सत्यपाल मलिक का सच और सीबीआई

कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के प्रिय पात्र रहे सतपाल मलिक अपने कड़वे बोलों के कारण संभवत नरेंद्र मोदी की आंखों की किरकिरी बन गए हैं. यही कारण है कि एक बहुचर्चित न्यूज पोर्टल में साक्षात्कार के बाद केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने बतौर मेहमान उन्हें बुला भेजा है. मजे की बात यह है कि सत्यपाल मलिक ने सीबीआई इस निमंत्रण को अपने ट्विटर हैंडल पर बड़ी गर्मजोशी के साथ शेयर करते हुए फिर कुछ  कड़वा बोल दिया है जिसके कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी और भारतीय जनता पार्टी अब उनके सीधे निशाने पर है.

जैसा कि अब यह बात सभी जानते हैं की केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो हो या फिर प्रवर्तन निदेशालय अर्थात ईडी के दुरपयोग के आरोप केंद्र सरकार पर कुछ ज्यादा ही लगने लगे हैं ऐसे में सत्य पाल मलिक की छवि कुछ इस तरह की है कि सीबीआई द्वारा उन्हें भ्रष्टाचार के एक मामले में बुलाने की खबर की प्रतिक्रिया नरेंद्र मोदी के लिए सकारात्मक नहीं की जा सकती. आज देश के आम आवाम के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता और नेता भी यह सोचने लगे हैं कि देश में यह कैसी उल्टी गंगा बहा रही है और नरेंद्र दामोदरदास मोदी पर उंगलियां उठने लगी है. आज हम पाठकों के लिए सत्यपाल मलिक के बरक्स कुछ ऐसी जानकारियां लेकर आए हैं जिन्हें पढ़ समझकर आप स्वयं निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि आखिर देश में क्या चल रहा है.

दरअसल, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने जम्मू- कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक को केंद्र शासित प्रदेश में हुए कथित बीमा घोटाले के सिलसिले में कुछ सवालों के जवाब मांगे हैं.सात महीने में यह दूसरी दफा है, जब सत्यपाल मलिक से सीबीआई पूछताछ करेगी. बिहार, जम्मू-कश्मीर, गोवा और मेघालय के राज्यपाल के रूप में जिम्मेदारियां समाप्त होने के बाद पिछले साल अक्तूबर में मलिक से पूछताछ की गई थी . सीबीआइ की ताजा कार्रवाई ‘द वायर’ को मलिक द्वारा दिए गए साक्षात्कार के महज एक सप्ताह बाद केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो का नोटिस मिल गया है.

दूसरी तरफ जैसा कि सत्यपाल मलिक का स्वभाव है उन्होंने  कहा है कि मैंने सच सच बोल दिया है, हो सकता है, इसलिए मुझे बुलाया गया हो. मैं तो किसान का बेटा हूं, मैं घबराऊंगा नहीं, सीबीआइ ने सरकारी कर्मचारियों के लिए  सामूहिक चिकित्सा बीमा योजना के ठेके देने और जम्मू-कश्मीर में कीरू जलविद्युत परियोजन से जुड़े 2,200 करोड़ रुपए के निर्माण कार्य भ्रष्टाचार के सत्यपाल मलिक के आरोपों के संबंध में प्राथमिकी दर्ज की थीं. इधर  सत्यपाल मलिक ने दावा किया कि उन्हें 23 अगस्त, 2018 से 30 अक्तूबर 2019 के बीच जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने रूप में कार्यकाल के दौरान दो फाइलों को मंजू देने के लिए 300 करोड़ रुपए की रिश्वत की पेशकश की गई थी. पाठकों को बता दें कि दूसरी प्राथमिकी की जलविद्युत परियोजना के सिविल कामकाज ठेके देने में कथित अनियमितताओं से जुड़ी है. सत्यपाल मलिक ने हाल ही में एक विवादास्पद साक्षात्कार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीत केंद्र सरकार पर निशाना साधा था और विशेष रूप से जम्मू कश्मीर में शासन चलाने के तरीके को लेकर उसकी आलोचना की थी.

मलिक के कथन से  उल्टा संदेश               

सीबीआइ के पूछताछ के लिए बुलाने संबंधी घटनाक्रम पर कभी मोदी के खास खास रहे सत्यपाल मलिक ने कहा कि सीबीआइ ने ‘कुछ स्पष्टीकरण’ के लिए अपने अकबर रोड स्थित गेस्ट हाउस में उपस्थित होने को कहा है.  सत्यपाल मलिक ने कहा है कि मैं राजस्थान जा रहा हूं, इसलिए मैंने उन्हें 27 से 29 अप्रैल की तारीख दी है.’ उन्होंने ट्वीट किया कि वह सच के साथ खड़े हैं. मलिक ने ‘हैशटैग सीबीआइ के साथ ट्वीट किया, ‘मैंने सच बोलकर कुछ लोगों के पाप उजागर किए हैं. कुल मिलाकर के जहां एक तरफ दिल्ली में शासन कर रही आप पार्टी के अरविंद केजरीवाल सहित उसके कई नेताओं पर सीबीआई और ईडी की गाज को हमने देखा है दूसरी तरफ बिहार में लालू परिवार भी सीबीआई और ईडी से घिरा हुआ है. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार के कई चेहरे इनकी जद में है. यह कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से हटकर अन्य सभी पार्टियों के ऊपर एक तरह से सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय ने दबिश दे रही है. इन सबके बीच सत्यपाल मलिक एक ऐसा चेहरा है जो अपने कार्य शैली के कारण देशभर में जाने जाते हैं उन्होंने अपनी बेबाक टिप्पणियों से लोकतंत्र को सींचने का काम किया है, ऐसी शख्सियत पर सीबीआई का फंदा सुर्खियां बटोर रहा है. देखना यह होगा कि आगे चलकर सत्यपाल मलिक खामोश हो जाते हैं या फिर और भी ज्यादा बेबाकी से अपनी बात को देश के सामने रखते हैं.

मोनिका की दास्तां

जब औरत अपने प्रेमी से मिलना चाहे तो वह हर बाधा को पार कर सकता है. दिल्ली की मोनिका की 2016 में शाद हुई पर वह पति के सामने प्रेमी के साथ फोन पर बात करती रही और उस के मना करने पर मिलती भी रही. उस के सासससुर का मकान भागीरथी विहार में था और शायद बहू के कारनामों से तंग आ कर परचून की दुकान चलाने वाले ससुर ने मकान बेचना चाहा. मोनिका मकान के मिलने वाले 1 करोड़ रुपए हथियाना चाहती थी और चूंकि ससुर उस से डरते नहीं थे उस ने उन का सफाया करना था.

मोनिका के वाउंसर प्रेमिका ने एक शातिर अपराधी को पकड़ा और दोनों की सहायाता से सासससुर दोनों की हत्या कारवा दी. पति तो प्रेमी से डरता था इसलिए उस को बाद में काबू करना मुश्किल नहीं था. पर जैसा अपराधों के मामलों में होता है, अपराधी फूल प्रूफ प्लान नहीं बना पाते. ज्यादातर अपराधी बेहद कम पढ़ेलिखे होते हैं और उन्हें अपराध पकड़े कैसे जाते हैं, इस की जानकारी कम होती है और बहुत से फ्लू छोड़ते चले जाते हैं.

महीनों की तैयारी के बाद मोनिका ने जो हत्या की उसे पुलिस ने 10 घंटे में सुलटा दिया  जबकि मामला कोई हाई प्रोफाइल नहीं था. मोनिका के सासससुर तो गए ही, वह खुद जेल में न कितने साल रहेगी और पति खुद इधरउधर भटकता रहेगा. जिन प्रेमियों ने प्रेमिका की खातिर जोखिम लिया. वे भी जेलों में सड़ेंगे अगर उन के रिश्तेदार होंगे तो उन्हें वकील मिलेगा क्या एक तरफा फैसले में जेल से जेल जाना होगा.

अपराधी आमतौर पर फंसते इसलिए हैं कि वे सोचते हैं कि पकड़े नहीं जाएंगे जबकि हर ऐसा अपराध जिस में थोड़ा बहुत प्लान किया हो, आसपास के किसी विक्टिम का हो, पकड़े जाने के अवसर बहुत होते हैं, फिल्मों में अक्सर दिखाते हैं कि अपराधी बच निकला जैसा अजय देवगन की फिल्म दृश्य में दिखाया गया है पर उस में मृतक के प्रति किसी की भी सहानुभूति नहीं थी, न सिस्टम की न जनता की. हां हमारे देश में अगर कोई अपराध है जिन में गारंटीड सजा नहीं मिलेगी तो वे हैं धर्म के मामलों में. ङ्क्षहदू अपराधी मुसलिम नागरिकों के खिलाफ जो भी कर लें,

आज कानून ऐसा हो गया हैकि उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा. मोनिका की गलती यह थी कि उस ने अपराध करना था मुसलिम सासससुर ढूंढती. फिर तो उस के हजार समर्थक निकल आते जो कहते कि वह तो खुद लव जेहाद की मारी थी, वह भला हत्यारिन कैसे कही जा सकती है चाहे उस ने 10 खून किए हो.

अब अपराधियों को यह भी ख्याल रखना पड़ेगा कि चप्पेचप्पे पर लगे कैमरे उन की हर गतिविधि को देख रहे हैं रिकार्ड कर रहे हैं. अब पफेन रिकार्ड और कैमरों के सहारे किसी को भी पकडऩा आसान होता जा रहा है. अपराध कम हो रहे हैं इसलिए नहीं कि मंदिर ज्यादा बन रहे हैं बल्कि इसलिए कि कैंमरे ज्यादा लग रहे हैं और ज्यादा कामयाब हो रहे हैं.

गरीबों को लूटते है अमीर लोग

साहित्य में आमतौर पर गरीबों को बड़ा उदार दिखाने की कोशिश की जाती है कि एक गरीब ही  गरीब के काम आता और ये तो अमीर हैं जो उन को लूटते हैं और जिन के पास गरीबों के लिए दिल नहीं होता. सच तो शायद इस का उलट है. गरीबों को अपनी बेवकूफियों और कम पढ़ेलिखा होने के कारण गरीब चोरउचक्कों का ज्यादा शिकार बनना पड़ता है.

कोविड के दौरान जब लाखों की तादाद में गरीब अपना छोटाछोटा सामान सिरों पर लाद कर पैदल सैंकड़ों मील अपने घर के लिए चले थे तो उन में से बहुतों को लूटा गया. कहींकहीं उन को अमीरों ने खाना खिलाया, दवाएं दीं, रात को सोने की जगह दी पर आमतौतर पर कोविड की वजह से गांवों में घुसने नहीं दिया गया और साथ ही उन का सामान भी चोरी कर लिया गया. जो थोड़ेबहुत पैसे लेकर वे चले थे, आखिर तक चोरी ही हो गए.

रेलवे स्टेशनों और रेलों में गिरोह बाकायदा गरीबों को लूटते हैं और घर ले जा रहे 4 कपड़ों, 2-3 बर्तन मोबाइल, बच्चों के खिलौने तक लूट ले जाते हैं. ये चोर अमीर नहीं, गरीब ही होते हैं. इन गरीब चोरों की बातों में गरीब मजदूर आसानी से आ जाते हैं.

रेलवे स्टेशनों के पास बनाई गई झुग्गियों में चोर अक्सर अपना ठिकाना बना लेते हैं और रिजर्व व जनरल बोगियों, प्लेटफार्मों, टिकट की लाइन, सिक्योरिटी लाइनों में से अटैचियां, बंडल चोरी कर लेते हैं.

जहां भी गाडिय़ां धीमी होती है या तकनीकी कारण से टे्रन रुकती है, चोर चढ़ कर सोते मजदूरों का सामान उठा कर भाग जाते हैं. 3-4 के गिरोह में चलने वाले ये लोग तेजी से चोरी का सामान एक से दूसरे हाथ देते हैं ताकि बेचारा मजदूर समझ ही न पाए कि हुआ क्या, उस के सिरहाने रखी अटैची गई कहां, जेब का मोबाइल गया कहां. कंपार्टमैंट में तो सभी उसी की तरह लोग होते हैं. इसलिए वह बेचारा किसी पर आरोप भी नहीं लगा पाता. बस रोता रह जाता है.

गरीबों को लूटने की आदत गरीबों को घरों से बचपन से हो जाता है. शुरू में यह छोटीमोटी चोरी एक गुब्बारा खरीदने के लिए या एक फैन खरीदने के लिए होती है पर फिर पता चलता है कि चोरी तो हर जने का हक सा है. अमीर तो ढंग से चोरी करता है गरीबगरीब को चाकू तमंचा दिखा कर भी लूट लेता है.

घरों में लूटे का सामान जब आता है तो घरवालें खुश होते हैंं. उन्हें उस गरीब के नुकसान का कोई दर्द नहीं होता जो बड़ी उमंगों से 4 चीजें घरवालों के ले जा रहा था.

यह हमारी सामाजिक समझ का बड़ा दोष है. गरीब को लूटने को गलत न कहना सब से बड़ा गुनाह है जिस का दोषी हर आदमी है जो लूट के सामान की खरीदफरोक्त करता है या घर में रखता है.

गरीब अपने घर पक्के नहीं बना सकते, वे चौकीदार नहीं रख सकते, उन्हें अपनी अटैची या जेब का ध्यान नहीं रहता, उन्हें भीड़ में चिपकचिपक कर चलना पड़ता है. उन्हें गरीबों के घरों से चोरी न करने का पाठ नहीं पढ़ाया जाता यह अफसोस है.

बड़ा अफसोस यह है कि हर मंदिर में जम कर चोरी होती है, चप्पलोंजूते तो चोरी होते ही हैं, पाकेटमारी होती है, चेन खींची जाती है, बहका कर दाम भी लिया जाता है और यह सब मंदिर वालों की जानकारी में होता है क्योंकि ये चोर वहीं बनें रहते हैं जबकि भक्त हर रोज नएनए आते हैं, मंदिरों की चोरी पाठपढ़ाती है कि भगवान भी गरीबों के हैं, गरीबों को लूटने का लाइसेंस देता हो यही हमारी धर्म हमें सिखाता है, मंदिरों से ले कर घरों तक और रेलों से ले कर बाजारों तक लूटते गरीब ज्यादा हैं, अमीर नहीं.

नशे से छुटकारा दिलाने के नाम पर देशभर में खुली दुकानें

नशे से छुटकारा दिलाने के नाम पर देशभर में नशा छुटकारा दुकानेें कुकुरमुत्तों की तरह उगने लगी हैं. दीवारों पर अब पोस्टर, पेंङ्क्षटग, लिखाई दिखने लगी हैं. जिन में नशे से छुटकारा दिलाने के लिए फोन नंबर लिखे होते हैं. नशेडिय़ों के घर वाले घर में नशा करने वाले से इस कदर परेशान रहते हैं कि  वे उन से छुटकारा पाने के लिए इन को मिलते हैं और जैसे भी हो, पैसा दे कर अपने घर के नशेड़ी को ठीक करने के लिए सौंप देते हैं.

अब पता चल रहा है कि इन में से ज्यादातर सिर्फ नीमहकीम होते हैं जिन्हें नशे की वजह और इलाज के बारे में कुछ नहीं मालूम होता और आमतौर पर सिर्फ अपने क्लिनिक को जेल की तरह अपडेट करते हैं जहां नशेड़ी को बांध कर रखा जाता है और उस के चीखनेचिल्लाने के बाद उसे मारपीट कर सुधारा जाता है. इस दौरान नशेड़ी के मातापिता, बेटा या पत्नी आते हैं तो सिर्फ पैसा या खाना देने के लिए.

नशे का इलाज आसान नहीं है क्योंकि इस की लत इस तरह पड़ती है कि नशा न मिलने पर रोगी बुरी तरह तड़पता है, चीखता है, अपने को मारतापीटता है. उस पर उस समय काबू लाना मुश्किल होता है. नशे के व्यापार के फलनेफूलने की वजह ही यह है कि एक बार जिसे नशा अच्छा लगने लगे वह सबकुछ बेचबाच कर नशे के लिए एक और डोज लेेने को तैयार हो जाता है.

नशे के रोगी के एक इसी तरह के क्लिनिक में एक रोगी की बेवजह से मौत हो गई क्योंकि रोगी आप से बाहर हो कर पहलवान किस्म के अटैंडैंटों से लडऩे लगा. पुलिस ने इन अटैंडैंटों को गिरफ्तार किया है पर नशा करने वाले कम होने वाले हैं और न इस तरह धोखा देने वाले क्लिनिक बंद होने वाले हैं. रोगी के घर वालों के लिए ये ज्यादा सुरक्षित होते हैं क्योंकि इन में कम लोग होते हैं और उन की जगहंसाई कम होती है.

नशा करने वाले मानसिक बीमार भी हैं यह अभी भी सभी समझने को तैयार नहीं हैं. ज्यादातर तो पंडितों, ओझाओं, बंगाली बाबाओं की शरण में जाते हैं जहां और ज्यादा मामला खराब किया जाता है और भभूत और दवा में दूसरा नशा मिला कर मरीज को कुछ देर सुला दिया जाता है. रोगी के घर वाले इसे ही इलाज समझ लेते हैं.

नशे का व्यापार हर रोज बढ़ रहा है. नई मादक दवाएं बाजार में आ रही हैं. पानमसाले के जरीए इस की लत आसानी से डाली जा रही है. ड्रग्स अब हर कोने पर मिलने लगी है और सिर्फ एक बार टेस्ट करनेके नाम पर शुरू करने वाले जल्दी ही पक्के नशेड़ी बन कर घर वालों के लिए आफत बन जाते हैं. नशा करने वाली दवाएं शराब से भी ज्यादा खतरनाक हैं पर हर तरफ इन का मिलना आसान होता जा रहा है. पुलिस को इस में मोटा पैसा मिलता है इसलिए वह ऊपरऊपर से ही काम करती है.

इस जंजाल का आसान जवाब नहीं है. ये नीमहकीम वाले दुकानदार तो कतई इलाज नहीं कर सकते पर यही ज्यादातर को मिलेंगे.

पंजाब एक अनाज फैक्ट्री

पंजाब जो देश की एक तरह की अनाज फैक्ट्री रहा है और आज भी उत्तर भारत के अमीर राज्यों में से एक है, एक बार फिर अलगाववादी ताकतों की वजह से सुलगने लगा है. अमृतपाल ङ्क्षसह ही वारिस पंजाब दे के समर्थक पूरे पंजाब में फैले हुए है और हजारों को बंद करने के बावजूद हर कोने में खुले आम दिख रहे हैं. हालांकि पंजाब में इंटरनैट पर पाबंदी है और हथियार ले कर घूमना मना है, ये लोग अमृतपाल ङ्क्षसह को दूसरा ङ्क्षमडरावाला मानते हुए कमजोर आम आदमी पार्टीकी सरकार का पूरा फायदा उठा रहे हैं.

पंजाब की खुशहाली पंजाबी सिखों के लिए ही जरूरी नहीं है, वह उन लाखों मजदूरों के लिए भी जरूरी है जो दूसरे राज्यों से यहां काम करने आए हैं और अपने गौयूजक राज्य की पोल खोलते हुए क्याक्या कर अपने गांवों में भेज रहे हैं. पंजाब में कोई भी गड़बड होगी तो इन लाखों बिहारी, राजस्थानी, उत्तर प्रदेश के उडिय़ां,

मध्यप्रदेश मजदूरों के लिए आफत हो जाएगी. इन सब राज्यों में तो पूजापाठ का काम ही पहला धंधा है पर पंजाब में किसानी का काम बड़ा है और इसीलिए किसान कानूनों का जबरदस्त मुकाबला पंजाबी किसानों ने किया था. अब ये ही किसान अमृतपाल ङ्क्षसह जैसे जबरन आधे अधूरे जने को नेता मान कर चल रहे है और पीलीे झंडों के नीचे इकट्ठा हो रहे हैं तो गलती कहीं केंद्र की

राजनीति की है जो ङ्क्षहदूङ्क्षहदू राग आलाप रही है और मुलसमानों को डराते हुए यह नहीं सोच पा रही थी कि यह शोर पंजाब के सोए खालिस्तानियों को भी जगा देगा. भारत दूसरे कई देशों के मुकाबले अच्छी शक्ल में है तो इसलिए कि यहां लोकतंत्र ने जड़े जमाई हुई हैं और आजादी के 75 साल में से ज्यादा ऐसी सरकारें रहीं जो धर्म से परे रहीं. भारतीय जनता पार्टी ने धाॢमक धंधों का फायदा उठा कर मंदिरों के इर्दगिर्द राजनीति तो चला ली और सत्ता पर कब्जा तो कर लिया पर भूल गर्ई कि मंदिर राजनीति दूसरे धर्मों को भी यही दोहराने के उकसाती है.

अब पंजाब के गुरूद्वारे फिर से राजनीति का गढ़ बनने लगे हैं और धीरेधीरे अमृतपाल ङ्क्षसह के पिछलग्गू गुरूद्वारों पर कब्जा करने लगे हैं या यूं कहिए कि गुरूद्वारों को चलाने वाले अमृतपाल ङ्क्षसह का खुल कर नही तो छिप कर साथ दे रहे हैं.

यह पंजाब के मजदूरों को दहशत में डालने वाली बात है क्योंकि ये मजदूर पूरी तरह ङ्क्षहदू अंधविश्वासों से भरे हैं. गरीब, अधपढ़े, अपने गांवों से, घरों से दूर रहने वाले मजदूर समझ नहीं पाते कि जिस मंदिर के पास वे अपनी मन्नते पूरी कराने जाते हैं उस के पास के गुरूद्वारों में दूसरे धर्म के लोग कुछ और कह रहे हैं. मंदिरों में होने वाली आमदनी पर सब की निगाहें रहती हैं और जब लगता है किमंदिर के सहारे पूरी सत्ता पर कब्जा किया जा सकता है तो जैसे रणजीत ङ्क्षसह के जमाने में इच्छा, गुरूद्वारों के सहारे वैसा क्यों नहीं हो सकता.

देश को आज अलगाव नहीं चाहिए आज कंधे और हाथ चाहिए जो अमेरिका, यूरोप, चीन, जापान का मुकाबला कर सकें और अपना रहनसहन इन देशों की तरह का बना सकें. अगर हम अपनी ताकत धर्म के नाम खर्च करते रहेंगे तो हमारी हालत पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसी हो सकती है. हम ने बीज तो उस के बो रखे हैं पर लोकतंत्र का पेस्टीसाइड इन को फूटने नहीं दे रहा. जब भी लोकतंत्र कमजोर हुआ, क्या होगा कह नहीं सकते. यह पक्का है कि पंजाब में काम कर रहे दूसरे राज्यों के मजदूरों के लिए आफत हो सकती है.

भारत हो रहा गरीब, सरकारें अपने में मगन

देश में अमीरीगरीबी का मामला बहुत समय से चर्चा में है. दरअसल, यह एक ऐसा मसला है जो जहां एक तरफ सरकार के लिए खास है, वहीं दूसरी तरफ आम जनता में भी देश की अमीरी और गरीबी के बारे में चर्चा का दौर जारी रहता है.

अगर हम साल 2014 के बाद की मोदी सरकार के समय और उस से पहले की मनमोहन सरकार को परखें तो आज का समय आम लोगों के लिए एक बड़ी ट्रैजिडी बन कर सामने आया है. आज अगर बेरोजगारी बढ़ी है तो सीधी सी बात है कि उस के चलते गरीबी में भी बढ़ोतरी हुई है और इस की बुनियादी वजह है नोटबंदी और कोरोना काल.

बेरोजगारी का मतलब है नौजवान तबके के पास काम न होना. इस बात को गंभीरता से लेने की जरूरत है, क्योंकि अब भारत में पढ़ाईलिखाई की दर तो बढ़ी है, पर अगर नौजवानों को नौकरी या दूसरे रोजगार नहीं मिलेंगे, तो फिर यह सरकार की नाकामी ही कही जाएगी.

मगर वर्तमान सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि देश में बेरोजगारी और गरीबी बढ़ गई है. वह अपने तरीके से देशदुनिया के सामने यह बात रखने से गुरेज नहीं करती है कि देश अमीरी की तरफ बढ़ रहा है. आम लोगों की गरीबी के उलट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच है कि दुनिया के सामने देश को सीना तान कर खड़ा होना है. चाहे चीन हो, अमेरिका हो या फिर रूस, हम किसी से कम नहीं. यह कुछ ऐसा ही है जैसे कोई पिद्दी पहलवान किसी नामचीन पहलवान के सामने ताल ठोंके. यह बात एक कौमेडी सी हो जाती है. आने वाले समय में सचमुच ऐसा हो न जाए, क्योंकि सचाई से मुंह चुराया जाना कतई उचित नहीं होता है.

अरविंद पनगढ़िया बने ढाल

आज जब देश के सामने गरीबी का सच सार्वजनिक है, महंगाई अपनी सीमाओं को तोड़ रही है, और तो और केंद्र सरकार की चाहे घरेलू गैस सिलैंडर वाली स्कीम हो या फिर पैट्रोल पौलिसी, ये दोनों खून के आंसू रुला रही हैं.

ऐसे में सरकार की तरफ से जानेमाने अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया ने मोरचा संभाल लिया है. वे कहते हैं कि कोविड 19 महामारी के दौरान भारत में गरीबी और गैरबराबरी बढ़ने का दावा सरासर गलत है.

अरविंद पनगढ़िया ने एक रिसर्च पेपर में यह भी कहा है कि असल में तो कोविड 19 के दौरान देश में गांवदेहात और शहरों के साथसाथ नैशनल लैवल पर गैरबराबरी कम हुई है.

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर और देश के नीति आयोग में उपाध्यक्ष पद पर रह चुके अरविंद पनगढ़िया और इंटैलिंक एडवाइजर्स के विशाल मोरे ने मिल कर ‘भारत में गरीबी और असमानता : कोविड 19 के पहले और बाद में’ शीर्षक से यह रिसर्च पेपर लिखा है. इस में भारत में कोविड 19 महामारी से पहले और बाद में गरीबी और गैरबराबरी के हालात के बारे में बताया गया है. इस के लिए भारत के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के निश्चित अवधि पर होने वाले श्रमबल सर्वे में जारी घरेलू खर्च के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है.

रिसर्च पेपर में कहा गया है कि पीएलएफएस के जरीए जो गरीबी का लैवल निकला है, वह साल 2011-12 के उपभोक्ता व्यय सर्वे से निकले आंकड़ों और उस से पहले के अध्ययन से तुलनीय नहीं है. इस की वजह से पीएलएफएस और सीईएस में जो नमूने तैयार किए गए हैं, वे काफी अलग हैं.

इस के मुताबिक, तिमाही आधार पर अप्रैलजून, 2020 में कोविड 19 महामारी की रोकथाम के लिए जब सख्त लौकडाउन लागू किया गया था, उस दौरान गांवों में गरीबी बढ़ी थी, लेकिन जल्दी ही यह कोविड-19 से पहले के लैवल पर आ गई और उस के बाद से उस में लगातार गिरावट रही.

कोविड 19 के बाद सालाना आधार पर गैरबराबरी शहरी और गांवदेहात दोनों क्षेत्रों में घटी है. देश के 80 करोड़ गरीबों को सस्ता अनाज, सस्ता मकान वगैरह दे कर केंद्र सरकार खुद साबित कर रही है कि देश की जमीनी हकीकत क्या है. मगर दुनिया के चौरास्ते पर खड़े हो कर खुद को अमीर साबित करना सिर्फ छलावा ही तो है. ऐसा महसूस होता है कि हमारे देश में धार्मिकता के चलते आज भी लोग समझते हैं कि उन की बदहाली की असल वजह भगवान ही है, जिस ने उन्हें गरीब बनाया है, जबकि असल में हमारे देश की आर्थिक नीतियां और सरकार का काम करने का तरीका ऐसा है कि लोग गरीबी, बदहाली में जी रहे हैं.

हर सरकार लोगों को भरमा रही है. दिल्ली की केजरीवाल सरकार मुफ्त में महिलाओं को बस में यात्रा कराती है. कर्नाटक में राहुल गांधी बेरोजगारी भत्ते का लौलीपौप दिखाते हैं और नरेंद्र मोदी का दोहरा चेहरा तो देश देख ही रहा है. वे चाहते हैं कि विपक्षी पार्टियां तो कुछ भी न दें और वे खुद लोगों को कुछ न कुछ दे कर तथाकथित मसीहा बन जाएं. यही वजह है कि हमारा देश जापान, चीन जैसे देशों से बहुत पिछड़ गया है जो या तो बहुत छोटे हैं या फिर उन्हें आजादी बाद में मिली है.

भारतीय जनता पार्टी के बड़े-बड़े काम

भारतीय जनता पार्टी की सरकार लगातार बड़े एयरपोर्टों, सुंदर रेलवेस्टेशनों, चौड़ी आधुनिक कई लेन वाली सड़कों, मैट्रो के स्टेशनों, वंदे भारत ट्रेनों का गुणगान करती रहती है. देश की मिडिल क्लास इस पहुंच पर जम कर तालियां बजा रही हैं क्योंकि इन में से ज्यादातर किसी न किसी तीर्थस्थान को ही ले कर जाने के लिए बन रही हैं. इन सब के पीछे आम मजदूर, किसान, फैक्टरी को कोई सुविधा देना नहीं है.

मिडिल क्लास के पास जो थोड़ाबहुत पैसा आया है, उसे मंदिरों के मारफत मंदिर दुकानदारों के  हवाले करवाना है. जोकुछ नया बन रहा है, जिस का ढोल रातदिन बजाया जा रहा है वह ‘रामचरितमानस’ के आदेशों की तरह शूद्रों, गंवारों व औरत को पीटना है और पशुओं को इन रास्तों पर खाने में परोसना है. न ट्रेनों में, न बड़े ग्रीनफील्ड चौड़े नए रास्तों पर, न हवाईअड्डों पर सस्ती कारें दिखेंगी, न खचाखच भरी सवारियां. इन सब एयरकंडीशंड जगहों पर देश का वह वर्ग है जो भरपूर पैसे का आनंद उठा रहा है. देश की 140 करोड़ में से 120 करोड़ जनता आज भी बेसिक सुविधाओं के लिए तरस रही है.

आज भी दिल्ली जैसे शहर की डेढ़-2 करोड़ वाली जनसंख्या में से 30 फीसदी के पास सीवर का कनैक्शन नहीं है. लोग उन बस्तियों में भी सीवर कनैक्शन नहीं करा पाते जहां गली में सीवर आया हुआ है, क्योंकि उस के लिए भी 5,000 से 10,000 रुपए तक का खर्च है. देश के गांवों, कसबों और छोटे शहरों का क्या हाल होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है. सीवर या पानी का कनैक्शन न होने से मजदूर किसान यानी शूद्र और औरतें जो उन घरों को चलाते हैं, तरसते हैं. यह ताड़ना ही है.

‘रामचरितमानस’ के आदेश का अक्षरश: पालन किया जा रहा है. ऐसा नहीं है कि सीवर या पानी कनैक्शन के लिए कोई विशेष साइंस चाहिए या मोटी रकम चाहिए. यह तो ग्रीनफील्ड सीधी 8 लेन की सड़कों पर जरूरत होती है, वंदे भारत ट्रेनों में जरूरत होती है, नए हवाईअड्डों पर जरूरत होती है. पर वहां आम औरत–चाहे सवर्ण घरों की ही क्यों न हो–या आम मजदूर और किसान नहीं जाते. सीवरपानी कनैक्शन तो उन बहुत सी छोटी सी सुविधाओं में से हैं जो शहरियों और फैलते गांवों के लिए अब जरूरी हैं.

देश के विकास के लिए सड़कों के जाल, तेज ट्रेनों, हवाईअड्डों की जरूरत है पर उस के साथ यह भी जरूरी है कि देश में गौतम अडानी जैसे पैदा न हों जो दुनिया के दूसरेतीसरे नंबर के हों जबकि देश में जितने गरीबी रेखा के नीचे हैं, वे दुनिया में नंबर 1 हों. देश से भूख, बीमारी और गंदगी दूर हो पहले, फिर गौतम अडानी बनें तो कोई हर्ज नहीं होगा. गरीबी, बीमारी, गंदगी दूर हो और आम साफ पानी पा सकें और साफ ?ाग्गी?ोंपड़ी में रह सकें.

यह सरकारों की पहली जिम्मेदारी है. शूद्र दलित नीची जाति के हैं. पिछले जन्मों के कर्मों का फल भोग रहे हैं, पहले पाप किए हैं इसलिए सवर्णों की औरतें भी पापयोनि में पैदा हुई हैं. इन का ढोल पीटा जाना जब बंद होगा तब सड़कों, हवाईअड्डों और ट्रेनों का ढोल पीटा जाए. देश का गरीब खुशहाल होगा तो अमीरों की सुविधाएं अपनेआप और बढ़ेंगी. पढ़ीलिखी, चुस्त लेबर फोर्स ही अमीरों की जिंदगी को खुशहाल करेगी.

गलत हैं मोहन भागवत : देश बांटने की साजिश

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों एक सभा में कहा था कि जाति भगवान ने नहीं बनाई है, बल्कि पंडितों ने बनाई है. भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक हैं. उन में कोई जाति या वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई जो कि गलत था.

आगे उन्होंने कहा कि देश में विवेक, चेतना सभी एक हैं. उस में कोई अंतर नहीं है, बस मत अलगअलग हैं… हमारे समाज में बंटवारे का ही फायदा दूसरों ने उठाया है. इसी से हमारे देश पर आक्रमण हुए और बाहर से आए लोगों ने फायदा उठाया.

उन्होंने सवाल करते हुए कहा कि हिंदू समाज देश में नष्ट होने का भय दिख रहा है क्या? यह बात कोई ब्राह्मण नहीं बता सकता. आप को समझना होगा. हमारी आजीविका का मतलब समाज के प्रति भी जिम्मेदारी होती है. जब हर काम समाज के लिए है तो कोई ऊंचा, कोई नीचा या कोई अलग कैसे हो गया?

मोहन भागवत को यह दिव्य ज्ञान अचानक क्यों हुआ? वे किस बूते पर कहते हैं कि जातियां भगवान ने नहीं बनाई हैं, जबकि अधिकांश ग्रंथ भरे हुए हैं जिन में यही कहा गया है कि जातियां भगवान ने बनाई हैं? हां, ये ग्रंथ पंडितों के लिखे गए हैं पर भगवान भी तो पंडितों ने गढ़े हैं.

‘ऋग्वेद’ के ‘पुरुष सूक्त’ में लिखा हुआ है कि जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण के विभिन्न अंगों से हुई. क्या मोहन भागवत इस ‘ऋग्वेद’ को हिंदुओं को भगवान द्वारा स्वयं दिया गया ज्ञान नहीं मानते? आज मोहन भागवत अपनी जान बचाने के लिए और शूद्रों व दलितों को खुश करने के लिए अपौराणिक बातें कहने लगे हैं.

‘गीता’ के श्लोक 4/13 में कृष्ण ‘भगवान’ कहते हैं:

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश,

तस्य कर्तारमंपि मां विद्धयकर्तार मव्ययम्.

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन

4 वर्णों का समूह और कर्म मेरे द्वारा रचे गए हैं.

मोहन भागवत आज चाहते हैं कि ‘गीता’ की मान्यता भी रहे, ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और सैकड़ों दूसरे ग्रंथ भी रहें और वे पहले की तरह पिछड़ी, निचली व अछूत जातियों पर राज करने की तरकीब इन ग्रंथों के आधार पर तय करते रहें.

यह इसलिए हुआ कि विपक्षी दल संघ की मेहनत और चाल को समझ कर उस के कमजोर हिस्सों पर चोट करने लगे हैं, जिन में तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ में बिखरा ब्राह्मणवादी व्यवस्था का प्रचार है.

इसी के बलबूते पर मुगल राज में शूद्र यानी आज के ओबीसी और अस्पृश्य यानी आज के एससी मुगलों से मिल गए थे और ब्राह्मणों के हुक्म पर सेवा करने को मजबूर हुए थे.

मुगल राजाओं ने हिंदू धर्मग्रंथों को आदर का स्थान दिया था और उन के फारसी में अनुवाद बाबर के जमाने से होने लगे थे जो औरंगजेब तक चले. इस में संस्कृत का हिंदवी अनुवाद ब्राह्मण करते थे और फिर ईरानी फारसी में. मुगल, जो उज्बेकिस्तान के आसपास के इलाके के थे, फारसी या संस्कृत दोनों ही नहीं जानते थे.

मुगल राजाओं के खिलाफ कभी ब्राह्मणों ने देश की आम जनता को विद्रोह करने के लिए उकसाया नहीं. विनायक दामोदर सावरकर ने मुसलमानों के खिलाफ जो भी कहा वह अंगरेजों की राजनीति के मुताबिक ही था.

अंगरेजों ने भी मुगलों की तरह जातिवाद के खिलाफ कुछ नहीं किया और समाज को कंट्रोल करने की जिम्मेदारी ब्राह्मणों पर छोड़ दी. कांग्रेस के ज्यादातर नेता भी कट्टरवादी ब्राह्मण या उन के कट्टर भक्त कायस्थ और बनिए रहे हैं और आज भी यही चल रहा है. वे सरकार के विरोधी नहीं थे.

सीनियर एडवोकेट व मानवाधिकार कार्यकर्ता राजेश चौधरी ने कहा कि जब यह बात मोहन भागवत को पता थी, पर आज तक संघ का प्रमुख किसी एससी, एसटी और ओबीसी को नहीं बनने दिया गया. संघ प्रमुख शंकराचार्य की तरह सिर्फ एक ही वर्ण के बनाए जाते हैं. लोगों के जेहन में ये खास फैक्टर हैं, जिस का जवाब संघ से जुड़े लोग नहीं दे पा रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी ने बंगारू लक्ष्मण को मजबूरी में अध्यक्ष बनाया था और फिर संघ के आदेश पर साजिश रच कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. संघ के इशारे पर चलने वाले राजनीतिक दल भाजपा ने आज तक कितने एससी, एसटी और ओबीसी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया?

दरअसल, मोहन भागवत इस बयान को दे कर भारत के एससी, एसटी और ओबीसी को हिंदू राष्ट्र के नाम पर भाजपा के पाले में सुरक्षित रखना चाहते हैं. एससी, एसटी और ओबीसी, जो एक बड़ी आबादी है, के बारे में धार्मिक ग्रंथों में लिखी भद्दी और बेइज्जत करने वाली टिप्पणी के चलते जो एकजुटता हो रही है, उसे मोहन भागवत जल्दी रोक देना चाहते हैं.

मोहन भागवत अपने इस कथन से ओबीसी जनगणना की मांग को खत्म भी करना चाहते हैं. वे हिंदू धार्मिक ग्रंथों को भी पोल खुलने से बचाना चाहते हैं.

मोहन भागवत अच्छी तरह जानते हैं कि हिंदू धार्मिक ग्रंथों में एससी, एसटी, ओबीसी के खिलाफ जो अमर्यादित और अमानवीय बातें लिखी हुई हैं. यही ग्रंथ पंडितों की दानदक्षिणा से आमदनी का इंतजाम करते हैं, क्योंकि इन ग्रंथों में ही दानदक्षिणा से पिछले जन्म से जुड़ी जाति व्यवस्था का बखान किया गया है.

डर है कि यह मुद्दा अगर लंबे समय तक चला तो उस के चलते देश में बहुजन समाज के लोग बहुत तेजी से एकजुट हो जाएंगे.

मोहन भागवत का सब से बड़ा डर यह है कि कहीं ऐसा न हो कि भारत का यह एससी, एसटी, ओबीसी वर्ग फिर से अपने मूल धर्म बौद्ध को स्वीकार कर ले और फिर 10 फीसदी वाला वे पौराणिक हिंदू धर्म की पोल खोल कर भारत में बड़ी पार्टियों के वजूद में पलीता न लगा दे. याद रहे कि श्रीलंका में सिंहली बौद्ध और तमिल हिंदुओं का विवाद गृहयुद्ध की शक्ल ले चुका है.

अगर अगर मोहन भागवत यह जान चुके हैं कि जाति ईश्वर ने नहीं बनाई, ब्राह्मणों या पंडितों ने बनाई है तो फिर वे ब्राह्मण होने के नाते एससी, एसटी, ओबीसी पर आज तक हो रहे जुल्मों को गलती मानने का काम क्यों नहीं शुरू करते?

भाजपा सरकार का रिमोट कंट्रोल संघ के पास है, तो उसे आदेश दे कर देश की हर नौकरी, ताकतवर जगह बराबरी का सिस्टम लाने की कोशिश क्यों नहीं कराते? राज्य और केंद्र में खाली पड़े पदों को संवैधानिक प्रतिनिधित्व के आधार पर क्यों नहीं भरे जाते हैं? संविधान में मिले मूल मौलिक अधिकारों को एससी, एसटी, ओबीसी को क्यों नहीं लेने देते?

वैसे तो मंदिर ही जातिवाद को बढ़ावा देने का काम करते हैं और हर जाति को अपना मंदिर दे दिया गया है. दलितों के लिए आमतौर पर तीसरे दर्जे के देवीदेवताओं को रिजर्व कर दिया गया है. फिर भी मंदिरों में हर जाति के पुरोहित, पंडे क्यों नहीं होते?

हिंदू धार्मिक गं्रथों में लिखी गई अपमानजनक भाषा से इस वर्ग के लोगों के अंदर स्वाभिमान जगा है और तेजी से लोग जागरूक हो रहे हैं. इसी वजह से संघ प्रमुख मोहन भागवत बुरी तरह घबराए हुए हैं, क्योंकि वे बेहतर तरीके से जानते हैं कि अगर ऐसे ही यह वर्ग तेजी से एकजुट होता रहा तो देश के किसी भी राज्य में किसी भी कट्टरवादी पार्टी की सरकार नहीं बन पाएगी, बल्कि वह हमेशाहमेशा के लिए खत्म हो जाएगी.

 

किसानों के देश में दम तोड़ता अन्नदाता: खतरों से भरी है खेती

‘अमेजन प्राइम’ पर ‘क्लार्कसंस फार्म’ नाम से 2 सीजन की एक इंगलिश डोक्यूमैंट्री टाइप सीरीज है, जिस में बताया गया है कि दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले खेतीबारी के क्षेत्र में 20 गुना ज्यादा मौतें होती हैं. अकेला किसान अपने खेत में ट्रैक्टर के सहारे कोई बड़ी मशीन चला रहा होता है, जरा सा झटका लगने पर वह गिर जाता है और मशीन के नुकीले लोहे के दांतों में पिस कर खुद ही खेत में खाद बन जाता है.

दरअसल, यह सीरीज एक अमीर आदमी जेरमी क्लार्कसन पर बनी है, जो 59 साल की उम्र में अपनी 1,000 एकड़ जमीन पर खुद खेती करता है और खेतीबारी से जुड़े नियमकानून में बंध कर सीखता है कि खेती करना कोई खालाजी का घर नहीं है, जो मुंह उठाया और चल दिए.

जेरमी क्लार्कसन एक बेहद अमीर किसान है. उस के पास खेतीबारी से जुड़ा हर नया और नायाब उपकरण है. वह ‘लैंबोर्गिनी’ कंपनी का भीमकाय ट्रैक्टर चलाता है, जिस में 8,000 तो बटन लगे हुए हैं. इस के बावजूद अगर वह अपने मुंह से किसान तबके की मौत से जुड़ी हकीकत सब के सामने रखता है, तो समझ लीजिए कि खेतीबारी करने वाले उन किसानों की क्या हालत होती होगी, जो छोटी जोत के हैं और उन की मौत के शायद आंकड़े भी न बनते हों.

जहां तक खेतीबारी में होने वाले खतरों की बात है, तो किसानों को खेत में कुदरत की मार के साथसाथ कई सारे खतरनाक जीवजंतुओं का भी सामना करना पड़ता है. खेत में काम करते समय बिच्छू, सांप, मधुमक्खी के अलावा दूसरे तमाम जहरीले जीवजंतुओं के काटने का बहुत बड़ा खतरा रहता है. किसानों को बहुत भारी और बड़ी मशीनों के साथ काम करना पड़ता है, उन से भी चोट लगने और मौत होने का डर बना रहता है.

भारत जैसे देश में तो किसान और ज्यादा मुसीबत में दिखता है. राजस्थान की रेतीली जमीन का ही उदाहरण ले लें. वहां पानी की कमी है और गरमी इतनी कि खेत में किसान के पसीने के साथसाथ उस का लहू भी चूस ले. इन उलट हालात में अगर फसल लहलहाने भी लगे तो भरोसा नहीं कि वह टिड्डी दलों का ग्रास नहीं बन जाएगी. फिर किसान के घर में भुखमरी का जो तांडव मचता है, वह किसी से छिपा नहीं है.

भारत में किसान आबादी ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं है, लिहाजा वह खेतीकिसानी में इस्तेमाल होने वाले कैमिकलों की मात्रा के बारे में या तो जानती नहीं है या फिर उन्हें अनदेखा कर देती है, तो उस की जान का खतरा बढ़ता ही चला जाता है. थोड़ा पीछे साल 2017 में चलते हैं. महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में 4 महीने

के भीतर तकरीबन 35 किसानों की कीटनाशकों के जहर से मौत हो गई थी. उन में से ज्यादातर कपास और सोयाबीन के खेतों में काम कर रहे थे. उन्होंने खेतों में कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान अनजाने में कीटनाशक निगल लिया था. देशभर के किसानों से जुड़े संगठन ‘द अलायंस फौर सस्टेनेबल ऐंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा)’ ने इस सिलसिले में एक जांच

रिपोर्ट जारी की थी और मौतों के लिए मोनोक्रोटोफोस,  इमिडैक्लोप्रिड, प्रोफैनोफोस, फिपरोनिल, औक्सीडैमेटोनमिथाइल, ऐसफिट और साइपरमेथरिन कीटनाशकों और इन के अलगअलग मिश्रणों को जिम्मेदार पाया था. प्रदेश सरकार ने कार्यवाही करते हुए यवतमाल, अकोला, अमरावती और पड़ोसी जिले बुलढाना और वाशिम में 5 कीटनाशकों ऐसफिट के मिश्रण, मोनोक्रोटोफोस, डायफैंथरीन, प्रोफैनोफोस और साइपरमेथरिन व फिपरोनिल और इमीडैक्लोरिड पर 60 दिनों के लिए बैन लगा दिया था.

कितने हैरत की बात है कि भारत में हर साल तकरीबन 10,000 कीटनाशक विषाक्तता के मामले सामने आते हैं. साल 2005 में सीएसई ने पंजाब के किसानों पर एक स्टडी की थी, जिस में किसानों के खून में अलगअलग कीटनाशकों के अंश पाए गए थे. सब से बड़ी समस्या यह है कि किसानों को कीटनाशकों के वैज्ञानिक मैनेजमैंट के लिए कोई जानकारी नहीं देता है. कीटनाशक बनाने वाले और सरकार इस के लिए कोई ठोस समाधान नहीं पेश करते हैं. किसान अपनी फसल को किसी भी तरह से बचाना चाहते हैं और खेत के मजदूर कीटनाशक छिड़काव के मौसम में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं. कम जगह में अच्छी उपज पाने और पैसा व समय बचाने के लिए ज्यादातर किसान कीटनाशकों के मिश्रण का अंधाधुंध इस्तेमाल करते हैं.

इस के अलावा भारत में कई फसलों पर ऐसे कीटनाशक भी इस्तेमाल किए जाते हैं, जो प्रमाणित नहीं हैं. यह समस्या काफी समय से बनी हुई है और किसानों के लिए जानलेवा साबित होती है. चलो, कैमिकल का गलत इस्तेमाल किसानों की लापरवाही या नासमझी की वजह से उन्हें मौत के मुंह में ले जाता है, पर अगर कोई किसान मौसम की मार से अपनी जिंदगी गंवा बैठे, तो इस की कौन जिम्मेदारी लेगा?

दिसंबर, 2022 की कड़कड़ाती ठंड में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले की ग्राम पंचायत देवाराकलां के गांव लालताखेड़ा मजरे का रहने वाला 52 साल का नन्हा लोधी रात को अपने खेत में फसल की रखवाली करने गया था, जहां अचानक उस की मौत हो गई.

नन्हा लोधी के परिवार वालों ने सर्दी लगने से मौत की वजह बताते हुए पुलिस और राजस्व विभाग के अफसरों को सूचना दी, जिस के बाद जिम्मेदार अफसर सर्दी से मौत होने के मामले को दबाने और मौत की वजह टीबी को बताने में जुट गए थे.

मौडर्न मशीनें भी किसानों पर कम कहर नहीं बरपाती हैं. हरियाणा में पानीपत जिले के खंड मतलौडा के गांव वेसर में खेत जोतते समय एक किसान रोटावेटर मशीन के नीचे आ गया, जिस से उस की मौत हो गई.

यह हादसा अक्तूबर, 2022 का है. गांव वालों ने बताया कि 40 साल का राजेश ट्रैक्टर और रोटावेटर से खेत जोत रहा था. इसी दौरान ट्रैक्टर के पीछे बंधे रोटावेटर से कुछ आवाज आने लगी. राजेश रोटावेटर चैक करने के लिए नीचे उतरा और रोटावेटर के पास बैठ कर आवाज चैक करने लगा.

इसी दौरान राजेश के शरीर का कोई कपड़ा रोटावेटर में फंस गया और देखतेदेखते रोटावेटर ने राजेश को अंदर खींच लिया, जिस से उस की मौत हो गई.

हादसे चाहे कुदरती हों या फिर इनसानी लापरवाही के चलते किसी किसान की जान जाए, उस के परिवार पर मुसीबतें बादल फटने जैसी बड़ी और खतरनाक होती हैं. पर अगर किसान खुदकुशी करने लगें तो फिर किस का माथा फोड़ा जाए? इस खुदकुशी की जड़ में कुदरती आपदाएं, बढ़ती कृषि लागत, पढ़ाईलिखाई की कमी, परंपराएं और संस्कृति होती है.

यह जो परंपरा और संस्कृति का बाजा है न, यह गरीब किसानों का सब से ज्यादा बैंड बजाता है. उसे खेतों से दूर करने के लिए पंडेपुजारियों द्वारा धर्मकर्म के दकियानूसी कामों में इस कदर उलझा दिया जाता है कि वह खेत का रास्ता ही भूल जाता है.

महिला किसान तो रीतिरिवाजों के जाल में इस तरह उलझा दी जाती हैं कि वे जो मेहनत खेत में कर सकती हैं उसे सिर पर पूजा का मटका ले कर मंदिर आनेजाने में ही बरबाद कर देती हैं.

फिर लदता है किसान पर कर्ज का बोझ. ऊपर से दूसरे क्षेत्रों में बढ़ती कमाई और भारत में कृषि सुधार बेहद धीमा होने के चलते वह खेत में दाने तो उगा लेता है, पर खुद दानेदाने को तरस जाता है. कोढ़ पर खाज यह कि खेतीबारी से जुड़े रोजगार के नए मौके नहीं बन पा रहे हैं और खेतीबारी से जुड़े जोखिमों में कमी नहीं आ पाई है.

बहरहाल, विदेश का 1,000 एकड़ जमीन का मालिक अमीर किसान जेरमी क्लार्कसन हो या भारत का 2 बीघे वाला कोई फटेहाल होरी, खेत में दोनों बराबर पसीना बहाते हैं. वे कुदरत के कहर से डरते हैं और उन की नजर अपने मुनाफे पर ही रहती है. थक कर दोनों खेत में ही जमीन पर बैठ कर अपना पेट भरते हैं, पर दोनों में फर्क उन सुविधाओं का है, जो क्लार्कसन के पास तो हैं, पर होरी ने उन्हें कभी देखा तक नहीं है. अगर यह फर्क मिट जाए, तो गरीब से गरीब किसान भी असली अन्नदाता कहलाने का हकदार हो जाएगा.

 जाति के जंजाल में किसान

भारत में किसान तबका जाति के जंजाल में इस तरह उलझा हुआ है या उलझाया गया है कि छोटी जाति वाले अपने खेत के सपने ही देख पाते हैं वरना तो वे दूसरे के खेतों में मजदूर बन कर ही जिंदगी गुजार देते हैं.

साल 2015-16 में की गई कृषि जनगणना की जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दलित (अनुसूचित जाति) इस बड़ी जमीन के सिर्फ 9 फीसदी से भी कम पर खेती का काम करते हैं. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, गांवदेहात के इलाकों में उन की आबादी का हिस्सा 18.5 फीसदी है. ज्यादातर दलित असल में भूमिहीन हैं.

अनुसूचित जनजाति के किसान भूमि के तकरीबन 11 फीसदी हिस्से पर खेती से जुड़ा काम करते हैं, जो गांवदेहात के इलाकों में उन की आबादी की हिस्सेदारी के बराबर है. लेकिन इन में से ज्यादातर भूमि मुश्किल भरे दूरदराज वाले इलाके में है. इस भूमि के लिए सिंचाई का कोई इंतजाम नहीं है और वहां सड़कें भी नहीं पहुंची हैं.

तकरीबन 80 फीसदी कृषि भूमि का संतुलन ‘अन्य’ जातियों द्वारा संचालित होता है जो तथाकथित ऊंची जातियों या ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ से हैं.

हरियाणा, पंजाब और बिहार जैसे राज्यों में दलितों के बीच भूमिहीनता विशेष रूप से गंभरी है, जहां 85 फीसदी से ज्यादा दलित परिवारों के पास उस भूखंड के अलावा कोई जमीन नहीं है, जिस पर वे रहते हैं. तमिलनाडु, गुजरात, केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में 60 फीसदी से ज्यादा दलित परिवार भूमिहीन हैं.

सितंबर, 1954 में अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की साल 1953 की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने सदन का ध्यान जमीन के सवाल पर खींचा था. सवाल सरकार द्वारा दलितों को जमीन देने का था.

तब डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने 3 सवाल किए थे. पहला, क्या दलितों को देने के लिए जमीन मुहैया है? दूसरा, क्या सरकार दलितों को जमीन देने के लिए भूस्वामियों से जमीन लेने की ताकत रखती है? तीसरा, अगर कोई दलितों को जमीन बेचना चाहता है, तो क्या सरकार उसे खरीदने के लिए पैसा देगी? उन्होंने कहा था कि यही 3 तरीके हैं, जिन से दलितों को जमीन मिल सकती है.

डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने यह भी कहा था कि या तो सरकार यह कानून बनाए कि कोई भी भूस्वामी एक निश्चित सीमा से ज्यादा जमीन अपने पास नहीं रख सकता और सीमा तय हो जाने के बाद, जितनी फालतू जमीन बचती है, उसे वह दलितों को मुहैया कराए. अगर सरकार यह नहीं कर सकती, तो वह दलितों को पैसा दे, ताकि अगर कोई जमीन बेचता है, तो वे उसे खरीद सकें.

डाक्टर भीमराव अंबेडकर के 3 सवाल आज भी मुंह बाए खड़े हैं, पर उन का तोड़ कोई नहीं निकाल पाया है. जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार इस देश पर काबिज हुई है, तब से तो यहां ‘रामचरितमानस’ की चौपाइयों को ही संविधान बना देने की होड़ मचने लगी है. दलितों को खेती के लिए जमीन नहीं, बल्कि ‘भगवान’ दिए जा रहे हैं, जो उन्हें अन्न का एक दाना नहीं दे पा रहे हैं.

 

पाकिस्तान : तोशाखाना ने तोड़ी इमरान खान की हनक

हाल ही में पाकिस्तान में इमरान खान पर सरकारी शिकंजे के साथसाथ 2 और खबरें भी सुर्खियों में बनी हुई थीं. पहली खबर यह थी कि भुखमरी झेल रहे इस देश में एक ऐसा एटीएम है, जो गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड में इसलिए दर्ज है, क्योंकि वह दुनिया में सब से ऊंचाई पर बना हुआ है. कुछ लोग इस एटीएम को ‘सैल्फी एटीएम’ भी कहते हैं. वजह, जो लोग इस एटीएम से पैसे निकालने जाते हैं, वे उस के साथ एक सैल्फी ले कर सोशल मीडिया पर जरूर पोस्ट करते हैं.

दरअसल, चीन और पाकिस्तान के बीच एक जगह है, जिसे खंजराब दर्रे की सीमा कहा जाता है. यह जगह बर्फीली पहाड़ियों से घिरी हुई है. यह एटीएम इसी जगह पर 4,693 मीटर की ऊंचाई पर बना है.

दूसरी खबर यह थी कि 17-18 मार्च, 2023 की रात को जम्मूकश्मीर के सांबा जिले में इंटरनैशनल बौर्डर से सटे रामगढ़ सैक्टर में एक तेंदुआ पाकिस्तान से भारत की सरहद में घुस आया था. इस की जानकारी मिलते ही सुरक्षा गार्डों ने रामगढ़ के सांबा में अलर्ट जारी कर दिया था. साथ ही, जंगल महकमे की टीमों को तेंदुए की तलाश में लगा दिया गया था.

इस तेंदुए वाली खबर के बाद सोशल मीडिया पर भारतीय लोगों ने मजे लेने शुरू कर दिए थे. पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था की तुलना करते हुए एक यूजर ने कहा था, ‘यहां तक ​​कि पाक में जानवरों को भी खाद्य संकट का सामना करना पड़ रहा है’, तो दूसरे यूजर ने कहा था, ‘अब जानवर भी पाकिस्तान को पसंद नहीं करते.’

एटीएम और तेंदुए की खबरों के बीच अब उस खबर को खंगालते हैं, जिस ने पाकिस्तान में ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं, जिस से वहां पैसे और भोजन के संकट पर पूरी दुनिया में बात हो रही है.

यह मामला पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके इमरान खान और उन की पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ और वर्तमान सरकार के टकराव से जुड़ा है. हुआ यों कि हाल ही में पाकिस्तान पुलिस ने इमरान खान के तकरीबन एक दर्जन नेताओं पर तोड़फोड़, सिक्योरिटी वालों पर हमला करने को ले कर कड़ा ऐक्शन लिया था.

पुलिस ने पद से हटाए गए प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सुनवाई के दौरान अदालत परिसर के बाहर हंगामा करने में शामिल होने के आरोप में आतंकवाद निरोधक कानून की विभिन्न धाराओं के तहत रविवार, 19 मार्च, 2023 को मामला दर्ज किया था.

दरअसल, इमरान खान तोशाखाना मामले की सुनवाई में पेश होने के लिए लाहौर से इसलामाबाद आए थे और उस दौरान इसलामाबाद न्यायिक परिसर के बाहर उन के समर्थकों और सिक्योरिटी वालों के बीच झड़प हुई थी.

पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी के कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच शनिवार, 18 मार्च, 2023 को हुई झड़प के दौरान 25 सिक्योरटी वाले घायल हो गए थे, जिस के बाद अवर जिला व सत्र न्यायाधीश जफर इकबाल ने सुनवाई 30 मार्च, 2023 तक के लिए स्थगित कर दी थी.

इसी बीच पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी ने केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन पाकिस्तान डैमोक्रेटिक मूवमैंट को चुनाव की तारीखों पर बातचीत करने का प्रस्ताव दिया था, ताकि इस साल होने वाले चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से निबट जाएं.

दरअसल, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने देश को आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों से निकालने के लिए सभी दलों के ‘राजनीतिक नेतृत्व’ को मिलने की दावत दी थी. इस के बाद इमरान खान ने ट्विटर पर संदेश दिया था कि वे ‘लोकतंत्र के लिए किसी से भी बात करने के लिए तैयार हैं.’

इमरान खान और पाकिस्तान की सरकार में छिड़ी यह जंग आगे क्या रूप लेगी और इस का वहां के सियासी माहौल पर क्या और कितना असर पड़ेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर जरा उस तोशाखाना मामले पर भी नजर डाल लेते हैं, जिस के चलते इमरान खान का राजनीतिक कैरियर ही खतरे में पड़ता दिख रहा है.

याद रहे कि इमरान खान की सरकार गिरने के बाद इसी तोशाखाना मामले में उन की संसद की सदस्यता चली गई थी. चुनाव आयोग ने इस को ले कर बाकायदा सुनवाई की थी, लेकिन इमरान खान की दलीलों से संतुष्ट नहीं होने पर पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी के चेयरमैन की सदस्यता रद्द कर दी गई थी.

दरअसल, तोशाखाना पाकिस्तान कैबिनेट का एक महकमा है, जहां दूसरे देशों की सरकारों, राष्ट्रप्रमुखों और विदेशी मेहमानों द्वारा दिए गए बेशकीमती उपहारों को रखा जाता है. नियमों के तहत किसी दूसरे देशों के प्रमुखों या गणमान्य लोगों से मिले उपहारों को तोशाखाना में रखा जाना जरूरी है.

इमरान खान साल 2018 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे. उन्हें अरब देशों की यात्राओं के दौरान वहां के शासकों से महंगे गिफ्ट मिले थे. उन्हें कई यूरोपीय देशों के राष्ट्रप्रमुखों से भी बेशकीमती गिफ्ट मिले थे, जिन्हें इमरान ने तोशाखाना में जमा करा दिया था, लेकिन इमरान खान ने बाद में तोशाखाना से इन्हें सस्ते दामों पर खरीदा और बड़े मुनाफे में बेच दिया. इस पूरी प्रक्रिया को उन की सरकार ने बाकायदा कानूनी इजाजत दी थी.

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इमरान खान ने 2.15 करोड़ रुपए में इन गिफ्टों को तोशाखाना से खरीदा था और इन्हें बेच कर 5.8 करोड़ रुपए का मुनाफा कमा लिया था. इन गिफ्टों में एक ग्राफ घड़ी, कफलिंक का एक जोड़ा, एक महंगा पैन, एक अंगूठी और 4 रोलैक्स घड़ियां भी थीं.

पाकिस्तानी मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इमरान खान को सत्ता से हटाए जाने के कुछ महीनों बाद सत्तारूढ़ गठबंधन के कुछ सांसदों ने नैशनल असेंबली के अध्यक्ष राजा परवेज अशरफ ने सामने एक आरोपपत्र दायर किया था. इस में इमरान खान पर आरोप लगाए गए थे कि जो गिफ्ट उन्हें मिले, उस का ब्योरा तोशाखाना को नहीं सौंपा गया था. उन्हें बेच कर पैसे कमाए गए.

पाकिस्तान के स्पीकर ने इस मामले में जांच कराई, जिस के बाद इमरान खान को नोटिस मिला था. उन्होंने इस नोटिस का जवाब दिया था और कहा था कि प्रधानमंत्री रहते हुए मिले 4 गिफ्टों को उन्होंने बेच दिया था. बाद में वही गिफ्ट इमरान खान के गले की हड्डी बन गए और तोशाखाना ने उन का खाना खराब कर दिया.

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