प्रभावती खुश रहने लगीं. देर से ही, पर सत्यव्रत प्रशांत की सड़ीगली किताबों के ढेर से प्रीत तो कर सके. कभीकभी मन करता कि सत्यव्रत से पूछ लें, ‘लिख दूं प्रशांत को, यहीं आ जाए. कितना सूना लगता है मेरा घर. बच्चों के आने से रौनक हो जाएगी. सुशांत की चिट्ठियां आती हैं तो उन से यही लगता है कि शेर के मुंह खून लग गया है. वह उस पराए देश का गुणगान ही करता रहता है. ऐसा लगता है जैसे वह वहीं बस जाएगा.’
पर कह कहां पातीं. डर लगता कि सत्यव्रत बुरा न मान जाएं. ऐसा न समझें कि वह उन्हें प्रशांत से पराजित करना चाहती है. शायद किसी दिन स्वयं ही कह दें, ‘प्रभा, प्रशांत को बुला लो. वह भी तो हमारा बेटा है. मैं ने उसे बहुत उपेक्षित किया. अब उस का प्रायश्चित्त करूंगा.’
पर सत्यव्रत खुद कभी न बोले. अंदर से कई बार वह उबलतेउफनते प्रशांत से मिलने के लिए उतावले हो उठते पर उसे बुला लेने की बात होंठों पर न लाते.
साल भर तो जैसेतैसे निकला. पर इस के बाद सत्यव्रत के अंदर का तनाव रोग बन कर फूट पड़ा. वह रक्तचाप के साथसाथ दमे की भी गिरफ्त में आ गए.
डाक्टरों ने उन से बहुत अधिक न सोचने, व्यर्थ परेशान न होने की ताकीद कर दी. बारबार प्रभावती को भी हिदायतें मिलीं कि वह अपने पति को व्यस्त रखें और दिमागी तौर पर प्रसन्न रखें. तब प्रभावती स्वयं को रोक न पाईं. वह समझ गईं कि बुढ़ापे के इस अकेलेपन में वह प्रशांत के लिए परेशान हैं. पुत्र को देखनेमिलने के लिए वह तड़प रहे हैं. पर अंदर के संकोच व पिता होने के अभिमान ने उन का मुंह सी रखा है.
तब प्रभावती ने प्रशांत को सब समझा कर पत्र लिख ही दिया. पत्र मिलने में 4-5 दिन लगे होंगे और अब प्रशांत उन की सेवा में वैसे ही उपस्थित हो गया, जैसे आज से पहले कुछ हुआ ही न हो. दमे से खांसते सत्यव्रत से प्रशांत ने उन का हालचाल पूछा तो उन की हालत देखने लायक हो गई. आंखों के दोनों कोर भीग गए. कैसे सिसकी भर कर रो पड़े.
प्रशांत ने उन्हें सहारा दे कर उठाया, ‘‘छि:, पिताजी, रोते नहीं. लीजिए, अपने पोते से मिलिए.’’
सत्यव्रत ने प्रकाश को बड़ी जोर से अपनी छाती से भींच कर आंखें मूंद लीं. थोड़ी देर बाद रजनी ने उन के पैरों का स्पर्श किया तो वह स्वयं को संभाल कर आंखें पोंछने लगे. कुछ मुसकरा कर उसे आशीर्वाद दिया. प्रभावती सत्यव्रत की ओर बढ़ीं और वह प्रकाश को दुलार कर पूछने लगे, ‘‘कौन सी कक्षा में पढ़ते हो?’’
प्रकाश ने हंस कर बताया, ‘‘तीसरी में.’’
‘‘खूब, और क्याक्या करते हो?’’
‘‘मन लगा कर सितार बजाता हूं. मैं बहुत अच्छा सितारवादक बनूंगा, दादाजी.’’
प्रभावती सन्न रह गईं, कहीं सत्यव्रत बिदक न पड़ें. अभी प्रशांत के प्रति जो थोड़ाबहुत पिघलाव शुरू हुआ है वह फिर हिम न हो जाए. ऐसा हुआ तो वह कभी प्रशांत के साथ रहना पसंद नहीं करेंगे. वह कुछ कहतीं, उस से पहले ही प्रशांत ने थोड़ा झेंप कर सफाई दी, ‘‘क्या कहूं, पिताजी, बहुत चाहता हूं कि यह पढ़ाई ज्यादा करे और शौक कम पूरे करे, पर यह मानता ही नहीं. सोचता हूं कि इसे डाक्टर बना कर अपने डाक्टर न होने की आप की शिकायत दूर कर दूंगा.’’
‘‘कोईर् बात नहीं,’’ सत्यव्रत ने सब की इच्छा के विपरीत प्रभावती से कहा, ‘‘तुम तो अच्छा सितार बजाती हो, प्रभा, तुम इस की मदद करना. यह भी प्रशांत की तरह हमारा नाम रोशन करेगा.’’
प्रभावती की आंखें भर आईं. प्रशांत ने चकित हो कर पूछा, ‘‘मगर सितार बजाने भर से यह क्या कर लेगा, पिताजी?’’
सत्यव्रत ने बहुत दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘यह सोचना तुम्हारा काम नहीं है. इस के पंख काट कर इस की उड़ान मत रोको. प्रशांत, जो गलती कल मैं करता रहा, उसे आज तुम मत दोहराओ. मन के सुर जिस प्रकार बजना चाहते हैं उन्हें उसी प्रकार बजने दो. यह मत समझो कि यह डाक्टर- इंजीनियर नहीं बन सका तो इस की उड़ान खत्म हो गई. नहीं बेटे, नहीं. यह सोचना बड़ी भूल है.
‘‘मुझे अफसोस है कि मैं तुम्हारी कला को कोई विकास नहीं दे सका. अगर मैं ने तुम्हारी कोई मदद की होती तो आज तुम वहां होते, जहां 20 साल बाद होगे. हम अपनी इच्छा मनवाने के चक्कर में भूल जाते हैं कि जिसे ऊपर उठना होता है, वह अपना क्षितिज स्वयं ही ढूंढ़ लेता है. तुम्हीं बोलो, सूरज को आकाश में कौन चढ़ाता है? कोई भी तो नहीं. वह खुद ही ऊंचाइयों की तरफ उठता चला जाता है