राजनीतिक रंजिशें किसी की सगी नहीं

लेखक- अक्षय कुलश्रेष्ठ

विपक्षी अमला ही अब हमलावर हो गया और राजनीतिक वजूद की लड़ाई सामने आ गई. चुनचुन कर लोगों की हत्याएं हो रही हैं. राजनीतिक रसूख पर ऐसा बट्टा लगा है जो बहुतों की रातों की नींदें हराम कर रहा है. यह बात राजनीतिक लोगों को हजम नहीं हो पा रही है कि अब विपक्ष नाम की कोई चीज है भी या नहीं.

एक तरफ हापुड़ में एक कांड को अंजाम दिया गया, वहीं अमेठी भी इस से अछूता नहीं रहा. हापुड़ के गांव करनपुर में घर के बाहर सो रहे भारतीय जनता पार्टी के पन्ना प्रमुख चंद्रपाल की 25 मई 2019 की रात गोलियों से भून कर हत्या कर दी गई. पास में ही सो रहे बेटे देवेंद्र ने जब शोर मचाया तो दोनों बदमाश अंधेरे का फायदा उठाते हुए जंगल की ओर भाग गए.

हुआ यों कि हापुड़ के गांव करनपुर के रहने वाले चंद्रपाल सिंह पुत्र पूरन सिंह भाजपा के पन्ना प्रमुख थे. उन के 5 बेटे व एक बेटी हैं. 25 मई 2019 की रात वह घर के बाहर सो रहे थे, वहीं पास में ही दूसरी चारपाई पर उन का बेटा देवेंद्र सो रहा था. देर रात 2 बदमाश वहां आए और चंद्रपाल के पड़ोसी धर्मपाल के घर के बाहर लगे खंभे पर बल्ब फोड़ कर अंधेरा कर दिया. इस के बाद बदमाशों ने चंद्रपाल को आवाज लगाई.

आवाज सुन कर चंद्रपाल जैसे ही उठ कर बैठे, बदमाशों ने उन की कनपटी से सटा कर गोली चला दी, लेकिन निशाना चूक गया. गोली उन की बाईं आंख में जा लगी. इस के बाद वह औंधे मुंह नीचे गिर गए. बदमाशों ने चंद्रपाल की कमर में भी 2 गोलियां मारीं.

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गोलियों की आवाज सुन कर देवेंद्र की नींद खुली तो उस ने शोर मचा दिया. इस के बाद बदमाश पैदल ही अंधेरे का फायदा उठाते हुए जंगल की ओर भाग गए. शोर सुन कर गांव वाले जमा हुए तब तक चंद्रपाल की मौैत हो चुकी थी.

वहीं दूसरी ओर अमेठी के बरौलियां गांव में भी 25 मई 2019 की रात वारदात हुई. वहां भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत की खुशी मना रही थी. देर रात साढ़े 11 बजे 2 बाइक सवार बदमाश वहां आए. बदमाशों ने पूर्व प्रधान और भाजपा के समर्थक सुरेंद्र सिंह के सिर में गोली मार दी और मौके से फरार हो गए.

हत्या के वक्त सुरेंद्र सिंह घर के बरामदे में सो रहे थे, तभी उन पर गोलियों से हमला हुआ. घायल हालत में सुरेंद्र सिंह को अस्पताल ले गए, जहां डाक्टरों ने उन्हें लखनऊ के लिए रैफर कर दिया. लखनऊ ले जाते समय रास्ते में ही दम तोड़ दिया.

स्मृति ईरानी सुरेंद्र सिंह की शवयात्रा में शामिल हुईं और उन्होंने अर्थी को कंधा भी दिया. उन्होंने कहा कि सुरेंद्र की हत्या करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा. हत्या करने और करवाने वाले दोनों को कड़ी सजा दिलाएंगे. इस के लिए सुप्रीम कोर्ट तक भी जाना पड़ा तो जाएंगे और उन की लड़ाई पार्टी लड़ेगी.

पत्नी रुक्मणि सिंह ने कहा कि स्मृति ईरानी ने भरोसा दिया है कि वे अपने बच्चों की तरह ही मेरे बच्चों का खयाल रखेंगी. स्मृति ईरानी ने कहा कि अब इस परिवार को संभालने की जिम्मेदारी मेरी है. यह मेरी लड़ाई है. मैं सुप्रीम कोर्ट तक जाऊंगी.

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बेटे अभय ने कहा कि मेरे पिता भारतीय जनता पार्टी की नेता स्मृति ईरानी के काफी करीबी थे और लोकसभा चुनाव में प्रचार की जिम्मेदारी निभा रहे थे. जीत के लिए विजय यात्रा निकाली जा रही थी. यह बात कांग्रेस नेताओं को हजम नहीं हुई, शायद इसीलिए उन की हत्या कर दी गई.

सुरेंद्र सिंह ने 2109 लोकसभा चुनाव में स्मृति ईरानी के चुनाव प्रचार में अहम भूमिका निभाई थी. कई गांवों में सुरेंद्र सिंह का अच्छाखासा दबदबा था. इस का फायदा इस चुनाव में स्मृति ईरानी को मिला. कांग्रेस के गढ़  अमेठी में कमल खिलाने का श्रेय काफी हद तक सुरेंद्र सिंह को भी जाता है.

Edited by – Neelesh Singh Sisodia

शत्रुघ्न सिन्हा की राजनीति…

शत्रुघ्न सिन्हा काफी समय से अपनी पार्टी के खिलाफ कुछ न कुछ कह रहे थे. वे लाल कृष्ण आडवाणी के खेमे के माने जाते थे, पर ऊंची जाति के हैसियत वाले थे, इसलिए उन्हें कहा तो खूब गया, लेकिन गालियां नहीं दी गईं. सोशल मीडिया में चौकीदार का खिताब लगाए गुंडई पर उतारू बड़बोले, गालियों की भाषा का जम कर इस्तेमाल करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा के मामले में मोदीभक्त होने का फर्ज अदा करते रहे. हां, उदित राज के मामले में वे एकदम मुखर हो गए. एक दलित और दलित हिमायती की इतनी हिम्मत कि पंडों की पार्टी की खिलाफत कर दे. जिस पार्टी का काम मंदिर बनवाना, पूजाएं कराना, ढोल बजाना, तीर्थ स्थानों को साफ करवाना, गंगा स्नान करना हो, उस की खिलाफत कोई दलित भला कैसे कर सकता है?

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वैसे, उदित राज ने 5 साल पहले ही भाजपा में जा कर गलती की थी. दलितों की सदियों से जो हालत है, वह इसीलिए है कि ऊंची जातियों के लोग हर निचले पिछड़े तेज जने को अपने साथ मिला लेते हैं, ताकि वह दलितों का नेता न बन सके. यह समझदारी न भारत के ईसाइयों में है, न मुसलमानों में और न ही सिखों या बौद्धों में. उन्हें अपना नेता चुनना नहीं आता, इसलिए हिंदू पंडों को नेताटाइप लोगों को थोड़ा सा चुग्गा डाल कर अपना काम निकालने की आदत रही है. 1947 से पहले आजादी की लड़ाई में यही किया गया. किसी सिख, ईसाई, बौद्ध, शूद्र, अछूत को अलग नेतागीरी करने का मौका ही नहीं दिया गया. जैसे ही कोई नया नाम उभरता, चारों ओर से पंडों की भीड़ उसे फुसलाने को पहुंच जाती. मायावती के साथ हाल के सालों में ऐसा हुआ, प्रकाश अंबेडकर के साथ हुआ, किसान नेता चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह के साथ हुआ. उदित राज मुखर दलित लेखक बन गए थे. उन्हें भाजपा का सांसद का पद दे कर चुप करा दिया गया. इस से पहले वाराणसी के सोनकर शास्त्री के साथ ऐसा किया गया था. उदित राज का इस्तेमाल कर के, उन की रीढ़ की हड्डी को तोड़ कर घी में पड़ी मरी मक्खी की तरह निकाल फेंका और किसी हंसराज हंस को टिकट दे दिया. अगर वे जीत गए तो वे भी तिलक लगाए दलितवाद का कचरा करते रहेंगे. दलितों की हालत वैसी ही रहेगी, यह बिलकुल पक्का?है. यह भी पक्का है कि जब तक देश के पिछड़ों और दलितों को सही काम नहीं मिलेगा, सही मौके नहीं मिलेंगे, देश का अमीर भी जलताभुनता रहेगा कि वह किस गंदे गरीब देश में रहता?है. अमीरों की अमीरी बनाए रखने के लिए गरीबों को भरपेट खाना, कपड़ा, मकान और सब से बड़ी बात इज्जत व बराबरी देना जरूरी है. यह बिके हुए दलित पिछड़े नेता नहीं दिला सकते हैं. जिस की लाठी उस की भैंस जमीनों के मामलों में आज भी गांवों में किसानों के बीच लाठीबंदूक की जरूरत पड़ती है, जबकि अब तो हर थोड़ी दूर पर थाना है, कुछ मील पर अदालत है. यह बात घरघर में बिठा दी गई है कि जिस के हाथ में लाठी उस की भैंस. असल में मारपीट की धमकियों से देशभर में जातिवाद चलाया जाता है. गांव के कुछ लठैतों के सहारे ऊंची जाति के ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य गांवों के दलितों और पिछड़ों को बांधे रखते हैं. अब जब लाठी और बंदूक धर्म की रक्षा के लिए दी जाएगी और उस से बेहद एकतरफा जातिवाद लादा जाएगा, तो जमीनों के मामलों में उसे इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाएगा. अब झारखंड का ही मामला लें.

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1985 में एक दोपहर को 4 लोगों ने मिल कर खेत में काम कर रहे कुछ किसानों पर हमला कर दिया था. जाहिर है, मुकदमा चलना था. सैशन कोर्ट ने उन चारों को बंद कर दिया. लंबी तारीखों के बाद 2001 में जिला अदालत ने उन्हें आजन्म कारावास की सजा सुनाई. इतने साल जेल में रहने के बाद उन चारों को अब छूटने की लगी. हाथपैर मारे जाने लगे. हाईकोर्ट में गए कि कहीं गवाह की गवाही में कोई लोच ढूंढ़ा जा सके. हाईकोर्ट ने नहीं सुनी. 2009 में उस ने फैसला दिया. अब चारों सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. क्यों भई, जब लाठीबंदूक से ही हर बात तय होनी है तो अदालतों का क्या काम? जैसे भगवा भीड़ें या खाप पंचायतें अपनी धौंस चला कर हाथोंहाथ अपने मतलब का फैसला कर लेती हैं, वैसे ही लाठीबंदूक से किए गए फैसले को क्यों नहीं मान लिया गया और क्यों रिश्तेदारों को हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट दौड़ाया गया, वह भी 34 साल तक? लाठी और बंदूक से नरेंद्र मोदी चुनाव जीत लें, पर राज नहीं कर सकते. पुलवामा में बंदूकें चलाई गईं तो क्या बालाकोट पर बदले की उड़ानों के बाद कश्मीर में आतंकवाद अंतर्ध्यान हो गया? राम ने रावण को मारा तो क्या उस के बाद दस्यु खत्म हो गए? पुराणों के हिसाब से तो हिरण्यकश्यप और बलि भी दस्यु थे, अब वे विदेशी थे या देशी ही यह तो पंडों को पता होगा, पर एक को मारने से कोई हल तो नहीं निकलता. अमेरिका 30 साल से अफगानिस्तान में बंदूकों का इस्तेमाल कर रहा है, पर कोई जीत नहीं दिख रही. बंदूकों से राज किया जाता है पर यह राज हमेशा रेत के महल का होता है. असली राज तब होता है जब आप लोगों के लिए कुछ करो.

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मुगलों ने किले, सड़कें, नहरें, बाग बनवाए. ब्रिटिशों ने रेलों, बिजली, बसों, शहरों को बनाया तो राज कर पाए, बंदूकों की चलती तो 1947 में ब्रिटिशों को छोड़ कर नहीं जाना पड़ता. जहां भी आजादी मिली है, लाठीबंदूक से नहीं, जिद से मिली है. जमीन के मामलों में ‘देख लूंगा’, ‘काट दूंगा’ जैसी बातें करना बंद करना होगा. जाति के नाम पर लाठीबंदूक काम कर रही है, पर उस के साथ भजनपूजन का लालच भी दिया जा रहा है, भगवान से बिना काम करे बहुतकुछ दिलाने का सपना दिखाया जा रहा है. झारखंड के मदन मोहन महतो व उन के 3 साथियों को इस हत्या से क्या जमीन मिली होगी और अगर मिली भी होगी तो क्या जेलों में उन्होंने उस का मजा लूटा होगा?

मोदी की नैया

यह गनीमत ही कही जाएगी कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान से व्यर्थ का युद्ध नहीं लड़ा.

सेना को एक निरर्थक युद्ध में झोंक देना बड़ी बात न होती. पर जैसा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि युद्ध शुरू करना आसान है, युद्ध जाता कहां है, कहना कठिन है. वर्ष 1857 में मेरठ में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई ब्रिटिशों की हिंदुओं की ऊंची जमात के सैनिकों ने छेड़ी लेकिन अंत हुआ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र ब्रिटिश राज में, जिस में विद्रोही राजा मारे गए और बाकी कठपुतली बन कर रह गए.

आक्रमणकारी पर विजय प्राप्त  करना एक श्रेय की बात है, पर चुनाव जीतने के लिए आक्रमण करना एक महंगा सौदा है, खासतौर पर एक गरीब, मुहताज देश के लिए जो राइफलों तक के  लिए विदेशों का मुंह  ताकता है, टैंक, हवाईजहाजों, तोपों, जलपोतों, पनडुब्बियों की तो बात छोड़ ही दें.

नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव का मुद्दा उन के पिछले 5 वर्षों के काम होना चाहिए. जब उन्होंने पिछले हर प्रधानमंत्री से कई गुना अच्छा काम किया है, जैसा कि उन का दावा है, तो उन्हें चौकीदार बन कर आक्रमण करने की जरूरत ही क्या है? लोग अच्छी सरकार को तो वैसे ही वोटे देते हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बिना धार्मिक दंगे कराए चुनाव दर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा बिना सेना, बिना डंडे, बिना खूनखराबे के बना हुआ है.

नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत प्रधानमंत्री, मेहनती प्रधानमंत्री, हिम्मतवाला प्रधानमंत्री, चौकीदार प्रधानमंत्री, करप्शनफ्री प्रधानमंत्री कहने की जरूरत ही नहीं है, सैनिक कार्यवाही की तो बिलकुल नहीं.

रही बात पुलवामा का बदला लेने की, तो उस के बाद बालाकोट पर हमला करने के बावजूद कश्मीर में आएदिन आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं. आतंकवादी जिस मिट्टी के बने हैं, उन्हें डराना संभव नहीं है. अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक, सीरिया में प्रयोग किया हुआ है. पहले वह वियतनाम से मार खा चुका है. अमेरिका के पैर निश्चितरूप से भारत से कहीं ज्यादा मजबूत हैं चाहे जौर्ज बुश और बराक ओबामा जैसे राष्ट्रपतियों की छातियां 56 इंच की न रही हों. बराक ओबामा जैसे सरल, सौम्य व्यक्ति ने तो पाकिस्तान में एबटाबाद पर हमला कर ओसामा बिन लादेन को मार ही नहीं डाला था, उस की लाश तक ले गए थे जबकि उन्हें अगला चुनाव जीतना ही नहीं था.

नरेंद्र मोदी की पार्टी राम और कृष्ण के तर्ज पर युद्ध जीतने की मंशा रखती है पर युद्ध के  बाद राम को पहले सीता को, फिर लक्ष्मण को हटाना पड़ा था और बाद में अपने ही पुत्रों लवकुश से हारना पड़ा था. महाभारत के जीते पात्र हिमालय में जा कर मरे थे और कृष्ण अपने राज्य से निकाले जाने के बाद जंगल में एक बहेलिए के तीर से मरे थे. चुनाव को जीतने का युद्ध कोई उपाय नहीं है. जनता के लिए किया गया काम चुनाव जिताता है. भाजपा को डर क्यों है कि उसे युद्ध का बहाना भी चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार तो आज तक की सरकारों में सर्वश्रेष्ठ रही ही है न!

गरीबी बनी एजेंडा

राहुल गांधी का नया चुनावी शिगूफा कि यदि वे जीते तो देश के सब से गरीब 20 फीसदी लोगों को 72,000 रुपए साल यानी 6,000 रुपए प्रति माह हर घर को दिए जाएंगे, कहने को तो नारा ही है पर कम से कम यह राम मंदिर से तो ज्यादा अच्छा है. भारतीय जनता पार्टी का राम मंदिर का नारा देश की जनता को, कट्टर हिंदू जनता को भी क्या देता? सिर्फ यही साबित करता न कि मुसलमानों की देश में कोई जगह नहीं है. इस से हिंदू को क्या मिलेगा?

लोगों को अपने घर चलाने के लिए धर्म का झुनझुना नहीं चाहिए चाहे यह सही हो कि पिछले 5,000 सालों में अरबों लोगों को सिर्फ और सिर्फ धर्म की खातिर मौत की नींद सुलाया गया हो. लोगों को तो अपने पेट भरने के लिए पैसे चाहिए.

यह कहना कि सरकार इस तरह का पैसा जमा नहीं कर सकती, अभी तक साबित नहीं हुआ है. 6,000 रुपए महीने की सहायता देना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है. अगर सरकार अपने सरकारी मुलाजिमों पर लाखों करोड़ रुपए खर्च कर सकती है, उस के मुकाबले यह रकम तो कुछ भी नहीं है. यह कहना कि इस तरह का वादा हवाहवाई है तो गलत है, पर सवाल दूसरा है.

सवाल है कि देश की 20 फीसदी जनता को इतनी कम आमदनी पर जीना ही क्यों पड़ रहा है? इस में जितने नेता जिम्मेदार उस से ज्यादा वह जाति प्रथा जिम्मेदार है जिस की वजह से देश की एक बड़ी आबादी को पैदा होते ही समझा दिया जाता है कि उस का तो जन्म ही नाली में कीड़े की तरह से रहने के लिए हुआ है. उन लोगों के पास न घर है, न खेती की जमीन, न हुनर, न पढ़ाई, न सामाजिक रुतबा. वे तो सिर्फ ऊंची जातियों के लिए इतने में काम करने को मजबूर हैं कि जिंदा रह सकें.

देश का ढांचा ही ऐसा है कि इन गरीबों की न आवाज है, न इन के नेता हैं जो इन की बात सुना सकें. उन को समझाने वाला कोई नहीं. गनीमत बस यही है कि 1947 के बाद बने संविधान में इन्हें जानवर नहीं माना गया.

1947 से पहले तो ये जानवर से भी बदतर थे. अमेरिका के गोरे मालिक अपने नीग्रो काले गुलामों की ज्यादा देखभाल करते थे, क्योंकि वे उन के लिए काम करते थे और बीमार हो जाएं या मर जाएं तो मालिक को नुकसान होता था. हमारे ये गरीब तो किसी के नहीं हैं, खेतों के बीच बनी पगडंडी हैं जिस की कोई सफाई नहीं करता. हर कोई इस्तेमाल कर के भूल जाता है.

इन को 72,000 रुपए सालाना दिया जा सकता है. कैसे दिया जाएगा, पैसा कहां से आएगा यह पूछा जाएगा, पर कम से कम इन की बात तो होगी. ऊंची जातियों के लिए यह झकझोरने वाली बात है कि 25 करोड़ लोग ऐसे हैं जो आज इस से भी कम में जी रहे हैं. क्यों, यह सवाल तो उठा है. असली राष्ट्रवाद यही है, मंदिर की रक्षा नहीं.

योगी के बोल : दलित हैं हनुमान

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रा योगी आदित्यनाथ चुनाव प्रचार में ‘स्टार प्रचारक’ माने जाते हैं. भाजपा के लिये प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद उनकी नम्बर दो की रेटिंग है. योगी को संत मान कर लोग उम्मीद करते है कि वह कुछ गंभीर मुद्दों पर बात करेगे. योगी अपने बडबोलेपन की वजह से हास्य परिहास का विषय होकर रह जा रहे है. राजस्थान के चुनावी प्रचार में योगी ने अलवर में कहा कि ‘हनुमान दलित थे’. योगी संत है. धर्म के बड़े जानकार हैं. ऐसे में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह गलत बोल रहे होंगे. योगी के बयान को तर्क के आधर पर देखे तो यह बात सही भी लगती है. हनुमान जंगल और पहाड़ पर रहते थे. ऐसे में हनुमान दलित से अधिक आदिवासी माने जा सकते हैं. ऐसे में उनको दलित यानि एससी की जगह पर एसटी माना जा सकता था. योगी ने हनुमान को दलित, वनवासी, गिरवर और वंचित भी कहा है.

जिस तरह से हनुमान को राम का भक्त यानि दास बताया गया उससे भी साफ लगता है कि वह सवर्ण जाति के राजा राम की सेवा ही करते थे. हनुमान को हमेशा राम के पैरों के पास ही बैठा देखा गया है. अगर पूजा की नजर से देखें तो हनुमान ही सबसे उपेक्षित दिखते हैं. सभी भगवान की पूजा के लिये बड़े बड़े मंदिर बनते हैं, हनुमान अकेले ऐसे हैं जिनकी पूजा करने के लिये भव्य मंदिर की जरूरत नहीं है. कहीं भी किसी भी जगह पर ईट और पताका मतलब लाल कपड़े की झंडी लगाकर पूजा शुरू की जा सकती है. ऐसे में वह सवर्ण देवताओं के मुकाबले दलित ही लगते हैं.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बयान पर विरोधी दलों से पहले सवर्णों का ही विरोध शुरू हो गया है. राजस्थान की ब्राह्मण सभा ने योगी को कानूनी नोटिस भेजा है. योगी सरकार के अंदर काम करने वाले डाक्टर राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोपफेसर मनोज दीक्षित ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा ‘देवी देवता आपके लिये राजनीति का विषय हो सकते है पर हमारे लिये वह आस्था का विषय है. ऐसे में देवीदेवताओं में जाति और धर्म न तलाशें.’

योगी के बयान पर भाजपा के ही सांसद उदित राज ने कहा ‘योगी के बयान से साफ हो गया कि रामराज में भी दलित थे. जाति व्यवस्था थी. संविधान कहता है कि जाति के नाम पर वोट नहीं मांगने चाहिये, जाति के आधार पर वोट ज्यादा पड़ते हैं. योगी का बयान उसी अपील के लिये देखा जा सकता है.’ राजस्थान के चुनाव में दलित वोट की नजर से इस बयान को देखा जा रहा है. अब केवल हनुमान को दलित नहीं माने जाते बल्कि राक्षसों को दलित माना जाता है. योगी के इस बयान से यह साफ हो गया है कि रामराज में भी जाति प्रथा थी.

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