दलदल : रेखा की दास्तां

रेखा और आरती बीए के दूसरे साल में पढ़ रही थीं. दोनों का संबंध साधारण परिवारों से था. अमीर लड़कियों की तरह वे दिल खोल कर पैसे खर्च करने की हालत में नहीं थीं.

‘‘काश, मेरे पापा भी रजनी के पापा की तरह पैसे वाले होते, तो मैं भी खूब ऐश करती,’’ रेखा ने रजनी को कार से उतर कर कैंटीन की तरफ जाते देख कर लंबी सांस भरते हुए कहा.

‘‘छोड़ यह सब. पहले तू यह बता कि चाय कौन पिला रहा है, मैं या तू? आरती ने पूछा, ‘‘हम जैसे हैं, वैसे ही भले. हमें रजनी की तरह नहीं बनना.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘पूरा कालेज जानता है कि वह देर तक लड़कों के साथ घूमतीफिरती है, नशा करती है,’’ आरती कैंटीन वाले को चाय लाने का इशारा करते हुए बोली.

चाय पी कर वे दोनों अपनीअपनी स्कूटी पर सवार हो कर अपने घरों की ओर चल दीं.

एक दिन रेखा ने आरती को फोन किया, ‘‘यार, तेरे साथ लंच करने का मन कर रहा है. बिल की चिंता मत करना, मैं पैसे दे दूंगी.’’

‘‘अरे वाह, लंच… वह भी तेरे साथ. मजा आ गया. जल्दी बोल, मुझे तेरे घर कब आना है?’’ आरती ने खुशी से उछलते हुए कहा.

‘‘तू डिलाइट रैस्टोरैंट पहुंच जा. मैं गेट पर तेरा इंतजार कर रही हूं,’’ रेखा ने जिस रैस्टोरैंट का पता बताया था, वह शहर के सब से महंगे रैस्टोरैंटों में गिना जाता था.

आरती ने दोबारा नाम पूछा, तो रेखा ने जो लोकेशन बताई, यह वही डिलाइट रैस्टोरैंट था.

आरती फटाफट तैयार हुई और डिलाइट रैस्टोरैंट पहुंच गई. रेखा वहीं खड़ी थी. उस ने महंगी जींस और मैचिंग का टौप पहन रखा था. इस ड्रैस में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी.

रेखा ने आरती का हाथ थामा और उसे भीतर ले गई.

आरती पहली बार शहर के सब से अच्छे रैस्टोरैंट के भीतर आई थी.

‘‘बोल, क्या खाएगी?’’ रेखा ने मीनू सामने रखते हुए पूछा.

‘‘बाप रे, यहां तो सब महंगा है. लंच छोड़ आमलेट मंगा ले, मेरे लिए वही काफी है,’’ आरती ने मीनू पर निगाह डालते हुए कहा, तो रेखा हंस दी.

‘‘माई डियर सहेली, पैसों की चिंता छोड़. तू तो बस यह बता कि खाने में तुझे क्याक्या पसंद है. मैं अभी सारी चीजें मंगाती हूं.’’

‘‘पर इतना सब तो… तेरी लौटरी लगी है या पर्स उड़ा लाई है किसी का?’’ कहते हुए आरती समझ नहीं पा रही थी कि अचानक उस की सहेली इतनी फुजूलखर्च कैसे हो गई.

‘‘सवाल मत कर. भूख के मारे मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं. तुझ से तो और्डर भी नहीं दिया जाएगा. मुझे ही बताना पड़ेगा,’’ कहते हुए उस ने वेटर को ढेर सारी चीजें लाने को कह दिया.

आरती बहुतकुछ पूछना चाहती थी, पर चुप रही. दोनों के खाने का बिल 4 हजार रुपए से भी ज्यादा का आया.

रेखा ने पर्स निकाला, तो उस के भीतर हजारहजार के कई नोट देख कर आरती की आंखें फटी की फटी रह गईं.

रेखा ने टिप में 5 सौ रुपए का नोट दिया, तो आरती का शक गहरा गया.

‘‘सचसच बता, आजकल तेरे रंगढंग बदले हुए क्यों लग रहे हैं? कहीं तू कोई उलटासीधा काम तो नहीं करने लगी?’’ आरती ने 2-3 दिन बाद रेखा से पूछ ही डाला.

‘‘छोड़ ये सब बेकार की बातें. जिंदगी मिली है, तो क्यों न मजा किया जाए. आज जिस की जेब में पैसा है, इस दुनिया में जीने का हक केवल उसी के पास है.

‘‘पैसा हो तो हर खुशी आप के कदमों में होती है,’’ रेखा अपनी रौ में बोले जा रही थी.

तभी रेखा का मोबाइल फोन बज उठा. उस के हाथ में चमचमाता महंगा फोन देख कर आरती दंग रह गई.

‘‘हां, मैं पहुंच जाऊंगी.’’

‘‘तेरा बौयफ्रैंड है क्या?’’ आरती ने पूछा, तो रेखा खिलखिला कर हंस दी, ‘‘नहीं, दोस्त है… कुछ समझ मेरी भोलीभाली सहेली?’’

आरती समझ गई कि कुछ ऐसा जरूर है, जिसे रेखा छिपा रही है. अब वह पहले वाली रेखा नहीं लगती थी, बल्कि बोल्ड, बिंदास और खिलंदड़ किस्म की लड़की नजर आने लगी थी.

‘‘कसम से सच बता, बात क्या है? मैं जानती हूं कि तू मुझ से कुछ छिपा रही है. मैं तेरी सहेली हूं. तुझे बताना ही होगा.

‘‘शीलू कह रही थी कि तू आजकल होटलों में बहुत जाती है,’’ आरती ने जिद की, तो रेखा ने सच बता दिया.

‘‘मैं अपनी मरजी से जाती हूं. एक रात के 10 हजार रुपए से 50 हजार रुपए तक वसूल करती हूं. जब जी में आता

है, बुकिंग कर लेती हूं. बुराई क्या है इस में?’’

‘‘तू कालगर्ल बन गई? शर्म नहीं आती तुझे यह सब करते हुए? पैसे के लिए तू इतना नीचे गिर जाएगी, मैं ने सोचा भी नहीं था.

‘‘मेरी मान, छोड़ दे यह सब, वरना एक दिन बहुत पछताएगी,’’ आरती ने उसे झकझोरते हुए कहा.

‘‘बंद कर अपनी भाषणबाजी. मेरे पास जिस्म की दौलत है, तो मैं उसे क्यों न भुनाऊं? हमारे कालेज की कई लड़कियां यही सब करती हैं. तू कहे तो मैं नाम बताऊं?’’

‘‘रहने दे, मुझे नहीं जानना. मैं तो कहूंगी कि तू भी इस दलदल से बाहर आ जा. दौलत की चाह में खुद को मत गिरवी रख. प्लीज, मेरी बात मान ले,’’ आरती ने बहुत समझाया, पर रेखा पर तो दौलत की शह पर ऐश की जिंदगी बिताने का भूत सवार था.

बदनामी होने लगी, तो आरती ने रेखा से दूरी बना ली. रेखा जिस राह पर चल रही थी, वहां का दलदल और गहरा होता गया. एक समय ऐसा आया कि वह चाह कर भी उस गंदगी से बाहर नहीं निकल पाई.

आरती का कालेज पूरा हो गया. उसे जज बनने का बड़ा अरमान था. उस ने दिनरात एक कर के अपना यह मुकाम हासिल भी कर लिया.

उधर रेखा अभी भी भटक रही थी. पैसे की चकाचौंध में अंधी हो कर उस ने अपने जिस्म की मंडी लगा कर पैसे की बरसात तो कर ली, पर अब उस का शरीर जवाब देने लगा था.

एक के बाद एक बुकिंग और देह के सौदागरों द्वारा नोचे जाने से रेखा एक जिंदा लाश में बदल गई थी.

अब रेखा का अपने जिस्म पर हक नहीं रह गया था. जेके नाम के एक दलाल ने उसे अपने हाथों की कठपुतली बना रखा था. वह बुकिंग करता, ग्राहकों से मोटी रकम भी वही वसूलता और रेखा के हिस्से आते चंद रुपए. कई बार तो कईकई घंटों की बुकिंग चलती थी.

2-3 बार तो पुलिस की दबिश में रेखा पकड़ी भी गई. जेल जाना पड़ा, तो वहां पहले से बंद अपराधी किस्म की औरतों के साथ रह कर उसे बहुतकुछ बुरा सीखने को मिला.

जेल से छूटी, तो फिर वही नरक सामने था. उस ने भागने की कोशिश की, तो जेके के गुंडों ने उसे खूब पीटा. मारमार कर उस की चमड़ी उधेड़ दी. नतीजा यह हुआ कि वह फिर जेके के शिकंजे में फंसने को मजबूर हो गई.

रेखा का जिस्म बीमारियों से भर चुका था. उस की ज्यादा हालत बिगड़ी, तो जेके ने उसे सरकारी अस्पताल में भरती करा दिया.

वहां थोड़े दिनों के लिए बुकिंग से छुटकारा मिला, तो उस की तबीयत थोड़ी सुधरने लगी, लेकिन ठीक होते ही जेके ने उसे फिर धंधे पर लगा दिया.

गुस्साई रेखा ने खुद पुलिस को फोन कर के जेके के सारे ठिकानों की सूचना दे दी. दबिश हुई, तो सारा भांड़ा फूट गया. रेखा जैसी कई लड़कियां ग्राहकों के साथ पकड़ी गईं.

जेके का लाखों रुपए का नुकसान करा कर रेखा मन ही मन खुश थी. पुलिस ने सब के बयान लिए और हवालात में बंद कर दिया.

कोर्ट में चालान पेश हुआ, तो जज साहिबा ने हर लड़की से खुद सवाल किए. जब रेखा की बारी आई, तो जज साहिबा को उस की शक्ल कुछकुछ जानीपहचानी सी लगी.

‘‘ऐ लड़की, तेरा नाम क्या है?’’ जज साहिबा ने पूछा, तो वह हंस दी.

‘‘एक नाम हो तो बोलूं जज साहिबा. रीटा, मीना, लिली… न जाने कितने नाम इन दुनिया वालों ने मुझे दिए हैं. इन सब नामों में से किसी भी नाम से मुझे पुकार लीजिए,’’ रेखा ने जवाब दिया.

अब तक जज की कुरसी पर बैठी आरती कुछकुछ अपनी पुरानी सहेली रेखा को पहचान गई थी. लंच में उस ने रेखा को अपने केबिन में बुलाया.

‘‘तुम रेखा हो न?’’ आरती ने पूछा.

‘‘जिस रेखा को तुम जानती हो जज साहिबा, वह तो कब की मर चुकी है. मैं खुद नहीं जानती कि मैं कौन हूं, मेरा नाम क्या है. मैं चाहती भी नहीं कि कोई मुझे जाने या पहचाने,’’ रेखा बोली.

‘‘मैं आरती हूं… तेरी सहेली. यह क्या हाल बना रखा है तू ने रेखा?’’ आरती आगे बढ़ी, तो रेखा पीछे हट गई.

‘‘नहीं जज साहिबा, मुझे मत छूना. मैं नहीं चाहती कि आप मेरे इस दागदार जिस्म को हाथ भी लगाएं.

‘‘मुझे माफ कर दो आरती. मुझे तुम से हमदर्दी की भीख नहीं चाहिए. मुझे इंसाफ देना, बस यही कहना है,’’ कहते हुए रेखा केबिन से बाहर आ गई.

आरती उसे रोकना चाहती थी, पर ऐसा कर न सकी. लंच खत्म होने को था. अपनी आंखों में आए आंसुओं को पोंछते हुए वह इंसाफ की कुरसी पर जा बैठी.

Valentine Day : प्यार का त्रिकोण – अजब प्रेम की गजब कहानी

जिस शादी समारोह में मैं अपने पति के साथ शामिल होने आई, उस में शिखा भी मौजूद थी. उस का कुछ दूरी से मेरी तरफ नफरत व गुस्से से भरी नजरों से देखना मेरे मन में किसी तरह की बेचैनी या अपराधबोध का भाव पैदा करने में असफल रहा था.

शिखा मेरी कालेज की अच्छी सहेलियों में से एक है. करीब 4 महीने पहले मैं ने मुंबई को विदा कह कर दिल्ली में जब नया जौब शुरू किया, तो शिखा से मुलाकातों का सिलसिला फिर से शुरू हो गया था.

जिस शाम मैं पहली बार उस के औफिस के बाहर उस से मिली, विवेक भी उस के साथ था. वह घंटे भर हम दोनों सहेलियों के साथ रहा और इस पहली मुलाकात में ही मैं उस के शानदार व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई थी.

‘‘क्या विवेक तुझ से प्यार करता है,’’ उस के जाते ही मैं ने उत्तेजित लहजे में शिखा से यह सवाल पूछा था.

‘‘हां, और मुझ से शादी भी करना चाहता है,’’ ऐसा जवाब देते हुए वह शरमा गई थी.

‘‘यह तो अच्छी खबर है, पर यह बता कि रोहित तेरी जिंदगी से कहां गायब हो गया है?’’ मैं ने उस के उस पुराने प्रेमी के बारे में सवाल किया जिस के साथ घर बसाने की इच्छा वह करीब 6 महीने पहले हुई हमारी मुलाकात तक अपने मन में बसाए हुए थी.

आंतरिक कशमकश दर्शाने वाले भाव फौरन उस की आंखों में उभरे और उस ने संजीदा लहजे में जवाब दिया, ‘‘वह मेरी जिंदगी से निकल गया था, पर…’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘मैं विदेश जा कर बसने में बिलकुल दिलचस्पी नहीं रखती, पर वह मेरे लाख मना करने के बावजूद अपने जीजाजी के साथ बिजनैस करने 3 महीने पहले अमेरिका चला गया था. उस समय मैं ने यह मान लिया था कि हमारा रिश्ता खत्म हो गया है.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘उस का न वहां काम बना और न ही दिल लगा, तो वह 15 दिन पहले वापस भारत लौट आया.’’

‘‘और रोहित के वापस लौटने तक तू विवेक के प्यार में पड़ चुकी थी.’’

‘‘हां.’’

‘‘तो अब तू रोहित को सारी बातें साफसाफ क्यों नहीं बता देती?’’

‘‘यह मामला इतना सीधा नहीं है, नेहा. मैं आज भी अपने दिल को टटोलने पर पाती हूं कि रोहित के लिए वहां प्यार के भाव मौजूद हैं.’’

‘‘और विवेक से भी तुझे प्यार है?’’

‘‘हां, मैं उस के साथ बहुत खुश रहती हूं. उस का साथ मुझे बहुत पसंद है, पर…’’

‘‘पर कोई कमी है क्या उस में?’’

‘‘तू तो जानती ही है कि रोमांस को मैं कितना ज्यादा महत्त्व देती हूं. मुझे ऐसा जीवनसाथी चाहिए जो मेरे सारे नाजनखरे उठाते हुए मेरे आगेपीछे घूमे, पर विवेक वैसा नहीं करता. उस का कहना है कि वह मेरे साथ तो चल सकता है, पर मेरे आगेपीछे कभी नहीं घूमेगा. वह चाहता है कि मैं अपने बलबूते पर खुश रहने की कला में माहिर बनूं.’’

उस के मन की उलझन को मैं जल्दी ही समझ गई थी. रोहित अमीर बाप का बेटा है और शिखा पर जान छिड़कता है. रोहित उस की जिंदगी से इतनी देर के लिए दूर नहीं हुआ था कि वह उस के दिल से पूरी तरह निकल जाता.

दूसरी तरफ वह विवेक के आकर्षक व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित है, पर उस के साथ जुड़ कर मिलने वाली सुरक्षा के प्रति ज्यादा आश्वस्त नहीं है. वह अपने पुराने प्रेमी को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है, पर विवेक के साथ ऐसा करना उस के लिए संभव नहीं.

हम दोनों ने कुछ देर रोहित और विवेक के बारे में बातें की, पर वह किसी एक को भावी जीवनसाथी चुनने का फैसला करने में असफल रही थी.

मेरा ममेरा भाई कपिल प्रैस रिपोर्टर है. उस के बहुत अच्छे कौंटैक्ट हैं. मैं ने उस से कहा कि विवेक की जिंदगी के बारे में खोजबीन करने पर उसे अगर कोई खास बात मालूम पड़े, तो मुझे जरूर बताए.

उस ने अगले दिन शाम को ही मुझे यह चटपटी खबर सुना दी कि विवेक का सविता नाम की इंटीरियर डिजाइनर के साथ पिछले 2 साल से अफेयर चल रहा था, पर फिलहाल दोनों का मिलना कम हो गया था.

मैं ने यह खबर उसी शाम शिखा के घर जा कर उसे सुनाई, तो वह परेशान नजर आती हुई बोली थी, ‘‘यह हो सकता है कि अब उन दोनों के बीच कोई चक्कर न चल रहा हो, पर मैं फिल्मी हीरो से आकर्षक विवेक की वफादारी के ऊपर आंखें मूंद कर विश्वास नहीं कर सकती हूं. क्या गारंटी है कि वह कल को इस पुरानी प्रेमिका के साथ फिर से मिलनाजुलना शुरू नहीं करेगा या कोई नई प्रेमिका नहीं बना लेगा?’’

अगले दिन उस ने विवेक से सविता के बारे में पूछताछ की, तो उस ने किसी तरह की सफाई न देते हुए इतना ही कहा, ‘‘सविता के साथ अब मेरा अफेयर बिलकुल खत्म हो चुका है. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं, पर अगर तुम्हें मेरे प्यार पर पूरा भरोसा नहीं है, तो मैं तुम्हारी जिंदगी से निकल जाऊंगा. किसी तरह का दबाव बना कर तुम्हें शादी करने के लिए राजी करना मेरी नजरों में गलत होगा.’’

अगले दिन शाम को मुझे लंबे समय बाद रोहित से मिलने का मौका मिला था. इस में कोई शक नहीं कि विवेक के मुकाबले उस का व्यक्तित्व कम आकर्षक था. वह शिखा की सारी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था, पर उसे विवेक हंसा कर खुश नहीं कर पाया.

उस रात औटोरिकशा से घर लौटते हुए शिखा ने अपने दिल की उलझन मेरे सामने बयान की, ‘‘रोहित के साथ भविष्य सुरक्षित रहेगा और विवेक के साथ हंसतेहंसाते वक्त के गुजरने का पता नहीं चलता. रोहित के साथ की आदत गहरी जड़ें जमा चुकी है और विवेक जीवन भर साथ निभाएगा, ऐसा भरोसा करना कठिन लगता है. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि किस के हक में फैसला करूं.’’

वैसे उस ने जब भी मेरी राय पूछी, मैं ने उसे रोहित के पक्ष में शादी का फैसला करने की सलाह ही दी थी. उस के हावभाव से मुझे लगा भी कि उस का झुकाव रोहित को जीवनसाथी बनाने की तरफ बढ़ गया था.

करीब 3 दिन बाद शिखा ने फोन पर रोंआसी आवाज में मुझे बताया, ‘‘विवेक को किसी से रोहित के बारे में पता चल गया है. उस ने मुझ पर दो नावों में सवारी करने का आरोप लगाते हुए आज मुझ से सीधेमुंह बात नहीं की. मुझे लगता है कि वह मुझ से दूर जाने का मन बना चुका है.’’

‘‘इस में ज्यादा परेशान होने वाली बात नहीं, क्योंकि तू भी तो रोहित से शादी करने का मन काफी हद तक बना ही चुकी है,’’ मैं ने उसे हौसला दिया.

‘‘अब मेरा मन बदल गया है, नेहा. विवेक के दूर हो जाने की बात सोच कर ही मेरा मन बहुत दुखी हो रहा है. देख, रोहित ने एक बार मुझ से दूर जाने का फैसला कर लिया था, इसी कारण मैं उस के साथ रिश्ता तोड़ने में किसी तरह का अपराधबोध महसूस नहीं करूंगी. विवेक की गलतफहमी दूर करने में तू मेरी हैल्प कर, प्लीज.’’

‘‘ओके, मैं आज शाम उस से मिलूंगी,’’ मैं ने उसे ऐसा आश्वासन दिया था.

आगामी दिनों में विवेक के साथ अकेले मेरा मिलनाजुलना कई बार हुआ और इन्हीं मुलाकातों में मुझे लगा कि उस जैसे ‘जिओ और जीने दो’ के सिद्धांत को मानने वाले खुशमिजाज इंसान के लिए बातबात पर रूठने वाली नखरीली शिखा विवेक के लिए उपयुक्त जीवनसाथी नहीं है. इसी बात को ध्यान में रख इस मामले में मैं ने रोहित की सहायता करने का फैसला मन ही मन किया.

मैं अगले दिन शाम को रोहित से मिली और उसे शिखा का दिल जीत लेने के लिए एक सुझाव दिया, ‘‘मेरी सहेली खूबसूरत सपनों और रोमांस की रंगीन दुनिया में जीती है. अगर तुम उसे हमेशा के लिए अपनी बनाना चाहते हो, तो कुछ ऐसा करो जो उस के दिल को छुए और वह तुम्हारे साथ शादी करने के लिए झटके से हां कहने को मजबूर हो जाए.’’

मेरी सुझाई तरकीब पर चलते हुए अगले सप्ताह अपने जन्मदिन की पार्टी में रोहित ने शिखा को पाने का अपना लक्ष्य पूरा कर लिया.

बड़े भव्य पैमाने पर उस ने बैंकट हाल में अपनी बर्थडे पार्टी का आयोजन किया, जिस में शिखा वीआईपी मेहमान थी. रोहित के कोमल मनोभावों से परिचित होने के कारण उस के परिवार का हर सदस्य शिखा के साथ प्रेम भरा व्यवहार कर रहा था.

बीच पार्टी में रोहित ने पहले सब मेहमानों का ध्यान आकर्षित किया और फिर शिखा के सामने घुटने के बल बैठ कर बड़े रोमांटिक अंदाज में उसे प्रपोज किया, ‘‘तुम जैसी सर्वगुणसंपन्न रूपसी अगर मुझ से शादी करने को ‘हां’ कह देगी, तो मैं खुद को संसार का सब से धन्य इंसान समझूंगा.’’

वहां मौजूद सभी मेहमानों ने बड़े ही जोशीले अंदाज में तालियां बजा कर शिखा पर ‘हां’ कहने का दबाव जरूर बनाया, पर हां कराने में रोहित के हाथ में नजर आ रही उस बेशकीमती हीरे की अंगूठी का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिसे मैं ने ही उसे खरीदवाया था.

शिखा ने रोहित के साथ शादी करने का फैसला कर लिया, तो औफिस में बहुत ज्यादा काम होने का बहाना बना कर मैं ने उस से मिलना बंद कर दिया. मैं विवेक के साथ लगातार हो रही अपनी मुलाकातों की चर्चा उस से बिलकुल नहीं करना चाहती थी.

विवेक को मैं अपना दिल पहले ही दे बैठी थी, पर अपनी भावनाओं को दबा कर रखने को मजबूर थी. चूंकि अब शिखा बीच में नहीं थी, इसलिए मुझे उस के साथ दिल का रिश्ता मजबूत बनाने में किसी तरह की झिझक नहीं थी.

विवेक के दिल की रानी बनने के लिए मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी, क्योंकि मैं उस के मन को समझने लगी थी. मैं जैसी हूं, अगर वैसी ही उस के सामने बनी रहूंगी, तो उसे ज्यादा पसंद आऊंगी, यह महत्त्वपूर्ण बात मैं ने अच्छी तरह समझ ली थी. उसे किसी तरह बदलने की कोशिश मैं ने कभी नहीं की. उस की नाराजगी की चिंता किए बिना जो मन में होता, उसे साफसाफ उस के मुंह पर कह देती. हां, यह जरूर ध्यान रखती कि मेरी नाराजगी बात खत्म होने के साथसाथ ही विदा हो जाए.

मेरी समझदारी जल्दी ही रंग लाई. जब विवेक की भी मुझ में रुचि जागी, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

एक दिन मैं ने आंखों में शरारत भर कर उस का हाथ पकड़ा और रोमांटिक लहजे में कह ही दिया, ‘‘अब तुम से दूर रहना मेरे लिए संभव नहीं है, विवेक. तुम अगर चाहोगे, तो मैं तुम्हारे साथ शादी किए बिना ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में भी रहने को तैयार हूं.’’

विवेक ने मेरे हाथ को चूम कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘मुझे इतनी अच्छी तरह समझने वाली तुम जैसी लड़की को मैं अपनी जीवनसंगिनी बनाने से बिलकुल नहीं चूकूंगा. बोलो, कब लेने हैं बंदे को तुम्हारे साथ सात फेरे?’’

शादी के लिए उस की हां होते ही मैं ने शिखा वाली मूर्खता नहीं दोहराई. अपने मम्मीपापा को आगामी रविवार को ही उस के मातापिता से मिलवाया और सप्ताह भर के अंदर शादी की तारीख पक्की करवा ली.

शिखा और रोहित की शादी से पहले विवेक और मेरी शादी के कार्ड छपे थे. मैं अपनी शादी का कार्ड देने शिखा के घर गई, तो उस ने सीधे मुंह मुझ से बात नहीं की.

मैं ने उसी दिन मन ही मन फैसला किया कि भविष्य में शिखा के संपर्क में रहना मेरे हित में नहीं रहेगा. मैं ने विवेक को हनीमून के दौरान समझाया, ‘‘शिखा का होने वाला पति रोहित नहीं चाहता है कि कभी वह तुम से कैसा भी संपर्क रखे. उस की खुशियों की खातिर हम उस से नहीं मिला करेंगे.’’

विवेक ने मेरी इस बात को ध्यान में रखते हुए शिखा से कभी, किसी माध्यम से संपर्क बनाने की कोशिश नहीं की. मैं इस पूरे मामले में न खुद को कुछ गलत करने का दोषी मानती हूं, न किसी तरह के अपराधबोध की शिकार हूं. मेरा मानना है कि अपनी खुशियों की खातिर पूरी ताकत से हाथपैर मारने का हक हमसब को है

शिखा ने फैसला लेने में जरूरत से ज्यादा देरी की वजह से विवेक को खोया. वह नासमझ चील जो अपने मनपसंद शिकार पर झपट्टा मारने में देरी करे, उस के हाथ से शिकार चुनने का मौका छिन जाना कोई हैरान करने वाली बात नहीं है.

शिखा की दोस्ती को खो कर विवेक जैसे मनपसंद जीवनसाथी को पा लेना मैं अपने लिए बिलकुल भी महंगा सौदा नहीं मानती हूं. तभी उस से ‘हैलोहाय’ किए बिना विवाह समारोह से लौट आने पर मेरे मन ने किसी तरह का मलाल या अपराधबोध महसूस नहीं किया था.

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Story in Hindi

सावित्री की नई कहानी

चौधरी जगवीर सिंह की हवेली गांव की शान थी. उन की बेटी सावित्री चुपचाप लेटी रात के अंधेरे में कई सवालों को सुलझाने की कोशिश कर रही थी. इस वक्त उस के दिलोदिमाग में एक नई रोशनी जगमगाने लगी थी. उस की आंखों में घुटन और पीड़ा के आंसू सूख चुके थे. राम किशन पर हुए जुल्म की याद उस के लिए बहुत दुखदायी थी, पर अब इस जुल्म के खिलाफ वह उठ खड़ी हुई थी.

‘पैदाइश से कोई छोटा या बड़ा कैसे हो सकता है? अच्छे घर में जन्म लेने से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता,’ यह सोचते हुए सावित्री को लगा कि तीखे कांटों वाली कोई जिंदा मछली उस के गले में फंस गई है. वह फूटफूट कर रो पड़ी.

सावित्री को राम किशन की नजदीकी एक अजीब सी खुशी से भर देती थी. वह सोचने लगी कि वह जातपांत के बंधनों को झूठा साबित करेगी, चाहे उसे कितना भी दुख क्यों न झेलना पड़े. वह इस कालिख को धो डालेगी.

सावित्री की यादों में राम किशन का उदास चेहरा छाने लगा और उसे लगा कि हमेशा की तरह वह आंगन में पड़े तख्त पर बैठा है. पिताजी उस से कह रहे हैं, ‘क्यों रे राम किशन… तू छोटी जात वालों के घर कहां से पैदा हो गया? गांवभर में ब्राह्मण, बनियों का कोई भी लड़का है तेरे जोड़ का… न सूरत में और न सीरत में?’

तब सावित्री की आंखों में तारे नाच उठे थे. ऐसा लगता था जैसे चारों ओर रंगबिरंगे फूल खिल उठे हों. एक राम किशन ही तो था, जिसे हवेली में आनेजाने की इजाजत थी. यह सब सावित्री को सोचतेसोचते नींद आने लगी.

राम किशन और सावित्री ने एकसाथ ही ग्रेजुएशन पास की थी. उस के बाद राम किशन नौकरी की तलाश में दरबदर की खाक छानता रहा, लेकिन उसे कहीं भी काम न मिला. मेहनतमजदूरी भी इस पढ़ाई ने छीन ली थी. गांव के ढोरडंगर वह चरा नहीं सकता था. घर की हालत ऐसी थी कि क्या बिछाएं और क्या ओढ़ें.

कई दिनों के बाद राम किशन हवेली में आया. वह बेहद थका हुआ और उदास था. सावित्री घर में नहीं थी. वह आंगन में पड़े तख्त पर बैठ गया.

बाहर बैठक में चौधरी जगवीर सिंह के पास खानदानी पुरोहित बिसेसर पंडित बैठे थे. गांवभर के पापपुण्य का लेखाजोखा उन के पास रहता था. बापदादा की जो इज्जत पोथीपत्तरों की बदौलत बनी थी, उसे खींचखांच कर जमाए बैठे थे पंडितजी.

पुरोहित बिसेसर पंडित बोले, ‘‘देश रसातल को जा रहा है चौधरी साहब. इस छोटी जात के लौंडे का हवेली में आनाजाना बंद कराओ. इन लोगों ने तो देश का सत्यानाश कर दिया है.’’

‘‘क्या हुआ पंडित… कुछ बताओगे भी?’’ चौधरी जगवीर सिंह ने पूछा.

पंडितजी आंखें नचा कर बोले, ‘‘अजी बताना क्या है… कल तक जो हमारे जूतों पर पलते थे, अब सिर उठा कर चलते हैं. हमारा बेटा महेश कभी फेल नहीं हुआ. हमेशा हर क्लास में पास हुआ है. कल इंटरव्यू देने गया था शहर के बड़े दफ्तर में. बस, वही ‘आरक्षण’ की बात. उसे फेल कर एक निचली जाति वाले को ले लिया. है कि नहीं यह जुल्म?

‘‘ये गंवार लोग देश का कारोबार चलाएंगे? अरे, मैं तो कहूं चौधरी, देश डूबेगा या नहीं?’’ पंडितजी की आवाज आंगन तक गूंज रही थी.

आंगन में पड़े एक पुराने तख्त पर बैठा राम किशन एकएक लफ्ज सुन रहा था. पुरोहित बिसेसर के लफ्ज उस को छलनी कर रहे थे. वह बुदबुदाया, ‘हरामखोर कहीं का… जहर उगल रहा है. भला महेश की नौकरी पर एक दलित कैसे लिया जा सकता है. अगर आरक्षण को वाकई इस तरह लागू किया जाता तो कितने ही दलित नौजवान पढ़लिख कर भी बेकार क्यों घूम रहे हैं?’

‘‘अरे, तुम कब आए? ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो? कहां थे इतने दिन?’’ राम किशन को देखते ही सावित्री ने सवालों की झड़ी लगा दी.

राम किशन सकपकाया सा उस की ओर देखने लगा.

‘‘अरे, ऐसे क्यों देख रहे हो? क्या बात है?’’ राम किशन की आंखों में उदासी देख कर सावित्री सिहर उठी.

राम किशन कुछ बोल नहीं पाया. कुछ पल तक दोनों एकदूसरे को देखते रहे, जैसे मिल कर खामोशी का कोई बाग लगा रहे हों.

राम किशन ने हौले से कहा, ‘‘शहर गया था, काम की तलाश में… पर काम नहीं मिला.’’

‘‘तो इस में इतना उदास होने की क्या बात है? मिल जाएगी नौकरी भी,’’ सावित्री ने धीरज बंधाया. फिर वह आगे बोली, ‘‘लेकिन राम किशन, मैं ने तो सुना है कि तुम लोगों को नौकरी जल्दी मिल जाती है… और फिर भी अभी तक…’’ कहतेकहते वह रुक गई.

राम किशन के चेहरे पर फैलती उदासी को सावित्री ने देख लिया था. उसे लगा, जैसे उस ने कोई गलत बात कह दी हो.

‘‘मैं ने कुछ बुरा कह दिया, जो ऐसे देख रहे हो?’’ सावित्री ने पूछा.

‘‘नहीं, बुरा नहीं… जो सुनती हो वही कहोगी न,’’ राम किशन बोला, ‘‘आसपास नजर उठा कर देखो सावित्री… हमारी जिंदगी… क्या है… किन हालात में रहते हैं… एक बार हमारी जिंदगी में झांक कर देखो, वहां कुनमुनाते सपनों की राख मिलेगी, जिस में दुख और आंसू छिपे पड़े हैं,’’ राम किशन की आवाज के दर्द ने सावित्री को भीतर तक हिला दिया था.

राम किशन उठ कर चल दिया था. सावित्री को लगा, जैसे दोनों के बीच रिश्तों के सभी धागे अचानक टूट गए हैं. आंखों में बेबसी के आंसू लुढ़क पड़े. राम किशन की पीड़ा से वह दुखी हो उठी. उसे लगा जैसे वह किसी घने, कंटीले जंगल में भटक गई है.

चौधरी जगवीर सिंह की बैठक में और 4-5 लोग आ जुटे थे. राम किशन को हवेली से निकलते देख पुरोहित बिसेसर की त्योरियां चढ़ गईं.

‘‘राम किशन, तहसीलदार बनने में और कितने दिन हैं? हां भई, तुम लोगों का ही तो राज है… बामन, बनिए तो सिर्फ नाम के रह गए हैं,’’ बिसेसर ने मजाक किया.

राम किशन पुरोहित बिसेसर की बातें सुन कर रुक गया. खुद को संभालते हुए वह बोला, ‘‘पंडितजी, आप जोकुछ सुनते हैं या सोचते हैं… जरूरी नहीं कि सब उसी तरह से सोचें या सुनें… गांवदेहात की वजह से मैं आप की इज्जत करता हूं.’’

राम किशन की बात पर पंडित बिसेसर ने बिगड़ते हुए कहा, ‘‘कल का लौंडा, हमें ज्ञान सिखाता है, वह भी छोटी जात का हो कर? कलियुग आ गया है. अबे, कल तक तेरे बापदादा हमारी परछाईं के भी नजदीक खड़े नहीं हो सकते थे… और तू जबान लड़ाता है हम से.

‘‘चौधरी ने तुझे सिर चढ़ा रखा है, नहीं तो अब तक दो जूते लगा कर तेरे होश ठिकाने ला देता. तू समझता क्या है… दो अच्छर क्या पढ़ लिए कि

खुद को ज्यादा पढ़ालिखा समझने लगा. है तो छोटी जात का ही न,’’ पुरोहित बिसेसर के मुंह से लफ्ज गोली की तरह फूटने लगे.

चौधरी जगवीर सिंह ने उन्हीं को डांटा, ‘‘क्यों बच्चों के मुंह लगते हो पंडित?’’ फिर राम किशन की ओर देख कर बोले, ‘‘जा बेटा… बड़ों की बात का बुरा नहीं मानते.’’

गांव के पश्चिम में एक गंदी बस्ती थी. एक बड़े से जोहड़ ने उस बस्ती को 3 तरफ से घेर रखा था. इसी जोहड़ के किनारे बरगद का एक पुराना पेड़ था, जिस के नीचे से हो कर ही बस्ती में जाया जा सकता था.

सूरज धीरेधीरे नीचे उतर रहा था. ढोरडंगर धूल उड़ाते गांव में लौट रहे थे.

बरगद के नीचे बिसेसर का बेटा महेश अपने दोस्तों के साथ गांजा फूंक रहा था. उस की इस गांजा मंडली में गांवभर के आवारा लड़के जमा थे.

राम किशन हवेली से निकल कर सीधा चला आ रहा था. बिसेसर के लफ्ज अभी तक उस के कानों में गूंज रहे थे. उसे देखते ही गांजा मंडली चौकन्ना हो गई. आंखों ही आंखों में मशवरा होने लगा, जैसे शिकारी शिकार को देख कर जाल फेंकने की बात सोच रहे हों.

महेश ने आगे बढ़ कर राम किशन का रास्ता रोक लिया और बोला, ‘‘कहो मजनू, लैला कैसी है?’’

राम किशन के बदन में कांटे भर गए. गांजा मंडली ने राम किशन को चारों ओर से घेर लिया. बरगद की छांव में अंधेरा घिरने लगा था. राम किशन शांत खड़ा था. मंडली राम किशन के नजदीक सिमट आई.

‘‘तेरे बड़े मजे हैं यार,’’ एक लड़का बोला.

‘‘झोंपड़ी चली है महलों में रास रचाने… कहो कन्हैया, राधा से मुलाकात कैसी रही?’’ दूसरे ने ठहाका लगाया.

‘‘अबे, इश्क से पहले अपनी औकात तो देख ली होती,’’ महेश ने आंखें तरेरीं.

राम किशन को लगा, जैसे वह जमीन में धंसता जा रहा है. उस का सारा बदन जैसे जड़ हो गया था.

‘‘अबे, आरक्षण से नौकरी पा सकते हो… पर चौधरी की बेटी तो किसी चौधरी को ही मिलेगी,’’ महेश राम किशन के मुंह के पास फुसफुसाया.

राम किशन ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘महेश, जाने दो मुझे. मैं झगड़ा करना नहीं चाहता.’’

‘‘अरे, देखो तो इस के सींग निकल आए है. हमें सिखाता है. यहीं जिंदा गाड़ दूंगा,’’ महेश ने राम किशन का गला पकड़ कर जोर से धक्का दिया.

राम किशन गिर पड़ा. जब तक वह उठने की कोशिश करता, तब तक गांजा मंडली ने लातघूंसों की बौछार शुरू कर दी. राम किशन की आंखों में तारे नाचने लगे. बदन में जगहजगह अंगारे फूटने लगे. उस ने हिम्मत नहीं छोड़ी. किसी तरह उन की गिरफ्त से छूट कर वह निकल भागा.

महेश ने दौड़ कर पकड़ना चाहा. छीनाझपटी में राम किशन के हाथ में महेश का हाथ आ गया. उस की मुट्ठियां कस गईं. हाथ को जोर से झटका दिया. एक चीख चारों ओर फैल गई. बरगद पर दुबके पक्षी डर से उड़ गए.

गांजा मंडली सिर पर पैर रख कर भागी. बरगद खामोश गवाह बना देख रहा था. सदियों से यह बरगद न जाने कितनी दास्तानें अपने भीतर छिपाए खड़ा था. इसी के नीचे पड़ा महेश दर्द से कराह रहा था.

खबर सनसनाती हवा की तरह गांवभर में फैल गई कि राम किशन ने महेश को मार डाला. बस्ती में डर के मारे लोगों का बुरा हाल था.

पुरोहित बिसेसर ने पूरा गांव सिर पर उठा लिया. वह राम किशन और बस्ती के खिलाफ पूरे गांव को भड़काता रहा. उधर महेश दर्द से रातभर छटपटाता रहा.

खबर उड़तेउड़ते हवेली तक भी पहुंच गई. सावित्री ने सुना, तो सन्न रह गई. ऐसा लगा, जैसे गले में कुछ अटक गया हो. वह राम किशन से मिल कर असलियत जानने को बेचैन हो उठी. परेशान सी आंगन में चक्कर काटने लगी. हवेली की हर चीज उस के लिए बरदाश्त से बाहर हो रही थी. वह खुद को एक ऐसे कुएं में फंसा महसूस कर रही थी, जिस से बाहर निकलने का रास्ता ही न बनाया गया हो.

सावित्री रहरह कर खुद पर खीज उठती. क्या करे, क्या न करे? वह इसी उधेड़बुन में थी.

तभी हवेली का पुराना दरवाजा चरमराया. दरवाजे पर घर की नौकरानी रामेसरी खड़ी थी, उसे देखते ही वह बिफर पड़ी, ‘‘कहां थी अब तक? कहां गई थी… अब मिली है फुरसत?’’

सावित्री के इस बरताव को देख कर रामेसरी दंग रह गई. पहली बार सावित्री ने ऐसा कहा था. उस की समझ में कुछ नहीं आया. वह जहां की तहां ठिठक कर खड़ी रह गई. वह इस नई सावित्री को एकटक हैरान हो कर देख रही थी.

रामेसरी को इस तरह खड़ा देख कर सावित्री का गुस्सा और बढ़ गया और बोली, ‘‘चुपचाप खड़ी रहेगी या कुछ बोलेगी भी…’’

रामेसरी ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘बिटिया, राम किशन और महेश में बहुत मारपीट हो गई है. मैं राम किशन के घर से आ रही हूं. महेश और उस के दोस्तों ने उसे खूब मारा है. इसी मारपीट में महेश का हाथ टूट गया है.

‘‘बिटिया, राम किशन तो बहुत अच्छा लड़का है. एकदम गऊ… जरूर इन गुंडों ने जानबूझ कर झगड़ा किया होगा. न जाने अब क्या होगा… मुझे तो डर लग रहा है.

‘‘बिटिया, यह पंडित तो नाग है… इस के डसे तो पानी भी नहीं मांगते. राम किशन को कुछ हो गया तो…’’ कहतेकहते रामेसरी का गला भर आया.

सावित्री ठगी सी रामेसरी की बातें सुन रही थी. उस के भीतरबाहर एक हलचल सी मच गई. वह तेजी से अपने कमरे की ओर भागी.

हर रोज की तरह सुबह हुई. राम किशन का पोरपोर दुख रहा था. वह खटिया पर लेटेलेटे कल की वारदात के बारे में सोचता रहा. वह हवेली न जाने का फैसला कर चुका था. सोचा कि अब वह सावित्री से मिलनाजुलना भी बंद कर देगा.

गली में चौधरी जगवीर सिंह का नौकर कालू दिखा, ‘‘राम किशन भैया, चौधरी साहब ने तुम्हें बुलाया है. जल्दी चलो.’’

राम किशन ने उठतेउठते पूछा, ‘‘क्या बात है? क्यों बुलाया है?’’

कालू ने सहमते हुए कहा, ‘‘वही कल वाली मारपीट की बात होगी. अब हम क्या जानें? पंडित पुलिस ले कर आया है.’’

आंगन में खड़ी राम किशन की मां ने सुना तो वे घबरा गईं. राम किशन के बापू तो मुंहअंधेरे ही काम पर निकल गए थे.

मां ने कहा, ‘‘नहीं बेटा, तू वहां मत जा. वे लोग पता नहीं कैसा सुलूक करें. इन लोगों पर यकीन मत करना,’’ युगोंयुगों का दर्द झलक उठा था मां के लफ्जों में.

राम किशन ने मां को धीरज बंधाया, ‘‘चिंता क्यों करती हो मां, कुछ नहीं होगा. झगड़ा मैं ने नहीं किया. उन लोगों ने ही मुझे मारा है. तुम चिंता मत करो. मैं अभी आता हूं…’’

मां अपने बेटे की नादानी पर रो पड़ी. उस ने आसपड़ोस वालों को आवाज दी. राम किशन तब तक गली में जा चुका था. मां ने कई लोगों को उस के पीछे भेजा.

हवेली में पहुंचते ही राम किशन पर पुलिस इंस्पैक्टर ने लातघूंसों की बारिश शुरू कर दी. मुंह से गालियां ऐसे फूट रही थीं मानो निहत्थे जुलूस पर मशीनगन चल रही हो.

चौधरी जगवीर सिंह खामोश बैठे थे. बैठक के चबूतरे पर पुरोहित बिसेसर, इंस्पैक्टर और एक पुलिस का सिपाही लोकतंत्र को मजबूत बना रहे थे. चबूतरे से नीचे भीड़ इकट्ठी हो गई थी. बस्ती के लोगों को हवेली से बाहर गली में ही रोक दिया गया था.

पुरोहित बिसेसर के मुंह से गालियां वेदमंत्रों सी निकल रही थीं. राम किशन के बदन पर जगहजह खून के धब्बे उभरने लगे.

बाहर के शोर ने सावित्री को झकझोर दिया था. हवेली से बैठक में आ कर देखा, तो सन्न रह गई.

उस की आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया. उस ने अपने पिता की ओर देखा. ऐसा लगा जैसे कोई माटी का पुतला बैठा हो.

सावित्री की आंखों में खून उतर आया. चोट खाई शेरनी की तरह इंस्पैक्टर की ओर घूर कर देखा, फिर सिपाही के हाथ से डंडा छीन कर दहाड़ी, ‘‘क्यों पीट रहे हो इसे? क्या किया है इस ने?’’ भीड़ में सन्नाटा छा गया.

इंस्पैक्टर कुछ कह पाता, उस से पहले ही पुरोहित बिसेसर जहरीले नाग की तरह फुफकारा, ‘‘अपनी बेटी से कहो चौधरी कि हवेली में जाए. यह गांव का मामला है.’’

चौधरी जगवीर सिंह बेटी के इस तरह अचानक आ जाने से सहम गए थे. उन्होंने कुछ कहना चाहा, लेकिन सावित्री ने गरज कर कहा, ‘‘पंडित, यह मामला गांव का नहीं, आप के कपूत का है. एक गरीब के ऊपर इस तरह जुल्म होते देख रहा है पूरा गांव और आप इसे गांव का मामला कहते हैं?’’

चौधरी जगवीर सिंह ने बेटी को समझाने की कोशिश की, लेकिन सावित्री के चेहरे पर गुस्से का ज्वालामुखी फट पड़ा था.

पुरोहित बिसेसर ने लोगों की ओर देख कर कहा, ‘‘देख लो गांव वालो, चौधरी की बेटी एक छोटी जात वाले का साथ दे रही है. यह अधर्म है. आज तक हम चुप थे. हवेली की इज्जत सब की इज्जत थी…’’

सावित्री ने पूरी ताकत से कहा, ‘‘हां पंडित… यह अधर्म है… धर्म वह है, जो आप करते हैं… आप का गंजेड़ी, शराबी, चोर, बेईमान बेटा करता है. आप ब्राह्मण हैं… आप का बेटा ब्राह्मण है… इसलिए आप को इज्जत प्यारी है. बाकी सब लोग कीड़ेमकोड़े हैं. बेकुसूर लोगों पर जुल्म करना, उन्हें बेइज्जत करना, यही धर्म है आप का…?’’

‘‘उठो राम किशन, तुम अकेले नहीं हो… मैं हूं तुम्हारे साथ… उठो…’’

राम किशन को सहारा दे कर उठातेउठाते सावित्री का गला भर आया. आंखों में जलते अंगारे आंसुओं ने भिगो दिए. सावित्री ने गांव के नक्शे पर एक नई कहानी लिख दी थी.

एक और बलात्कारी : रूपा का रसपान करने वाला जालिम

रूपा पगडंडी के रास्ते से हो कर अपने घर की ओर लौट रही थी. उस के सिर पर घास का एक बड़ा गट्ठर भी था. उस के पैरों की पायल की ‘छनछन’ दूर खड़े बिरजू के कानों में गूंजी, तो वह पेड़ की छाया छोड़ उस पगडंडी को देखने लगा.

रूपा को पास आता देख बिरजू के दिल की धड़कनें तेज हो गईं और उस का दिल उस से मिलने को मचलने लगा.

जब रूपा उस के पास आई, तो वह चट्टान की तरह उस के रास्ते में आ कर खड़ा हो गया.

‘‘बिरजू, हट मेरे रास्ते से. गाय को चारा देना है,’’ रूपा ने बिरजू को रास्ते से हटाते हुए कहा.

‘‘गाय को तो तू रोज चारा डालती है, पर मुझे तो तू घास तक नहीं डालती. तेरे बापू किसी ऐरेगैरे से शादी कर देंगे, इस से अच्छा है कि तू मुझ से शादी कर ले. रानी बना कर रखूंगा तुझे. तू सारा दिन काम करती रहती है, मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘गांव में और भी कई लड़कियां हैं, तू उन से अपनी शादी की बात क्यों नहीं करता?’’

‘‘तू इतना भी नहीं समझती, मैं तो तुझ से प्यार करता हूं. फिर और किसी से अपनी शादी की बात क्यों करूं?’’

‘‘ये प्यारव्यार की बातें छोड़ो और मेरे रास्ते से हट जाओ, वरना घास का गट्ठर तुम्हारे ऊपर फेंक दूंगी,’’ इतना सुनते ही बिरजू एक तरफ हो लिया और रूपा अपने रास्ते बढ़ चली.

शाम को जब सुमेर सिंह की हवेली से रामदीन अपने घर लौट रहा था, तो वह अपने होश में नहीं था. गांव वालों ने रूपा को बताया कि उस का बापू नहर के पास शराब के नशे में चूर पड़ा है.

‘‘इस ने तो मेरा जीना हराम कर दिया है. मैं अभी इसे ठीक करती हूं,’’ रूपा की मां बड़बड़ाते हुए गई और थोड़ी देर में रामदीन को घर ला कर टूटीफूटी चारपाई पर पटक दिया और पास में ही चटाई बिछा कर सो गई.

सुबह होते ही रूपा की मां रामदीन पर भड़क उठी, ‘‘रोज शराब के नशे में चूर रहते हो. सारा दिन सुमेर सिंह की मजदूरी करते हो और शाम होते ही शराब में डूब जाते हो. आखिर यह सब कब तक चलता रहेगा? रूपा भी सयानी होती जा रही है, उस की भी कोई चिंता है कि नहीं?’’

रामदीन चुपचाप उस की बातें सुनता रहा, फिर मुंह फेर कर लेट गया.

रामदीन कई महीनों से सुमेर सिंह के पास मजदूरी का काम करता था. खेतों की रखवाली करना और बागबगीचों में पानी देना उस का रोज का काम था.

दरअसल, कुछ महीने पहले रामदीन का छोटा बेटा निमोनिया का शिकार हो गया था. पूरा शरीर पीला पड़ चुका था. गरीबी और तंगहाली के चलते वह उस का सही इलाज नहीं करा पा रहा था. एक दिन उस के छोटे बेटे को दौरा पड़ा, तो रामदीन फौरन उसे अस्पताल ले गया.

डाक्टर ने उस से कहा कि बच्चे के शरीर में खून व पानी की कमी हो गई है. इस का तुरंत इलाज करना होगा. इस में 10 हजार रुपए तक का खर्चा आ सकता है.

किसी तरह उसे अस्पताल में भरती करा कर रामदीन पैसे जुटाने में लग गया. पासपड़ोस से मदद मांगी, पर किसी ने उस की मदद नहीं की.

आखिरकार वह सुमेर सिंह के पास पहुंचा और उस से मदद मांगी, ‘‘हुजूर, मेरा छोटा बेटा बहुत बीमार है.

उसे निमोनिया हो गया था. मुझे अभी 10 हजार रुपए की जरूरत है. मैं मजदूरी कर के आप की पाईपाई चुका दूंगा. बस, आप मुझे अभी रुपए दे दीजिए.’’

‘‘मैं तुम्हें अभी रुपए दिए दे देता हूं, लेकिन अगर समय पर रुपए नहीं लौटा सके, तो मजदूरी की एक फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगा. बोलो, मंजूर है?’’

‘‘हां हुजूर, मुझे सब मंजूर है,’’ अपने बच्चे की जान की खातिर उस ने सबकुछ कबूल कर लिया.

पहले तो रामदीन कभीकभार ही अपनी थकावट दूर करने के लिए शराब पीता था, लेकिन सुमेर सिंह उसे रोज शराब के अड्डे पर ले जाता था और उसे मुफ्त में शराब पिलाता था. लेकिन अब तो शराब पीना एक आदत सी बन गई थी. शराब तो उसे मुफ्त में मिल जाती थी, लेकिन उस की मेहनत के पैसे सुमेर सिंह हजम कर जाता था. इस से उस के घर में गरीबी और तंगहाली और भी बढ़ती गई.

रामदीन शराब के नशे में यह भी भूल जाता था कि उस के ऊपर कितनी जिम्मेदारियां हैं. दिन पर दिन उस पर कर्ज भी बढ़ता जा रहा था. इस तरह कई महीने बीत गए. जब रामदीन ज्यादा नशे में होता, तो रूपा ही सुमेर सिंह का काम निबटा देती.

एक सुबह रामदीन सुमेर सिंह के पास पहुंचा, तो सुमेर सिंह ने हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कहा, ‘‘रामदीन, आज तुम हमारे पास बैठो. हमें तुम से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हुजूर, आज कुछ खास काम है क्या?’’ रामदीन कहते हुए उस के पास बैठ गए.

‘‘देखो रामदीन, आज मैं तुम से घुमाफिरा कर बात नहीं करूंगा. तुम ने मुझ से जो कर्जा लिया है, वह तुम मुझे कब तक लौटा रहे हो? दिन पर दिन ब्याज भी तो बढ़ता जा रहा है. कुलमिला कर अब तक 15 हजार रुपए से भी ज्यादा हो गए हैं.’’

‘‘मेरी माली हालत तो बदतर है. आप की ही गुलामी करता हूं हुजूर, आप ही बताइए कि मैं क्या करूं?’’

सुमेर सिंह हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कुछ सोचने लगा. फिर बोला, ‘‘देख रामदीन, तू जितनी मेरी मजदूरी करता है, उस से कहीं ज्यादा शराब पी जाता है. फिर बीचबीच में तुझे राशनपानी देता ही रहता हूं. इस तरह तो तुम जिंदगीभर मेरा कर्जा उतार नहीं पाओगे, इसलिए मैं ने फैसला किया है कि अब अपनी जोरू को भी काम पर भेजना शुरू कर दे.’’

‘‘लेकिन हुजूर, मेरी जोरू यहां आ कर करेगी क्या?’’ रामदीन ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘मुझे एक नौकरानी की जरूरत है. सुबहशाम यहां झाड़ूपोंछा करेगी. घर के कपड़ेलत्ते साफ करेगी. उस के महीने के हजार रुपए दूंगा. उस में से 5 सौ रुपए काट कर हर महीने तेरा कर्जा वसूल करूंगा.

‘‘अगर तुम यह भी न कर सके, तो तुम मुझे जानते ही हो कि मैं जोरू और जमीन सबकुछ अपने कब्जे में ले लूंगा.’’

‘‘लेकिन हुजूर, मेरी जोरू पेट से है और उस की कमर में भी हमेशा दर्द रहता है.’’

‘‘बच्चे पैदा करना नहीं भूलते, पर मेरे पैसे देना जरूर भूल जाते हो. ठीक है, जोरू न सही, तू अपनी बड़ी बेटी रूपा को ही भेज देना.

‘‘रूपा सुबहशाम यहां झाड़ूपोंछा करेगी और दोपहर को हमारे खेतों से जानवरों के लिए चारा लाएगी. घर जा कर उसे सारे काम समझ देना. फिर दोबारा तुझे ऐसा मौका नहीं दूंगा.’’

अब रामदीन को ऐसा लगने लगा था, जैसे वह उस के भंवर में धंसता चला जा रहा है. सुमेर सिंह की शर्त न मानने के अलावा उस के पास कोई चारा भी नहीं बचा था.

शाम को रामदीन अपने घर लौटा, तो उस ने सुमेर सिंह की सारी बातें अपने बीवीबच्चों को सुनाईं.

यह सुन कर बीवी भड़क उठी, ‘‘रूपा सुमेर सिंह की हवेली पर बिलकुल नहीं जाएगी. आप तो जानते ही हैं. वह पहले भी कई औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर चुका है. मैं खुद सुमेर सिंह की हवेली पर जाऊंगी.’’

‘‘नहीं मां, तुम ऐसी हालत में कहीं नहीं जाओगी. जिंदगीभर की गुलामी से अच्छा है कि कुछ महीने उस की गुलामी कर के सारे कर्ज उतार दूं,’’ रूपा ने अपनी बेचैनी दिखाई.

दूसरे दिन से ही रूपा ने सुमेर सिंह की हवेली पर काम करना शुरू कर दिया. वह सुबहशाम उस की हवेली पर झाड़ूपोंछा करती और दोपहर में जानवरों के लिए चारा लाने चली जाती.

अब सुमेर सिंह की तिरछी निगाहें हमेशा रूपा पर ही होती थीं. उस की मदहोश कर देनी वाली जवानी सुमेर सिंह के सोए हुए शैतान को जगा रही थी. रूपा के सामने तो उस की अपनी बीवी उसे फीकी लगने लगी थी.

सुमेर सिंह की हवेली पर सारा दिन लोगों का जमावड़ा लगा रहता था, लेकिन शाम को उस की निगाहें रूपा पर ही टिकी होती थीं.

रूपा के जिस्म में गजब की फुरती थी. शाम को जल्दीजल्दी सारे काम निबटा कर अपने घर जाने के लिए तैयार रहती थी. लेकिन सुमेर सिंह देर शाम तक कुछ और छोटेमोटे कामों में उसे हमेशा उलझाए रखता था.

एक दोपहर जब रूपा पगडंडी के रास्ते अपने गांव की ओर बढ़ रही थी, तभी उस के सामने बिरजू आ धमका. उसे देखते ही रूपा ने अपना मुंह फेर लिया.

बिरजू उस से कहने लगा, ‘‘मैं जब भी तेरे सामने आता हूं, तू अपना मुंह क्यों फेर लेती है?’’

‘‘तो मैं क्या करूं? तुम्हें सीने से लगा लूं? मैं तुम जैसे आवारागर्दों के मुंह नहीं लगना चाहती,’’ रूपा ने दोटूक जवाब दिया.

‘‘देख रूपा, तू भले ही मुझ से नफरत कर ले, लेकिन मैं तो तुझ को प्यार करता ही रहूंगा. आजकल तो मैं ने सुना है, तू ने सुमेर सिंह की हवेली पर काम करना शुरू कर दिया है. शायद तुझे सुमेर सिंह की हैवानियत के बारे में पता नहीं. वह बिलकुल अजगर की तरह है. वह कब शिकारी को अपने चंगुल में फंसा कर निगल जाए, यह किसी को पता नहीं.

‘‘मुझे तो अब यह भी डर सताने लगा है कि कहीं वह तुम्हें नौकरानी से रखैल न बना ले, इसलिए अभी भी कहता हूं, तू मुझ से शादी कर ले.’’

यह सुन कर रूपा का मन हुआ कि वह बिरजू को 2-4 झपड़ जड़ दे, पर फिर लगा कि कहीं न कहीं इस की बातों में सचाई भी हो सकती है.

रूपा पहले भी कई लोगों से सुमेर सिंह की हैवानियत के बारे में सुन चुकी थी. इस के बावजूद वह सुमेर सिंह की गुलामी के अलावा कर भी क्या सकती थी.

इधर सुमेर सिंह रूपा की जवानी का रसपान करने के लिए बेचैन हो रहा था, लेकिन रूपा उस के झांसे में आसानी से आने वाली नहीं थी.

सुमेर सिंह के लिए रूपा कोई बड़ी मछली नहीं थी, जिस के लिए उसे जाल बुनना पड़े.

एक दिन सुमेर सिंह ने रूपा को अपने पास बुलाया और कहा, ‘‘देखो रूपा, तुम कई दिनों से मेरे यहां काम कर रही हो, लेकिन महीने के 5 सौ रुपए से मेरा कर्जा इतनी जल्दी उतरने वाला नहीं है, जितना तुम सोच रही हो. इस में तो कई साल लग सकते हैं.

‘‘मेरे पास एक सुझाव है. तुम अगर चाहो, तो कुछ ही दिनों में मेरा सारा कर्जा उतार सकती हो. तेरी उम्र अभी पढ़नेलिखने और कुछ करने की है, मेरी गुलामी करने की नहीं,’’ सुमेर सिंह के शब्दों में जैसे एक मीठा जहर था.

‘‘मैं आप की बात समझी नहीं?’’ रूपा ने सवालिया नजरों से उसे देखा.

सुमेर सिंह की निगाहें रूपा के जिस्म को भेदने लगीं. फिर वह कुछ सोच कर बोला, ‘‘मैं तुम से घुमाफिरा कर बात नहीं करूंगा. तुम्हें आज ही एक सौदा करना होगा. अगर तुम्हें मेरा सौदा मंजूर होगा, तो मैं तुम्हारा सारा कर्जा माफ कर दूंगा और इतना ही नहीं, तेरी शादी तक का खर्चा मैं ही दूंगा.’’

रूपा बोली, ‘‘मुझे क्या सौदा करना होगा?’’

‘‘बस, तू कुछ दिनों तक अपनी जवानी का रसपान मुझे करा दे. अगर तुम ने मेरी इच्छा पूरी की, तो मैं भी अपना वादा जरूर निभाऊंगा,’’ सुमेर सिंह के तीखे शब्दों ने जैसे रूपा के जिस्म में आग लगा दी थी.

‘‘आप को मेरे साथ ऐसी गंदी बातें करते हुए शर्म नहीं आई,’’ रूपा गुस्से में आते हुए बोली.

‘‘शर्म की बातें छोड़ और मेरा कहा मान ले. तू क्या समझाती है, तेरा बापू तेरी शादी धूमधाम से कर पाएगा? कतई नहीं, क्योंकि तेरी शादी के लिए वह मुझ से ही उधार लेगा.

‘‘इस बार तो मैं तेरे पूरे परिवार को गुलाम बनाऊंगा. अगर ब्याह के बाद तू मदद के लिए दोबारा मेरे पास आई भी तो मैं तुझे रखैल तक नहीं बनाऊंगा. अच्छी तरह सोच ले. मैं तुझे इस बारे में सोचने के लिए कुछ दिन की मुहलत भी देता हूं. अगर इस के बावजूद भी तू ने मेरी बात नहीं मानी, तो मुझे दूसरा रास्ता भी अपनाना आता है.’’

सुमेर सिंह की कही गई हर बात रूपा के जिस्म में कांटों की तरह चुभती चली गई.

सुमेर सिंह की नीयत का आभास तो उसे पहले से ही था, लेकिन वह इतना बदमाश भी हो सकता है, यह उसे बिलकुल नहीं पता था.

रूपा को अब बिरजू की बातें याद आने लगीं. अब उस के मन में बिरजू के लिए कोई शिकायत नहीं थी.

रूपा ने यह बात किसी को बताना ठीक नहीं समझ. रात को तो वह बिलकुल सो नहीं पाई. सारी रात अपने वजूद के बारे में ही वह सोचती रही.

रूपा को सुमेर सिंह की बातों पर तनिक भी भरोसा नहीं था. उसे इस बात की ज्यादा चिंता होने लगी थी कि अगर अपना तन उसे सौंप भी दिया, तो क्या वह भी अपना वादा पूरा करेगा? अगर ऐसा नहीं हुआ, तो अपना सबकुछ गंवा कर भी बदनामी के अलावा उसे कुछ नहीं मिलेगा.

इधर सुमेर सिंह भी रूपा की जवानी का रसपान करने के लिए उतावला हो रहा था. उसे तो बस रूपा की हां का इंतजार था. धीरेधीरे वक्त गुजर रहा था. लेकिन रूपा ने उसे अब तक कोई संकेत नहीं दिया था. सुमेर सिंह ने मन ही मन कुछ और सोच लिया था.

यह सोच कर रूपा की भी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उसे खुद को सुमेर सिंह से बचा पाना मुश्किल लग रहा था.

एक दोपहर जब रूपा सुमेर सिंह के खेतों में जानवरों के लिए चारा लाने गई, तो सब से पहले उस की निगाहें बिरजू को तलाशने लगीं, पर बिरजू का कोई अतापता नहीं था. फिर वह अपने काम में लग गई. तभी किसी ने उस के मुंह पर पीछे से हाथ रख दिया.

रूपा को लगा शायद बिरजू होगा, लेकिन जब वह पीछे की ओर मुड़ी, तो दंग रह गई. वह कोई और नहीं, बल्कि सुमेर सिंह था. उस की आंखों में वासना की भूख नजर आ रही थी.

तभी सुमेर सिंह ने रूपा को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ते हुए कहा, ‘‘हुं, आज तुझे मुझ से कोई बचाने वाला नहीं है. अब तेरा इंतजार भी करना बेकार है.’’

‘‘मैं तो बस आज रात आप के पास आने ही वाली थी. अभी आप मुझे छोड़ दीजिए, वरना मैं शोर मचाऊंगी,’’ रूपा ने उस के चंगुल से छूटने की नाकाम कोशिश की.

पर सुमेर सिंह के हौसले बुलंद थे. उस ने रूपा की एक न सुनी और घास की झड़ी में उसे पूरी तरह से दबोच लिया.

रूपा ने उस से छूटने की भरपूर कोशिश की, पर रूपा की नाजुक कलाइयां उस के सामने कुछ खास कमाल न कर सकीं.

अब सुमेर सिंह का भारीभरकम बदन रूपा के जिस्म पर लोट रहा था, फिर धीरेधीरे उस ने रूपा के कपड़े फाड़ने शुरू किए.

जब रूपा ने शोर मचाने की कोशिश की, तो उस ने उस का मुंह उसी के दुपट्टे से बांध दिया, ताकि वह शोर भी न मचा सके.

अब तो रूपा पूरी तरह से सुमेर सिंह के शिकंजे में थी. वह आदमखोर की तरह उस पर झपट पड़ा. इस से पहले वह रूपा को अपनी हवस का शिकार बना पाता, तभी किसी ने उस के सिर पर किसी मजबूत डंडे से ताबड़तोड़ वार करना शुरू कर दिया. कुछ ही देर में वह ढेर हो गया.

रूपा ने जब गौर से देखा, तो वह कोई और नहीं, बल्कि बिरजू था. तभी वह उठ खड़ी हुई और बिरजू से लिपट गई. उस की आंखों में एक जीत नजर आ रही थी.

बिरजू ने उसे हौसला दिया और कहा, ‘‘तुम्हें अब डरने की कोई जरूरत नहीं है. मैं इसी तरह तेरी हिफाजत जिंदगीभर करता रहूंगा.’’

रूपा ने बिरजू का हाथ थाम लिया और अपने गांव की ओर चल दी.

अपनी ही दुश्मन : जिस्म और पैसे की भूखी कविता – भाग 3

नवलकिशोर कविता के घर पहुंचे तो मोनू स्कूल से आ कर जूते बस्ता और बोतल इधरउधर फेंक कर टीवी पर कार्टून नेटवर्क देख रहा था. मां के साथ एक अजनबी को आया देख कर वह चौंका. कविता ने जल्दबाजी में सामान समेटा और उसे खिलापिला कर खेलने के लिए बाहर भेज दिया. अब कमरे में कविता और नवलकिशोर ही रह गए थे.

कविता उठ कर गई और फ्रिज से कोल्डड्रिंक की बोतलें और स्नैक्स ले आई. नवलकिशोर यह सब देख कर हैरान रह गए. बहरहाल दोनों साथसाथ खानेपीने लगे. जल्दी ही यह स्थिति आ गई कि दोनों ने ड्राइंगरूम की पूरी दूरी नाप ली. एक बार शुरुआत हुई तो सिलसिला चल निकला. स्कूल में भी कविता की पदवी बढ़ गई.

यह सब करीब एक साल तक चला. किसी तरह इस बात की भनक नवलकिशोर की पत्नी सुनीता को लग गई. वह तेज औरत थी. शोरशराबा मचाने के बजाए उस ने चोरीछिपे पति पर नजर रखनी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि एक दिन वह सीधे कविता के घर जा पहुंची और दोनों को रंगेहाथों पकड़ लिया.

उस दिन जो कहासुनी हुई, उस में कविता की पड़ोसन ने कविता का साथ दिया. उस का कहना था कि कविता शरीफ औरत है. नवलकिशोर उस के अकेलेपन का फायदा उठाने के लिए वहां आता था.

इस का नतीजा यह निकला कि उस दिन के बाद नवलकिशोर का कविता के घर आनाजाना बंद हो गया. कविता और उस की पड़ोसन एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. जल्द ही दोनों ने मिल कर नया अड्डा ढूंढ लिया. सीतापुर रोड पर एक फार्महाउस था. दोनों अपने खास लोगों के साथ बारीबारी से वहां जाने लगीं. एक जाती तो दूसरी दोनों के बच्चों को संभालती.

कालोनी में कोई भी दोनों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. समय गुजरता गया. गुजरते समय के साथ मोनू यानी मुकुल 20 साल का हो गया. कविता भी अब 40 पार कर चुकी थी. मुकुल का मन पढ़ाई में कम और कालेज की नेतागिरी में ज्यादा लगता था. धीरेधीरे उस का उठनाबैठना बड़े नेताओं के चमचों के साथ होने लगा. उन लोगों ने उसे उकसाया, ‘‘तुम कालेज का चुनाव जीत कर दिखा दो, हम तुम्हें पार्टी में कोई न कोई जिम्मेदारी दिला देंगे. फिर बैठेबैठे चांदी काटना.’’

मुकुल अपनी मां की करतूतों से वाकिफ था. लेकिन मां की वजह से उसे पैसों की तंगी नहीं रहती थी. इसलिए वह चुप रहता था. दूसरी ओर कविता को अपनी ढलती उम्र की चिंता रहती थी. अब उस के पुराने आशिकों ने आना कम कर दिया था. एक अखिलेंद्र ही ऐसा था, जो अभी तक उस की जरूरतों को पूरा कर रहा था. लेकिन वह भी अब कम ही आता था. फोन पर जरूर बराबर बातें करता रहता था. अलबत्ता इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कब तक साथ निभाएगा.

इस बीच कविता की सहेली सुनीता अपनी दोनों बेटियों को ले कर मुंबई शिफ्ट हो गई थी. वह अपनी बेटियों को मौडलिंग के क्षेत्र में उतारना चाहती थी. उस ने अपना मकान 75 लाख में बेच दिया था.

जो परिवार कविता का पड़ौसी बन कर सुनीता के मकान में आया, उस में मुकुल का ही हमउम्र लड़का सौम्य और उस से एक साल छोटी बेटी सांभवी थी. परिवार के मुखिया सूरज बेहद व्यवहारकुशल थे. उन की पत्नी सरला भी बहुत सौम्य स्वभाव की थीं. पतिपत्नी में तालमेल भी खूब बैठता था. सूरज सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर तैनात थे.

पतिपत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी. उन के घर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों का आनाजाना लगा रहता था. सरला सब की आवभगत करती थी. अब उस घर में खूब रौनक रहने लगी थी. घर में खूब ठहाके गूंजते थे.

कविता कभीकभी मन ही मन अपनी तुलना सरला से करती तो उसे अपने हाथ खाली और जिंदगी सुनसान नजर आती. उसे लगता कि वह जिंदगी भर अंधी दौड़ में दौड़ती रही, लेकिन मिला क्या? सुरेश के साथ रहती तो बेटे को भी पिता का साया मिल जाता और उस की जिंदगी भी आराम से कट जाती.

वह सोचती कितना अभागा है मुकुल, जो पिता के संसार में होते हुए भी उस से दूर है. यह तक नहीं जानता कि उस के पिता कौन हैं और कहां हैं? वह तो सब से यही कहती आई थी कि मुकुल के पिता हमें छोड़ कर विदेश चले गऐ हैं और वहीं बस गए हैं. वह अखिलेंद्र को ही मुकुल का पिता साबित करने की कोशिश करती, क्योंकि वह ज्यादातर विदेश में ही रहता था और साल में एकदो बार आया करता था.

कालोनी में किसी को भी कविता का सच मालूम नहीं था. कोई जानना भी नहीं चाहता था. देखतेदेखते 2 साल और बीत गए. पड़ोसन की बिटिया की शादी थी. तमाम मेहमान आए हुए थे. सरला विशेष आग्रह कर के कविता को सभी रस्मों में शामिल होने का निमंत्रण दे गई. कविता इस बात को ले कर बेचैन थी. वह खुद को सब के बीच जाने लायक नहीं समझ रही थी. इसलिए चुपचाप लेटी रही.

अखिलेंद्र विदेश से आ रहा था. एयरपोर्ट से उसे सीधे उसी के घर आना था. मुकुल उसे लेने एयरपोर्ट गया हुआ था.

पड़ोस में मंगल गीत गाए जा रहे थे, बड़े ही हृदयस्पर्शी. सुन कर कविता की आंखें भर आईं. उस की शादी भी भला कोई शादी थी. सच तो यह था कि शादी के नाम पर उसे उस की गलतियों की सजा सुनाई गई थी. जिस सुरेश को कभी वह मोतीचूर का लड्डू समझ रही थी, उस के हिसाब से वह गुड़ की ढेली भर नहीं निकला था.

‘‘मां कहां हो तुम, देखो हम आ गए.’’ मुकुल की आवाज सुन कर वह चौंकी. मुकुल अखिलेंद्र को एयरपोर्ट से ले आया था. कैसा अभागा लड़का था यह, लोगों के सामने अखिलेंद्र को न पापा कह सकता था, न अंकल. हां, उस के समझाने पर घर में वह जरूर उन्हें पापा कह कर पुकार लेता था.

कविता अनायास आंखों में उतर आए आंसू पोंछ कर अखिलेंद्र के सामने आ बैठी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब वह अखिलेंद्र को देख कर खुश नहीं हुई थी. अखिलेंद्र और कविता की उम्र में काफी बड़ा अंतर था. फिर भी सालों से साथ निभता रहा था.

‘‘क्या बात है, बीमार हो क्या कविता?’’ अखिलेंद्र ने पूछा तो कविता धीरे से बोली, ‘‘नहीं, बीमार तो नहीं हूं, टूट जरूर गई हूं भीतर से. ये झूठी दोहरी जिंदगी अब जी नहीं पा रही हूं. सोचती हूं, हम दोनों के संबंध भी कब तक चल पाएंगे.’’

‘‘हूं, तो ये बात है.’’ अखिलेंद्र ने गहरी सांस ली.

कविता अपनी धुन में कहे जा रही थी, ‘‘मैं भी औरतों के बीच बैठ कर मंगल गीत गाना चाहती हूं. अपने पति के बारे में दूसरी औरतों को बताना चाहती हूं. चाहती हूं कि कोई मेरे बेटे का मार्गदर्शन करे, उसे सही राह दिखाए. पर हम दोनों की किस्मत ही खोटी है.’’

‘‘और…?’’

‘‘एक दिन उस का भी घर बनेगा. कोई तो आएगी उस की जिंदगी में. फिर मैं रह जाऊंगी अकेली. क्या किस्मत है मेरी, लेकिन इस सब में दोष तो मेरा ही है.’’

तब तक मुकुल चाय बना लाया था. ट्रे से चाय के कप रख कर वह जाने लगा तो अखिलेंद्र ने उसे टोका, ‘‘यहीं बैठो बेटा, तुम्हारी मां और तुम से कुछ बातें करनी हैं. पहले मेरी बात सुनो, फिर जवाब देना.’’

कविता और मुकुल चाय पीते हुए अखिलेंद्र के चेहरे को गौर से देखने लगे. अखिलेंद्र ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरी पत्नी पिछले 15 सालों से कैंसर से जूझ रही थी. मैं उसे भी संभालता था, बिजनैस को भी और दोनों बच्चों को भी. भागमभाग की इस नीरस जिंदगी में कविता का साथ मिला. सुकून की तलाश में मैं यहां आने लगा. मेरी वजह से मुकुल के सिर से पिता का साया छिन गया और कविता का पति. मैं जब भी आता, मुझे तुम दोनों की आंखों में दरजनों सवाल तैरते नजर आते, जो लंदन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते. इसीलिए मैं बीचबीच में फोन कर के तुम लोगों के हालचाल लेता रहता था.’’

अखिलेंद्र चाय खत्म कर के प्याला एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘6 महीने पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया. उस के बाद मैं ने धीरेधीरे सारा बिजनैस दोनों बेटों को सौंप दिया. दोनों की शादियां पहले ही हो गई थीं और दोनों अलगअलग रहते थे. धीरेधीरे उन का मेरे घर आनाजाना भी बंद हो गया. फिर एक दिन मैं ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया, जिसे उन्होंने खुशीखुशी मान भी लिया.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ कविता और मुकुल ने एक साथ पूछा.

‘‘यही कि मैं तुम से शादी कर के अब यहीं रहूंगा.’’ अखिलेंद्र ने कविता की ओर देख कर एक झटके में कह दिया.

मुकुल का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि मां के दोस्त के रूप में जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी, अब वह सिर पर आ बैठेगी. पक्की बात है कि अगर अखिलेंद्र घर में रहेगा तो मां को और मर्दों से नहीं मिलने देगा और उन लोगों से जो पैसा मिलता था, वह भी मिलना बंद हो जाएगा.

मुकुल को नेतागिरी में आड़ेटेढे़ हाथ आजमाने आ गए थे. वह रसोई से लंबे फल का चाकू उठा लाया और पीछे से अखिलेंद्र की गरदन पर जोरों से वार कर दिया. जरा सी देर में खून का फव्वारा फूट निकला और वह वहीं ढेर हो गया. कविता आंखें फाड़े देखती रह गई. जब उसे होश आया तो देखा, मुकुल लाश को उठा कर बाहर ले जा रहा था.

मुकुल ने पता नहीं ऐसा क्या किया कि वह तो बच गया, लेकिन कविता फंस गई. पुलिस ने मुकुल से पूछताछ की और घर की तलाशी भी ली, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. मुकुल के प्रयासों से 4-5 महीने बाद कविता को जमानत मिल गई. कविता और मुकुल फिर से एक छत के नीचे रहने लगे, लेकिन दोनों ही एकदूसरे को दोषी मानते रहे?

शहीद – देशभक्ति का जनून – भाग 3

उस की आवाज से मेरे कदम ठिठक कर रुक गए. उस बदमाश के लिए इतना मौका काफी था. मैं ने उस लड़की की ओर लौटते हुए तेज स्वर में पूछा, ‘आप ने उसे जाने क्यों दिया?’

‘लगता है तुम इंगलैंड में नए आए हो,’ वह लड़की कुछ मुसकरा कर बोली.

‘हां.’

‘ये अंगरेज आज भी अपनी सामंती विचारधारा से मुक्त नहीं हो पाए हैं. प्रतिभा की दौड़ में आज ये हम से पिछड़ने लगे हैं तो अराजकता पर उतर आए हैं. प्रवासी लोगों के इलाकों में दंगा करना और उन से लूटपाट करना अब यहां आम बात होती जा रही है. यहां की पुलिस पर सांप्रदायिकता का आरोप तो नहीं लगाया जा सकता, फिर भी उन की स्वाभाविक सहानुभूति अपने लोगों के साथ ही रहती है. सभी के दिमाग में यह सोच भर गई है कि बाहर से आ कर हम लोग इन की समृद्धि को लूट  रहे हैं.’

मैं ने उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘तुम भी इंडियन हो?’

‘पाकिस्तानी हूं,’ लड़की ने छोटा सा उत्तर दिया, ‘शाहीन नाम है मेरा. कैंब्रिज विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन कर रही हूं.’

‘मैं दीपक कुमार सिंह. 2 दिन पहले मैं ने भी वहीं पर एम.बी.ए. में प्रवेश लिया है,’ अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए मैं ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो यह कहते हुए शाहीन ने मेरा हाथ गर्मजोशी से पकड़ लिया कि फिर तो हमारी खूब निभेगी.

उस अनजान देश में शाहीन जैसा दोस्त पा कर मैं बहुत खुश था. उस के पापा का पाकिस्तान में इंपोर्टएक्सपोर्ट का व्यवसाय था. मां नहीं थीं. पापा अपने व्यापार में काफी व्यस्त रहते थे इसलिए वह यहां पर अपनी मौसी के पास रह कर पढ़ने आई थी.

शाहीन के मौसामौसी से मैं जल्दी ही घुलमिल गया और अकसर सप्ताहांत उन के साथ ही बिताने लगा. शाहीन की तरह वे लोग भी काफी खुले विचारों वाले थे और मुझे काफी पसंद करते थे. सब से अच्छी बात तो यह थी कि यहां पर ज्यादातर हिंदुस्तानी व पाकिस्तानी आपस में बैरभाव भुला कर मिलजुल कर रहते थे. ईद हो या होलीदीवाली, सारे त्योहार साथसाथ मनाए जाते थे.

शाहीन बहुत अच्छी लड़की थी. मेरी और उस की दोस्ती जल्दी ही प्यार में बदल गई. साल बीततेबीतते हम ने शादी करने का फैसला कर लिया. हमें विश्वास था कि शाहीन के मौसीमौसा इस रिश्ते से बहुत खुश होंगे और वे शाहीन के पापा को इस शादी के लिए मना लेंगे, किंतु यह हमारा भ्रम निकला.

‘तुम्हारी यह सोचने की हिम्मत कैसे हुई कि कोई गैरतमंद पाकिस्तानी तुम हिंदुस्तानी काफिरों से अपनी रिश्तेदारी जोड़ सकता है,’ शाहीन के मौसा मेरे शादी के प्रस्ताव को सुन कर भड़क उठे थे.

‘अंकल, यह आप कैसी बातें कर रहे हैं. इंगलैंड में तो सारे हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी आपस का बैर भूल कर साथसाथ रहते हैं,’ मैं आश्चर्य से भर उठा.

‘अगर साथसाथ नहीं रहेंगे तो मारे जाएंगे इसलिए हिंदुस्तानी काफिरों की मजबूरी है,’ मौसाजी ने कटु सत्य पर से परदा उठाया.

शाहीन ने जब अपने मौसामौसी को समझाने की कोशिश की तो उन्होंने यह कह कर उसे चुप करा दिया कि अभी अच्छाबुरा समझने की तुम्हारी उम्र नहीं है.

उस दिन के बाद से मेरे और शाहीन के मिलने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया.

मुझे विश्वास था कि मेरे घर वाले मेरा साथ जरूर देंगे किंतु मैं यहां भी गलत था.

डैडी ने फोन पर साफ कह दिया, ‘हम फौजी हैं. हम लोग जातिपांति में विश्वास नहीं रखते. हमारा धर्म, हमारा मजहब सबकुछ हमारा देश है इसलिए अपने जीतेजी मैं दुश्मन की बेटी को अपने घर में घुसने की इजाजत नहीं दे सकता.’

चुपचाप अदालत में जा कर शादी करने के अलावा हमारे पास अब दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा था और हम ने वही किया. शाहीन के मौसामौसी को जब पता चला तो उन्होंने बहुत हंगामा किया किंतु कुछ कर न सके. हम दोनों बालिग थे और अपनी मरजी की शादी करने के लिए आजाद थे.

अपनी दुनिया में हम दोनों बहुत खुश थे. शाहीन ने तय किया था कि छुट्टियों में पाकिस्तान चल कर हम लोग उस के पापा को मना लेंगे. मैं ने पासपोर्ट के लिए आवेदनपत्र भर कर भेज दिया था.

एक दिन शाहीन ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो मैं खुशी से झूम उठा. मेरे चौड़े सीने पर सिर रखते हुए उस ने कहा, ‘दीपक, जानते हो अगर मेरा बेटा हुआ तो मैं उस का नाम शाहदीप रखूंगी.’

‘ऐसा नाम तो किसी का नहीं होता,’ मैं ने टोका.

‘लेकिन मेरे बेटे का होगा. शाहीन और दीपक का सम्मिलित रूप शाहदीप. इस नाम का दुनिया में केवल हमारा ही बेटा होगा. जो भी यह नाम सुनेगा जान जाएगा कि वह हमारा बेटा है,’ शाहीन मुसकराई.

कितनी निश्छल मुसकराहट थी शाहीन की लेकिन वह ज्यादा दिनों तक मेरे साथ नहीं रह पाई. एक बार मैं 2 दिन के लिए बाहर गया हुआ था. मेरी गैरमौजूदगी में उस के पापा आए और जबरदस्ती उसे पाकिस्तान ले गए. वह मेरे लिए एक छोटा सा पत्र छोड़ गई थी जिस में लिखा था, ‘हमारी शादी की खबर सुन कर पापा को हार्टअटैक हो गया था. वह बहुत कमजोर हो गए हैं. उन्होंने धमकी दी है कि अगर मैं तुम्हारे साथ रही तो वह जहर खा लेंगे. मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं. मैं उन की मौत की गुनहगार बन कर अपनी दुनिया नहीं बसाना चाहती इसलिए उन के साथ जा रही हूं. लेकिन मैं तुम्हारी हूं और सदा तुम्हारी ही रहूंगी. अगर हो सके तो मुझे माफ कर देना.’

इस घटना ने मेरे वजूद को हिला कर रख दिया था. मैं पागलों की तरह पाकिस्तान का वीजा पाने के लिए दौड़ लगाने लगा किंतु यह इतना आसान न था. बंटवारे ने दोनों देशों के बीच इतनी ऊंची दीवार खड़ी कर दी थी जिसे लांघ पाने में मुझे कई महीने लग गए. लाहौर पहुंचने पर पता चला कि शाहीन के पापा अपनी सारी जायदाद बेच कर कहीं दूसरी जगह चले गए हैं. मैं ने काफी कोशिश की लेकिन शाहीन का पता नहीं लगा पाया.

मेरा मन उचट गया था. अत: इंगलैंड न जा कर भारत लौट आया. एम.बी.ए. तो मैं केवल डैडी का मन रखने के लिए कर रहा था वरना बचपन से मेरा सपना भी अपने पूर्वजों की तरह फौज में भरती होने का था. मैं ने वही किया. धीरेधीरे 25 वर्ष बीत गए.

अपने अतीत में खोया मुझे समय का एहसास ही न रहा. ठंड लगी तो घड़ी पर नजर पड़ी. देखा रात के 2 बज गए थे. चारों ओर खामोशी छाई हुई थी. पूरी दुनिया शांति से सो रही थी किंतु मेरे अंदर हाहाकार मचा हुआ था. मेरा बेटा मेरी ही कैद में था और मैं अभी तक उस की कोई मदद नहीं कर पाया था.

बेचैनी जब हद से ज्यादा बढ़ने लगी तो मैं बाहर निकल आया. अनायास ही मेरे कदम बैरक नंबर 4 की ओर बढ़ गए. मन का एक कोना वहां जाने से रोक रहा था किंतु दूसरा कोना उधर खींचे लिए जा रहा था. मुझे इस बात का एहसास भी न था कि इतनी रात में मुझे अकेला एक पाकिस्तानी की बैरक की ओर जाते देख कोई क्या सोचेगा. इस समय अपने ऊपर मेरा कोई नियंत्रण नहीं बचा था. मैं खुद नहीं जानता था कि मैं क्या करने जा रहा हूं.

शाहदीप की बैरक के बाहर बैठा पहरेदार आराम से सो रहा था. मैं दबे पांव उस के करीब पहुंचा तो देखा वह बेहोश पड़ा था. बैरक के भीतर झांका, शाहदीप वहां नहीं था.

‘‘कैदी भाग गया, कैदी भाग गया,’’ मैं पूरी शक्ति से चिल्लाया. रात के सन्नाटे में मेरी आवाज दूर तक गूंज गई.

मैं ने पहरेदार की जेब से चाबी निकाल कर फुरती से बैरक का दरवाजा खोला. भीतर घुसते ही मैं चौंक पड़ा. बैरक के रोशनदान की सलाखें कटी थीं और शाहदीप उस से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था किंतु रोशनदान छोटा होने के कारण उसे परेशानी हो रही थी.

‘‘शाहदीप, रुक जाओ,’’ मैं पूरी ताकत से चीख पड़ा और अपना रिवाल्वर उस पर तान कर सर्द स्वर में बोला, ‘‘शाहदीप, अगर तुम नहीं रुके तो मैं गोली मार दूंगा.’’

मेरे स्वर की सख्ती को शायद शाहदीप ने भांप लिया था. अपने धड़ को पीछे खिसका सिर निकाल कर उस ने कहर भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा. अगले ही पल उस का दायां हाथ सामने आया. उस में छोटा सा रिवाल्वर दबा हुआ था. उसे मेरी ओर तानते हुए वह गुर्राया, ‘‘ब्रिगेडियर दीपक कुमार सिंह, वापस लौट जाइए वरना मैं अपने रास्ते में आने वाली हर दीवार को गिरा दूंगा, चाहे वह कितनी ही मजबूत क्यों न हो.’’

इस बीच कैप्टन बोस और कई सैनिक दौड़ कर वहां आ गए थे. इस से पहले कि वे बैरक के भीतर घुस पाते शाहदीप दहाड़ उठा, ‘‘तुम्हारा ब्रिगेडियर मेरे निशाने पर है. अगर किसी ने भी भीतर घुसने की कोशिश की तो मैं इसे गोली मार दूंगा.’’

आगे बढ़ते कदम जहां थे वहीं रुक गए. बड़ी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई थी. हम दोनों एकदूसरे पर निशाना साधे हुए थे.

‘‘लेफ्टिनेंट शाहदीप, तुम यहां से भाग नहीं सकते,’’ मैं गुर्राया.

‘‘और तुम मुझे पकड़ नहीं सकते, ब्रिगेडियर,’’ शाहदीप ने अपना रिवाल्वर मेरी ओर लहराया, ‘‘मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि वापस लौट जाओ वरना मैं गोली मार दूंगा.’’

मेरे वापस लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. शाहदीप जिस स्थिति में लटका हुआ था उस में ज्यादा देर नहीं रहा जा सकता था. जाने क्या सोच कर उस ने एक बार फिर अपने शरीर को रोशनदान की तरफ बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘धांय…धांय…’’ मेरे रिवाल्वर से 2 गोलियां निकलीं. शाहदीप की पीठ इस समय मेरी ओर थी. दोनों ही गोलियां उस की पीठ में समा गईं. वह किसी चिडि़या की तरह नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा.

मुझे और बरदाश्त नहीं हुआ. अपना रिवाल्वर फेंक मैं उस की ओर दौड़ पड़ा और उस का सिर अपने हाथों में ले बुरी तरह फफक पड़ा, ‘‘शाहदीप, मेरे बेटे, मुझे माफ कर दो.’’

कैप्टन बोस दूसरे सैनिकों के साथ इस बीच भीतर आ गए थे. मुझे इस तरह रोता देख वे चौंक पड़े, ‘‘सर, यह आप क्या कह रहे हैं.’’

‘‘कैप्टन, तुम तो जानते ही हो कि मेरी शादी एक पाकिस्तानी लड़की से हुई थी. यह मेरा बेटा है. मैं इस के निशाने पर था अगर चाहता तो यह पहले गोली चला सकता था लेकिन इस ने ऐसा नहीं किया,’’ इतना कह कर मैं ने शाहदीप के सिर को झिंझोड़ते हुए पूछा, ‘‘बता, तू ने मुझे गोली क्यों नहीं मारी? बता, तू ने ऐसा क्यों किया?’’

शाहदीप ने कांपते स्वर में कहा, ‘‘डैडी, जन्मदाता के लिए त्याग करने का अधिकार सिर्फ हिंदुस्तान के लोगों का ही नहीं हम पाकिस्तानियों का भी इस पर बराबर का हक है.’’

शाहदीप ने एक बार फिर मुझे बहुत छोटा साबित कर दिया था. मैं उसे अपने सीने से लगा कर बुरी तरह रो पड़ा.

‘‘डैडी, जीतेजी तो मैं आप की गोद में न खेल सका किंतु अंतिम समय मेरी यह इच्छा पूरी हो गई. अब मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है.’’

इसी के साथ शाहदीप ने एक जोर की हिचकी ली और उस की गरदन एक ओर ढुलक गई. मेरे हाथ में थमा उस का हाथ फिसल गया और इसी के साथ उस की उंगली में दबी अंगूठी मेरे हाथों में आ गई. उस अंगूठी पर दृष्टि पड़ते ही मैं एक बार फिर चौंक पड़ा. उस में भी एक नन्हा सा कैमरा फिट था. इस का मतलब उस ने एकसाथ 2 कैमरों से वीडियोग्राफी की थी. एक कैमरा हमें दे कर उस ने अपने एक फर्ज की पूर्ति की थी और अब दूसरा कैमरा ले कर अपने दूसरे फर्ज की पूर्ति करने जा रहा था.

शाहदीप के निर्जीव शरीर से लिपट कर मैं विलाप कर उठा. अपने आंसुओं से उसे भिगो कर मैं अपना प्रायश्चित करना चाहता था तभी कैप्टन बोस ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘सर, आंसू बहा कर शहीद की आत्मा का अपमान मत कीजिए.’’

मैं ने आंसू भरी नजरों से कैप्टन बोस की ओर देखा फिर भर्राए स्वर में पूछा, ‘‘कैप्टन, क्या तुम मेरे बेटे को शहीद मानते हो?’’

‘‘हां, सर, ऐसी शहादत न तो पहले कभी किसी ने दी थी और न ही आगे कोई देगा. एक वीर के बेटे ने अपने बाप से भी बढ़ कर वीरता दिखाई है. इस का जितना भी सम्मान किया जाए कम है,’’ इतना कह कर कैप्टन बोस ने शाहदीप के पार्थिव शरीर को सैल्यूट मारा फिर पीछे मुड़ कर अपने सैनिकों को इशारा किया.

सब एक कतार में खड़े हो कर आसमान में गोली बरसाने लगे. पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट को 101 गोलियों की सलामी देने के बाद ही हिंदुस्तानी रायफलें शांत हुईं. दुनिया में आज तक किसी भी शहीद को इतना बड़ा सम्मान प्राप्त नहीं हुआ होगा.

मेरे कांपते हाथ खुद ही ऊपर उठे और उस वीर को सलामी देने लगे.

शहीद – देशभक्ति का जनून – भाग 2

मैं वापस बैरक के भीतर घुसा तो देखा कि घायल शाहदीप का पूरा शरीर कांप रहा था.

मैं उस के करीब पहुंचा ही था कि उस का शरीर लहराते हुए मेरी ओर गिर पड़ा. मैं ने उसे अपनी बांहों में संभाल कर सामने बने चबूतरे पर लिटा दिया. वह लंबीलंबी सांसें लेने लगा.

उस की उखड़ी हुई सांसें कुछ नियंत्रित हुईं तो मैं ने पूछा, ‘‘बताओ, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘सिर्फ इतना कि मैं ने आप का कर्ज चुका दिया है.’’

‘‘कैसा कर्ज? मैं कुछ समझा नहीं.’’

‘‘अगर मैं चाहता तो आप मुझे मार भी डालते तो भी मेरे यहां आने का राज कभी मुझ से न उगलवा पाते. मैं यह भी जानता था कि देशभक्ति के जनून में आप मुझे मार डालेंगे किंतु यदि ऐसा हो जाता तो फिर जिंदगी भर आप अपने को माफ नहीं कर पाते.’’

‘‘फौजी तो अपने दुश्मनों को मारते ही रहते हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘‘लेकिन एक बाप को फर्क पड़ता है. अपने बेटे की हत्या करने के बाद वह भला चैन से कैसे जी सकता है?’’ शाहदीप के होंठों पर दर्द भरी मुसकान तैर गई.

‘‘कैसा बाप और कैसा बेटा. तुम कहना क्या चाहते हो?’’ मेरा स्वर कड़ा हो गया.

शाहदीप ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें मेरे चेहरे पर टिका दीं और बोला, ‘‘ब्रिगेडियर दीपक कुमार सिंह, यही लिखा है न आप की नेम प्लेट पर? सचसच बताइए कि आप ने मुझे पहचाना या नहीं?’’

मेरा सर्वांग कांप उठा. मेरी ही तरह मेरे खून ने भी अपने खून को पहचान लिया था. हम बापबेटों ने जिंदगी में पहली बार एकदूसरे को देखा था किंतु रिश्ते बदल गए थे. हम दुश्मनों की भांति एकदूसरे के सामने खड़े थे. मेरे अंदर भावनाओं का समुद्र उमड़ने लगा था. मैं बहुत कुछ कहना चाहता था किंतु जड़ हो कर रह गया.

‘‘डैडी, आप को पुत्रहत्या के दोष से बचा कर मैं पुत्रधर्म के ऋण से उऋण हो चुका हूं. आज के बाद जब भी हमारी मुलाकात होगी आप अपने सामने पाकिस्तानी सेना के जांबाज और वफादार अफसर को पाएंगे, जो कट जाएगा लेकिन झुकेगा नहीं,’’ शाहदीप ने एकएक शब्द पर जोर देते हुए कहा.

‘‘इस का मतलब तुम ने जानबूझ कर अपना राज खोला है,’’ बहुत मुश्किलों से मेरे मुंह से स्वर फूटा.

‘‘मैं कायर नहीं हूं. मैं आप की सौगंध खा कर वादा करता हूं कि जिस देश का नमक खाया है उस के साथ नमकहरामी नहीं करूंगा,’’ शाहदीप की आंखें आत्मविश्वास से जगमगा उठीं.

शाहदीप के स्वर मेरे कानों में पिघले शीशे की भांति दहक उठे. मैं एक फौजी था अत: अपने बेटे को अपनी फौज के साथ गद्दारी करने के लिए नहीं कह सकता था किंतु जो वह कह रहा था उस की भी इजाजत कभी नहीं दे सकता था. अत: उसे समझाते हुए बोला, ‘‘बेटा, तुम इस समय हिंदुस्तानी फौज की हिरासत में हो इसलिए कोई दुस्साहस करने की कोशिश मत करना. ऐसा करना तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकता है.’’

‘‘दुस्साहस तो फौजी का सब से बड़ा हथियार होता है, उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूं. आप अपना फर्ज पूरा कीजिएगा मैं अपना फर्ज पूरा करूंगा,’’ शाहदीप निर्णायक स्वर में बोला.

मैं दर्द भरे स्वर में बोला, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास समय बहुत कम है. मेहरबानी कर के तुम इतना बता दो कि तुम्हारी मां इस समय कहां है और यहां आने से पहले क्या तुम मेरे बारे में जानते थे?’’

‘‘साल भर पहले मां का इंतकाल हो गया. वह बताया करती थीं कि मेरे सारे पूर्वज सेना में रहे हैं. मैं भी उन की तरह बहादुर बनना चाहता था इसलिए फौज में भरती हो गया था. अपने अंतिम दिनों में मां ने आप का नाम भी बता दिया था. मैं जानता था कि आप भारतीय फौज में हैं किंतु यह नहीं जानता था कि आप से इस तरह मुलाकात होगी,’’ बोलतेबोलते पहली बार शाहदीप का स्वर भीग उठा था.

मैं भी अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पा रहा था. अत: शाहदीप को अपना खयाल रखने के लिए कह कर तेजी से वहां से चला आया.

‘‘सर, वह क्या कह रहा था?’’ बाहर निकलते ही कैप्टन बोस ने पूछा.

‘‘कह रहा था कि मैं ने आप की मदद की है इसलिए मेरी मदद कीजिए, और मुझे यहां से निकल जाने दीजिए,’’ मेरे मुंह से अनजाने में ही निकल गया.

मैं चुपचाप अपने कक्ष में आ गया. बाहर खड़े संतरी से मैं ने कह दिया था कि किसी को भी भीतर न आने दिया जाए. इस समय मैं दुनिया से दूर अकेले में अपनी यादों के साथ अपना दर्द बांटना चाहता था.

कुरसी पर बैठ उस की पुश्त से पीठ टिकाए आंखें बंद कीं तो अतीत की कुछ धुंधली तसवीर दिखाई पड़ने लगी.

उस शाम थेम्स नदी के किनारे मैं अकेला टहल रहा था. अचानक एक अंगरेज नवयुवक दौड़ता हुआ आया और मुझ से टकरा गया. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाता उस ने अत्यंत शालीनता से मुझ से माफी मांगी और आगे बढ़ गया. अचानक मेरी छठी इंद्री जाग उठी. मैं ने अपनी जेब पर हाथ मारा तो मेरा पर्स गायब था.

‘पकड़ोपकड़ो, वह बदमाश मेरा पर्स लिए जा रहा है,’ चिल्लाते हुए मैं उस के पीछे दौड़ा.

मेरी आवाज सुन उस ने अपनी गति कुछ और तेज कर दी. तभी सामने से आ रही एक लड़की ने अपना पैर उस के पैरों में फंसा दिया. वह अंगरेज मुंह के बल गिर पड़ा. मेरे लिए इतना काफी था. पलक झपकते ही मैं ने उसे दबोच कर अपना पर्स छीन लिया. पर्स में 500 पाउंड के अलावा कुछ जरूरी कागजात भी थे. पर्स खोल कर मैं उन्हें देखने लगा. इस बीच मौका पा कर वह बदमाश भाग लिया. मैं उसे पकड़ने के लिए दोबारा उस के पीछे दौड़ा.

‘छोड़ो, जाने दो उसे,’ उस लड़की ने लगभग चिल्लाते हुए कहा था.

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