अंधविश्वास की चक्की में पिसती जनता

17वीं सदी तक वैज्ञानिक नजरिए न होने से लोग कई तरह की घटनाओं को ले कर अंधविश्वास के शिकार हो जाया करते थे और इस के  पोषक ओझा, गुनी, पांजियार, पंडेपुरोहित आदि का धंधा बड़ी आसानी से चल निकलता था. तकरीबन 18वीं से 19वीं सदी के अंत तक वैज्ञानिक नजरिया खूब फलाफूला और अंधविश्वास को काफी हद तक नुकसान उठाना पड़ा. 20वीं सदी अंधविश्वास के पोषकों के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी हो गई. इस सदी के अंतिम 4-5 दशकों में बुद्धिजीवी वर्ग ने अनुभव किया कि जो लोग अंधविश्वास के समर्थन में खड़े हैं वे काफी हद तक विचलित हैं. वैज्ञानिक सूझबूझ ने जितनी बड़ी चुनौती इन प्रतिक्रियावादियों के सामने खड़ी की उतने बड़े पैमाने पर ये तत्त्व तर्क, विवेक और वैज्ञानिक धारणाओं पर प्रहार कर रहे हैं.

अंधविश्वास की पोषक शक्तियों (पंडेपुरोहित, ओझा, गुनी, जोगी आदि) के बेतुके तर्कों और हरकतों के पीछे एक अनपढ़ ही नहीं बल्कि अच्छेखासे पढ़ेलिखे लोग खासकर मध्य और उच्चवर्ग के वैज्ञानिक तक भी पड़े हैं. 21वीं सदी के वैज्ञानिक युग में यह बात अच्छेखासे पढ़ेलिखे को भी गुमराह करती है कि आखिर क्यों एक वैज्ञानिक भी अलौकिक घटनाओं और अंधविश्वास की हरकतों का पक्ष लेता है? बस, यहीं पर एक आम आदमी गुमराह हो कर अंधविश्वास को हवा दे रहा है.

अंधविश्वास से जुड़े मूर्खतापूर्ण विचारों और तर्कहीन कामों को एक भरमाने वाला नाम दे दिया गया है, आस्था.

इस से जुड़ी एक घटना याद आती है. पटना में ओझागुनी सम्मेलन हुआ था जिस में अंधविश्वास को बढ़ावा देने वालों को सम्मान दे कर खुलेआम अंधविश्वास को हवा दी गई थी. देखा जाए तो यह एक तरह से विज्ञान की अति सूक्ष्म खोजों को ठेंगा दिखाने का असफल प्रयास है. 21वीं सदी में अंधविश्वास को बढ़ावा देती यह सामाजिक घटनाएं यही सोचने पर मजबूर करती हैं कि कितनी मानव शक्ति, पैसा और समय जैसे संसाधन ऊलजलूल बातों और धारणाओं पर बरबाद हो रहे हैं.

अंधविश्वास के बलबूते  कमानेखाने वालों की चांदी है तो यह आज के वैज्ञानिक युग में हताशा का ही नतीजा है ताकि नेताओं, मंत्रियों और तथाकथित वैज्ञानिकों को साजिशवश शामिल कर आम लोगों को गुमराह किया जाए. कारण यह कि आम जन की भेड़चाल की बैसाखियों के बिना अंधविश्वास का धंधा फलफूल ही नहीं पाता.

कमाई के जरिए को सूखता देख कर ही धर्म के नाम पर दानपुण्य और चढ़ावे आदि का प्रचारप्रसार पिछले 2-3 दशकों से काफी हद तक फलफूल रहा है.

आम जनता को धन के मोह से दूर रहने का उपदेश देने वाले वैभव और सुखसुविधाओं के सागर में आकंठ डूबे हुए हैं. धर्म के नाम पर ठगी के अनेक अड्डे जगहजगह खुल रहे हैं.

मनोवैज्ञानिक भूमिका

अंधविश्वास की जड़ में 2 बातें खासकर देखी जाती हैं. एक तो डर और दूसरा लालच. इनसान के जीवन में अचानक ही कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं जिन को वैज्ञानिक तर्कों पर आसानी से साबित कर पाना कठिन होता है और यहीं से अंधविश्वास की शुरुआत होती है. प्राकृतिक प्रकोप जैसे सूखा, तूफान, आकाशीय बिजली का गिरना, भूचाल आदि के डर ने इंसान को शुरू से ही अंधविश्वास की ओर धकेला है.

इनसान ने कभी इन कुदरती घटनाओं पर मगजखपाई नहीं की है और उस की इन्हीं मनोवैज्ञानिक कमजोरियों का फायदा आस्था का सहारा ले कर धर्म, तंत्रमंत्र, जादूटोना से जुड़े लोग अकसर उठाते रहे हैं. कुदरती घटनाओं को दैवीय प्रकोप का नाम व डर दे कर इस से जुड़े लालची लोगों के बहकावे में आम लोग आ जाते हैं.

कई बार पढ़ेलिखे लोग अंधविश्वास से जुड़ी बातों की खोजबीन करने की कोशिश भी करते हैं और इस बारे में सवाल भी उठाते हैं मगर धर्मशास्त्र के  नाम पर बेतुके तर्क दे कर धर्म और तंत्रमंत्र से जुड़े लोग उन्हें ऐसा मूर्ख बनाते हैं कि लोग आसानी से उन की बातों के जाल में फंसते चले जाते हैं. जैसे अगर कोई पूछे कि दिव्यदृष्टि नामक भ्रामक अवधारणा की क्या परिभाषा है? इस के उत्तर में कह दिया जाता है कि दिव्यदृष्टि आज की दूरबीन से भी उत्कृष्ट दरजे की वैज्ञानिक खोज थी और यह कि आज का विज्ञान, पुराने समय के विज्ञान से बहुत पीछे है.

राजनीतिक भूमिका

स्वार्थ से भरी राजनीति, धार्मिक अनुष्ठान और इस से जुड़ा अंधविश्वास आज के समय में गिरते नैतिक मूल्यों के साथ इतने घुलेमिले हैं कि एक के अभाव में दूसरा अधूरा लगता है. हम कह सकते हैं कि जिस तरह धार्मिक अनुष्ठानों से अंधविश्वास का चोलीदामन का साथ है उसी तरह आज की शोषक राजनीति धर्म के बिना अधूरी है. यह स्थिति चिंताजनक है लेकिन समस्या यह है कि आज की गंदी राजनीति अंधश्रद्धा के बगैर चल भी तो नहीं पा रही है. धर्म के  शोरशराबे को सत्ता के गलियारों से भी खादपानी मिलता है.

स्वार्थ से भरी राजनीति करने वाले जनता का ध्यान मूल समस्याओं से हटाने के लिए धर्म को एक कारगर हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. आज की घोटालेबाज राजनीति के लिए धर्म और अंधविश्वास का शोर एक अनिवार्यता बनता जा रहा है. आवाम के तर्क और विवेक को मारने के लिए अंधविश्वास एक ताकतवर हथियार का काम करता है.

लालच से जुड़ी वोटबटोरू नीति हमारे राजनीतिबाजों को अंधविश्वास फैलाने वाले साधुसंतों की शरण लेने को बाध्य करती है ताकि उन के पिछलग्गुओं के वोट संत के माध्यम से उन की झोली में पड़ते रहें. इसीलिए अंधविश्वास के प्रदर्शनों में राजनीतिबाज हिस्सा लेते देखे जाते हैं.

आर्थिक भूमिका

अनुचित लाभ अंधविश्वास की आर्थिक भूमिका है. जैसेजैसे भेड़चाल के चलते तर्र्कविहीन लोग अंधविश्वास के शिकार हो रहे हैं वैसेवैसे अंधविश्वास के धंधेबाजों की कमाई बढ़ती जा रही है.

दैवीय प्रकोप जैसी डरावनी बातों के चलते हमेशा ही अंधविश्वास फैलाने वालों की चारों उंगलियां घी में रही हैं. आज के समय की स्थिति यही है कि ईमानदारी की दुकानदारी से शायद ही इतना धन जमा हो सके जितना कि धर्म के नाम पर जमा होता है.

अंधविश्वास के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण कैसे विकसित होगा? यह सवाल ही मुख्य समस्या है. इस का एकमात्र हल शिक्षा ही हो सकती है. अंधविश्वास के पीछे भी कई वैज्ञानिक तथ्य छिपे होते हैं. जरूरत है उन्हें खोजने की और अंधविश्वास के विरोध में एक विश्वव्यापी आंदोलन चलाने की.

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