रोजीरोटी जो न दे वह सरकार निकम्मी है!

गूगल पर बेरोजगारों के फोटो खंगालते हुए बहुत से फोटो दिखे जिन में बेरोजगार प्रदर्शन के समय तख्तियां लिए हुए थे. जिन पर लिखा था, ‘मोदी रोजी दो वरना गद्दी छोड़ो’, ‘शिक्षा मंत्री रोजी दो वरना त्यागपत्र दो’, ‘रोजीरोटी जो न दे वह सरकार निकम्मी है’.

ये नारे दिखने में अच्छे लगते हैं. बेरोजगारों का गुस्सा भी दिखाते हैं पर क्या किसी काम के हैं? रोजगार देना अब सरकारों का काम हो गया. अमेरिका के राष्ट्रपति हों या जापान के प्रधानमंत्री, हर समय बेरोजगारी के आंकड़ों पर उसी तरह नजर रखते हैं जैसे शेयर होल्डर अडाणी के शेयरों के दामों पर. पर न तो यह नजर रखना नौकरियां पैदा करता है और न ही शेयरों के दामों को ऊंचानीचा करता है.

रोजगार पैदा करने के लिए जनता खुद जिम्मेदार है. सरकार तो बस थोड़ा इशारा करती है. सरकार उस ट्रैफिक पुलिसमैन की तरह होती है जो ट्रैफिक को उस दिशा में भेजता है जहां सड़क खाली है. पर ट्रैफिक के घटनेबढ़ने में पुलिसमैन की कोई भी वैल्यू नहीं है. सरकारें भी नौकरियां नहीं दे सकतीं. हां, सरकारें टैक्स इस तरह लगा सकती हैं, नियमकानून बना सकती हैं कि रोजगार पैदा करने का माहौल बने.

हमारे देश में सरकारें इस काम को इस घटिया तरीके से करती हैं कि वे रोजगार देती हैं तो केवल टीचर्स को. हर ऐसे टीचर्स, जो रोजगार पैदा करने लायक स्टूडैंट बना सकें.

ट्रैफिक का उदाहरण लेते हुए कहा जा सकता है कि ट्रैफिक कांस्टेबल को वेतन और रिश्वत का काम दिया जाता है. खराब सड़कें बनाई जाती हैं जिन पर ट्रैफिक धीरेधीरे चले. सड़कों पर कब्जे होने दिए जाते हैं, ताकि सड़कें छोटी हो जाएं और दुकानघरों से वसूली हो सके.

ऐसे ही पढ़ाई में हो रहा है. टीचर्स अपौइंट करने, स्कूल बनवाने, बुक बनवाने, एग्जाम कराने में सरकार आगे पर नौकरी लायक पढ़ाने में कोई नहीं. सरकार जानबू?ा कर माहौल पैदा करती है कि बच्चे पढ़ें ही नहीं, खासतौर पर किसानों, मजदूरों, मेकैनिकों, सफाई करने वालों को तो पढ़ाते ही नहीं हैं. वे सिर्फ मोबाइलों पर फिल्में देखना जानते हैं. ट्रैफिक पुलिसमैन बनी सरकार अपनी जेब भर रही है.

मोदी सरकार अगर इस्तीफा दे देगी तो जो नई सरकार आएगी वह भी उसी ढांचे में ढली होगी, क्योंकि यहां पढ़ाने का मतलब होता है पौराणिक पढ़ाई जिस में पढ़ाने वाला गुरु होता है जो मंत्रों को रटवाता है और उस के बदले दानदक्षिणा, खाना, गाय, औरतें, घर पाना है और गरमियों में पंखों के नीचे और सर्दियों में धूप में सुस्ताना है. कोचिंग में वह सिर्फ पेपर लीक करवा कर पास कराने का ठेका लेता है.

जब असली काम की नौबत आती है, पढ़ालिखा सीरिया और तुर्की के मकानों की तरह भूकंप में ढह जाता है. अब जब भूकंप के लिए रेसेप तैयप एर्दोगन और बशर अल असद जिम्मेदार नहीं तो नरेंद्र मोदी क्यों? इसलिए चुप रहो, शोर न मचाओ.

मसला: दलित नेता, दलितों के दुश्मन

29अगस्त, 2022 को नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो ने जो आंकड़े प्रकाशित किए, उन से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में साल 2021 में 1.02 फीसदी दलितों के खिलाफ जुल्म बढ़ने की रिपोर्टें दर्ज हुईं और मध्य प्रदेश में 6.4 फीसदी रिपोर्टें बढ़ीं. केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले, जो खुद दलित हैं, ने मार्च, 2022 में माना कि भारतीय जनता पार्टी के राज में साल 2018 से साल 2020 में 1,38,825 तो जुल्मों की रिपोर्टें दर्ज हुई थीं.

दिसंबर, 2022 में तमिलनाडु में कोयंबटूर के पास के एक गांव में 102 साल की एक बूढ़ी औरत की लाश को कब्रिस्तान में गाड़ने की इजाजत न देने पर झगड़ा हुआ, पर देशभर में किसी ने कुछ नहीं बोला, जबकि दीपिका पादुकोण की बिकिनी के रंग पर सारा सोशल मीडिया बेर्श्मी से रंगा हुआ है. दलित मौतों पर न रिपोर्ट छपती है, न कोई खबर, पर सोशल मीडिया में हल्ला मचता है.

10 दिसंबर, 2022 को ही कानपुर, उत्तर प्रदेश में एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ कर ठाकुरों के घर के सामने से गुस्साए ठाकुरों ने दलित बरातियों की उन के विवाह स्थल पर जा कर जम कर पिटाई की जो ट्विटर पर वीडियो पर देखी जा सकती है.

इन सब मामलों में हिंदू रक्षावाहिनी वाले तो चुप रहे ही, कांग्रेसी, समाजवादी और सब से बड़ी बात मायावती तक ने मुंह नहीं खोला, क्योंकि ये सब दलितों के वोट चाहते हैं, उन्हें बराबर का दर्जा नहीं दिलाना चाहते. उलटे ये जाति व्यवस्था के ग्रंथों ‘गीता’, ‘मनुस्मृति’ व पुराणों को बारबार याद करते हैं और कहने की कोशिश करते हैं कि उन में जो कहा गया है, वही आज के हिंदू बनाम पौराणिक राज में चलेगा.

दलित नेता क्यों रहे पीछे

साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देशभर में दलित राजनीति चरम पर थी. दलित वोटों को समेटने और गंवा देने की बेचैनी हर तरफ देखी जा रही थी. हर पार्टी, हर नेता को सिर्फ दलित ही दिखाई दे रहा था. खुद प्रधानमंत्री नरेंद मोदी तक प्रयागराज में कुंभ स्नान के दौरान मैला ढोने वालों के पैर अपने हाथों से पखार रहे थे.

दलितों को अपने पाले में रखने की रणनीति के तहत भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ‘जन्म शताब्दी वर्ष’ के कार्यक्रमों में दलितों पर खासतौर पर फोकस किया था. दलितों के बीच लामबंदी तेज करने के लिए भाजपा ने पहली बार हर बूथ पर अनुसूचित मोरचा समिति तक बना डाली थी.

यही नहीं, दलितों की सब से बड़ी नेता कही जाने वाली मायावती ने अपनी दलित राजनीति और जनाधार को बचाए रखने के लिए विधानसभावार कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजित किए थे, जिन में उन्होंने खुद बढ़चढ़ कर भाग लिया था. उन्होंने तब अपने सभी कोऔर्डिनेटरों को उत्तर प्रदेश में दलितों पर हो रहे जोरजुल्म के मामलों की जानकारी नियमित तौर पर प्रदेश हैडक्वार्टर भेजने का भी निर्देश दिया था.

दलितों पर अत्याचार के मामलों में पीडि़त पक्ष को कानूनी मदद मुहैया कराने के निर्देश भी दिए गए थे, मगर 17 जुलाई, 2019 को सोनभद्र में एक बड़ा दलित नरसंहार हो गया और मायावती को वहां जा कर पीडि़तों के जख्मों पर हमदर्दी का फाहा रखने का वक्त नहीं मिला.

दरअसल, उस वक्त के अपने भाई आनंद कुमार की नोएडा में कब्जाई तकरीबन 400 करोड़ रुपए की गैरकानूनी जमीन के मामले में उलझी हुई थीं, जिस पर प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग ने कार्यवाही की थी और उसे अटैच कर लिया था.

उस वक्त मायावती के लिए सोनभद्र में दलितों के नरसंहार का मामला इतना खास नहीं था, जितना उन के भाई आनंद कुमार की बेनामी जायदाद को बचाने का मामला.

मई, 2017 में सहारनपुर में दलितराजपूत हिंसा के बाद एक नए

नेता चंद्रशेखर आजाद रावण ने काफी सुर्खियां बटोरी थीं. कहा जाता है कि उन का बहुजन संगठन छुआछूत, भेदभाव, ऊंचनीच की भावनाओं को मिटा कर बहुजन समाज को उन का हक दिलाने के लिए काम कर रहा है.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान इस संगठन का काफी दबदबा दिख रहा था कि जब आचार संहिता उल्लंघन का आरोप लगा कर पुलिस ने चंद्रशेखर आजाद रावण को गिरफ्तार कर जेल भेजा और वहां से वे अस्पताल में शिफ्ट हुए तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भी उन से मिलने गई थीं.

मगर चुनाव खत्म होते ही भीम आर्मी गायब हो गई. सोनभद्र के नरसंहार पर दलित हितैषी चंद्रशेखर आजाद रावण की चुप्पी भी आज तक हैरान करने वाली है.

गुजरात के वेरावल में दलितों की पिटाई के बाद भड़के दलित आंदोलन का नेतृत्व करने वाले जिग्नेश मेवाणी भी सोनभद्र में 10 दलितों की हत्याओं पर चुप रहे.

जिग्नेश मेवाणी वही नेता हैं, जिन्होंने घोषणा की थी कि अब दलित लोग समाज के लिए गंदा काम यानी मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने, सिर पर मैला ढोने या नालियां या गटर साफ करने जैसा काम नहीं करेंगे.

उन्होंने सरकार से भूमिहीन दलितों को जमीन देने की मांग भी उठाई थी, मगर दलित हित की ये बड़ीबड़ी बातें चुनाव से पहले की हैं. चुनाव खत्म होते ही बातें भी खत्म हो गईं. दलित उसी दशा में हैं, उन्हीं कामों में लगे हुए हैं.

ऐक्टिविस्ट, वकील, नेता और गुजरात विधानसभा में कांग्रेस सीट पर विधायक बने जिग्नेश मेवाणी की दलितों के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट पर दलितों की बेहाली पर कमैंट डाल कर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री समझ ली.

राजग सरकार में राज्यमंत्री रामदास अठावले दलित नेता हैं. महाराष्ट्र का दलित समाज उन पर बड़ा भरोसा करता है, मगर वे सदन में अपनी बेतुकी तुकबंदियों में ही अपनी सारी ऊर्जा बरबाद कर रहे हैं. दलितों की समस्याओं का समाधान उन के बस की बात नहीं है. हां, उन्होंने क्रिकेट में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 25 फीसदी आरक्षण की मांग जरूर रखी थी, जो कभी पूरी होगी, ऐसा लगता नहीं है.

बीकानेर के सांसद अर्जुनराम मेघवाल भी संसद में दलितों के मुद्दे पर बड़े मुखर हो कर बोलते हैं, लेकिन दलित समाज के बीच जा कर उन के दुखदर्द बांटने का मौका उन्हें भी कम ही रहता है. सोनभद्र पर भी उन का कोई बयान सुनाई नहीं पड़ा.

सुशील कुमार शिंदे हों, पीएल पुनिया या अब कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, तीनों ही कांग्रेस के सीनियर दलित नेता हैं. इन की पहचान उच्च शिक्षित, शांत और सादगी रखने वाले नेताओं के तौर पर है, जिस का कोई फायदा दमन और उत्पीड़न से त्रस्त दलित समाज को नहीं मिलता है.

कांग्रेस के यह तीनों दलित नेता व्यक्तिगत रूप से न कभी दलित समाज के बीच उठतेबैठते हैं और न ही इस समाज के दर्द और परेशानियों से उन का कोई वास्ता है. ये चुनाव के दौरान ही सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी वाड्रा के पीछे नजर आते हैं.

पहले उग्र रहे दलित नेता उदित राज भी भाजपा से दुत्कारे जाने के बाद कभीकभी अखबारटीवी में दलित चर्चा कर लेते हैं.

उत्तर प्रदेश के राम नगर के खटीक परिवार में जनमे उदित राज ज्यादातर वक्त अपनी राजनीतिक जमीन खोजने में बिताते हैं. जब वे भाजपा से बाहर थे, तो भाजपा को गरियाते थे, पर फिर उन का दिल बदल गया और भाजपा की गोद में जा कर सांसद बन गए थे, तब उन के सुर भाजपा वाले हो जाते थे.

वहीं 5 बार लोकसभा सांसद और स्पीकर रह चुकी मीरा कुमार से भी दलित समाज को क्या मिला? उपप्रधानमंत्री रह चुके जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार ने साल 1985 में उत्तर प्रदेश के बिजनौर से चुनावी राजनीति में प्रवेश किया था और पहले ही चुनाव में रामविलास पासवान और मायावती को भारी मतों से हराया था.

दलित नेता के रूप में दलित समाज को उन से काफी उम्मीदें थीं, मगर वे कभी अपनों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं. कांग्रेस ने उन का इस्तेमाल ‘दलित हितैषी’ होने का संदेश देने के लिए किया और राष्ट्रपति पद के लिए मीरा कुमार का नाम कांग्रेस की तरफ से प्रस्तावित हुआ.

हालांकि बाद में देश के इस सर्वोच्च पद पर दलित रामनाथ कोविंद बैठे, जो उत्तर प्रदेश की गैरजाटव कोरी जाति से हैं. साल 1991 में भाजपा से जुड़ने के बाद रामनाथ कोविंद 1998-2002 के बीच भाजपा दलित मोरचा के अध्यक्ष रहे. रामनाथ कोविंद के बहाने भाजपा हाशिए पर पड़ी अपनी दलित राजनीति को केंद्र में ले आई.

रामनाथ कोविंद खुद के संघर्षपूर्ण जीवन का जिक्र करने से नहीं चूके और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी राष्ट्रपति पद पर उन की उम्मीदवारी का ऐलान करते वक्त तकरीबन 5 मिनट में 5 बार ‘दलित’ शब्द का जिक्र किया.

रामनाथ कोविंद के कारण भाजपा की दलित वोटों को ले कर रस्साकशी कुछ कम हुई और हिंदुत्ववादी राजनीति को भी नया तेवर मिला. कुछ दलित वोट भाजपा के पाले में खिसका, मगर देश के सर्वोच्च पद पर कोविंद की अहमियत सजावटी ही है, उन के जरीए दलित समाज का कोई उद्धार न हुआ और न होगा. वे भाजपा के हिंदुत्व जागरण के दलित एंबेसेडर बन कर रह गए.

दरअसल, रामनाथ कोविंद की पे्ररणा तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है. संघ और भाजपा ने सिर्फ अपने एजेंडे को लागू करने के लिए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया था, न कि दलितों के किसी फायदे के लिए. इन छद्म दलित नेताओं से दलित समाज का कोई उद्धार होगा, उन्हें इस देश में बराबरी का हक मिलेगा, इस भरम से अब इस तबके को निकल आना चाहिए.

वर्ण व्यवस्था मजबूत कर रहा है संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है. संघ की उत्पत्ति ही इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हुई थी. इसे वह कैसे छोड़ देगा? वह ऐसा हिंदू राष्ट्र चाहता है, जिस में वर्णाश्रम व्यवस्था पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो.

कितनी विरोधाभासी बात है कि यही संघ ‘समरसता’ का नारा देता है, यानी सब के साथ समान बरताव हो, लेकिन मूर्ख से मूर्ख आदमी भी यह सवाल उठाएगा कि जातीय श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुए शोषण, उत्पीड़न को खत्म किए बगैर समरसता कैसे हो सकती है?

दलित समाज को भी इस बात पर चिंतन करना चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहे दलितों के पांव पखारें या संघ दलितों की ओर शंकराचार्य, महामंडलेश्वर और मंदिर का पुजारी बनने का चुग्गा फेंकें, इन प्रलोभनों के पीछे छिपे सच की पड़ताल जरूरी है.

दलित, जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था, वे भारत की कुल आबादी का 16.6 फीसदी हैं. इन्हें अब सरकारी आंकड़ों में अनुसूचित जातियों के नाम से जाना जाता है. साल 1850 से 1936 तक ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार इन्हें दबेकुचले वर्ग के नाम से बुलाती थी.

भारत में आज हिंदू दलितों की कुल आबादी तकरीबन 23 करोड़ है. अगर हम 2 करोड़ दलित ईसाइयों और 10 करोड़ दलित मुसलमानों को भी जोड़ लें, तो भारत में दलितों की कुल आबादी तकरीबन 35 करोड़ बैठती है. ये भारत की कुल आबादी के एकचौथाई से भी ज्यादा हैं.

भेदभाव, दमन, मंदिरों में प्रवेश से रोक और अत्याचारों से तंग दलित समुदाय आज बौद्ध धर्म की ओर खासा खिंचता है. बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा नहीं होती, इसलिए धर्म परिवर्तन के जरीए लाखों दलित बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके हैं.

अब हिंदू राष्ट्र के निर्माण की कल्पना पाले हिंदुत्ववादियों को यह डर सता रहा है कि कहीं बचे हुए 23 करोड़ दलित भी हिंदू धर्म न छोड़ दें. इस से उन की ताकत कम हो जाएगी.

दरअसल, मंदिरों में प्रवेश पर पाबंदी को ले कर अब दलित यह सवाल करने लगा है कि अगर हम भी हिंदू हैं तो फिर अछूत कैसे हैं? हमें मंदिरों में प्रवेश क्यों नहीं मिल सकता है और इसीलिए संघ ने ‘समरसता’ का नारा दे कर इन्हें जोड़े रखने की चाल चली है, इसीलिए एक मंदिर, एक श्मशान की बातें भी हो रही हैं. मगर वर्ण व्यवस्था को खत्म करने की बात कहीं नहीं सुनाई पड़ रही. सवर्ण दलित में रोटीबेटी के संबंध की बात भी नहीं सुनाई देती. जब तक यह नहीं तो समरसता कैसी?

दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी सभाओं के द्वार दलितों के लिए भी खोले. पर दलित वहां बैठने के लिए अपनी दरी अपने साथ लाया. सभा में सभी अपनीअपनी दरियां लाते हैं.

पहली लाइन में बैठने वाले सवर्णों की महीन रेशमी धागों से बुनी सुंदर कलाकृतियों वाली दरियां और आखिरी लाइनों में बैठने वाले निचली जाति के लोगों की मोटे धागेजूट की बनी दरियां. कौन ऊंचा और कौन दलित, यह फर्क दरी देख कर ही नजर आ जाता था, जबकि ‘समरसता’ का मंत्र दिया गया और सब की दरियों का रंग भगवा कर दिया गया है.

लिहाजा, ऊपरी तौर पर फर्क खत्म हो गया है. संघ से जुड़े दलितों की हीनभावना में भी कुछ कमी दिख रही है. सभा संदेश की तरफ उस का भी मन लगने लगा है, मगर दलितों को यह समझने की जरूरत है कि अंदरूनी तौर पर तो फर्क अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है.

रेशमी भगवा दरियां और मोटे जूट की भगवा दरियों में फर्क तो है ही और यह फर्क उस पर बैठने वाले को ही अनुभव होता है यानी भगवा रंग के भीतर वर्ण व्यवस्था ज्यों की त्यों बरकरार है. फर्क वहीं का वहीं है. संघ की इस चालाकी को समझने की जरूरत है.  द्य

पाकिस्तान को तबाह किया धर्म के दुकानदारों ने

पाकिस्तान अब लगभग ढहने लगा है और बड़ी बात है कि इस ढहने में भारत का कोई हाथ नहीं है. पाकिस्तान जो एक समय-अभी 20 साल पहले-भारत से थोड़ा ज्यादा अमीर था, आज कंगाल हो गया है. डौलर के मुकाबले उस का रुपया 250-300 के पास पहुंच गया है और उस के पास न तेल खरीदने के पैसे हैं, न बिजली बनाने लायक कोयला खरीदने के. भारत के दबाव ने नहीं, पाकिस्तान के धर्म के दुकानदारों ने उसे तहसनहस कर दिया है.

पाकिस्तानी अमीर उमराव इस का पैसा ले कर कब के निकल चुके हैं और दूसरे देशों में बस गए हैं जहां उन्हें इसी धर्म की कट्टरता के कारण शक से देखा जाता है. पाकिस्तान ने पश्चिमी देशों में फैली आतंकवादी घटनाओं को अपने यहां पनपने दिया था, यह दुनिया भूली नहीं है और उस का आज सब से करीबी दोस्त चीन भी अब पाकिस्तानी कट्टरता की वजह से नाराज सा चल रहा है.

कट्टरता को हरदम अपनी हथेलियों पर रखने की वजह से पाकिस्तानी जनता पर एक जुनून चढ़ा रहता है. वहां की पसमांदा जनता को लगातार धर्म की अफीम की गोलियां खिलाई जाती हैं, ताकि वे लोग भारत में फैली जाति व्यवस्था से डरे रहें. इसी जाति व्यवस्था की वजह से इन्होंने इसलाम अपनाया था और ईरान, तुर्की, अरब देशों, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान से आए ऊंचे कद के लंबेगोरे, आज पंजाबी बोलने वालों के हवाले अपने को कर दिया था. पर इन्हें मिला क्या?

जहां ऊंची जगहों पर बैठे लोग ऐयाशी की जिंदगी जी रहे हैं, आम पसमांदा मुसलमान गंदीमैली गलियों में बसे हैं और इसलाम का ढोल बजा रहे हैं. उन्हें देश की तरक्की की नहीं, इसलाम के आज बेमतलब हो चुके तौरतरीकों को लकीर का फकीर बन कर पीटने की आदत बन चुकी है.

भारत को इस का बड़ा सबक सीखना चाहिए. हम ने 1947 में धर्म की जगह संविधान, बराबरी, उदारता, धर्म को पीछे रखने का फार्मूला अपनाया और एक बेहद गरीब देश से खासे ठीकठाक पर गरीब लेकिन कंगले देश की तरह बन गए. पिछले 30 सालों में यहां जो लहरें उठाई जा रही हैं, वे हमें पाकिस्तान की राह पर ले जा रही हैं. हमारे यहां रातदिन हिंदूमुसलिम होता रहता है. कभी यूनिफौर्म सिविल कोड की बात होती है, तो कभी नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजन्स की, जिस का निशाना भारत के मुसलमान ही हैं.

मुसलमानों को हिंदू गुंडों को ताकत दे कर बस्तियों में बंद कर दिया गया. गुजरात में 2002 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में नमूना दिखा दिया गया. आज भारत के मुसलमानों को न आजादी से व्यापार करने को मिल रहा है, न अपनी बात कहने का. हिंदू बस्तियों में उन्हें जगह नहीं मिलती. हिंदू कंपनियों में नौकरियां नहीं मिलतीं.

हिंदी के न्यूज चैनल लगातार मुसलिम अपराधियों पर घंटों बरबाद करते रहते हैं और हिंदू गुंडों के कारनामे डिजिटल कारपेटों के नीचे छिपा देते हैं. यह पाकिस्तान की तरह बनने की कोशिश है जिस में मंदिरमठ चलाने वाले शामिल हैं ही, उन्होंने आम हिंदू को भी कायल कर दिया है कि देश की मुसीबतों की वजह इसलाम है. पाकिस्तान ने यही काम कश्मीर का नाम ले कर किया था जिस का खमियाजा आज चौथी पीढ़ी बुरी तरह सह रही है.

हमारे यहां अभी तो दूसरी पीढ़ी ही हिंदू मूर्तियों को फैला रही है पर पाकिस्तान बनने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. इस के निशान दिखने लगे हैं. हिमालय विशाल है पर उस में भी दरारें पड़ती हैं, यह जोशीमठ याद दिला रहा है. भारत को पाकिस्तान या श्रीलंका न बनने दो.

मोहब्बत से नफरत

धर्म के नाम पर प्रेम का गला किस तरह घोंटा जा रहा है, उस का एक एक्जांपल दिल्ली के पास नोएडा में मिला. एक युवती की दोस्ती जिम मालिक से हुई और दोनों में प्रेम पनपने लगा. लड़की की शिकायत है कि उस ने अपना नाम ऐसा बताया जिस से धर्म का पता नहीं चलता था पर वह सच बोल रही है, यह मुश्किल है. जिस से प्रेम होता है उस की बहुत सी बातें पता चल जाती हैं खासतौर पर जब उस के घर तक जाना हो जाए.

अगर युवतियां इतनी अंधी हों कि जिस के फ्लैट में अकेले जा रही हैं, उस का आगापीछा उन्हें नहीं मालूम तो उस से कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए. इस मामले में युवती ने बाद में जबरन धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश और शादी का ?ांसा दे कर रेप करने का चार्ज लगा कर लड़के को गिरफ्तार करा दिया.

पूरा मामला संदेह के घेरे में लगता है. यह तो हो ही सकता है कि जब लड़की के घरवालों को पता चले कि लड़का पैसे वाला जिम मालिक है पर मुसलमान है तो उन्हें बिरादरी से आपत्तियां मिलने लगें. जिस तरह का हिंदूमुसलिम माहौल आज बना दिया गया है, उस से लड़केलड़कियों को चाहे फर्क नहीं पड़ता लेकिन उन दोनों के रिश्तेदारों को अवश्य पड़ता है.

आजकल कानून भी ऐसे बना दिए गए हैं कि हिंदूमुसलिम की शादी, जो सिर्फ स्पैशल मैरिज एक्ट में हो सकती है, में मजिस्ट्रेट ही हजार औब्जैक्शन लगा देता है. लड़केलड़की को कई अवसरों में नो औब्जैक्शन सर्टिफिकेट लाने पड़ेंगे जो बिना परिवार की सहायता से मिलने असंभव हैं.

उत्तर प्रदेश तो हिंदूमुसलिम विवाह पर बहुत ही नाकभौं चढ़ाता है. मुसलिम मौलवी भी इस तरह की शादी नहीं  चाहते क्योंकि वे भी चाहते हैं कि शादी में उन का कमीशन  बना रहे.

नए युवा समाज, परिवार व कानून के दबाव को नहीं ?ोल पाते. दोनों के रिश्तेदारों को धमकियां दी जाने लगती हैं. पुलिस दोनों तरफ के रिश्तेदारों को गिरफ्तार करने की बात करने लगती है. बुलडोजर तो है ही जो शादी के सपनों को एक ही ?ापट्टे में तोड़ सकता है.

प्रेम हिंदूमुसलिम दोनों के धर्मों के ठेकेदारों को नहीं भाता. वे चाहते हैं कि शादियां तो धर्म के बिचौलियों से ही तय हों ताकि जिंदगीभर उन्हें घर से कुछ न कुछ मिलता रहे. स्पैशल मैरिज एक्ट में हुई शादी के बच्चों का कोई धर्म नहीं रह जाता है और यह धर्म को कैसे मंजूर होगा. इसलिए वे प्रेम ही नहीं चाहते और शादी पर धर्मांतरण का शिगूफा छेड़ देते हैं.

दिल्ली : मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी, सियासत के फंदे में दिल्ली की आधी सरकार

अरविंद केजरीवाल की मजबूत दिल्ली सरकार में वित्त, योजना, शिक्षा, भूमि और भवन, जागरूकता, सेवा, श्रम, रोजगार, लोक निर्माण विभाग, कला और संस्कृति और भाषाएं, ऊर्जा, आवास, शहरी विकास, जल, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण, इंडस्ट्रीज, आबकारी, स्वास्थ्य के अलावा कई और मंत्रालय संभालने वाले उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को 26 फरवरी, 2023 को शराब घोटाला मामले में सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया था.

मंत्रालयों के लिहाज से दिल्ली की आधी सरकार चलाने वाले मनीष सिसोदिया को शायद इस बात की भनक पहले से ही लग गई थी, तभी तो सीबीआई दफ्तर रवाना होने से पहले उन्होंने दिल्ली वालों के नाम एक चिट्ठी लिखी थी, जिसे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शेयर किया था.

इस चिट्ठी में मनीष सिसोदिया ने किसी का नाम लिए बगैर कहा था कि ‘ये लोग आज मुझे गिरफ्तार करने वाले हैं. उन्होंने मुझ पर झूठे आरोप लगाए हैं. मुझे यकीन है कि ये सभी मामले अदालत में खारिज हो जाएंगे, लेकिन इस में कुछ समय लग सकता है. हो सकता है मुझे कुछ समय के लिए जेल में रहना पड़े , लेकिन मैं इसे ले कर बिलकुल भी चिंतित नहीं हूं.’

मनीष सिसोदिया का ‘ये लोग’ कहना एक बड़ा इशारा है कि किस तरह देश की केंद्र सरकार दिल्ली में आम आदमी पार्टी को कमजोर करने के लिए सरकारी एजेंसियों का सहारा ले रही है और दिल्ली में शिक्षा की बेहतरी को बड़ा आंदोलन बनाने वाले ‘शरीफ उपमुख्यमंत्री’ पर ही बड़ा वार किया है.

दूसरी ओर आबकारी घोटाला मामले में सीबीआई का आरोप था कि मनीष सिसोदिया के कंप्यूटर से कुछ फाइलें डिलीट कर दी गई थीं. इन्हें फौरैंसिक टीम ने रिट्राइव किया. इन में मनीष सिसोदिया के खिलाफ अहम सबूत मिले.

इस मामले में सीबीआई ने 17 अगस्त, 2022 को मामला दर्ज किया था. सीबीआई ने 6 महीने की जांच और कई ठिकानों पर छापेमारी के बाद मनीष सिसोदिया के खिलाफ यह कार्यवाही की. इस से पहले मनीष सिसोदिया को अक्तूबर, 2022 में भी पूछताछ के लिए बुलाया गया था.

याद रहे कि सीबीआई ने 17 अगस्त, 2022 को नई आबकारी नीति (2021-22) में धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी के आरोप में मनीष सिसोदिया समेत 15 लोगों पर मामला दर्ज किया था. 19 अगस्त, 2022 को सीबीआई ने मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के 3 और सदस्यों के आवास पर छापा मारा था.

मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी से सीबीआई को क्या मिलेगा या मनीष सिसोदिया का आगे क्या होगा, यह तो देरसवेर पता चल ही जाएगा, पर एक बड़ा सवाल यहां यह उठता है कि अब अरविंद केजरीवाल 33 में से 18 महकमे संभालने वाले मनीष सिसोदिया की भरपाई कैसे करेंगे और कौन ऐसा चेहरा होगा जो दिल्ली की आम आदमी पार्टी को मजबूती देगा?

यह सवाल पूछने की सब से बड़ी वजह यह है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास कोई भी महकमा नहीं है. आम आदमी पार्टी के कद्दावर नेता सत्येंद्र जैन पहले से ही जेल में बंद हैं. मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी भी चुन कर ऐसे समय हुई, जब बोर्ड के इम्तिहान शुरू हो गए थे. दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के कामों पर इस गिरफ्तारी का यकीनन असर पड़ेगा.

इतना ही नहीं, पंजाब में जो अलगाववाद का ढिंढोरा पीटा जा रहा है और वहां आम आदमी पार्टी को कमजोर किए जाने की जो कोशिश हो रही है, उसी के साथसाथ राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं और साल 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में भी यह पार्टी जुटी हुई है. पर अब मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी से आम आदमी पार्टी की राह में सियासी दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं.

तो क्या यह समझ लिया जाए कि आगामी चुनावों के मद्देनजर यह केंद्र सरकार द्वारा आम आदमी पार्टी को कमजोर करने की कोई साजिश है? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जिस तरह से अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के बाद पंजाब में अपनी जीत का परचम लहराया है, वह किसी चमत्कार से कम नहीं है.

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के साथसाथ अकाली दल भी इसी मुगालते में था कि पंजाब के लोग अरविंद केजरीवाल पर भरोसा नहीं करेंगे, पर उन सब दलों ने मुंह की खाई और बेशक आम आदमी पार्टी का कोई सियासी विचार या नीतियां नहीं हैं, फिर भी उस ने एक बार को वह कर के दिखा दिया जो उस ने कहा था.

केंद्रीय एजेंसियों का शिकार बन चुके शिव सेना के तेजतर्रार नेता संजय राउत ने इस मसले पर मनीष सिसोदिया का पक्ष लेते हुए कहा, “सिसोदिया पर हुई कार्यवाही बताती है कि केंद्र सरकार विपक्ष का मुंह बंद कराना चाहती है. हम सिसोदियाजी के साथ हैं. महाराष्ट्र हो, झारखंड हो, दिल्ली हो, केंद्र सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल कर विपक्षी नेताओं को जेल भेज रही है या उन्हें समर्पण करने पर मजबूर कर रही है, चाहे वे सिसोदिया हों, नवाब मलिक हों, अनिल देशमुख हों या फिर मैं. क्या भाजपा में सारे संत हैं?” संजय राउत का यह उछलता सवाल भाजपा कैच कर पाएगी या नहीं, यह तो फिलहाल कहा नहीं जा सकता, पर जनता यह सोचने पर जरूर मजबूर होगी कि क्या वाकई भाजपा में सारे संत हैं?

सरकार की नीति: रोजगार एक अहम मुद्दा

गूगल पर बेरोजगारों के फोटो खंगालते हुए बहुत से फोटो दिखे जिन में बेरोजगार प्रदर्शन के समय तखतियां लिए हुए थे जिन पर लिखा था ‘मोदी रोजी दो वरना गद्दी छोड़ो’, ‘शिक्षा मंत्री रोजी दो वरना त्यागपत्र छोड़ो’, ‘रोजीरोटी जो न दे वह सरकार निकम्मी हैं.’

ये नारे दिखने में अच्छे लगते हैं. बेरोजगारों का गुस्सा भी दर्शाते हैं पर क्या किसी काम के हैं. रोजगार देना अब सरकारों का काम हो गया. अमेरिका के राष्ट्रपति हो या जापान के प्रधानमंत्री हर समय बेरोजगारी के आंकड़ों पर उसी तरह नजर रखते हैं जैसे शेयर होल्डर अडानी के शेयरों के दामों पर. पर न तो यह नजर रखना नौकरियां पैदा करती है और न शेयरों के दामों को ऊंचानीचा करती है.

रोजगार पैदा करने के लिए के लिए जनता खुद जिम्मेदार है. सरकार तो बस थोड़ा इशारा करती है. सरकार उस ट्रैफिक पुलिसमैन की तरह होती है जो ट्रैफिक उस दिशा में भेजता है जहां सडक़ खाली है. पर ट्रैफिक के घटतेबढऩे में पुलिसमैन की कोई भी वेल्यू नहीं है. सरकारें भी नौकरियां नहीं दे सकतीं, हां सरकारें टैक्स इस तरह लगा सकती हैं, नियमकानून बना सकती हैं कि रोजगार पैदा करने का माहौल पैदा हो.

हमारे देश में सरकारें इस काम को इस घटिया तरीके से करती हैं कि वे रोजगार देती हैं तो केवल टीचर्स को, हर ऐसे टीचर्स जो रोजगार पैदा करने लायक स्टूडेंट बना सकें.

ट्रैफिक का उदाहरण लेते हुए कहा जा सकता है कि ट्रैफिक कांस्टेबल को वेतन और रिश्वत का काम किया जाता है. खराब सडक़ें बनाई जाती हैं जिन पर ट्रैफिक धीरेधीरे चले, सडक़ों पर कब्जे होने दिए जाते हैं ताकि सडक़ें छोटी हो जाए और दुकानोंघरों से वसूली हो सके.

ऐसे ही पढ़ाई में हो रहा है. टीचर्स एपायंट करना, स्कूल बनवाने, बुक बनवाने, एक्जाम करने में सरकार आगे पर नौकरी लगा पढ़ाने में कोई नहीं. सरकार जानबूझ कर माहौल पैदा करती है कि बच्चे पढ़ें ही नहीं, खासतौर पर किसानों, मजदूरों, मैकेनिकों, सफाई करने वालों को तो पढ़ाते ही नहीं है. वे सिर्फ मोबाइलों पर फिल्में देखना जानते हैं. ट्रैफिक पुलिसमैन बनी सरकार अपनी जेब भर रही है.

मोदी सरकार अगर इस्तीफा दे देगी तो जो नई सरकार आएगी वह भी उसी ढांचे में ढली होगी क्योंकि यहां पढ़ाने का मतलब होता है पौराणिक पढ़ाई जिस में पढ़ाने वाला गुरू होता है जो मंत्रों को रटवाता है और उस के बदले दान, दक्षिणा, खाना, गाय, औरतें, घर पाना है और गॢमयों में पंखों के नीचे और सॢदयों में धूप में सुस्ताना है, कोङ्क्षचग में वह सिर्फ पेपर लीक करवा कर पास कराने का ठेका लेता है.

जब असली काम की नौबत आती है, पढ़ालिखा सीरिया और तुर्की के मकानों की तरह भूकंप में छह जाता है. अब जब भूकंप के लिए…..एरडोगन और इरशाद जिम्मेदार नहीं तो मोदी क्यों. इसलिए चुप रहो, शोर न मचाओ.

गरीब का होता है शिकार, अमीर का नहीं

पूरा देश गांव वालों और गरीबों को कोसता रहता है कि वे जहां चाहे पैंट खोल कर पेशाब कर देते हैं. गनीमत है कि अब अमीरों की पोल खोल रही है. एक शंकर मिश्रा जी बिजनैस क्लास का मंहगा टिकट लेकर न्यूयौर्क से 26 नवंबर को दिल्ली एयर इंडिया की फ्लाइट में आ रहे थे. उन्होंने इतनी पी रखी थी कि उन्हें होश नहीं था कि क्या कर रहे हैं. उन के बराबर बैठी एक महिला को शायद उन्होंने गली की टीकर समझ कर उस पर पैंट खोल कर मूत दिया. ऐसा काम जो अगर गरीब या गांव वाले कर देते तो तुरंत उस की मारपिटाई शुरू हो जाती पर ये ठहरे मिश्रा जी, इन्हें कौन कुछ कहेगा.

जब मामला जनवरी के पहले सप्ताह में शिकायत करने पर सामने आया तो इस महान उच्चकोटि में जन्म लेने वाले, एक विदेशी कंपनी में काम करने वाले की खोज हुई. वरना एयरलाइंस ने इस मामले को रफादफा कर दिया क्योंकि इस से जगदगुरू भारत की और एयर इंडिया कंपनी की बेइज्जती होती.

मामला खुलने के कई दिन बाद तक इस मिश्रा जी को पकड़ा नहीं जा सका. उस के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने दिल्ली में कुछ मामले दर्ज किए हैं पर पक्का है कि गवाहों के अभाव में वह कुछ साल में छूट जाएंगे और देश की दीवारों पर गरीबों के लिए लिखता रहेगा कि यहां पेशाब करना मना है, जुर्म है.

मर्जी से जहां भी पेशाब करना और जहां भी जितना भी मीना शायद यह भी उच्चकोटि में जन्म लेने से मिलने वाले देशों में से एक है. घरों की दीवारों पर कोई भंगी पेशाब तो छोडि़ए थूक भी दे हंगामें खड़े हो जाते हैं पर ऊंचे लोग जो भी चाहे कर ले, उन के लिए अलग कानून हैं. ये अलग कानून किताबों में नहीं लिखे, संविधान में नहीं है पर हर पुलिस वाले के मन में है, हर बेचारी औरत के मन में हैं, पुलिस वालों के मन में हैं और जजों के मन में लिखे हुए हैं.

गरीबों के मकान ढहा दो, गांवों की जमीन सस्ते में सरकार खरीद ले, सरकार किसान से ट्रेक्टर, खाद, डीजल पर जम कर टैक्स ले पर उस की फसल का उसे सही कीमत न दे या ऐसा माहौल बना दे कि प्राइवेट व्यापारी भी न दे. यह मंजूर है.

भारत की गंदगी के लिए ऊंची जातियां ज्यादा जिम्मेदार है क्योंकि जब वे कूड़ा घरों या फैक्ट्रियों से निकालती है तो ङ्क्षचता नहीं करती कि कौन कैसे उन्हें निपटाएगा और उस का हाल क्या होगा. उन ेे लिए तो सफाई वाले दलित, किसान, मजदूर और हर जाति की औरतें एक बराबर है. शंकर मिश्रा को तलब लगी होती तो भी वह किसी पुरुष पर पेशाब नहीं करते. एक प्रौढ़ औरत को उन के छिपीदबी ऊंची भावना ने नीच मान रखा है और उस पर पेशाब कर डाला.

अब देश की सारी दीवारों से यहां पेशाब करना मना है. मिटा देना चाहिए और अगर लगता है तो एयर इंडिया की फ्लाइटों में लगाएं और औरत पैसेंजरों को पेशाब…..मिट दें जैसे कोविड के दिनों में दिया गया था. ऊंची जातियों वाला का राज आज जोरों पर है. ऐसे मामले और कहां हो रहे होंगे पर खबर नहीं बन रहे क्या पता. यह भी तो डेढ़ महीने बाद सामने आया.

जातिवाद के नाम पर हुई जनगणना

ऊंची जातियों, खासतौर पर ब्राह्मणों को एक परेशानी यह रहती है कि हिंदू समाज में चतुर्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली 4 जातियों के लोग कितने मिलते हैं, यह न पता चले. 1872 से जब से अंगरेजों ने जनगणना शुरू की थी, उन्होंने जाति के हिसाब से ही लोगों की गिनती शुरू की थी. उन्होंने तो धर्म को भी बाहर कर दिया था.

1949 में जब कांग्रेस सरकार आई तो वह मोटेतौर पर कट्टर तौर पर ब्राह्मणों की सरकार थी या उन की थी जो ब्राह्मणों के बोल को अपना भाग समझते थे. वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता घोर जातिवादी थे. जवाहर लाल नेहरू ब्राह्मणवादी न होते हुए भी ब्राह्मण लौबी को मना नहीं पाए और भीमराव अंबेडकर की वजह से शैड्यूल कास्ट और शैड्यूल ट्राइबों की गिनती तो हुई पर बाकी ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों व शूद्रों यानी पिछड़ों की जातियों की गिनती नहीं हुई. कांग्रेस ने 1951, 1961, 1971, 1981, 1991, 2001 (वाजपेयी), 2011 में जनगणना में जाति नहीं जोड़ी.

नरेंद्र मोदी की 2021 (जो टल गई) में तो जाति पूछने का सवाल ही नहीं उठता था. इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौंकाने वाला फैसला लिया कि वे अलग से एक माह में बिहार में जातियों के हिसाब से गिनती कराएंगे.

गिनती इसलिए जरूरी है कि पिछड़े जो एक अंदाजे से हिंदू आबादी के 60 फीसदी हैं, सरकारी नौकरियों, पढ़ाई, प्राइवेट नौकरियों में मुश्किल से 10 फीसदी हैं. जनता की 3 फीसदी ऊंची ब्राह्मण जातियों ने सरकारी रुतबे वाले ओहदों में से 60-70 फीसदी पर कब्जा कर रखा है. प्राइवेट सैक्टर का 60-70 फीसदी 3 फीसदी बनियों के पास है. 60-70 फीसदी पिछड़ों और 20 फीसदी शैड्यूल कास्टों के पास निचले मजदूरी, किसानी, घरों में नौकरी करने, सेना में सिपाही बनने, पुलिस में कांस्टेबल, सफाई, ढुलाई, मेकैनिक बनने जैसे काम हैं. उन्हें शराब व धर्म का नशा बहकाता है और इसी के बल पर पहले कांग्रेस ने राज किया और अब भाजपा कर रही है.

पढ़ाई के दरवाजे खोलने और सरकारी रुतबों वाली नौकरियां देने के लिए रिजर्वेशन एक अच्छा और अकेला तरीका है और सही रिजर्वेशन तभी दिया जा सकता है जब पता रहे कि कौन कितने हैं. जाति की गिनती का काम इसलिए जरूरी है कि देश के पंडों ने ही हिंदुओं को जातियों में बांट रखा है और अब थोड़ी मुट्ठीभर सस्ती पढ़ाई की सीटें या रुतबे वाली कुरसियां हाथ से निकल रही हैं तो वे ‘जाति नहीं’ है का हल्ला मचा रहे हैं.

आज किसी युवक या युवती का शादी के लिए बायोडाटा देख लो. उस में जाति, उपजाति, गौत्र सब होगा. क्यों? अगर जाति गायब हो गई है तो लोग क्यों एक ही जाति में शादी करें. अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शादियां आपस में कर लें तो इसे अंतर्जातीय शादियां नहीं कहा जा सकता. समाज ब्राह्मण युवती के साथ जाट युवक और क्षत्रिय युवक के साथ शैड्यूल कास्ट युवती की शादी को जब तक आम बात न मान ले तब तक देश में जाति मौजूद है, माना जाएगा.

रिजर्वेशन के लिए जाति गणना जरूरी है पर यह सामाजिक बुराई दूर करने की गारंटी नहीं है. लोगों के दफ्तरों में जाति गुट बना लिए. छात्रों ने स्कूलों और कालेजों में बना लिए हैं. नीतीश कुमार के पास इस मर्ज की कोई वैक्सीन है क्या? रिजर्वेशन सरकारी शिक्षा की सीटें और पावर की सीटों पर छोटा सा हिस्सा देने के लिए ऐसा ही है जैसे कोविड के लिए डोलो, पैरासीटामोल (क्रोसीन) लेना, इस से ज्यादा नहीं. यह बीमारी से नहीं लड़ने की ताकत देती है, बीमार को राहत देती है. पर जब तक वैक्सीन न बने, यही सही.

 

आदिवासी आरक्षण: सवालों की सूली पर

होना तो यह चाहिए था कि आदिवासी समुदाय की होने के नाते छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके नए विधेयक का स्वागत करते हुए न केवल उस पर दस्तखत कर अपनी मंजूरी देतीं, बल्कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का शुक्रिया भी अदा करतीं, जो उन्होंने गैरआदिवासी होते हुए भी आदिवासियों के भले की पहल की, लेकिन हुआ उलटा.
राज्यपाल महोदया ने विधेयक को सवालों की सूली पर लटका कर जता दिया कि उन्हें अपने समाज के लोगों की बदहाली से ज्यादा भगवा गैंग के उन उसूलों की फिक्र है, जिन के तहत आदिवासियों को पिछड़ा और बदहाल बनाए रखने की साजिश सदियों से रची जाती रही है.
राजनीति में दिलचस्पी और दखल रखने वालों को बेहतर याद होगा कि ये वही अनुसुइया उइके हैं, जिन का नाम राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू से पहले और ज्यादा चला था, क्योंकि उन के पास अनुभव ज्यादा है और वे खासी पढ़ीलिखी भी हैं.
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के तामिया के कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर की नौकरी करते हुए वे समाजसेवा के कामों में भी हिस्सा लेने लगी थीं और आदिवासी हितों खासतौर से औरतों के मुद्दे जोरशोर से उठाया करती थीं.
अब से तकरीबन 35 साल पहले मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी मर्द तो कई थे, लेकिन औरतों का टोटा था. तब छिंदवाडा के सांसद कमलनाथ की नजर तेजतर्रार बौयकट बाल रखने वाली अनुसुइया उइके पर पड़ी और वे उन्हें सक्रिय राजनीति में ले आए. आदिवासियों ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया और साल 1985 में दमुआ विधानसभा से उन्हें कांग्रेस के टिकट से जिता कर विधानसभा भेजा.
बाद में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया. उस वक्त में धाकड़ आदिवासी नेता जमुना देवी के बाद अनुसुइया उइके दूसरी नेत्री थीं, जिन से आदिवासियों ने कई उम्मीदें बांध ली थीं.
ये उम्मीदें तब टूटी थीं, जब अनुसुइया उइके कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गई थीं और उन्होंने आदिवासियों के हक का राग अलापना बंद कर दिया था. साल 2019 में छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बना कर भाजपा ने उन्हें उन की वफादारी का इनाम दे दिया था. राष्ट्रपति पद की दौड़ में वे केवल इसलिए पिछड़ गई थीं, क्योंकि उन पर कांग्रेसी होने का ठप्पा लगा था.
आदिवासी समाज के भले का विधेयक पिछले साल दिसंबर की
2 तारीख को विधानसभा में छत्तीसगढ़ लोक सेवा संशोधन विधेयक 2022 सभी दलों की रजामंदी से पास किया था, जिस में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण के इंतजाम नए सिरे से किए गए थे, जिस के तहत अनुसूचित जनजाति यानी एसटी को 32 फीसदी, अनुसूचित जाति यानी एससी को 13 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था.
आर्थिक तौर पर कमजोर यानी गरीबों के लिए भी 4 फीसदी आरक्षण के इंतजाम इस में किए गए हैं. इस तरह कुल आरक्षण 76 फीसदी हो गया. इस व्यवस्था को और सरल तरीके से समझें, तो अगर किसी भी सरकारी नौकरी की 100 पोस्ट निकलती हैं, तो उन में आदिवासियों के 32, दलितों के 13 ओबीसी के 27 और गरीब तबके के 4 उम्मीदवार नौकरी से लग जाते, बाकी 24 नियुक्तियां सामान्य वर्ग के यानी सवर्ण तबके के खाते में जातीं.
इसे आरक्षण का एक आदर्श मौडल हर लिहाज से कहा जा सकता है, क्योंकि राज्य में कुल आबादी का तकरीबन
32 फीसदी आदिवासी और 42 फीसदी पिछड़े हैं, जो हर लिहाज से बेहतर हालत में हैं. इतना ही नहीं 12 फीसदी दलितों को भी उम्मीद और जरूरत के मुताबिक आरक्षण मिल गया है.
तो फिर अडं़गा क्यों
इस विधेयक के पास होते ही कांग्रेसियों ने कुदरती तौर पर जश्न मनाया और आतिशबाजी चलाई, लेकिन जैसे ही कुछ सीनियर मंत्री राज्यपाल के पास विधेयक ले कर पहुंचे तो बात बिगड़ गई, जबकि हर कोई उम्मीद कर रहा था कि अनुसुइया उइके तुरंत दस्तखत कर देंगी, लेकिन ऐसा उन्होंने किया नहीं, उलटे राज्य सरकार से दस सवाल पूछ डाले, जिन का मजमून यह था कि आरक्षण देने के पहले उस ने जातिगत आंकड़ों का सर्वे किया है या नहीं और क्या 50 फीसदी से ज्यादा रिजर्वेशन दिया जा सकता है. उन्होंने कानून के जानकारों से मशवरा लेने की बात कहते हुए भी जोश से भरे मंत्रियों को टरका दिया.
इस से आदिवासी युवाओं की उम्मीदों को झटका लगा, क्योंकि सरकारी नौकरियां उन के हाथ में आने से पहले ही खिसकती नजर आ रही थीं. इधर मौका देख कर भूपेश बघेल और कांग्रेसियों ने अनुसुइया उइके पर चढ़ाई कर दी. देखते ही देखते विधेयक अधर में लटक गया. हैरत तो तब और हुई, जब दस बेकार से सवालों के जवाब भी सरकार ने दे दिए, लेकिन राज्यपाल टस से मस नहीं हुईं.
तूल पकड़ते इस मामले पर सियासत उस वक्त और गरमा गई, जब अनुसुइया उइके दिल्ली जा कर अपने आकाओं से इस मसले को ले कर मिलीं, पर किसी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या गृह मंत्री ने आदिवासियों से हमदर्दी नहीं दिखाई. अगर दिखाई होती तो तय है कि वे तुरंत दस्तखत कर विधेयक राज्य सरकार को दे देतीं और यह कानून की शक्ल में लागू हो जाता.
देरी का नुकसान यह हुआ कि बेमतलब के मुद्दे खड़े होने लगे, मसलन यह कि रोस्टर कैसा रहेगा? जिन 16 जिलों में पिछड़ों की तादाद ज्यादा है वहां नौकरियां कैसे दी जाएंगी?
मौका देख कर भाजपाई भी मैदान में यह कहते हुए कूद पड़े कि पिछड़ों को ज्यादा आरक्षण दिया जाना चाहिए, क्योंकि उन की आबादी ज्यादा है. लेकिन अब तक यह हवा भी आंधी बन कर फिजांओं में धमक देने लगी थी कि राज्यपाल भाजपा के इशारे पर नाच रही हैं, जो आदिवासियों के भले की तरफ पीठ कर सोती हैं, इसलिए तरहतरह के अड़ंगे डाल रही हैं. रही बात पिछड़ों की, तो उन का आरक्षण भी भूपेश बघेल सरकार ने बढ़ाया ही है, इसलिए भाजपा के बहकावे में वे नहीं आएं.
रिमोट कंट्रोल हैं राज्यपाल
अनुसुइया उइके पर भाजपा के इशारे पर नाचने का इलजाम कांग्रेसी तो लगाते ही रहे, लेकिन खुल कर बात कही भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता लौटन राम निषाद ने कि अनुसुइया उइके अगर आदिवासी न होतीं, तो भाजपा के दफ्तर में झाड़ू लगा रही होतीं.
उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा और संघ का जन्म ही सामाजिक न्याय, संविधान व लोकतंत्र के विरोध में हुआ है. इन्होंने मंडल कमीशन का भी विरोध किया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लोटन राम निषाद ने यह कहते हुए निशाना साधा कि वे पिछड़ों का शिकार करने के लिए संघ का चारा हैं.
बात सही है, क्योंकि भगवा गैंग का पूरा ध्यान सवर्णों और उन में भी ब्राह्मणों की तरफ ज्यादा है. मंदिरों और पूजापाठ पर बेतहाशा पैसा फूंका जा रहा है. राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदू राष्ट्र बनाया जा रहा है, जिस से दलित, पिछड़े और आदिवासी पिछड़ रहे हैं. दिनरात हिंदूमुसलिम का राग अलापा जाना भी किसी सुबूत का मुहताज नहीं.
ऐसे बिगड़ते माहौल में आदिवासियों को अगर आरक्षण मिल रहा था, तो भगवा गैंग को यह नागवार गुजरा और उस ने राज्यपाल के जरीए उस में भी टांग फंसा दी.
फायदे में कांग्रेस
इस साल छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं. लिहाजा, यह विधेयक बड़ा मुद्दा बन गया है, जिस का पूरा फायदा कांग्रेस उठाएगी. पिछड़ों का समर्थन और साथ तो उसे मिला ही हुआ है, अब आदिवासी भी उस के खेमे में पूरी तरह आ सकते हैं. सधे और मंझे हुए खिलाड़ी की तरह भूपेश बघेल ने अपनी चाल चल दी है, जिस में भाजपा फंस भी गई है.
अगर अनुसुइया उइके दिल्ली की तरफ नहीं ताकतीं, तो कांग्रेस को कोई खास फायदा नहीं होता. कांग्रेस की मंशा बहुत साफ है कि अगर आदिवासियों और पिछड़ों के आधे से कुछ ज्यादा वोट भी उसे मिल जाएं, तो दूसरी बार सत्ता में आने से उसे कोई रोक नहीं सकता.
10 साल सत्ता में रहने के बाद भी भाजपा ने इन तबकों के भले के लिए ऐसा कुछ किया नहीं, जिस के दम पर वोट मांगे जा सकें, इसीलिए साल 2018 के चुनाव में रमन सिंह सरकार औंधे मुंह गिरी थी. तब कांग्रेस को 90 में से
68 सीटें मिली थीं और भाजपा महज
15 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. इस नतीजे से साबित यह भी हुआ था कि अकेले सवर्णों के बूते भाजपा सत्ता हासिल नहीं कर सकती.
नुकसान में आदिवासी
ऐसा नहीं है कि यह बात अकेले छत्तीसगढ़ में सिमट कर रह गई है, बल्कि उस से सटे मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र और ओडिशा के आदिवासियों में भी गलत मैसेज गया है कि भाजपा नहीं चाहती कि आदिवासी पढ़ेंलिखें, सरकारी नौकरियों में ज्यादा आएं, गैरतमंद और पैसे वाले बनें. उस की नजर में तो यह हक केवल ऊंची जाति वालों का ही है, जिन की तूती मोदी राज में देशभर में बोल रही है.
किसी को इस बात से भी मतलब नहीं कि तकरीबन 90 फीसदी आदिवासी नौजवान बेरोजगार घूम रहे हैं और पेट पालने के लिए दूसरे शहरों में जा कर मेहनतमजदूरी और दूसरी छोटमोटी नौकरियां करने पर मजबूर हैं.
इस हकीकत से भी कोई वास्ता नहीं रखना चाहता कि 50 फीसदी से भी ज्यादा आदिवासी बच्चे मिडिल के बाद स्कूली पढ़ाई छोड़ देने पर मजबूर रहते हैं, क्योंकि घरखर्च चलाने के लिए उन्हें कमाने के लिए दुनिया के बाजार में उतरना पड़ता है. अब यही बच्चे अगर ग्रेजुएशन कर पाएं, तो अच्छी सरकारी नौकरी, जो आरक्षण से ही मुमकिन
है, हासिल कर गैरत की जिंदगी जी
सकते हैं.
कहने का मतलब यह नहीं कि एक विधेयक से रातोंरात उन की बदहाली दूर हो जाएगी, लेकिन कुछ न होने से कुछ होना बेहतर तो होता है.

लोगों के लिए शादियां बनी जुआ

शादियां अब हर तरह के लोगों के लिए एक जुआ बन गई हैं जिस में सबकुछ लुट जाए तो भी बड़ी बात नहीं. राजस्थान की एक औरत ने साल 2015 में कोर्ट मैरिज की पर शादी के बाद बीवी मर्द से मांग करने लगी कि वह अपनी जमीन उस के नाम कर दे वरना उसे अंजाम भुगतने पड़ेंगे. शादी के 8 दिन बाद ही वह लापता हो गई पर उस से मिलतीजुलती एक लाश दूर किसी शहर में मिली जिसे लावारिस सम?ा कर जला दिया.

औरत के लापता होने के 6 माह बाद औरत के पिता ने पुलिस में शिकायत की कि उस के मर्द ने उन की बेटी की एक और जने के साथ मिल कर हत्या कर दी है. दूर थाने की पुलिस ने पिता को जलाई गई लाश के कपड़े दिखाए तो पिता ने कहा कि ये उन की बेटी के हैं. मर्द और उस के एक साथी को जेल में ठूंस दिया गया. 7 साल तक मर्द जेलों में आताजाता रहा. कभी पैरोल मिलतीकभी जमानत होती.

अब 7 साल बाद वह औरत किसी दूसरे शहर में मिली और पक्की शिनाख्त हुई तो औरत को पूरी साजिश रचने के जुर्म में पकड़ लिया गया है. आज जब सरकार हल्ला मचा रही है कि यूनिफौर्म सिविल कोड लाओक्योंकि आज इसलाम धर्म के कानून औरतों के खिलाफ हैं. असलियत यह है कि हिंदू मर्दों और औरतों दोनों के लिए हिंदू कानून ही अब आफत बने हुए हैं. अब गांवगांव में मियांबीवी के ?ागड़े में बीवी पुलिस को बुला लेती है और बीवी के रिश्तेदार आंसू निकालते छातियां पीटते नजर आते हैं तो मर्दों को गिरफ्तार करना ही पड़ता है.

शादी हिंदू औरतों के लिए ही नहींमर्दों के लिए भी आफत है. जो सीधी औरतें और गुनाह करना नहीं जानतीं वे मर्द के जुल्म सहने को मजबूर हैं पर मर्द को छोड़ नहीं सकतींक्योंकि हिंदुओं का तलाक कानून ऐसा है कि अगर दोनों में से एक भी चाहे तो बरसों तलाक न होगा. हिंदू कानूनों में छोड़ी गई औरतों को कुछ पैसा तो मिल सकता है पर उन को न समाज में इज्जत मिलती हैन दूसरी शादी आसानी से होती है.

चूंकि तलाक मुश्किल से मिलता है और चूंकि औरतें तलाक के समय मोटी रकम वसूल कर सकती हैंकोई भी नया जना किसी भी कीमत पर तलाकशुदा से शादी करने को तैयार नहीं होता. सरकार को हिंदूमुसलिम करने के लिए यूनिफौर्म सिविल कोड की पड़ी हैजबकि जरूरत है ऐसे कानून की जिस में शादी एक सिविल सम?ौता होउस में क्रिमिनल पुलिस वाले न आएं.

जब औरतें शातिर हो सकती हैंअपने प्रेमियों के साथ मिल कर पति की हत्या कर सकती हैंनकली शादी कर के रुपयापैसा ले कर भाग सकती हैंन निभाने पर पति की जान को आफत बना सकती हैं तो सम?ा जा सकता है कि देश का कानून खराब है और यूनिफौर्म सिविल कोड बने या न बने हिंदू विवाह कानून तो बदला जाना चाहिए जिस में किसी जोरजबरदस्ती की गुंजाइश न हो. यदि लोग अपनी बीवियों के फैलाए जालों में फंसते रहेंगे और औरतें मर्दों से मार खाती रहेंगी तो पक्का है कि समाज खुश नहीं रहेगा और यह लावा कहीं और फूटेगा.     

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