पश्चात्ताप- भाग 3: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

मैं सांत्वना देने का प्रयास कर रहा हूं, ‘आप का बेटा बिलुकल ठीक हो जाएगा, आप चिंता मत कीजिए,’ बाकी औरतों की आवाज से कैजुअल्टी गूंजने लगती है.

मैं वार्डब्वाय को आवाज दे कर इशारे से कहता हूं कि इन सब औरतों को बाहर निकाल दो, लड़के की मां को छोड़ कर. सब से भी प्रार्थना करता हूं कि आप सब कृपा कर के बाहर चली जाएं और हमें अपना काम करने दें. सभी महिलाएं चुपचाप बाहर निकल जाती हैं. केवल लड़के की मां रह जाती है. मैं उस के बेटे के ठीक होने का विश्वास दिलाता हूं और वह संतुष्ट दिखाई देती है. दूसरे युवक पर मेरा ध्यान जाता है. उस की ओर इशारा कर के मैं पूछता हूं, ‘यह कौन है? यह युवक भी तो आप के बेटे के साथ ही आया है?’

वह औरत चौंकती है दूसरे युवक को देख कर, ‘अरे, यह तो शिरीष का दोस्त है, अनिल, कैसा है बेटा तू?’ वह उठ कर उस के पास पहुंचती है. मैं ने देखा वह दर्द से बेचैन था. मैं डाक्टर विमल को आवाज देता हूं, ‘डाक्टर , प्लीज, इस युवक का जल्दी एक्सरे करवाइए या मुझे निरीक्षण करने दीजिए. इसे चैस्ट पेन हो रहा है. मैं शिरीष की ओर इशारा कर के कहता हूं, ‘आप इसे संभालिए, मैं उसे देख लेता हूं.’ मुझे कोई जवाब मिले, इस से पहले ही सर्जन आ जाते हैं और मुझ से कहते हैं, ‘डाक्टर प्लीज, आप को ऐसे ही हमारे साथ औपरेशन थिएटर तक चलना होगा. आप अगर अंगूठा हटाएंगे अभी, तो फिर काफी खून बहेगा,’ और मैं उन के साथ युवक की ट्राली के साथसाथ औपरेशन थिएटर की ओर चल पड़ता हूं.

जातेजाते मैं देखता हूं कि डाक्टर विमल उस युवक को एक्सरे के लिए रवाना कर रहे हैं. ‘इस की वैट फिल्म (गीली एक्सरे) मंगवा लेना’, मैं जोर दे कर कहता हूं और रवाना हो जाता हूं. आधा घंटा औपरेशन थिएटर में लगा कर लौटता हूं और ज्यों ही कैजुअल्टी के पास पहुंचता हूं, मुझे एक हृदयविदारक चीख सुनाई देती है. मेरे पैरों की गति तेज हो गई है.

मैं दौड़ कर कैजुअल्टी पहुंचता हूं. ‘यह कौन चीख रहा था?’ मैं सिस्टर से पूछा रहा हूं. उस ने बैड की ओर इशारा किया और मैं ने देखा कि डा. विमल अपना स्टेथस्कोप लगा कर उस युवक के दिल की धड़कन सुनने का प्रयास कर रहे हैं, ‘ही इज डैड, डाक्टर, ही इज डैड,’ ओफ, यह क्या हो गया? जिस बात से मैं डर रहा था, वही हुआ. कार्डियक मसाज, इंजैक्शन कोरामिन, इंजैक्शन एड्रीनलीन, कोई भी उसे पुनर्जीवित नहीं कर पा रहा है. डा. विमल इस की वैट फिल्म के लिए कहते हैं, ‘अरे लक्ष्मण, तू एक्सरे नहीं लाया?’

‘जाता हूं साहब, यहां एक मिनट तो फुरसत नहीं मिलती,’ वैट फिल्म आई और जब मैं ने उसे देखा तो मेरे मुंह से एक आह निकल गई. डा. विमल ने पूछा, ‘क्या हुआ डाक्टर?’

हम इसे बचा सकते थे, इसे तो निमोथोरेक्स था. फेफड़े में छेद हो गया था, जिस से बाहरी हवा तेजी से घुस कर उस पर दबाव डाल रही थी और मरीज को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी. काश, मैं ने इस का निरीक्षण किया होता. एक मोटी सूई डालने से ही इमरजैंसी टल सकती थी और बाद में फिर एक रबर ट्यूब डाल दी जाती मोटी सी. तो मरीज नहीं मरता.

‘काश, मैं इसे समय पर देख पाता तो यह यों ही नहीं चला गया होता,’ मेरे स्वर में पश्चात्ताप था. पर मैं अब कुछ नहीं कर सकता था. यही अनुताप मेरे मन को और व्यथित कर रहा था. तभी शिरीष की मां आई. वह शायद कुछ भूल गई थी. पूछा, ‘कैसा हैवह शिरीष का दोस्त?’ और मेरा वेदनायुक्त चेहरा तथा मरीज के ऊपर ढकी हुई सफेद चादर अनकही बात को कह रही थी.

‘ओह, यह तो अपनी विधवा मां का अकेला लड़का था. बहुत बुरा हुआ. शिरीष सुनेगा तो पागल हो उठेगा,’ उस की मां कह रही थी. मेरी कैजुअल्टी में एक पल भी ठहरने की इच्छा नहीं हुई. डा. विमल दूसरे डाक्टर को मरीजों के औवर दे रहे थे. हमारी ड्यूटी समाप्त हो चुकी थी, मेरे पैर दरवाजे की ओर बढ़ गए. पर एक घंटे बाद ही मुझे वापस लौटना पड़ा अपना स्टेथस्कोप लेने के लिए. इच्छा तो नहीं थी, पर जाना पड़ा.

अंदर घुसते ही आंखें स्वत: ही उस युवक के बैड की ओर मुड़ गईं. ऐसा ही जड़वत चेहरा, जैसा अर्जुन की मां का है, वही भावशून्य आंखें ले कर एक अधेड़ औरत बैठी थी. उस की अपनी मां, वही दृश्य जो मैं ने 25 वर्षों पहले देखा था. आज उस की पुनरावृत्ति हो रही थी.

कुछ देर पहले मैं उस ड्राइवर के लिए सजा की तजवीज कर रहा था. क्या दंड मिलना चाहिए उसे, यह  सोच रहा था. पर काश, अपने व डा. विमल के लिए भी कोई सजा सोच पाता, सिवा इस पश्चात्ताप की अग्नि में जलने के. मेरा मन हाहाकार कर उठता है. कब मैं निगम बोध घाट पहुंच गया हूं. पता नहीं चला. सामने अर्जुन की चिता जल रही है. धूधू करती लाश, यह तो कुछ देर में बुझ जाएगी, पर क्या मेरे मन की आग बुझ सकेगी कभी?

पश्चात्ताप- भाग 2: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

‘अरे, यह क्या कर रहे हो?’ मैं ने जल्दी से अपने अंगूठे से दबा दिया. फिमोरल आरटरी कटी थी युवक की. उस व्यक्ति ने अपने अंगूठे से उस कटे स्थान को दबा कर काफी समझदारी का परिचय दिया था.

‘‘मांजी, मांजी,’’ एक आदमी अर्जुन की मां को झझकोर रहा है. मानो वह उन्हें सोए से जगाने का प्रयत्न कर रहा हो, ‘‘होश में आओ मांजी, यह अर्जुन है. आप का बेटा,’’ लोग अर्जुन की मां को रुलाना चाह रहे हैं, मैं वर्तमान में लौटता हूं. सब सोच रहे हैं कि यदि यह नहीं रोएगी तो इस के दिमाग पर असर होगा. पर वह वैसी ही बैठी है, अश्रुविहीन आंखें लिए हुए.

क्या रो पाई थी उस युवक की मां? मैं फिर अतीत में लौट जाता हूं. क्या उस के दिमाग पर असर नहीं हुआ होगा? कैसे जी रही होगी अब तक, या मर गई होगी? पुराना दृश्य फिर कौंधता है.

फिमोरल आरटरी दबा कर बैठा हूं और अपने साथ के दूसरे सीएमओ को कहता हूं कि जल्दी से शल्यचिकित्सक को बुलाइए. औपरेशन थिएटर में कहलवा दीजिए. एक फिमोरल आरटरी को रिपेयर करना है. इतने में एक दूसरे युवक को लोग अंदर ला रहे हैं. 3-4 व्यक्तियों ने उसे सहारा दिया हुआ है. वह लंबीलंबी सांसें ले रहा है. मेरे पास आ कर सब रुकते हैं और कहते हैं, ‘डाक्टर साहब, इस युवक को देखिए, यह इस के स्कूटर के पीछे बैठा हुआ था, पलंग पर लेटे उस युवक की ओर इशारा करते हैं जिस की फिमोरल आरटरी मैं दबा कर बैठा हूं. मैं दूसरे डाक्टर की ओर इशारा कर देता हूं क्योंकि मेरे हाथ व्यस्त हैं. डाक्टर विमल मरीज का निरीक्षण करते हैं और उस की हिस्टरी लेते हैं.

‘कहां दर्द है?’ डाक्टर पूछते हैं.

‘छाती में,’ कराहता हुआ युवक बोलता है, ‘मुझे सांस लेने में कठिनाई हो रही है.’

‘नर्स, इसे पेथीडीन का इंजैक्शन लगवा दो,’ डाक्टर आदेश देते हैं.

‘जरा रुकिए, डाक्टर, पहले इस की छाती का एक्सरे करवा लीजिएगा,’ मेरे अंदर का विशेषज्ञ बोल उठता है.

‘ठीक है, अभी एक्सरे के लिए भेज देता हूं, इतने में कोई दर्दनिवारक दवा तो दे ही दूं.’

मेरे अंदर का विशेषज्ञ संतुष्ट नहीं हो पा रहा था. मैं उस दूसरे युवक को देखना चाहता हूं, उस का निरीक्षण कर के उस का निदान करना चाहता हूं. मन ही मन आशंकित हो रहा हूं. कहीं इस की पसली तो नहीं टूट गई है और उस टूटे हुए टुकड़े ने फेफड़े में छेद तो नहीं कर दिया है.

डा. विमल मेरी बात को अनसुना कर देते हैं.

‘‘डाक्टर साहब,’’ कोई मुझे झंझोड़ रहा था, ‘‘क्या किया जाए, यह अर्जुन की मां तो कुछ बोलती ही नहीं. इन के किसी रिश्तेदार को खबर कर दें, कोई यहीं रहता हो तो फोन कर दें, क्या करें? आप ही बताइए. कुछ समझ में नहीं आ रहा, हम क्या करें,’’ मैं फिर वर्तमान में लौटता हूं. मुझे पत्नी की बातें याद आती हैं, ‘अर्जुन की मां का कोईर् नहीं है इस संसार में. पर बड़ी खुद्दार औरत है. किसी के सामने हाथ फैलाना बिलकुल पसंद नहीं करती. मैं कभीकभी ऐसे ही उस की सहायता करना चाहती हूं पर वह कुछ नहीं लेती.’

‘‘इस का तो कोई नहीं है इस संसार में, न पीहर में और न ससुराल में. हमें ही सबकुछ करना है,’’ मुझे डर भी है. मैं स्वगत कहता हूं, ‘दिल्ली जैसे शहर के व्यस्त लोग कहीं अपनेअपने काम का बहाना कर के खिसक न जाएं, फिर मैं अकेला क्या करूंगा?’

सुविधा, मेरी पत्नी, मेरी मनोदशा भांप कर धीरे से मेरा हाथ दबाती है. शब्द मेरे मुंह से निकलते हैं प्रत्यक्ष रूप में, ‘‘आप लोग लाश को उठवा कर निगम बोध घाट ले चलिए. इस की मां को तो कोई होश नहीं है.’’ वास्तव में कोई होश नहीं है. इन आंखों में अभी तक कोई भाव नहीं है, अभी भी अश्रुविहीन आंखें सुदूर, अंधकारमय भविष्य की ओर निहारतीं. इतना बड़ा वज्रपात और यह मौन…

काश, उस बस ड्राइवर ने सोचा होता. उस की असावधानी और लापरवाही कैसे एक समूची जिंदगी को खत्म कर देती है. जिसे अभी पूरा जीवन जीना था, असमय ही कालकवलित हो गया और उस के साथ ही एक पूरा परिवार, जिस में इस अभागी मां का अपने इस कलेजे के टुकड़े के अलावा पूरे संसार में कोई नहीं है, ध्वस्त हो गया है. उस के एकमात्र सहारे की डोर ही टूट गई और उस का खुद का जीवन भी शीशे की तरह किरिचकिरिच हो कर बिखर गया है. कैसे जिएगी यह. काश, वह ड्राइवर सोच पाता, देख पाता.

मुझे एक फिल्म याद आ रही है. ऐसे समय में फिल्म याद आना स्वयं को धिक्कारने को मन करता है, पर मन ही तो है, विचारों पर कोई वश तो नहीं इंसान का. उस फिल्म में एक युवक एक व्यक्ति को कुचल देता है. सर्दी के कोहरे में उसे वह दिखाई नहीं देता और अदालत में जज साहब दंडस्वरूप उस युवक को उस व्यक्ति के परिवार का पालनपोषण करने का भार सौंपते हैं और तब उस युवक को अपने अपराध का एहसास होता है कि कैसे उस की असावधानी ने पूरे परिवार का जीवन संकट में डाल दिया है.

काश, हमारी अदालतें ऐसा ही न्याय कर पातीं. ऐसे ड्राइवरों को इसी प्रकार की सजा दी जाती. जेल की सजा काटने से तो उन्हें उस परिवार के संकट का अनुभव नहीं होता जिस के परिवार का व्यक्ति मौत के मुंह में जाता है. अरे, मैं यह किन विचारों में बह गया हूं, सब लोग तो निगम बोध घाट रवाना हो गए हैं. मैं भी कार में बैठता हूं. स्टीयरिंग घुमाने के साथसाथ मन फिर घूम जाता है. 15-20 औरतें कैजुअल्टी में घुसी चली आ रही हैं. लड़के की मां आगेआगे रोती हुई आरही है, ‘अरे डाक्टर साहब, मेरे बच्चे को क्या हो गया, इसे बचा लीजिए. इस की तो बरात जाने वाली है. अभी एक घंटे के बाद इस की शादी होनी है. यह क्या हो गया मेरे लाल को. मैं ने तो बहुत मना किया था तुझे बाजार जाने को. पर नहीं माना,’ वह जोरजोर से रोने लगती है.

पश्चात्ताप- भाग 1: सुभाष ध्यान लगाए किसे देख रहा था?

Writer- डा. अनुसूया त्यागी

सफेद चादर से ढकी हुई लाश पड़ी थी. भावशून्य चेहरा लिए वह औरत उस लाश के पास ऐसे बैठी थी जैसे मृत युवक के साथ उस का कोई रिश्ता ही न हो. निस्तेज आंखें, वाकशून्य औरत और वह युवक दोनों ही आपस में अजनबीपन का एहसास करवा रहे थे.

अरे, यह तो अर्जुन की मां है. ओह, तो अर्जुन ही दुर्घटनाग्रस्त हुआ है. उस ड्राइवर के उतावलेपन व जल्दबाजी ने फुटपाथ पर चलते हुए बेचारे युवक को ही कुचल दिया. यह अधेड़ औरत, अर्जुन की विधवा मां है. इस का एकमात्र अवलंब अर्जुन ही था. हमारे पड़ोस में ही रह रही है. दूसरों के घर के कपड़ों की सिलाई का काम कर के जैसेतैसे उस ने अपने इकलौते पुत्र को बड़ा किया था, अपनी ओर से भरसक प्रयत्न कर के पुत्र को एमएससी तक पढ़ाया था और जब उसे बेटे की कमाई का आनंद उठाने का समय आया तो यह दुर्घटना हो गई.

मेरी पड़ोसिन होने के नाते व चूंकि मैं डाक्टर था, लोग जल्दी से मुझे बुला कर घर ले आए. किसी के मुंह से एक शब्द नहीं निकल पा रहा है, न सांत्वना का, न ही कोई अन्य शब्द. कभीकभी ऐसी पीड़ादायक स्थितियां आ जाती हैं कि शब्द निरर्थक प्रतीत होते हैं. इतने गहरे जख्म को सहलाना छोड़, छूने भर का एहसास करवाने को जबान ही साथ नहीं देती.

मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार हो रहा था एक गंभीर रोगी को देखने, पर यहां आना अत्यधिक जरूरी था. जब अस्पताल की गाड़ी उस के लड़के को उस के घर के सामने उतार रही थी, वह उन्हें रोकने आई कि अरे, यह कौन है? इसे यहां क्यों उतार रहे हो? जो लोग उसे ले कर आए थे, जवाब देने की हिम्मत उन में से भी किसी की नहीं हुई. उस ने आगे बढ़ कर उस की चादर हटा कर मुंह देखा और जड़वत रह गई और अभी भी ऐसे ही मूक बनी बैठी है. ये भावशून्य आंखें, ओह, ये आंखें…बिलकुल याद दिला रही हैं 25 वर्ष पहले की उन्हीं आंखों की, बिलकुल ऐसी ही थीं. अतीत एक बार फिर साकार हो उठता है मेरे सामने.

यों तो मैं डाक्टर हूं, अब तक पता नहीं कितनों की मृत्यु के प्रमाणपत्र दे चुका हूं. मौतें होती ही रहती हैं, पर कुछ ऐसी होती हैं जो मस्तिष्क पर सदैव के लिए अंकित हो जाती हैं, अगर आप उन से कहीं न कहीं जुड़े हैं तो. वैसे तो डाक्टर व मरीज का रिश्ता… एक मरीज आया, ठीक हो गया, चला गया. ठीक नहीं हुआ तो 2-3 बार आ गया. फिर वह डाक्टर को भूल गया, डाक्टर भी उसे भूल गया. बहुत से रोगी डाक्टर बदलते रहते हैं. आज इस डाक्टर के पास, कल दूसरे डाक्टर के पास. बहुत से रोगी हमेशा आते रहेंगे. कहेंगे, डाक्टर साहब, किसी और डाक्टर के पास जाने की इच्छा नहीं होती और अगर चला भी जाता हूं तो ठीक नहीं हो पाता.

एक मरीज व डाक्टर का रिश्ता कायम रहता है और डाक्टर अपने मरीज के बारे में सबकुछ पता रखता है. पर कभीकभी ऐसा भी होता है कि एक मरीज एक बार ही आया है आप के पास लेकिन फिर भी वह अपनेआप को आप की स्मृति से ओझल नहीं होने देता. आप के लिए एक अकुलाहट व एक अजीब व्याकुलता छोड़ जाता है. काश, मैं उस के लिए यह कर पाता, आप को पश्चात्ताप की अग्नि में जलाता है. आप सोचते हैं कि यदि मुझ से यह गलती न होती तो वह बच जाता और ऐसा ये भावशून्य आंखें मुझे आज से 25 वर्ष पूर्व के अतीत की याद दिला रही हैं, बहुत साम्यता है इन आंखों व उन आंखों में.

मैं ने तब अपनी एमडी की डिगरी ले कर दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में नियुक्ति ली थी कैजुअल्टी औफिसर के पद पर. दिल्ली के इतने बड़े अस्पताल में नियुक्ति होने की बहुत प्रसन्नता थी मुझे, पर यह खुशी अधिक दिनों तक टिकी न रह सकी.

दिल्ली के डाक्टर, विशेषतौर पर इस अस्पताल के डाक्टरों में सुपीरियरिटी कौंपलैक्स बहुत अधिक था. दूसरे प्रदेश से आए हुए व दूसरी जगह के मैडिकल कालेज से पास हो कर आए डाक्टरों को तो वे सब, डाक्टर ही नहीं समझते थे. खैर, मेरी कैजुअल्टी में नियुक्ति हुई थी और कार्य इतना अधिक था कि बात करने का समय ही नहीं मिलता था. मेरे साथी डाक्टर की नियुक्ति मुझ से कुछ पहले हुई थी और उस ने दिल्ली से ही डाक्टरी डिगरी ली थी, सो, उस में अहं भाव अधिक था. कुछ रोब दिखाने की भी आदत थी.

वैसे भी आयुर्विज्ञान संस्थान की कैजुअल्टी में दम लेने की फुरसत ही कहां थी. ‘सिस्टर, इंजैक्शन बेरालगन लगाना बैड नं. 3 को’  व कभी ‘सिस्टर, 6 नंबर को चैस्ट पेन है, एक पेथीडिन इंजैक्शन हंड्रेड मिलीग्राम लगा देना.’ ‘अरे भई, सिस्टर डिसूजा, जरा इस बच्चे को ड्रिप लगेगी, गैस्ट्रोएंटरिट का मरीज है. जल्दी लाइए ड्रिप का सामान.’ सब ओर हड़बड़ाहट, भागदौड़ और अफरातफरी का माहौल. आकस्मिक दुर्घटनाओं व रोग से ग्रसित रोगी एक के बाद एक चले आते हैं.

‘सुभाष, देखो, ट्राली पर कौन है, अरे भई, यह तो गेस्प कर रहा है, औक्सीजन लगाओ जरा,’ ‘सिस्टर, इंजैक्शन कोरामिन लाना.’

इतने में 8-10 लोग आते हैं एक युवक को उठाए हुए, ‘डाक्टर साहब, देखिए इसे, इस युवक का ऐक्सिडैंट हुआ है. इस की खून की नली से बहुत खून बह रहा है, रोकने के लिए इस ने अंगूठे से दबा रखा है. देखिए, ज्यों ही वह अपना अंगूठा हटाता है दिखाने के लिए, खून का फुहारा मेरे कपड़ों व उस के कपड़ों को भी खराब करता है.’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें