राजनीति में ऐसे टिकें

रा जनीति में जाने वालों के लिए सब से बड़ी दिक्कत की बात यह है कि राजनीति में कैरियर कैसे बनाएं, यह बताने वाला कोई नहीं है. इस की पढ़ाई कहीं नहीं होती. ऐसे में राजनीति में कैरियर बनाने वालों के लिए मुश्किलें ज्यादा हैं. उन को लगता है कि केवल नेताओं के पीछे घूमने से ही काम हो सकता है. ऐसा नहीं है.

राजनीति में कैरियर बनाने के लिए जरूरी है कि आप सफल नेताओं के बारे में पढ़ें, उन को सम?ों, उन गुणों को अपने अंदर पैदा करें. आप को खुद से सीखना है, यह बड़ी चुनौती है.

सब के नाम याद रखें

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का नाम हर किसी को पता है. गरीब परिवार में पैदा हुए, लेकिन उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर राजनीति में सब से बड़ा परिवार बना लिया. एक दौर वह था कि भारत में जनता द्वारा चुने गए पदों पर सब से अधिक लोग मुलायम परिवार के थे. 40-50 साल के राजनीतिक जीवन में उन्होंने यह चमत्कार कैसे किया?

राजनीति में कैरियर बनाने वाले हर युवा को मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक यात्रा को सम?ाना और स्टडी करना चाहिए. सब से बड़ी बात कि उन के प्रबल विरोधी भी उन के कायल थे. मुलायम सिंह का सब से बड़ा गुण था कि वे बेहद सरल स्वभाव के थे. उन को अपने हर कार्यकर्ता का नाम याद रहता था. वे सभा के बीच भी किसी आम कार्यकर्ता का नाम ले कर बुलाते थे.

किसी के घर कोई अवसर होता था, सुख या दुख का, तो वे पहुंचते जरूर थे. उन के दौर में एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए पैदल, साइकिल, किराए की कार जैसे साधन थे तब भी और जब सरकारी सुविधा मिली तब भी, वे एकजैसा बरताव करते थे.

कानपुर देहात के एक गांव में एक देशराज नाम का साधारण कार्यकर्ता मुलायम सिंह यादव को अपने घर कई बार बुला चुका था. वे नहीं पहुंच पाए थे. साल 2002 के आसपास की बात है.

देशराज का अपना तिलक समारोह था. उस ने मुलायम सिंह को निमंत्रणपत्र दे कर बुलाया. उसे लगा कि नेताजी आएंगे तो हैं नहीं, तो वह अपने घर कामकाज में लग गया.

सरलता सब से बड़ा गुण

जिस दिन देशराज का तिलक था, सुबह 8 बजे उस के क्षेत्र के थाने का दारोगा उस के घर पहुंचा. तब मोबाइल इतना प्रयोग में नहीं होता था. दारोगा ने कहा कि 10 बजे मुलायम सिंह का कार्यक्रम आप के घर पर है. अभी एसपी साहब का मैसेज आया है. देशराज हैरान कि कैसे इतनी जल्दी इंतजाम होगा. समारोह तो शाम का था. वह जैसेतैसे मैनेज करने लगा.

सुबह 10 बजे मुलायम सिंह यादव अपने काफिले के साथ उस के घर आ गए. वे बिना किसी उम्मीद के साथ सहज भाव से मौजूद रहे. गांव और वहां मौजूद लोगों से मिलते रहे. आज भी पूरे इलाके में इस बात की चर्चा होती है. अपने कार्यकर्ता की इज्जत तब ज्यादा होती है, जब नेता पर्सनल बरताव रखता है.

बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव का भी ऐसा ही स्वभाव था. होली में फाग वे सब के बीच में आ कर खेलते थे. अपने कार्यकर्ता से ही मांग कर खैनी खा लेते थे. कार्यकर्ता से खैनी मांगने में कोई संकोच नहीं होता था उन्हें.

आज के दौर में तमाम नेता हैं, जो पद हासिल होते ही अपने कार्यकर्ता को सब से पहले भूल जाते हैं. ऐसे में वे कभी भी लंबी रेस की राजनीति नहीं कर पाते. नए नेताओं में तेजस्वी यादव का स्वभाव भी इसी तरह का है.

बिहार में वे अपने एक कार्यकर्ता के घर पर शादी में गए, तो वहां गाली गाने का रिवाज था. महिलाएं थोड़ा संकोच कर रही थीं. तेजस्वी को जैसे ही गानों का मजा लेते सुना, वे गाली गाने लगीं. तेजस्वी यादव ने संकोचसंकोच में ही डांस में भी साथ दिया.

कार्यकर्ता से जुड़ने के लिए यह जरूरी नहीं कि केवल पैसा खर्च हो, उस के ज्यादातर मामलों में उन के बीच जा कर उन की हंसीखुशी में हिस्सा ले कर भी जुड़ा जा सकता है.

ऐसी आदत डालें

भारतीय जनता पार्टी के संगठन मंत्री हैं नागेंद्र. अभी वे बिहार में संगठन मंत्री हैं. पहले उत्तर प्रदेश में सगठन मंत्री रहे. उन को कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच काम करना होता है. वे अपने पास एक छोटी सी नोटबुक रखते हैं, जिस में हर नेता और कार्यकर्ता का नाम व उस का ब्योरा एक पेज पर लिखा होता है. जब वे जिस क्षेत्र रहते हैं, वहां के नेता और कार्यकर्ता से बात कर उस से मिलने की कोशिश करते हैं.

जो लोग राजनीति में अपना कैरियर बनाना चाहते हैं, उन को इन टिप्स को ध्यान रखना चाहिए. मोबाइल के इस जमाने में डायरी रखना लोग बंद कर चुके हैं. डायरी में लिखना पड़ता है.

मनोविज्ञानी मानते हैं कि जो बातें लिखी जाती हैं, वे लंबे समय तक याद रहती हैं. ऐसे में डायरी लिखना जरूरी होता है. डायरी में अपनी रोज की गतिविधियों को लिखना चाहिए.

डायरी लिखने के साथ ही साथ राजनीति में कदम रखने वालों को पढ़ना भी चाहिए. पढ़ने से विचार बनते हैं, जिन को बोलने से सामने वाले पर असर  पड़ता है. नेता के लिए जरूरी होता है कि लोग उस के बोलने को सुनें. जैसे  प्रधानमंत्री रह चुके अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कहा जाता है कि वे कठोर से कठोर बात भी बड़े सहज लहजे में कह जाते थे. उन के बोलने की ताकत ऐसी थी कि गंभीर बहस के बीच भी हंसी छूट जाए. इस की वजह यह थी कि वे लिखते और पढ़ते दोनों ही बहुत थे.

एक बार संसद में बहस चल रही थी. विपक्ष के नेताओं ने आवाजें करनी शुरू कर दीं. माहौल को हलका करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी बोले, ‘मेरा नाम केवल अटल नहीं है, मैं बिहारी भी हूं.’ यह सुनते ही पूरे सदन की हंसी छूट गई. माहौल बदल गया.

बड़े काम की छोटीछोटी बातें राजनीति में अगर कैरियर बनाने जा रहे हैं, तो छोटीछोटी बातें बहुत काम की हैं. जिन कार्यक्रमों में आप को बुलाया गया है, वहां तो जाएं ही, साथ ही जहां आप को कैरियर के हिसाब से बेहतर लग रहा हो, वहां जरूर जाएं. जिन नए लोगों से मिलें, उन के नाम और परिचय ले लें, जिस से आगे मेलजोल बना रहे.

कभी भी ?ागड़ा न करें. ?ागड़ा करने से फालतू का तनाव ?ोलना पड़ता है, अपने काम की जगह पर थानाकचहरी करनी पड़ती है. कई बार छोटी सी गलती कैरियर को खत्म कर सकती है.

समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान इस का उदाहरण हैं. वे बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि शायद छुरी से वार हो रहा हो. चुनाव के दौरान अधिकारियों को ले कर कहे गए ऐसे ही शब्द उन के गले में फांस बन गए.

दमदार नेताओं से अपने संबंध रखें, लेकिन एक सावधानी रखें कि उन के साथ सैल्फी या फोटो सोशल मीडिया पर न डालें. सोशल मीडिया पर डालने से विरोधी को पता चल जाता है कि आप के किस से संबंध हैं. आप का विरोध करने वाले इस का लाभ उठाने में नहीं चूकते.

अपने से छोटे कार्यकर्ता के साथ संबंध अच्छे रखें. उन का हौसला बढ़ाते रहें और समयसमय पर बिना काम के भी बैठक करते रहें. कार्यकताओं पर खर्च भी करते रहें. अगर कहीं से पैसा मिल रहा है, तो उसे बचा कर रखें. उस का इस्तेमाल राजनीति में आगे बढ़ने के लिए करें. गलत तरह से पैसा न कमाएं.

उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में डाक्टर राजेश्वर सिंह और असीम अरुण पुलिस अफसर की नौकरी छोड़ कर विधायक बनने के लिए चुनाव लड़े. दोनों ही चुनाव जीत गए. असीम अरुण तो योगी सरकार में मंत्री भी बन गए. दिल्ली में आम आदमी पार्टी में वे ही विधायक बने, जो कुछ दिनों पहले तक एनजीओ चला रहे थे. इस तरह से दूसरे कैरियर में कामयाब होने के बाद भी राजनीति में कामयाब हो सकते हैं.

पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव नतीजे : भारतीय जनता पार्टी के ‘मिशन 24’ पर गाज

अब से कुछ साल पहले तक ऐसा माना जाता था कि पंचायत चुनाव गांव की सरहद तक सीमित रहते हैं, पर अब ऐसा नहीं है. आज की तारीख में हर बड़ा सियासी दल पूरी ताकत से इन चुनाव में अपना दमखम दिखाता है और अगर लोकसभा चुनाव नजदीक हों तो पंचायत चुनाव नतीजों की अहमियत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है.

इस बात को पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव से समझते हैं, जहां ममता बनर्जी को मिली बंपर जीत से पूरी तृणमूल कांग्रेस की बांछें खिली हुई हैं और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले बिखरे विपक्ष में थोड़ी उम्मीद जगी है कि केंद्र की ‘डबल इंजन’ सरकार की चूलें हिल सकती हैं, बशर्ते आपसी मतभेद भूल कर भारतीय जनता पार्टी के झूले में झूलते राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का डट कर सामना किया जाए.

पश्चिम बंगाल में 8 जुलाई, 2023 को एक चरण में ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद की कुल 73,887 सीटों के लिए चुनाव हुए. नतीजों में तृणमूल कांग्रेस सब पर भारी पड़ी. उस ने भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और वामपंथी दलों को रगड़ कर रख दिया.

ममता बनर्जी का जलवा बरकरार

कोई कुछ भी कहे, पर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को टक्कर देना फिलहाल बड़ा मुश्किल दिख रहा है. इस की सब से बड़ी वजह ममता बनर्जी के शासनकाल में पश्चिम बंगाल के लोगों के लिए चलाई गई कल्‍याणकारी योजनाएं हैं, जिन का फायदा आम लोगों तक पहुंच रहा है.

राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, गांवदेहात के इलाकों में ‘लक्ष्मी भंडार’ जैसी महिला सशक्तीकरण योजना ने महिला वोटरों को पार्टी से बांधे रखने में अहम रोल निभाया है. इस योजना के तहत सरकार सामान्य श्रेणी के परिवारों को 500 रुपए हर महीने और एससीएसटी श्रेणी के परिवारों को 1,000 रुपए हर महीने देती है.

इस के अलावा राज्य के लोगों को ममता बनर्जी के जुझारू तेवर पसंद आते हैं. वे सादगी से भरी जिंदगी जीती हैं और जनता की नब्ज पकड़ने में माहिर हैं. उन्होंने ‘मां, माटी, मानुष’ का जबरदस्त नारा द‍िया था और इसी के दम पर पश्चिम बंगाल में साल 2011 का विधानसभा चुनाव जीता था.

शिक्षकों की भरती और मवेशी व कोयला तस्करी रैकेट जैसे कई भ्रष्टाचार घोटालों के इलजाम लगने के बावजूद वोटरों ने तृणमूल कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा. याद रहे कि भ्रष्टाचार के इन मामलों में केंद्रीय जांच ब्यूरो और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा एक प्रमुख कैबिनेट मंत्री, विधायकों, युवा नेताओं और सरकार के करीबी बड़े सरकारी अफसरों की गिरफ्तारी हुई थी.

भाजपा के साथ हुआ ‘खेला’

भारतीय जनता पार्टी को पंचायत चुनाव में भले ही पहले से ज्यादा सीटें मिली हों, पर नतीजे मनमुताबिक नहीं रहे. वहां पर राज्य भाजपा में टूट होती भी दिखी. पंचायत चुनाव से ठीक पहले भाजपा को बड़ा झटका देते हुए पार्टी विधायक सुमन कांजीलाल सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे. अलीपुरद्वार निर्वाचन क्षेत्र की नुमाइंदगी करने वाले सुमन कांजीलाल को तृणमूल कांग्रेस पार्टी के महासचिव अभिषेक बनर्जी ने कोलकाता में एक समारोह में टीएमसी का झंडा सौंपा था.

पिछले कुछ समय से उत्तर बंगाल में मजबूत होती जा रही भाजपा को इस पंचायत चुनाव में झटका लगा. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर बंगाल में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया था, जबकि इस बार के पंचायत चुनाव में उसे मनचाहे नतीजे नहीं मिले. कुछ जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद यह पार्टी उत्तर बंगाल में अच्छा रिजल्ट नहीं दे पाई.

साल 2019 के लोकसभा और साल 2021 के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन को पैमाना मानें तो भारतीय जनता पार्टी को इस बार सीटों की तादाद में काफी बढ़ोतरी की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. पूर्व मेदिनीपुर, कूचबिहार, उत्तर 24 परगना के मतुआ बहुल इलाकों और पूर्व मेदिनीपुर में नंदीग्राम छोड़ कर हर जगह उस के प्रदर्शन में काफी गिरावट आई.

दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र की एकमात्र लोकसभा सीट पर भाजपा का लंबे समय से कब्जा रहा है, लेकिन इलाके में स्थानीय भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोरचा ने भाजपा की अगुआई वाले गठबंधन को काफी पीछे छोड़ दिया. भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोरचा के अध्यक्ष अनित थापा ने कहा, “यह जीत लोगों की जीत है. उन्होंने हमें काम करने का मौका दिया है और हम इसे पूरा करेंगे.”

भारतीय जनता पार्टी ने तृणमूल कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगाए थे और सोचा था कि जनता इसे मुद्दा बना कर भाजपा के हक में वोट डालेगी, पर यहां भी उस की दाल नहीं गली. प्रदेश में भारीभरकम 81 फीसदी के आसपास वोट पड़े, जो तृणमूल कांग्रेस की झोली भर गए.

भाजपा जानती है कि पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेश में सत्ता की चाबी गांवदेहात के वोटरों के हाथ में है और फिलहाल यह वोटर ममता बनर्जी के पक्ष में खड़ा है. यहीं से उस की चिंता बढ़नी शुरू हो जाती है, क्योंकि अब ममता बनर्जी और ज्यादा मजबूत हो गई हैं और देशभर में विपक्ष को एकसाथ करने में खासा रोल निभा सकती हैं. यह बात भाजपा के ‘मिशन 24’ के लिए खतरे की घंटी है.

देश की गरीबी

इस देश की गरीबी की वजह इस को मुगलों या अंगरेजों का लूटना नहीं है जो आज भी हमारे नेता कहते रहते हैं. असली वजह तो निकम्मापन है और अपना कीमती समय बेमतलब के कामों में बिताना है. खाली बैठे खंभे पर चढ़ना और उतरना ही यहां काम कहा जाता है और यह समाज, घर और सरकार में हर समय दिखता है.

जहां इन में किसी भी नई चीज का पहले शिलान्यास शामिल है और फिर भूमि पूजन, महीनों में बनने वाली चीज में बरसों लगाना और फिर उद्घाटन करना और आखिर में बारबार मरम्मत करने के लिए बंद करना भी शामिल है. 2,000 के 2016 में चालू किए नोट सिर्फ 7 साल में बदलने का हुक्म इसी निकम्मेपन की निशानी है. पूरे देश को 2016 की तरह फिर फिरकनी की तरह घुमा दिया है कि अपने बक्सों को खंगालो कि कहीं कोई 2,000 का मुड़ातुड़ा नोट इधरउधर न पड़ा हो और उसे बदलवाओ.

गनीमत यह अखंड 100 दिन का जागरण थोड़े कम पैमाने पर है. इसलिए नहीं कि सरकार समझदार हो गई है, इसलिए कि नोट कम हैं और काफी महीनों से नोट बैंकों से ही नहीं दिए जा रहे थे. पूरे देश का कितना समय इस पूरे पागलपन में बरबाद होगा, इसे गिनना असंभव है पर यह देश तो वह है जहां एक जेसीबी चलती है तो देखने वाले 100-200 खाली बैठे लोग मिल जाते हैं. यहां बेकार, बेरोजगार, धर्म के नाम पर घंटों वही लाइनें किसी मूर्ति के सामने आंख बंद कर के बैठने वालों के लिए इस समय की कीमत कैसी है, यह जांचना मुश्किल है.

सरकार ने पहले 2,000 के नोट थोपे, जब जरूरत नहीं थे और अब वापस लिए जब यह भी जरूरी नहीं थे. हाल के सालों में करोड़ों की रिश्वतें भी 500 रुपए के नोटों से लीदी जा रही थीं. सोशल मीडिया पर टैक्स अफसरों द्वारा जारी फोटो इस बात का सुबूत हैं कि 500 रुपए के नोटों में रिश्वत का पैसा रखना ही एक परंपरा बन गई थी. अब महीनों तक कई करोड़ नोटों को बेमतलब में घरों से बैंकों तक, बैंकों से वाल्टों तक, वाल्टों से रिजर्व बैंक तक और रिजर्व बैंक में इन्हें संभालने में लोग लगे रहेंगे.

गरीब देश के लोगों के आटे में पानी जबरन डाल दिया गया है कि अब उसे सुखाओ, फिर सड़े को छांटो और फिर दोबारा पीसो. यह सरकार निकम्मी है यह तो मालूम है पर पूरे देश को भी निकम्मा मानती है इस का एक और उदाहरण है. निकम्मों को बेबात में काम पर लगाना इस देश में बहुत आता है और इसी वजह से इस देश का आम आदमी अमेरिकी से  30-32 गुना कम पैसे वाला है. चीनी भी भारतीय से आज 8 गुना अमीर हैं, जबकि 1960 के आसपास दोनों बराबर थे.

यह ऐसे ही नहीं हो रहा. इस के लिए सरकार तरहतरह से मेहनत करती है. सूबों की परीक्षा 2 बार ली जाने लगी है, एक बोर्ड की और एक क्यूट की. पेपर लीक हो गया कह कर बारबार परीक्षा टाली जाती है, फिर दोबारा साल 2 साल में होती है. अदालतों में मामले 10 साल से कम तो चलते ही नहीं. टूटीगंदी सड़कों पर ध्यान तब जाता है जब टैंडर से पैसा निकलवाने की साजिश हो और वहां भी सड़क जो 4 दिन में बननी चाहिए 4 महीने में बनती है, फिर कोई और विभाग तोड़ने आ  जाता है.

निकम्मेपन को थोपने वाली सरकार को बारबार वोट मिलते हैं. पहले कांग्रेस को मिलते रहे, अब भाजपा को मिल रहे हैं. 2,000 के नोटों को वापस लेना निकम्मेपन की पटेल जैसी मूर्ति बनाना है. गुजरात के पटेल जैसी सैकड़ों मूर्तियां देशभर में बन रही हैं. उतनी बड़ी नहीं, पर खासी वही और सब 2,000 के नोटों के बदलने वाली बेमतलब की निकम्मी सोच की निशानी हैं.

नया संसद भवन : नरेंद्र मोदी की टेढ़ी चाल

बिना किसी मांग के,देश में आवश्यकता के, एक तरह से रातों-रात देश में एक नया संसद भवन बना दिया गया है. जी हां यह सच्चाई है कि फिलहाल यह मांग उठी  ही नहीं थी कि देश को नवीन संसद भवन चाहिए और ना ही इसकी आवश्यकता महसूस की गई थी . मगर जैसे कभी राजा महाराजाओं को सपना आता था और सुबह घोषणा हो जाती थी भारत जैसे हमारे विकासशील एक गरीब देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने अचानक संसद भवन का निर्माण कराना शुरू कर दिया. शायद उन्हें पहले के जमाने के राजा महाराजाओं  के कैसे नए नए शौक चराते हैं . जैसे मुगल बादशाहों ने ताजमहल बनवाया लाल किला बनवाया और इतिहास में अमर हो गए प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी भी इतिहास में अमर होना चाहते हैं. यही कारण है कि संसद भवन का उद्घाटन भी देश की संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से करवाने की बजाय स्वयं करने के लिए लालायित है.

नए संसद भवन का उद्घाटन को लेकर  विपक्ष ने केंद्र सरकार पर हमले तेज कर दिए है सबसे पहले पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और अब विपक्ष के नेता एक सुर में मांग कर रहे हैं कि उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से ही किया जाना चाहिए. यह मांग एक तरह से देश के संविधानिक प्रमुख होने के कारण राष्ट्रपति से कराया जाना गरिमा मय  लोकतंत्र को मजबूत बनाने वाली होगी. क्योंकि संविधान के अनुसार हमारे देश में राष्ट्रपति ही सर्व प्रमुख है उन्हीं के नाम से प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार काम करती है.

कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने राष्ट्रपति से ही नई संसद का उद्घाटन कराने की मांग दोहराई  और कहा कि ऐसा होने पर लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सरकार को प्रतिबद्धता दिखेगी. आज  राष्ट्रपति का पद महज प्रतीकात्मक बन कर रह गया है.”

खड़गे ने ट्वीट कर कहा ,” ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार ने दलित और आदिवासी समुदायों से राष्ट्रपति इसलिए चुना ताकि राजनीतिक लाभ लिया जा सके.”

दूसरी तरफ पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के लिए आमंत्रित नहीं किया गया है. और अब मौजूदा राष्ट्रपति को भी समारोह के लिए आमंत्रित नहीं किया जा रहा है. कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खरगे ने कहा, ” संसद भारतीय गणराज्य की सर्वोच्च विधायी संस्था है और राष्ट्रपति सर्वोच्च संवैधानिक पद है.राष्ट्रपति सरकार, विपक्ष और हर नागरिक का प्रतिनिधित्व करती है. वह भारत की प्रथम नागरिक है.उन्होंने आगे कहा  अगर संसद के नए भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति करती हैं, तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक मर्यादा के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को प्रतिबिबित करेगा.”

क्या यह राष्ट्रपति पद का अवमान नहीं है

आज प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी जी देश की जनता या सवाल कर रही है की देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर आसीन द्रोपदी मुर्मू के साथ उनके पद का अपमान नहीं है .  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हर चीज में मैं मैं करना शोभा नहीं देता.  दूसरी तरफ राजनीतिक पार्टियों में भी इस मुद्दे पर सवाल उठाने खड़े कर दिए हैं.

आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने कहा, ” नवनिर्मित संसद भवन के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति की जगह प्रधानमंत्री को आमंत्रित करना न केवल राष्ट्रपति का अपमान है बल्कि ये पूरे आदिवासी समाज का अपमान है. साथ ही यह फैसला दर्शाता है कि भारतीय जनता पार्टी की मानसिकता आदिवासी विरोधी, दलित विरोधी और पिछड़ी विरोधी है.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने कहा, ” संसद के शिलान्यास से लेकर अब उद्घाटन तक राष्ट्रपति को छोड़ कर बड़ा फैसला लेना संवैधानिक रूप से सही नहीं है. उन्होंने कहा कि संसद के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को आमंत्रित करना चाहिए.  प्रधानमंत्री के लिए संसद के नए भवन का उद्घाटन करना संवैधानिक रूप से सही नहीं होगा. ऐसा किसी बड़े लोकतंत्र ने ऐसा नहीं किया है. हमारा मत है कि संविधान का सम्मान नहीं हो रहा और ये न्यायोचित नहीं है.”

तृणमूल सांसद सौगत राय के  मुताबिक  राहुल गांधी ने जो मांग उठाई है, उससे हम भी सहमत हैं. नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री की बजाय भारत के राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए. ससद में लोकसभा और राज्यसभा दोनों है. प्रधानमंत्री है पार्टी के नेता हैं, जिनके पास सदन में बहुमत है और राष्ट्रपति संसद का प्रतिनिधित्व करते हैं. जहां तक बात वर्तमान राष्ट्रपति जो पति मुर्मू की है अनुसूचित जनजाति का प्रयोग करती हैं जिसका ढोल भाजपा ने उन्हें राष्ट्रपति बनाते समय खूब बजाया  था और आज जब उनसे संसद का उद्घाटन नहीं करवाने का नाटक जारी है और यही आवाज उठ रही है कि यह राष्ट्रपति पद का अपमान है ऐसे में अगर राष्ट्र पति महामहिम मुर्मू राष्ट्रपति पद से त्यागपत्र दे देती हैं तो जहां नरेंद्र दामोदरदास मोदी की बड़ी किरकिरी होगी वही इस ऐतिहासिक समय में द्रोपदी मुर्मू का कद बढ़कर इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो जाएगा. अनुसूचित जनजाति का आप गौरव बन जाएंगी.

किरन रिजिजू : न्यायपालिका मजबूत केंद्र कमजोर

एक कहावत बन गई है -” आर एस एस और भाजपा कभी कच्ची गोटिया नहीं खेलते.” प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के स्नेह पात्र देश के कानून मंत्री किरण रिजिजू के मामले में देश में यही प्रतिक्रिया आई है कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार के संपूर्ण कार्यकाल की यह घटना अपने आप में अनोखी और अलग है .

कानून मंत्री के रूप में किरन रिजिजू जिस तरह कुछ ज्यादा सक्रिय थे वह अपने आप में एक इतिहास है. न्यायपालिका से टकराव लेकर उन्होंने जिस तरह भाजपा की नीतियों को आगे बढ़ाया वह तो शाबाशी के लायक था मगर मिल गया दंड!

संपूर्ण घटनाक्रम को देखा जाए तो देश हित में यह अच्छा हुआ है. यह संदेश चला गया है कि न्यायपालिका नरेंद्र दामोदरदास मोदी के शासन में भी सर्वोच्च स्थान रखती है अन्यथा जिस तरह देश के कानून मंत्री के रूप में किरण रिजिजू ने खुलकर घेरा बंदी की थी वह सीधे-सीधे सरकार और न्यायपालिका और केंद्र के टकराव को दर्शाती थी. ऐसा महसूस होता था मानो किरण रिजिजू जो बोल रहे हैं वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति से ही क्योंकि इसी तरह उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी बीच-बीच में शिगूफा छोड़ते रहते है . यही कारण है कि एक मामला भी अवमानना का उच्चतम न्यायालय में दर्ज हो कर चल रहा है. ऐसे में अचानक कानून मंत्री को पद से हटाना यह संदेश देता है कि देश की नरेंद्र मोदी सरकार न्यायालय का सम्मान करती है और किसी भी तरह टकराव का संदेश नहीं देना चाहती. यह सकारात्मकता देश के लिए एक अच्छा संदेश लेकर आया है. क्योंकि आर एस एस की भावनाओं को अमलीजामा पहनाने वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार ने अगर यू-टर्न लिया है तो यह देश हित में माना जा सकता है. इसके साथ ही हम एक बड़ा यक्ष प्रश्न भी उठाने जा रहे हैं जो आज देश के सामने है नरेंद्र मोदी सरकार जल्दी से बैकफुट पर नहीं जाती अपनी किसी भी गलती को मानने को तैयार नहीं होती अपने विशिष्ट सहयोगी की गलती को भी मानने को तैयार नहीं होती और न ही आसानी से यू टर्न लेती है इसका सबसे ज्वलंत मामला है दिल्ली के जंतर मंतर में बैठी महिला पहलवान बेटियों का जो कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और सांसद बृजभूषण सिंह का इस्तीफा और कार्रवाई के लिए लंबे समय से आंदोलनरत हैं मगर केंद्र सरकार मानो आंखें मूंदकर बैठी हुई है. ऐसे में किरण रिजिजू का कानून मंत्री से इस्तीफा लेकर मंत्रालय बदल देना एक बड़ी घटना है जो संकेत देती है कि अगर नरेंद्र दामोदरदास मोदी ऐसा नहीं करते तो आने वाले समय में मुसीबत बढ़ जाती और नरेंद्र मोदी सरकार को जवाब देना भी मुश्किल पड़ जाता.

केंद्र का यूं टर्न और देश हित

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अप्रत्याशित रूप से बड़ा बदलाव करते हुए किरेन रिजिजू से कानून मंत्रालय वापस ले लिया. उनकी जगह अब अर्जुन राम मेघवाल को कानून मंत्रालय का जिम्मा दिया गया है.

दरअसल,अब यह कहा जा रहा है यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने में देरी, न्यायपालिका से सार्वजनिक टकराव ऐसी कई चीजें थीं, जिसे लेकर प्रधानमंत्री उनके लिए नाराज थे. केंद्र सरकार कॉमन सिविल कोड को लेकर गंभीर है. इसे लेकर कई बैठकें भी हो चुकी हैं. बीजेपी शासित राज्यों में इसे लागू भी किया जा रहा है. इस कानून को देशव्यापी लागू करने का जिम्मा कानून मंत्रालय को सौंपा गया था जिसमें लगातार देरी हो रही थी. माना जा रहा है कि इस बात को लेकर प्रधानमंत्री काफी नाराज थे. यही नाराजगी किरन रिजिजू को भुगतना पड़ी.

कहा जा जा रहा है कि न्यायपालिका और कानून मंत्री के बीच सार्वजनिक टकराव और क़ानून मंत्री के न्यायपालिका को लेकर दिये गए बयानों से सरकार में “उच्च स्तर” पर नाराजगी थी. सरकार नहीं चाहती थी कि न्यायपालिका के साथ टकराव सार्वजनिक रूप से दिखे. मगर यह भी सच है कि इसे बहुत पहले ही नरेंद्र मोदी सरकार को रोक देना चाहिए था.

दरअसल, तकरीबन डेढ़ महीने पहले कानून मंत्री के न्याय पालिका को लेकर दिए गए एक सार्वजनिक बयान ने “सरकार” को नाराज कर दिया . तब ही तय हो गया था कि किरण रिजिजू को कानून मंत्रालय से हटाया जाएगा, लेकिन कर्नाटक चुनाव को वजह से रिजिजू को कुछ दिनों का जीवन दान मिल गया था.
15 दिन पहले ये तय हो गया था कि कर्नाटक चुनाव के बाद किरण रिजिजू से कानून मंत्रालय ले लिए जाएगा. अब, रिजिजू को भू-विज्ञान मंत्रालय दिया गया है. अब कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कानून मंत्री के रूप में किरण रिजिजू ने जो क्षति पहुंचाने का काम किया है उसके बरक्स उन्हें कोई भी दूसरा मंत्रालय नहीं दिया जाना चाहिए था. जिससे यह संदेश जाता कि देश की सर्वोच्च न्यायपालिका के खिलाफ बुलंदी के साथ कानून मंत्री के रूप में प्रदर्शन करने वाले किरण रिजिजू को दंड मिला है. कपिल सिब्बल से लेकर की अनेक कानून विदो ने किरण रिजिजू की आलोचना की है जो जायज कही जाएगी. मगर हमारा सवाल यह है कि कानून मंत्री का पद तो ले लिया गया मकर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का क्या होगा. क्या सरकार उन पर भी कोई एक्शन ले सकने की स्थिति में है.

सियासी इमरान खान का महिलाओं पर चौंकाने वाला नजरिया

तकरीबन एक दशक पहले भारत में एक कार्यक्रम के दौरान विवादास्पद लेखक सलमान रूश्दी ने कहा था कि कर्नल गद्दाफी और इमरान खान की शक्लें मिलती हैं और अगर भविष्य में कोई लीबिया के पूर्व नेता पर फिल्म बनाता है तो इमरान खान गद्दाफी के रोल के लिए सब से उपयुक्त होंगे. यह इत्तिफाक ही है कि लीबिया का तानाशाह गद्दाफी तानाशाही के साथसाथ ऐयाशी के लिए भी बदनाम रहा और इमरान खान की जिंदगी भी कुछ कम नहीं है.

क्रिकेटर और अब पाकिस्तान के अहम सियासी किरदार इमरान खान की दूसरी पत्नी रेहम खान की किताब ‘टेल आल’ में इमरान खान उस रंगीले किरदार की तरह पेश किए गए हैं, जिसे कोई बंधन पसंद नहीं है और वह अपनी पसंद और अपनी शर्तों पर जीता है.

इमरान खान से रेहम खान की शादी महज 15 महीनों में ही टूट गई थी. रेहम खान ने लंदन में रहने वाले इमरान खान के खास सहयोगी बुखारी के बारे में यह खुलासा भी किया था कि उस ने लंदन में एक युवा लड़की के गर्भपात की व्यवस्था की थी, जिसे इमरान खान ने प्रेग्नेंट किया था.

रेहम खान के यह भी दावा किया है कि इमरान खान अपनी पार्टी  तहरीक ए इंसाफ में ऊंचा पद पाने की चाह रखने वाली महिलाओं से यौन संबंधों की मांग करते रहे हैं.

इमरान खान की पार्टी पीटीआई की एक नेता आएशा गुलालई ने दावा किया था कि पार्टी के प्रमुख इमरान खान पर मोबाइल फोन के माध्यम से आपत्तिजनक संदेश भेजते थे. उन्होंने यह भी कहा था कि इमरान खान और उन के आसपास मौजूद लोगों के हाथों में सम्मानित औरतों की इज्जत और आबरू सुरक्षित नहीं है. इस मामले में देश और विदेश में संगीत की दुनिया में खासा नाम कमाने वाली गायिका कुर्तुलएन बलोच ने भी इमरान खान की निंदा की थी.

महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा के लिए प्रधानमंत्री रहते हुए इमरान खान ने पहनावे को जिम्मेदार माना था और महिलाओं को नसीहत दी थी कि वे परंपराओं का पालन सुनिश्चित करें. इस पर पलटवार करते हुए विपक्षी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की सीनेटर शेरी रहमान ने कहा था कि  महिलाएं क्या पहनें, यह बताने का किसी को अधिकार नहीं है. हमारे प्रधानमंत्री ऐसा कर रहे हैं, इस से हैरान हूं. उन्होंने इमरान खान पर निशाना साधते हुए कहा कि वे ऐसा कह कर महिलाओं के खिलाफ अपराध करने वाले और उन का दमन करने वालों की हरकतों को जायज ठहरा रहे हैं.

इमरान खान ने रेप और यौन हिंसा के बढ़ते मामलों को ले कर सरकार की योजना के संबंध में संसद में कहा था कि समाज को खुद को अश्लीलता से बचाना होगा. अश्लीलता के बढ़ने का असर होता है. हर इंसान में विल पावर नहीं होती और सभी के पास खुद को कंट्रोल करने की ताकत नहीं होती.

इमरान खान के महिला विरोधी बयानों का कई अधिकारवादी संगठनों ने विरोध किया था. इस में पाकिस्तान मानवाधिकार संगठन वार अगेंस्ट रेप और पाकिस्तान बार काउंसिल शामिल थे. यहां तक कि देश की मीडिया ने भी इसे असंवेदनशील बताया था. वहीं जानीमानी पत्रकार मेहर तरार ने प्रधानमंत्री को शिक्षित होने की नसीहत देते हुए इसे यह सत्ता का विकृत अमानवीय पहलू बताया था.

यह भी दिलचस्प है कि सियासी जिंदगी के पहले इमरान खान की जिंदगी बेहद खुली नजर आती है. ब्रिटेन की मशहूर औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ा यह शख्स 1970 और 1980 के दशक के दौरान लंदन के एनाबेल्स और ट्रैंप्स जैसे नाइट क्लबों की पार्टियों में निरंतर मशगूल होने के कारण सोशलाइट के रूप में भी मशहूर रहा. सुजाना कांसटेनटाइन, लेडी लीजा कैंपबेल जैसे नवोदित युवा कलाकारों और चित्रकार एम्मा सार्जेंट के साथ इमरान खान के रोमांस ब्रिटेन में बेहद चर्चित रहे हैं और बाद में यह भी सामने आया कि सीता व्हाइट कथित रूप से उनकी नाजायज बेटी की मां बनीं. अमेरिका में एक न्यायाधीश ने इस की पुष्टि भी की और टीरियन जेड व्हाइट को इमरान खान की बेटी बताया था, हालांकि इमरान खान इस से मुकर गए थे.

इंगलैंड की जेमिमा गोल्डस्मिथ के साथ इमरान खान का पहला निकाह हुआ था, जो नौ साल के रिश्ते के बाद जून, 2004 में टूट गया. इस के बाद उन का निकाह रेहम खान से हुआ जो तकरीबन 10 महीने चला. इमरान खान ने तीसरी शादी अपने से बहुत कम उम्र की लड़की से की है.

इमरान खान के प्रधानमंत्री रहते 2020 में पाकिस्तान का मोटरवे रेप केस चर्चित हुआ था जिस ने देश को झकझोर दिया था. आधी रात को एक महिला को कार से खींच कर उस के बच्चों के सामने बलात्कार किया गया था. वहीं पुलिस अधिकारी ने इस घटना के लिए महिला को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि 3 बच्चों की मां को रात में अकेले अपनी गाड़ी में नहीं निकलना चाहिए था.

बहरहाल, इमरान खान की निजी जिंदगी और सियासी सोच में बहुत अंतर नजर आता है. देश की कट्टरपंथी ताकतों का विश्वास अर्जित करने के लिए इमरान खान ने महिला अस्मिता और आजादी को बाधित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

कर्नाटक में रिजर्वेशन एक अहम मुद्दा

रिजर्वेशन से पहले दलितों का और बाद में ओवीसी कास्यों का हाल सुथरा हो ऐसा नहीं है पर फिर भी जो थोड़ी भी सीटें उन जातियों की मिली. इन जातियों को हमारे पौराणिक ग्रंथ बारबार पाप का फल कहते रहते हैं और यही ङ्क्षहदू सोच की जड़ में है कि ये खुद अपनी बुरी हालत के लिए जिम्मेदार हैं. हालत तो यह है कि सदियों की पढ़ाई पट्टी की वजह से पिछड़ी व अछूत जातियां खुद को दोषी मान कर जोरशोर से पूजापाठ करती है ताकि अगले जन्म में वे इस जंजाल में न फंसे.

इस रिजर्वेशन के बावजूद ऊंची जातियां आज भी देश, समाज, सरकारी, व्यापारों, पढ़ाई, सेना, शासन, पुलिस, सेना में सब से ऊंचे स्थान पर बैठी है. दिक्कत यह है कि कहने को ये लोग पढ़ेलिखे हैं, मेरिट वाले हैं पर यही ऐसा भारत बना रहे हैं जो हर पैमाने पर ओवीसी देशों से भी गया गुजरा है.

कर्नाटक के चुनावों में रिजर्वेशन एक बड़ा मुद्दा रहा है क्योंकि मुसलमानों को मिलने वाला 4′ रिजर्वेशन हटा कर भारतीय जनता पार्टी कट्टर ङ्क्षहदू वोटरों को कह रही है कि लो तुम्हारे लिए 2 पुष्पक विमान उतार दिया है. उन्हें भरोसा दिलाया जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी को वोट करते रहो तो बाकि 50′ रिजर्वेशन भी एक न एक दिन खत्म हो जाएगा और पौराणिक आदेश की जन्म के हिसाब से ही पद मिलेंगे, ऊंचे घरों वाले खुद ब खुद ऋषिमुनि बन जाएंगे, राजाओं के पुत्र राजा बन जाएंगे और दासों के पुत्र दास रह जाएंगे और सब की औरतें पापों की गठरियों की तरह मानी जाती रहेंगी.

अगर मेरिट वाले 50′ लोगों ने कुछ किया होता तो यह देश हर पैमाने पर पिछड़ा न होता. आगे उन्होंने कुछ किया होा तो देश के 2 बड़े शहर दिल्ली और मुंबई झुग्गीझोपडिय़ों के यहां नहीं होते जहां न पानी है, न सीवर न वर्षा से बचाव, न गरर्मी की तड़प से बचाव.

अगर मेरिट से आए 50′ लोगों ने सरकार चलाते हुए ढंग से देश चलाया होता तो लाखों भारतीयों को भाग कर दूसरे देशों में जाना नहीं पड़ता. हालत तो यह है कि भूख और बेकारी के कारण भारत के लोग अफ्रीका के गरीबों में गरीब देश सूडान तक पहुंचा रहे हैं कि 2 रोटी का इंतजाम हो सके और आजकल सूडान के लोगों की आपसी लड़ाई में फंसे हुए हैं.

मेरिट की दुहाई की वजह से देश का मीडिया गोदी मीडिया बन कर मोदी मीडिया बना हुआ है. गोदी मीडिया को ङ्क्षहदूमुसलिम, मोदी वाह, भाजपा वाह इसलिए करना अच्छा लगता है कि शायद इस तरह वे रिजर्वेशन को खत्म कर सकें. गोदी मीडिया, चाहे टीवी वाला हो या ङ्क्षप्रट वाला कभी पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों व सिखों के नेताओं की बात नहीं करता क्योंकि वे सब रिजर्वेशन को सही मानते हैं.

रिजर्वेशन के बावजूद जनरल कर वालों के 50′ से ज्यादा पदों पर बैठे लोग में जनरल कास्ट की आधी औरतें क्यों नहीं है. क्यों उन्होंने अपनी ही कास्ट की औरतों को मौका नहीं दिया. वे इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती अपने बलबूते पर कुछ बनीं पर सरकारी पदों पर औरतों की गिनती न के बराबर है क्यों.

जो लोग मेरिट की दुहाई देते हैं वे अपने ही घरों की औरतों को जब बरावर का मौका, बरावर की इज्जत नहीं दे सकते वे भला कैसे पिछड़े शूद्रों और दलित अछूतों को ओबीसी व एएसी कोर्ट की जगह दे सकते हैं.

रिजर्वेशन पाने के बाद कुछ का हाल सुथरा पर उन के हाथ इतने बंधे हैं और रिजर्वेशन पा कर कुछ बने अपने को इतना हन समझते हैं कि वे अपने लोगों के लिए कुछ करते दिखना भी नहीं चाहते. रामनाथ कोङ्क्षवद हो, द्रौपदी मुर्मू, के.आर. नारायण, ये एक पूजापाठी रहे हैं और वर्ण व्यवस्था को मानने वाले जो दूसरे दलिलों पिछड़ों आदिवासियों के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं रहे या हैं. इसी वजह से रिजर्वेशन के बावजूद व दलितों, पिछड़ों का हाल सुधरा है न देश का.

हकीकत: आदिवासी को गरीब रखने की चाल

9अप्रैल, 2023 की सुबह मैं अपने एक ठेकेदार दोस्त के साथ भोपाल के अशोका गार्डन इलाके के चौराहे पर था. यह चौराहा मजदूरों के लिए मशहूर है. सुबह 7 बजे से मजदूर यहां जमा होने लगते हैं और 8-9 बजे तक पूरे इलाके में वही नजर आते हैं. कुछ झुंड बना कर खड़े रहते हैं, तो कुछ अकेले अलगथलग, जिस से आने वालों की नजर उन पर जल्दी पड़ सके.

ठेकेदार साहब मुझे समझाते रहे कि देखो, अभी ये लोग 500 रुपए मजदूरी दिनभर की मांगेंगे, लेकिन जैसे ही 10 बज जाएंगे, इन के भाव कम होते चले जाएंगे.

ठेकेदार को अपनी साइट पर काम करने के लिए 4-5 मजदूर चाहिए थे, लेकिन उन की निगाहें लगता था कि खास किस्म के मजदूरों को ढूंढ़ रही थीं. पूछने पर उन्होंने बताया कि वे आदिवासी मजदूरों को खोज रहे हैं, क्योंकि वे बहुत मजबूत, मेहनती और ईमानदार होते हैं. शहरी मजदूरों की तरह निकम्मे और चालाक नहीं होते, जिन्हें हर 2 घंटे बाद खानेपीने के लिए एक ब्रेक चाहिए. कभी उन्हें हाजत होने लगती है, तो कभी बीड़ीसिगरेट की तलब लग आती है. लंच भी वे लोग

2 घंटे तक करते रहते हैं. कुल जमा सार यह है कि शहरी मजदूरों से काम करा पाना आसान काम नहीं, क्योंकि वे कामचोर होते हैं.

फिर आदिवासी मजदूरों की खूबियां गिनाते हुए ठेकेदार बताने लगे कि वे कामचोरी नहीं करते और 200 रुपए की दिहाड़ी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं, जबकि शहरी मजदूर 400 रुपए से कम में हाथ भी नहीं रखने देते.

आदिवासी मजदूर को शाम को घर जाने के समय चायसमोसा खिला कर एक घंटे और काम कराया जा सकता है. और तो और लंच में उन्हें अचार और कटी प्याज के साथ सूखी रोटियां दे दो, तो वे एहसान मानते हुए मुफ्त में ऐक्स्ट्रा काम भी कर देते हैं.

इन ठेकेदार साहब की बातों और चौराहे का माहौल देख साफ हो गया कि आदिवासी वाकई में सीधे होते हैं और दुनियादारी से न के बराबर वाकिफ हैं. 400 रुपए का काम वे 200 रुपए में करने को तैयार हो जाते हैं, तो यह उन की मजबूरी भी है और जरूरत भी.

किराए की झुग्गी में रह रहे ऐसे ही एक गोंड आदिवासी परिवार से बात करने पर पता चला कि वे लोग बालाघाट से भोपाल काम की तलाश में आए थे और 6 महीने से बिल्डरों के यहां मजदूरी कर रहे हैं, लेकिन नकद जमापूंजी के नाम पर कुल 800 रुपए हैं.

पूछने पर 35 साल के जनकलाल धुर्वे ने बताया, ‘‘हम पतिपत्नी और विधवा मां मजदूरी करते हैं. मुझे रोज 300 और उन दोनों को 200-200 रुपए मिलते हैं. इन पैसों से जैसेतैसे गुजर हो जाती है, लेकिन पैसे बचते नहीं हैं. मेरे 2 बच्चे भी हैं, लेकिन स्कूल नहीं जाते, क्योंकि यहां कोई दाखिला देने को तैयार नहीं है.

‘‘हर स्कूल में बर्थ सर्टिफिकेट और आधारकार्ड और पक्का पता वगैरह मांगा जाता है. आधारकार्ड तो हमारे पास है, लेकिन दूसरे जरूरी कागजात नहीं हैं, जिस के चलते सरकारी स्कूल वाले यह कहते हुए टरका देते हैं कि वहीं बालाघाट जा कर बच्चों का एडमिशन किसी सरकारी स्कूल में करा दो.’’

लेकिन जनकलाल धुर्वे गांव वापस नहीं जाना चाहता, क्योंकि वहां काम ही नहीं है. और जो है भी, वह तकरीबन बेगार वाला है. दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद मुश्किल से 100 रुपए मिलते हैं. कभीकभार सरकारी योजना के तहत मुफ्त राशन मिल जाता है, पर उस का कोई ठिकाना नहीं और उस से हफ्तेभर ही पेट भरा जा सकता है.

इसलिए गरीब हैं

आदिवासियों के पास पैसा क्यों नहीं है और वे गरीब क्यों हैं? यह सवाल सदियों से पूछा जा रहा है, जिस का जवाब जनकलाल धुर्वे जैसे आदिवासियों की कहानी में मिलता है कि ये लोग पढ़ेलिखे नहीं हैं, जागरूक नहीं हैं, जरूरत के मारे हैं. और भी कई वजहें हैं, जिन के चलते इस तबके की माली हालत आजादी के 75 साल बाद भी बद से बदतर हुई है.

भोपाल के एक आदिवासी होस्टल में रह कर बीकौम के पहले साल की पढ़ाई कर रहे बैतूल के प्रभात कुमरे की मानें, तो आदिवासी बहुल इलाकों में शोषण बहुत है, लेकिन उस से निबटना कैसे है, यह कोई नहीं बताता.

हम आदिवासियों को ले कर खूब हल्ला मचता है, करोड़ों की योजनाएं बनती हैं, सरकार उन का खूब ढिंढोरा भी पीटती है, पर हकीकत में होताजाता कुछ नहीं है. आदिवासी तबका पहले से ज्यादा गरीब होता जा रहा है, क्योंकि उस के खर्चे बढ़ते जा रहे हैं और आमदनी कम हो रही है.

प्रभात कुमरे बहुत सी बातें बताते हुए आखिर में यही कहता है कि जो आदिवासी पढ़लिख कर सरकारी नौकरियों में लग गए हैं, वे ही चैन और सुकून से रह पा रहे हैं और उन्हीं के बच्चे अच्छा पढ़लिख पा रहे हैं. ऐसे लोग भी नौकरी मिलने के बाद अपने समाज की गरीबी दूर करने की कोई कोशिश या पहल नहीं करते हैं.

प्रभात कुमरे के मजदूर पिता जैसेतैसे उसे पढ़ा पा रहे हैं, क्योंकि उन के पास 2 एकड़ जमीन भी है. प्रभात कालेज पूरा करने के बाद किसी भी सरकारी महकमे में क्लर्क बन जाना चाहता है और यह आरक्षण के चलते उसे मुमकिन लगता है. इतने गरीब हैं

जनकलाल धुर्वे और प्रभात कुमरे की बातों से एक बात यह भी साफ हो जाती है कि पैसा गांवों में भी है और शहरों में भी है, लेकिन वह कम से

कम आदिवासियों के लिए तो बिलकुल नहीं है.

आदिवासियों के पास खेतीकिसानी की जमीन न के बराबर है और जो है, कागजों में वे उस के मालिक नहीं हैं. जिन जमीनों के पट्टे सरकारों ने आदिवासियों को दिए हैं, उन का रकबा इतना नहीं है कि वे आम किसानों की तरह उस से गुजर कर सकें.

मध्य प्रदेश में सब से ज्यादा कुल आबादी के 21 फीसदी आदिवासी हैं, जो तादाद में एक करोड़, 53 लाख के आसपास हैं. इस लिहाज से राज्य का हर 5वां आदमी आदिवासी है.

इन में से 85 फीसदी के आसपास खेतिहर मजदूर हैं, जो जंगलों में रह कर रोज कुआं खोद कर पानी पीने को मजबूर हैं. इन की आमदनी जान कर हैरत होती है कि इतने कम पैसों में ये गुजर कैसे कर लेते हैं.

कोई अगर यह सोचे कि भला धर्म, जाति और लिंग का आमदनी से क्या ताल्लुक, तो उसे एक रिपोर्ट पढ़ कर अपनी यह गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए.

दुनियाभर से भेदभाव दूर करने का बीड़ा उठाने वाली संस्था ‘औक्सफेम इंडिया’ की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, सवर्णों की मासिक आमदनी एससी यानी दलित और एसटी यानी आदिवासियों से औसतन 5,000 रुपए ज्यादा है.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, शहरों में एससी और एसटी तबकों की नियमित कर्मचारियों की औसत कमाई 15,312 रुपए है, जबकि सामान्य तबके के लोगों की कमाई 20,346 रुपए है. यह फर्क तकरीबन 33 फीसदी है.

अगर दलित और आदिवासी अपना खुद का काम करते हैं, तो उन की औसत कमाई 10,533 रुपए रह जाती है, जबकि खुद का काम करने वाले सामान्य तबके के लोगों की कमाई उन से एकतिहाई ज्यादा यानी 15,878 रुपए महीना होती है.

यह रिपोर्ट उन दावों की कलई भी खोलती है, जिन के हल्ले के तहत यह माना जाता है कि आदिवासियों को तो सरकार मुफ्त के ब्याज पर खूब कर्ज देती है, जबकि रिपोर्ट खुलासा करती है कि खेतिहर मजदूर होने के बाद भी आदिवासियों को खेतीकिसानी का लोन आसानी से नहीं मिलता और जिन्हें जैसेतैसे मिल भी जाता है, तो वह सामान्य तबके के लोगों के मुकाबले एकचौथाई होता है.

ज्यादातर आदिवासियों के पास चूंकि जमीन के पक्के और पुख्ता कागज नहीं होते, इसलिए उन्हें सरकारी योजनाओं का फायदा भी नहीं मिल पाता. ‘कर्जमाफी’ या ‘किसान सम्मान निधि’ के हकदार ये लोग नहीं हो पाते.

पीढि़यों से वनोपज बीनबीन कर बेचने वाले आदिवासी अपनी मेहनत के वाजिब दाम कभी नहीं ले पाए. जो महुआ, चिरौंजी और तेंदूपत्ता ये लोग बीनते हैं, उस की बाजार में कीमत अगर एक रुपया होती है, तो इन्हें 15 पैसे ही मिलते हैं यानी दलाली सरकारी ही नहीं, बल्कि गैरसरकारी तौर पर भी इन की कंगाली की बड़ी वजह है. दूसरे, शराब की लत की भी कीमत आदिवासी चुका रहे हैं, जो इन से छूटती नहीं.

ऊपर बैठे हैं ऊंची जाति वाले

हकदार तो बहुत सी योजनाओं के लिए आदिवासी इसलिए भी नहीं हो पाते, क्योंकि नीचे से ले कर ऊपर तक इन से ताल्लुक रखते महकमों में वे ऊंची जाति वाले हिंदू विराजमान हैं, जो हमेशा से इन्हें हिकारत और नफरत से देखते आए हैं.

धर्म और समाज दोनों आदिवासियों को जानवरों से ज्यादा कुछ नहीं समझते. इन की बदहाली की वजह पिछले जन्म के कर्म माने जाते हैं, इसलिए ये ऊपर वाले और ऊपर वालों की ज्यादती के शिकार हमेशा से ही रहे हैं.

पटवारी से कलक्टर और उस से भी ऊपर के ओहदों पर सवर्ण अफसरों का दबदबा है. मिसाल मध्य प्रदेश की लें,

तो आदिवासी वित्त एवं विकास निगम में प्रबंध संचालक जैसे अहम पद पर 25 सालों से ज्यादातर सवर्ण और उन में भी ब्राह्मण अफसर काबिज हैं, जिन की दिलचस्पी आदिवासियों के न तो वित्त में है और न ही हित में है.

इन अफसरों को न तो जनकलाल धुर्वे जैसों को कम मिल रही मजदूरी से मतलब है और न ही ये प्रभात जैसे नौजवानों से कोई सरोकार रखते हैं, जिन्हें कभीकभी फीस भरने और खानेपीने तक के लाले पड़ जाते हैं.

इन अफसरों ने आदिवासियों की जिंदगी भी नजदीक से नहीं देखी होगी कि वे एकएक कागज के लिए दरदर सालोंसाल भटकते रहते हैं, लेकिन उन की कहीं भी सुनवाई नहीं होती.

रही बात आदिवासियों से ताल्लुक रखते महकमों की, तो हाल यह है कि घूसखोर मुलाजिम इन गरीबों का खून चूसने में खटमलों की तरह चूकते नहीं.

11 अप्रैल, 2023 को मध्य प्रदेश के ही रतलाम जिले के गांव भूतपाड़ा में एक पटवारी सोनिया चौहान ने रमेश नाम के एक आदिवासी को फर्जी पावती टिका दी और हैरत की बात यह कि उस के भी बतौर घूस एक लाख, 90 हजार रुपए झटक लिए.

कैसे सीधेसादे आदिवासी सरकारी सिस्टम, जिस पर सवर्णों का कब्जा है, की मार झेल रहे हैं और कैसे देशभर में सरकारी जमीनों को प्राइवेट करने का फर्जीवाड़ा फलफूल रहा है, यह इस मामले से भी उजागर होता है.

रमेश जब जमीन के खाते और खसरे की नकल लेने तहसील पहुंचा तो पता चला कि जो जमीन उस के नाम दर्ज की गई है, वह तो सरकारी निकल रही है. उस की शिकायत पर पटवारी साहिबा के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई है, जिस ने किस्तों में घूस लेने के अलावा रमेश से अपने घर मेहनतमजदूरी भी कराई थी.

प्रभात कुमरे की कही बात मानें, तो आदिवासियों के ज्यादातर काम सरकारी महकमों से ही होते हैं. लेकिन मजाल है कि ये बाबू और साहब लोग बिना रिश्वत लिए कोई काम कर दें. जाति प्रमाणपत्र बनवाने से ले कर किसी भी सरकारी योजना का फायदा बिना दक्षिणा चढ़ाए नहीं मिलता.

अशिक्षा है वजह

आदिवासी वित्त एवं विकास निगम के ही एक ऊंची जाति वाले क्लर्क की मानें, तो आदिवासी जब तक अशिक्षित रहेंगे, तब तक गरीब ही रहेंगे, क्योंकि वे अपने हक ही नहीं जानते, इसलिए कहीं भी ज्यादती का विरोध नहीं कर पाते. सरकार इन के भले की योजनाओं पर जो अरबों रुपए खर्च कर रही है, उस का

90 फीसदी तो घोटालों और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है. यहां यानी भोपाल से सरकार अगर पोल्ट्री फार्म उन्हें भेजती है, तो उन तक एक अंडा ही पहुंचता है और यह हकीकत नीचे से ऊपर तक सभी जानते हैं. मतलब, योजनाएं आदिवासियों के भले के लिए नहीं, बल्कि नेताओं, अफसरों और मुलाजिमों के कल्याण के लिए बनती हैं. अनपढ़ और अशिक्षित रहने से नुकसान क्या होते हैं, यह आदिवासियों को समझाने वाला कोई नहीं है, जिन के 99 फीसदी से भी ज्यादा नौजवान कालेज का मुंह नहीं देख पाते.

प्राइमरी स्कूलों में टीचरों का न जाना अब मीडिया के लिए भी हल्ला मचाने की बात नहीं रही, क्योंकि उन्होंने भी धर्म के शातिर ठेकेदारों की तरह मान लिया है कि आदिवासी ऐसे ही थे और ऐसे ही रहेंगे, इन के लिए आंसू बहाने से कोई फायदा नहीं.

देशभर में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या

देश में नौकरियों की कितनी कमी है पर देश की सरकार को तो छोडि़ए. देश के मीडिया और देश की जनता तर्क को बढ़ती और परेशान करने वाली बेरोजगारी से कोर्ई फर्क नहीं पड़ रहा है. 2 छोटे मामलों में साफ होता है.

दिल्ली में बरसात से पहले डेंगू फैलाने वाले मच्छरों का पता करने का ठेका दिया जाता है इस साल कम से कम 3500 डोमेस्टिक ब्रीङ्क्षडग चैकर रखे जाते हैं. बरसात आने पर उन्हें हटा दिया जाता है. अब दिल्ली में ये सब सरकारी पैसे पाने वाले युवा कर्मचारी अचानक खाली होने पर हायहाय कर रहे हैं पर कोई सुन नहीं रहा क्योंकि इन के पास अगले 6-7 महीनों के लिए कोई काम होता ही नहीं. इन्हें भी जो स्विल आती है या इन्होंने काम पर सीखी होती है, वह सिर्फ मच्छरों के बारे में होती है.

इसी तरह दिल्ली बस सेवा में कौंट्रेक्ट पर रखे गए 1600 ड्राइवरों की नौकरी खत्म कर दी गई क्योंकि कंपनी का ठेका खत्म हो गया और नए टेंडर में किसे काम मिलेगा यह पता नहीं. इन ड्राइवरों को बसें चलानी ही आती हैं और आगे टेंडर के पास होने और अगली कंपनी के जम जाने तक इन को खाली रहना पड़ेगा.

इन दोनों तरह के काम करने वालों के पास और कोई अकल भी नहीं होती, न ही यह कुछ और सीखना चाहते हैं कि आड़े वक्त काम आ जाए गांवों से सीधे अब ये लोग आमतौर खाली बैठने के आदी होते है और 10-20 दिन खाली बैठ कर गांव लौट जाएंगे. वहां जो भी काम होगा करेंगे और जो थोड़ी आमदनी हो रही होगी उसी में बांटेंगे.यह समस्या देश भर में है. कहा जाता है कि देश में बेरोजगारी 8' है पर असल में ह कहीं ज्यादा है. बस इतना फर्क है कि इस देश का बेरोजगार बिना आदमनी रहने का आदी है, आधे पेट रह सकता है और सब से बड़ी बात है अपनी बुरी हालत के लिए अपने कर्मों को दोष देना जानता है.

लगातार नौकरी का इंतजाम करना किसी समाज के लिए बहुत मुश्किल नहीं है, अगर हर जवान 8-10 तरह के काम अच्छी तरह करना जानता हो, काम में तेज हो, निकम्मा और निठल्ला न हो तो देश में काम की कमी उस तरह न हो जिस तरह दिखती है और बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा के लाखों मजदूर दूसरे शहरों में काम करने के लिए जाए. अपने गांवों में काम करने से कतराने वाले मजदूरों को लगता है कि शहरों में ङ्क्षजदगी बेहतर है, काम आसानी से मिलेगा और सब से बड़ी बात है कि जाति और रीतिरिवाजों का बोझ नहीं होगा.

वे यह नहीं जानते कि शहरी लोगों के काम लगातार चलने वाले नहीं होते. शहरों में काम है पर उतने नहीं जितने सोचे जाते हैं. शहरों को इस तरह बसाया गया है और उन में व्यापार व उद्योग इस तरह के है कि वे इस्तेमाल करो और फेंक दो के सिद्धंात पर चलते हैं. मजदूर भी इसी गिनती में आते हैं.

डोमेस्टिक मीङ्क्षडग थ्रीङ्क्षडग चैकर या ड्राइवर कोई बड़ी कुशलता के काम नहीं और यदि इन मजदूरों के पास और हुनर होता तो 2 दिन भी खाली नहीं बैठना होता. सरकार से जुड़े काम करने में मौजमस्ती रहती है और कुछ ऊपरी आदमनी भी होती है इसलिए इन का लालच ज्यादा होता है. कम काम, पैसा ज्यादा और ऊपरी कमाई पर जब आग पूजापाठ का लपेटा लग जाए तो बेरोजगारी का खौफ तो रहेगा ही.

राजस्थान: कांग्रेस और भाजपा की राह नहीं आसान

राज्य में विधानसभा चुनाव इसी साल दिसंबर महीने में हैं और दोनों बड़े दलों के नेता अपने दिल्ली के आकाओं की तरफ देख रहे हैं. दोनों दलों में जबरदस्त गुटबाजी है. हालांकि यहां कांग्रेस बेहतर हालत में दिख रही है, क्योंकि उस में सिर्फ 2 ही गुट हैं, अशोक गहलोत गुट और सचिन पायलट गुट.इस के उलट भारतीय जनता पार्टी में जहां ईंट फेंकोगे, एक नया गुट दिखाई देगा.

पर दोनों पार्टियों में राजस्थान में एक बेसिक फर्क दिखाई देता है. राजस्थान में कांग्रेस हाईकमान का कोई गुट नहीं है, जबकि भाजपा में हाईकमान का भी एक गुट है.आमतौर पर प्रदेश अध्यक्ष पार्टी हाईकमान का वफादार होता है, जबकि कांग्रेस में अशोक गहलोत ने अपने ही गुट का प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी बनवा रखा है. कांग्रेस में अब दुविधा यह है कि वह सिर्फ अशोक गहलोत का चेहरा आगे रख कर चुनाव लड़ेगी या उन के साथ सचिन पायलट का चेहरा भी रखेगी. लेकिन उस में भी शक है कि अशोक गहलोत ऐसा होने देंगे क्या? राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की सचिन गहलोत से नजदीकी के बावजूद अशोक गहलोत साल 2018 से सचिन पायलट को मात देते आ रहे हैं.

हाईकमान ने सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष के साथसाथ उपमुख्यमंत्री भी बनवा दिया था, लेकिन अशोक गहलोत ने उन्हें ऐसी कुंठा में डाला कि वे मुख्यमंत्री तो क्या बनते अपने दोनों पद भी गंवा बैठे. राजनीति में अपने विरोधियों को परेशानी में डालना बहुत ही ऊंचे दर्जे की राजनीति होती है. यह महारत या तो मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह की थी, या फिर राजस्थान में अशोक गहलोत की है.

सचिन पायलट ने साल 2018 में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा से नजदीकी के चलते साल 2020 में बगावत का डर दिखा कर और साल 2022 में अशोक गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष पद मिलने के मौके का फायदा उठा कर 3 बार मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की थी, लेकिन अशोक गहलोत ने कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद ठुकरा कर 4 साल में तीसरी बार सचिन पायलट को मात दे दी थी.अब सचिन पायलट फिर परेशानी में आ गए हैं.

उन्हें उम्मीद थी कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ खत्म होने के बाद उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाएगा. उन्हें यह भी उम्मीद थी कि मल्लिकार्जुन खड़गे उन 3 नेताओं पर कार्यवाही करेंगे, जिन्होंने 25 अक्तूबर, 2022 को खुद उन का अपमान किया था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, तो सचिन पायलट के सब्र का प्याला एक बार फिर भर गया है.

सचिन पायलट ने कहा है कि अब तो बजट भी पेश हो चुका है, पार्टी नेतृत्व ने कई बार कहा था कि जल्द ही फैसला होगा, लेकिन अभी तक हाईकमान ने कोई भी फैसला नहीं किया है. बहुत हो चुका, हाईकमान को जो भी फैसला करना है, वह अब होना चाहिए.सचिन पायलट ने यह कह कर कांग्रेस हाईकमान को डराया है कि नरेंद्र मोदी राजस्थान में बहुत एग्रैसिव तरीके से प्रचार कर रहे हैं.

अगर कांग्रेस अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहती है, तो तुरंत कदम उठाना चाहिए, ताकि कांग्रेस लड़ाई के लिए तैयार हो सके.दरअसल, सचिन पायलट हाईकमान को बताना यह चाहते हैं कि जितना एग्रैसिव हो कर वह काम कर सकते हैं, उतना एग्रैसिव अशोक गहलोत नहीं हो सकते, लेकिन राजनीति सिर्फ एग्रैसिव हो कर नहीं होती.

अगर वे अशोक गहलोत से सबक नहीं लेना चाहते, तो उन्हें वसुंधरा राजे से सबक लेना चाहिए. भाजपा हाईकमान पिछले 5 साल से उन्हें किनारे करने की कोशिश कर रहा है, पर वे जरा भी एग्रैसिव नहीं हुईं. अब चुनाव आते ही राजस्थान भाजपा की राजनीति में वे फिर से ताकतवर बन कर उभर रही हैं.अशोक गहलोत की तरह अपने विरोधियों को थका देने की महारत वसुंधरा राजे की भी है.

उन की हैसियत कम करने के लिए भाजपा आलाकमान ने हर मुमकिन उपाय किए, लेकिन जनता की नजरों में वसुंधरा राजे के सामने भाजपा हाईकमान की ही किरकिरी हुई. वसुंधरा राजे को किनारे लगा कर नया नेतृत्व उभारने के लिए 3 साल पहले कम अनुभवी सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और वसुंधरा राजे को किनारे लगाने का काम सौंपा गया, तब से वसुंधरा राजे ने खुद को पार्टी की गतिविधियों से अलग कर रखा था.लेकिन चुनाव सिर पर आते ही अशोक गहलोत के सामने भाजपा की कमजोरी देख कर आलाकमान ने वसुंधरा राजे को फिर से भाजपा के पोस्टरों में जगह देना शुरू कर दिया है. हालांकि प्रदेश भाजपा के नेता अभी भी दावा कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा जाएगा, लेकिन पार्टी कार्यकर्ता यह जानते हैं कि साल 2018 का चुनाव भी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ा गया था.

तब वसुंधरा राजे से नाराज भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही एक गुट ने नारा लगवाया था, ‘मोदी तुझ से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं’.लेकिन हुआ क्या, चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में वसुंधरा राजे को ही आगे करना पड़ा, तभी भाजपा टक्कर में आ सकी और 77 सीटें हासिल कर सकी, जबकि उस से पहले तो भाजपा 20-30 सीटों पर निबटती दिख रही थी, इसलिए पार्टी कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि गुलाबचंद कटारिया के राज्यपाल बनने से खाली हुए विपक्ष के नेता पद पर वसुंधरा राजे को बिठा कर जनता को साफ संदेश दिया जाए. लेकिन आलाकमान दुविधा में है.

अगर कांग्रेस में असमंजस है, तो भाजपा में उस से ज्यादा है.सतीश पूनिया पिछले 4 साल से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद पर रहे हैं, लेकिन अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत किए बिना सचिन पायलट की तरह वे भी जल्दबाजी में अपनेआप को भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने लग गए थे. इस कारण पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के कई धड़े बन गए और संगठन एकजुट होने के बजाय बिखर गया और सतीश पूनिया को अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा.राजस्थान की राजनीति में जाटों की बड़ी अहमियत रही है.

नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, दौलतराम सारण जैसे बड़े जाट नेता हुए, केंद्र में कैबिनेट मंत्री बने, लेकिन कांग्रेस ने कभी किसी जाट को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया, लेकिन अब सतीश पूनिया को किनारे करने से नाराज जाट फिर से कांग्रेस की ओर रुख करेंगे.सतीश पूनिया जाट होने के कारण भाजपा के लिए भविष्य के नेता हो सकते थे, लेकिन उन की राह में हमउम्र और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के साथी रहे गजेंद्र सिंह शेखावत बैठे हैं, जो खुद भविष्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने हुए हैं.

गजेंद्र शेखावत को लगता है कि राजपूत होने के कारण और नरेंद्र मोदी व अमित शाह की मेहरबानी से वे मुख्यमंत्री बन सकते हैं, जबकि सचाई तो यह है कि केंद्रीय नेतृत्व के चाहने के बावजूद साल 2018 में वसुंधरा राजे ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष तक नहीं बनने दिया था. वहीं दूसरी तरफ प्रदेश के राजपूतों में राजेंद्र राठौड़ की लोकप्रियता गजेंद्र शेखावत से कहीं ज्यादा है और राजेंद्र राठौड़ भाजपा में गजेंद्र शेखावत से बहुत सीनियर भी हैं.राजस्थान में जाट और राजपूत समुदाय में पुरानी राजनीतिक रार है. कांग्रेस का जाटों पर और भाजपा का राजपूतों में असर रहा है.

राजनीतिक समीकरणों की नजर से वसुंधरा राजे बहुत एडवांटेज में हैं. वे राजपूत मां और मराठा पिता की बेटी हैं, जाट राजा की पत्नी हैं और घर में गुर्जर बहू है. जातीय समीकरण के नजरिए से भाजपा को वसुंधरा राजे ही फिट लगती हैं. जैसे अशोक गहलोत को उन की मरजी के बिना कांग्रेस में किनारे नहीं किया जा सकता, वैसे ही वसुंधरा राजे को उन की मरजी के बिना राजस्थान से भाजपा में किनारे नहीं किया जा सकता.

एक बार साल 2014 में भाजपा ने कोशिश की थी, तो पार्टी टूटने के कगार पर आ गई थी.भाजपा आलाकमान की मुसीबत यह है कि पिछले 20 सालों में वसुंधरा राजे के कद के आसपास भी कोई दूसरा भाजपा नेता राजस्थान में उभर नहीं सका है, जिस पर दांव लगाया जा सके. इसलिए एक बार फिर से चुनावों में वसुंधरा राजे को ही आगे करना नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मजबूरी है. उन के सर्वे यही बता रहे हैं कि इस बार अशोक गहलोत से मुकाबला करना आसान नहीं होगा.

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें