्यान नहीं दिया और जैसेतैसे अपने कपड़े पहन कर जिधर से आया था, उधर से ही भाग गया.

जब दरवाजा नहीं खुला तो गुड्डू के कहने पर ड्राइवर ने ऊपर से हाथ घुसा कर कुंडी खोली. घुसते ही अंदर के कमरे का सब नजारा दिखता था. ड्राइवर के तो होश उड़ गए. उस ने शोर मचा दिया.

सुरेंद्र आननफानन आया. सोनाली के बयान पर राजेश सिंह और भूरा पर केस दर्ज हुए. दोनों की गिरफ्तारी भी हुई लेकिन राजेश सिंह ने अपनी पहचान के नेता से बयान दिलवा लिया कि घटना वाले दिन वह और भूरा उस के साथ मीटिंग में थे. मैडिकल जांच पर भी सवाल खड़े कर दिए गए.

कुछ समाचार चैनलों और स्थानीय महिला संगठनों ने थोड़े दिनों तक अपनीअपनी पब्लिसिटी के लिए प्रदर्शन जरूर किए, बाद में अचानक शांत पड़ते गए.

सालभर होतेहोते राजेश सिंह और भूरा दोनों बाइज्जत बरी हो कर निकल आए. ऊपरी अदालत में जाने लायक माली हालत सुरेंद्र की थी नहीं.

आज राजेश सिंह के घर पर हो रही पार्टी सुरेंद्र और सोनाली के घावों पर रातभर नमक छिड़कती रही. इस के बाद राजेश सिंह और भी छुट्टा सांड़ हो गया. छत पर जब भी सोनाली से नजरें मिलतीं, वह गंदे इशारे कर देता. इस सदमे से सोनाली के सासससुर भी बीमार रहने लगे थे.

राजेश सिंह के छूट जाने से सोनाली के मन में भरा डर अब और बढ़ने लगा था. रातों को अपने निजी अंगों पर सुरेंद्र का हाथ पा कर भी वह बुरी तरह से चौंक कर जाग उठती थी.

कई बार सोनाली के मन में खुदकुशी का विचार आया, लेकिन अपने पति और बच्चों का चेहरा उसे यह गलत कदम उठाने नहीं देता था.

दिन बीतते गए. गुड्डू का जन्मदिन आ गया. केवल उस की खुशी के लिए सोनाली पूरे परिवार के साथ होटल चलने को राजी हो गई. खाना खाने के बाद वे लोग काउंटर पर बिल भर रहे थे कि तभी सामने राजेश सिंह दिखाई दिया. सफेद कुरतापाजामा पहने हुए वह एक पान की दुकान की ओट में किसी से मोबाइल फोन पर बात कर रहा था.

राजेश सिंह पर नजर पड़ते ही सोनाली के मन में उसी दिन का उस का हवस से भरा चेहरा घूमने लगा. उस के द्वारा फोन पर कहे जा रहे शब्द उसे वही आवाज लग रहे थे जो उस की इज्जत लूटते समय वह अपने मुंह से निकाल रहा था.

सोनाली का दिमाग तेजी से चलने लगा. उबलते गुस्से और डर को काबू में रख वह आज अचानक कोई फैसला ले चुकी थी. उस ने सुरेंद्र के कान में कुछ कहा.

सुरेंद्र ने बच्चों से खाने की मेज पर ही बैठ कर इंतजार करने को बोला और होटल के दरवाजे के पास आ कर खड़ा हो गया.

सोनाली ने आसपास देखा और राजेश सिंह के ठीक पीछे आ गई. वह अपनी धुन में था इसलिए उसे कुछ पता नहीं चला. सोनाली ने अपने पेटीकोट की डोरी पहले ही थोड़ी ढीली कर ली थी. उस ने राजेश सिंह का दूसरा हाथ पकड़ा और अपने पेटीकोट में डाल लिया.

राजेश सिंह ने चौंक कर सोनाली की तरफ देखा. वह कुछ समझ पाता, इससे पहले ही सोनाली उस का हाथ पकड़ेपकड़े रोते हुए चिल्लाने लगी, ‘‘अरे, यह क्या बदतमीजी है? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे साथ ऐसी घटिया हरकत करने की?’’

सोनाली के चिल्लाते ही सुरेंद्र होटल से भागाभागा वहां आया और उस ने राजेश सिंह पर मुक्कों की बरसात कर दी. वह मारतेमारते जोरजोर से बोल रहा था, ‘‘राह चलती औरत के पेटीकोट में हाथ डालेगा तू?’’

जिन लोगों ने राजेश सिंह का हाथ सोनाली के पेटीकोट में घुसा देख लिया था, वे भी आगबबूला हुए उधर दौड़े और उस को पीटने लगे.

भीड़ जुटती देख सुरेंद्र ने अपने जूते के कई जोरदार वार राजेश सिंह के पेट और गुप्तांग पर कर दिए और मौका पा कर भीड़ से निकल गया.

जब तक कुछ लोग बीचबचाव करते, तब तक खून से लथपथ राजेश सिंह मर चुका था. जो सजा उसे बलात्कार के आरोप में मिलनी चाहिए थी, वह उसे छेड़खानी के आरोप ने दिलवा दी थी.

दोस्त न होता तो : क्या माया को मिल पाया पृथ्वीपाल जैसा दोस्त

कोरोना काल में पृथ्वीपाल का परिवार कई तरह की मुश्किलों का सामना बड़ी हिम्मत से कर रहा था. उस का गांव बहादुरपुर राजधानी लखनऊ से महज 5 किलोमीटर दूर है. वहां सिर्फ 6-7 परिवार अमीर हैं. 20-25 गरीब परिवार मजदूरी से गुजरबसर करते हैं, वहीं 60-70 परिवार पृथ्वीपाल के परिवार जैसे हैं.

ये परिवार न पूरी तरह से गरीब हैं, न अमीर ही. ये लोग ‘रोज कुआं खोदो रोज पानी पीयो’ वाली हालत में हैं. इन सब की आमदनी मजदूरों से थोड़ी सी ज्यादा है.

पृथ्वीपाल के पास 2 बीघा जमीन थी, लेकिन पत्नी रामरती के इलाज की खातिर जमीन बेच डाली थी. रामरती को 6 साल पहले कैंसर हो गया था. सारे जेवर और जमीन बेचने के बाद भी रामरती की मौत हो गई थी.

अब पृथ्वीपाल के परिवार में उस की 3 बेटियां और एक छोटा बेटा बचा था. उस ने परिवार को चलाने के लिए बैंक से कर्ज ले कर एक आटोरिकशा खरीदा था. वह पिछले 3 साल से लखनऊ में आटोरिकशा चला रहा था.

पृथ्वीपाल की बड़ी बेटी माया बीए करने के बाद एक निजी स्कूल में पढ़ाने लगी थी. बापबेटी की कमाई से परिवार ठीकठाक चलने लगा था.

माया ने अपनी दोनों छोटी बहनों और भाई का नाम उसी स्कूल में लिखवा दिया था. पृथ्वीपाल को अब माया की शादी की चिंता रहती थी.

पृथ्वीपाल आटोरिकशा की अदायगी अच्छे ढंग से कर रहा था.

3 महीने की ही किसतें बाकी रह गई थीं. बैंक ने उसे मई में दूसरा आटोरिकशा लेने की सलाह दी थी.

पृथ्वीपाल ने भी सोच लिया था कि इस रिकशे की अदायगी होते ही वह दूसरा रिकशा निकाल लेगा. नया वाला खुद चलाएगा, पुराना किसी को किराए पर दे देगा. इस से उस की आमदनी और बढ़ जाएगी. पर उसे क्या पता था कि मार्च आते ही कोरोना महामारी आ जाएगी. आमदनी बढ़ना तो दूर की बात, खानेपीने के भी लाले पड़ जाएंगे.

देश में कोरोना महामारी के चलते 5वां लौकडाउन चल रहा था. कोरोना के मरीज बढ़ रहे थे. सरकार नए नियमकानून और पैकेज का ऐलान कर रही थी. इसी बीच लाखों मजदूरों का पलायन जारी था.

सत्ता पक्ष कोरोना से निबट लेने के दावे पेश कर रहा था. सरकार द्वारा हर महीने किसानों, मजदूरों और दूसरे गरीबों को मुफ्त में राशन, गैस सिलैंडर और नकद रुपए भी दिए जा रहे थे. वहीं, विपक्ष कोरोना से हो रही बदहाली पर अपनी राजनीति चमका रहा था.

समाजसेवी मजदूरों की सेवा में जुटे थे. कोई मजदूरों को भोजनपानी बांट रहा था, कोई गरीबों को राशन, कपड़े, जूतेचप्पल दे रहा था.

ये सारी खबरें टैलीविजन पर सुबह से रात तक चल रही थीं. सुबह अखबार भी इन्हीं खबरों से रंगे होते थे.

पृथ्वीपाल इन खबरों को देख कर भी अनदेखी करने लगा था. ढाई महीने की बंदी के बाद भी उस की खबर लेने वाला कोई नहीं था, क्योंकि वह सरकार और समाज की नजर में गरीब नहीं था. उस का परिवार मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखता था, इसलिए उसे न सरकार से और न ही समाजसेवियों से कोई मदद मिलनी थी.

पृथ्वीपाल ढाई महीने से घर में ही कैद था. आटोरिकशा दरवाजे पर धूल खा रहा था. पृथ्वीपाल ने लंबे समय से एक रुपया नहीं कमाया था. आटोरिकशा की किस्तें भी उस पर चढ़ती जा रही थीं.

वहीं, माया का भी स्कूल बंद हो गया था. पर वह स्कूल के बच्चों को रोज 4 घंटे औनलाइन पढ़ाती थी. स्कूल वालों ने बिना कुछ बताए उस की तनख्वाह आधी कर दी. अब उसे महज 3,500 रुपए मिल रहे थे. इस से घर का राशनपानी व खर्च नहीं चल पा रहा था.

बीते 3 महीने में चारों बच्चों की गुल्लक तोड़ी जा चुकी थी. अब घर में एक रुपया किसी के पास नहीं था. सारा राशन, तेल, मसाला और घरेलू गैस खत्म हो चुकी थी.

आज दूसरा दिन था, जब घर में चूल्हा नहीं जला था. माया गांव की दुकान से चीनी, चाय पत्ती, बिसकुट व दालमोठ उधार लाई थी. सुबहशाम पांचों प्राणी सिर्फ चाय पीते थे.

स्कूल ने इस महीने आधी तनख्वाह भी अब तक नहीं दी थी. दूध वाला और सब्जी वाला आज सुबह पैसों के लिए तगादा कर के गए थे. दोनों का 2 महीने से बकाया चल रहा था.

पृथ्वीपाल के बेटे की तबीयत भी खराब थी. उसे बुखार और दस्त की शिकायत थी. राशनपानी से ज्यादा जरूरी उस की दवा थी. पृथ्वीलाल किसी से कुछ ले भी नहीं सकता था. इस में उस का स्वाभिमान आड़े आ रहा था.

घर की इस दर्दनाक हालत को देख कर माया ने स्कूल के प्रिंसिपल को फोन लगाया. उस ने प्रिंसिपल से 2,000 रुपए एडवांस देने की गुहार लगाई, लेकिन प्रिंसिपल ने साफ इनकार कर दिया.

प्रिंसिपल फोन पर बोले, ‘‘माया, तुम जानती हो कि 3 महीने से स्कूल बंद है. किसी बच्चे की फीस जमा नहीं हो रही है. बड़ी मुश्किल से तुम लोगों को तनख्वाह दी जा रही हैं.’’

इतना सुन कर माया की आंखों से आंसू बहने लगे.

तभी माया के एक सहपाठी माधव का फोन आ गया. उस ने अपने को संभाला और फोन ले कर छत पर चली गई. तब वह रुंधे गले से ‘हैलो’ बोली.

माधव हैलो सुन कर बहुतकुछ समझ गया. उस ने माया से पूछा, ‘क्यों रो रही है? क्या मुझे नहीं बताओगी? आंसू पोंछो और मुझे बताओ कि क्या हुआ…?’

माया ने न चाहते हुए भी एक सांस में घर की पूरी कहानी बता डाली.

उस ने माधव को बता दिया कि घर में कई दिनों से एक रुपया नहीं है. 2 दिन से घर में चूल्हा नहीं जला है. भाई

की तबीयत खराब है. उस की दवा भी लानी है.

यह सुनते ही माधव आगबबूला हो गया. वह गुस्सा हो कर बोला, ‘जाओ, आज के बाद मैं तुम से कभी बात नहीं करूंगा. तुम ने मुझे कुछ नहीं समझ. अगर मुझे कुछ मानती तो बहुत पहले फोन करती.’

माया बोली, ‘‘गुस्सा न करो यार. तुम घर से इतनी दूर लौकडाउन में फंसे हो. ऐसे में तुम को क्या बताती.’’

माधव ने कहा, ‘चलो ठीक, कोई बात नहीं. तुम तुरंत अंकल के साथ आटोरिकशा से कसबे में जाओ. भाई को भी साथ ले जाओ. मैं तुम्हारे बैंक खाते में 5,000 रुपए ट्रांसफर कर रहा हूं. पहले बैंक से रकम निकालो, फिर भाई की दवा लो. उस के बाद घर का सारा राशनपानी खरीदो.’’

माधव की बात पूरी होते ही माया बोली, ‘‘नहीं माधव, ऐसा मत करो. मु?ो 2-3 दिन में स्कूल से तनख्वाह मिल जाएगी. तब यहां सब हो जाएगा. तुम परदेश में हो. तुम को अपने पास रुपए रखने चाहिए.’’

लेकिन माधव ने दोस्ती की कसम दे कर माया को रुपए लेने पर मजबूर कर दिया.

पृथ्वीपाल बरामदे में लेटा राशन न होने और बेटे की खराब तबीयत के बारे में सोच रहा था. उसे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था. वह गांव में किसी से रुपए उधार नहीं लेना चाहता था.

तभी माया वहां आ कर बोली, ‘‘पापा तुरंत तैयार हो जाइए, कसबे में चलते हैं. छोटू को डाक्टर को दिखा कर दवा ले आएं. साथ ही, घर का राशनपानी और गैस सिलैंडर भी ले आएंगे. कल सुबह दूध वाले, सब्जी वाले और गांव की दुकान का बकाया भी चुका देंगे.’’

इतना सुन कर पृथ्वीपाल ने पूछा, ‘‘माया, क्या इस बार तुम्हें पूरी तनख्वाह मिल गई है?’’

माया ने ठंडी सांस भरी और बोली, ‘‘अरे, नहीं पापा. माधव ने मेरे बैंक खाते में जबरदस्ती 5,000 रुपए डाल दिए हैं. वह बाद में अपने रुपए ले लेगा.’’

पृथ्वीपाल ने कहा, ‘‘वह तो ठीक है, लेकिन तुम ने घर की परेशानी उसे क्यों बताई? वह बेचारा खुद लौकडाउन की वजह से बाहर फंसा है.’’

माया ने कहा, ‘‘पापा, अब कसबे में चलो, बाकी बातें बाद में करना.’’

पृथ्वीपाल आटोरिकशा से माया और छोटू को ले कर कसबे की ओर निकल पड़े. रास्ते में माया बारबार यही सोच रही थी कि अगर दोस्त न होता तो…

मिशन पूरा हुआ : जगह-जगह रावण है

‘‘अ रे ओ लक्ष्मी…’’ अखबार पढ़ते हुए जब लक्ष्मी ने ध्यान हटा कर अपने पिता मोड़ीराम की तरफ देखा, तब वह बोली, ‘‘क्या है बापू, क्यों चिल्ला रहे हो?’’

‘‘अखबार की खबरें पढ़ कर सुना न,’’ पास आ कर मोड़ीराम बोले.

‘‘मैं तुम्हें नहीं सुनाऊंगी बापू?’’ चिढ़ाते हुए लक्ष्मी अपने बापू से बोली.

‘‘क्यों नहीं सुनाएगी तू? अरे, मैं अंगूठाछाप हूं न, इसीलिए ज्यादा भाव खा रही है.’’

‘‘जाओ बापू, मैं तुम से नहीं बोलती.’’

‘‘अरे लक्ष्मी, तू तो नाराज हो गई…’’ मनाते हुए मोड़ीराम बोले, ‘‘तुझे हम ने पढ़ाया, मगर मेरे मांबाप ने मुझे नहीं पढ़ाया और बचपन से ही खेतीबारी में लगा दिया, इसलिए तुझसे कहना पड़ रहा है.’’

‘‘कह दिया न बापू, मैं नहीं सुनाऊंगी.’’

‘‘ऐ लक्ष्मी, सुना दे न… देख, दिनेश की खबर आई होगी.’’

‘‘वही खबर तो पढ़ रही थी. तुम ने मेरा ध्यान भंग कर दिया.’’

‘‘अच्छा लक्ष्मी, पुलिस ने उस के ऊपर क्या कार्यवाही की?’’

‘‘अरे बापू, पुलिस भी तो बिकी हुई है. अखबार में ऐसा कुछ नहीं लिखा है. सब लीपापोती है.’’

‘‘पैसे वालों का कुछ नहीं बिगड़ता है बेटी,’’ कह कर मोड़ीराम ने अफसोस जताया, फिर पलभर रुक कर बोला, ‘‘अरे, मरना तो अपने जैसे गरीब का होता है.’’

‘‘हां बापू, तुम ठीक कहते हो. मगर यह क्यों भूल रहे हो, रावण और कंस जैसे अत्याचारियों का भी अंत हुआ, फिर दिनेश जैसा आदमी किस खेत की मूली है,’’ बड़े जोश से लक्ष्मी बोली.

मगर मोड़ीराम ने कहा, ‘‘वह जमाना गया लक्ष्मी. अब तो जगहजगह रावण और कंस आ गए हैं.’’

‘‘अरे बापू, निराश मत होना. दिनेश जैसे कंस को मारने के लिए भी किसी न किसी ने जन्म ले लिया है.’’

‘‘यह तू नहीं, तेरी पढ़ाई बोल रही है. तू पढ़ीलिखी है न, इसलिए ऐसी बातें कर रही है. मगर यह इतना आसान नहीं है. जो तू सोच रही है. आजकल जमाना बहुत खराब हो गया है.’’

‘‘देखते जाओ बापू, आगेआगे क्या होता है,’’ कह कर लक्ष्मी ने अपनी बात कह दी, मगर मोड़ीराम की सम?ा में कुछ नहीं आया, इसलिए बोला, ‘‘ठीक है लक्ष्मी, तू पढ़ीलिखी है, इसलिए

तू सोचती भी ऊंचा है. मैं खेत पर जा

रहा हूं. तू थोड़ी देर बाद रोटी ले कर वहीं आ जाना.’’

‘‘ठीक है बापू, जाओ. मैं आ जाऊंगी,’’ लक्ष्मी ने बेमन से कह कर बात को खत्म कर दिया.

मोड़ीराम खेत पर चला गया. लक्ष्मी फिर से अखबार पढ़ने लगी. मगर उस का ध्यान अब पढ़ने में नहीं लगा. उस का सारा ध्यान दिनेश पर चला गया. दिनेश आज का रावण है. इसे कैसे मारा जाए? इस बात पर उस का सारा ध्यान चलने लगा. उस ने खूब घोड़े दौड़ाए, मगर कहीं से हल मिलता नहीं दिखा.

काफी सोचने के बाद आखिरकार लक्ष्मी ने हल निकाल लिया. तब उस के चेहरे पर कुटिल मुसकान फैल गई.

दिनेश और कोई नहीं, इस गांव का अमीर किसान है. उस के पास ढेर सारी खेतीबारी है. गांव में उस की बहुत बड़ी हवेली है. उस के यहां नौकरचाकर हैं. खेत नौकरों के भरोसे ही चलता है. रकम ले कर ब्याज पर पैसे देना उस का मुख्य पेशा है.

गांव के जितने गरीब किसान हैं, उन को अपना गुलाम बना रखा है. गांव की बहूबेटियों की इज्जत से खेलना उस का काम है. पूरे गांव में उस की इतनी धाक है कि कोई भी उस के खिलाफ नहीं बोलता है.

इस तरह इस गांव में दिनेश नाम के रावण का राज चल रहा था. उस के कहर से हर कोई दुखी था.

‘‘लक्ष्मी, रोटियां बन गई हैं, बापू को खेत पर दे आ,’’ मां कौशल्या ने जब आवाज लगाई, तब वह अखबार एक तरफ रख कर मां के पास रसोईघर में चली गई.

लक्ष्मी बापू की रोटियां ले कर खेत पर जा रही थी, मगर विचार उस के सारे दिनेश पर टिके थे. आज के अखबार में यहीं खबर खास थी कि उस ने अपने फार्म पर गांव के मांगीलाल की लड़की चमेली की इज्जत लूटी थी. गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई थी, मगर ऊपरी जबान से कोई कुछ नहीं कह रहा था कि चमेली की इज्जत दिनेश ने ही लूटी है.

जब लक्ष्मी खेत पर पहुंची, तब बापू खेत में बने एक कमरे की छत पर खड़े हो कर पक्षी भगा रहे थे, वह भी ऊपर चढ़ गई. देखा कि वहां से उस की पूरी फसल दिख रही थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बापू, रोटी खाओ. लाओ, गुलेल मुझे दो, मैं पक्षी भगाती हूं.’’

‘‘ले बेटी संभाल गुलेल, मगर किसी पक्षी को मार मत देना,’’ कह कर मोड़ीराम ने गुलेल लक्ष्मी के हाथों में थमा दी और खुद वहीं पर बैठ कर रोटी खाने लगा.

लक्ष्मी थोड़ी देर तक पक्षियों को भगाती रही, फिर बोली, ‘‘बापू, आप ने यह कमरा बहुत अच्छा बनाया है. अब मैं यहां पढ़ाई करूंगी.’’

‘‘क्या कह रही है लक्ष्मी? यहां तू पढ़ाई करेगी? क्या यह पढ़ाई करने की जगह है?’’

‘‘हां बापू, जंगल की ताजा हवा जब मिलती है, उस हवा में दिमाग अच्छा चलेगा. अरे बापू, मना मत करना.’’

‘‘अरे लक्ष्मी, मैं ने आज तक मना किया है, जो अब करूंगा. अच्छा पढ़ लेना यहां. तेरी जो इच्छा है वह कर,’’ हार मानते हुए मोड़ीराम बोला.

लक्ष्मी खुश हो गई. उस का कमरा इतना बड़ा है कि वहां वह अपनी योजना को अंजाम दे सकती है. इस मकान के चारों ओर मिट्टी की दीवारें हैं और दरवाजा भी है. एक खाट भीतर है. रस्सी और बिजली का इंतजाम भी है. फसलें जब भरपूर होती हैं, तब बापू कभीकभी यहां पर सोते हैं. मतलब वह सबकुछ है, जो वह चाहती है.

इस तरह दिन गुजरने लगे. लक्ष्मी दिन में आ कर अपने खेत वाले कमरे में पढ़ाई करने लगी, क्योंकि इस समय फसल में अंकुर फूट रहे थे, इसलिए बापू भी खेत पर बहुत कम आते थे. पढ़ाई का तो बहाना था, वह रोजाना अपने काम को अंजाम देने के लिए काम करती थी.

अब लक्ष्मी सारी तैयारियां कर चुकी थी, फिर मौके का इंतजार करने लगी. इसी दौरान बापू का उस ने पूरा भरोसा जीत लिया था. इसी बीच एक घटना हो गई.

बापू के गहरे दोस्त, जो उज्जैन में रहते थे, उन की अचानक मौत हो गई. तब बापू 13 दिन के लिए उज्जैन चले गए. तब लक्ष्मी का मिशन और आसान हो गया.

लक्ष्मी का खेत ऐसी जगह पर था, जहां कोई भी बाहरी शख्स आसानी से नहीं देख सकता था. अब वह आजाद हो गई, इसलिए इंतजार करने लगी दिनेश का. बापू के न होने के चलते लक्ष्मी अपना ज्यादा समय खेत में बने कमरे पर बिताने लगी. सुबह कालेज जाती थी, दोपहर को वापस गांव में आ जाती थी. और फिर खेत में फसल की हिफाजत के बहाने पक्षियों को भगाती और खुद अपने शिकार का इंतजार करती.

अचानक लक्ष्मी का शिकार खुद ही उस के बुने जाल में आ गया. वह कमरे की छत पर बैठ कर गुलेल से पक्षियों को भगा रही थी, तभी गुलेल का पत्थर उधर से गुजर रहे दिनेश को जा लगा.

दिनेश तिलमिलाता हुआ पास आ कर बोला, ‘‘अरे लड़की, तू ने पत्थर क्यों मारा?’’

‘‘अरे बाबू, मैं ने तुम पर जानबूझकर पत्थर नहीं मारा. खेत में बैठे पक्षियों को भगा रही थी, अब आप को लग गया, तो इस में मेरी क्या गलती है?’’

‘‘चल, नीचे उतर. अभी बताता हूं कि तेरी क्या गलती है?’’

‘‘मैं कोई डरने वाली नहीं हूं आप से. आती हूं, आती हूं नीचे,’’ पलभर में लक्ष्मी कमरे की छत से नीचे उतर

गई, फिर बोली, ‘‘हां बाबू, बोलो. कहां चोट लगी है तुम्हें? मैं उस जगह को सहला दूंगी.’’

‘‘मेरे दिल पर,’’ दिनेश उस का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हाथ छोड़ बाबू, किसी पराई लड़की का हाथ पकड़ना अच्छा नहीं होता है,’’ लक्ष्मी ने हाथ छुड़ाने की नाकाम कोशिश की.

‘‘हम जिस का एक बार हाथ पकड़ लेते हैं, फिर छोड़ते नहीं,’’ दिनेश ने उस का हाथ और मजबूती से पकड़ लिया.

लक्ष्मी ने देखा कि उस ने खूब शराब पी रखी है. उस के मुंह से शराब का भभका आ रहा था.

लक्ष्मी बोली, ‘‘यह फिल्मी डायलौग मत बोल बाबू, सीधेसीधे मेरा हाथ छोड़ दे.’’

‘‘यह हाथ तो अब हवेली जा कर ही छूटेगा… चल हवेली.’’

‘‘अरे, हवेली में क्या रखा है? आज इस गरीब की कुटिया में चल,’’ लक्ष्मी ने जब यह कहा, तो दिनेश खुद ही कमरे के भीतर चला आया. उस ने खुद दरवाजा बंद किया और पलंग पर बैठ गया. ज्यादा नशा होने के चलते उस की आंखों में वासना के डोरे तैर रहे थे.

लक्ष्मी बोली, ‘‘जल्दी मत कर. मेरी झोपड़ी भी तेरे महल से कम नहीं है. देख, अब तक तो तू ने हवेली की शराब पी, आज तू झोपड़ी की शराब पी कर देख. इतना मजा आएगा कि तू आज मस्त हो जाएगा.’’

इस के बाद लक्ष्मी ने पूरा गिलास उस के मुंह में उड़ेल दिया. हलक में शराब जाने के बाद वह बोला, ‘‘तू सही कहती है. क्या नाम है तेरा?’’

‘‘लक्ष्मी. ले, एक गिलास और पी,’’ लक्ष्मी ने उसे एक गिलास और शराब पिला दी. इस बार शराब के साथ नशीली दवा थी. वह चाहती थी कि दिनेश शराब पी कर बेहोश हो जाए, फिर उस ने

2-3 गिलास शराब और पिला दी. थोड़ी देर में वह बेहोश हो गया.

जब लक्ष्मी ने अच्छी तरह देख लिया कि अब पूरी तरह से दिनेश बेहोश है, इस को होश में आने में कई घंटे लगेंगे, तब उस ने रस्सी उठाई, उस का फंदा बनाया और दिनेश के गले में बांध कर खींच दिया. थोड़ी देर बाद ही वह मौत के  आगोश में सो गया.

लक्ष्मी ने पलंग के नीचे पहले से एक गड्ढा खोद रखा था. उस ने पलंग को उठाया और लाश को गड्ढे में फेंक दिया.

लक्ष्मी ने गड्ढे में रस्सी और शराब की खाली बोतलें भी हवाले कर दीं. फिर फावड़ा ले कर वह मिट्टी डालने लगी.

मिट्टी डालते समय लक्ष्मी के हाथ कांप रहे थे. कहीं दिनेश की लाश जिंदा हो कर उस पर हमला न कर दे. जब गड्ढा मिट्टी से पूरा भर गया, तब उस ने उस जगह पर पलंग को बिछा दिया. फिर कमरे पर ताला लगा कर वह जीत की मुसकान लिए बाहर निकल गई.

News Kahani: दोस्ती प्यार और झांसा

नई दिल्ली का डिफैंस कालोनी इलाका. दोपहर के 2 बजे थे. सड़क सुनसान थी. इतने में वहां एक आटोरिकशा आ कर रुका, जिस में एक जवान लड़की बैठी थी. उस ने मिनी स्कर्ट और टाइट शर्ट पहनी हुई थी. आटोरिकशा वाले ने शायद शराब पी रखी थी, तभी तो वह उस लड़की को छेड़ने लगा था.

वह लड़की पहले तो सकपकाई, फिर जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगी, ‘‘बचाओ…बचाओ, यह शराबी मेरे साथ बदतमीजी कर रहा है,’’ और जल्दी से आटोरिकशा से बाहर आ गई.

तभी एक कोठी का दरवाजा खुला और एक कुत्ते के भूंकने की आवाज आई. फिर उस घर से एक नौजवान और उस के 2-3 नौकर बाहर की ओर दौड़ते से आए. यह देख कर वह आटोरिकशा वाला तेजी से निकल गया.

वह लड़की अभी भी डरी हुई थी. उस नौजवान ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘घबराइए मत, वह आटोरिकशा वाला भाग चुका है. लेकिन मैं ने उस

के आटोरिकशा का नंबर नोट कर लिया है.’’

‘‘थैंक्स. मु?ो नहीं पता था कि उस ने शराब पी रखी है, वरना मैं उस के आटोरिकशा में कभी नहीं बैठती.’’

‘‘मेरा नाम रोहन है. मैं सामने वाले घर में रहता हूं. आप चाहें तो थोड़ी देर हमारे घर में आराम कर सकती हैं,’’ उस नौजवान ने कहा.

‘‘मेरा नाम दीपा है और मैं नोएडा में रहती हूं. यहां किसी फ्रैंड से मिलने आई थी,’’ उस लड़की ने कहा.

थोड़ी देर में वे दोनों घर के अंदर थे. दीपा ने पानी पिया और वहां से जाने की बात कही.

रोहन ने दीपा को अपना विजिटिंग कार्ड दिया और बोला, ‘‘कभी भी मेरी याद आए, तो दिए गए नंबर पर काल कर लेना.’’

यह सुन कर दीपा शरमा गई. वह खूबसूरत और गोरी तो थी ही, शरमाते ही उस के चेहरे पर लाली छा गई. वैसे, रोहन भी एक हैंडसम लड़का था और करोड़पति भी.

दीपा रोहन के घर से बाहर निकली और फोन किया, ‘‘कहां है भई तू. बड़ी जल्दी आटोरिकशा ले कर भागा.’’

थोड़ी देर में वही आटोरिकशा वाला दीपा के सामने खड़ा था. वह बोला, ‘‘वह लड़का तेरे हुस्न के जाल में फंसा या नहीं… कहीं हमारी चाल फेल तो नहीं हो गई?’’

‘‘ऐसा कभी हुआ है. आज उस ने अपना विजिटिंग कार्ड दिया है, कल

दिल भी देगा,’’ दीपा ने सिगरेट जलाते

हुए कहा.

दरअसल, दीपा जो दिखती थी, वह थी नहीं. वह तो रोहन जैसे अमीर लड़कों को अपने हुस्न के जाल में फंसा कर उन्हें ब्लैकमेल करती थी. कुछ लड़कों को तो उस ने अपने गुरगों से पिटवा भी दिया था. पैसा पाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती थी.

इस घटना को बीते 2 महीने हो गए थे और इस बीच दीपा और रोहन कई बार मिल चुके थे, पर ज्यादातर रोहन के औफिस में. दीपा उस के बारे में सबकुछ जान चुकी थी. यहां तक कि रोहन ने उसे बता रखा था कि उस के ब्रीफकेस में हमेशा बहुत सारे पैसे रखे रहते हैं.

अब दीपा ने जाल बुनना शुरू कर दिया था. वह चाहती थी कि रोहन उसे अकेले में किसी होटल में मिले, जहां उस के पास उस का ब्रीफकेस जरूर हो.

एक दिन दीपा ने कहा, ‘‘रोहन, मु?ो तुम्हारे साथ डेट पर जाना है. कब तक हम औफिसऔफिस खेलते रहेंगे…’’

‘‘ओह, तो यह बात है,’’ रोहन बोला. वह भी दीपा के साथ कौफी पीपी कर बोर हो गया था, ‘‘बोलो, कब और कहां मिलना है?’’

‘‘मेरी जानपहचान का एक होटल है,’’ दीपा ने कहा.

‘‘देखो दीपा, अगर होटल में मिलना है, तो वह होटल मेरी पसंद का होगा. वहां हमें कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा.’’

‘‘अच्छा,’’ दीपा ने कह तो दिया, पर किसी अनजान होटल में वह रोहन को अपने साथियों के साथ मिल कर लूटेगी कैसी, यह सम?ा नहीं आ रहा था, पर फिर भी वह बोली, ‘‘जहां तुम कहो, मैं आ जाऊंगी.’’

‘‘फिर ठीक है. हम कल ही मिलते हैं. मैं होटल की लोकेशन तुम्हें भेज दूंगा. मैं सीधा औफिस से वहां आ जाऊंगा.’’

‘‘यह ठीक रहेगा. नेक काम में देरी क्यों करें,’’ दीपा ने रोहन के पास जा

कर कहा.

दीपा के इतना करीब आते ही रोहन ने अपने होंठ उस के होंठों पर रख दिए. दीपा पीछे हटते हुए बोली, ‘‘अभी कुछ भी नहीं. जो भी करना है कल होटल

में कर लेना,’’ फिर वह जाने लगी.

आज रोहन ने दीपा को बड़े ध्यान से देखा था. वह लंबी और खूबसूरत तो थी ही, उस के नाजुक अंग भी जैसे तराशे हुए थे.

रोहन और दीपा ने अगले दिन यानी 24 अक्तूबर को शाम के 6 बजे तय होटल में मिलने का प्लान बनाया. रोहन ने उसे होटल की लोकेशन भेज दी थी.

रोहन समय से थोड़ा पहले ही होटल जा पहुंचा था और लौबी में बैठ कर दीपा का इंतजार कर रहा था. उस के मोबाइल फोन में चार्जिंग कम थी, तो टाइमपास करने के लिए उस ने सामने टेबल पर रखा एक हिंदी अखबार उठा लिया.

यों तो रोहन इंगलिश मीडियम स्कूल और कालेज से पढ़ा था, पर उस की हिंदी पर भी अच्छी पकड़ थी. कुछ

पन्ने पलटने के बाद उस की नजर एक सनसनीखेज खबर पर गई और उत्सुकता में वह खबर पढ़ने लगा.

मामला दिल्ली का था. अखबार के मुताबिक, राजधानी दिल्ली के भलस्वा डेयरी थाने की पुलिस उस समय हैरान रह गई, जब एक औरत थाने पहुंची और उस ने पुलिस वालों को बताया कि

उस ने अपने लिवइन पार्टनर की हत्या कर दी है.

शुरू में तो पुलिस वालों को लगा कि वह औरत शायद दिमागीतौर पर बीमार है, लेकिन उस के बारबार कहने पर पुलिस ने सोचा कि क्यों न एक बार चैक कर लिया जाए.

पुलिस जैसे ही उस औरत के साथ क्राइम सीन पर पहुंची, तो हैरत में पड़ गई. कमरे में फर्श पर खून से लथपथ एक नौजवान पड़ा था.

पुलिस वालों ने तुरंत मर्डर की तसदीक करते हुए थाने में बताया. मौकामुआयना करने पर पता चला कि उस औरत ने अपने साथी की पेचकस, सिलबट्टा, हथौड़े और चाकू से वार कर के हत्या की थी.

पुलिस ने उस नौजवान की लाश को फौरन ही पोस्टमौर्टम के लिए भेज दिया. उस औरत की निशानदेही पर वारदात

में इस्तेमाल सामान को भी जब्त कर लिया गया.

पुलिस के मुताबिक, यह वारदात मंगलवार, 22 अक्तूबर, 2024 की थी. भलस्वा डेयरी थाने में गली नंबर 1, रामा गार्डन, मुकुंदपुर में रहने वाली मुन्नी ने बताया कि वह मोहम्मद तवारक उर्फ साहिल खान के साथ काफी समय से लिवइन रिलेशनशिप में रह रही थी, जिस की घर में पत्थर (सिलबट्टा), हथौड़े और चाकू से हत्या कर दी.

पुलिस की पूछताछ में मुन्नी से पता चला कि उस के पति बंटी यादव की साल 2018 में मौत हो चुकी है. उस के 4 बच्चे हैं, एक लड़की और 3 लड़के. पति की मौत के बाद से वह मुकुंदपुर में रह रही थी.

मुन्नी पिछले 2 सालों से मोहम्मद तवारक उर्फ साहिल खान के साथ रिलेशनशिप में थी. साहिल खान पेशे से प्लंबर था. वह शादीशुदा था और उस का एक बच्चा भी है.

मुन्नी का आरोप है कि मोहम्मद तवारक उस के साथ बदसुलूकी करता था और शराब पीने का आदी था. वह उसे या उस के बच्चों को जान से मारने की धमकी देता था.

वारदात के समय मोहम्मद तवारक नशे की हालत में घर आया और उस के साथ बदसुलूकी करने लगा. फिर मुन्नी ने पत्थर, चाकू और हथौड़े से तवारक के सिर पर वार कर उस की हत्या कर दी.

रोहन यह खबर पढ़ कर चौकन्ना हो गया. वह दीपा के बारे में ज्यादा नहीं जानता था और आज रात होटल में वह उस के साथ पूरी रात बिताने वाला था.

रोहन ने एक गिलास पानी पिया और टहलते हुए लौबी के उस हिस्से में चला गया, जहां से होटल की पार्किंग का हिस्सा शीशे से दिखता था, पर बाहर से लौबी में देखना मुमकिन नहीं था.

रोहन का ध्यान अचानक पार्किंग में घुसती एक कार में गया. थोड़ा भीतर जाते ही वह कार रुकी और उस में से

4 लड़के और एक लड़की बाहर निकली. लड़की ने टीशर्ट और टाइट लैगिंग पहनी हुई थी.

‘अरे, यह तो दीपा है. पर इस के साथ ये 4 लड़के क्या कर रहे हैं?’ रोहन ने सोचा. पहले तो उस का मन पार्किंग में जाने को हुआ, पर फिर उस ने वहीं से दीपा पर नजर रखी.

उधर दीपा इस बात से बेखबर थी कि रोहन लौबी से उसे देख रहा है. वह उन चारों लड़कों के साथ हंसीमजाक

कर रही थी कि तभी एक लड़के ने

उस के पिछवाड़े पर चपत लगाई, तो दीपा ने एकदम से उस के पेट पर मुक्का मार दिया.

वह लड़का एक बार को तो दर्द से बिलबिला गया, फिर दीपा के गले लग गया. इसी बीच उन सब लड़कों ने दीपा को एक तरह से घेर लिया और वह

उन की ओट में वहीं पार्किंग में लैगिंग

पर साड़ी बांधने लगी और मेकअप

करने लगी.

रोहन को यह बात खटकी, पर वह जानना चाहता था कि दीपा उस से

क्या चाहती है, तो वह सावधान भी हो गया. उस के दिमाग में पेचकस से खून करने वाली खबर घूमने लगी.

थोड़ी ही देर में दीपा लौबी में आ गई. रोहन को वहां देख कर दीपा मुसकराई और उस के गले लग गई. सैक्सी स्टाइल में बंधी साड़ी में दीपा के नाजुक अंग उभर रहे थे. उस ने एक खुशबूदार इत्र लगाया हुआ था.

रोहन का मन मचलने लगा, पर पार्किंग वाला सीन उसे फिर सावधान कर रहा था.

रोहन बोला, ‘‘अरे यार, हमें होटल का कमरा शाम को 7 बजे के बाद ही मिलेगा. उस की सफाई हो रही है. तब तक क्यों न कौफी पी ली जाए?’’

‘‘वाह कौफी, इस की तो मु?ो बहुत जरूरत है. रात को मुझे नींद भी नहीं आएगी,’’ दीपा ने आंख मारते हुए कहा.

पर, रोहन के दिमाग में तो वे चारों लड़के घूम रहे थे. दीपा का उन के साथ होटल में आने का क्या मकसद है? यह सवाल रोहन को परेशान कर रहा था.

‘‘ओ हैंडसम, कहां खो गए… अभी तो हम रूम में भी नहीं गए और तुम मु?ो पाने के सपने भी देखने लगे,’’ दीपा इतराते हुए बोली.

‘‘उन पलों का तो मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं. और हां, जब तक कौफी आती है, तब तुम अगर फ्रैश

होना चाहती हो, तो वहां साइड में वाशरूम है,’’ रोहन ने अपनी चिंता छिपाते हुए कहा.

‘‘यह अच्छा आइडिया है. तुम बैठो, मैं अभी फ्रैश हो कर आई,’’ दीपा ने कहा और अपना बैग वहीं छोड़ कर वाशरूम में चली गई.

रोहन को जब तसल्ली हो गई कि अब कम से कम 5 मिनट तक दीपा बाहर नहीं आएगी, तो वह तेजी से लौबी के उसी हिस्से में गया, जहां से पार्किंग एरिया दिखता था. वे चारों लड़के और वह कार वहीं खड़ी थी.

रोहन तुरंत वापस आया और दीपा का बैग खंगालने लगा. उस में 2 बड़ीबड़ी छुरियां रखी थीं. एक शीशी में क्लोरोफार्म भी था.

रोहन के दिमाग में अखबार में छपी खबर पर गया और मुन्नी का खयाल आया. कहीं दीपा उसे लूटने के चक्कर में तो नहीं आई है, क्योंकि दीपा को पता था कि रोहन के ब्रीफकेस में हमेशा 5-10 लाख रुपए कैश रहता ही था?

इस से पहले कि दीपा वापस आती, रोहन ने अपना ब्रीफकेस उठाया और चुपचाप वहां से निकल गया. आज अगर उस ने यह खबर नहीं पढ़ी होती, तो पता नहीं उस के साथ क्या हो सकता था.

धंधा करने में झिझक क्यों?

आज ज्यादातर नौजवानों से बात कर के देखिए तो वे किसी न किसी तरह से अपनी बेरोजगारी का रोना रोते नजर आएंगे. जब पढ़लिख कर उन्हें कोई नौकरी नहीं मिल पाती है, तो वे निराश होने लगते हैं. फिर वे अपने भाग्य को दोष देने लगते हैं या सरकार को कोसने लगते हैं, जबकि भाग्य तो हमारे काम और मेहनत से बनते हैं. दूसरी ओर सरकार के पास कोई ऐसा इंतजाम नहीं है कि सभी बेरोजगारों को एकसाथ नौकरी या रोजगार मुहैया करा दे.

अगर नौजवान तबका कभी अपने धंधे की बात सोचता है, तो उसे अपने घर की माली हालत के बारे में ध्यान जाता है. उसे एहसास होता है कि उस के पास तो उतनी पूंजी नहीं है, जितना कारोबार करने के लिए चाहिए, और फिर वह निराशा के अंधेरे में डूबने लगता है या फिर वह कारोबार करने के बारे में कभी सोच भी नहीं पाता है.

बिहार के औरंगाबाद जिले का एक नौजवान विनय कुमार दिल्ली में प्राइवेट नौकरी करता था. किसी वजह से उस की नौकरी चली गई थी और वह बेरोजगार हो गया था. उसे किसी परिचित ने सलाह दी कि थोड़ीबहुत पूंजी लगा कर पहले बाजार में बैठना सीख और जब अनुभव हो जाएगा तो ज्यादा पूंजी लगा कर कारोबार करना.

वह नौजवान शुरू में फुटपाथ पर बैठने में झिझक महसूस कर रहा था. उस ने फुटपाथ पर ही रोजमर्रा के इस्तेमाल के रेडीमेड कपड़े बेचने शुरू कर दिए. धीरेधीरे उसे अच्छी आमदनी होने लगी. बहुत सारे अनुभव भी हुए. अब उस ने पूंजी इकट्ठा कर उसी बाजार में रेडीमेड कपड़े की दुकान खोल ली.

उस ने बताया कि दुकान खोलने का फायदा मुझ यह हुआ कि जो ग्राहक सड़क किनारे पहचान गए थे या ग्राहक बन गए थे, वे मेरी नई दुकान में आने लगे. मुझे ग्राहकों के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी, जबकि नए दुकानदारों के पास ग्राहकों की सब से बड़ी कमी होती है.

मुंबई से वापस लौटे 2 दोस्तों अजय और विजय ने अपने छोटे शहर सासाराम में सड़क किनारे मोमो बना कर बेचना शुरू किया. वहां अच्छी बिक्री होने लगी. कुछ ही दिन में पूंजी इकट्ठा कर उन्होंने किराए पर स्थायी दुकान ले कर मोमो, ब्रैड पकौड़े, समोसे वगैरह बेचना शुरू कर दिया. अब उन्हें शादीब्याह, जलसे, पार्टी से भी और्डर मिलने शुरू हो गए हैं. देखते ही देखते उस का कारोबार चल पड़ा.

अगर नौजवान अपने रोजीरोजगार की ओर मुड़ना चाहते हैं तो उन के सामने बड़ेबड़े मौल, दुकान, रैस्टोरैंट वगैरह ही दिखाई पड़ते हैं. वे छोटेमोटे धंधे की ओर ध्यान नहीं देते हैं.

छोटेमोटे धंधे के बारे में तो उन को बात करना भी शर्म महसूस कराता है. जब भी वे बात करेंगे तो बड़ी पूंजी वाले कारोबार के बारे में ही. वे छोटेमोटे धंधे करने वालों को हिकारत से देखते हैं और इसीलिए वे अपने लिए सिर्फ बड़ीबड़ी योजनाएं बनाते रह जाते हैं.

बहुत से नौजवान रोजीरोजगार करना चाहते हैं तो उन के पास मोटी पूंजी की कमी होती है. इस वजह से वे अपना धंधा शुरू नहीं कर पाते हैं. उन के मन में यह धारणा बैठ चुकी होती है कि अच्छी पूंजी से ही रोजगार किया जा सकता है.

दूसरी ओर आज के नौजवान छोटामोटा धंधा करने में झिझक महसूस करते हैं. किंतु यह कभी नहीं भूलना चाहिए जो भी बड़ेबड़े व्यापारी आज कामयाब हुए हैं, उन्होंने भी बिलकुल शुरुआत में छोटामोटा धंधे से ही अपना रोजगार शुरू किया था और आज वे बड़े कारोबारी बने हुए हैं.

अगर कोई थोड़ी सी पूंजी लगा कर अपना कामधंधा शुरू करता है और उस का यह धंधा किसी वजह से नहीं चल पाता है तो इस से ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ता है. वह चाहे तो फिर अपना दूसरा धंधा खड़ा कर सकता है. वह रोजीरोजगार की बारीकियों को समझने में भी कुछ न कुछ समय लगाता है, इसलिए अगली बार वह फूंकफूंक कर कदम बढ़ाता है.

नौजवानों को चाहिए कि थोड़ीबहुत पूंजी लगा कर छोटामोटा धंधा शुरू कर देना चाहिए. इस से उन की माली हालत में सुधार होगा और उन के मन में जो निराशा है, उस में धीरेधीरे बदलाव होने लगता है. घरपरिवार को संबल भी मिलने लगता है. उन में कारोबार की समझ भी विकसित होने लगती है.

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