सरिता : भगोड़े पति की हिम्मती पत्नी

जिलाधीश राहुल की कार झांसी शहर की गलियों को पार करते हुए शहर के बाहर एक पुराने मंदिर के पास जा कर रुक गई. जिलाधीश की मां कार से उतर कर मंदिर की सीढियां चढ़ने लगीं.

‘‘मां, तेरा सुहाग बना रहे,’’ पहली सीढ़ी पर बैठे हुए भिखारी ने कहा.

सरिता की आंखों में आंसू आ गए. उस ने 1 रुपए का सिक्का उस के कटोरे में डाला और सोचने लगी, कहां होगा सदाशिव?

सरिता को 15 साल पहले की अपनी जिंदगी का वह सब से कलुषित दिन याद आ गया जब दोनों बच्चे राशि व राहुल 8वीं और 9वीं में पढ़ते थे और वह खुद एक निजी स्कूल में पढ़ाती थी. पति सदाशिव एक फैक्टरी में भंडार प्रभारी थे. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. एक दिन वह स्कूल से घर आई तो बच्चे उदास बैठे थे.

‘क्या हुआ बेटा?’

‘मां, पिताजी अभी तक नहीं आए.’

सरिता ने बच्चों को ढाढ़स बंधाया कि पिताजी किसी जरूरी काम की वजह से रुक गए होंगे. जब एकडेढ़ घंटा गुजर गया और सदाशिव नहीं आए तो उस ने राशि को घनश्याम अंकल के घर पता करने भेजा. घनश्याम सदाशिव की फैक्टरी में ही काम करते थे.

कुछ समय बाद राशि वापस आई तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. उस ने आते ही कहा, ‘मां, पिताजी को आज चोरी के अपराध में फैक्टरी से निकाल दिया गया है.’

‘यह सच नहीं हो सकता. तुम्हारे पिता को फंसाया गया है.’

‘घनश्याम चाचा भी यही कह रहे थे. परंतु पिताजी घर क्यों नहीं आए?’ राशि ने कहा.

रात भर पूरा परिवार जागता रहा. दूसरे दिन बच्चों को स्कूल भेजने के बाद सरिता सदाशिव की फैक्टरी पहुंची तो उसे हर जगह अपमान का घूंट ही पीना पड़ा. वहां जा कर सिर्फ इतना पता चल सका कि भंडार से काफी सामान गायब पाया गया है. भंडार प्रभारी होने के नाते सदाशिव को दोषी करार दिया गया और उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.

सरिता घर आ कर सदाशिव का इंतजार करने लगी. दिन भर इंतजार के बाद उस ने शाम को पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी.

अगले दिन पुलिस तफतीश के लिए घर आई तो पूरे महल्ले में खबर फैल गई कि सदाशिव फैक्टरी से चोरी कर के भाग गया है और पुलिस उसे ढूंढ़ रही है. इस खबर के बाद तो पूरा परिवार आतेजाते लोगों के हास्य का पात्र बन कर रह गया.

सरिता ने सारे रिश्तेदारों को पत्र भेजा कि सदाशिव के बारे में कोई जानकारी हो तो तुरंत सूचित करें. अखबार में फोटो के साथ विज्ञापन भी निकलवा दिया.

इस मुसीबत ने राहुल और राशि को समय से पहले ही वयस्क बना दिया था. वह अब आपस में बिलकुल नहीं लड़ते थे. दोनों ने स्कूल के प्राचार्य से अपनी परिस्थितियों के बारे में बात की तो उन्होंने उन की फीस माफ कर दी.

राशि ने शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. राहुल ने स्कूल जाने से पहले अखबार बांटने शुरू कर दिए. सरिता की तनख्वाह और बच्चों की इस छोटी सी कमाई से घर का खर्च किसी तरह से चलने लगा.

इनसान के मन में जब किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष को पाने की आकांक्षा बहुत बढ़ जाती है तब उस का मन कमजोर हो जाता है और इसी कमजोरी का लाभ दूसरे लोग उठा लेते हैं.

सरिता इसी कमजोरी में तांत्रिकों के चक्कर में पड़ गई थी. उन की बताई हुई पूजा के लिए कुछ गहने भी बेच डाले. अंत में एक दिन राशि ने मां को समझाया तब सरिता ने तांत्रिकों से मिलना बंद किया.

कुछ माह के बाद ही सरिता अचानक बीमार पड़ गई. अस्पताल जाने पर पता चला कि उसे टायफाइड हुआ है. बताया डाक्टरों ने कि इलाज लंबा चलेगा. यह राशि और राहुल की परीक्षा की घड़ी थी.

ट्यूशन पढ़ाने के साथसाथ राशि लिफाफा बनाने का काम भी करने लगी. उधर राहुल ने अखबार बांटने के अलावा बरात में सिर पर ट्यूबलाइट ले कर चलने वाले लड़कों के साथ भी मजदूरी की. सिनेमा की टिकटें भी ब्लैक में बेचीं. दोनों के कमाए ये सारे पैसे मां की दवाई के काम आए.

‘तुम्हें यह सब करते हुए गलत नहीं लगा?’ सरिता ने ठीक होने पर दोनों बच्चों से पूछा.

‘नहीं मां, बल्कि मुझे जिंदगी का एक नया नजरिया मिला,’ राहुल बोला, ‘मैं ने देखा कि मेरे जैसे कई लोग आंखों में भविष्य का सपना लिए परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे हैं.’

दोनों बच्चों को वार्षिक परीक्षा में स्कूल में प्रथम आने पर अगले साल से छात्रवृत्ति मिलने लगी थी. घर थोड़ा सुचारू रूप से चलने लगा था.

सरिता को विश्वास था कि एक दिन सदाशिव जरूर आएगा. हर शाम वह अपने पति के इंतजार में खिड़की के पास बैठ कर आनेजाने वालों को देखा करती और अंधेरा होने पर एक ठंडी सांस छोड़ कर खाना बनाना शुरू करती.

इस तरह साल दर साल गुजरते चले गए. राशि और राहुल अपनी मेहनत से अच्छी नौकरी पर लग गए. राशि मुंबई में नौकरी करने लगी है. उस की शादी को 3 साल गुजर गए. राहुल भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर झांसी में जिलाधीश बन गया. 1 साल पहले उस ने भी अपने दफ्तर की एक अधिकारी सीमा से शादी कर ली.

सरिता की तंद्रा भंग हुई. वह वर्तमान में वापस आ गई. उस ने देखा कि बाहर काफी अंधेरा हो गया है. हमेशा की तरह उस ने सदाशिव के लिए प्रार्थना की और घर के लिए रवाना हो गई.

‘‘मां, बहुत देर कर दी,’’ राहुल ने कहा.

सरिता ने राहुल और सीमा को देखा और उन का आशय समझ कर चुपचाप खाना खाने लगी.

‘‘बेटा, यहां से कुछ लोग जयपुर जा रहे हैं. एक पूरी बस कर ली है. सोचती हूं कि मैं भी उन के साथ हो आऊं.’’

‘‘मां, अब आप एक जिलाधीश की भी मां हो. क्या आप का उन के साथ इस तरह जाना ठीक रहेगा?’’ सीमा ने कहा.

सरिता ने सीमा से बहस करने के बजाय, प्रश्न भरी नजरों से राहुल की ओर देखा.

‘‘मां, सीमा ठीक कहती है. अगले माह हम सब कार से अजमेर और फिर जयपुर जाएंगे. रास्ते में मथुरा पड़ता है, वहां भी घूम लेंगे.’’

अगले महीने वे लोग भ्रमण के लिए निकल पड़े. राहुल की कार ने मथुरा में प्रवेश किया. मथुरा के जिलाधीश ने उन के ठहरने का पूरा इंतजाम कर के रखा था. खाना खाने के बाद सब लोग दिल्ली के लिए रवाना हो गए. थोड़ी दूर चलने पर कार को रोकना पड़ा क्योंकि सामने से एक जुलूस आ रहा था.

‘‘इस देश में लोगों के पास बहुत समय है. किसी भी छोटी सी बात पर आंदोलन शुरू हो जाता है या फिर जुलूस निकल जाता है,’’ सीमा ने कहा.

राहुल हंस दिया.

सरिता खिड़की के बाहर आतेजाते लोगों को देखने लगी. उस की नजर सड़क के किनारे चाय पीते हुए एक आदमी पर पड़ गई. उसे लगा जैसे उस की सांस रुक गई हो.

वही तो है. सरिता ने अपने मन से खुद ही सवाल किया. वही टेढ़ी गरदन कर के चाय पीना…वही जोर से चुस्की लेना…सरिता ने कई बार सदाशिव को इस बात पर डांटा भी था कि सभ्य इनसानों की तरह चाय पिया करो.

चाय पीतेपीते उस व्यक्ति की निगाह भी कार की खिड़की पर पड़ी. शायद उसे एहसास हुआ कि कार में बैठी महिला उसे घूर रही है. सरिता को देख कर उस के हाथ से प्याली छूट गई. वह उठा और भीड़ में गायब हो गया.

उसी समय जुलूस आगे बढ़ गया और कार पूरी रफ्तार से दिल्ली की ओर दौड़ पड़ी. सरिता अचानक सदाशिव की इस हरकत से हतप्रभ सी रह गई और कुछ बोल भी नहीं पाई.

दिल्ली में वे लोग राहुल के एक मित्र के घर पर रुके.

रात को सरिता ने राहुल से कहा, ‘‘बेटा, मैं जयपुर नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों, मां?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या मेरा जयपुर जाना बहुत जरूरी है?’’

‘‘हम आप के लिए ही आए हैं. आप की इच्छा जयपुर जाने की थी. अब क्या हुआ? आप क्या झांसी वापस जाना चाहती हैं.’’

‘‘झांसी नहीं, मैं मथुरा जाना चाहती हूं.’’

‘‘मथुरा क्यों?’’

‘‘मुझे लगता है कि जुलूस वाले स्थान पर मैं ने तेरे पिताजी को देखा है.’’

‘‘क्या कर रहे थे वह वहां पर?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने उन्हें सड़क के किनारे बैठे देखा था. मुझे देख कर वह भीड़ में गायब हो गए,’’ सरिता ने कहा.

‘‘मां, यह आप की आंखों का धोखा है. यदि यह सच भी है तो भी मुझे उन से नफरत है. उन के कारण ही मेरा बचपन बरबाद हो गया.’’

‘‘मैं जयपुर नहीं मथुरा जाना चाहती हूं. मैं तुम्हारे पिताजी से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, मैं आप के मन को दुखाना नहीं चाहता पर आप उस आदमी को मेरा पिता मत कहो. रही मथुरा जाने की बात तो हम जयपुर का मन बना कर निकले हैं. लौटते समय आप मथुरा रुक जाना.’’

सरिता कुछ नहीं बोली.

सदाशिव अपनी कोठरी में लेटे हुए पुराने दिनों को याद कर रहा था.

3 दिन पहले कार में सरिता थी या कोई और? यह प्रश्न उस के मन में बारबार आता था. और दूसरे लोग कौन थे?

आखिर उस की क्या गलती थी जो उसे अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ कर एक गुमनाम जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा. बस, इतना ही न कि वह इस सच को साबित नहीं कर सका कि चोरी उस ने नहीं की थी. वह मन से एक कमजोर इनसान है, तभी तो बीवी व बच्चों को उन के हाल पर छोड़ कर भाग खड़ा हुआ था. अब क्या रखा है इस जिंदगी में?

‘खटखट…’ किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

सदाशिव ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने सरिता खड़ी थी. कुछ देर दोनों एक दूसरे को चुपचाप देखते रहे.

‘‘अंदर आने को नहीं कहोगे? बड़ी मुश्किलों से ढूंढ़ते हुए यहां तक पहुंच सकी हूं,’’ सरिता ने कहा.

‘‘आओ,’’ सरिता को अंदर कर के सदाशिव ने दरवाजा बंद कर दिया.

सरिता ने देखा कि कोठरी में एक चारपाई पर बिस्तर बिछा है. चादर फट चुकी है और गंदी है. एक रस्सी पर तौलिया, पाजामा और कमीज टंगी है. एक कोने में पानी का घड़ा और बालटी है. दूसरे कोने में एक स्टोव और कुछ खाने के बरतन रखे हैं.

सरिता चारपाई पर बैठ गई.

‘‘कैसे हो?’’ धीरे से पूछा.

‘‘कैसा लगता हूं तुम्हें?’’ उदास स्वर में सदाशिव ने कहा.

सरिता कुछ न बोली.

‘‘क्या करते हो?’’ थोड़ी देर के बाद सरिता ने पूछा.

‘‘इस शरीर को जिंदा रखने के लिए दो रोटियां चाहिए. वह कुछ भी करने से मिल जाती हैं. वैसे नुक्कड़ पर एक चाय की दुकान है. मुझे तो कुछ नहीं चाहिए. हां, 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल आता है.’’

‘‘बच्चे?’’ सरिता के स्वर में आश्चर्य था.

‘‘हां, अनाथ बच्चे हैं,’’ उन की पढ़ाई की जिम्मेदारी मैं ने ले रखी है. सोचता हूं कि अपने बच्चों की पढ़ाई में कोई योगदान नहीं कर पाया तो इन अनाथ बच्चों की मदद कर दूं.’’

‘‘घर से निकल कर सीधे…’’ सरिता पूछतेपूछते रुक गई.

‘‘नहीं, मैं कई जगह घूमा. कई बार घर आने का फैसला भी किया पर जो दाग मैं दे कर आया था उस की याद ने हर बार कदम रोक लिए. रोज तुम्हें और बच्चों को याद करता रहा. शायद इस से ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता था. पिछले 5 सालों से मथुरा में हूं.’’

‘‘अब तो घर चल सकते हो. राशि अब मुंबई में है. नौकरी करती है. वहीं शादी कर ली है. राहुल झांसी में जिलाधीश है. मुझे सिर्फ तुम्हारी कमी है. क्या तुम मेरे साथ चल कर मेरी जिंदगी की कमी पूरी करोगे?’’ कहतेकहते सरिता की आंखों में आंसू आ गए.

सदाशिव ने सरिता को उठा कर गले से लगा लिया और बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है. यदि तुम्हारे साथ जा कर मेरे रहने से तुम खुश रह सकती हो तो मैं तैयार हूं. पर क्या इतने दिनों बाद राहुल मुझे पिता के रूप में स्वीकार करेगा? मेरे जाने से उस के सुखी जीवन में कलह तो पैदा नहीं होगी? क्या मैं अपना स्वाभिमान बचा सकूंगा?’’

‘‘तुम क्या चाहते हो कि मैं तुम से दूर रहूं,’’ सरिता ने रो कर कहा और सदाशिव के सीने में सिर छिपा लिया.

‘‘नहीं, मैं चाहता हूं कि तुम झांसी जाओ और वहां ठंडे दिल से सोच कर फैसला करो. तुम्हारा निर्णय मुझे स्वीकार्य होगा. मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करूंगा.’’

सरिता उसी दिन झांसी वापस आ गई. शाम को जब राहुल और सीमा साथ बैठे थे तो उन्हें सारी बात बताते हुए बोली, ‘‘मैं अब अपने पति के साथ रहना चाहती हूं. तुम लोग क्या चाहते हो?’’

‘‘एक चाय वाला और जिलाधीश साहब का पिता? लोग क्या कहेंगे?’’ सीमा के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘बहू, किसी आदमी को उस की दौलत या ओहदे से मत नापो. यह सब आनीजानी है.’’

‘‘मां, वह कमजोर आदमी मेरा…’’

‘‘बस, बहुत हो गया, राहुल,’’ सरिता बेटे की बात बीच में ही काटते हुए उत्तेजित स्वर में बोली.

राहुल चुप हो गया.

‘‘मैं अपने पति के बारे में कुछ भी गलत सुनना नहीं चाहती. क्या तुम लोगों से अलग हो कर वह सुख से रहे? उन के प्यार और त्याग को तुम कभी नहीं समझ सकोगे.’’

‘‘मां, हम आप की खुशी के लिए उन्हें स्वीकार सकते हैं. आप जा कर उन्हें ले आइए,’’ राहुल ने कहा.

‘‘नहीं, बेटा, मैं अपने पति की अनुगामिनी हूं. मैं ऐसी जगह न तो खुद रहूंगी और न अपने पति को रहने दूंगी जहां उन को अपना स्वाभिमान खोना पड़े.’’

सरिता रात को सोतेसोते उठ गई. पैर के पास गीलागीला क्या है? देखा तो सीमा उस का पैर पकड़ कर रो रही थी.

‘‘मां, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप का कई बार दिल दुखाया है. आज आप ने मेरी आंखें खोल दीं. मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं भी आप के समान अपने पति के स्वाभिमान की रक्षा कर सकूं.’’

सरिता ने भीगी आंखों से सीमा का माथा चूमा और उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा.’’

भोर की पहली किरण फूट पड़ी. जिलाधीश के बंगले में सन्नाटा था. सरिता एक झोले में दो जोड़े कपड़े ले कर रिकशे पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल दी. उसे मथुरा के लिए पहली ट्रेन पकड़नी थी.

अब पछताए होत क्या : दामोदर के घड़ियाली आंसू

आज मंत्री पद गंवा कर दामोदर दुखी भाव से घर लौटे थे. टैलीविजन चालू करते ही वे चौंक गए. हर जगह उन्हीं की महिमा का गुणगान हो रहा था. दामोदर के ऊपर कामिनी समेत 20 औरतों ने छेड़छाड़ करने का केस दायर किया था. प्रधानमंत्री ने सख्ती दिखाते हुए उन्हें मंत्री पद से हटा दिया. चूंकि वे वरिष्ठ मंत्री रहे हैं इसलिए उन से इस्तीफा लिया गया और अदालत के फैसले के आधार पर उन के ऊपर कार्यवाही होगी.

इस सब में प्रधानमंत्री का बयान आग में घी का काम कर रहा था, ‘मैं ने प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारियों का पालन करते हुए दामोदर से इस्तीफा ले कर मंत्रिपरिषद से बाहर कर दिया है. अदालत बिना किसी दबाव के इस मसले पर फैसला लेगी.’

‘‘बड़ा ईमानदार बनता है. सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली,’’ दामोदर गुस्से में बड़बड़ा रहे थे. वे राजनीति में 50 साल यों ही नहीं गुजार चुके थे. उस में भी वे 30 साल से ज्यादा पत्रकारिता जगत में गुजार चुके थे. कामिनी को वे ही पत्रकारिता में लाए थे.

शाम को अपनी सफाई में दी गई प्रैस कौंफ्रैंस में दामोदर वहां आए पत्रकारों पर फट पड़े, ‘‘मैं खुद पत्रकार के रूप में सालों से आप के साथ रहा हूं और काम कर रहा हूं. इन आरोपों में कोई दम नहीं है, पर पत्रकार के रूप में आप सब जांच में सहयोग दें और सच को छापें.

‘‘मैं ने भी मंत्री पद से इसलिए इस्तीफा दिया क्योंकि न्यायपालिका में मेरा पूरा विश्वास है कि वह सही जांच करेगी. दूसरी बात यह है कि जिस दिन की बात कामिनी बता रही हैं, उस दौरान मैं प्रधानमंत्री के श्रीलंका दौरे को कवर करने वहां गया था और एक वक्त में मैं 2 जगह नहीं रह सकता.’’

‘‘फिर कामिनी ने आप पर आरोप क्यों लगाया?’’ एक पत्रकार का यह सवाल था. ‘‘आरोप तो कोई भी किसी पर लगा सकता है, मेरे इतने साल के पत्रकारिता और राजनीति के कैरियर में जब कोई गलती नहीं दिखाई दी तो मेरा सीधा चरित्र हनन कर डाला,’’ दामोदर मानो सफाई देते हुए बोले.

मीटिंग खत्म कर के वे कमरे में लौटे तो उन का कामिनी की पुरानी बातों और यादों पर ध्यान चला गया. ‘कामिनी, आप क्या लिखती हैं?’ दामोदर उस की रचनाओं और बायोडाटा को देखते हुए बोले थे. ‘कुछ नहीं बस आज से जुड़े विषयों पर छिटपुट रचनाएं लिखी हैं.’ ‘अभी तुरंत कुछ लिख कर दीजिए,’ दामोदर 4 पेज देते हुए बोले थे.

कामिनी ने थोड़ी ही देर में एक ज्वलंत विषय पर रचना लिख कर दे दी थी. इस के बाद इतिहास से एमए पास कामिनी अकसर लिखती और उस की रचना छपने लगी थी. उस दिन भी कवरेज के लिए जब दामोदर कानपुर गए थे, तो कामिनी उन के साथ थी.

बारिश हो रही थी. रात के 11 बजे जब वे कमरे में पहुंचे तो दोनों भीग चुके थे. इस के बाद दामोदर ने कामिनी के साथ होटल में छक कर मजे लूटे थे. कामिनी ने भी भरपूर सहयोग दिया था. आग में घी तब पड़ा था, जब दामोदर कामिनी के बजाय राधा से शादी कर बैठे थे.

‘इतने दिनों तक मेरा इस्तेमाल किया, फिर…’ कामिनी बिफरते हुए बोली थी. ‘फिर क्या, हम दोनों ने एकदूसरे का इस्तेमाल किया है. तुम ने मेरे नाम का और मैं ने तुम्हारा. यह दुनिया ऐसे ही कारोबार पर चलती है,’ दामोदर सपाट लहजे में बोले थे.

‘मैं आप को बदनाम कर दूंगी. आखिर उस राधा ने क्या दिया है आप को?’ कामिनी गुस्सा में बड़बड़ा रही थी. ‘तुम खुद टूट जाओगी. दूसरी बात यह कि मैं ने मंत्री की बेटी से शादी की है, तो अब सब अपनेआप मिल जाएगा,’ दामोदर सफाई देते हुए बोले थे. फिर धीरेधीरे दोनों दूर हो गए थे.

दामोदर ने सालों से कामिनी का चेहरा नहीं देखा था. इतने सालों के बाद वह न जाने कहां से टपक पड़ी थी. अगर कामिनी ने अदालत में सुबूत पेश कर दिया तो उन्हें जेल होगी और हर्जाना भी देना पड़ेगा. सांसद की कुरसी भी छिन जाएगी. ‘क्या करूं…’ दामोदर सोच रहे थे कि उन्हें जग्गा याद आ गया.

वे जग्गा के पास खुद पहुंचे थे.

‘‘आप जाइए, मैं इस का इलाज कर देता हूं. आप बस 20 औरतों के लिए 25 लाख रुपए का इंतजाम कर दें,’’ वह शराब पीता हुआ बोला.

‘‘पैसा कल तक पहुंच जाएगा. तुम काम शुरू कर दो,’’ दामोदर हामी भरते हुए बोले.

अगले दिन दोपहर के 12 बजे प्रैस कौंफ्रैंस कर उन सभी 20 औरतों ने नाम समेत माफी मांगी और आरोप वापस ले लिया. अब तो दामोदर मंत्री पद पर दोबारा आ गए.

इस मसले पर जब उन से पूछा गया तो वे झट बोल उठे, ‘‘वे सब मेरी बहन जैसी हैं. मैं तो उन से कभी मिला नहीं, उन्हें जानता तक नहीं. बस राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल की गई मुहरें थीं. मुझे साजिश करने वाला चाहिए मुहरें नहीं.’’

‘‘मगर, वे सब औरतें कहां गईं?’’ एक पत्रकार ने पूछा.

‘‘यह सवाल आप उन से पूछिए जिन्होंने मुझ पर ऐसा घिनौना आरोप लगवाया है. वह तो भला हो उन बहनों का, जिन का जमीर जाग गया और आज मैं आप के सामने हूं. मेरे सामने खुदकुशी के सिवा कोई रास्ता नहीं था,’’

घडि़याली आंसू बहाते दामोदर के इस जवाब ने सब को चुप कर दिया था. दामोदर दोबारा सही हो गए, तो झट रात में जग्गा को फोन लगाया. ‘आप चिंता मत करो, सारा काम ठीक से हो गया है,’ जग्गा ने कहा.

‘‘फिर भी कहीं कुछ…’’ दामोदर थोड़े शंकित थे. ‘कोई अगरमगर नहीं… जग्गा पूरे पैसे ले कर आधा काम नहीं करता है.’ अब दामोदर ने चैन की सांस ली. अब वे कभी ऐसा कुछ नहीं करेंगे, ऐसा सोच कर वे हल्का महसूस करने लगे और धीरेधीरे नींद के आगोश में चले गए.

प्यार की पहली किस्त

‘‘नहीं मम्मी, मेरे पास पैसे हैं.’’

‘‘तो फिर इस बार भी इम्तिहान में खराब नंबर आए होंगे और अगली क्लास में जाने में दिक्कत आ रही होगी…’’ बेगम रहमान की निगाहें अब भी टीवी सीरियल पर लगी थीं.

‘‘नहीं मम्मी, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप ध्यान दें, तो मैं कुछ बताऊं भी.’’

बेगम रहमान ने टीवी बंद किया और बेटी की तरफ घूम गईं, ‘‘हां, अब बताए मेरी बेटी कि ऐसी कौन सी मुसीबत आ पड़ी है, जो मम्मी की याद आ गई.’’

‘‘मम्मी, दरअसल…’’ सायरा की जबान लड़खड़ा रही थी और फिर उस ने जल्दी से अपनी बात पूरी की, ‘‘मैं पेट से हूं.’’

यह सुन कर बेगम रहमान का हंसता हुआ चेहरा गुस्से से लाल हो गया, ‘‘तुम से कितनी बार कहा है कि एहतियात बरता करो, लेकिन तुम निरी बेवकूफ की बेवकूफ रही.’’

बेगम रहमान को इस बात का सदमा कतई नहीं था कि उन की कुंआरी बेटी पेट से हो गई है. उन्हें तो इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि उस ने एहतियात क्यों नहीं बरती.

‘‘मम्मी, मैं हर बार बहुत एहतियात बरतती थी, पर इस बार पहाड़ पर पिकनिक मनाने गए थे, वहीं चूक हो गई.’’

‘‘कितने दिन का है?’’ बेगम रहमान ने पूछा.

‘‘चौथा महीना है,’’ सायरा ने सिर झुका कर कहा.

‘‘और तुम अभी तक सो रही थी,’’ बेगम रहमान को फिर गुस्सा आ गया.

‘‘दरअसल, कैसर नवाब ने कहा था कि हम लोग शादी कर लेंगे और इस बच्चे को पालेंगे, लेकिन मम्मी, वह गजाला है न… वह बड़ी बदचलन है. कैसर नवाब पर हमेशा डोरे डालती थी. अब वे उस के चक्कर में पड़ गए और हम से दूर हो गए.’’

रहमान साहब शहर के एक नामीगिरामी अरबपति थे. कपड़े की कई मिलें थीं, सियासत में भी खासी रुचि रखते थे. सुबह से शाम तक बिजनेस मीटिंग या सियासी जलसों में मसरूफ रहते थे.

बेगम रहमान भी अपनी किटी पार्टी और लेडीज क्लब में मशगूल रहती थीं. एकलौती बेटी सायरा के पास मां की ममता और बाप के प्यार के अलावा दुनिया की हर चीज मौजूद थी, यारदोस्त, डांसपार्टी वगैरह यही सब उस की पसंद थी.

हाई सोसायटी में किरदार के अलावा हर चीज पर ध्यान दिया जाता है. सायरा ने भी दौलत की तरह अपने हुस्न और जवानी को दिल खोल कर लुटाया था, लेकिन उस में अभी इतनी गैरत बाकी थी कि वह बिनब्याही मां बन कर किसी बच्चे को पालने की हिम्मत नहीं कर सकती थी.

‘‘तुम ने मुसीबत में फंसा दिया बेटी. अब सिवा इस बात के कोई चारा नहीं है कि तुम्हारा निकाह जल्द से जल्द किसी और से कर दिया जाए. अपने बराबर वाला तो कोई कबूल करेगा नहीं. अब कोई शरीफजादा ही तलाश करना पड़ेगा,’’ कहते हुए बेगम रहमान फिक्रमंद हो गईं.

एक महीने के अंदर ही बेगम रहमान ने रहमान साहब के भतीजे सुलतान मियां से सायरा का निकाह कर दिया.

सुलतान कोआपरेटिव बैंक में मैनेजर था. नौजवान खूबसूरत सुलतान के घर जब बेगम रहमान सायरा के रिश्ते की बात करने गईं, तो सुलतान की मां आब्दा बीबी को बड़ी हैरत हुई थी.

बेगम रहमान 5 साल पहले सुलतान के अब्बा की मौत पर आई थीं. उस के बाद वे अब आईं, तो आब्दा बीबी सोचने लगीं कि आज तो सब खैरियत है, फिर ये कैसे आ गईं.

जब बेगम रहमान ने बगैर कोई भूमिका बनाए सायरा के रिश्ते के लिए सुलतान का हाथ मांगा तो उन्हें अपने कानों पर यकीन नहीं आया था.

कहां सायरा एक अरबपति की बेटी और कहां सुलतान एक मामूली बैंक मैनेजर, जिस के बैंक का सालाना टर्नओवर भी रहमान साहब की 2 मिलों के बराबर नहीं था.

सुलतान की मां ने बड़ी मुश्किल से कहा था, ‘‘भाभी, मैं जरा सुलतान से बात कर लूं.’’

‘‘आब्दा बीबी, इस में सुलतान से बात करने की क्या जरूरत है. आखिर वह रहमान साहब का सगा भतीजा है. क्या उस पर उन का इतना भी हक नहीं है कि सायरा के लिए उसे मांग सकें?’’ बेगम रहमान ने दोटूक शब्दों में खुद ही रिश्ता दिया और खुद ही मंजूर कर लिया था.

चंद दिनों के बाद एक आलीशान होटल में सायरा का निकाह सुलतान मियां से हो गया. रहमान साहब ने उन के हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड के एक बेहतरीन होटल में इंतजाम करा दिया था. सायरा को जिंदगी का यह नया ढर्रा भी बहुत पसंद आया.

हनीमून से लौट कर कुछ दिन रहमान साहब की कोठी में गुजारने के बाद जब सुलतान ने दुलहन को अपने घर ले जाने की बात कही तो सायरा के साथ बेगम रहमान के माथे पर भी बल पड़ गए.

‘‘तुम कहां रखोगे मेरी बेटी सायरा को?’’ बेगम रहमान ने बड़े मजाकिया अंदाज में पूछा.

‘‘वहीं जहां मैं और मेरी अम्मी रहती हैं,’’ सुलतान ने बड़ी सादगी से जवाब दिया.

‘‘बेटे, तुम्हारे घर से बड़ा तो सायरा का बाथरूम है. वह उस घर में कैसे रह सकेगी,’’ बेगम रहमान ने फिर एक दलील दी.

सुलतान को अब यह एहसास होने लगा था कि यह सारी कहानी घरजंवाई बनाने की है.

‘‘यह सबकुछ तो आप को पहले सोचना चाहिए था,’’ सुलतान ने कहा.

इस से पहले कि सायरा कोई जवाब देती, बेगम रहमान को याद आ गया कि यह निकाह तो एक भूल को छिपाने के लिए हुआ है. मियांबीवी में अभी से अगर तकरार शुरू हो गई, तो पेट में पलने वाले बच्चे का क्या होगा.

उन्होंने अपने मूड को खुशगवार बनाते हुए कहा, ‘‘अच्छा बेटा, ले जाओ. लेकिन सायरा को जल्दीजल्दी ले आया करना. तुम को तो पता है कि सायरा के बगैर हम लोग एक पल भी नहीं रह सकते.’’

सुलतान और उस की मां की खुशहाल जिंदगी में आग लगाने के लिए सायरा सुलतान के घर आ गई.

2 दिनों में ही हालात इतने खराब हो गए कि सायरा अपने घर वापस आ गई. मियांबीवी की तनातनी नफरत में बदल गई और बात तलाक तक पहुंच गई, लेकिन मसला था मेहर की रकम का, जो सुलतान मियां अदा नहीं कर सकते थे.

10 लाख रुपए मेहर बांधा गया था. आखिर अरबपति की बेटी थी. उस के जिस्म को कानूनी तौर पर छूने की कीमत 10 लाख रुपए से कम क्या होती.

एक दिन मियांबीवी की इस लड़ाई को एक बेरहम ट्रक ने हमेशा के लिए खत्म कर दिया. हुआ यों कि सुलतान मियां शाम को बैंक से अपने स्कूटर से वापस आ रहे थे, न जाने किस सोच में थे कि सामने से आते हुए ट्रक की चपेट में आ गए और बेजान लाश में तबदील हो गए.

सायरा बेगम अपने पुराने दोस्तों के साथ एक बड़े होटल में गपें लगाने में मशगूल थीं, तभी बीमा कंपनी के एक एजेंट ने उन्हें एक लिफाफे के साथ

10 लाख रुपए का चैक देते हुए कहा, ‘‘मैडम, ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पहली किस्त जमा करने के बाद ही हादसे का शिकार हो जाए.

‘‘सुलतान साहब ने अपनी तनख्वाह में से 10 लाख रुपए की पौलिसी की पहली किस्त भरी थी और आप को नौमिनी करते समय यह लिफाफा भी दिया था. शायद वह यही सोचते हुए जा रहे थे कि महीने के बाकी दिन कैसे गुजरेंगे और ट्रक से टकरा गए.’’

सायरा ने पूरी बात सुनने के बाद एजेंट का शुक्रिया अदा किया और होटल से बाहर आ कर अपनी कार में बैठ कर लिफाफा खोला. यह सुलतान का पहला और आखिरी खत था. लिखा था :

तुम ने मुझे तोहफे में 4 महीने का बच्चा दिया था, मैं तुम्हें मेहर के 10 लाख रुपए दे रहा हूं.

तुम्हारी मजबूरी सुलतान.

सायरा ने खत को लिफाफे में रखा और ससुराल की तरफ गाड़ी को घुमा लिया.

वह होटल आई थी अरबपति रहमान की बेटी बन कर, अब वापस जा रही थी एक खुद्दार बैंक मैनेजर की बेवा बन कर.

यही दस्तूर है : गरिमा के हरे जख्म

कालिज से लौट कर गरिमा ने जैसे ही अपने फ्लैट का दरवाजा खोला सामने के फ्लैट से रोहित निकल कर आ गए.

‘‘आप का पत्र कोरियर से आया है,’’ एक लिफाफा उस की तरफ बढ़ाते हुए रोहित ने कहा.

‘‘ओह…आइए न,’’ पत्र थाम कर गरिमा अंदर आ गई. रोहित भी अंदर आ गए.

‘‘पत्र विदेशी है. बेटे का ही होगा?’’ रोहित की बात पर गरिमा ने पलट कर उन्हें देखा. मानो कोई चुभती हुई बात उन के मुंह से निकल गई हो.

फिर वह खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आप बैठिए, मैं कौफी बनाती हूं.’’

‘‘पर खत तो पढ़ लीजिए.’’

‘‘कोई जल्दी नहीं है, पहले कौफी बना लूं.’’

रोहित को आश्चर्य नहीं हुआ यह देख कर कि बेटे का पत्र पढ़ने की उसे कोई जल्दी नहीं है. इतने दिन से गरिमा को देख रहे हैं. इतना तो जानते हैं कि यह विदेशी पत्र उसे विचलित कर गया है. कुछ तो है मांबेटे के बीच पर वह कभी पूछने का साहस नहीं कर पाए हैं.

गरिमा के बारे में सिर्र्फ इतना जानते हैं कि 30 वर्ष पूर्व गरिमा के पति नहीं रहे थे. तब वह मात्र 20 वर्ष की थी. समीर गोद में आ गया था. अपना पूरा यौवन उस ने बेटे को बड़ा करने में लगा दिया था. मांबाप ने एकाध जगह बात पक्की की पर बेटे के साथ उसे अपनाने वाला कोई उचित वर न मिला. भैयाभाभी उस से विशेष मतलब नहीं रखते. मां को अस्थमा का अकसर दौरा पड़ता था, इस के बावजूद वह समीर को अपने पास रखने को तैयार थीं. पर गरिमा ने खुद को बच्चे से अलग नहीं किया. मांपिताजी के पास रह कर उस ने बी.एड. किया और एक स्कूल में पढ़ाने लगी. 5 वर्ष पूर्व इस फ्लैट में आई है. बेटे को कभी आते नहीं देखा. बस, इतना पता है कि वह विदेश में है.

‘‘कौफी…’’ गरिमा की आवाज पर रोहित की तंद्रा टूटी. प्याला हाथ में ले कर गरिमा भी वहीं बैठ गई.

‘‘गरिमा, मैं ने आप से एक प्रश्न किया था, आप ने जवाब नहीं दिया?’’

अचानक पूछे गए इस प्रश्न पर गरिमा चौंक पड़ी. हां, रोहित ने 2 दिन पूर्व उन के सामने एक बात रखी थी. अपनी बोझिल पलकों को उठा कर उस ने रोहित की तरफ देखा. यह आदमी उन्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता है.

बचे हुए जीवन के दिनों को हंसीखुशी से जी लेने का उस का भी दिल करता है. बेटे के कृत्य के लिए वह खुद को दोषी क्यों ठहराए. मगर इन 5-6 वर्षों में वह समीर के कुसूर को भूल नहीं पाई  है, उसे माफ नहीं कर पाई है.

रोहित के जाने के बाद उस ने समीर का पत्र खोला, लिखा था, ‘‘जानता हूं अभी तक नाराज हो. कुछ तो है जो अभिशाप बन कर हमारे बीच पसर गया है. शिखा 2 बार मां बनतेबनते रह गई. मां, जानता हूं तुम्हारा दिल दुखाया है, उसी की सजा मिल रही है. क्या मुझे क्षमा नहीं करोगी?’’

समीर के पत्र ने उस के जख्मों को फिर हरा कर दिया. शैल्फ पर रखी तसवीर पर उस की नजर अटक गई. लाख चाह कर भी वह इस तसवीर को हटा नहीं पाई है. आखिर है तो मां ही. तसवीर में समीर मां की गरदन में बांहें डाले था. उसे देखते हुए वह अतीत में खो गई.

पति के समय का ही एक माली था नंदू. माली कम सेवक ज्यादा. पति की बस दुर्घटना में मृत्यु हो गई  थी. नंदू ने काम छोड़ने से मना कर दिया था, ‘बचपन से खिलाया है रवि भैया को, उन के न रहने पर तो मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. मैं यहीं रहूंगा.’

रवि की मृत्यु के बाद आफिस का फ्लैट भी चला गया था. वह मां के पास रह कर बी.एड. करने लगी तो नंदू ने ही समीर को संभाला. फिर नौकरी लगने पर वह नंदू और समीर को ले कर दूसरे शहर आ गई.

समीर बड़ा हो गया और नंदू बूढ़ा. एक दिन वह गांव गया तो कई दिनों तक नहीं लौटा. उस की पत्नी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. गांव से लौटा तो 17-18 वर्ष की एक सांवलीसलोनी सी पोती भी उस के साथ थी, ‘बहूजी, इस के 4 भाईबहन हैं. गांव में कुछ सीख नहीं पाती. पढ़ना चाहती है, सो अपने साथ ले आया हूं. आप की छत्रछाया में कुछ गुण ढंग सीख लेगी.’

ज्योति नाम था उस का. 8वीं तक पढ़ी थी. 9वीं में एक स्कूल में नाम लिखवा दिया उस का. फिर तो हिरनी सी कुलांचें भरती कटोरी जैसी आंखों वाली वह छरहरी काया पूरे घर पर शासन कर बैठी. घर का सारा काम उस ने अपने ऊपर ले लिया. समीर इंजीनियरिंग कर रहा था. उस के पास जाने में वह थोड़ी झेंपती थी. लेकिन यह संकोच भी टूट गया जब उसे पढ़ाई में विज्ञान एवं गणित कठिन लगने लगे तब गरिमा ने ही समीर से कहा कि वह ज्योति की मदद कर दिया करे.

समीर की महत्त्वाकांक्षा काफी ऊंची थी. उस की इच्छा विदेश जा कर पढ़ने की थी. जहां भी कुछ अवसर मिलता वह फौरन आवेदन कर देता. पासपोर्र्ट उस ने बनवा रखा था. मां अकेली कैसे रहेगी, पूछने पर कहता, ‘मैं तुम्हें भी जल्दी ही बुला लूंगा. यहां इंडिया में अपना है ही कौन.’

पर गरिमा ने निश्चय कर लिया था कि वह अपना देश नहीं छोड़ेगी. उसे लगता कि ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा जब बच्चे पढ़ते इंडिया में हैं और बसने विदेश चले जाते हैं. पर बेटे की महत्त्वाकांक्षा के सामने वह मौन हो जाती.

ज्योति ने समीर से पढ़ना शुरू किया तो दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए. गरिमा इसे दोनों की नोकझोंक समझती रही. समीर ज्योति की बड़ीबड़ी आंखों में खो गया. प्रेम की यह पींग काफी ऊंची उड़ान ले बैठी. इतनी ऊंची कि झूला टूट कर गिर गया.

उस दिन वाशिंगटन से समीर के नाम एक पत्र आया था कि वह फैलोशिप के लिए चुन लिया गया है. इधर घर में एक जबरदस्त विस्फोट हुआ जब नंदू उस के सामने बिलख उठा, ‘बहूजी, मैं तो बरबाद हो गया. ज्योति ने तो मुझे मुंह दिखाने लायक नहीं रखा. मैं क्या करूं. कहां ले कर जाऊं इस कलंक को.’

ज्योति के मुंह से समीर का नाम सुनते ही वह सुलग उठी. उसे यह बात सच लगी कि हर व्यक्ति के अंदर एक जानवर होता है जो मौका पड़ते ही जाग जाता है. समीर के अंदर का जानवर भी जाग उठा था. समीर ने मां के विश्वास के सीने में छुरा घोंपा था.

दोषी तो ज्योति भी थी. उस ने समीर को इतने पास आने ही क्यों दिया कि अपनी अस्मत ही गंवा बैठी. गरिमा का जी चाहा कि वह जोरजोर से चीखे, रोए. पर कैसी लाचार हो गई थी वह. कहीं कोई सुन न ले, इस डर से मुंह से सिसकी भी न निकाली.

2 दिन तक गरिमा घर में पड़ी रही. क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उधर समीर जो घर से गया तो 2 दिन तक लौटा ही नहीं. तीसरे दिन जरा सी आंख लगी ही थी कि आहट पर खुल गई. दरवाजा खुला छोड़ कर कोई बाहर गया था. ‘कौन है…’ वह बड़बड़ाते हुए उठी. देखा तो कमरे से समीर के कपड़े, अटैची सब गायब थे. एक पत्र जरूर मिला. लिखा था, ‘टिकट के पैसे नहीं हैं. कुछ रुपए और आप का हार लिए जा रहा हूं. हो सके तो क्षमा कर दीजिएगा.’

अरे, बेशर्म, क्षमा हार की मांग रहा है, पर जो कुकर्म किया है उस की क्षमा उसे कैसे मिलेगी. ज्योति की तरफ देख कर वह बिलख उठी थी. चाह कर भी वह उस के साथ न्याय नहीं कर पा रही थी. कौन अपनाएगा इसे. सबकुछ तितरबितर हो गया. क्या सोचा था, क्या हो गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी भी सूख चली. बुद्घि, विवेक सबकुछ मानो किसी ने छीन लिया हो.

और एक दिन नंदू भी लड़की को ले कर कहीं चला गया. तब से अकेली है. पुराना मकान छोड़ कर नई कालोनी में यह फ्लैट ले लिया था, ताकि समीर को उस का पता न लग सके. पर जाने कहां से उस ने पता कर ही लिया है. पत्र भेजता है. पत्रों में उसे बुलाने का ही आग्रह होता है. शादी कर ली है….पर वह तो उसे आज तक क्षमा नहीं कर पाई है.

डोर बेल बजने पर वह अतीत से बाहर आई. बाई थी. उसे तो समय का ध्यान ही नहीं रहा कि रात के 8 बज चुके हैं. बाई ने उसे अंधेरे में बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, बहूजी. तबीयत तो ठीक है न. यह अंधेरा क्यों?’’

‘‘यों ही आंख लग गई थी.’’

‘‘खाना क्या बनाऊं, बहूजी.’’

‘‘मेरे लिए कुछ नहीं बनाना. तेरा जो खाने का दिल करे बना ले.’’

‘‘पर आप….’’

‘‘मैं कुछ नहीं लूंगी.’’

‘‘तो फिर कौफी, दूध…कुछ तो ले लीजिए.’’

‘‘ठीक है दूध दे जाना कमरे में,’’ कहती हुई गरिमा अपने कमरे में चली गई.

समीर का पत्र एक बार फिर पढ़ा उस ने. बहू की फोटो भेजी थी समीर ने. एक बार देख कर उस ने तसवीर को अलमारी में रख दिया. सोचती रही, क्या करे. रोहित भी जवाब मांग रहे हैं. मां- पिताजी अब रहे नहीं. अपना कहने वाला कोई नहीं है. मां की अस्थमा की बीमारी उसे भी हो गई है. ऐसे में रोहित ही उस की देखभाल करते हैं. जब वह यहां आई थी तब रोहित से कटती रहती थी पर आमने- सामने रहने से कभीकभार की मुलाकात से परिचय गहरा हो गया. यही परिचय अब अच्छी मित्रता में बदल चुका है.

रोहित का व्यक्तित्व बहुत मोहक है. कम बोलना, पर जो बोलना सोचसमझ कर. 2 बच्चे हैं, बेटा पत्नी के साथ बंगलौर में है. बेटी कनाडा में है. 2 साल पहले पति के साथ आई थी. उसे बहुत पसंद करती है. जाने से पहले उस का हाथ अपने हाथ में ले कर अपने पिता से बोली थी, ‘‘जाने के बाद अब यह सोच कर तसल्ली होगी कि अब आप अकेले नहीं हैं.’’

वह चौंकी थी कि रोहित पर उस का क्या अधिकार है. कहीं रोहित ने ही तो बेटी से कुछ नहीं कहा. उन के बेटे से भी वह मिल चुकी है. जब भी आता है, उस के पैर छूता है. रोहित के प्रस्ताव में, लगता है दोनों बच्चों की सहमति भी छिपी है. रोहित के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे, ‘गरिमाजी, मेरा और आप का रास्ता एक ही है तो क्यों न मंजिल तक साथ ही चलें. मुझ से शादी करेंगी?’

वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आज समीर के पत्र ने उसे झकझोर दिया था. उस ने कभी भी बेटे को कोसा नहीं है. आखिर क्यों कोसे? अब वह किसी का पति है. आखिर उस की पत्नी का क्या दोष? वह मां बनना चाहती है तो इस में वह क्या सहयोग कर सकती है सिवा इस के कि उसे अपनी शुभकामना दे. आखिर उस ने बहू शिखा को पत्र लिखने का निश्चय कर लिया.

दूसरे दिन उस ने शिखा को पत्र लिखा, ‘‘बेटी, हम दोनों एकदूसरे से अब तक नहीं मिले हैं, पर हमारे बीच आत्मीय दूरी नहीं है. तुम मेरी बहू हो और मैं तुम्हारी सास. तुम मां बनो और मैं दादी यह हृदय से कामना करती हूं. तुम्हारी मां.’’

पत्र मोड़ कर लिफाफे में रखते हुए गरिमा सोच रही थी कि उसे रोहित का प्रस्ताव अब मान लेना चाहिए. जीवन के बाकी दिन खुद के लिए भी तो जी लें.

मौडर्न मिलन : कलुवा की बेलिहाज पत्नी विद्योत्तमा

यह कुदरती और वाकई अनोखी बात थी कि रूढि़वादी और धार्मिक मांबाप ने अपनी जिस लाड़ली बेटी का नाम विद्योत्तमा रखा था, उस के मंगेतर का नाम एक पुरोहित ने नामकरण के दिन कलुवा रख दिया था. लेकिन विद्योत्तमा के रिश्ते की बात जब कलुवा से चली तो उस चालाक पुरोहित ने मंगनी के समय झट कलुवा का नाम बदल कर उसे कालिदास बना दिया. विद्योत्तमा और कालिदास का विवाह भी कर दिया गया.

सुहागरात में प्रथम भेंट पर कालिदास को अपनी दुलहन का घूंघट उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ी. कशिश से भरी, बड़ीबड़ी मोहक अंखियों और तीखे नयननक्श वाली, बेजोड़ खूबसूरती की मलिका विद्योत्तमा ने मुसकराते हुए अपने मांग टीके पर अटके नाममात्र के घूंघट को खुद ही उलट कर अपनी गरदन पर लपेट लिया. फिर उस के एक छोर को अपने दाएं हाथ की पहली उंगली में फंसाए शरारती अदा के साथ अपने लाल रसीले होंठों और चमकदार दंतुलियों से जैसे काट खाया. फिर कालिदास के सीने से अपनी पीठ को सटाते उस ने गरदन घुमा कर तिरछी नजरें अपने दूल्हे राजा के हैरतअंगेज चेहरे पर चुभाईं. तब बोली, ‘‘हाय, डियर क्यूट. आई लव यू सो वैरी मच.’’

कालिदास के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं. प्रथम मिलन का ऐसा बेलिहाज नजारा तो शायद उस के बाप के बाप तक ने कभी सपने में भी नहीं देखा होगा. तभी लगभग हकलाता हुआ सा कलुआ बोल पड़ा, ‘‘जरा संभल कर ठीक से बैठो, प्रिये. चलो, कुछ देर प्यारभरी मीठीमीठी बातें हो जाएं. यह हमारे मधुर मिलन की पहली इकलौती घड़ी है, प्राणप्यारी.’’

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‘‘मीठीमीठी बातें? ह्वाट नौनसेंस,’’ कहते हुए दुलहन बिदक कर दूर छिटक गई और बोली, ‘‘तुम्हें तो मुझ को देखते ही भूखे भेडि़ए की तरह झपटचिपट कर मेरे तनबदन को बेशुमार किसेज (चुंबनों) की झड़ी लगाते निहाल कर देना चाहिए था. अभी इतनी देर तक लबरलबर तो खूब करते रहे. क्या तुम मुझ को लव नहीं करते. डोंट यू लाइक मी? जो अभी भी मुझे अपनी बांहों में जकड़ने से हिचकते घबरा रहे हो.’’

बेचारा कालिदास सचमुच काफी घबरा गया था, लेकिन अब जल्दी ही वह अपने को हिम्मत के साथ संभालता हुआ बोला, ‘‘सुनो, मेरी प्यारी हंसिनी, मुझ को तो तुम अपने सामने एक बगले जैसा ही समझो क्योंकि मैं तो सिर्फ हाईस्कूल थर्ड डिविजन से पास हूं, जबकि तुम अंगरेजी साहित्य में फर्स्ट क्लास एम.ए. पास. मुझे ताज्जुब हो रहा है कि तुम ने मुझ जैसे चपरगट्टू भौंतर छोरे से शादी करने की बात भला कैसे मंजूर कर ली जबकि असल में मैं तुम्हारे काबिल और माफिक दूल्हा हूं ही नहीं. मैं…मैं…मैं तो…’’

दुलहन हंस पड़ी और बोली, ‘‘ओह, स्टौप आल दिस मैं मैं मिमियाना. अजी हुजूरेआला, तुम तो इन आल रिस्पेक्ट्स, हर हाल में मेरे ही काबिल हो. मैं आज भी उन ‘अधभरी गगरी’ जैसी छलकती छोकरियों में से नहीं हूं जो तितलियों की मानिंद इतराती अपने कालेज जाने में ही ऐसी अकड़ दिखाती हैं मानो वे पहले से ही डिगरीशुदा हों और अब सीधे कनवोकेशन में गाउन व हुड धारण करने की फौरमैलिटी निभाने जा रही हों. और जो आंखलड़ाऊ लव मैरिज के बाद अपने हसबैंड को लड़ाईझगड़े में सर्वेंट तक बोलने से नहीं चूकतीं.

‘‘डियर, मैं तो पहले से ही मान चुकी थी कि हम ‘मेड फौर ईच अदर’ यानी ‘इक दूजे के लिए ही बने’ हैं. तुम कम पढ़ेलिखे हो तो क्या, तुम नेक, खूबसूरत, तंदुरुस्त और उम्दा स्वभाव के नौजवान हो. फिर आजकल के योग्य लड़के तो भारीभरकम दहेज लिए बिना शादी को तैयार ही नहीं होते हैं जबकि तुम ने दहेज जैसे अशुभ नाम को अपनी जबान पर आने तक नहीं दिया. मैं तुम को उन दहेज के लालची लीचड़ों से सौगुना ज्यादा धनी मानती हूं.

‘‘तुम अपने हुनर में एक माहिर मोटर मेकैनिक हो और मुझ को पूरा यकीन है तुम बिगड़ती मोटरगाडि़यों की तरह अपने घरपरिवार रूपी गाड़ी की मेंटिनेंस में भी उस के ढीले पेचपुर्जों को सुधार कर उसे जिंदगी की खुशहाल राह पर कामयाबी के साथ दौड़ा सकते हो. तुम्हारे अंदर कोई बुरा व्यसन भी नहीं है, तो फिर यह नर्वसनेस क्यों? इनसान किताबें पढ़ कर और डिगरियां हासिल करने मात्र से विद्वान नहीं बन जाता. पढ़नेलिखने के साथ अगर इनसान उस से मिली नसीहतों को अपने जीवन में नहीं अपनाता तो वह किताबों के बोझ से लदे एक गधे जैसा ही होता है.’’

विद्योत्तमा के मुख से ऐसी बातें सुन कर कालिदास के मन में घिरे शकसंदेहों की सारी धुंध उड़नछू हो गई. वह बोला, ‘‘ओह डार्लिंग, मैं तो इस वजह से डरा हुआ था कि तुम्हारा नाम विद्योत्तमा और मेरा नाम भी कालिदास है तो कहीं तुम भी मुझे…’’

‘‘रिजेक्ट कर देती और लताड़ के साथ भगा देती. यही न?’’ खिलखिलाते हुए विद्योत्तमा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘माई डियर साजन, तुम यह क्यों भूल गए कि वह पुराने जमाने की अपने ज्ञान के घमंड में चूर विद्योत्तमा थी लेकिन मैं तो 21वीं सदी की मौडर्न नवयुवती हूं. यानी मैं वह विद्योत्तमा हूं जो अपने पति को पति होने के नाते अपना दास, मतलब जोरू का गुलाम बना कर भले ही रख दूं, पर गुजरे वक्त की वह विद्योत्तमा कतई नहीं हूं कि हनीमून में ही अपने पति को बेइज्जत कर के घर से खदेड़ कर खुद को बगैर मर्द की (विधवा) औरत बना कर रख दूं और तब उस के लंबे अरसे के बाद अधेड़ विद्वान कालिदास हो कर लौट आने तक पलपल घुटतीसिसकती रहूं.

‘‘जब तक वह कालिदास बन कर आएगा तब तक उस की जवानी का जोशीला पोटाश तो संस्कृत के श्लोकों को पढ़नेरटने में ही खत्म हो चुका होगा. आने के बाद भी वह बजाय लंबी जुदाई से बढ़ी बेताबी के तहत रातों को मुझ से चिपट पड़ने के, ग्रंथ लिखने की खातिर कलम घिसने में मशगूल हो जाएगा और मैं अपने चेहरे पर पड़ती झुर्रियों को दर्पण में निहारती, कभी ऊंघती तो कभी उस कवि लेखक के लिए चाय बनाती बाकी बची उम्र को काटतीगुजारती रहूं.

‘‘फिर नाम में क्या रखा है, डियर. आंख के अंधे नाम नयनसुख की तरह भिखारियों में क्या कई लक्ष्मियां और धनपति नाम के औरतमर्द नहीं होते? छोड़ो इन यूजलेस बातों को अब. लम्हालम्हा गहराती मदमाती रात के साथ अब क्यों न हम भी अपने प्यार के समंदर की गहराइयों में खो जाएं? सो कम औन माइ लव, माइ स्वीट लाइफपार्टनर,’’ कहते हुए विद्योत्तमा ने कालिदास को अपनी सुडौल गोरी बांहों में बांध लिया. तब कालिदास ने भी उमड़ते प्रेम आनंद के एहसास के साथ उसे अपने दिल से सटा दिया. लग रहा था, कवि कालिदास के मेघदूतम वाले बेदखल किए गए, इश्क में तड़पते, यक्ष का भी अपनी प्यारी दिलरुबा से एक बार फिर मौडर्न मिलन हो रहा हो.

कल हमेशा रहेगा

‘‘अभि, मैं आज कालिज नहीं आ रही. प्लीज, मेरा इंतजार मत करना.’’

‘‘क्यों? क्या हुआ वेदश्री. कोई खास समस्या है?’’ अभि ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हां, अभि. मानव की आंखों की जांच के लिए उसे ले कर डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘क्या हुआ मानव की आंखों को?’’ अभि की आवाज में चिंता घुल गई.

‘‘वह कल शाम को जब स्कूल से वापस आया तो कहने लगा कि आंखों में कुछ चुभन सी महसूस हो रही है. रात भर में उस की दाईं आंख सूज कर लाल हो गई है.

आज साढ़े 11 बजे का डा. साकेत अग्रवाल से समय ले रखा है.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चलूं?’’ अभि ने प्यार से पूछा.

‘‘नहीं, अभि…मां मेरे साथ जा रही हैं.’’

डा. साकेत अग्रवाल के अस्पताल में मानव का नाम पुकारे जाने पर वेदश्री अपनी मां के साथ डाक्टर के कमरे में गई.

डा. साकेत ने जैसे ही वेदश्री को देखा तो बस, देखते ही रह गए. आज तक न जाने कितनी ही लड़कियों से उन की अपने अस्पताल में और अस्पताल के बाहर मुलाकात होती रही है, लेकिन दिल की गहराइयों में उतर जाने वाला इतना चित्ताकर्षक चेहरा साकेत की नजरों के सामने से कभी नहीं गुजरा था.

वेदश्री ने डाक्टर का अभिवादन किया तो वह अपनेआप में पुन: वापस लौटे.

अभिवादन का जवाब देते हुए डाक्टर ने वेदश्री और उस की मां को सामने की कुरसियों पर बैठने का इशारा किया.

मानव की आंखों की जांच कर डा. साकेत ने बताया कि उस की दाईं आंख में संक्रमण हो गया है जिस की वजह से यह दर्द हो रहा है. आप घबराइए नहीं, बच्चे की आंखों का दर्द जल्द ही ठीक हो जाएगा पर आंखों के इस संक्रमण का इलाज लंबा चलेगा और इस में भारी खर्च भी आ सकता है.

हकीकत जान कर मां का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. वेदश्री मम्मी को ढाढ़स बंधाने का प्रयास करती हुई किसी तरह घर पहुंची. पिताजी भी हकीकत जान कर सकते में आ गए.

वेदश्री ने अपना मन यह सोच कर कड़ा किया कि अब बेटी से बेटा बन कर उसे ही सब को संभालना होगा.

मानव जैसे ही आंखों में चुभन होने की फरियाद करता वह तड़प जाती थी. उसे मानव का बचपन याद आ जाता.

उस के जन्म के 15 साल के बाद मानव का जन्म हुआ था. इतने सालों के बाद दोबारा बच्चे को जन्म देने के कारण मां को शर्मिंदगी सी महसूस हो रही थी.  वह कहतीं, ‘‘श्री…बेटा, लोग क्या सोचेंगे? बुढ़ापे में पहुंच गई, पर बच्चे पैदा करने का शौक नहीं गया.’’

‘‘मम्मा, आप ऐसा क्यों सोचती हैं.’’ वेदश्री ने समझाते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे राखी बांधने वाला भाई दिया है, जिस की बरसों से हम सब को चाहत थी. आप की अब जो उम्र है इस उम्र में तो आज की आधुनिक लड़कियां शादी करती दिखाई देती हैं…आप को गलतसलत कोई भी बात सोचने की जरूरत नहीं है.’’

गोराचिट्टा, भूरी आंखों वाला प्यारा सा मानव, अभी तो आंखों में ढेर सारा विस्मय लिए दुनिया को देखने के योग्य भी नहीं हुआ था कि उस की एक आंख प्रकृति के सुंदरतम नजारों को अपने आप में कैद करने में पूर्णतया असमर्थ हो चुकी थी. परिवार में सब की आंखों का नूर अपनी खुद की आंखों के नूर से वंचित हुआ जा रहा था और वे कुछ भी करने में असमर्थ थे.

‘‘वेदश्रीजी, कीटाणुओं के संक्रमण ने मानव की एक आंख की पुतली पर गहरा असर किया है और उस में एक सफेद धब्बा बन गया है जिस की वजह से उस की आंख की रोशनी चली गई है. कम उम्र का होने के कारण उस की सर्जरी संभव नहीं है.’’

15 दिन बाद जब वह मानव को लेकर चेकअप के लिए दोबारा अस्पताल गई तब डा. साकेत ने उसे समझाते हुए बताया तो वह दम साधे उन की बातें सुनती रही और मन ही मन सोचती रही कि काश, कोई चमत्कार हो और उस का भाई ठीक हो जाए.

‘‘लेकिन उचित समय आने पर हम आई बैंक से संपर्क कर के मानव की आंख के लिए कोई डोनेटर ढूंढ़ लेंगे और जैसे ही वह मिल जाएगा, सर्जरी कर के उस की आंख को ठीक कर देंगे, पर इस काम के लिए आप को इंतजार करना होगा,’’ डा. साकेत ने आश्वासन दिया.

वेदश्री भारी कदमों और उदास मन से वहां से चल दी तो उस की उदासी भांप कर साकेत से रहा न गया और एक डाक्टर का फर्ज निभाते हुए उन्होंने समझाया, ‘‘वेदश्रीजी, मुझे आप से पूरी हमदर्दी है. आप की हर तरह से मदद कर के मुझे बेहद खुशी मिलेगी. प्लीज, मेरी बात को आप अन्यथा न लीजिएगा, ये बात मैं दिल से कह रहा हूं.’’

‘‘थैंक्स, डा. साहब,’’ उसे डाक्टर का सहानुभूति जताना उस समय सचमुच अच्छा लग रहा था.

मानव की आंख का इलाज संभव तो था लेकिन दुष्कर भी उतना ही था. समय एवं पैसा, दोनों का बलिदान ही उस के इलाज की प्राथमिक शर्त बन गए थे.

पिताजी अपनी मर्यादित आय में जैसेतैसे घर का खर्च चला रहे थे. बेटे की तकलीफ और उस के इलाज के खर्च ने उन्हें उम्र से पहले ही जैसे बूढ़ा बना दिया था. उन का दर्द महसूस कर वेदश्री भी दुखी होती रहती. मानव की चिंता में उस ने कालिज के अलावा और कहीं आनाजाना कम कर दिया था. यहां तक कि अभि जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी, से भी जैसे वह कट कर रह गई थी.

डा. साकेत अग्रवाल शायद उस की मजबूरी को भांप चुके थे. उन्होंने वेदश्री को ढाढ़स बंधाया कि वह पैसे की चिंता न करें, अगर सर्जरी जल्द करनी पड़ी तो पैसे का इंतजाम वह खुद कर देंगे. निष्णात डाक्टर होने के साथसाथ साकेत एक सहृदय इनसान भी हैं.

दरअसल, साकेत उम्र में वेदश्री से 2-3 साल ही बड़े होंगे. जवान मन का तकाजा था कि वह जब भी वेदश्री को देखते उन का दिल बेचैन हो उठता. वह हमेशा इसी इंतजार में रहते कि कब वह मानव को ले कर उस के पास आए और वह उसे जी भर कर देख सकें. न जाने कब वेदश्री डा. साकेत के हृदय सिंहासन पर चुपके से आ कर बैठ गई, उन्हें पता ही नहीं चला. तभी तो साकेत ने मन ही मन फैसला किया था कि मानव की सर्जरी के बाद वह उस के मातापिता से उस का हाथ मांग लेंगे.

उधर वेदश्री डा. साकेत के मन में अपने प्रति उठने वाले प्यार की कोमल भावनाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ थी. वह अभिजीत के साथ मिल कर अपने सुंदर सहजीवन के सपने संजोने में मगन थी. उस के लिए साकेत एक डाक्टर से अधिक कुछ भी न थे. हां, वह उन की बहुत इज्जत करती थी क्योंकि उस ने महसूस किया था कि डा. साकेत एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होने के साथसाथ नेक दिल इनसान भी हैं.

समय अपनी चाल से चलता रहा और देखते ही देखते डेढ़ वर्ष का समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. एक दिन फोन की घंटी बजी तो अभिजीत का फोन समझ कर वेदश्री ने फोन उठा लिया और ‘हैलो’ बोली.

‘‘वेदश्रीजी, डा. साकेत बोल रहा हूं. मैं ने यह बताने के लिए आप को फोन किया है कि यदि आप मानव को ले कर कल 12 बजे के करीब अस्पताल आ जाएं तो बेहतर होगा.’’

साकेत चाहता तो अपनी रिसेप्शनिस्ट से फोन करवा सकता था, लेकिन दिल का मामला था अत: उस ने खुद ही यह काम करना उचित समझा.

‘‘क्या कोई खास बात है, डाक्टर साहब,’’ वेदश्री समझ नहीं पा रही थी कि डाक्टर ने खुद क्यों उसे फोन किया. उसे लगा जरूर कोई गंभीर बात होगी.

‘‘नहीं, कोई ऐसी खास बात नहीं है. मैं ने तो यह संभावना दर्शाने के लिए आप के पास फोन किया है कि शायद कल मैं आप को एक बहुत बढि़या खबर सुना सकूं, क्योंकि मैं मानव को ले कर बेहद सकारात्मक हूं.’’

‘‘धन्यवाद, सर. मुझे खुशी है कि आप मानव के लिए इतना सोचते हैं. मैं कल मानव को ले कर जरूर हाजिर हो जाऊंगी, बाय…’’ और वेदश्री ने फोन रख दिया.

वेदश्री की मधुर आवाज ने साकेत को तरोताजा कर दिया. उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.

मानव का चेकअप करने के बाद डा. साकेत वेदश्री की ओर मुखातिब हुए.

‘‘क्या मैं आप को सिर्फ ‘श्री…जी’ कह कर बुला सकता हूं?’’ डा. साकेत बोले, ‘‘आप का नाम सुंदर होते हुए भी मुझे लगता है कि उसे थोड़ा छोटा कर के और सुंदर बनाया जा सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर वेदश्री भी हंस पड़ी.

‘‘श्रीजी, मेरे खयाल से अब मानव की सर्जरी में हमें देर नहीं करनी चाहिए और इस से भी अधिक खुशी की बात यह है कि एशियन आई इंस्टीट्यूट बैंक से हमें मानव के लिए योग्य डोनेटर मिल गया है.’’

‘‘सच, डाक्टर साहब, मैं आप का यह ऋण कभी भी नहीं चुका सकूंगी,’’ उस की आंखों में आंसू उभर आए.

डा. साकेत के हाथों मानव की आंख की सर्जरी सफलतापूर्वक संपन्न हुई. परिवार के लोग दम साधे उस की आंख की पट्टी खुलने का इंतजार कर रहे थे.

सर्जरी के तुरंत बाद डा. साकेत ने उसे बताया कि मानव की सर्जरी सफल तो रही लेकिन उस आंख का विजन पूर्णतया वापस लौटने में कम से कम 6 महीने का वक्त और लगेगा. यह सुन कर उसे तकलीफ तो हुई थी लेकिन साथसाथ यह तसल्ली भी थी कि उस का भाई फिर इस दुनिया को अपनी स्वस्थ आंखों से देख सकेगा.

‘‘श्री…जी, मैं ने आप से वादा किया था कि आप को कभी नाउम्मीद नहीं होने दूंगा…’’ साकेत ने उस की गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को दिया अपना वादा पूरा किया.’’

वेदश्री ने संकोच से अपनी पलकें झुका दीं.

‘‘फिर मिलेंगे…’’ कुछ निराश भाव से डा. साकेत ने कहा और फिर मुड़ कर चले गए.

उस दिन एक लंबे अरसे के बाद वेदश्री बिना किसी बोझ के बेहद खुश मन से अभिजीत से मिली. उसे तनावरहित और खुशहाल देख कर अभि को भी बेहद खुशी हुई.

‘‘अभि, कितने लंबे अरसे के बाद आज हम फिर मिल रहे हैं. क्या तुम खुश नहीं?’’ श्री ने उस का हाथ अपने हाथ में थाम कर ऊष्मा से दबाते हुए पूछा.

‘‘ऐसी बात नहीं, मैं तुम्हें अपने इतने नजदीक पा कर बेहद खुश हूं…खैर, मेरी बात जाने दो, मुझे यह बताओ, अब मानव कैसा है?’’

‘‘वह ठीक है. उसे एक नेक डोनेटर मिल गया, जिस की बदौलत वह अपनी नन्हीनन्ही आंखों से अब सबकुछ देख सकता है. आज मुझे लगता है जैसे उसे नहीं, मुझे आंखों की रोशनी वापस मिली हो. सच, उस की तकलीफ से परे, मैं कुछ भी साफसाफ नहीं देख पा रही थी. हर पल यही डर लगा रहता था कि यदि उस की आंखों की रोशनी वापस नहीं मिली तो उस के गम में कहीं मम्मी या पापा को कुछ न हो जाए. उस दाता का और डा. साकेत का एहसान हम उम्र भर नहीं भुला सकेंगे.’’

‘‘अच्छा, तुम बताओ, तुम्हारा भांजा प्रदीप किस तरह दुर्घटना का शिकार हुआ? मैं ने सुना था तो बेहद दुख हुआ. कितना हंसमुख और जिंदादिल था वह. उस की गहरी भूरी आंखों में हर पल जिंदगी के प्रति कितना उत्साह छलकता रहता…’’

अभि अपलक उसे देखता रहा. क्या वह कभी उसे बता भी सकेगा कि प्रदीप की ही आंख से उस का भाई इस दुनिया को देख रहा है? वह मरा नहीं, मानव की एक आंख के रूप में उस की जिंदगी के रहने तक जिंदा रहेगा.

वह बोझिल स्वर में वेदश्री को बताने लगा.

‘‘प्रदीप अपने दोस्त के साथ ‘कल हो न हो’ फिल्म देखने जा रहा था. हाई वे पर उन की मोटरसाइकिल फिसल कर बस से टकरा गई. उस का मित्र जो मोटरसाइकिल चला रहा था, वह हेलमेट की वजह से बच गया और प्रदीप ने सिर के पिछले हिस्से में आई चोट की वजह से गिरते ही वहीं उसी पल दम तोड़ दिया.

‘‘कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर वह मेरी बहन का बेटा था, फिर भी मैं यही कहूंगा कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही हुआ…पोस्टमार्टम के बाद डाक्टर ने रिपोर्ट में दर्शाया था कि अगर वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता…’’

‘‘इतना सबकुछ हो गया और तुम ने मुझे कुछ भी बताने योग्य नहीं समझा?’’ अभिजीत की बात बीच में काट कर श्री बोली.

‘‘श्री, तुम वैसे भी मानव को ले कर इतनी परेशान रहती थीं, तुम्हें यह सब बता कर मैं तुम्हारा दुख और बढ़ाना नहीं चाहता था.’’

कुछ पलों के लिए दोनों के बीच मौन का साम्राज्य छाया रहा. दिल ही दिल में एकदूसरे के लिए दुआएं लिए दोनों जुदा हुए. अभि से मिल कर वेदश्री घर लौटी तो डा. साकेत को एक अजनबी युगल के साथ पा कर वह आश्चर्य में पड़ गई.

‘‘नमस्ते, डाक्टर साहब,’’ श्री ने साकेत का अभिवादन किया.

प्रत्युत्तर में अभिवादन कर डा. साकेत ने अपने साथ आए युगल का परिचय करवाया.

‘‘श्रीजी, यह मेरे बडे़ भैया आकाश एवं भाभी विश्वा हैं और आप सब से मिलने आए हैं. भाभी, ये श्रीजी हैं.’’

विश्वा भाभी उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आओ श्री, हमारे पास बैठो,’’ उन्हें भी श्री पहली ही नजर में पसंद आ गई.

‘‘अंकलजी, हम अपने देवर डा. साकेत की ओर से आप की बेटी वेदश्री का हाथ मांगने आए हैं,’’ भाभी ने आने का मकसद स्पष्ट किया.

यह सुन कर श्री को लगा जैसे किसी ने उसे ऊंचे पहाड़ की चोटी से नीचे खाई में धकेल दिया हो. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो वह सुन रही है वह सच है या फिर एक अवांछनीय सपना?

भाभी का प्रस्ताव सुनते ही श्री के मातापिता की आंखोंमें एक चमक आ गई. उन्होंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के लिए इतने बड़े घराने से रिश्ता आएगा.

‘‘क्या हुआ श्री, तुम हमारे प्रस्ताव से खुश नहीं?’’ श्री के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख कर भाभी ने पूछ लिया.

साकेत और आकाश दोनों ही उसे देखने लगे. साकेत का दिल यह सोच कर तेजी से धड़कने लगा कि कहीं श्री ने इस रिश्ते से मना कर दिया तो?

‘‘नहीं, भाभीजी, ऐसी कोई बात नहीं. दरअसल, आप का प्रस्ताव मेरे लिए अप्रत्याशित है. इसीलिए कुछ पलों के लिए मैं उलझन में पड़ गई थी पर अब मैं ठीक हूं,’’ जबरन मुसकराते हुए वेदश्री ने कहा, ‘‘मैं ने तो साकेत को सिर्फ एक डाक्टर के नजरिए से देखा था.’’

‘‘सच तो यह है श्री कि जिस दिन तुम पहली बार मेरे अस्पताल में अपने भाई को ले कर आई थीं उसी दिन तुम्हें देख कर मेरे मन ने मुझ से कहा था कि तुम्हारे योग्य जीवनसाथी की तलाश आज खत्म हो गई. और आज मैं परिवार के सामने अपने मन की बात रख कर तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अब फैसला तुम्हारे ऊपर है.’’

‘‘साकेत, मुझे सोचने के लिए कुछ वक्त दीजिए, प्लीज. मैं ने आप को आज तक उस नजरिए से कभी देखा नहीं न, इसलिए उलझन में हूं कि मुझे क्या फैसला लेना चाहिए…क्या आप मुझे कुछ दिन का वक्त दे सकते हैं?’’ वेदश्री ने उन की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘जरूर,’’ आकाश जो अब तक चुप बैठा था, बोल उठा, ‘‘शादी जैसे अहम मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई भी फैसला लेना उचित नहीं होगा. तुम इत्मीनान से सोच कर जवाब देना. हम साकेत को भलीभांति जानते हैं. वह तुम पर अपनी मर्जी थोपना कभी भी पसंद नहीं करेगा.’’

‘‘हम भी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोडें़गे, क्यों साकेत?’’ भाभी ने साकेत की ओर देखा.

‘‘जी, भाभी,’’ साकेत ने हंसते हुए कहा, ‘‘शतप्रतिशत, आप ने बड़े पते की बात कही है.’’

जलपान के बाद सब ने फिर एकदूसरे का अभिवादन किया और अलग हो गए.

आज की रात वेदश्री के लिए कयामत की रात बन गई थी. साकेत के प्रस्ताव को सुन वह बौखला सी गई थी. ये प्रश्न बारबार उस के मन में कौंधते रहे:

‘क्या मुझे साकेत का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? यदि मैं ने ऐसा किया तो अभि का क्या होगा? हमारे उन सपनों का क्या होगा जो हम दोनों ने मिल कर संजोए थे? क्या अभि मेरे बिना जी पाएगा और उस से वादाखिलाफी कर क्या मैं जी पाऊंगी? नहीं…नहीं…मैं अपने प्यार का दामन नहीं छोड़ सकती. मैं साकेत से साफ शब्दों में मना कर दूंगी. नए रिश्तों को बनाने के लिए पुराने रिश्तों से मुंह मोड़ लेना कहां की रीति है?’

सोचतेसोचते वेदश्री को साकेत याद आ गया. उस ने खुद को टोका कि श्री तुम

डा. साकेत के बारे में क्यों नहीं सोच रहीं? तुम से प्यार कर के उन्होंने भी तो कोेई गलती नहीं की. कितना चाहते हैं वह तुम्हें? तभी तो एक इतना बड़ा डाक्टर दिल के हाथों मजबूर हो कर तुम्हारे पास चला आया. कितने नेकदिल इनसान हैं. भूल गईं क्या, जो उन्होंने मानव के लिए किया? यदि उन का सहारा न होता तो क्या तुम्हारा मानव दुनिया को दोनों आंखों से फिर से देख पाता? खबरदार श्री, तुम गलती से भी अपने दिमाग में इस गलतफहमी को न पाल बैठना कि साकेत ने तुम्हें पाने के इरादे से मानव के लिए इतना सबकुछ किया. आखिर तुम दुनिया की अंतिम खूबसूरत लड़की तो हो ही नहीं सकतीं न…दिल ने उसे उलाहना दिया.

साकेत के जाने के बाद पापामम्मी से हुई बातचीत का एकएक शब्द उसे याद आने लगा.

मां ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, ऐसे मौके जीवन में बारबार नहीं आते. समझदार इनसान वही है जो हाथ आए मौके को हाथ से न जाने दे, उस का सही इस्तेमाल करे. बेटी, हो सकता है ऐसा मौका तुम्हारी जिंदगी के दरवाजे पर दोबारा दस्तक न दे…साकेत बहुत ही नेक लड़का है, लाखों में एक है. सुंदर है, नम्र है, सुशील है और सब से अहम बात कि वह तुम्हें दिल से चाहता है.’

पापा ने भी मम्मी के साथ सहमत होते हुए कहा था, ‘बेटी, डा. साकेत ने हमारे बच्चे के लिए जो कुछ भी किया, वह आज के जमाने में शायद ही किसी के लिए कोई करे. यदि उन्होंने हमारी मदद न की होती तो क्या हम मानव का इलाज बिना पैसे के करवा सकते थे?

‘यह बात कभी न भूलना बेटी कि हम ने मानव के इलाज के बारे में मदद के लिए कितने लोगों के सामने अपने स्वाभिमान का गला घोंट कर हाथ फैलाए थे, और हर जगह से हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगी थी. जब अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया तब साकेत ने गैर होते हुए भी हमारा दामन थामा था.’

‘अभिजीत अगर तुम्हारा प्यार है तो मानव तुम्हारा फर्ज है. फर्ज निभाने में जिस ने तुम्हारा साथ दिया वही तुम्हारा जीवनसाथी बनने योग्य है, क्योंकि सदियों से चली आ रही प्यार और फर्ज की जंग में जीत हमेशा फर्ज की ही हुई है,’ दिमाग के किसी कोने से वेदश्री को सुनाई पड़ा.

तपस्या : शादी को लेकर शैली का प्रयास

शैली उस दिन बाजार से लौट रही थी कि वंदना उसे रास्ते में ही मिल गई.

‘‘तू कैसी है, शैली? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. आ, चल, सामने रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

वंदना शैली को घसीट ही ले गई थी. जाते ही उस ने 2 कप कौफी का आर्डर दिया.

‘‘और सुना, क्या हालचाल है? कोई पत्र आया शिखर का?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर शैली का मन उदास  हो गया था.

‘‘सच शैली कभी तेरे बारे में सोचती हूं तो बड़ा दुख होेता है. आखिर ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी तेरे पिताजी को जो तेरी शादी कर दी? ठहर कर, समझबूझ कर करते. शादीब्याह कोई गुड्डे-गुडि़या का खेल तो है नहीं.’’

इस बीच बैरा मेज पर कौफी रख गया और वंदना ने बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा.

‘‘खैर, जाने दे. मैं ने तुझे और उदास कर दिया. चल, कौफी पी. और सुना, क्याक्या खरीदारी कर डाली?’’

पर शैली की उदासी कहां दूर हो पाई थी. वापस लौटते समय वह देर तक शिखर के बारे में ही सोचती रही थी. सच कह रही थी वंदना. शादीब्याह कोई गुड्डे – गुडि़या का खेल थोड़े ही होता है. पर उस के साथ क्यों हुआ यह खेल? क्यों?

वह घर लौटी तो मांजी अभी भी सो ही रही थीं. उस ने सोचा था, घर पहुंचते ही चाय बनाएगी. मांजी को सारा सामान संभलवा देगी और फिर थोड़ी देर बैठ कर अपनी पढ़ाई करेगी. पर अब कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. वंदना उस की पुरानी सहेली थी. इसी शहर में ब्याही थी. वह जब भी मिलती थी तो बड़े प्यार से. सहसा शैली का मन और उदास हो गया था. कितना फर्क आ गया था वंदना की जिंदगी में और उस की  अपनी जिंदगी में. वंदना हमेशा खुश, चहचहाती दिखती थी. वह अपने पति के साथ  सुखी जिंदगी बिता रही थी. और वह…अतीत की यादों में खो गई.

शायद उस के पिता भी गलत नहीं होंगे. आखिर उन्होंने शैली के लिए सुखी जिंदगी की ही तो कामना की थी. उन के बचपन के मित्र सुखनंदन का बेटा था शिखर. जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तभी  उन्होंने  यह रिश्ता तय कर दिया था. सुखनंदन ने खुद ही तो हाथ मांग कर यह रिश्ता तय किया था. कितना चाहते थे वह उसे. जब भी मिलने आते, कुछ न कुछ उपहार अवश्य लाते थे. वह भी तो उन्हें चाचाजी कहा करती थी.

‘‘वीरेंद्र, तुम्हारी यह बेटी शुरू से ही मां के अभाव में पली है न, इसलिए बचपन में ही सयानी हो गई है,’ जब वह दौड़ कर उन की खातिर में लग जाती तो वह हंस कर उस के पिता से कहते.

फिर जब शिखर इंजीनियर बन गया तो शैली के पिता जल्दी शादी कर देने के लिए दबाव डालने लगे थे. वह जल्दी ही रिटायर होने वाले थे और उस से पहले ही यह दायित्व पूरा कर लेना चाहते थे. पर जब सुखनंदन का जवाब आया कि शिखर शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है तो वह चौंक पड़े थे. यह कैसे संभव है? इतने दिनों का बड़ों द्वारा तय किया रिश्ता…और फिर जब सगाई हुई थी तब तो शिखर ने कोई विरोध नहीं किया था…अब क्या हो गया?

शैली के पिता ने खुद भी 2-1 पत्र लिखे थे शिखर को, जिन का कोई जवाब नहीं आया था. फिर वह खुद ही जा कर शिखर के बौस से मिले थे. उन से कह कर शायद जोर डलवाया था उस पर. इस पर शिखर का बहुत ही बौखलाहट भरा पत्र आया था. वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं, यह तक लिखा था उस ने. कितना रोई थी तब वह और पिताजी से भी कितना कहा था, ‘क्यों नाहक जिद कर रहे हैं? जब वे लोग नहीं चाहते तो क्यों पीछे पड़े हैं?’

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो?

पूरी रात वह सो नहीं सका था. दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

कोई शर्त नहीं: ट्रांसफर की मारी शशि बेचारी

Story in Hindi

मजबूरी : क्या रिहान कर पाया तबस्सुम से शादी?

आज भी बहुत तेज बारिश हो रही थी. बारिश में भीगने से बचने के लिए रिहान एक घर के नीचे खड़ा हो गया था.

बारिश रुकने के बाद रिहान अपने घर की ओर चल दिया. घर पहुंच कर उस ने अपने हाथपैर धो कर कपड़े बदले और खाना खाने लगा. खाना खाने के बाद वह छत पर चला गया और अपनी महबूबा को एक मैसेज किया और उस के जवाब का इंतजार करने लगा.

छत पर चल रही ठंडी हवा ने रिहान को अपने आगोश में ले लिया और वह किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच गया. वह अपने प्यार के भविष्य के बारे में सोचने लगा. रिहान तबस्सुम से बहुत प्यार करता था और उसी से शादी करना चाहता था. तबस्सुम के अलावा वह किसी और के बारे में सोचता भी नहीं था. जब कभी घर में उस के रिश्ते की बात होती थी तो वह शादी करने से साफ मना कर देता था.

रिहान के घर वाले तबस्सुम के बारे में नहीं जानते थे. वे सोचते थे कि अभी यह पढ़ाई कर रहा है इसलिए शादी से मना कर रहा है. पढ़ाई पूरी होने के बाद वह मान जाएगा.

तभी अचानक रिहान के मोबाइल फोन पर तबस्सुम का मैसेज आया. उस का दिल खुशी से झूम उठा. उस ने मैसेज पढ़ा और उस का जवाब दिया. बातें करतेकरते दोनों एकदूसरे में खो गए.

तबस्सुम भी रिहान को बहुत प्यार करती थी और शादी करना चाहती थी. अभी तक उस ने भी अपने घर पर अपने प्यार के बारे में नहीं बताया था. वह रिहान की पढ़ाई खत्म होने का इंतजार कर रही थी.

ऐसा नहीं था कि दोनों में सिर्फ प्यार भरी बातें ही होती थीं, बल्कि दोनों में लड़ाइयां भी होती थीं. कभीकभी तो कईकई दिनों तक बातें बंद हो जाती थीं. लड़ाई के बाद भी वे दोनों एकदूसरे को बहुत याद करते थे और कभी किसी बात पर चिढ़ाने के लिए मैसेज कर देते थे. मसलन, तुम्हारी फेसबुक की प्रोफाइल पिक्चर बहुत बेकार लग रही है. बंदर लग रहे हो तुम. तुम तो बहुत खूबसूरत हो न बंदरिया. और लड़तेलड़ते फिर से बातें शुरू हो जाती थीं.

पिछले 3 सालों से वे दोनों एकदूसरे को प्यार करते थे और अब जा कर शादी करना चाहते थे. रिहान ने सोच लिया था कि इस साल पढ़ाई पूरी होने के बाद कोई अच्छी सी नौकरी कर वह अपने घर वालों को तबस्सुम के बारे में बता देगा. अगर घर वाले मानते हैं तो ठीक, नहीं तो उन की मरजी के खिलाफ शादी कर लेगा. वह किसी भी हाल में तबस्सुम को खोना नहीं चाहता था.

एक दिन रिहान की अम्मी बोलीं, ‘‘तेरे मौसा का फोन आया था. उन्होंने तुझे बुलाया है.’’

‘‘मुझे क्यों बुलाया है? मुझ से क्या काम पड़ गया उन्हें?’’ रिहान ने पूछा.

‘‘अरे, मुझे क्या पता कि क्यों बुलाया है. वह तो हमें वहीं जा कर पता चलेगा,’’ उस की अम्मी ने कहा.

कुछ देर बाद वे दोनों मोटरसाइकिल से मौसा के घर की तरफ चल दिए. रिहान के मौसा पास के शहर में ही रहते थे. एक घंटे में वे दोनों वहां पहुंच गए. वहां पहुंच कर रिहान ने देखा कि घर में बहुत लोग जमा थे. उन में उस के पापा, उस की शादीशुदा बहन और बहनोई भी थे.

यह सब देख कर रिहान ने अपनी अम्मी से पूछा, ‘‘इतने सारे रिश्तेदार क्यों जमा हैं यहां? और पापा यहां क्या कर रहे हैं? वे तो सुबह दुकान पर गए थे?’’

अम्मी बोलीं, ‘‘तू अंदर तो चल. सब पता चल जाएगा.’’ रिहान और उस की अम्मी अंदर गए. वहां सब को सलाम किया और बैठ कर बातें करने लगे.

तभी रिहान के मौसा चिंतित होते हुए बोले, ‘‘आसिफ की हालत बहुत खराब है. वह मरने से पहले अपनी बेटी की शादी करना चाहता है.’’

आसिफ रिहान के मामा का नाम था. कुछ दिन पहले हुई तेज बारिश में उन का घर गिर गया था. घर के नीचे दब कर मामा के 2 बच्चों और मामी की मौत हो गई थी. मामा भी घर के नीचे दब गए थे, लेकिन किसी तरह उन्हें निकाल कर अस्पताल में भरती करा दिया गया था. वहां डाक्टर ने कहा था कि वे सिर्फ कुछ ही दिनों के मेहमान हैं. उन का बचना नामुमकिन है.

‘‘फिर क्या किया जाए?’’ रिहान की अम्मी बोलीं.

‘‘आसिफ मरने से पहले अपनी बेटी की शादी रिहान के साथ करा देना चाहता है. यह आसिफ की आखिरी ख्वाहिश है और हमें इसे पूरा करना चाहिए,’’ मौसा की यह बात सुन कर रिहान एकदम चौंक गया. उस के दिल में इतना तेज दर्द हुआ मानो किसी ने उस के दिल पर हजारों तीर एकसाथ छोड़ दिए हों. उस का दिमाग सुन्न हो गया.

‘‘ठीक है, हम आसिफ के सामने इन दोनों की शादी करवा देते हैं,’’ रिहान की अम्मी ने कहा.

रिहान मना करना चाहता था, लेकिन वह मजबूर था. उसी दिन शादी की तैयारी होने लगी और आसिफ को भी अस्पताल से मौसा के घर ले आया गया. शाम को दोनों का निकाह करवा दिया गया.

शादी के बाद रिहान अपनी बीवी और मांबाप के साथ घर आ गया. पूरे रास्ते वह चुप रहा. उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था कि उस के साथ हुआ क्या है.

घर पहुंच कर रिहान कपड़े बदल कर छत पर चला गया. उस ने तबस्सुम को एक मैसेज किया. थोड़ी देर बाद तबस्सुम का फोन आया. रिहान के फोन उठाते ही तबस्सुम गुस्से में बोली, ‘‘कहां थे आज पूरा दिन? एक मैसेज भी नहीं किया तुम ने.’’

तबस्सुम नाराज थी और वह रिहान को डांटने लगी. रिहान चुपचाप सुनता रहा. जब काफी देर तक वह कुछ नहीं बोला तो तबस्सुम बोली, ‘‘अब कुछ बोलोगे भी या चुप ही बैठे रहोगे?’’

‘‘मेरी शादी हो गई है आज,’’ रिहान धीमी आवाज में बोला.

तबस्सुम बोली, ‘‘मैं सुबह से नाराज हूं और तुम मुझे चिढ़ा रहे हो.’’

‘‘नहीं यार, सच में आज मेरी शादी हो गई है. उसी में बिजी था इसलिए मैं बात नहीं कर पाया तुम से.’’

‘‘क्या सच में तुम्हारी शादी हो गई है?’’ तबस्सुम ने रोंआसी आवाज में पूछा.

‘‘हां, सच में मेरी शादी हो गई है,’’ रिहान ने दबी जबान में कहा. उस की आवाज में उस के टूटे हुए दिल और उस की बेबसी साफ झलक रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे वह जीना ही नहीं चाहता था.

‘‘तुम ने मुझे धोखा दिया है रिहान,’’ तबस्सुम ने रोते हुए कहा.

‘‘मैं कुछ नहीं कर सकता था, मेरी मजबूरी थी,’’ यह कह कर रिहान भी रोने लगा.

‘‘तुम धोखेबाज हो. तुम झूठे हो. आज के बाद मुझे कभी फोन मत करना,’’ कह कर तबस्सुम ने फोन काट दिया. फोन रख कर रिहान रोने लगा. वहां तबस्सुम भी रो रही थी.

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