दरवाजा खोल दो मां : क्या था चुडै़ल का सच

10 वीं क्लास तक स्मिता पढ़ने में बहुत तेज थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था, पर 10वीं के बाद उस के कदम लड़खड़ाने लगे थे. उस को पता नहीं क्यों पढ़ाईलिखाई के बजाय बाहर की दुनिया अपनी ओर खींचने लगी थी. इन्हीं सब वजहों के चलते वह पास में रहने वाली अपनी सहेली सीमा के भाई सपन के चक्कर में फंस गई थी. वह अकसर सीमा से मिलने के बहाने वहां जाती और वे दोनों खूब हंसीमजाक करते थे.

एक दिन सपन ने स्मिता से पूछा, ‘‘तुम ने कभी भूतों को देखा है?’’

‘‘तुम जो हो… तुम से भी बड़ा कोई भूत हो सकता है भला?’’ स्मिता ने हंसते हुए मजाकिया लहजे में जवाब दिया.

सपन को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी, इसलिए अपनी बात को आगे रखते हुए पूछा, ‘‘चुड़ैल से तो जरूर सामना हुआ होगा?’’

‘‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ है. तुम न जाने क्या बोले जा रहे हो,’’ स्मिता ने खीजते हुए कहा.

तब सपन उसे एक कमरे में ले कर गया और कहा, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो…’’ कहते हुए स्मिता को कुरसी पर बैठा कर उस का हाथ उठा कर हथेली को चेहरे के सामने रखने को कहा, फिर बोला, ‘‘बीच की उंगली को गौर से देखो…’’ आगे कहा, ‘‘अब तुम्हारी उंगलियां फैल रही हैं और आंखें भारी हो रही हैं.’’

स्मिता वैसा ही करती गई और वही महसूस करने की कोशिश भी करती गई. थोड़ी देर में उस की आंखें बंद हो गईं.

फिर स्मिता को एक जगह लेटने को बोला गया और वह उठ कर वहां लेट गई.

सपन ने कहा, ‘‘तुम अपने घर पर हो. एक चुड़ैल तुम्हारे पीछे पड़ी है. वह तुम्हारा खून पीना चाहती है. देखो… देखो… वह तुम्हारे नजदीक आ रही है. स्मिता, तुम डर रही हो.’’

स्मिता को सच में चुड़ैल दिखने लगी. वह बुरी तरह कांप रही थी. तभी सपन बोला, ‘‘तुम्हें क्या दिख रहा है?’’

स्मिता ने जोकुछ भी देखा या समझने की कोशिश की, वह डरतेडरते बता दिया. वह यकीन कर चुकी थी कि चुड़ैल जैसा डरावना कुछ होता है, जो उस को मारना चाहता है.

‘‘प्लीज, मुझे बचाओ. मैं मरना नहीं चाहती,’’ कहते हुए वह जोरजोर से रोने लगी.

सपन मन ही मन बहुत खुश था. सबकुछ उस की सोच के मुताबिक चल रहा था.

सपन ने बड़े ही प्यार से कहा, ‘‘डरो नहीं, मैं हूं न. मेरे एक जानने वाले पंडित हैं. उन से बात कर के बताता हूं. ऐसा करो कि तुम 2 घंटे में मु  झे यहीं मिलना.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए जैसे ही स्मिता मुड़ी, सपन ने उसे टोका, ‘‘और हां, तुम को किसी से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है. मु  झ पर यकीन रखना. सब सही होगा.’’

स्मिता घर तो आ गई, पर वे 2 घंटे बहुत ही मुश्किल से कटे. पर उसे सपन पर यकीन था कि वह कुछ न कुछ तो जरूर करेगा.

जैसे ही समय हुआ, स्मिता फौरन सपन के पास पहुंच गई. सपन तो जैसे इंतजार ही कर रहा था. उस को देखते ही बोला, ‘‘स्मिता, काम तो हो जाएगा, पर…’’

‘‘पर क्या सपन?’’ स्मिता ने डरते हुए पूछा.

‘‘यही कि इस काम के लिए कुछ रुपए और जेवर की जरूरत पड़ेगी. पंडितजी ने खर्चा बताया है. तकरीबन 5,000 रुपए मांगे हैं. पूजा करानी होगी.’’

‘‘5,000 रुपए? अरे, मेरे पास तो 500 रुपए भी नहीं हैं और मैं जेवर कहां से लाऊंगी?’’ स्मिता ने अपनी बात रखी.

‘‘मैं नहीं जानता. मेरे पास तुम्हें चुड़ैल से बचाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है,’’ थोड़ी देर कुछ सोचने का दिखावा करते हुए सपन बोला, ‘‘तुम्हारी मां के जेवर होंगे न? वे ले आओ.’’

‘‘पर… कैसे? वे तो मां के पास हैं,’’ स्मिता ने कहा.

‘‘तुम्हें अपनी मां के सब जेवर मुझे ला कर देने होंगे…’’ सपन ने जोर देते हुए कहा, ‘‘अरे, डरती क्यों हो? काम होने पर वापस ले लेना.’’

स्मिता बोली, ‘‘वे मैं कैसे ला सकती हूं? उन्हें तो मां हर वक्त अपनी तिजोरी में रखती हैं.’’

‘‘मैं नहीं जानता कि तुम यह सब कैसे करोगी. लेकिन तुम को करना ही पड़ेगा. मुझे उस चुड़ैल से बचाने की पूजा करनी है, नहीं तो वह तुम्हें जान से मार देगी.

‘‘अगर तुम जेवर नहीं लाई तो बस समझ लो कि तब मैं तुम्हें जान से मार दूंगा, क्योंकि पंडित ने कहा है कि तुम्हारी जान के बदले वह चुड़ैल मेरी जान ले लेगी और मु  झे अपनी जान थोड़े ही देनी है.’’

उसी शाम स्मिता ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आज मैं आप का हार पहन कर देखूंगी.’’

स्मिता की मां बोलीं, ‘‘चल हट पगली कहीं की. हार पहनेगी. बड़ी तो हो जा. तेरी शादी में तुझे दे दूंगी.’’

स्मिता को रातभर नींद नहीं आई. थोड़ा सोती भी तो अजीबअजीब से सपने दिखाई देते.

अगले दिन सीमा स्मिता के पास आ कर बोली, ‘‘भैया ने जो चीज तुझ से मंगवाई थी, अब उस की जरूरत नहीं रह गई है. वे सिर्फ तुम्हें बुला रहे हैं.’’

जब स्मिता ने यह सुना तो उसे बहुत खुशी हुई. वह भागती हुई गई तो सपन उसे एक छोटी सी कोठरी में ले गया और बोला, ‘‘अब जेवर की जरूरत नहीं रही. चुड़ैल को तो मैं ने काबू में कर लिया है. चल, तुझे दिखाऊं.’’

स्मिता ने कहा, ‘‘मैं नहीं देखना चाहती.’’

सपन बोला, ‘‘तू डरती क्यों है?’’

यह कह कर उस ने स्मिता का चुंबन ले लिया. स्मिता को उस का चुंबन लेना अच्छा लगा.

थोड़ी देर बाद सपन बोला, ‘‘आज रात को जब सब सो जाएं तो बाहर के दरवाजे की कुंडी चुपचाप से खोल देना. समझ तो गई न कि मैं क्या कहना चाहता हूं? लेकिन किसी को पता न चले, नहीं तो तेरे पिताजी तेरी खाल उतार देंगे.’’

स्मिता ने एकदम से पूछा, ‘‘इस से क्या होगा?’’

सपन ने कहा, ‘‘जिस बात की तुम्हें समझ नहीं, उसे जानने से क्या होगा?’’

स्मिता ने सोचा, ‘जेवर लाने का काम बड़ा मुश्किल था. लेकिन यह काम तो फिर भी आसान है.’

‘‘अगर तू ने यह काम नहीं किया तो चुड़ैल तेरा खून पी जाएगी,’’ सपन ने एक बार फिर डराया.

तब स्मिता ने कहा, ‘‘यह तो बताओ कि दरवाजा खोलने से होगा क्या?’’

‘‘अभी नहीं कल बताऊंगा. बस तुम कुंडी खोल देना,’’ सपन ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.

‘‘खोल दूंगी,’’ स्मिता ने चलते हुए कहा.

‘‘ठाकुरजी को हाथ में ले कर बोलो कि जैसा मैं बोल रहा हूं, तुम वही करोगी?’’ सपन ने जोर दे कर कहा.

स्मिता ने ठाकुर की मूर्ति को हाथ में ले कर कहा, ‘‘मैं दरवाजा खोल दूंगी.’’

पर सपन को तो अभी भी यकीन नहीं था. पता नहीं क्यों वह फिर से बोला, ‘‘मां की कसम है तुम्हें. कसम खा?’’

आज न जाने क्यों स्मिता बहुत मजबूर महसूस कर रही थी. वह धीरे से बोली, ‘‘मां की कसम.’’ जब स्मिता घर गई तो उस की मां ने पूछा, ‘‘तेरा मुंह इतना लाल क्यों हो रहा है?’’

जब मां ने स्मिता को छू कर देखा तो उसे तेज बुखार था. उन्होंने स्मिता को बिस्तर पर लिटा दिया. शाम के शायद 7 बजे थे. स्मिता के पिता पलंग पर बैठे हुए खाना खा रहे थे. स्मिता पलंग पर पड़ीपड़ी बड़बड़ाए जा रही थी.

जब स्मिता को थर्मामीटर लगाया गया, उस को 102 डिगरी बुखार था. रात के 9 बजतेबजते स्मिता की हालत बहुत खराब हो गई. फौरन डाक्टर को बुलाया गया. स्मिता को दवा दी गई.

स्मिता के पिताजी के दोस्त भी आ गए थे. स्मिता फिर भी बड़बड़ाए जा रही थी, पर उस पर किसी परिवार वाले का ध्यान नहीं जा रहा था.

स्मिता को बिस्तर पर लेटेलेटे, सिर्फ दरवाजा और उस की कुंडी ही दिखाई दे रही थी या उसे चुड़ैल का डर दिखाई दे रहा था. कभीकभी उसे सपन का भी चेहरा दिखाई पड़ता था. उसे लग रहा था, जैसे चारों लोग उसी के आसपास घूम रहे हैं और तभी वह जोर से चीखी, ‘‘मां, मुझे बचाओ.’’

‘‘क्या बात है बेटी?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘दरवाजे की कुंडी खोल दो मां. मां, तुम्हें मेरी कसम. दरवाजे की कुंडी खोल दो, नहीं तो चुड़ैल मुझे मार देगी.

‘‘मां, तुम दरवाजे को खोल दो. मां, मैं अच्छी तो हो जाऊंगी न? मां तुम्हें मेरी कसम,’’ स्मिता बड़बड़ाए जा रही थी.

स्मिता के पिताजी ने कहा, ‘‘लगता है, लड़की बहुत डरी हुई है.’’

स्मिता की बत्तीसी भिंच गई थी. शरीर अकड़ने लगा था. यह सब स्मिता को नहीं पता चला. वह बारबार उठ कर भाग रही थी, जोरजोर से चीख रही थी, ‘‘मां, दरवाजा खोल दो. खोल दो, मां. दरवाजा खोल दो,’’ और उस के बाद वह जोरजोर से रोने लगी.

मां ने कहा, ‘‘बेटी, बात क्या है? बता तो सही? क्या सपन ने कहा है ऐसा करने को?’’

‘‘हां मां, खोल दो नहीं तो एक चुड़ैल आ कर मेरा खून पी जाएगी,’’ स्मिता ने डरी हुई आवाज में कहा.

अब उस के पिताजी के कान खड़े हो गए. उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘साफसाफ बताओ, बात क्या है?’’

‘‘पिताजी, मुझे अपनी गोद में लिटा लीजिए, नहीं तो मैं…

‘‘पिताजी, सपन ने कहा है कि जब सब सो जाएं तो चुपके से दरवाजा खोल देना. अगर दरवाजा नहीं खोला तो चुड़ैल मेरा खून पी जाएगी.’’

वहीं ड्राइंगरूम में बैठेबैठे ही स्मिता के पिताजी ने किसी को फोन किया था. शायद पुलिस को. थोड़ी देर में कुछ पुलिस वाले सादा वरदी में एकएक कर के चुपचाप उस के मकान में आ कर दुबक गए और दरवाजे की कुंडी खोल दी गई.

रात के तकरीबन 2 बजे जब स्मिता तकरीबन बेहोशी में थी तो उसे कुछ शोर सुनाई दे रहा था. पर तभी वह बेहोश हो गई. आगे क्या हुआ ठीक से उस को मालूम नहीं. पर जब उसे होश आया तो घर वालों ने बताया कि 5 लोग पकड़े गए हैं.

सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह कि इन पकड़े गए लोगों में से एक सपन और एक चोरों के गैंग का आदमी भी था जिस के ऊपर सरकारी इनाम था.

बाद में वह इनाम स्मिता को मिला. स्मिता 10 दिनों के बाद अच्छी हो गई. अब स्मिता के अंदर इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया था कि एक क्या वह तो कई चुड़ैलों की गरदन पकड़ कर तोड़ सकती थी.

मेरी उड़ान : आहना एक मल्टीनैशनल कंपनी की इंजीनियर

आहना अपने बालों से बड़ी परेशान हो चुकी थी. आयन के जन्म के बाद उस के बाल काफी खराब हो चुके थे, इसलिए आज आहना ने बाल कटवाने के साथसाथ वे कलर और स्मूद भी करवा लिए थे.

जब आहना ब्यूटी पार्लर से बाहर निकली, तो 4 घंटे बीत चुके थे. वंश के 5 मिसकाल थे. उस ने जल्दी से काल बैक किया, तो उधर से वंश झल्लाते हुए बोला, ‘पार्लर में काम करवाने गई थी या खुद का पार्लर खोलने गई थी… आयन ने रोरो कर मम्मी को बड़ा ही परेशान कर रखा है.’

आहना ने कहा, ‘‘अरे, आयन को तो मैं उस की नैनी के पास छोड़ कर आई थी.’’

वंश बोला, ‘आयन की मम्मी कौन है, तुम या नैनी?’

आहना ने बात को बढ़ाए बिना फोन काट दिया.

जैसे ही आहना ने घर में कदम रखा, वंश उस का बदला हुआ रूप देख कर हक्काबक्का रह गया.

‘‘यह क्या हाल बना लिया है तुम ने… बालों की क्या गत बना ली है…’’

आहना बोली, ‘‘क्यों, अच्छी तो लग रही हूं.’’

तभी आहना की सास ताना कसते हुए बोलीं, ‘‘अब देखना कितने बाल झड़ेंगे तुम्हारे.’’

आहना सब की बातों को नजरअंदाज करते हुए आईने में खुद को देख कर मुसकरा रही थी. कितना मन था उस का बालों को स्ट्रेट कराने का और आखिरकार उस ने करा ही लिए.

रात में वंश का मुंह फूला हुआ था. आहना ने उस का मूड ठीक करने की कोशिश भी की, पर उस का मूड ठीक नहीं हुआ.

आहना को पता था कि वंश को उस के बालों से बड़ा प्यार था, पर अब आहना के बाल पहले जैसे नहीं रहे, बल्कि झाड़ू जैसे हो गए थे. और यह कैसा प्यार है, जो बालों पर टिका हुआ है?

आहना 32 साल की एक मौडर्न औरत थी और उस का यह मौडर्न होना केवल कपड़ों तक ही नहीं सिमटा था, बल्कि वह अपनी एक आजाद सोच भी रखती थी.

आहना एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर के पद पर थी. उस की शादी एक मौडर्न और पढ़ेलिखे परिवार में हुई थी और वे लोग अपने मौडर्न होने का सुबूत भी देते रहते थे.

आहना को वैस्टर्न कपड़े पहनने की इजाजत देना, बच्चा होने के बाद भी नौकरी करने देना, यह सब उन की मौडर्न सोच के दायरे में आता था.

अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर वंश बोला, ‘‘आहना, मैं अगले हफ्ते के टिकट बुक करा देता हूं. 2 दिन की छुट्टी है, 2 और ले लेना, हम राजस्थान चलेंगे.’’

आहना बोली, ‘‘वंश, मैं तो छुट्टी नहीं ले पाऊंगी, मेरी प्रैजेंटेशन है.’’

वंश बोला, ‘‘तो क्या हुआ… औफिस में बोल देना कि फैमिली के साथ छुट्टी पर जाना है.’’

आहना बोली, ‘‘अरे, मेरे प्रमोशन के लिए यह जरूरी है.’’

आहना की सास बोलीं, ‘‘आयन के प्रति भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी है या नहीं? मां तो अपने बच्चों के लिए कितने त्याग करती है, घरपरिवार ऐसे ही नहीं चलते हैं. मैं ने तो खुद वंश के पैदा होने के बाद अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी.’’

आहना आराम से बोली, ‘‘मम्मी, वह आप की चौइस थी.’’ वंश ने कहा, ‘‘ठीक है, ठीक है. तुम आगे बढ़ो, चाहे इस में परिवार पीछे छूट जाए.’’

आहना को वंश का रवैया सम?ा नहीं आता था. आहना आजाद तो थी, पर उस की आजादी की दीवारें वंश तय करता था. इस के बावजूद वह आहना की उड़ान को चाह कर भी नहीं रोक पा रहा था.

आहना की ससुराल वाले चाहते थे कि आहना नौकरी करे और खाली समय में घर का काम, मगर आहना का नजरिया अलग था. ऐसा नहीं था कि वह अपने परिवार को प्यार नहीं करती थी, पर प्यार के नाम पर वह खुद को कुरबान भी तो नहीं कर सकती थी.

पहले आहना की सास ने उसे रसोई में कैद करना चाहा, तो आहना ने बिना किचकिच किए कुक का इंतजाम कर लिया. अब वंश और उस के परिवार की अलग शिकायत थी कि खाने में कोई स्वाद नहीं है.

एक दिन आहना के मम्मीपापा आए हुए थे. आहना उस दिन दफ्तर से थोड़ा पहले आ गई थी. उस ने जब खाना लगाया, तो आहना की मम्मी ने ऐसे ही बोल दिया, ‘‘आहना, खाने में घीतेल का थोड़ा ध्यान रखा करो.’’

आहना की सास छूटते ही बोलीं, ‘‘आहना ने तो पूरी रसोई कुक के हवाले कर रखी है.’’

आहना थोड़ी सी आहत हो कर बोली, ‘‘मुझे समय नहीं मिल पाता है और फिर मम्मी तो घर पर ही रहती हैं, इतनी देखरेख तो ये भी कर सकती हैं.’’

आहना की मम्मी ने जब आंखें तरेरीं, तो आहना चुप हो गई, पर उस रात आहना के मम्मीपापा के जाने के बाद बहुत हंगामा हुआ. सास ने पूरा सिर घर पर उठा लिया था.

वंश का फिर आहना से अबोला हो गया था. आहना को समझ नहीं आता था कि क्यों वंश उसे समझ नहीं पाता है.

क्या आहना एक इनसान नहीं है? क्या उसे सपने देखने का हक नहीं है? क्यों आहना की उड़ान का रिमोट हमेशा दूसरों के हाथ में होता है? क्यों उस की जिंदगी की रफ्तार पर हमेशा रिश्तों का स्पीड ब्रेकर लग जाता है? कभी बहू, कभी बेटी और अब मां के रिश्ते की दुहाई दे कर आहना का परिवार उस की उड़ान को रोकना क्यों चाहता है?

आज आहना के औफिस में पार्टी थी. सब लोगों को अपने परिवार के साथ आना था. जब आहना ने वंश से कहा, तो वह जानबू?ा कर बोला, ‘‘मेरी आज एक जरूरी मीटिंग है.’’

न जाने क्यों वंश को आहना की अलग पहचान से चिढ़ सी होने लगी थी. आहना से शादी करना वंश का ही फैसला था, पर जिस आहना के अपने पैरों पर खड़े होने वाले जज्बे से वंश को प्यार था, न जाने क्यों अब वंश को वही एकदम से आहना का घमंड लगने लगा था.

आहना पार्टी में अकेले ही गई और वापसी में आतेआते रात के 12 बज गए. वंश आयन को थपथपा रहा था. आहना को देखते ही वह फट पड़ा, ‘‘कैसी मम्मी हो तुम, पूरे दिन में तुम्हारा एक बार भी आयन के साथ रहने का मन नहीं करता है.’’

आहना बात बढ़ाना नहीं चाहती थी, इसलिए शांति से बोली, ‘‘आयन अपने घर में अपने पापा और दादी के साथ महफूज है, इसलिए मैं बेफिक्र रहती हूं.’’

वंश भुनभुनाता हुआ तकिया उठा कर बाहर सोने चला गया और आहना थोड़ी देर के बाद गहरी नींद के आगोश में समा गई.

आहना वंश के बरताव से परेशान हो चुकी थी. उसे इस घुटन से थोड़ी आजादी चाहिए थी, इसलिए वह एक हफ्ते के लिए आयन के साथ अपने घर चली गई.

नानानानी आयन को देख कर बहुत खुश हो गए थे. अहाना ने मन ही मन सोचा कि कुछ दिन तो वह चैन से गुजारेगी, पर वह गलत थी.

शाम को जब आहना दफ्तर से लौटी, तो उस की मम्मी बोलीं, ‘‘आहना, कपड़े बदल कर रसोई में आ जाओ, मैं तुम्हें कोफ्ते बनाना सिखा देती हूं.’’

आहना बोली, ‘‘मगर क्यों…? मैं थकी हुई हूं और थोड़ा आराम करना चाहती हूं. मुझे कल की प्रैजेंटेशन पर काम भी करना है.’’

आहना की मम्मी बोलीं, ‘‘बेटा, शादी के बाद दफ्तर के साथसाथ घर भी देखना जरूरी है. आज तुम्हारी सास का फोन आया था और वे तुम से बेहद नाराज हैं.’’

आहना बोली, ‘‘मम्मी, जब मैं और वंश बराबर की कमाई कर रहे हैं, तो सिर्फ मुझ से यह उम्मीद क्यों?’’

मम्मी बोलीं, ‘‘आहना, शादी के बाद तुम्हारी उड़ान की बागडोर तुम्हारे परिवार के साथ जुड़ी है. ऐसा न हो कि तुम्हारी उड़ान के चलते तुम्हारा परिवार पीछे छूट जाए.’’

आहना ने सपोर्ट के लिए अपने पापा की तरफ देखा, पर वे भी चुप रहे.

आहना को लगा था कि यहां पर वह चैन की सांस लेगी, पर वह गलत थी. उस ने बेमन से खाना खाया और कमरा बंद कर के कल की तैयारी करने लगी.

प्रैजेंटेशन बनातेबनाते आहना खो गई कि अगर यह प्रोजैक्ट कंपनी को मिल गया, तो उसे इस प्रोजैक्ट को लीड करने का मौका मिलेगा.

एक हफ्ते बाद आहना वापस अपने घर चली गई, पर नसीहतों और ढेरों सलाहों के साथ. वंश का मूड अभी भी खराब था, पर अपनी मम्मी की नसीहत के चलते आहना ने ही पहल कर के उस से बात कर ली थी.

रात में आहना रसोई में जा कर कुक को खाना बनाने में मदद भी कर रही थी. वंश और उस की मम्मी आहना के इस बदले रूप से बेहद खुश थे कि चलो, देर से ही सही कम से कम आहना ने अपनी जिम्मेदारी तो सम?ा.

घर में हंसीखुशी का माहौल बना हुआ था. आहना को इस के लिए थोड़ी ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही थी, पर फिर भी जिंदगी में थोड़ा सुकून था.

आज रात वंश पूरे परिवार के साथ डिनर पर गया था. डिनर करतेकरते वह बोला, ‘‘आहना, मैं बेहद खुश हूं. तुम ने पूरे परिवार को एक डोर में बांध लिया है. अब घर एक घर की तरह लगने लगा है. मैं वादा करता हूं कि तुम्हारी हर उड़ान में तुम्हारा साथ दूंगा.’’

आहना धीमे से मुसकरा दी. अब उसे दोगुनी मेहनत करनी पड़ती थी, पर उस की उड़ान एक घर को नहीं, बल्कि एक खुले आसमान को चाहती थी. उसे अपने पंखों के सहारे आसमान की ऊंचाइयों को छूना था.

आहना आज जब दफ्तर पहुंची, तो बौस ममता कपूर ने उसे अपने केबिन में बुला लिया. आहना डरतेडरते वहां पहुंची, तो बौस बोलीं, ‘‘आहना, तुम जिस प्रोजैक्ट पर काम कर रही थी, वह कंपनी को मिल गया है. तुम ही उस प्रोजैक्ट को लीड करोगी, तो 4 महीने की ट्रेनिंग के लिए तुम्हें सिंगापुर जाना होगा.’’

आहना कितने दिनों से कोशिश कर रही थी. उस की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

आज शाम को आहना ने सब के लिए फ्रूट कस्टर्ड बनाया. जब उस ने वंश को प्रोजैक्ट वाली बात बताई, तो वंश बोला, ‘‘तुम ने मना कर दिया न?’’

आहना बोली, ‘‘क्यों?’’

वंश चिढ़ते हुए बोला, ‘‘अरे, आयन को कौन देखेगा?’’

‘‘उस की दादी या नैनी उस की देखभाल कर सकती हैं.’’

‘‘पर, आयन की मां तुम हो और उसे अभी तुम्हारी जरूरत है.’’

आहना को गुस्सा आ गया, पर फिर भी खुद पर कंट्रोल करते हुए बोली, ‘‘तुम भी तो आयन के पापा हो… क्या कुछ महीने के लिए तुम मेरी जगह नहीं ले सकते हो?’’

यह सुन कर वंश की मम्मी गुस्से में बोलीं, ‘‘आहना, मां की जगह कोई नहीं ले सकता है, पर तुम्हारी झाली में सारी खुशियां आ गई हैं, तो तुम्हें क्या समझ आएगा.’’

आहना भी बिना रुके बोली, ‘‘मम्मी, घुट कर या दुखी हो कर मैं आयन को क्या सुख दे पाऊंगी?’’

आहना की सास को उस का रवैया समझ नहीं आता था. उन्होंने खुद भी तो वंश के पैदा होने के बाद अपने सपनों को तिलांजलि दे दी थी. ऐसी भी क्या उड़ान कि जो परिवार को ही दिशाहीन कर दे?

आहना ने उस रात अकेले ही मुंह मीठा किया. जब उस ने अपने मम्मीपापा को यह बात बताई, तो उन्होंने भी आहना को एक मां के फर्ज बताने शुरू कर दिए.

बैडरूम में आहना ने वंश से पूछा, ‘‘वंश, अगर मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?’’

वंश चिढ़ते हुए बोला, ‘‘आहना, ये नारीवाद की बातें मुझ से मत करो. तुम्हें बात को बढ़ाना है, तो बढ़ाओ. तुम अपनी उड़ान भरो, मैं अपने परिवार को खुद संभाल लूंगा.’’

आहना पूरी रात सोचती रही. उसे लगने लगा था कि वही गलत है. जब पति और परिवार सभी मना कर रहे हैं, तो शायद वही सम?ा नहीं पा रही है.

अगले दिन आहना दफ्तर पहुंची, तो उस के मन से शक के बादल छंट चुके थे. आहना ने अपनी बौस को बताया तो वे प्यार से बोलीं, ‘‘आहना, मैं इस दोराहे से गुजर चुकी हूं. मैं ने भी तुम्हारी तरह अपने बच्चों को चुना था, क्योंकि मां को त्याग और बलिदान करना होता है. पर आहना, मैं गलत थी. एक मां, जिस के पंखों को ममता का नाम दे कर काट दिया जाता है, वह क्या अपने बच्चों को उड़ना सिखाएगी?

एक बार फैसला लेने से पहले यह जरूर सोच लेना कि तुम इस फैसले से खुश हो या नहीं.’’

बौस की बात सुन कर आहना ने अपना फैसला ले लिया था.

आहना जब अपना और आयन का सामान बांध रही थी, तो वंश को कुछ सम?ा नहीं आ रहा था.

वंश ने घबरा कर आहना के मम्मीपापा को बुला लिया था. आहना के मम्मीपापा आ तो गए थे, पर उन्हें खुद सम?ा नहीं आ रहा था कि आहना ऐसा क्यों कर रही है.

वंश की मम्मी बोलीं, ‘‘देखिए आप लोग, आप की बेटी अपना घर तोड़ने पर आमादा है.’’

आहना की मम्मी ने पूछा, ‘‘बेटी, क्यों कर रही है तू ऐसा? क्या हम ने तुझे यह सब सिखाया है?’’

आहना बोली, ‘‘मम्मीपापा, आप लोगों ने मुझे उड़ना सिखाया है और अब आप लोग मेरे पंख काटना चाहते हो. अगर मां और बच्चे का रिश्ता बस इस बात पर टिका हुआ है कि मां को मां होने का हर समय सुबूत देना होता है, तो ठीक है. मैं अपने साथ अपने बेटे को भी ले कर जा रही हूं.

‘‘अगर वंश को ऐसा कोई चांस मिलता तो क्या उस को पिता होने का सुबूत देना पड़ता?’’ सब लोग चुपचाप आहना की बात सुन रहे थे.

आहना आगे बोली, ‘‘मैं आयन को अपनी ताकत बनाना चाहती हूं, कमजोरी नहीं. मैं उस की देखभाल खुद कर लूंगी.’’

तभी अचानक से वंश ने आगे बढ़ कर आयन को गोद में ले लिया और बोला, ‘‘आहना, मैं भी अपने रिश्ते

को तुम्हारी ताकत बनाना चाहता हूं, कमजोरी नहीं. मैं और आयन तुम्हारा इंतजार करेंगे, तुम पूरी लगन से अपना काम करना.’’

अपनी मम्मी की तरफ देखते हुए वंश आगे बोला, ‘‘आहना, मैं नहीं चाहता कि आयन को भी बड़े हो कर यह पता चले कि उस के चलते तुम ने अपने सपनों को भस्म कर दिया था.’’

आहना की सास अपने बेटे के कहे को सम?ा गई थी और वे बालकनी में जा कर खुले आसमान में उड़ते हुए पंक्षियों को देख कर राहत की सांस ले रही थी.

Holi 2024: दामाद – कैसे थे अमित के ससुराल वाले

अमित आज शादी के बाद पहली बार अपनी पत्नी को ले कर ससुराल जा रहा था. पढ़ाईलिखाई में अच्छा होने के चलते उसे सरकारी नौकरी मिल गई थी. सरकारी नौकरी लगते ही उसे शादी के रिश्ते आने लगे थे. उस के गरीब मांबाप भी चाहते थे कि अमित की शादी किसी अच्छी जगह हो जाए.

अमित के गांव के एक दलाल ने उस का रिश्ता पास के शहर के एक काफी अमीर घर में करवा दिया. अमित तो गांव की ऐसी लड़की चाहता था जो उस के मांबाप की सेवा कर सके लेकिन पता नहीं उस दलाल ने उस के पिता को क्या घुट्टी पिलाई थी कि उन्होंने तुरंत शादी की हां कर दी.

सगाई होते ही लड़की वाले तुरंत शादी करने की कहने लगे थे और अमित के पिताजी ने तुरंत ही शादी की हां भर दी. शादी से पहले अमित को इतना भी मौका नहीं मिला था कि वह अपनी होने वाली पत्नी से बात कर सके.

अमित की मां ने उस की बात को भांप लिया था और उन्होंने अमित के पिता से कहा भी कि अमित को अपनी होने वाली पत्नी को देख तो लेने दो, लेकिन उस के पिता ने कहा कि शादी के बाद खूब जीभर के देख लेगा.

खैर, शादी हो गई और अमित को दहेज में बहुतकुछ मिला. लड़की वाले तो अमित को कार भी दे रहे थे लेकिन अमित ने मना कर दिया कि वह दहेज लेने के भी खिलाफ है लेकिन उस के पिताजी के कहने पर वह मान गया.

सुहागरात को ही अमित को कुछकुछ समझ में आने लगा था क्योंकि उस की नईनई पत्नी बनी आशा ने न तो उस के मातापिता की ही इज्जत की थी और न ही सुहागरात को उस ने अमित को अपने पास फटकने दिया था.

अमित ने आशा से भी कई बार पूछा भी कि तुम्हारी शादी मुझ से जबरदस्ती तो नहीं की गई है लेकिन आशा ने कोई जवाब नहीं दिया.

शादी के तीसरे दिन अमित अपनी मां और पिताजी के कहने पर एक रस्म के मुताबिक आशा को छोड़ने ससुराल चल दिया.

अमित और आशा ट्रेन से उतर कर पैदल ही चल दिए. अमित की ससुराल रेलवे स्टेशन के पास ही थी. रास्ते में आशा अमित से आगे चलने लगी. अमित ने देखा कि

2 लड़के मोटरसाइकिल पर उन की तरफ आ रहे थे. वे आशा को देख कर रुक गए और आशा भी उन को देख कर काफी खुश हुई.

अमित जब तक आशा के पास पहुंचा तब तक वे दोनों लड़के उस की तरफ देखते हुए चले गए. आशा के चेहरे पर असीम खुशी झलक रही थी.

अमित के पास आने पर आशा ने अमित को उन लड़कों के बारे में कुछ नहीं बताया और अमित ने भी नहीं पूछा.

अमित अपनी ससुराल पहुंचा. वहां पर सब लोग केवल आशा को देख कर खुश हुए और अमित की तरफ किसी ने ध्यान भी नहीं दिया.

आशा की मां उसे ले कर अंदर चली गईं और अमित बाहर बरामदे में खड़ा रहा. अंदर से उस के ससुर और दोनों साले बाहर आए.

अमित के ससुर ने पास ही रखी कुरसी की तरफ इशारा किया और बोले, ‘‘अरे, खड़े क्यों हो, बैठ जाओ.’’

अमित चुपचाप बैठ गया. उसे वहां का माहौल कुछ ठीक नहीं लग रहा था.

अमित के सालों ने तो उस की तरफ ध्यान भी नहीं दिया था. शाम होने को थी और अंधेरा धीरेधीरे बढ़ रहा था.

अमित को फर्स्ट फ्लोर के एक कमरे में ठहरा दिया. अमित थोड़ा लेट गया और उस की आंख लग गई. नीचे से शोर सुन कर अमित की आंख खुली तो उस ने देखा कि अंधेरा हो चुका था और रात के 9 बज चुके थे.

अमित खड़ा हुआ और उस ने मुंह धोया. उस को हैरानी हो रही थी कि किसी ने उस से चाय तक की नहीं

पूछी थी. अमित उसे अपना वहम समझ कर भूलने की कोशिश कर रहा था. लेकिन दिमाग तो उस के पास भी था इसलिए वह अपने ही विचारों में खोया हुआ था.

अब नीचे से जोरजोर से हंसने की आवाज आ रही थी. अमित के ससुर शायद किसी से बात कर रहे थे.

अमित ने नीचे झांका तो पाया कि उस के ससुर और 2-3 लोग बरामदे में महफिल लगाए शराब पी रहे थे. अमित के ससुर बहुत शराब पी चुके थे इसलिए वे अब होश में नहीं थे.

वे बोले, ‘‘देखा मेरी अक्ल का कमाल. मैं ने अपनी बिगड़ैल बेटी की शादी कैसे एक गरीब लड़के से करा दी वरना आप लोग तो कह रहे थे कि इस बिगड़ी लड़की से कौन शादी करेगा,’’ इतना कह कर वे जोर से हंसे और बाकी बैठे दोनों लोगों ने भी उन का साथ दिया और उन की इस बात का समर्थन किया.

अमित के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई. तभी अमित की सास आईं और उस के ससुर के कान में कुछ बोलीं जिस को सुन कर वे तुरंत अंदर गए.

अब अमित को समझ आ गया था कि उस के ससुर ने ही अपना रोब दिखा कर उस के पिताजी को डराया होगा और उस की शादी आशा से कर दी होगी. तभी उस के पिताजी उस की शादी में उस के सवालों के जवाब नहीं दे रहे थे.

अमित का सिर चकरा रहा था. वह तुरंत नीचे उतरा और अंदर कमरे के दरवाजे पर पहुंचा. अमित ने अंदर देखा कि आशा एक कोने में नीचे ही बैठी है और उस के ससुर उस के पास खड़े उसे डांट रहे हैं. उन्होंने कहा कि अब वह किस के साथ अपना मुंह काला करा आई.

अमित को तो अब बिलकुल भी समझ नहीं आ रहा था, ऐसा लगता था कि उस की शादी किसी बिगड़ैल लड़की से करा दी गई है और उस का परिवार भी सामाजिक नहीं है. तभी उस की सास ने आशा के बाल पकड़े और उस को मारने लगीं.

आशा बिलकुल चुप थी और वह अपनी पिटाई का भी बिलकुल विरोध नहीं कर रही थी. आशा की मां उसे रोते हुए मारे जा रही थीं.

तभी पता नहीं अमित को क्या सूझ कि वह अंदर पहुंचा और अपनी सास से आशा को मारने को मना किया.

अमित को अंदर आया देख सासससुर घबरा गए. ससुर का तो नशा भी उतर गया था. वे समझ चुके थे कि अमित ने सब सुन लिया है.

अमित के ससुर अब कुरसी पर बैठ कर रो रहे थे और उस की सास का भी बुरा हाल था. तभी अमित के ससुर एक झटके से उठे और कमरे से अपनी दोनाली बंदूक ले आए और आशा की तरफ तान कर बोले, ‘‘मैं ने इस की हर गलती को माफ किया है. बड़ी मुश्किल से मैं ने इस की शादी कराई है और अब यह मुंह काला करा कर पता नहीं किस का पाप अपने पेट में ले आई है. मैं इसे नहीं छोड़ूंगा.’’

तभी अमित ने उन के हाथों से बंदूक छीन ली और एक तरफ फेंक दी. वह बोला, ‘‘चलो आशा, मेरे साथ अपने घर.’’

आशा ने झटके से अपना चेहरा ऊपर उठाया. अमित की बात सुन कर उस के सासससुर भी चौंक गए.

अमित के ससुर बोले, ‘‘अमित, तुम आशा की इतनी बड़ी गलती के बावजूद उसे अपने साथ घर ले जाना चाहते हो?’’

अमित बोला, ‘‘आप सब लोगों के लाड़प्यार की गलती आशा ही क्यों भुगते. इस में इस की क्या गलती है. गलती तो आप के परिवार की है जो ऐसे काम को अपनी शान समझाते हैं और उस को छिपाने के लिए मुझ जैसे लड़के से उस की शादी करवा दी.’’

अमित थोड़ी देर रुका और फिर बोला, ‘‘आशा की यही सजा है कि उसे मेरे साथ मेरी पत्नी बन कर रहना पड़ेगा.’’

यह सुन कर उस के ससुर ने उस के पैर पकड़ लिए लेकिन अमित ने उन्हें उठाया और आशा का हाथ पकड़ कर घर से बाहर निकल गया.

आशा अमित के पीछेपीछे हो ली. अमित के ससुर तो हाथ जोड़े खड़े थे.

अमित और आशा पैदल ही जा रहे थे तभी उन्हें वही दोनों लड़के मिले जो उन्हें आते हुए मिले थे. अब की बार वे दोनों पैदल ही थे.

आशा को देख उन में से एक बोला, ‘‘चलो आशा डार्लिंग, हम तुम्हारे पेट में पल रहे बच्चे को गिरवा देते हैं और फिर से मजे करेंगे.’’

इतना कह कर वे दोनों बड़ी बेहूदगी से हंसने लगे. उन में से एक ने आशा का हाथ पकड़ने की कोशिश की तो अमित ने उसे पकड़ कर अच्छीखासी धुनाई कर दी और जब दूसरा लड़का अपने साथी को बचाने आया तो आशा ने उस के बाल पकड़ कर नीचे गिरा दिया और लातों से अधमरा कर दिया. थोड़ी देर में वे दोनों ही वहां से भाग खड़े हुए.

आशा का साथ देना अमित को अच्छा लगा था. अमित ने आशा का हाथ पकड़ा और रेलवे स्टेशन की तरफ चल पड़े.

घर पहुंच कर अमित ने अपने मां और पिताजी को कुछ नहीं बताया. अब आशा ने अमित के घर को इस तरह से संभाल लिया था कि अमित सबकुछ भूल गया. आशा ने जब उस के पेट में पल रहे बच्चे को गिराने की बात कही तो अमित ने कहा, ‘‘इस में इस मासूम की क्या गलती है…’’

आशा अमित के पैरों में गिर पड़ी और रोने लगी. अमित ने उसे उठाया और गले से लगा लिया. वह बोला, ‘‘आशा, तुम्हारे ये पछतावे के आंसू ही तुम्हारी पवित्रता हैं.’’

आशा अमित के गले लग कर रोए जा रही थी. दूर शाम का सूरज नई सुबह में दोबारा आने के लिए डूब रहा था.

चौराहे की काली: क्या था भूत और चुड़ैल का राज?

‘‘मेरी बीवी बहुत बीमार है पंडितजी…’’ धर्म सिंह ने पंडित से कहा, ‘‘न जाने क्यों उस पर दवाओं का असर नहीं होता है. जब वह मुझे घूर कर देखती है तो मैं डर जाता हूं.’’

‘‘तुम्हारी बीवी कब से बीमार है?’’ पंडित ने पूछा.

‘‘महीनेभर से.’’

‘‘पहले तुम मुझे अपनी बीवी से मिलवाओ तभी मैं यह बता पाऊंगा कि वह बीमार है या उस पर किसी भूत का साया है.’’

‘‘मैं अपनी बीवी को कल सुबह ही दिखा दूंगा,’’ इतना कह कर धर्म सिंह चला गया.

पंडित भूतप्रेत के नाम पर लोगों को बेवकूफ बना कर पैसे ऐंठता था. इसी धंधे से उस ने अपना घर भर रखा था.

अगली सुबह धर्म सिंह के घर पहुंच कर पंडित ने कहा, ‘‘अरे भाई धर्म सिंह, तुम ने कल कहा था कि तुम्हारी बीवी बीमार है. जरा उसे दिखाओ तो सही…’’

धर्म सिंह अपनी बीवी सुमन को अंदर से ले आया और उसे एक कुरसी पर बैठा दिया.

पंडित ने उसे देखते ही पैसा ऐंठने का अच्छा हिसाबकिताब बना लिया.

सुमन के बाल बिखरे हुए और कपड़े काफी गंदे थे. उस की आंखें लाल थीं और गालों पर पीलापन छाया था. जो भी उस के सामने जाता, वह उसे ऐसे देखती मानो खा जाएगी.

पंडित सुमन की आंखें देख कर बोला, ‘‘अरे धर्म सिंह, मैं देख रहा हूं कि तुम्हारी बीवी पर बड़े भूत का साया है.’’

‘‘कैसा भूत पंडितजी?’’ धर्म सिंह ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम नहीं समझ पाओगे कि इस पर किस किस्म का भूत है,’’ पंडित बोला.

‘‘क्या भूतों की भी किस्में होती हैं?’’

‘‘क्यों नहीं. कुछ भूत सीधे होते हैं, कुछ अडि़यल, पर तुम्हारी बीवी पर…’’ पंडित बोलतेबोलते रुक गया.

‘‘क्या बात है पंडितजी… जरा साफसाफ बताइए.’’

‘‘यही कि तुम्हारी बीवी पर सीधेसादे भूत का साया नहीं है. इस पर ऐसे भूत का साया है जो इनसान की जान ले कर ही जाता है,’’ पंडित ने हाथ की उंगली उठा कर जवाब दिया.

‘‘फिर तो पंडितजी मुझे यह बताइए कि इस का हल क्या है?’’ धर्म सिंह कुछ सोचते हुए बोला.

पंडित ने हाथ में पानी ले कर कुछ बुदबुदाते हुए सुमन पर फेंका और बोला, ‘‘बता तू कौन है? यहां क्या करने आया है? क्या तू इसे ले कर जाएगा? मगर मेरे होते हुए तू ऐसा कुछ नहीं कर सकता.’’

‘‘पंडितजी, आप किस से बातें कर रहे हैं?’’ धर्म सिंह ने पूछा.

‘‘भूत से, जो तेरी बीवी पर चिपटा है,’’ होंठों से उंगली सटा कर पंडित ने धीरे से कहा.

‘‘क्या भूत बोलता है?’’ धर्म सिंह ने सवाल किया.

‘‘हां, भूत बोलता है, पर सिर्फ हम से, आम आदमी से नहीं.’’

‘‘तो क्या कहता है यह भूत?’’

‘‘धर्म सिंह, भूत कहता है कि वह भेंट चाहता है.’’

‘‘कैसी भेंट?’’ यह सुन कर धर्म सिंह चकरा गया.

‘‘मुरगे की,’’ पंडित ने कहा.

‘‘पर हम लोग तो शाकाहारी हैं.’’

‘‘तुम नहीं चढ़ा सकते तो मुझे दे देना. मैं चढ़ा दूंगा,’’ पंडित ने रास्ता सुझाया.

‘‘पंडितजी, मुझे एक बात बताओ?’’

‘‘पूछो, क्या बात है?’’

‘‘मेरी बीवी पर कौन सी किस्म का भूत है?’’

पंडित ने सुमन की तरफ उंगली उठाते हुए कहा, ‘‘इस पर ‘चौराहे की काली’ का असर है.’’

‘‘क्या… ‘चौराहे की काली’,’’ धर्म सिंह की आंखें डर के मारे फैल गईं, ‘‘मेहरबानी कर के कोई इलाज बताएं पंडितजी.’’

‘‘जरूर. वह काली कहती है कि तुझे एक मुरगा, एक नारियल, 101 रुपए, बिंदी, टीका, कपड़ा और सिंदूर रात को 12 बजे चौराहे पर रख कर आना पड़ेगा.’’

‘‘इतना सारा सामान पंडितजी?’’ धर्म सिंह ने कहा.

‘‘हां, अगर ऐसा नहीं हुआ तो तेरी बीवी गई काम से,’’ पंडित तपाक से बोला.

‘‘जी अच्छा पंडितजी, पर इतना सामान और वह भी रात के समय, यह मेरे बस की बात नहीं है,’’ धर्म सिंह ने कहा.

‘‘तेरे बस की बात नहीं है तो मैं रख आऊंगा…’’ पंडित ने कहा, ‘‘शाम को सारा सामान लेते आना. मैं शाम को आऊंगा.’’

धर्म सिंह तैयारी करने में लग गया. हालांकि उस ने बीवी को डाक्टर से दवा भी दिला दी, पर वह पंडित को भी मौका देना चाहता था इसीलिए चौराहे पर जाने से मना कर दिया.

रात को पंडित पूरा सामान ले कर चौराहे पर रखने के लिए चल दिया.

हवा के झोंके, झांगुरों का शोर और उल्लुओं की डरावनी आवाजें रात के सन्नाटे को चीर रही थीं.

पंडित जैसे ही चौराहे से 30 फुट की दूरी पर पहुंचा, उसी समय वहां 15-16 फुट ऊंची मीनार सी मूर्ति नजर आने लगी. वह कभी छोटी हो जाती तो कभी बड़ी. उस में से घुंघरू की खनखनाती आवाज भी आ रही थी.

पंडित यह सब देख कर बुरी तरह घबरा गया. हिम्मत कर के उस ने पूछा, ‘‘क… क… कौन है तू?’’

‘‘मैं चौराहे की काली हूं,’’ मीनार से घुंघरूओं की झंकार के साथ एक डरावनी आवाज निकली.

‘‘तू… तू… क्या चाहती है?’’

‘‘मैं तुझे खाना चाहती हूं,’’ मीनार में से फिर आवाज आई.

‘‘क… क… क्यों? मेरी क्या गलती है?’’ पंडित ने डरते हुए पूछा.

‘‘क्योंकि तू ने लोगों से बहुत पैसा ऐंठा है. अब मैं तेरे खून से अपनी प्यास बुझाऊंगी,’’ कहतेकहते काली धीरेधीरे नजदीक आ रही थी.

पंडित के हाथों से सामान तो पहले ही छूट चुका था. ज्यों ही उस ने मुड़कर पीछे की तरफ भागना चाहा, उसका पैर धोती में अटक गया और वह गिर पड़ा.

जब पंडित को होश आया तो उस ने अपनेआप को बिस्तर पर पाया. वह उस समय भी चिल्लाने लगा, ‘‘बचाओ… बचाओ… चौराहे की काली मुझे खा जाएगी…’’

‘‘कौन खा जाएगी? कैसी काली पंडितजी?’’ पंडित के कानों में धर्म सिंह की आवाज गूंजी.

पंडित ने आंखें खोलीं तो अपने सामने धर्म सिंह व गांव के तमाम लोगों को खड़ा पाया. पंडित फिर बोला, ‘‘चौराहे की काली.’’

‘‘नहीं पंडितजी, आप बिना वजह ही डर गए हैं. वह काली नहीं थी,’’ धर्म सिंह ने पंडित को थपथपाते हुए कहा.

‘‘तो फिर कौन थी वह?’’

‘‘वहां मैं था पंडितजी, आप तो यों ही डर रहे हैं,’’ धर्म सिंह ने कहा.

‘‘पर वह तो… कभी छोटी तो कभी बड़ी और घुंघरुओं की आवाज…’’ पंडित बड़बड़ाया, ‘‘न… न… नहीं, तुम नहीं हो सकते.’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? मैं वही नजारा फिर दिखा सकता हूं,’’ इतना कह कर धर्म सिंह काला कपड़ा लगा लंबा बांस, जिस में घुंघरू लगे थे, ले आया.

उस ने बांस से कपड़ा कभी ऊंचा उठाया तो कभी नीचा किया और खुद को बीच में छिपा लिया. तब जा कर पंडित को यकीन हुआ कि वह काली नहीं थी.

धर्म सिंह ने पंडित से कहा, ‘‘इस दुनिया में न तो भूत हैं और न ही चुड़ैल. यह सारा चक्कर तो सरासर मक्कारी और फरेब का है.’’

चाय की दुकान : जब इमरान ने संभाला होश

चाय की दुकान, जहां दुनिया से जुड़ी हर खबर मिल जाएगी आप को. भले हम डिजिटल युग में जी रहे हैं जहां कोई भी खबर सिर्फ उंगलियों को घुमाने से मिल जाती है पर उस से भी तेज खबर मिलेगी आप को चाय की दुकान पर.

किस के बेटे ने मूंछें मुंड़वा लीं, किस की बीवी झगड़ कर मायके चली गई, किस के घर में क्या पका है, किस की बकरी दूसरे का खेत चर गई… हर तरह की खबरें बगैर किसी फीस के. न कोई इंटरनैट और न ही कोई टैलीविजन या रेडियो, पर खबरें बिलकुल टैलीविजन के जैसी मसालेदार.

सब से मजेदार बात तो यह है कि वहां पर पुरानी से पुरानी खबरें सुनाने वाले भी आप को हमेशा मिल जाएंगे, भले ही वे आप के जन्म से पहले की ही क्यों न हों, जैसे कि वे उन के मैमोरी कार्ड में सेव हों.

इन्हीं खबरीलाल में से एक हैं बादो चाचा. उन के पास तो समय ही समय है. कोई भी घटना वे ऐसे सुनाते हैं मानो आंखों देखी बता रहे हों.

गांव के हर गलीनुक्कड़, चौकचौराहे पर मिल जाएंगे. आप उन से इस नुक्कड़ पर मिल कर जाएं और अगले नुक्कड़ पर आप से पहले वे पहुंचे रहते हैं. वे किस रास्ते से जाते हैं आज तक कोई नहीं जान पाया.

इमरान ने जब से होश संभाला है तब से उन्हें वैसा का वैसा ही देख रहा है. बाल तो उन के 20 साल पहले ही पक चुके थे, पर उन की शारीरिक बनावट में आज भी कोई बदलाव या बुढ़ापेपन की झलक नहीं दिखती है, मानो उन के लिए समय रुक गया हो. कोई कह नहीं सकता कि वे नातीपोते वाले हैं.

सुबहसुबह रघु चाचा की चाय की दुकान पर चाय प्रेमियों का जमावड़ा लगना शुरू हो गया. यह ठीक उसी तरह होता है जिस तरह शहर के किसी रैस्टौरैंट में. वहां व्यंजन पसंद करने में कम से कम आधा घंटा लगता है, और्डर को सर्व होने में कम से कम आधा घंटा लगेगा, यह तो मेनू कार्ड में खुद लिखा होता है और फिर उस के बाद कोई समय सीमा नहीं. आप जब तक खाएं और जब तक बैठें आप की मरजी. खाएं या न खाएं, पर सैल्फी लेकर लोगों को बताएं जरूर कि सोनू विद मोनू ऐंड थर्टी फाइव अदर्स एट ओस्मानी रैस्टौरैंट.

यहां भी कुछ ऐसा ही नजारा रहता है. 5 रुपए की चाय पी कर लोग साढ़े 3 रुपए का अखबार पढ़ते हैं और फिर देशदुनिया के साथ पूरे गांव और आसपास के गांवों की कहानियां चलती हैं बगैर किसी समय सीमा के. सब को पता होता है कि घर के बुजुर्ग चाय की दुकान पर मिल जाएंगे, विद अदर्स.

हमेशा की तरह बादो चाचा की आकाशवाणी जारी थी, ‘‘यह हरी को भी क्या हो गया है, बड़ीबड़ी बच्चियों को पढ़ने के लिए ट्रेन से भेजता है. वे अभी साइकिल से स्टेशन जाएंगी और फिर वहां से लड़कों की तरह ट्रेन पकड़ कर बाजार…

‘‘पढ़लिख कर क्या करेंगी? कलक्टर बनेंगी क्या? कुछ तो गांव की मानमर्यादा का खयाल रखता. मैट्रिक कर ली, अब कोई आसान सा विषय दे कर घर से पढ़ा लेता.’’

इसी के साथ शुरू हो गई गरमागरम चाय के साथ ताजा विषय पर परिचर्चा. सब लोगों ने एकसाथ हरी चाचा पर ताने मारने में हिस्सा लिया.

कोई कहता कि खुद तो अंगूठाछाप है, अब चला है भैया बेटियों को पढ़ाने, तो कोई कहता कि पढ़ कर वही चूल्हाचौका ही संभालेंगी, इंदिरा गांधी थोड़े न बन जाएंगी.

अगले दिन बादो चाचा चाय की दुकान पर नहीं दिखे, पता चला कि पोती को जो स्कूल में सरकारी साइकिल के पैसे मिलने वाले हैं, उसी की रसीद लाने गए हैं.

इमरान को कल हरी चाचा पर मारे गए ताने याद आ गए. जब वह बचपन में साइकिल चलाना सीखता था तो उस समय उस की ही उम्र की कुछ लड़कियां भी साइकिल चलाना सीखती थीं और यही बादो चाचा और गांव के कुछ दूसरे बुजुर्ग उन पर ताने मारते नहीं थकते थे और आज वे अपनी ही पोती के लिए साइकिल के पैसे के लिए रसीद लाने गए हैं.

अगले दिन इमरान ने पूछा, ‘‘कल आप आए नहीं बादो चाचा?’’

वे कहने लगे, ‘‘क्या बताऊं बेटा, जगमला… मेरी पोती 9वीं जमात में चली गई है. उसी को साइकिल मिलने वाली है. उसी की रसीद लाने गया था. परेशान हो गया बेटा. कोई साइकिल का दुकानदार रसीद देने को तैयार ही नहीं था. सब को कमीशन चाहिए. पहले ही अगर चैक मिल जाए तो इतनी परेशानी न हो.

‘‘यह सरकार भी न, पहले रसीद स्कूल में जमा करो, फिर जा कर आप को चैक मिलेगा. जब साइकिल के पैसे देने ही हैं तो दे दो, रसीद क्यों मांगते हो? उन पैसों का कोई भोज थोड़े न कर लेगा, साइकिल ही लाएगा. आजकल के बच्चेबच्चियों को भी पता है कि सरकार उन्हें पैसे देती है वे खरीदवा कर ही दम लेते हैं, चैन से थोड़े न रहने देते हैं.’’

‘‘हां चाचा, पर जगमला तो लड़की है. वह साइकिल चलाए, यह शोभा थोड़े न देगा,’’ इमरान ने ताना मारा.

‘‘अरे नहीं बेटा, उस का स्कूल बहुत दूर है. नन्ही सी जान कितना पैदल चलेगी. स्कूलट्यूशन सब करना पड़ता है, साइकिल रहने से थोड़ी आसानी होगी. और देखो, आजकल जमाना कहां से कहां पहुंच गया है. पढ़ेगी नहीं तो अच्छे रिश्ते भी नहीं मिलेंगे.’’

‘‘पर, आप ही तो कल हरी चाचा की बेटी के बारे में कह रहे थे कि पढ़ कर कलक्टर बनेगी क्या?’’ इमराने ने फिर ताना मारा.

इस बार बादो चाचा ने कोई जवाब नहीं दिया.

इमरान ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चाचा, जैसा आप अपनी पोती के बारे में सोचते हो, वैसा ही दूसरों की बेटियों के बारे में भी सोचा करो. याद है, मेरे बचपन में आप ताने मारते थे जब मेरे साथ गांव की कुछ लड़कियां भी साइकिल चलाना सीखती थीं और आज खुद अपनी पोती की साइकिल खरीदने के लिए इतनी मेहनत कर रहे हो.

‘‘समय बदल रहा है चाचा, अपनी सोच भी बदलो. गांव में अगर साधन हों तो बच्चियां ट्रेन से पढ़ने क्यों जाएंगी? मजबूरी है तभी तो जा रही हैं. अभी ताने मारते हो और भविष्य में जब खुद पर आएगी तो उसी को फिर सराहोगे.

‘‘क्या पता हरी चाचा की बेटी सच में कलक्टर बन जाए. और नहीं तो कम से कम गांव में ही कोचिंग सैंटर खोल ले, तब शायद आप की जगमला को इस तरह बाजार न जाना पड़े…’’

तभी बीच में सत्तो चाचा कहने लगे, ‘‘लड़कियों की पढ़ाईलिखाई तो सिर्फ इसलिए है बेटा कि शादी के लिए कोई अच्छा सा रिश्ता मिल जाए, हमें कौन सा डाक्टरइंजीनियर बनाना है या नौकरी करवानी है.

‘‘आजकल जिस को देखो, अपनी बहूबेटियों को मास्टर बनाने में लगा हुआ है. उस के लिए आसानआसान तरीके ढूंढ़ रहा है. नौकरी करेंगी, मर्दों के साथ उठनाबैठना होगा, घर का सारा संस्कार स्वाहा हो जाएगा. यह सब लड़कियों को शोभा नहीं देता.’’

इमरान ने कहा, ‘‘चाचा, अगर सब आप की तरह सोचने लगे तो अपनी बहूबेटियों के लिए जो लेडीज डाक्टर ढूंढ़ते हो, वे कहां से लाओगे? घर की औरतें खेतों में जा कर मजदूरी करें, बकरियां चराएं, चारा लाएं, जलावन

चुन कर लाएं, यह शोभा देता है आप को…

‘‘ऐसी औरतें आप लोगों की नजरों में एकदम मेहनती और आज्ञाकारी

होती हैं पर पढ़ीलिखी, डाक्टरइंजीनियर या नौकरी करने वाली लड़कियां संस्कारहीन हैं.

‘‘क्या खेतखलिहानों में सिर्फ औरतें ही काम करती हैं? वहां भी तो मर्द रहते हैं. बचपन से देख रहा हूं कि चाची

ही चाय की दुकान संभालती हैं. रघु चाचा की तो रात वाली उतरी भी नहीं होगी अभी तक. यहां भी तो सिर्फ मर्द ही रहते हैं और यहां पर कितनी संस्कार की बातें होती हैं, यह तो आप सब भी जानते हो.’’

यह सुन कर सब चुप. किसी ने कोई सवालजवाब नहीं किया. इमरान वहां से चला गया.

2 दिन बाद जब इमरान सुबहसुबह ट्रेन पकड़ने जा रहा था तो उस ने देखा कि स्टेशन जाने के रास्ते में जो मैदान पड़ता था वहां बादो चाचा अपनी पोती को साइकिल चलाना सिखा रहे थे.

चाचा की नजरें इमरान से मिलीं और वे मुसकरा दिए. चाय की दुकान पर कही गई इमरान की बातें उन पर असर कर गई थीं.

अपने पराए या पराए अपने

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी.

एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मु  झे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’

मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी.

रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका.

लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था. 8 हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी.

अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं. हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के

घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर   झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो.

तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’

तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए.

बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था.

चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढ़िया क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया.

मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया.

फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़ मची थी.

मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई.

मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मु  झे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से सुनाई.

चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

‘‘भूखों मरने से ले कर गालीगलौज, मारपीट सभी कुछ जब तक सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता.

‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ.

लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’

सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था.

चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ.

एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था.

मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया.

वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती.

‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे.

वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे.

मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

जमीं से आसमां तक : माया डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट

2 बच्चों की मां माया आज डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थी. पर इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उस ने बड़ी जद्दोजेहद की थी. पिता ने कम उम्र में उस की शादी करा दी थी, जहां सुख किस चिडि़या का नाम है,

माया ने कभी महसूस ही नहीं किया था. फिर उस ने एक ऐसा कड़ा फैसला लिया कि उस की जिंदगी ही पलट गई. कैसे हुआ यह सब?

अपने अतीत की यादों में खो चुकी माया का ध्यान तब भंग हुआ, जब बाहर स्कूल से लौट रहे बच्चों की आवाज उस के कानों में सुनाई दी. तभी आशा दीदी भी मिठाई का डब्बा लिए घर आ गई थीं.

दोनों बच्चे आशा दीदी के हाथ में मिठाई का डब्बा देख कर खुशी से चहक कर पूछ बैठे, ‘मौसी, आज किस खुशी में हमें मिठाई मिलने वाली है?’

‘‘बच्चो, आज से तुम्हारे भविष्य की एक नई शुरुआत होने वाली है. तुम्हारी मम्मी ने यूपीएससी का इम्तिहान पास कर लिया है. अब वे बड़ी अफसर बनेंगी.’’

आशा दीदी ने मिठाई का डब्बा खोलते हुए बच्चों की तरफ बढ़ा दिया. माया आशा दीदी के गले लग गई और आंसुओं की धारा बह निकली.

आशा दीदी ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘माया तुम ने अपने बुलंद इरादों से जमीं से आसमां तक का सफर तय किया है और समाज को एक संदेश दिया है कि औरत हमेशा ही मर्दों पर हावी रही है.’’

‘‘दीदी, अगर आप मुझे संबल न देतीं, तो मैं तो कभी की टूट चुकी होती. दीदी, मेरी कामयाबी के पीछे आप का भी बड़ा योगदान है, थैंक यू दीदी,’’ माया आशा दीदी से बोली.

माया को यूपीएससी के रिजल्ट का बेसब्री से इंतजार था. सुबह से ही उस की नजरें मोबाइल स्क्रीन पर टिकी हुई थीं. दोपहर के समय उस के दोनों बच्चे स्कूल गए हुए थे और जैसे ही रिजल्ट आया और अपना नाम लिस्ट में देख कर माया जोर से चीख पड़ी. उस ने सब से पहले आशा दीदी का नंबर डायल किया.

आशा दीदी ने जैसे ही काल रिसीव किया, माया मारे खुशी के बोली,

‘‘दीदी, मेरा सिलैक्शन यूपीएससी में हो गया है.’’

आशा दीदी भी खुशी से झम उठीं और फोन पर बधाई देते हुए बोलीं, ‘‘बधाई हो माया. मैं तेरा मुंह मीठा कराने घर पर आ रही हूं.’’

आशा माया की कजिन सिस्टर थीं, जिन्होंने बुरे समय में माया और उस के बच्चों को अपने घर में पनाह दी थी. आज माया से ज्यादा खुशी आशा दीदी को हो रही थी.

आशा दीदी से बातचीत का सिलसिला खत्म हुआ, तो माया ने मोबाइल फोन सोफे पर रख कर अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं. माया के अतीत के दिनों के पन्ने एकएक कर के खुलते जा रहे थे.

नरसिंहपुर जिले के जिस गांव भिलमा ढाना में माया का जन्म हुआ था, उस गांव में ज्यादातर लोग गरीब आदिवासी ही रहते थे, जो खेतीबारी और मजदूरी कर के रोजीरोटी चलाते थे. माया के पिता भी मजदूरी और खेतीबारी से अपना परिवार चलाते थे.

गांव का स्कूल 10वीं क्लास तक ही था. 10वीं की पढ़ाई के बाद माया के पापा उस की शादी के लिए भागदौड़ करने लगे थे. वे कहते थे कि बेटी के लिए अच्छा रिश्ता ढूंढ़ने में पिता की एडि़यां घिस जाती हैं.

गांव से तकरीबन 7-8 किलोमीटर दूर गोटी टोरिया गांव था, जहां 12वीं जमात तक का सरकारी स्कूल था. माया ने जिद कर के वहां बायोलौजी सब्जैक्ट से एडमिशन ले लिया. वह गांव से ही दूसरी लड़कियों के साथ साइकिल से रोजाना अपडाउन करती थी.

उन दिनों स्कूल में टीचर ने बताया था कि बायोलौजी से पढ़ने वाले डाक्टर बन सकते हैं. बस फिर क्या था, माया के सिर पर डाक्टर बनने का भूत सवार हो गया. इस के लिए वह दिनरात पढ़ाई करने लगी.

जब माया ने हायर सैकंडरी का इम्तिहान दिया, तब वह 17 साल की गांव की मासूम लड़की थी. पढ़ने में अव्वल माया का रिजल्ट आने से पहले ही उस की शादी हो जानी चाहिए की चर्चा होने लगी थी. उस उम्र तक माया ठीक से शादी का मतलब भी नहीं जानती थी. वह अच्छी तरह पढ़लिख कर डाक्टर बनना चाहती थी.

गांव से 50 किलोमीटर दूर तक आगे कालेज की पढ़ाई का कोई इंतजाम नहीं था. किसी बड़े शहर में रह कर पढ़ने की उस के पिता की हैसियत भी नहीं थी.

माया का स्कूल का रिजल्ट आने के पहले ही एक दिन बड़े घर से उस के लिए रिश्ता आया, तो उस के पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था.

भोपाल में रहने वाले जिस घर से माया के लिए रिश्ता आया था, वह काफी रसूखदार था. उस घर के लोग पढ़ेलिखे और बड़े सरकारी पदों पर थे.

उन का कहना था कि हमें केवल अच्छी होशियार लड़की चाहिए, तो पिताजी ने उन से गर्व से कहा था, ‘‘हमारी बेटी माया पढ़ने में अच्छी है. हमेशा फर्स्ट डिवीजन में पास होती है और डाक्टर बनना चाहती है, पर हमारी हैसियत उसे पढ़ाने की नहीं है.’’

माया को अपने घर की बहू बनाने आए सूटबूट पहने हुए राम कुमार ने माया के पिताजी से कहा, ‘‘आप चिंता न करें. हमारी भी इसी उम्र की एक बेटी है, वह भी डाक्टर बनने के लिए एमबीबीएस की पढ़ाई कर रही है. हम माया को अपनी बेटी मान कर आगे पढ़ाएंगे और डाक्टर बनाएंगे.’’

पिता के लिए बिना दहेज घर बैठे रिश्ता ले कर आए राम कुमार किसी फरिश्ते से कम नहीं थे. उन्होंने झट से बेटी का रिश्ता राम कुमार के बेटे पवन से तय कर दिया.

महीनेभर बाद ही माया की शादी हो गई. गांव के मिट्टी के कच्चे घर से विदा हो कर पहली बार भोपाल शहर आई माया के पैर जमीं पर नहीं थे.

ससुराल वाले भोपाल में एक बड़े फ्लैट में रहते थे. यह सब माया के लिए सपना सरीखा था. माया को लगा कि बापू ने भले ही उस की शादी जल्दी कर दी है, मगर वह ठीक जगह पहुंच गई है और यहां से वह डाक्टर बनने के अपने सपने को आसानी से पूरा कर लेगी.

शादी के कुछ दिन तो मेहमानों की भीड़ और नईनवेली बहू की खातिरदारी में ठीक बीते, लेकिन माया को कुछ दिन बाद ही पता लगा कि उस का पति पवन किसी और लड़की के साथ रिलेशन में है, तो उस के पैरों तले जमीन ही खिसक गई.

धीरेधीरे ससुराल वालों के बरताव से माया को लगा कि उन्हें एक बहू नहीं नौकरानी चाहिए थी, इसलिए एक छोटे से गांव के गरीब घर में शादी करा दी.

माया भले ही गरीब घर से थी, लेकिन मातापिता ने उसे बड़े लाड़प्यार से पाला था. ससुराल जाते ही उस के अरमान धरे के धरे रह गए. उस की जिंदगी तबाह सी हो गई थी.

ससुराल में सासससुर, पति के अलावा एक ननद, देवर दिनभर माया से घर का काम कराते थे. उसे लगता जैसे वह बड़े घरों में काम करने वाली बाई हो. घर में एक दादी सास भी थीं, जो बीमार रहती थीं. वे बिस्तर पर ही शौच करती थीं. ससुराल के लोग हर समय माया से उन की गंदगी साफ कराते थे.

माया सुबह जल्दी उठ कर 5-6 लोगों का नाश्ता, फिर खाना बनाती, ?ाड़ूपोंछा लगाने के साथ पूरे घर के कपड़े साफ करते हुए उसे कब सुबह से रात हो जाती, पता ही नहीं चलता था. रात में बिस्तर पर पति का देहसुख नहीं मिलता था. पति उस के साथ किसी वहशी दरिंदे की तरह बरताव करता, तो वह सुबक कर रह जाती.

माया की एक ननद भी थी, जो भोपाल से ही एमबीबीएस कर रही थी. माया उस से कुछ बात करने की कोशिश भी करती, तो वह माया को हीनभावना से देखती. वह माया से बात भी करना पसंद नहीं करती थी.

एक छोटा देवर मनजीत था, जो माया को सपोर्ट करता था, लेकिन परिवार के दबाव के चलते वह खुल कर साथ नहीं दे पाता था. कभीकभार चोरीछिपे वह मदद कर दिया करता था.

माया को खाने तक के लाले पड़ गए थे. उसे अपने कपड़ों में रोटियां छिपा कर रखनी पड़ती थीं, फिर जा कर वह हर किसी से नजरें बचा कर खाती थी.

उन दिनों गांव के किसी भी घर में मोबाइल फोन तो दूर टैलीफोन भी नहीं था. शादी के बाद कई महीनों तक माया की घर पर बात नहीं हो पाई थी.

एक दिन पिताजी माया से मिलने भोपाल आए. उन्होंने देखा कि माया तो आलीशान घर में रह रही है. पर उस दिन भी सुबहसुबह पवन ने माया की पिटाई की थी. माया के शरीर पर जगहजगह नीले निशान पड़ गए थे.

माया ने पिताजी को अपनी परेशानी बताते हुए कहा, ‘‘मैं इस घर में नौकरों की तरह जिंदगी काट रही हूं. आप मुझे अपने साथ घर ले चलो, अब और सहन नहीं होता.’’

माया के पिताजी ने उस से कहा, ‘‘शाम को तैयार रहना. मैं आ कर तुझे साथ ले जाऊंगा.’’

पिता को लगा कि माया बेवजह ही ससुराल वालों की शिकायत कर रही है. पतिपत्नी में थोड़ाबहुत टकराव तो चलता ही रहता है. वे भी तो माया की मां को भलाबुरा कह देते हैं.

माया रात के 9 बजे तक अपने पिताजी का इंतजार करती रही, लेकिन वे नहीं आए. सम?ा नहीं आया आखिर उन की ऐसी क्या मजबूरी थी. उस दिन माया को अपने पिताजी पर बहुत गुस्सा आया और ऐसा लगा कि अब इस दुनिया में उस का कोई सहारा नहीं है.

माया उम्र में छोटी थी, पिताजी की परेशानी को नहीं समझाती थी. माया के पिताजी उसे गांव ले जाते तो समाज के लोगों के तानों की वजह से उन की जिंदगी दूभर हो जाती.

माया की शारीरिक और मानसिक हालत लगातार खराब होती जा रही थी, जिस से उबरने का कोई रास्ता उसे दिखाई नहीं दे रहा था. उस के मन में कई बार ऐसे खयाल आते थे कि वह इन सब का खून कर दे या फिर खुद मर जाए.

पर समय गुजरने के साथसाथ माया एक बेटे और एक बेटी की मां बन चुकी थी, पर उस की हैसियत अभी भी एक नौकरानी की तरह थी. उस के पास न पैसे थे, न कोई जानपहचान. ससुराल वालों से तंग आ कर उस का मन करता कि कहीं भाग जाए, पर बच्चों की खातिर घर छोड़ कर नहीं जा पा रही थी.

पर जब पानी सिर से ऊपर हो गया, तो माया के अंदर ऐसा गुस्सा था कि उस ने कुछ भी नहीं सोचा. अपने बच्चों के भविष्य के बारे में भी नहीं सोचा. उस ने ठान लिया था कि जो काम वह यहां करती है, वही काम बाहर कर लेगी. ?ाड़ूपोंछा लगाना, बरतन धोना कर लेगी, लेकिन अब वह इस घर में नहीं रहेगी. बच्चों को वह मजदूरी कर के पाल लेगी.

आखिरकार एक रात माया ने अपने बच्चों के साथ पति का घर छोड़ ही दिया. घर छोड़ने के बाद वह यहांवहां भटकते हुए रेलवे स्टेशन पहुंची, लेकिन पता नहीं था कि कहां जाना है.

तभी माया को अपनी एक कजिन सिस्टर आशा दीदी की याद आई. वे भोपाल में ही अपने भाई के साथ एक कमरे में रह कर पढ़ाई कर रही थीं. पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए वे ब्यूटीपार्लर में भी काम करती थीं.

माया खोजते हुए आशा दीदी के पास पहुंची और उन्हें अपनी दुखभरी कहानी सुना दी. अपने दोनों बच्चों समेत माया उन के साथ उसी कमरे में रहने लगी. कुछ दिन बाद माया अपने लिए काम ढूंढ़ने लगी, ताकि वह उन पर बोझ बन कर न जी सके.

गांव में घर का खर्च चलाने के लिए माया की मां कपड़ों की सिलाई करती थीं. बचपन से उस ने भी उन्हें देखदेख कर सिलाई करना सीख लिया था. वह सब आज काम आ गया.

माया ने पास में ही एक सिलाई सैंटर पर काम करना शुरू कर दिया. सिलाई से मिले पैसे जोड़ कर उस ने एक सिलाई मशीन खरीद ली.

सिलाई मशीन खरीदने के बाद माया ने अपना खुद का सिलाई का काम शुरू कर दिया. सिलाई करने के बाद जो समय बचता, उस में वह अपनी कालोनी के छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी.

आमदनी बढ़ते ही माया ने अलग से एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया था. अपने बच्चों को पालते हुए सब से ज्यादा सुकून इस बात का था कि उसे मार नहीं खानी पड़ती थी.

माया दिनरात मेहनत कर के भी 3-4 हजार रुपए ही कमा पा रही थी, जो महीनेभर में खर्च हो जाते थे. जब कभी बच्चे बीमार पड़ते, तो उन्हें डाक्टर को दिखाने के भी पैसे नहीं रहते थे, मजबूरन मैडिकल स्टोर से दवा ला कर उन को खिलानी पड़ती थी.

ससुराल में रहते हुए माया ने चोरीछिपे बीए की पढ़ाई कर ली थी. इस में उस के देवर मनजीत ने कालेज की फीस भर कर कुछ किताबें भी दिलाई थीं. वह कभी कालेज नहीं गई, बस घर में थोड़ाबहुत पढ़ कर इम्तिहान देती गई और पास होती गई.

वह पढ़ाई अब माया के काम आने लगी. नौकरी की तलाश में वह यहांवहां भटक रही थी, तभी मनजीत ने उसे यूपीएससी के इम्तिहान के बारे में बताया और कुछ जरूरी किताबें भी ला कर दीं.

माया ने सोच लिया था कि एक बार में नहीं होगा, तो दूसरीतीसरी बार में जरूर होगा. बिना किसी कोचिंग के तैयारी शुरू कर 12-12 घंटे पढ़ाई करने के बाद माया एक ब्यूटीपार्लर में पार्टटाइम नौकरी भी करती रही.

माया ने पहले ही अटैंप्ट में प्रीलिम्स इम्तिहान पास कर लिया और मेन एग्जाम की तैयारी में जुट गई. दिनरात की मेहनत रंग लाई और माया ने यूपीएससी का मेन एग्जाम भी क्लियर कर लिया.

माया बड़ी अफसर बन चुकी थी. तकरीबन 3-4 साल अलगअलग जिलों में रहते हुए इसी साल उज्जैन जिले में उस की पोस्टिंग डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के तौर पर हो गई थी.

एक दिन औफिस में अपने केबिन में बैठी माया कुछ फाइलें देख रही थी कि अर्दली ने एक कागज की परची उस की टेबल पर रखते हुए कहा, ‘‘मैडम, कोई आप से मिलना चाहता है.’’

माया ने नजरें उठा कर परची पर लिखे नाम को गौर से देखा और नाम पढ़ते ही अर्दली से कहा, ‘‘आने दो.’’

वह शख्स जैसे ही अंदर आया, तो माया ने अपनी नजरें फाइल पर गड़ाते हुए उसे कुरसी पर बैठ जाने को कहा. वह माया का पति पवन था, जो कामधंधे की तलाश में भोपाल से उज्जैन आया था.

यहां के एक बैंक में सिक्योरिटी गार्ड का काम कर रहे पवन को बंदूक के लाइसैंस के लिए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की इजाजत चाहिए थी. माया को सामने देख कर वह शर्मिंदा हो रहा था. उस की हिम्मत कुछ कहने की नहीं हो रही थी.

माया के पूछने पर पवन ने बुझे मन से बताया था कि पापा की मौत के बाद बहनों की शादी में काफी पैसा खर्च हो गया. पैसों की तंगी का जब दौर शुरू हुआ, तो जिस लड़की के चक्कर में उस ने माया को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया था, वह लड़की मौका मिलते ही कैसे किसी गैर की बांहों में झलने लगी थी. घर में केवल बूढ़ी मां रह गई थीं, जिन से घर का काम भी नहीं हो पा रहा था.

पवन के मन में खयाल आया कि वह माया से अपने बच्चों के बारे में पूछ ले, लेकिन उस की हिम्मत जवाब दे गई. आज माया जिस मुकाम पर है, पवन को दोबारा तो नहीं मिल सकती.

पवन ने नजरें झाका कर अपनी एप्लीकेशन माया की तरफ बढ़ा दी. माया ने एप्लीकेशन पढ़ी और उस पर अपने दस्तखत कर पवन की ओर बढ़ा दी. पवन ने एप्लीकेशन अपने हाथों में ली और चुपचाप केबिन से बाहर निकल गया.

आलू वड़ा: क्यों खुश था दीपक

‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, म?ाले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया.

मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.

‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने ?ाट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था.

दोहरी जिंदगी: शादीशुदा मोनू और रिहाना का क्या रिश्ता था

मोनू की शादी कुछ महीने पहले सायरा से हुई थी, जो काफी खूबसूरत थी, पर उस की छोटी बहन रिहाना कहीं ज्यादा खूबसूरत थी. सायरा पेट से हो चुकी थी. कुछ ही महीने में उस की डिलीवरी होने वाली थी. इस वजह से घर का कामकाज करना अब सायरा के बस की बात नहीं थी. लिहाजा, सायरा ने अपने काम में हाथ बंटाने के लिए रिहाना को बुला लिया.

रिहाना मेहनती होने के साथसाथ चंचल और खुली सोच वाली लड़की थी. यही वजह थी कि जल्दी ही रिहाना अपने जीजा मोनू से काफी घुलमिल गई और दोनों आपस में हंसीमजाक करने लगे.

एक दिन रिहाना बाथरूम में नहा रही थी और जानबूझ कर तौलिया बाहर भूल गई थी. उस ने अपनी दीदी को आवाज लगाई, पर वह सो रही थी. मोनू सामने सोफे पर बैठा कुछ काम कर रहा था.

इतने में रिहाना ने अपने जीजा मोनू से कहा, ‘‘जीजू, बाहर तौलिया रखा है, जरा मुझे दे दो.’’

मोनू ने कहा, ‘‘क्यों? तुम खुद आ कर ले लो.’’

रिहाना बोली, ‘‘अगर मैं ऐसे ही आ गई, तो आप के होश उड़ जाएंगे.’’

मोनू बोला, ‘‘क्यों…? ऐसा क्या है तुम में?’’

रिहाना ने कहा, ‘‘वह तो मुझे देख कर ही पता चलेगा.’’

मोनू ने जोश में आते हुए कहा, ‘‘ठीक है, तुम आ जाओ. मैं भी तो देखूं कि आखिर कैसी लगती है मेरी साली बिना कपड़ों के.’’

रिहाना बोली, ‘‘जीजू, मजाक मत करो. जल्दी से तौलिया दो. कभी मौका मिलेगा, तो मैं आप को अपना जलवा जरूर दिखाऊंगी.’’

मोनू ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हारे जलवे का इंतजार करूंगा. मैं भी तो देखना चाहता हूं कि आखिर हमारी साली कैसे जलवा दिखाएगी,’’ यह कहते हुए उस ने तौलिया रिहाना को देते हुए उस का हाथ पकड़ लिया.

रिहाना ने घबराते हुए कहा, ‘‘क्या कर रहे हो आप? दीदी आ जाएंगी.’’

मोनू ने कुछ नहीं सुना और बोला, ‘‘कितना कमसिन हाथ है,’’ कहते हुए उस ने रिहाना के दोनों हाथ चूम लिए.

रिहाना सिहर उठी और जल्दी से उस ने अपना हाथ अंदर खींच लिया. मोनू सायरा के पास चला गया, जो गहरी नींद में सो रही थी.

कुछ ही देर में रिहाना बाथरूम से बाहर आई और सीधे सायरा के कमरे में पहुंची. मोनू वहीं बैठा था.

मोनू की नजर जैसे ही रिहाना पर पड़ी, उस के होश उड़ गए. रिहाना के गोरे गालों पर पानी की बूंदें ऐसे लग रही थीं मानो मोतियों से उस का चेहरा सजा हो. गीले कपड़ों में उस का गुलाबी बदन ऐसे दिख रहा था मानो कोई हूर जन्नत से उतर कर उस के सामने आ गई हो.

तभी रिहाना ने चुटकी बजा कर अपने जीजा का ध्यान तोड़ा और बोली, ‘‘क्या हुआ? अभी यह हाल है कि अपनी सुधबुध खो बैठे हो, तो गौर करो कि जब कभी मुझे उस हालत में देख लिया, जिस हालत में दीदी को रात को बिस्तर पर देखते हो, तो आप का क्या हाल होगा.’’

मोनू के पास रिहाना के इस सवाल का कोई जवाब न था. वह तो रिहाना का मस्त हुस्न देख कर उस का दीवाना बन बैठा था.

तभी रिहाना ने सायरा को उठाया और कहा, ‘‘दीदी, नाश्ता कर लो. जीजू कब से तुम्हारे उठने का इंतजार कर रहे हैं.’’

सायरा जल्दी से उठी और फ्रैश हुई. इतने में रिहाना नाश्ता ले कर आ गई. उस ने अपनी दीदी को नाश्ता कराया और एक नजर अपने जीजू पर डाली तो देखा कि उस के जीजू किसी खयाल में गुम हैं.

दरअसल, मोनू तो रिहाना के गदराए बदन और उस के हुस्न को पाने का तानाबाना बुन रहा था. रिहाना समझ चुकी थी कि जीजू उस के हुस्न के दीवाने हो गए हैं.

तभी सायरा बोली, ‘‘क्या हुआ? तबीयत तो सही है न? आज काम पर नहीं जाना है क्या? अभी तक नाश्ता लिए ऐसे ही बैठे हो… कोई टैंशन है क्या?’’

मोनू ने हड़बड़ा कर कहा, ‘‘नहीं… औफिस में एक जरूरी काम था, उसे पूरा नहीं किया और मैं भूल गया. सोच रहा हूं कि उसे पूरा कैसे करूं…’’

सायरा बोली, ‘‘ठीक है, अब तुम औफिस जाओ और अपना अधूरा काम पूरा करो.’’

थोड़ी देर में मोनू औफिस चला गया, पर आज उस का मन काम में

नहीं लग रहा था. वह तो अपनी साली रिहाना की याद में गुमसुम हो कर रह गया था.

जल्द ही वह समय भी आ गया, जब सायरा को डिलीवरी के लिए अस्पताल में भरती करना पड़ा. कुछ ही घंटों में सायरा ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया, जिसे पा कर पूरा घर खुश हो गया.

2-3 दिन बाद सायरा और उस की बच्ची अस्पताल से घर वापस आ गईं. रिहाना अब अपनी बहन सायरा के साथ उस के कमरे में ही सोती थी, क्योंकि देर रात किसी चीज की जरूरत होती तो रिहाना ही उसे लाती थी.

रिहाना मौका देख कर अपने मोनू को छेड़ती रहती थी, ‘‘क्या बात है जीजू, रातभर सोए नहीं क्या, जो आंखें लाल हो रही हैं… लगता है कि दीदी के बिना नींद नहीं आई. और आएगी भी कैसे, उन से लिपट कर सोने की जो आदत पड़ी है,’’ कह कर उस ने अंगड़ाई लेते हुए आगे कहा, ‘‘मु?ा से आप का यह दुख देखा नहीं जा रहा है. दिल करता है कि दीदी की कमी को मैं तुम्हारी बांहों में आ कर पूरी कर दूं, ताकि आप को चैन की नींद आ सके.’’

मोनू बोला, ‘‘अगर तुम्हें मेरा इतना ही खयाल है, तो रात को मेरे पास आती क्यों नहीं?’’

रिहाना ने रिझाते हुए कहा, ‘‘आ तो जाऊं, पर डर लगता है कि कहीं मेरे कुंआरे बदन की तपिश से आप जल न जाओ. मेरे बदन की एक झलक से तो आप अपनी सुधबुध ही खो बैठे थे.’’

मोनू ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘तुम बस अपनी दीदी का ही खयाल रखोगी, कुछ खयाल अपने जीजू का भी रख लिया करो. क्यों इस बेचारे को तड़पा रही हो.’’

रिहाना ने कहा, ‘‘तरस तो बहुत आता है आप पर, मगर डर लगता है कि कहीं मुझ कुंआरी को भी मां न बना दो, तब मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक भी नहीं रहूंगी.’’

मोनू ने रिहाना से कहा, ‘‘तुम मुझ पर भरोसा रखो. तुम बिनब्याही मां नहीं बनोगी, मैं इस बात का पूरा खयाल रखूंगा.’’

रिहाना चहक कर बोली, ‘‘तो ठीक है, आप इंतजाम करो. मैं मौका देख कर आज आप का अकेलापन दूर कर दूंगी,’’ कहते हुए वह दूसरे कमरे में चली गई.

रात को मोनू औफिस से आ कर सायरा के कमरे में गया. सायरा और बच्ची सो रही थी.

मोनू अपने कमरे में गया और कपड़े बदलने लगा, तभी रिहाना खाना ले कर उस के कमरे में पहुंच गई और जैसे ही उस की नजर बिना कमीज के मोनू पर पड़ी, तो वह शरमा कर वापस मुड़ी.

तभी मोनू ने उस का हाथ पकड़ लिया और उसे अपनी बांहों में खींचता हुआ बोला, ‘‘हमें कब अपने हुस्न का जलवा दिखाओगी मेरी जान…’’

रिहाना ने मोनू की बांहों से आजाद होते हुए कहा, ‘‘सब्र करो. सब्र का फल मीठा होता है,’’ फिर वह कमरे से बाहर चली गई.

रात का 1 बजा था. सायरा और बच्ची दोनों गहरी नींद में सो रही थीं. रिहाना चुपके से उठी और मोनू के कमरे के पास जा कर? झाकने लगी.

मोनू की आंखों से भी नींद कोसों दूर थी. वह मोबाइल फोन पर ब्लू फिल्म देख रहा था. कान में ईयरफोन लगा था. रिहाना कब उस के कमरे में दाखिल हुई, उसे पता ही नहीं चला.

रिहाना ने भी चुपके से मोनू के मोबाइल पर अपनी नजरें जमा दीं. जैसे ही उस ने स्क्रीन पर सैक्सलीला देखी, उस की हवस भड़कने लगी और वह सिसकियां भरने लगी. करवट बदलते समय मोनू की नजर रिहाना पर पड़ी, तो वह हड़बड़ा कर बैठ गया.

रिहाना हवस भरी नजरों से मोनू को देखने लगी. मोनू ने फौरन रिहाना का हाथ पकड़ा और उसे अपने बिस्तर पर खींचते हुए अपनी बांहों में भर लिया.

रिहाना ने पूछा, ‘‘क्या देख रहे थे?’’

मोनू बोला, ‘‘कुछ नहीं… नींद नहीं आ रही थी, तो टाइमपास कर रहा था.’’

रिहाना ने हंसते हुए कहा, ‘‘बहुत अच्छा टाइमपास कर रहे थे.’’

मोनू ने बिना कुछ जवाब दिए रिहाना के होंठों पर अपने होंठ रख दिए. रिहाना सिहर उठी. मोनू ने उस के होंठों को आजाद करते हुए उस की गरदन पर चुम्मों की बौछार कर दी.

रिहाना बोली, ‘‘क्या इरादा है जनाब का…’’

मोनू ने कहा, ‘‘आज इरादा मत पूछो. मुझे वह सब करने दो, जिस के लिए मैं बेकरार हूं.’’

रिहाना ने कहा, ‘‘मुझे डर लगता है कि कहीं मैं पेट से हो गई तो…?’’

‘‘मैं ने उस का इंतजाम कर लिया है,’’ मोनू ने उसे कंडोम का पैकेट दिखाते हुए कहा.

रिहाना शरमा गई और मोनू के गले लग गई. मोनू भी मचल उठा और वह रिहाना के एकएक कर के सारे कपड़े उतारने लगा.

रिहाना का गोरा और गदराया बदन देख कर मोनू मचल उठा और उस के बदन के हर हिस्से को चूमने और चाटने लगा. मोनू की इस हरकत ने रिहाना को इस कदर तड़पा दिया कि वह अपने होश ही खो बैठी और मोनू को अपने ऊपर खींचने लगी.

मोनू पूरी तरह जोश में भरा हुआ था. उस ने उसे अपनी बांहों में कस कर पकड़ा. रिहाना शुरू में तो तड़प उठी, पर जल्द ही उसे भी मजा आने लगा.

थोड़ी देर में वे दोनों बिस्तर पर निढाल पड़े थे. रिहाना ने एक अलग ही मजा महसूस किया. उस ने मोनू के गाल को चूमते हुए कहा, ‘‘मजा आ गया. आप ने जो सुख मुझे दिया है, उसे मैं कभी नहीं भूल सकती. मैं आप से बहुत प्यार करती हूं, कभी मुझे अपने से दूर मत करना.’’

मोनू बोला, ‘‘मैं भी तुम से बहुत प्यार करता हूं. मुझे छोड़ कर कभी मत जाना.’’

इस के बाद रिहाना चुपचाप अपने कमरे में चली गई और अपनी बहन सायरा के पास जा कर लेट गई, जो अभी तक गहरी नींद में सोई हुई थी.

इस तरह मोनू अपनी घरवाली और साली दोनों के मजे लूट रहा था. सायरा इन सब बातों से अनजान थी. पर यह राज कब तक छिपता.

हर रात की तरह आज भी रिहाना चुपके से मोनू के कमरे में आई. उन

दोनों ने अपनेअपने कपड़े उतारे और कामलीला में मगन हो गए.

तभी सायरा की आंख खुल गई. उसे प्यास लगी थी. रिहाना का कुछ अतापता न था, इसलिए वह खुद उठ कर पानी लेने रसोईघर में चली गई.

रसोईघर से लग कर ही मोनू का वह कमरा था, जहां आजकल वह सो रहा था. सायरा जब दरवाजे के पास से गुजरी तो उस ने कमरे के भीतर से एक अजीब सी आवाज आती हुई सुनी. उस के पैर वहीं थम गए और वह कान लगा कर गौर से सुनने लगी.

रिहाना की सिसकियां सुन कर सायरा दंग रह गई. जैसे ही उस ने दरवाजे पर हाथ लगा कर धकेला, वह खुल गया. अंदर का नजारा देख कर सायरा दंग रह गई. मोनू और रिहाना सैक्स करने में इस तरह मदहोश थे कि उन्हें सायरा के आने का पता ही न चला.

सायरा चीखी, ‘‘तुम दोनों को शर्म नहीं आती.’’

मोनू और रिहाना सायरा की आवाज सुन कर एकदूसरे से अलग होते हुए अपनेअपने कपड़े उठाने लगे.

सायरा मोनू से बोली, ‘‘मुझे धोखा दे कर अपनी साली से नाजायज रिश्ता कायम करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई.

‘‘और रिहाना, तुम तो मेरी बहन थी. अपनी ही बहन के सुहाग के साथ यह सब करने से पहले तुम्हें एक बार भी अपनी बहन का खयाल नहीं आया.

मैं अभी अब्बा को तुम दोनों की यह घिनौनी हरकत बताती हूं.’’

मोनू के पास अपनी सफाई के कोई शब्द नहीं थे. वह चोर की तरह चुप खड़ा रहा.

रिहाना ने कहा, ‘‘मैं इन से प्यार करती हूं और ये भी मुझ से प्यार करते हैं.’’

तभी मोनू भी तपाक से बोला, ‘‘मैं रिहाना से प्यार करता हूं और उस के बिना नहीं रह सकता.’’

सायरा चिल्लाई, ‘‘और मेरा और मेरी बच्ची का क्या?’’

मोनू ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें भी अपने साथ रखूंगा. तुम्हारा पूरा खर्च उठाऊंगा और तुम्हें भी बराबर प्यार दूंगा.’’

सायरा गुस्से से लालपीली होती हुई बोली, ‘‘रखो अपना खर्चा अपने पास. और रही प्यार की बात, अगर तुम मुझ से प्यार करते तो मुझे धोखा दे कर मेरी ही बहन के साथ मुंह काला नहीं करते. प्यार करने वाले अपने प्यार को धोखा नहीं देते. मुझे तुम्हारे साथ एक पल भी नहीं रहना.’’

कुछ देर के बाद सायरा के अब्बू और भाई आ गए और मोनू को बुराभला कहते हुए सायरा और रिहाना को वहां से ले गए.

कुछ दिन बाद सायरा ने मोनू पर केस कर दिया और वह मुकदमे में उलझ कर रह गया.

इस दोहरे प्यार ने मोनू से उस का सबकुछ छीन लिया. उस की इस हरकत से उस की बीवी सायरा, साली रिहाना और वह मासूम बच्ची, जो अभी पैदा ही हुई थी, सब की जिंदगी बरबाद हो कर रह गई.

मेहमान : कर्ज में डूबा मुकेश

बड़ी कड़की के दिन थे. महीने की 20 तारीख आतेआते मुकेश की पगार के रुपए उड़नछू हो गए थे और मुसीबत यह कि पिछले महीने की उधारी भी नहीं निबटी थी. हिसाब साफ होता तो आटा, दाल, चावल, तेल तो उधार मिल ही जाता, सब्जी वगैरह की देखी जाती. बालों में कड़वा तेल ही लगा लिया जाता, चाय काली ही चल जाती, दूध वाला पिछले महीने से ही मुंह फुलाए बैठा है. मुसीबत पर मुसीबत.

मुकेश तो सब बातों से बेखबर लेनदारों के मारे जो सवेरे 8 बजे घर से निकलता तो रात के 11 बजे से पहले आने का नाम ही न लेता. झेलना तो सब शुभा को पड़ता था. कभी टैलीविजन की किस्त, तो कभी लाला के तकाजे.

दूध वाला तो जैसे धरने पर ही बैठ गया था. बड़ी मुश्किल से अगले दिन पर टाला था. वह जातेजाते बड़बड़ा रहा था, ‘‘बड़े रईसजादे बनते हैं. फोकट

का दूध बड़ा अच्छा लगता है. पराया पैसा बाप का पैसा समझते हैं. मुफ्तखोर कहीं के…’’

शुभा आगे न सुन सकी थी. सुबह से ही सोचने लगी थी कि आज दूध वाला जरूर ही आएगा. क्या बहाना बनाया जाएगा? यह सोच कर उस ने बड़ी बेटी सुधा को तैयार किया कि कह देना घर में मेहमान आए हैं, मेहमानों की नजर में तो हमें न गिराइए.’’

यह कह कर सुधा को मुसकराने की हिदायत भी शुभा ने दे दी थी. उस के मोती जैसे दांतों की मुसकान कुछ न कुछ रियायत करवा देगी, शुभा को ऐसा यकीन था. लाला के आने के बारे में उस ने खुद को तसल्ली दी कि उसे तो वह खुद ही टरका देगी.

यह सोचने के साथ ही शुभा ने आईना ले कर अपना चेहरा देखा. बालों की सफेद हो आई लटों को बड़ी होशियारी से काली लटों में दबाया और होंठों पर मुसकान लाने की कोशिश करने लगी. उसे लगा जैसे अभी इस उम्र में भी वह काफी खूबसूरत है और बूढ़े रंडुए लाला के दिल की डोर आसानी से पहली तारीख तक नचा सकती है.

पर दूसरे ही पल शुभा को अपने इस नीच खयाल पर शर्मिंदगी महसूस हुई. देहात के चौधरी, जिन की भैंसें 10-10 लिटर दूध देती हैं, जहां अन्न के भंडार भरे रहते हैं, जिन की बात पर लोग जान देने को तैयार रहते हैं, क्या उन की बेटी को अपनी मुसकान का सौदा कर के रसद का जुगाड़ करना होगा?

शुभा उस घड़ी को कोसने लगी, जब नौकरीपेशा मुकेश के साथ भारी दानदहेज दे कर उस का ब्याह कर बापू ने अपनी समझ में जंग जीत ली थी. शुरू के कुछ सालों तक वह भी खुश रही, पर जब एक के बाद एक 3 बेटियां हो गईं और पगार कम पड़ने लगी, तो उसे बड़ा अटपटा लगा. जिन चीजों को गांव में गैरजरूरी समझा जाता था, यहां उन्हें लेना मजबूरी बन गया.

शुभा एकदम चौंकी. वह कहां बेकार के खयालों में फंस गई थी. जमाना इतना आगे निकल चुका है और वह मुसकरा कर किसी को देख लेने में भी गलती समझती है. अगर किसी की ओर मुसकरा कर देख लेने से तकलीफ दूर होती हो तो इस में क्या हर्ज है? फिर इस के अलावा उस के पास चारा भी क्या है?

मुकेश को तो इन पचड़ों में पड़ना ही नहीं है. वह पड़े भी तो कैसे? सारी तनख्वाह पत्नी को दे कर जो उसी के दिए पैसों से अपना काम चलाए, उस से शुभा शिकवा भी कैसे करे? कोई उपजाऊ नौकरी पर तो वह है नहीं. शुभा के कहने से ही जाने कितनी बार दफ्तर से कर्ज ले चुका है. सब काटछांट के बाद जो पगार बचती है, वह गुजरबसर लायक नहीं रह जाती. अब उसी को कोई रास्ता ढूंढ़ना होगा.

शुभा ने बड़े प्यार से बेटी सुधा को पुचकार कर उस की कंघी कर दी और याद दिलाया कि वह दूधिए के आने पर क्या कहेगी. उस ने यह भी कहा, ‘‘क्या मातमी सूरत बना रखी है. जब देखो, मुंह लटकाए रहती हो? मुसकराते चेहरे का अपना असर होता है. कई बार जो काम सिफारिशें नहीं कर पाती हैं, वह एक मुसकान से हो जाता है.’’

सुधा की समझ में नहीं आ रहा था कि मां क्या कह रही हैं. रोज तो तनिक हंसी पर नाक चढ़ा लेती थीं, आज उसे हंसने की याद दिला रही हैं. वह सोच ही रही थी कि तभी नीचे से दूधिए की आवाज आई, ‘‘है कोई घर में कि सब बाहर गए हैं? जब देखो बाहर… मर्द बाहर जाता है, तो क्या सारा घर उठा कर साथ ले जाता है?’’

दूधिए का भाषण चालू हुआ ही था कि सुधा होंठों पर उंगली रखे अपनी मां को खामोश रहने का इशारा करते हुए आंखों में ही मुसकराती अंदर से आ गई. दूधिए को दरवाजे के अंदर से टका सा जवाब पाने की उम्मीद थी. इस तरह सुधा के आ जाने पर वह कुछ नरम पड़ गया.

दूधिया कुछ कहना चाहता था कि सुधा बोली, ‘‘चाचा, आज मेहमान आए हुए हैं. आप भी चलिए न ऊपर चाय पी लीजिए. खैर यह हुई कि मेहमान सो रहे हैं, नहीं तो हमारी गरदन ही कट जाती शर्म से,’’ उस के चेहरे पर एक शोख मुसकराहट थी.

हालांकि मां ने मुसकराने भर को ही कहा था, दूधिए को ऊपर लाने को नहीं. पर वह हड़बड़ी में कह गई. दूधिया भी मुसकान बिखेरती छरहरी सुधा के साथ ही ऊपर चढ़ आया. जो पड़ोसी झगड़ा सुनने के लिए दरवाजों के बाहर निकल आए थे, वे बड़े निराश हुए.

पंखे की हवा में दूधिया सपनों की दुनिया में तैरने लगा. सुधा और शुभा अपनी कामयाबी पर खुश थीं.

शुभा को आज सुधा पर बहुत दुलार आ रहा था. दूधिए के सामने वाली कुरसी पर बैठ कर वह बोली, ‘‘देख ले बेटी, दूध भी है या चाचा को काली चाय ही पिलाएगी? न हो तो गणेशी की दुकान से दूध ले आ.’’

‘‘नहींनहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है. पतीला दे दीजिए, मैं दूध लिए आता हूं,’’ दूधिया, जो कुछ पल पहले तमतमा रहा था, पालतू जानवर की तरह इशारा समझने लगा था.

नीचे जा कर दूधिया एक खालिस दूध ले आया. शुद्ध दूध वाले डब्बे से. ऐसा दूध तो शुभा को उस ने कभी दिया ही नहीं था.

ज्यादा खालिस दूध की चाय पीते समय शुभा स्वाद से चटखारे ले रही थी. तो सुधा अपनी मां की नजर बचा कर दूधिए की तरफ देख कर मुसकरा देती थी.

दूसरी बच्चियां भी पास ही बैठीं चाय का स्वाद ले रही थीं. अचानक शुभा बोली, ‘‘क्या कहें भैया, आप का पिछला रुपया तो दे नहीं पाए, एक लिटर और चढ़ गया. अब की पगार मिलेगी तो जल्दी निबटा देंगे.

‘‘इस बार तंगी में काली चाय पीतेपीते परेशान हो गए हैं,’’ कहतेकहते वह हंस पड़ी, जैसे काली चाय पीना भी खुशी की बात हो.

‘‘यह लो, आप काली चाय पी रही थीं? हमें क्यों नहीं बताया? हम कोई गैर हैं क्या? रुपयों की आप फिक्र न कीजिए, कल से मैं दूध देने खुद ही आ जाया करूंगा,’’ दूधिया का दिल बीन पर नाचने वाले सांप की तरह झूम रहा था.

दूधिया जाने को उठा तो शुभा ने कहा, ‘‘ऐसी भी क्या जल्दी है? हां, याद आया, तुम्हारा दूध बांटने का समय बीत रहा होगा. जा बेटी, चाचा को नीचे तक छोड़ आ,’’ शुभा ने सुधा की ओर देख कर हौले से मुसकरा कर कहा.

सुधा ने जाते समय दूधिए की तरफ मुसकरा कर देखा और कहा, ‘‘चाचा, कल थोड़ा फुरसत से आना.’’

दूधिया साइकिल पर बैठा तो उसे लगा जैसे उस के पैरों में पंख लग चुके हैं. उस ने 2 बार पीछे मुड़ कर देखा, दरवाजे पर खड़ी सुधा हाथ हिला कर उसे विदा कर रही थी. सुधा के चेहरे पर मुसकान थी, दूधिए के चेहरे पर वहां से जाने का दर्द.

बच्चियां चाय पी कर बहुत खुश थीं. 2-3 दिन में ही बिना दूध की चाय ने जीभ का स्वाद ही छीन लिया था. दूधिए के जाने के बाद उन्होंने रूखी रोटियां भी चाय के साथ शामिल कर लीं. इस से अच्छा रोटी निगलने का साधन घर में था ही नहीं और अब तो रोटियों का जुगाड़ भी बंद होने को था.

शाम का अंधेरा गली में फैलने लगा था और सामने के खंभे में लगा बल्ब फ्यूज हो गया था. शुभा इस अंधेरे में खुश ही थी, क्योंकि लाला अकसर रात 9 बजे के आसपास दुकान बंद कर के ही उस का दरवाजा खटखटाता था.

लाला हैरान रहता था कि 9 बजे भी मुकेश कभी घर पर नहीं मिला. अब वह बिला नागा वसूली के लिए आने लगा था. सोचता, कितने दिन भागोगे बच्चू, दुकानदारी इसलिए तो नहीं है कि सौदा लुटाया जाए.

शुभा उस से कई बार कह चुकी थी कि वे लोग कहीं भागे नहीं जा रहे हैं. वह नया सौदा देता जाए, पुराना और नया हिसाब एकदम चुकता कर दिया जाएगा. लेकिन लाला ने एक नहीं सुनी थी. वह दहाड़ा था, ‘‘जब पुराना हिसाब नहीं चुका सकते, तो नया क्या खाक चुकाओगे?’’

शुभा जानती थी कि लाला अपनी तोंद पर धोती की फेंट सही करता हुआ कुछ देर के बाद आने ही वाला है. पर वह 7 बजे ही आ कर दरवाजा खटखटाने लगा. उस ने सोचा था कि मुकेश 9 बजे तक खापी कर टहलने निकल जाता होगा, इसलिए उस के पहले ही पहुंचना ठीक रहेगा. रुपए न दिए तो ऐसी खरीखरी सुनाऊंगा कि कान बंद कर लेगा बच्चू. ऐसे मौकों पर दरवाजा ही बंद रहता था और ऊपर से कोई बच्ची कह देती थी, ‘‘पिताजी घर में नहीं हैं.’’

तब लाला चीख उठता था, ‘‘पिताजी जाएं जहन्नुम में, मेरा पैसा मुझे अभी चाहिए.’’

पर इस के आगे लाला बेबस हो जाता था, क्योंकि ऊपर से झांकने वाली बच्ची तब तक गायब हो चुकी होती. लिहाजा, वह भुनभुनाता हुआ लौट जाता. लेकिन अब वह इन्हें इतने सस्ते में छोड़ने को तैयार नहीं था.

उधर अब की बार कमान सुधा के बजाय उस की मां ने संभाली. मुसकराने की कोशिश करते हुए वह दरवाजे तक गई, फिर लाला को गुस्से में देख कर बोली, ‘‘सेठजी, मेहमान आए हुए हैं. मेहरबानी कर के कुछ कहिएगा नहीं, इज्जत का सवाल है.’’

मीठी मुसकान के साथ मीठी बोली सुन कर सेठ कुछ नरम पड़ गया.

धोती की फेंट से वह मुंह का पसीना पोंछने लगा. अपनी कंजी आंखों से वह शुभा को घूरता हुआ बोला, ‘‘ठीक है, फिर कब आऊं यही बता दो?’’

‘‘चाहे जब आइए, घर आप का है और अभी जाने की इतनी जल्दी भी क्या है. दुकान के काम से दिनभर के थकेमांदे होंगे. एक प्याला चाय पी लीजिए, फिर जाइएगा,’’ शुभा मुसकराई. उस की आंखों में भी बुलावा था. सेठ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि ऐसे प्यार भरे बुलावे को ठुकरा सकता.

सेठ पंखे के नीचे बैठ गया. जीना चढ़ने से हांफ गया था. उस की तोंद ऊपरनीचे हो रही थी, जिस को काबू में करने की कोशिश में वह दम साध रहा था कि सुधा ने मुसकरा कर पानी का गिलास सामने रख दिया.

एक घूंट में गिलास का पानी गटक कर सेठ कमरे की सजावट देखने लगा. 5 मिनट में चाय हाजिर थी. इस बार शुभा ने सामने की कुरसी पर बैठतेहुए चाय पीना शुरू किया तो पढ़ने का वास्ता दे कर लड़कियां कमरे से बाहर हो गईं.

चाय के साथसाथ शुभा के गुदाज जिस्म पर नजर गड़ा कर बैठे सेठ को लगा कि वह एक अरसे से ऐसे प्यार भरे माहौल के लिए तरस गया है. दिनरात बैल की तरह खटो, फिर भी बहुएं रोटी के साथ जलीकटी बातें परोसने से बाज नहीं आतीं. एक यह है जो कुछ भी नहीं लगती, लेकिन अपनेपन का झरना बहा रही है.

बातों ही बातों में समय की रफ्तार का उसे तब पता चला, जब एक घंटा बीत गया. न चाहते हुए भी सेठ उठ कर बोला, ‘‘अच्छा शुभाजी… अब चलूंगा. तनख्वाह तक रुपए मिल सकें तो ठीक है, न मिल सकें तो ज्यादा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है. फिर देखा जाएगा.’’

‘‘मैं तो चाहती थी कि आप खाना खा कर जाते. देख सुधा, आटे के कनस्तर में कुछ है? न हो तो बाजार से दौड़ कर आटा ले आ. चाचा पहली दफा यहां आए हैं, क्या भूखा भेजेगी?’’ शुभा मुसकरा कर अंगड़ाई लेते हुए बोली.

‘‘क्या आटा तक घर में नहीं है? मैं कोई पराया हूं, जो मुझे नहीं बताया. मैं जानता हूं, महीने के आखिरी दिन ऐसे ही कड़की के होते हैं. खैर, आज तो मैं नहीं खाऊंगा. हां, थोड़ी देर में मेरा नौकर सामान दे जाएगा. जब जरूरत हो, बता दिया करना,’’ कहते हुए लाला उठ खड़ा हुआ.

इस बार सुधा बोली, ‘‘हाय मां, चाचाजी जा रहे हैं. कम से कम दरवाजे तक इन्हें छोड़ तो आइए.’’

शुभा लाला को दरवाजे तक छोड़ने गई. उस ने हंस कर लाला से कहा, ‘‘फिर आइएगा कभी, आज तो आप की कोई सेवा न कर सकी.’’

लाला जातेजाते मुड़ कर देखता गया. शुभा दरवाजे पर खड़ी उसे देख रही थी. लाला की धोती कई बार पैरों में फंसने को हुई.

थोड़ी ही देर में लाला का नौकर आटा, दाल, चावल के साथ रिफांइड तेल और सब्जी भी दे गया था.

मुकेश के आने में अभी देर थी. रसोई में पकवानों की खुशबू बच्चियों के पेट की भूख और बढ़ा रही थी. यह सारा महाभोज उन की नजर में नकारा बाप को और भी नकारा कर गया था, मां का वजन उस की निगाहों में कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था.

सब से छोटी बेटी तो हैरानी से पूछ ही बैठी, ‘‘मां, कहां आज रोटी का जुगाड़ भी नहीं था और कहां इतनी सारी अच्छीअच्छी खाने की चीजें तैयार हो गईं. यह सब कैसे हो गया?’’

‘‘बेटी, सब वक्त की मेहरबानी है. जिस घर में मेहमान आते रहते हैं, उस घर में बरकत रहती है. बड़े अच्छे लोग होते हैं, जिन के घर मेहमान आते हैं,’’ शुभा ने मासूम बच्चियों को समझाया.

दूसरी बच्ची बोली, ‘‘मां, चाय और खानेपीने का सामान देने वाले मेहमानों के अलावा नोट देने वाले, कपड़े देने वाले और सुंदरसुंदर खिलौने देने वाले मेहमान क्या हमारे घर कभी नहीं आएंगे?’’

बच्ची को तसल्ली देते हुए शुभा बोली, ‘‘आएंगे बेटी, नोटों वाले मेहमान भी आएंगे. तुम अपने पिता से कहना कि अपने दोस्तों को भी कभीकभी घर लाया करें. क्या पता, उन्हीं के आने से रुपएपैसे भी मिलने लगें.’’

वैसे, बच्ची के मासूम सवाल पर शुभा का गला भर आया था. फिर आंसू छिपाने के लिए वह खिड़की की तरफ चली गई.

मुकेश के आने में अभी देर थी. दरवाजे के पास एक शराबी मदहोशी में लड़खड़ा रहा था. उस की जेब में नोटों की गड्डी झांक रही थी.

शुभा को लगा, अब बच्ची की चाह पूरी होने को है. उस ने झांक कर गली के दोनों छोरों की ओर देखा. अंधेरे में दूरदूर तक किसी आदमी की परछाईं भी नहीं थी. उस के चेहरे पर दिनभर की कामयाबी को याद कर एक मुसकान छा गई. अब वह जीना उतर कर नीचे जाने को तैयार थी.

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