फार्महाउस : सरिता ने मोहन को क्यों कहा ठंडा आदमी

मोहन 22-23 साल का नौजवान था जो चौधरी सुरजीत सिंह के फार्महाउस पर खेती के काम में मजदूरी करता था. मोहन का चेहरामोहरा अच्छा था. 6 फुट की लंबाई, भरापूरा ताकतवर बदन, चेहरे पर हलकी मूंछ व दाढ़ी.

मोहन दिनभर फार्महाउस पर कभी फसल को पानी लगाता तो कभी फसल की निराईगुड़ाई करता रहता. कभी पशुओं के लिए बरसीम तो कभी चरी खेत से काट कर बिजली से चलने वाले गंड़ासे से काट कर पशुओं के लिए तैयार कर घर भिजवाता यानी दिनभर मोहन अपने काम में लगा रहता था.

सुरजीत सिंह ने फार्महाउस पर ही मोहन के रहने का इंतजाम कर दिया था. बढ़िया कमरा, टैलीविजन, कूलर, पंखा सभी चीजों का इंतजाम. खाना भी सुरजीत सिंह के घर से वहां पहुंचा दिया जाता था.

मोहन गरीब घर से था. उस की अभी तक शादी नहीं हुई थी. वह अपने गांव, जो यहां से 28 किलोमीटर दूर था, कभीकभार ही जाता था, वरना सारा समय उस का फार्महाउस पर ही गुजरता था.

मोहन खेती के काम में सुबह जल्दी उठ कर लग जाता था और दोपहर में कुछ देर आराम कर लेता था. उस की मौजूदगी के चलते फार्महाउस को कोई नुकसान पहुंचाने की सोच भी नहीं सकता था पर गांव की 5-6 लड़कियों का एक ग्रुप था जो अकसर इस फिराक में रहता था कि मोहन कब दोपहर में आराम करने जाए और वे मौके का फायदा उठा कर फार्महाउस में घुस कर जल्दीजल्दी घास काट कर गट्ठर बना कर घर लौटे. लेकिन मोहन ने कभी भी इस ग्रुप की चाल को कामयाब नहीं होने दिया.

इस ग्रुप की काम करने की रणनीति भी अलग ही थी. यह ग्रुप दोपहर के समय घर से खेतों के लिए निकलता था जबकि लोग सुबह जल्दी काम पर जा कर दोपहर तक वापस घरों को लौटने लगते थे. सुनसान पड़े खेतों में घुस कर ये लड़कियां मनमाने तरीके से घास काट कर गट्ठर बना कर ले आती थीं.

माया, मेनका, सरिता, मंजू और गीता ये सभी इस ग्रुप की सदस्य थीं. इन की उम्र भी 18-20 साल की थी.

सरिता इन में सब से खूबसूरत थी. सुराहीदार गरदन, पतलेपतले होंठ, गोरा रंग और भरापूरा बदन बरबस किसी का भी ध्यान अपनी तरफ खींच लेता था.

मोहन का रोजाना इन लड़कियां से सामना होता था लेकिन वह इन्हें घास नहीं डालता था. उस को पता था कि एक बार वह उन की मीठीमीठी बातों में आया तो वे पूरी फसल का सत्यानाश कर देंगी.

यही सोच कर मोहन उन से बात नहीं करता और न ही उन को फार्महाउस में घुसने देता था.

लेकिन मोहन कनखियों से सरिता को हसरत भरी निगाहों से देखता रहता था. इस का अंदाजा न केवल सरिता को था बल्कि उस की दूसरी सहेलियों को भी था. घर लौटते वक्त वे सरिता से मजाक करती रहतीं.

एक दिन मंजू ने कहा, ‘‘सरिता, मोहन तुझ पर दिलोजान से मरता है. आज मैं ने देखा था कि वह तेरी छाती पर नजरें गड़ाए हुए था.’’

‘‘चल हट…’’ सरिता ने कहा, ‘‘ऐसावैसा कुछ नहीं है. मोहन बहुत ही सीधासादा लड़का है.’’

लेकिन इश्क और मुश्क छिपाए थोड़े ही छिपते हैं. सरिता भी मोहन को पसंद करती थी. उस को भी वह प्यारा लगता था. वह उस का लंबातगड़ा शरीर देख कर रोमांचित हो उठती थी.

अब मोहन को इस ग्रुप के आने का इंतजार रहने लगा था. सरिता घास काटने के बहाने पीछे रह जाती और उस की बाकी सहेलियां आगे निकल जातीं.

मोहन भी सरिता के करीब पहुंच कर घास कटवाने में उस की मदद कराने के बहाने उस से बातचीत करने लग जाता. दोनों के बीच प्यार पनपने लगा था.

सरिता अब फार्महाउस के अंदर आ कर मोहन के साथ बतियाती रहती. दोनों ने एकदूसरे के घरपरिवार के बारे में जान लिया था. सरिता चाहती थी कि मोहन से उस की जल्दी ही शादी हो जाए, वहीं मोहन का मानना था कि पहले उस के बड़े भाई की शादी होगी, फिर बहन की, उस के बाद उस का नंबर आएगा. उधर सरिता की शादी करने के लिए लड़के की तलाश चल रही थी.

उन दोनों की मुलाकातों का समय बढ़ने लगा था लेकिन ये केवल मुलाकातें थीं, इस से आगे कुछ नहीं.

उस दिन मोहन फार्महाउस पर ट्यूबवैल चला कर खेतों में पानी लगा रहा था. सरिता और उस की सहेलियों का घास काटते बुरा हाल हो गया था.

माया ने मेनका की तरफ आंख दबा कर कहा, ‘‘सरिता, चलो वहां मोहन खेत में पानी लगा रहा है. ट्यूबवैल चल रहा है. वहां नहाते हैं, कुछ तो राहत मिलेगी.’’

यही सोच कर वे सारी लड़कियां फार्महाउस में ट्यूबबैल के पास बने हौज में नहाने के लिए कूद गईं. पानी में काफी देर तक वे मस्ती करती रहीं. हौज में एकदूसरी को छेड़ती रहीं.

इसी छेड़खानी में सरिता की अंगिया की पट्टी टूट गई. वह हौज से बाहर आ गई. उधर से मोहन भी वहां आ गया था.

मोहन ने उस की अंगयि टूटी देखी तो सरिता ने कहा, ‘‘कल नई ले कर आऊंगी तब देखना.’’

इस के बाद सभी सहेलियां वहां से अपनेअपने गट्ठर उठा कर घर के लिए चल पड़ीं.

अगले दिन सरिता ने नई अंगिया पहनी और अपनी सहेलियों के साथ घास लेने खेतों की तरफ चल पड़ी. दोपहर में वे फार्महाउस पहुंचीं. उस वक्त मोहन अपने कमरे में आराम कर रहा था.

सरिता को देख कर मोहन ने पूछा, ‘‘नई अंगिया पहन कर आई है?’’

सरिता ने हां में सिर हिलाया. फिर कमीज ऊपर कर के मोहन को अपनी नई अंगिया दिखाई.

मोहन ने दूर से देखते हुए कहा, ‘‘अच्छी है.’’

सरिता ने उस का हाथ पकड़ कर अंगिया में घुसाते हुए कहा. ‘‘हाथ लगा कर देख न कितनी मुलायम है.’’

सरिता ने महसूस किया कि मोहन के हाथ में कोई हरकत नहीं है. उसे वह हाथ बेहद ठंडा लगा. काफी देर तक जब कोई हरकत नहीं हुई तो सरिता ने मोहन का हाथ झटक दिया और अपनी कमीज नीचे कर ली. वह वहां से तेजी से निकल कर अपनी सहेलियों के पास पहुंच गई. उसे मोहन बड़ा ही ठंडा आदमी लगा.

इस के बाद सरिता कभी भी मोहन से नहीं मिली.

थोथी सोच : शालिनी क्यों नहीं कर पाई गोदभराई

सामने से तेज रफ्तार से आती हुई जीप ने उस मोटरसाइकिल सवार को जोरदार टक्कर मार दी. टक्कर इतनी जबरदस्त थी कि उस की आवाज ने हर किसी के रोंगटे खड़े कर दिए. कोई कुछ समझ पाता, इस से पहले ही जीप वाला वहां से जीप ले कर भाग निकला.

सड़क पर 23-24 साल का नौजवान घायल पड़ा था. उस के चारों तरफ लोगों की भीड़ जमा हो गई. उन में से ज्यादातर दर्शक थे और बाकी बचे हमदर्दी जाहिर करने वाले थे. मददगार कोई नहीं था.

उस नौजवान का सिर फूट गया था और उस के सिर से खून बह रहा था. तभी भीड़ में से 39-40 साल की एक औरत आगे आई और तुरंत उस नौजवान का सिर अपनी गोद में रख कर चोट की जगह दबाने लगी ताकि खून बहने की रफ्तार कुछ कम हो. पर दबाने का ज्यादा असर नहीं होता देख कर उस ने फौरन अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ कर चोट वाली जगह पर कस कर बांध दिया. अब खून बहना कुछ कम हो गया था.

उस औरत ने खड़े हुए लोगों से पानी मांगा और घूंटघूंट कर के उस नौजवान को पिलाने की कोशिश करने लगी. तब तक भीड़ में से किसी ने एंबुलैंस को फोन कर दिया.

एंबुलैंस आ चुकी थी. चूंकि उस घायल नौजवान के साथ जाने को कोई तैयार नहीं था इसलिए उस औरत को ही एंबुलैंस के साथ जाना पड़ा.

उस नौजवान की हालत गंभीर थी पर जल्दी प्राथमिक उपचार मिलने के चलते डाक्टरों को काफी आसानी हो गई और हालात पर जल्दी ही काबू पा लिया गया.

नौजवान को फौरन खून की जरूरत थी. मदद करने वाली उस औरत का ब्लड ग्रुप मैच हो गया और औरत ने रक्तदान कर के उस नौजवान की जान बचाने में मदद की.

जिस समय हादसा हुआ था उस नौजवान का मोबाइल फोन जेब से निकल कर सड़क पर जा गिरा था, जो भीड़ में से एक आदमी उठा कर ले गया, इसलिए उस नौजवान के परिवार के बारे में जानकारी उस के होश में आने पर ही मिलना मुमकिन हुई थी.

वह औरत अपनी जिम्मेदारी समझ कर उस नौजवान के होश में आने तक रुकी रही. तकरीबन 5 घंटे बाद उसे होश आया. वह पास ही के शहर का रहने वाला था और यहां पर नौकरी करता था. उस के घर वालों को सूचित करने के बाद वह औरत अपने घर चली गई.

दूसरे दिन जब वह औरत उस नौजवान का हालचाल पूछने अस्पताल गई तब पता चला कि वह नौजवान अपने मातापिता की एकलौती औलाद है. उस के मातापिता बारबार उस औरत का शुक्रिया अदा कर रहे थे. वे कह रहे थे कि आज इस का दूसरा जन्म हुआ है और आप ही इस की मां हैं.

कुछ महीने बाद ही उस नौजवान की शादी थी.

उस औरत का नाम शालिनी था. शादी के कुछ दिनों बाद ही एक हादसे में शालिनी के पति की मौत हो गई थी. वह पति की जगह पर सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी कर रही थी. नौजवान का नाम शेखर था.

अब दोनों परिवारों में प्रगाढ़ संबंध हो गए थे. शेखर शालिनी को मां के समान इज्जत देता था.

वह दिन भी आ गया जिस दिन शेखर की शादी होनी थी. शेखर का परिवार शालिनी को ससम्मान शादी के कार्यक्रमों में शामिल कर रहा था. सभी लोग लड़की वालों के यहां पहुंच गए जहां पर लड़की की गोदभराई की रस्म के साथ कार्यक्रमों की शुरुआत होनी थी.

परंपरा के मुताबिक, लड़की की गोद लड़के की मां भरते हुए अपने घर का हिस्सा बनने के लिए कहती है. शेखर की इच्छा थी कि यह रस्म शालिनी के हाथों पूरी हो, क्योंकि उस की नजर में उसे नई जिंदगी देने वाली शालिनी ही थी. शेखर के घर वालों को इस पर कोई एतराज भी नहीं था.

पूरा माहौल खुशियों में डूबा हुआ था. लड़की सभी मेहमानों के बीच आ कर बैठ गई. ढोलक की थापों के बीच शादी की रस्में शुरू हो गईं. शेखर के पिता ने शालिनी से आगे बढ़ कर कहा कि वह गोदभराई शुरू करे.

वैसे, शालिनी इस के लिए तैयार नहीं थी और खुद वहां जाने से मना कर रही थी. पर जब शेखर ने शालिनी के पैर छू कर बारबार कहा तो वह मना नहीं कर पाई.

मंगल गीत और हंसीठठोली के बीच शालिनी गोदभराई का सामान ले कर जैसे ही लड़की के पास पहुंची, तभी एक आवाज आई, ‘‘रुकिए. आप गोद नहीं भर सकतीं,’’ यह लड़की की दादी की आवाज थी.

शालिनी को इसी बात का डर था. वह ठिठकी और रोंआसी हो कर वापस अपनी जगह पर जाने के लिए पलटी.

तभी शेखर बीच में आ गया और बोला, ‘‘दादीजी, शालिनी मम्मीजी सुलक्षणा की गोद क्यों नहीं भर सकतीं?’’

‘‘क्योंकि ब्याह एक मांगलिक काम है और किसी भी मांगलिक काम की शुरुआत किसी ऐसी औरत से नहीं कराई जा सकती जिस के पास मंगल चिह्न न हो,’’ दादी शेखर को सम?ाते हुए बोलीं.

‘‘आप भी कैसी दकियानूसी बातें करती हैं दादी. आप यह कैसे कह सकती हैं कि मंगल चिह्न पहनने वाली कोई औरत मंगल भावनाओं के साथ ही इस रीति को पूरा करेगी?’’

‘‘पर बेटा, यह एक परंपरा है और परंपरा यह कहती है कि मंगल काम सुहागन औरतों के हाथों से करवाया जाए तो भविष्य में बुरा होने का डर कम रहता है,’’ दादी कुछ बुझी हुई आवाज में बोलीं, क्योंकि वे खुद भी विधवा थीं.

‘‘क्या आप भी ऐसा ही मानती हैं?’’

‘‘हां, यह तो परंपरा है और परंपराओं से अलग जाने का तो सवाल ही नहीं उठता,’’ दादी बोलीं.

‘‘इस के हिसाब से तो किसी लड़की को विधवा ही नहीं होना चाहिए क्योंकि हर लड़की की शादी की शुरुआत सुहागन औरत के हाथों से होती है?’’ शेखर ने सवाल किया.

‘‘शेखर, बहस मत करो. कार्यक्रम चालू होने दो,’’ शालिनी शेखर को रोकते हुए बोली.

‘‘नहीं मम्मीजी, मैं यह नाइंसाफी नहीं होने दूंगा. अगर विधवा औरत इतनी ही अशुभ होती तो मुझे उस समय ही मर जाना चािहए था जब मैं ऐक्सिडैंट के बाद सड़क पर तड़प रहा था और आप ने अपने कपड़ों की परवाह किए बिना ही साड़ी का पल्लू फाड़ कर मेरा खून रोकने के लिए पट्टी बनाई थी या आप के रक्तदान से आप का खून मेरे शरीर में गया.

‘‘भविष्य में होने वाली किसी अनहोनी को रोकने के लिए वर्तमान का अनादर करना तो ठीक नहीं होगा न…’’ फिर दादी की तरफ मुखातिब हो कर वह बोला, ‘‘कितने हैरानी की बात है कि जब

तक कन्या कुंआरी रहती है वह देवी रहती है, वही देवी शादी के बाद मंगलकारी हो जाती है, पर विधवा होते ही वह मंगलकारी देवी अचानक मनहूस कैसे हो जाती है? सब से ज्यादा हैरानी इस बात की है कि आप एक औरत हो कर ऐसी बातें कर रही हैं.’’

दादी की कुछ और भी दलीलें होने लगी थीं. तभी दुलहन बनी सुलक्षणा ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘दादीजी, मैं शेखर की बातों से पूरी तरह सहमत हूं और चाहती हूं कि मेरी गोदभराई की रस्म शालिनी मम्मीजी के हाथों से ही हो.’’

इस के बाद विवाह के सारे कार्यक्रम अच्छे से पूरे हो गए.

आज शेखर व सुलक्षणा की शादी को 10 साल हो चुके हैं. वे दोनों आज भी सब से पहले आशीर्वाद लेने के लिए शालिनी के पास जा रहे हैं.

बंजारन: कजरी के साथ क्या हुआ

‘‘अरी ओ कजरी, सारा दिन शीशे में ही घुसी रहेगी क्या… कुछ कामधाम भी कर लिया कर कभी.’’

‘‘अम्मां, मुझ से न होता कामवाम तेरा. मैं तो राजकुमारी हूं, राजकुमारी… और राजकुमारी कोई काम नहीं करती…’’

यह रोज का काम था. मां उसे काम में हाथ बंटाने को कहती और कजरी मना कर देती. दरअसल, कजरी का रूपरंग ही ऐसा था, जैसे कुदरत ने पूरे जहां की खूबसूरती उसी पर उड़ेल दी हो. बंजारों के कबीले में आज तक इतनी खूबसूरत न तो कोई बेटी थी और न ही बहू थी.

कजरी को लगता था कि अगर वह काम करेगी, तो उस के हाथपैर मैले हो जाएंगे. वह हमेशा यही ख्वाब देखती थी कि सफेद घोड़े पर कोई राजकुमार आएगा और उसे ले जाएगा.

आज फिर मांबेटी में वही बहस छिड़ गई, ‘‘अरी ओ कमबख्त, कुछ तो मेरी मदद कर दिया कर… घर और बाहर का सारा काम अकेली जान कैसे संभाले… तुम्हारे बापू थे तो मदद कर दिया करते थे. तू तो करमजली, सारा दिन सिंगार ही करती रहती है. अरी, कौन सा महलों में जा कर सजना है तुझे, रहना तो इसी मिट्टी में है और सोना इसी तंबू में…’’

‘‘देखना अम्मां, एक दिन मेरा राजकुमार आएगा और मुझे ले जाएगा.’’

तकरीबन 6 महीने पहले कजरी के बापू दूसरे कबीले के साथ हुई एक लड़ाई में मारे गए थे. जब से कजरी के बापू की मौत हुई थी, तब से कबीले के सरदार का लड़का जग्गू कजरी के पीछे हाथ धो कर पड़ा था कि वह उस से शादी करे, मगर कजरी और उस की मां को वह बिलकुल भी पसंद नहीं था. काला रंग, मोटा सा, हर पल मुंह में पान डाले रखता.

जग्गू से दुखी हो कर एक रात कजरी और उस की अम्मां कबीले से निकल कर मुंबई शहर की तरफ चल पड़ीं. वे शहर तक पहुंचीं, तो उन से 2 शराबी टकरा गए.

लेकिन कजरी कहां किसी से डरने वाली थी, बस जमा दिए उन्हें 2-4 घूंसे, तो भागे वे तो सिर पर पैर रख कर.

जब यह सब खेल चल रहा था, सड़क के दूसरी ओर एक कार रुकी और जैसे ही कार में से एक नौजवान बाहर निकलने लगा, तो वह कजरी की हिम्मत देख कर रुक गया.

जब शराबी भाग गए, तो वह कार वाला लड़का ताली बजाते हुए बोला, ‘‘वाह, कमाल कर दिया. हर लड़की को आप की तरह शेरनी होना चाहिए. वैसे, मेरा नाम रोहित है और आप का…?’’

दोनों मांबेटी रोहित को हैरानी से देख रही थीं. कजरी ने कहा, ‘‘मेरा नाम कजरी है और ये मेरी अम्मां हैं.’’

‘‘कजरीजी, आप दोनों इतनी रात कहां से आ रही हैं और कहां जा रही हैं? आप जानती नहीं कि मुंबई की सड़कों पर रात को कितने मवाली घूमते हैं… चलिए, मैं आप को घर छोड़ देता हूं, वरना फिर कोई ऐसा मवाली टकरा जाएगा.’’

‘‘बाबूजी, हमारा घर नहीं है. हम मुंबई में आज ही आई हैं और किसी को जानती भी नहीं. बस, रहने का कोई ठिकाना ढूंढ़ रहे थे,’’ कजरी बोली.

‘‘ओह तो यह बात है… अगर आप लोगों को एतराज न हो, तो आप दोनों मेरे साथ मेरे घर चल सकती हैं. मेरे घर में मैं और रामू काका रहते हैं. आज रात वहीं रुक जाइए, कल सुबह जहां आप को सही लगे, चली जाइएगा. इस वक्त अकेले रहना ठीक नहीं,’’ रोहित ने अपनी बात रखी.

मजबूरी में दोनों मांबेटी रोहित के साथ चली गईं. कजरी ने अपने बारे में रोहित को सब बताया. रात उस के घर में गुजारी और सुबह जाने की इजाजत मांगी.

रोहित ने कजरी की अम्मां से कहा, ‘‘मांजी, आप जाना चाहें तो जा सकती हैं, लेकिन इस अनजान शहर में जवान लड़की को कहां ले कर भटकोगी… आप चाहो तो यहीं पर रह सकती हो. वैसे भी इतना बड़ा घर सूनासूना लगता है.’’

कजरी ने रोहित से पूछा, ‘‘आप अकेले क्यों रहते हैं? आप का परिवार कहां है?’’

‘‘मेरे मातापिता एक हादसे में मारे गए थे. रामू काका ने ही मुझे पाला है. अब तो यही मेरे सबकुछ हैं.’’

‘‘ठीक है बेटा, कुछ दिन हम यहां रह जाती हैं. पर, हम ठहरीं बंजारन, कहीं तुम्हें कोई कुछ बोल न दे…’’ कजरी की अम्मां ने बताया.

‘‘बंजारे क्या इनसान नहीं होते… आप ऐसा क्यों सोचती हैं… बस, आप यहीं रहेंगी… मुझे भी एक मां मिल जाएगी,’’ रोहित के जोर देने पर वे दोनों वहीं रहने लगीं.

रोहित ने कजरी को शहरी कपड़े पहनने और वहां के तौरतरीके सिखाए. कजरी को पढ़ने का भी शौक था, इसलिए रोहित ने घर पर ही टीचर का इंतजाम करा दिया.

इसी तरह 6 महीने बीत गए. अब कजरी पूरी तरह बदल चुकी थी. वह एकदम शहरी तितली बन गई थी.

वह थोडीबहुत इंगलिश बोलना भी सीख गई थी. अम्मां घर पर खाना वगैरह बना देती थी और कजरी ने रोहित के साथ औफिस जाना शुरू कर दिया था.

रोहित धीरेधीरे कजरी के नजदीक आने लगा था. कजरी का भी जवान खून उबाल मारने लगा था. वह रोहित की मेहरबानियों को प्यार समझ बैठी और अपना कुंआरापन उसे सौंप दिया.

एक दिन रोहित कजरी को एक बिजनैस मीटिंग में ले कर गया. जैसे ही मीटिंग खत्म हुई, रोहित ने कजरी को मीटिंग वाले आदमी के साथ जाने को कहा. साथ ही यह भी कहा, ‘‘तुम इन्हें खुश रखना और वापस आते हुए प्रोजैक्ट की फाइल लेती आना.’’

‘‘खुश रखना…? मतलब क्या है आप का? मैं आप से प्यार करती हूं. क्या आप मुझे किसी के भी साथ भेज दोगे?’’ कजरी ने हैरान हो कर पूछा.

कजरी की इस बात पर रोहित ठहाका लगा कर हंसा और बोला, ‘‘एक बंजारन और मेरी प्रेमिका? तुम ने यह सोचा भी कैसे? वह तो तुम्हारी खूबसूरती पर दिल आ गया था मेरा, इसलिए इस गुलाब की कली को बांहों में ले कर मसल दिया.

‘‘मैं ने तुम पर काफी खर्च किया है, अब उस के बदले में मेरा इतना भी हक नहीं कि कुछ तुम से भी कमा सकूं? तुम्हारी एक रात से मुझे इतना बड़ा काम मिलेगा, कम से कम तुम्हें एहसान? समझ तो जाना ही चाहिए न…’’

रोहित की इस तरह की बातें सुन कर कजरी आंखों में आंसू लिए चुपचाप उस शख्स के साथ चली गई, लेकिन अगले दिन वह अम्मां से बोली, ‘‘चलो, अपने कबीले वापस चलते हैं. बंजारन के लिए कोई राजकुमार पैदा नहीं होता…’’

अम्मां ने कजरी के भाव समझ कर चुपचाप चलने की तैयारी कर दी और वे दोनों रोहित को बिना बताए अपनी बस्ती की तरफ निकल गईं.

जरा सी आजादी: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

‘‘आखिर क्या कमी है जो तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा. तुम तो मुझे भी पागल कर के छोड़ोगी, नेहा. इतना समय नहीं है मेरे पास जो हर समय तुम्हारा ही चेहरा देखता रहूं.’’

एक कड़वी सी मुसकान चली आई नेहा के होंठों पर. बोली, ‘‘समय तो कभी नहीं रहा तुम्हारे पास. जब जवानी थी तब समय नहीं था, अब तो बुढ़ापा सिर पर खड़ा है जब अपने पेशे के शिखर पर हो तुम. इस पल तुम से समय की उम्मीद तो मैं कर भी नहीं सकती.’’

‘‘क्या चाहती हो? क्या छुट्टी ले कर घर बैठ जाऊं? माना आज बैठ भी गया तो कल क्या होगा. कल फिर तुम्हारा मन नहीं लगेगा, फिर क्या करोगी? कोई ठोस हल है?’’

तौलिया उठा कर ब्रजेश नहाने चले गए. आज एक मीटिंग भी थी. नेहा ने उन्हें जरूरी तैयारी भी करने नहीं दी. वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर वह चाहती क्या है. सब तो है. साडि़यां, गहने, महंगे साधन जो भी उन की सामर्थ्य में है सब है उन के घर में. अभी इकलौते बेटे की शादी कर के हटे हैं. पढ़ीलिखी कमाऊ बहू भी मिल चुकी है. जीवन के सभी कोण पूरे हैं, फिर कमी क्या है जो दिल नहीं लगता. बस, एक ही रट है, दिल नहीं लगता, दिल नहीं लगता. हद होती है हर चीज की.

जीवन के इस पड़ाव पर परेशान हो चुके हैं ब्रजेश. रिटायरमैंट को 3 साल रह गए हैं. कितना सब सोच रखा है, बुढ़ापा इस तरह बिताएंगे, उस तरह बिताएंगे. जीवनभर की थकान धीरेधीरे अपनी मरजी से जी कर उतारेंगे. आज तक अपनी इच्छा से जिए कब हैं? पढ़ाई समाप्त होते ही नौकरी मिल गई थी. उस के बाद तो वह दिन और आज का दिन.

पिताजी पर बहनों की जिम्मेदारी थी इसलिए जल्दी ही उन का सहारा बन जाना चाहते थे ब्रजेश. अपना चाहा कभी नहीं किया. पिता की बहनें और फिर अपनी बहनें… सब को निभातेनिभाते यह दिन आ गया. अपना परिवार सीमित रखा, सब योजनाबद्ध तरीके से निबटा लिया. अब जरा सुख की सांस लेने का समय आया है तो नेहा कैसी बेसिरपैर की परेशानी देने लगी है. नींद नहीं आती उसे, परेशान रहती है, अकेलेपन से घबराने लगी है. बारबार एक ही बात कहती है, उस का दिल नहीं लगता. उस का मन उदास होने लगा है.

कुछ दिन के लिए मायके भी भेज दिया था उसे. वहां से भी जल्दी ही वापस आ गई. पराए घर में वह थोड़े न रहेगी सारी उम्र. उस का घर तो यह है न, जहां वह रहती है. कुछ दिन बहू के पास भी रहने गई. वह घर भी अपना नहीं लगा. वह तो बहू का घर है न, वह वहां कैसे रह सकती है.

रिटायरमैंट के बाद एक जगह टिक कर बैठेंगे तब शायद साथसाथ रहने के लिए बड़ा घर ले लें. अभी जब तक नौकरी है हर 3-4 साल के बाद उन्हें तो शहर बदलना ही है. उस शहर में आए मात्र  4 महीने हुए हैं. यह नई जगह नेहा को पसंद नहीं आ रही. नया घर ही मनहूस लग रहा है.

‘‘अड़ोसपड़ोस में आओजाओ, किसी से मिलोजुलो. टीवी देखो, किताबें पढ़ो. अपना दिल तो खुद ही लगाना है न तुम्हें, अब इस उम्र में मैं तुम्हें दिल लगाना कैसे सिखाऊं,’’ जातेजाते ब्रजेश ने समझाया नेहा को.

हर रोज यही क्रम चलता रहता है. जीवन एकदम रुक जाता है जब ब्रजेश चले जाते हैं, ऐसा लगता है हवा थम गई है, इतनी भारी हो कर ठहर गई है कि सांस भी नहीं आती. छाती पर भी हवा ही बोझ बन कर बैठ गई है.

बेमन से नहाई नेहा, तौलिया सुखाने बालकनी में आई. सहसा आवाज आई किसी की.

‘‘नमस्कार, भाभीजी. इधर देखिए, ऊपर,’’ ताली बजा कर आवाज दी किसी ने.

नेहा ने आगेपीछे देखा, कोई नजर नहीं आया तो भीतर जाने लगी.

‘‘अरेअरे, जाइए मत. इधर देखिए न बाबा,’’ कह कर किसी ने जोर से सीटी बजाई.

सहसा ऊपर देखा नेहा ने. चौथे माले पर एक महिला खड़ी थी.

‘‘क्या हैं आप भी. इस उम्र में मुझ से सीटी बजवा दी. कोई अड़ोसीपड़ोसी देखता होगा तो क्या कहेगा, बुढि़या का दिमाग घूम गया है क्या. नमस्कार, कैसी हैं आप?’’

हंस रही थी वह महिला. नेहा से जानपहचान बढ़ाना चाह रही थी. कहां से आए हैं? नाम क्या है? पतिदेव क्या काम करते हैं?

‘‘आप से पहले जो इस फ्लैट में थे उन से मेरी बड़ी दोस्ती थी. उन का तबादला हो गया. आप से रोज मिलना चाहती हूं मैं, आप मिलती ही नहीं. वाशिंग मशीन पिछली बालकनी में रख लीजिए न. इसी बहाने सूरत तो नजर आएगी.

‘‘अरे, कपड़े धोते समय ही किसी का हालचाल पूछा जाता है. सारा दिन बोर नहीं हो जातीं आप? क्या करती रहती हैं? आज क्या कर रही हैं?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. आप आइए न मेरे घर.’’

‘‘जरूर आऊंगी. आज आप आ जाइए. एक बार बाहर तो निकल कर देखिए, आज मेरे घर किट्टी पार्टी है. सब से मुलाकात हो जाएगी.’’

कुछ सोचा नेहा ने. किट्टी डालना ब्रजेश को पसंद नहीं है. बिना किट्टी डाले वह कैसे चली जाए. चलती किट्टी में जाना अच्छा नहीं लगता.

‘‘आप मेरी मेहमान बन कर आइए न. इधर से घूम कर आएंगी तो फ्लैट नं. 22 सी नजर आएगा. चौथी मंजिल. जरूर आइएगा, नेहाजी.’’

हाथ हिला दिया नेहा ने. मन ही नहीं कर रहा था. साड़ी निकाल कर रखी थी कि चली जाएगी मगर मन माना ही नहीं, सो, वह नहीं गई. वह दिन बीत गया और भी कई दिन. एक शाम वही पड़ोसन दरवाजे पर खड़ी नजर आई.

‘‘आइए,’’ भारी मन से पुकारा नेहा ने.

‘‘अरे भई, हम तो आ ही जाएंगे जब आ गए हैं तो. आप क्यों नहीं आईं उस दिन? मन नहीं घबराता क्या? एक तरफ पड़ेपड़े तो रोटी भी जल जाती है. उसे भी पलटना पड़ता है. आप कहीं बाहर नहीं निकलतीं, क्या बात है? सामने निशा से पूछा था मैं ने, उस ने बताया कि आप उस से भी कभी नहीं मिलीं.’’

आने वाली महिला का व्यवहार नेहा को इतना अपनत्व भरा लगा कि सहसा आंखें भर आईं. रोटी भी एक ही तरफ पड़ेपड़े जल जाती है तो वह भी जल ही तो गई है न. क्या फर्क है उस में और एक जली रोटी में. जली रोटी भी कड़वी हो जाती है और वह भी कड़वी हो चुकी है. हर कोई उस से परेशान है.

‘‘नेहाजी, क्या बात है? कोई परेशानी है?’’

गरदन हिला दी नेहा ने, न ‘न’ में न ‘हां’ में. कंधे पर हाथ रखा उस ने. सहसा रोना निकल गया. उस के साथ ही चली आई वह भीतर.

‘‘घर इतना बंदबंद क्यों रखा है? खिड़कियांदरवाजे खोलो न. ताजी हवा अंदर आने दो. उस दिन आईं क्यों नहीं?’’ सहसा थोड़ा रुक कर पूछा.

आंखें मिलीं नेहा से. भीगी आंखों में न जाने क्या था, न कुछ कहा न कुछ सुना. नेहा ने नहीं, शायद आने वाली महिला ने ही एक नाता सा बांध लिया.

‘‘मेरा नाम शुभा है. तुम मुझे जैसे चाहो पुकार सकती हो. दीदी कहो, भाभी कहो, नाम भी ले सकती हो. मेरी उम्र 53 साल है, हिसाब लगा लो, कैसे बुलाना चाहती हो. तुम छोटी लग रही हो मुझ से.’’

‘‘जी, मेरी उम्र 50 साल है.’’

‘‘वैसे किसी खूबसूरत महिला से उस की उम्र पूछनी तो नहीं चाहिए थी मगर महिला तुम जैसी हो तो कहना ही क्या, जो खुद अपने को 50 की बता रही हो. तुम इतनी बड़ी तो नहीं लगती हो. मैं नाम ले कर पुकारूं? नेहा पुकारूं तुम्हें?’’

‘‘जी, जैसा आप को अच्छा लगे.’’

‘‘मुझे अच्छा लगे क्यों. तुम्हें क्या अच्छा लगता है, यह तो बताओ.’’

चुप रही नेहा. शुभा ने कंधे पर हाथ रखा. झिलमिलझिलमिल करती आंखों में ढेर सारा नमकीन पानी शुभा को न जाने क्याक्या बता गया.

‘‘जो तुम्हें अच्छा लगे मैं वही पुकारूंगी तुम्हें. तुम से पहले जो इस घर में रहती थी उस से मेरा बहुत प्यार था. यह घर मेरे लिए पराया नहीं है, उसी अधिकार से चली आई हूं. मीरा नाम था उस का जो यहां रहती थी. बहुत प्यारी सखी थी वह मेरी. तुम भी उतनी ही प्यारी हो. जरा दरवाजे- खिड़कियां तो खोलो.’’

‘‘उन को दरवाजेखिड़कियां खोलना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘उन को किसी के साथ हंसनाबोलना भी पसंद है कि नहीं? उस दिन तुम किट्टी पार्टी में भी नहीं आईं.’’

‘‘उन्हें किट्टी डालना पसंद नहीं.’’

‘‘तुम्हारे बच्चे कहां हैं. बाहर होस्टल में पढ़ते हैं क्या?’’

‘‘एक ही बेटा है. अभी 4 महीने पहले ही उस की शादी हुई है.’’

‘‘अरे वाह, सास हो तुम. सास हो कर भी उदास हो. भई, बहू को 2-4 जलीकटी सुनाओ, अपनी भड़ास निकालो और खुश रहो. टीवी सीरियल में यही तो सिखाते हैं. शादी होती है, उस के बाद एक तो रोती ही रहती है, या बहू रुलाती है या सास. तुम्हारे यहां क्या सीन है?’’

‘‘मैं तो यहां अकेली हूं. बहू आगरा में है. दूरदूर रहना है जब, तब लड़ाई कैसी?’’

‘‘बहू तुम ने पसंद की थी या भाईसाहब ने?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. उन दोनों ने ही एकदूसरे को पसंद कर लिया था.’’

‘‘चलो, मेहनत कम हुई. मुझे तो अपने बच्चों के लिए साथी ही ढूंढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी. कहीं परिवार अच्छा नहीं था, कहीं लड़की पसंद नहीं आती थी.’’

शुभा ने धीरेधीरे घर की खिड़कियां खोलनी शुरू कर दीं. ताजी हवा घर में आने लगी.

‘‘आज खाने में क्या बनाया था तुम ने?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ नहीं, मतलब. भूखी हो सुबह से? अभी शाम के 6 बज रहे हैं. तुम ने कुछ भी खाया नहीं है.’’

शुभा ने हाथ पकड़ा नेहा का. रोक कर रखा बांध बह निकला. एक अनजान पड़ोसन के गले लग नेहा फूटफूट कर रो पड़ी. शुभा भी उस का माथा सहलाती रही.

‘‘चलो, तुम्हारी रसोई में चलें. बेसन है न घर में. पकौड़े बनाते हैं. आटा तो गूंध रखा होगा, चपाती के साथ पकौड़े और गरमगरम चाय पीते हैं.’’

आननफानन ही सब हो गया. आधे घंटे के बाद ही दोनों मेज पर बैठी चाय पी रही थीं.

‘‘क्यों इतना उदास हो, नेहा? खुश होना चाहिए तुम्हें. नए शहर में आई हो, उदासी स्वाभाविक है, मैं मानती हूं मगर इतनी नहीं कि भूखे ही मरने लगो. एक ही बच्चा है जिसे पालपोस दिया, उस का घर बसा दिया. तुम्हारा कर्तव्य पूरा हो गया, और क्या चाहिए?’’

‘‘बहुत खालीपन लगता है, दीदी. जी चाहता है कि अपने साथ कुछ कर लूं. जीवन और क्यों जीना, अब क्या करना है मुझे, किसे मेरी जरूरत है?’’

‘‘अपने साथ कुछ कर लूं, क्या मतलब?’’ शुभा का स्वर तनिक ऊंचा हो गया.

‘‘कुछ खा कर मर जाऊं.’’

‘‘क्या?’’ अवाक् रह गई शुभा. अनायास उस के सिर पर चपत लगा दी.

‘‘पागल हो क्या. अपने परिवार और अपनी बहू को सजा देना चाहती हो क्या? मर कर उन का क्या बिगाड़ लोगी. तुम्हें क्या लगता है वे उम्रभर रोते रहेंगे? जो जाएगा तुम्हारा जाएगा, किसी का क्या जाएगा.

खालीपन लगता है तो क्या मर कर भरोगी उसे? पति, बेटा और बहू के सिवा भी तुम्हारे पास कुछ है, नेहा. तुम्हारे पास तुम हो, अपनी इज्जत करना सीखो. पति को खिड़की खोलना पसंद नहीं तो तुम खिड़कीदरवाजे बंद कर के बैठी हो. पति को किट्टी डालना पसंद नहीं तो उस दिन तुम मेरे घर ही नहीं आईं. इतना कहना क्यों मान रही हो कि घुट कर मर जाओ?’’

‘‘शुरू से… शुरू से ऐसा ही है. मैं चाहती थी दूसरा बच्चा हो, ये माने ही नहीं. जीवन में मैं ने तो कभी सांस भी खुल कर नहीं ली. सोचा था मनपसंद लड़की को बहू बना कर लाऊंगी, सोचा था बेटी की इच्छा पूरी हो जाएगी. बेटे ने अपनी पसंद की ढूंढ़ ली. मेरी पसंद मन में ही रह गई.’’

‘‘अच्छा किया बेटे ने. अपनी पसंद से तो जी रहा है न. क्या चाहती हो कि आज से 20-30 साल बाद वह भी वही भाषा बोले जो आज तुम बोल रही हो. तुम आज कह रही हो न अपने तरीके से जी नहीं पाई, क्या चाहती हो कि तुम्हारा बच्चा भी तुम्हारी तरह अपना जीवन खालीपन से भरा पाए. अपनी पसंद से जी नहीं पाई और मर जाना चाहती हो. क्या तुम्हारा बच्चा भी…’’

‘‘नहीं… नहीं तो दीदी,’’ सहसा जैसे कुछ कचोटा नेहा को, ‘‘मेरे बच्चे को मेरी उम्र भी लग जाए.’’

‘‘अपने बच्चे को अपनी उम्र देना चाहती हो लेकिन चैन से जीने देना नहीं चाहती. कैसी मां हो? मर कर उम्रभर का अपराधबोध देना चाहती हो. तुम तो मर कर चली जाओगी लेकिन तुम्हारा परिवार चेहरे पर प्रश्नचिह्न लिए उम्रभर किसकिस के प्रश्न का उत्तर देता रहेगा. अरे, मन में जो है आज ही कह कर भड़ास निकाल लो. सुन लो, सुना दो, किस्सा खत्म करो और जिंदा रहो.’’

सहसा शुभा का हाथ नेहा के हाथ पर पड़ा. कलाई में रूमाल बांध रखा था नेहा ने.

‘‘यह क्या हुआ, जरा दिखाना तो,’’ झट से रूमाल खींच लिया. हाथ सीधा किया, ‘‘अरे, यह क्या किया? यहां काटा था क्या? कब काटा था? ताजे खून के निशान हैं. क्या आज ही काटा? क्या अभी यही काम कर रही थीं जब मैं आई थी?’’

काटो तो खून नहीं रहा शुभा में. यह क्या देख लिया उस ने. यह अनजानी औरत जिस से वह पड़ोसी धर्म निभाने चली आई, क्या भरोसे लायक है? अभी अगर इस के जाने के बाद इस ने यह असफल प्रयास सफल बना लिया तो क्या से क्या हो जाएगा? आत्महत्या या हत्या, इस का निर्णय कौन करेगा? वही तो होगी आखिरी इंसान जो नेहा से मिली. कहीं उसी पर कोई मुसीबत न आ जाए.

‘‘नहीं तो दीदी. चूड़ी टूट कर लग गई थी.’’

‘‘भाईसाहब वापस कब आते हैं औफिस से?’’

‘‘वे तो 9-10 बजे से पहले नहीं आते. आजकल ज्यादा काम रहता है, मार्च का महीना है न.’’

‘‘तुम चलो मेरे साथ, मेरे घर. जब वे आएंगे, तुम्हें उधर से ही लेते आएंगे. तुम अकेली मत रहो.’’

‘‘मैं तो पिछले कई सालों से अकेली हूं. अब थक गई हूं. एक ही बेटे में सब देखती रही. आज वह भी मुझे एक किनारे कर पराई लड़की का हो गया. मैं खाली हाथ रह गई हूं, दीदी. पति तो पहले ही अपने परिवार के थे. मेरी इच्छा उन के लिए न कल कोई मतलब रखती थी न आज रखती है. बेटा अपनी पत्नी की इच्छा पर चलता है, पति अपने तरीके से चलते हैं. दम घुटता है मेरा. सांस ही नहीं आती. इन से कुछ कहती हूं तो कहते हैं, मेरा घर है, जैसा मैं कहता हूं वैसा ही होगा. बहू का घर उस का घर होना ही चाहिए. तो फिर मेरा घर कहां है, दीदी?

‘‘मायके जाती हूं तो वहां लगता है यह भाभी का घर है. वहां मन नहीं लगता. पति कहते हैं कि क्या कमी है, साडि़यां हैं, गहने हैं. भला साडि़यां, गहनों से क्या कोई सुखी हो जाता है? मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. मैं तो अपने घर में एक पत्ता भी हिला नहीं सकती. यह सोफासैट इधर से उधर कर लूंगी तो भी तूफान आ जाएगा. बेजान गुडि़या हूं मैं, जिसे चूं तक करने का अधिकार नहीं है.’’

अवाक् रह गई शुभा. नेहा की परेशानी समझ रही थी वह. इस की जगह अगर वह भी होती तो शायद उस की भी यही हालत होती.

‘‘कल सोफासैट से ही शुरुआत करते हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि अभी खिड़कियां खोली हैं न. इन्हें आज बंद मत करना. कहना मेरा दम घुटता है इसलिए इन्हें बंद मत करो. थोड़ा सा विरोध भी करो. कल बाई के साथ मिल कर जरा सा सामान अपनी मरजी से सजाना. कुछ कहेंगे तो कहना, तुम्हें इसी तरह अच्छा लगता है. अपनी भी कहना सीखो, नेहा. कई बार ऐसा भी होता है, हम ही अपनी बात नहीं कहते या हम ही अपनी इच्छा का सम्मान किए बिना दूसरे की हर इच्छा मानते चले जाते हैं, जिसे सामने वाला हमारी हां ही मानता है. इस में उन का भी क्या दोष.

‘‘इतने सालों में तुम ने अपने पति को कभी ‘न’ नहीं कहा और उन का अधिकार क्षेत्र तुम्हारी सांस तक पहुंच गया. 12 घंटे तुम इस बंद घर में इतनी भी हिम्मत नहीं कर सकती कि खिड़कियां ही खोल पाओ. जिंदा इंसान हो, तुम कोई मृत काया नहीं जिसे ताजी हवा नहीं चाहिए. सारा दोष तुम्हारा अपना है, तुम्हारे पति का नहीं. जिस की सांस घुटती है, विरोध भी उसी को करना पड़ता है. 4 दिन घर में अशांति होगी, होने दो मगर अपना जीवन समाप्त मत करो. शांति पाने के लिए कभीकभी अशांति का सहारा भी लेना पड़ता है. तुम्हारे पति को परेशानी तो होगी क्योंकि उन्होंने कभी तुम्हारी ‘न’ नहीं सुनी. इतने बरसों में न की गई कितनी सारी ‘न’ हैं जिन का उन्हें एकसाथ सामना करना होगा. अब जो है सो है. तब नहीं तो अब सही, जब जागे तभी सवेरा. अपना घर अपने तरीके से सजाओ.’’

नेहा आंखें फाड़े उस का चेहरा देखती रही.

‘‘घर में वह सामान जो बेकार पड़ा है, सब निकाल दो. कबाड़ी वाला मैं ले आऊंगी. गति दो हर चीज को. तुम भी रुकी पड़ी हो, सामान भी रुका पड़ा है. तुम मालकिन हो घर की, जैसा चाहो, सजाओ.’’

‘‘वही तो मैं भी सोचती हूं.’’

‘‘कुछ भी गलत नहीं सोचती हो तुम. इस घर में पतिदेव सिर्फ रात गुजारते हैं. तुम्हें तो 24 घंटे गुजारने हैं. किस की मरजी चलनी चाहिए?’’

शुभा को नेहा के चेहरे का रंग बदलाबदला नजर आया. आंखों में बुझीबुझी सी चमक, जराजरा हिलती सी नजर आई.

‘‘अच्छा, भाईसाहब का बिजनैस कार्ड देना जरा. मेरे पतिदेव को इनकम टैक्स की कोई सलाह लेनी थी. तुम चलो, अभी मेरे साथ. आज 31 मार्च है न. क्या पता रात के 12 ही बज जाएं. जब आएंगे, तुम्हें बुला लेंगे. अरे, फोन पर बात कर लेंगे न हम,’’ कहते हुए शुभा उस का हाथ थाम चलने के लिए खड़ी हो गई.

नेहा के ढेर सारे प्रतिरोध थे जिन्हें शुभा ने माना ही नहीं. हाथ पकड़ कर अपने साथ अपने घर ले आई और ड्राइंगरूम में बैठा दिया. नेहा ने देखा कमरा पूरी तरह से व्यवस्थित था.

‘‘आराम से बैठो. आजकल मेरे पतिदेव भी किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. मैं भी अकेली ही हूं. अगर भाईसाहब ज्यादा देर से आएं तो तुम यहीं सो जाना.’’

‘‘सोना क्या है, दीदी. मुझे तो सोए हुए हफ्तों बीत चुके हैं. जागना ही है. यहां जागूं या वहां जागूं.’’

‘‘तो अच्छी बात है न. हम गपशप करेंगे.’’ शुभा ने हंस कर उत्तर दिया.

उस के बाद शुभा ने टीवी चालू कर दिया पर नेहा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. किताबें लगी थीं रैक में. उस का ध्यान उधर ही था. नेहा की कटी कलाई पर शुभा की पूरी चेतना टिक चुकी थी. अगर वह उस के घर न गई होती तो क्या नेहा अपनी कलाई काट चुकी होती? उस के पति तो शायद रात 12 बजे आ कर उस का शव ही देख पाते. संयोग ही तो है हमारा जीवन.

वह भी आराम करने के लिए लेट ही चुकी थी. पता नहीं क्या हुआ था उसे जो वह सहसा उस के घर जाने को उठ पड़ी थी. शायद वक्त को नेहा को बचाना था इसलिए शुभा तुरंत उठ कर नेहा के घर पहुंच गई. शुभा ने घंटी बजा दी. शायद उसी पल नेहा का क्षणिक उन्माद चरम सीमा पर था.

क्षणिक उन्माद ही तो है जो मानवीय और पाशविक दोनों ही तरह के भावों के लिए जिम्मेदार है. क्षणिक सुख की इच्छा ही बलात्कारी बना डालती है और क्षणिक उन्माद ही हत्या और आत्महत्या तक करवा डालता है. कितना अच्छा हो अगर मनुष्य चरमसीमा पर पहुंच कर भी स्वयं पर काबू पा ले और अमूल्य जीवन नष्ट न हो. न हमारा न किसी और का.

रात 11:30 बजे नेहा के पति आए और उसे ले गए. विचित्र धर्मसंकट में थी शुभा. नेहा की हरकत उस के पति को बता दे तो शायद वे उस की मनोस्थिति की गंभीरता को समझें. कैसे समझाए वह उस के पति को कि उस की पत्नी की जान को खतरा है. किसी के घर का निहायत व्यक्तिगत मसला अनायास ही उस के सामने चला आया था जिस से वह आंखें नहीं मूंद पा रही थी. जीवनमरण का प्रश्न हो जहां वहां क्या अपना और क्या पराया.

दूसरे दिन करीब 11-12 बजे शुभा ने नेहा के घर पर कई बार फोन किया पर नेहा ने फोन नहीं उठाया. विचित्र सी कंपकंपी उस के शरीर में दौड़ गई. किसी तरह अपना घर बंद किया और भागीभागी नेहा के घर पहुंची. बेतहाशा उस के घर की घंटी बजाई.

दरवाजा खुला और सामने उस के पति खड़े थे. अस्तव्यस्त कपड़ों में. नाराजगी थी उन के चेहरे पर. शायद उस ने ही बेवक्त खलल डाल दिया मगर सच तो सच था जिसे वह छिपा नहीं पाई थी.

‘‘आप घर पर होंगे, मुझे पता नहीं था. फोन क्यों नहीं उठाते आप? मैं समझी उस ने कुछ कर लिया. आप उस का खयाल रखिएगा. माफ कीजिएगा, कहां है नेहा?’’

सांस धौंकनी की तरह चल रही थी शुभा की. मन भर आया  था. पता चला, नेहा को नींद की दवा दे कर सुलाया है. आदि से अंत तक शुभा ने सब बता दिया ब्रजेश को. काटो तो खून नहीं रहा ब्रजेश में.

‘‘इसीलिए मैं कल अपने साथ ले गई थी. आप ने उस का घाव देखा क्या?’’

‘‘हां, देखा था मगर हैरान था कि सोने की चूड़ी से हाथ कैसे कट गया. कांच की चूड़ी तो उस ने कभी पहनी ही नहीं,’’ धम्म से बैठ गए ब्रजेश, ‘‘क्या करूं मैं इस का?’’

नजर दौड़ाई शुभा ने. सब खिड़कियां बंद थीं, जिन्हें कल खोला था.

‘‘बुरा न मानें तो मैं एक सुझाव दूं. आप उसे उस की मरजी से जीने दें कुछ दिन. जैसा वह चाहे उसे करने दें.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है उसे. वह जो चाहे करे.’’

‘‘ये खिड़कियां कल खुलवाई थीं मैं ने, आप ने शायद आते ही पहला काम इन्हें बंद करने का किया होगा. क्या आप ने सोचा, शायद उसे ताजी हवा पसंद हो?’’

‘‘अरे, खुली खिड़की से अंदर का नजर आता है.’’

‘‘क्या नजर आता है. आप की पत्नी कोई अपार सुंदरी है क्या जिसे देखने को सारा संसार खिड़की से लगा खड़ा है. अरे, जिंदा इंसान है वह, जिसे इतना भी अधिकार नहीं कि ताजी हवा ही ले सके. परदे हैं न…उसे उस के मन से करने दीजिए कुछ दिन. वह ठीक हो जाएगी. उस का दम घुट रहा है, जरा समझने की कोशिश कीजिए. नींद की दवा खिलाखिला कर सुलाने से उस का इलाज नहीं होगा. उसे जागी हालत में वह करने दीजिए जिस से उसे खुशी मिले,’’ स्वर कड़वाहट से भर उठा था शुभा का, ‘‘उस के मालिक मत बनिए. साथी बनिए उस के.’’

ब्रजेश सकपका से गए शुभा के शब्दों पर.  शुभा बोलती रही, ‘‘आप समझदार हैं. 55 साल तक पहुंचा इंसान बच्चा नहीं होता, जिसे कान पकड़ कर पढ़ाया जाए. अपनी गृहस्थी उजाड़ना नहीं चाहते तो एक बार नेहा का चाहा भी कर के देखिए. बताना मेरा फर्ज था और इंसानी व्यवहार भी. मैं चाहती हूं आप का घर फलेफूले. मैं चलती हूं.’’

ब्रजेश सकपकाए से खड़े रहे और शुभा घर लौट आई, पूरा दिन न कुछ खापी सकी न ठीक से सो सकी. नेहा एक प्रश्न बन कर सामने चली आई है जिस का उत्तर उसे पता तो है मगर लिख नहीं सकती. किसी का जीवन उस के हाथ का पन्ना नहीं है न, जिस पर वह सही या गलत कुछ भी लिख सके. उत्तर उसे शायद पता है मगर अधिकार की स्याही नहीं है उस के पास. क्या होगा नेहा का?

आत्महत्या का प्रयास भी तो एक जनून है जिसे अवसादग्रस्त इंसान बारबार कार्यान्वित करता है. बच जाने की अवस्था में उसे और अफसोस होता है कि वह बच क्यों गया? जीने में भी असफल रहा और अब मरने में भी असफल. जब वह फिर प्रयास करता है तब असफल हो जाने के सारे कारण बड़ी समझदारी से निबटा देता है. शुभा को डर है कि अब अगर नेहा ने कोई दुस्साहस फिर किया तो शायद सफल हो जाए.

‘‘मेरी मरजी, मेरी इच्छा, मेरी सोच, अजीब तो है ही. मेरा घर कहीं नहीं है, दीदी. शादी से पहले अपना घर सजाने का प्रयास करती थी तो मां कहती थीं, अभी पढ़ोलिखो. सजा लेना अपना घर जब अपने घर जाओगी. शादी कर के आई तो ब्रजेश ने ढेर सारी जिम्मेदारियां दिखा दीं. एक बेटी की इच्छा थी, वह भी पूरी नहीं होने दी ब्रजेश ने. पिता की बेटियों को निभातेनिभाते अपनी बेटी के लिए कुछ बचा ही नहीं. अब इस उम्र में कुछ बचा ही नहीं है जिसे कहूं, यह मेरा शौक है. मेरा घर तो सब का घर ही सजाने में कहीं खो गया. बच गया है कबाड़खाना, जिसे हर 3 साल के बाद ब्रजेश ढो कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाते हैं.’’

मन भर आया शुभा का.

‘‘मन भर गया है, दीदी. अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चलो, पहले इस कागज पर लिखो तो सही, क्या बदलना चाहती हो. ब्रजेश ने मुझे कहा है न कि मैं तुम्हारी सहायता करूं. वे कुछ कहेंगे तो मुझे बताना. इल्जाम मुझ पर लगा देना, कहना कि मैं ने कहा था बदलने को.’’

सोमवार को ब्रजेश 3 दिन के लिए बाहर गए और सचमुच नेहा को साथ नहीं ले गए. शुभा ने वास्तव में नेहा का घर बदल दिया.

पुराने सारे बरतन निकाल दिए और थोड़े से पैसे और डाल कर रसोई चमचमा गई. 10 हजार रुपए का लोहाकबाड़ बिक गया जिस में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवेव आ गया. रद्दी सामान और पुराना फर्नीचर निकाला जिस में छोटा सा कालीन नए परदे और 2 नई चादरें आ गईं.

3 दिन से दोनों रोज बाजार आजा रही थीं और इस बीच शुभा बड़ी गहराई से नेहा में धीरेधीरे जागता उत्साह देख रही थी. उस ने चुनचुन कर अपने घर का सामान खरीदा, कटोरियां, प्लेटें, गिलास, चम्मच, दालों के डब्बे, मसालों की डब्बियां, रंगीन परदे, लुभावना कालीन, सुंदर चादरें, चार चूल्हों वाली गैस, सुंदर फूलों की झालरें, छोटा सा माइक्रोवेव, सुंदर तोरण और बंदनवार.

हर रात या तो शुभा उस के घर सोती थी या उसे अपने घर पर सुलाती थी. घर सज गया नेहा का. बुझीबुझी सी रहने वाली नेहा अब कहीं नहीं थी. मुसकराती, अपना घर सजा कर बारबार खुश होती नेहा थी जिस की दबी हुई छोटीछोटी खुशियां पता नहीं कहांकहां से सिर उठा रही थीं. बहुत छोटीछोटी सी थीं नेहा की खुशियां. बाहर बालकनी में चिडि़यों का घर और उन के खानेपीने के लिए मिट्टी के बरतन, बालकनी में बैठ कर चाय पीने के लिए 4 प्लास्टिक की कुरसियां और मेज.

‘‘दीदी, वे नाराज तो नहीं होंगे न?’’

‘‘उन के लिए भी कुछ ले लो न. कोई शर्ट या टीशर्ट या पाजामाकुरता. कुछ बहू के लिए भी तो लो. बेटी की इच्छा पूरी तो हो चुकी है तुम्हारी. वह तुम्हारी बच्ची है न. उसे भी अच्छा लगेगा जब तुम उस के लिए कुछ लोगी. तुम्हें शौक पूरे करने को कुछ नहीं मिला क्योंकि जिम्मेदारियां थीं. तुम बहू का शौक तो पूरा कर दो. अब क्या जिम्मेदारी है? जो तुम्हें नहीं मिला कम से कम वह अपनी बहू को तो दे दो.’’

‘‘उसे पसंद आएगा, जो मैं लाऊंगी?’’

‘‘क्यों नहीं आएगा. मेरे पास कुछ रुपए हैं. मुझ से ले लो.’’

‘‘अपने हाथ से इतने रुपए मैं ने कभी खर्च ही नहीं किए. अजीब सा लग रहा है. पता नहीं, क्याक्या सुनना पड़ेगा जब ब्रजेश आएंगे. दीदी, आप पास ही रहना जब वे आएंगे.’’

‘‘कितने पैसे खर्च किए हैं तुम ने? कबाड़खाने से ही तो सारे पैसे निकल आए हैं. जो रुपए ब्रजेश दे कर गए थे उस से ब्रजेश के लिए और बच्चों के लिए कुछ ले लो. टीशर्ट और शर्ट खरीद लो, बहू के लिए कुरती ले लो, आजकल लड़कियां जींस के साथ वही तो पहनती हैं.’’

बुधवार की शाम ब्रजेश आने वाले थे. बड़े उत्साह से घर सजाया नेहा ने. चाय के साथ पकौड़ों का सामान तैयार रखा. रात के लिए मटरपनीर और दालमखनी भी रसोई में ढकी रखी थी. शुभा के लिए भी एक प्रयोग था जिस का न जाने क्या नतीजा हो. पराई आग में जलना उस का स्वभाव है. आज पराया सुख उसे सुख देगा या नहीं, इस पर भी वह कहीं न कहीं आश्वस्त नहीं थी. पुरानी आदतें इतनी जल्दी साथ नहीं छोड़तीं, पत्नी को दी गई आजादी कौन जाने ब्रजेश सह पाते हैं या नहीं?

द्वारघंटी बजी और शुभा ने ही दरवाजा खोला. ब्रजेश के साथ शायद बेटा और बहू भी थे. बड़े प्यारे बच्चे थे दोनों. उसे देख दोनों मुसकराए और झट से पैर छूने लगे.

‘‘आप शुभा आंटी हैं न. पापा ने बताया सब. मम्मी खुश हैं न?’’ बहुत धीरे से बुदबुदाया वह लड़का.

एक ही प्रश्न में ढेर सारे प्रश्न और आंखों में भी बेबसी और डर. कुछ खो देने का डर. मंदमंद मुसकरा पड़ी शुभा. ब्रजेश आंखें फाड़फाड़ कर अपना सुंदर सजा घर देख रहे थे. आभार था जुड़े हाथों में, भीग उठी पलकों में, शायद आत्मग्लानि की पीड़ा थी. ऐसा क्या ताजमहल या कारूं का खजाना मांगा था नेहा ने. छोटीछोटी सी खुशियां ही तो और कुछ अपनी इच्छा से कर पाने की आजादी.

‘‘नेहा, देखो तुम्हारी बेटी आई है,’’ शुभा ने आवाज दी.

पलभर में सारा परिवार एकसाथ हो गया. नेहा भागभाग कर उन के लिए संजोए उपहार ला रही थी. बेटे का सामान, बहू का सामान, ब्रजेश का सामान.

‘‘मम्मी, आप ने घर कितना सुंदर सजाया है. परदे और कालीन दोनों के रंग बहुत प्यारे हैं. अरे, बाहर चिडि़या का घर देखो, पापा. पापा, चाय बाहर बालकनी में पिएंगे. बड़ी अच्छी हवा चल रही है बाहर. पूरा घर कितना खुलाखुला लग रहा है.’’

नेहा की बहू जल्दी से कुरती पहन भी आई, ‘‘मम्मी, देखो कैसी है?’’

‘‘बहुत सुंदर है बच्चे. तुम्हें पसंद आई न?’’

धन्यवाद देने हेतु बहू ने कस कर नेहा के गाल चूम लिए. ब्रजेश मंत्रमुग्ध से खड़े थे. अति स्नेह से उस के सिर पर हाथ रख पूछा, ‘‘अपने लिए क्या लिया तुम ने, नेहा?’’

‘‘अपने लिए?’’ कुछ याद करना चाहा. क्या याद आता, उस ने तो बस घर सजाया था, अपने लिए अलग कुछ लेती तो याद आता न. बस, गरदन हिला कर बता दिया कि अपने लिए कुछ नहीं लिया.

‘‘देखो, मैं लाया हूं.’’

बैग से एक सूती साड़ी निकाली ब्रजेश ने. तांत की क्रीम साड़ी और उस का खूब चौड़ा लाल सुनहरा बौर्डर.

शुभा को याद आया ब्रजेश को सूती साड़ी पहनना पसंद नहीं जबकि नेहा की पहली पसंद है कलफ लगी सूती साड़ी. खुशी से रोने लगी नेहा. ब्रजेश जानबूझ कर 3 दिन के लिए आगरा बेटे के पास चले गए थे. पलपल की खबर विजय और शुभा से ले रहे थे. शुभा की तरफ देख आभार व्यक्त करने को फिर हाथ जोड़ दिए. अफसोस हो रहा था उन्हें. क्यों नहीं समझ पाए वे, खुशी भारी साड़ी या भारी गहने में नहीं, खुशी तो है खुल कर सांस लेने में. छोटीछोटी खुशियां जो वे नेहा को नहीं दे पाए.

तराई : कैसी था मकान मालिक

शहर से दूर बस रही सैटेलाइट कालोनी में शानदार कोठी बन रही थी. मिक्सर मशीन की तेज आवाज के बीच में मजदूर काम में लगे हुए थे. उन में जवान, अधेड़ उम्र के आदमी और औरतें थीं. उन में जवानी की दहलीज पर खड़ी एक लड़की भी थी. वह सिर पर ईंटें ढो रही थी. तराई भी हो रही थी, इसलिए उस के गीले बदन से जवानी  झांक रही थी.

बनते हुए मकान के सामने ठेकेदार खड़ा हो कर उस जवान होती लड़की की तरफ देखते हुए चिल्ला कर कह रहा था, ‘‘जल्दीजल्दी काम करो.’’

ठेकेदार के पास ही मकान मालिक खड़ा था, जो बहुत बड़ा अफसर था. ठेकेदार को उम्मीद थी कि साहब उसे दूसरे कामों के ठेके भी दिलाएंगे इसलिए उन्हें खुश करने का वह कोई मौका नहीं छोड़ता था.

ठेकेदार ने मकान मालिक की तरफ देखा तो उस को जवान होती मजदूर लड़की की तरफ देखते हुए पाया. मकान मालिक ने सब को सुना कर जोर से कहा, ‘‘मकान की तराई अच्छी तरह से कराना, तभी मकान मजबूत होगा.’’

ठेकेदार ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप बिलकुल चिंता न करें साहब, इस काम में अच्छी लड़की को लगाऊंगा.’’

ठेकेदार ने काम की देखभाल करने वाले सुपरवाइजर को इशारे से अपने पास बुला कर उस के कान में कुछ कहा.

सुपरवाइजर ने सहमति से सिर हिलाया. उस ने जा कर ईंट ढोती लड़की को कहा, ‘‘आज से मकान की तराई का काम तू करेगी.’’

यह सुन कर वह मजदूर लड़की खुश हो गई क्योंकि तराई का काम सब से हलका होता है. उस ने तुरंत ईंटों का तसला नीचे रख पानी का पाइप उस मजदूर लड़के से ले कर दीवार के प्लास्टर पर पानी छिड़कना शुरू कर दिया.

मकान मालिक ने 5 सौ का नोट निकाल कर सुपरवाइजर को दिया और मजदूरों को नाश्ता कराने को कहा. वह तराई करने वाली लड़की का ध्यान रखने की कह कर उस लड़की को देखने लगा. किसी भी मजदूर लड़की को फांसने का यह एक तरीका था कि उसे हलका काम खासकर मकान में तराई का काम दे दिया जाता था.

यह एक जाल होता था जिस में जवान होती मजदूर लड़की के फंसने की उम्मीद ज्यादा होती थी. मिक्सर मशीन में सीमेंट, रेत, पानी और वाटरप्रूफ कैमिकल की मिक्सिंग के साथ कितनी गरीब मजदूर लड़कियों की इज्जत भी मिक्स हो जाती थी और यह आलीशान मकानों में रहने वालों को पता भी नहीं चलता होगा.

दुनियादारी को कुछ सम झने और कुछ नासम झने वाली लड़की खुशीखुशी तराई का काम कर रही थी. उसे मालूम नहीं था कि ठेकेदार और मकान मालिक उस पर इतने मेहरबान क्यों हो रहे हैं.

उस मजदूर लड़की को रोजाना चायनाश्ते की खास सुविधा और काम के बीच में बैठ कर आराम करने की छूट मिली हुई थी और काम भी क्या था, पानी का पाइप पकड़ कर दीवारों और फर्श पर दिन में 3 बार पानी से तराई करना.

ठेकेदार और मकान मालिक को कोई जल्दी नहीं थी. वे जानते थे कि सब्र का फल मीठा होता है.

एक हफ्ते बाद मकान मालिक ने दोमंजिला बनते मकान के किसी सूने कमरे में तराई करती उस लड़की का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तुम्हें बहुत मेहनत करनी पड़ती है. तुम को कोई परेशानी हो तो मु झे बताना,’’ और धीरे से उस की पीठ पर हाथ फेरने की कोशिश करने लगा.

लड़की चौंकते हुए डर कर पीछे हट गई. उस ने मकान मालिक की आंखों में ऐसा कुछ देखा जो उसे ठीक नहीं लगा. पानी में भीगा उस का बदन ठंड और डर से कांप रहा था. उस के मुंह से आवाज भी नहीं निकल पा रही थी. पानी का पाइप उस के हाथ से छूट कर कंक्रीट से बने फर्श पर बह रहा था. उस ने कमरे से निकलने की कोशिश की, पर बिना दरवाजे के उस कमरे में निकलने के रास्ते पर मकान मालिक खड़ा था.

मकान मालिक पुराना खिलाड़ी था. उस ने लड़की से कहा, ‘‘कुछ नहीं. तू अपना काम कर,’’ कहते हुए वह बाहर निकल कर ठेकेदार के पास आ गया.

ठेकेदार ने आंखों ही आंखों में उस से पूछा, पर उस ने असहमति से गरदन हिला कर मना कर दिया. उस के बाद शाम तक उस लड़की से किसी ने कुछ नहीं कहा.

हफ्ते का आखिरी दिन शनिवार था. उस दिन सभी मजदूरों को मजदूरी का पैसा मिलता था. सुपरवाइजर ने सभी मजदूरों को उन की हाजिरी के हिसाब से रजिस्टर पर दस्तख्त करा कर या अंगूठा लगवा कर पैसा दे दिया. अगले दिन रविवार की छुट्टी थी.

सोमवार को सभी मजदूर काम पर आ गए थे. वह लड़की भी डरीडरी सी काम पर आई थी. काम शुरू होते ही रोज की तरह उस ने पानी का पाइप पकड़ कर जैसे ही तराई शुरू की, सुपरवाइजर ने उसे मना कर के ईंटें ढोने और दूसरे भारी कामों पर लगा दिया.

अब उस लड़की को भारी काम देने और बातबात पर डांटने का सिलसिला शुरू हो गया. काम से निकालने की धमकी भी ठेकेदार द्वारा दी जाने लगी थी.

जवान मजदूर लड़की परेशान होने लगी थी, क्योंकि इतने दिन उस ने तराई करने का काम किया था. उसे ईंटें ढोने जैसा भारी काम करना अच्छा नहीं लग रहा था.

खाने की छुट्टी के दौरान उस ने अधेड़ उम्र की पुरानी मजदूर, जिसे सब मौसी कहते थे, से जा कर अपनी समस्या बताई और ठेकेदार से सिफारिश करने को कहा कि उसे फिर से तराई का काम मिल जाए.

उस अधेड़ मजदूर की बात ठेकेदार मानता था. वह कई सालों से उस के साथ काम कर रही थी और काम करने में भी बहुत तेज थी. उस ने लड़की से कहा, ‘‘मैं ठेकेदार से बात करूंगी.’’

दिनभर काम करने के बाद घर जा कर वह लड़की थक कर चूर हो गई थी. वैसे भी उस ने भारी काम कई दिनों बाद किया था. बीच में उसे कमर सीधी करने का मौका भी नहीं मिला था, पर उसे भरोसा था कि मौसी अगर कहेंगी तो उसे तराई का काम फिर से मिल जाएगा.

इसी तरह काम करते हुए 3 दिन हो गए. भारी काम करतेकरते वह लड़की लस्तपस्त हो गई थी. बीच में चायनाश्ते और आराम की सुविधा भी खत्म हो गई थी.

ठेकेदार और मकान मालिक में गजब का सब्र था और अपनेआप पर यकीन था कि दूसरा तरीका कामयाबी दिलाएगा.

शनिवार को मजदूरी बंटने का दिन आ गया था. सुपरवाइजर ने रजिस्टर पर अंगूठा लगवा कर रुपए उस के हाथ पर रखते हुए कहा, ‘‘तु झ से ठीक से काम नहीं हो रहा है. ठेकेदार नाराज हो रहे हैं कि इस लड़की को हटा कर दूसरी लड़की को काम पर लगा दो. मैं ने अभी तो उन्हें मना लिया है, पर आगे से काम ठीक से करना.’’

काम ठीक से करने के बावजूद काम से हटाने की धमकी से उस लड़की को कुछकुछ सम झ में आने लगा था कि उस के साथ ऐसा क्यों हो रहा था. गरीबी और बेरोजगारी से भूखे रहने की नौबत आ सकती थी, इसलिए उस ने मौसी से एक बार और उस के घर जा कर मिलने की सोची.

रात को खाना खा कर वह सीधा पास की  झुग्गी बस्ती में रहने वाली मौसी के घर गई और जा कर उन से कहा कि ठेकेदार ने काम से निकालने की धमकी दी है.

मौसी ने पूरी बात सुन कर उसे दुनियादारी की बातें सम झाते हुए कहा, ‘‘देख बेटी, हम गरीब मजदूर हैं. हमारे साथ तो ऐसा होता ही है. मेरे साथ भी हो चुका है. यह ठेकेदार नहीं होगा तो दूसरा होगा, यह साहब नहीं होगा तो दूसरा साहब होगा.

‘‘तेरी किस्मत और हिम्मत हो तो अपनेआप को बचा ले या काम से बचना है तो जो वे चाहते हैं कर ले.’’

मौसी ने अपने ब्लाउज में से 500 का नोट निकाल कर उस की मुट्ठी में दबाते हुए कहा,’’ ठेकेदार ने दिया है और कहा है कि तू चिंता मत कर. वे तेरा बहुत खयाल रखेंगे.’’

500 का नोट जोर से पकड़ कर वह लड़की चुपचाप अपने घर आ गई. उसे देर तक नींद नहीं आई. ठेकेदार द्वारा आराम का काम देने और मकान मालिक द्वारा रोज स्वादिष्ठ नाश्ता कराने की याद कर के उस के मुंह में पानी आ गया था. वह सोचने लगी कि किस तरह ज्यादा मेहनत करने से रात को उस का बदन थक कर चूर हो जाता था.

उस ने अपनेआप से कहा कि इतनी मेहनत का काम मैं कैसे और कब तक करूंगी. फिर उसे मौसी की बात याद आ गई कि उस के साथ भी ऐसा हो चुका है, जब वह जवान थी.

कुछ देर सोचने के बाद वह सो गई. दूसरे दिन रविवार था. आज वह निश्चिंत और बेफिक्र थी. मौसी भी उस से मिलने आई थीं. उस ने उन से भी खूब हंस कर बातें कीं.

मौसी सम झ गईं कि उन का काम हो गया है. उन्होंने शाम को ही ठेकेदार को खबर कर दी कि लड़की ने 500 रुपए ले लिए हैं.

दूसरे दिन सोमवार को वह लड़की नहाधो कर अच्छी तरह तैयार हो कर काम करने निकली. साइट पर सब उसे देखने लगे.

सुपरवाइजर ने भी हलकी मुसकान से उसे देखा क्योंकि साहब लोगों के बाद बची हुई मलाई पर उसे भी मुंह मारने का मौका मिलने की उम्मीद थी.

मौसी ने ठेकेदार को जो बताया था, उस से उसे लग रहा था कि बड़े साहब आज खुश हो जाएंगे. वह उन का ही इंतजार कर रहा था. साहब दफ्तर से बीच में कोठी का काम देखने आने ही वाले थे.

सुपरवाइजर ने उस लड़की को ऊपर के कमरों में जिन का प्लास्टर हो गया था तराई करने को कहा. वह ऊपर जा कर पाइप उठा कर तराई का काम करने लगी. बालकनी से उस ने साहब को कार से उतरते देखा. ठेकेदार तेजी से उन के पास गया और ऊपर देखते हुए वे आपस में कुछ बात कर रहे थे. काम की रफ्तार बढ़ गई थी. मिक्सर मशीन का शोर भी तेज था. लड़की भी दीवारों पर पानी फेंक कर दीवारों को मजबूत बना रही थी.

थोड़ी देर बाद ठेकेदार उसी कमरे में आ गया और मुसकराते हुए कहने लगा, ‘‘चल, जरा स्टोररूम में… एक काम है.’’

लड़की ने धीरे से, लेकिन मजबूत आवाज में कहा, ‘‘मैं जानती हूं कि क्या काम है, लेकिन मैं यह सब नहीं करूंगी,’’ उस ने तुरंत पानी का पाइप नीचे पटका और साड़ी के पल्लू में बंधा 500 का नोट निकाल कर उसे वापस करते हुए कहा, ‘‘ठेकेदार, साहब, काम जितना मरजी करा लो, आज से मैं तराई का काम नहीं करूंगी. तुम कहोगे तो

2 मजदूरों के बराबर काम करूंगी, लेकिन अपनी इज्जत नहीं दूंगी,’’ इतना कह कर वह नीचे उतर कर सुपरवाइजर से कहने लगी, ‘‘मैं तराई का काम नहीं, ईंटें ढोने का काम करूंगी.’’ इतना कह कर उस लड़की ने तसले में ईंटें भरनी शुरू कर दीं.

नैटवर्क ही नहीं मिलता : फोन पर नंदिनी की क्या हुई बातचीत

फोन की घंटी बज रही थी. नंदिनी ने नहीं उठाया. यह सोच कर कि बाऊजी का फोन तो होगा नहीं. दूसरी, तीसरी, चौथी बार भी घंटी बजी तो विराज हाथ में किताब लिए हड़बड़ाए से आए.

‘‘नंदू, फोन बज रहा है भई?’’

विराज ने उसे देखते हुए फोन उठाया पर समझ न पाए कि नंदिनी ने कुछ सुना या नहीं? फोन किस का है, पूछे बिना नंदिनी गैलरी में आ गई. वह जानती है कि बाऊजी का फोन तो नहीं होगा.

मायके से लौटे महीनाभर हो चला है. वह फ्लैट से बाहर नहीं निकली है. शाम को धुंधलका होते ही गैलरी में आ खड़ी होती है. अंधेरा गहराते ही बत्तियां जगमगा उठती हैं मानो महानगर में होड़ शुरू हो जाती है भागदौड़ की. वह हंसतेबतियाते लोगों को ताकते हुए और भी उदास हो जाती है.

विराज उस की मनोस्थिति समझ कर भी बेबस थे. वे जानते हैं बाऊजी के एकाएक चले जाने से नंदिनी के जीवन में आए खालीपन को. बाऊजी नंदिनी के पिता तो बाद में थे, पिता से ज्यादा वे नंदिनी के भरोसेमंद मित्र एवं मां भी थे. मां से ही मन की बातें करती हैं बेटियां. नंदिनी की मां भी बाऊजी ही थे और पिता भी. मां को तो उस ने देखा ही नहीं. हमेशा बाऊजी से सुना कि ‘मां मिट्टी से नहीं, बल्कि फूलों से बनी थीं, बेहद नाजुक. गरम हवा के एक थपेड़े से ही पंखुरीपंखुरी हो बिखर गईं.’

अस्पताल के झूले में गुलाबी गोरी बिटिया को देखते ही बाऊजी ने सीने पर पत्थर रख लिया और अपनी बिटिया के लिए खुद फौलाद बन गए. उन्हें जीना होगा बिटिया के लिए.

विराज ने विवाह के बाद नंदिनी के रिश्तेदारों से पितापुत्री के प्रगाढ़ संबंध, बाऊजी की करुण संघर्ष गाथा को इतनी बार सुना है कि उन्हें रट गई हैं सब बातें. उन्हें भी बाऊजी की कमी खलती है. नंदिनी ने तो बाऊजी की गोद में आंखें खोली थीं. वे समझ रहे हैं उस की मनोस्थिति. नंदिनी को समय देना ही होगा.

नंदिनी कंधे पर स्पर्श पा कर चौंक गई, कैसी जानीपहचानी ममता से भरी कोमल छुअन है. गरदन घुमा कर देखा, विराज हैं.

‘‘क्या सोच रही हो नंदू?’’

‘‘आकाश देख रही हूं, तारे कम नहीं नजर आ रहे?’’

‘‘दिन के ज्यादा उजाले में चौंधिया रहा है पूरा शहर, जमीन से आसमान तक. ऐसे में तारे कम ही नजर आते हैं. चांदतारों का असल सौंदर्य व प्रकाश तो अंधेरे में दिखता है,’’ यह तर्क देतेदेते रुक गए विराज.

नंदू ने बात सिरे से नकार दी, ‘‘नहीं तो, बल्कि मुझे तो एक तारा ज्यादा नजर आ रहा है. वह देखो, वह वाला, एकदम अपनी गैलरी के ऊपर चमकदार.’’

‘‘तुम्हें देख रहा है प्यार से मुसकराते हुए बाऊजी की तरह.’’

यह सुनते ही नंदिनी को करंट सा लगा. विराज का हाथ झटक कर गुमसुम अंदर चली गई. विराज बातबात पर प्रयत्न करते हैं कि किसी तरह नंदिनी का दुखदर्द बाहर निकले किंतु आंसू तो दूर, उस की आंखें नम तक नहीं हो रहीं, मानो सारे आंसू ही सूख चुके हों. न सिर्फ बाऊजी की बातें और यादें, मानो पूरे के पूरे बाऊजी सिर्फ उसी के थे. यादोंबातों तक में किसी की हिस्सेदारी उसे मंजूर नहीं.

नंदिनी सीधे बैडरूम में आ गई. बैडरूम में अकसर पिता की तसवीरें नहीं होतीं पर नंदिनी की तो बात ही अलहदा है. उस के बैडरूम की दाईं दीवार पर सिर्फ तसवीरें ही तसवीरें हैं. बाऊजी के साथ वह या उस के संग बाऊजी. विदाई वेला की तसवीरें. वह तसवीरों पर उंगलियां फेर रही थी कि ड्राइंगरूम में रखा फोन फिर बज उठा. उस का जी धक से रह गया.

घड़ी देखी, 8 बज रहे हैं. उसी ने तो बाऊजी को समय बताए थे – सुबह 10 बजे के बाद और शाम को 7 के बाद.

वरना वे तो उठते ही फोन लगा देते थे. ‘बेटा, तू ठीक तो है? नींद अच्छी आई? नाश्ता जरूर करना? खाना क्याक्या बनाएगी? बढि़या कपड़े पहनना. तमाम सवाल.’

और शाम होते ही ‘विराज औफिस से आ गए? नवेली ने तुझे तंग तो नहीं किया? शाम को घूमने जाते हो न?’ आदि.

सवाल अकसर वही होने के बावजूद उन में इतनी परवा, फिक्र होती कि नंदिनी का मन गुलाबगुलाब हो जाता. कई बार वह सुबह बिस्तर या बाथरूम में होती या शाम को विराज औफिस से ही नहीं लौटते होते, तब पितापुत्री के मध्य समय तय हुआ था. हड़बड़ी में वह बाऊजी से मन की बातें ही नहीं कर पाती थी.

अकसर बेटियां मन की बातें मां से करती हैं, इसी हिसाब से बाऊजी उस के मातापिता दोनों ही थे. उस का तो मायका ही खत्म हो गया. कहने को तमाम नातेरिश्ते हैं, पर सब कहनेभर के. महीने दो महीने में औपचारिक बातें ही होती हैं.

फिर फोन बजा. विचारशृंखला में बाधा पड़ते ही नंदिनी पैर पटकती ड्राइंगरूम में पहुंची ही कि देखा, विराज फोन को डिस्कनैक्ट कर रहे थे. एक हाथ में फोन का प्लग और दूसरे में नवेली को थामे वे ठगे से खड़े रह गए.

नवेली, नाना की प्यारी नातिन, बाऊजी का नन्हा सा खिलौना. इसे तो समझ भी नहीं होगी कि नाना अब कभी नहीं नजर आएंगे. नंदिनी एकटक अपनी बिटिया को देखने लगी.

और विराज…नंदिनी को. वे द्रवित हो उठे उस के दुख से. क्या बीती होगी नंदू के हृदय पर पिता की निश्चल देह देख कर, क्या गुजरी होगी पिता की अस्थियों से भरा कलश देख कर, इतना हाहाकार, ऐसा झंझावात कि अश्रु तक उड़ा ले गए.

उन्होंने बढ़ कर नवेली को नंदिनी की गोद में दे कर अपने पास बैठा लिया. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, कैसे सांत्वना दें कि नंदिनी इस सदमे से उबर आए. धीमे से प्रस्ताव रखा.

‘‘नंदू, कितने दिन हो गए तुम्हें घूमने निकले, आज चलें?’’

‘‘नहीं, मन नहीं होता.’’

तपस्या भंग न कर सकी : रिटायरमैंट के बाद पवन की जिंदगी

चमेली जब भी रिटायर्ड डिप्टी कलक्टर पवन के बंगले पर काम करने आती है, वह 45 साल से 30 साल की बन जाती है, क्योंकि 65 साला पवन अकेले रहते हैं. उन की पत्नी सुधा उन की रिटायरमैंट के 15 साल पहले गुजर गई थीं. तब से वे अकेले हैं. उन के एकलौता बेटा है जिस की बैंक में पोस्टिंग होने के बाद उस ने वहीं काम कर रही एक लड़की से शादी कर ली थी.

उस समय पवन की रिटायरमैंट के 3 साल बचे थे. जब तक वे सेवा में थे, तब तक उन के सरकारी बंगला था, नौकर थे, इसलिए रोटी बनाने की चिंता नहीं थी. जब भी वे भोपाल जाते बहू का रूखा बरताव देख कर भीतर ही भीतर दुखी होते.

सोचा था कि रिटायरमैंट के बाद वे अपने बेटे के पास रहेंगे. मगर बेटे का बदला बरताव देख कर उन्होंने अपना मन बदल लिया और रिटायरमैंट के बाद वे छोटा का मकान खरीद कर उसी शहर में बस गए. जिस शहर से वे रिटायर हुए थे.

रिटायरमैंट के बाद सरकारी बंगला और नौकर छूट गए थे, इसलिए वे खुद ही रोटी बनाते थे, कमरे में ?ाड़ू लगाते थे और कपड़े धोबी से धुलवाते थे. इस तरह वे चौकाचूल्हे में माहिर हो गए थे. मगर जैसेजैसे उम्र बढ़ रही थी शरीर में कमजोरी आ रही थी. रोटियां बेलने में तकलीफ होने लगी थी.

जब पवन की पत्नी सुधा गुजरी थीं तब रिश्तेदारों ने उन्हें दोबारा शादी करने की सलाह दी थी. पर तब उन्होंने मना कर दिया था. रिश्तेदार कई रिश्ते भी ले कर आए, मगर उन्होंने सभी रिश्तों को ठुकरा दिया था.

पवन तो अपने बेटे के पास ही बाकी जिंदगी बिताना चाहते थे, मगर ऐसा हो न सका. अब जा कर उन्हें एहसास हुआ कि आज वे अकेले जिंदगी काट रहे हैं.

जब उन से रोटियां नहीं बनने लगीं तब उन्होंने चमेली को रख लिया. शुरुआत में तो वह ठीकठाक रही, मगर जैसेजैसे समय बीतता गया, उस के मन के भीतर का शैतान जागता गया.

वह जानती थी, पवन का बेटा उन से दूर है इन का विश्वास जीत कर सारी धनदौलत हड़पी जा सकती है. इस के लिए उस ने योजना बना कर उसे अपने तरीके से अंजाम देना शुरू कर दिया.??

दरअसल, आदमी की सब से बड़ी कमजोरी औरत होती है, इसलिए जब भी चमेली घर का काम करने आती, अपने को बदलने लगी. वह सजधज कर आने लगी. उन्हें देख कर कामुक निगाहों से मुसकाने लगी.

पवन चमेली का यह बदला रूप देखते थे. वे अपनी नजरें फेर लेते थे. तब चमेली मन ही मन कहती थी, ‘कितने ही विश्वामित्र बन जाओ, मगर यह मेनका एक दिन तुम्हारी तपस्या भंग कर के ही रहेगी.’

इस के बाद चमेली जितनी देर घर में रहती, वह अपना आंचल गिरा देती. बरतन मांजने लगती तो पेटीकोट ऊपर चढ़ा लेती.

पवन चमेली के इस बरताव को समझ रहे थे. एक दिन वे बोले, ‘‘तुम शादीशुदा हो, ऐसा मत किया करो.’’

चमेली उस दिन तो चुप रही, फिर अगले दिन उस ने कहा, ‘‘आप को बाईजी की याद तो सताती होगी?’’

‘‘क्या मतलब है?’’ जरा नाराज हो कर पवन बोले.

‘‘मेरा मतलब यह है साहब…’’ चमेली बोली, ‘‘आप अकेले हैं तो आप को बाईजी की याद तो कभीकभी आती होगी? जब रात को अकेले सोते होंगे?

‘‘क्या कहना चाहती है तू?’’

‘‘मैं यह कहना चाहती हूं साहब, अगर आप के मन में कभी औरत की जरूरत हो…’’

‘‘चमेली, मुंह संभाल कर बोल,’’ बीच में ही बात काटते हुए पवन बोले, ‘‘मेरे सामने कभी ऐसी बात मत करना.’’

जी साहब, माफी मांगते हुए चमेली बोली, ‘‘एक दिन आप ने ही तो कहा था कि बात कहने से मन का बोझ हलका हो जाता है.’’

‘‘ठीक है ठीक है…’’ बीच में ही बात काट कर पवन बोले, ‘‘मगर मुझे किसी औरत की जरूरत नहीं है.’’

मगर पवन की समझाइश का असर चमेली पर नहीं पड़ा. उस दिन के बाद तो वह और मेनका बन गई. उस का आंचल गिराना जारी था. यह कर के वह पवन की कमजोरी पकड़ना चाहती थी. मगर उन की तरफ से कोई हलचल नहीं मचती थी. न जाने कैसा पत्थरदिल है उन का दिल. आग के सामने भी नहीं पिघलता.

ऐसे में एक दिन चमेली की सहेली लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘तेरे विश्वामित्रजी पिघले कि नहीं?’’

‘‘कहां पिघले… न जाने किस पत्थर के बने हैं.’’

‘‘इस में तेरी कमजोरी होगी.’’

‘‘सबकुछ तो कर लिया जो एक औरत को करना चाहिए. इस में मेरी कहां से कमजोरी आ गई?’’

‘‘तब तो उस की जायदाद कभी हड़प नहीं सकती है.’’

‘‘अब उस के सामने नंगी होने से तो रही.’’

‘‘तुझे नंगा होने की जरूरत ही नहीं है?’’ कह कर लक्ष्मी ने उस के कान में कुछ कहा. वह गरदन हिला कर बोली, ‘‘ठीक है.’’

चमेली ने पवन के भीतर खूब जोश पैदा करने की कोशिश की, मगर वे टस से मस नहीं हुए. जब पानी सिर से ज्यादा ही गुजरने लगा, तब पवन बोले, ‘‘देखो चमेली, मैं पहले ही कह चुका हूं. अब फिर कह रहा हूं तुम ने अपने हावभाव बदलो. मगर तुम एक कान से सुनती हो दूसरे कान से निकाल देती हो.’’

‘‘साहब, चौकाचूल्हे के काम करने में यह सब न चाहते हुए भी हो जाता है,’’ मादक मुसकान फेंकते हुए चमेली बोली.

‘‘झूठ मत बोलो, तुम यह सब जानबूझ कर करती हो.’’

‘‘नहीं साहब, ऐसा नहीं है.’’

‘‘तुम खुद को नहीं बदल सकती हो तो कल से तुम्हारी छुट्टी,’’ पवन अपना फैसला सुनाते हुए बोले.

तब चमेली बहुत चिंतित हो गई. सच तो यह है कि वह यहां काम करती है, बदले में पैसा पाती है. उस ने कभी नहीं सोचा था कि उसे यह दिन पड़ेगा.

वह तकरीबन रोते हुए बोली, ‘‘नहीं साहब, मेरे पेट पर लात मर मारो, अब कभी भी शिकायत नहीं मिलेगी.’’

‘‘ठीक है. मगर फिर शिकायत मिलेगी तब तुझे निकालने में जरा भी देर न करूंगा,’’ कह कर पवन भीतर चले गए. चमेली तिलमिलाती रह गई.

तांती : अपनो के आगे क्यों झुका रामदीन

चलतेचलते रामदीन के पैर ठिठक गए. उस का ध्यान कानफोड़ू म्यूजिक के साथ तेज आवाज में बजते डीजे की तरफ चला गया. फिल्मी धुनों से सजे ये भजन उस के मन में किसी भी तरह से श्रद्धा का भाव नहीं जगा पा रहे थे. बस्ती के चौक में लगे भव्य पंडाल में नौजवानों और बच्चों का जोश देखते ही बनता था.

रामदीन ने सुना कि लोक गायक बहुत ही लुभावने अंदाज में नौलखा बाबा की महिमा गाता हुआ उन के चमत्कारों का बखान कर रहा था.

रामदीन खीज उठा और सोचने लगा, ‘बस्ती के बच्चों को तो बस जरा सा मौका मिलना चाहिए आवारागर्दी करने का… पढ़ाईलिखाई छोड़ कर बाबा की महिमा गा रहे हैं… मानो इम्तिहान में यही उन की नैया पार लगाएंगे…’

तभी पीछे से रामदीन के दोस्त सुखिया ने आ कर उस की पीठ पर हाथ रखा, ‘‘भजन सुन रहे हो रामदीन. बाबा की लीला ही कुछ ऐसी है कि जो भी सुनता है बस खो जाता है. अरे, जिस के सिर पर बाबा ने हाथ रख दिया समझे उस का बेड़ा पार है.’’

रामदीन मजाकिया लहजे में मुसकरा दिया, ‘‘तुम्हारे बाबा की कृपा तुम्हें ही मुबारक हो. मुझे तो अपने हाथों पर ज्यादा भरोसा है. बस, ये सलामत रहें,’’ रामदीन ने अपने मजबूत हाथों को मुट्ठी बना कर हवा में लहराया.

सुखिया को रामदीन का यों नौलखा बाबा की अहमियत को मानने से इनकार करना बुरा तो बहुत लगा मगर आज कुछ कड़वा सा बोल कर वह अपना मूड खराब नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा और दोनों बस्ती की तरफ चल दिए.

विनोबा बस्ती में चहलपहल होनी शुरू हो गई थी. नौलखा बाबा का सालाना मेला जो आने वाला है. शहर से तकरीबन 250 किलोमीटर दूर देहाती अंचल में बनी बाबा की टेकरी पर हर साल यह मेला लगता है. 10 दिन तक चलने वाले इस मेले की रौनक देखते ही बनती है.

रामदीन को यह सब बिलकुल भी नहीं सुहाता था. पता नहीं क्यों मगर उस का मन यह बात मानने को कतई तैयार नहीं होता कि किसी तथाकथित बाबा के चमत्कारों से लोगों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं. अरे, जिंदगी में अगर कुछ पाना है तो अपने काम का सहारा लो न. यह चमत्कारवमत्कार जैसा कुछ भी नहीं होता…

रामदीन बस्ती में सभी को सम?ाने की कोशिश किया करता था मगर लोगों की आंखों पर नौलखा बाबा के नाम की ऐसी पट्टी बंधी थी कि उस की सारी दलीलें वे हवा में उड़ा देते थे.

बाबा के सालाना मेले के दिनों में तो रामदीन से लोग दूरदूर ही रहते थे. कौन जाने, कहीं उस की रोकाटोकी से कोई अपशकुन ही न हो जाए…

विनोबा बस्ती से हर साल बाल्मीकि मित्र मंडल अपने 25-30 सदस्यों का दल ले कर इस मेले में जाता है. सुखिया की अगुआई में रवानगी से पहली रात बस्ती में बाबा के नाम का भव्य जागरण होता है जिस में संघ को अपने सफर पर खर्च करने के लिए भारी मात्रा में चढ़ावे के रूप में चंदा मिल जाता है. अलसुबह नाचतेगाते भक्त अपने सफर पर निकल पड़ते हैं.

इस साल सुखिया ने रामदीन को अपनी दोस्ती का वास्ता दे कर मेले में चलने के लिए राजी कर ही लिया… वह भी इस शर्त पर कि अगर रामदीन की मनोकामना पूरी नहीं हुई तो फिर सुखिया कभी भी उसे अपने साथ मेले में चलने की जिद नहीं करेगा…

अपने दोस्त का दिल रखने और उस की आंखों पर पड़ी अंधश्रद्धा की पट्टी हटाने की खातिर रामदीन ने सुखिया के साथ चलने का तय कर ही लिया, मगर शायद वक्त को कुछ और ही मंजूर था. इन्हीं दिनों ही छुटकी को डैंगू हो गया और रामदीन के लिए मेले में जाने से ज्यादा जरूरी था छुटकी का बेहतर इलाज कराना…

सुखिया ने उसे बहुत टोका कि क्यों डाक्टर के चक्कर में पड़ता है, बाबा के दरबार में माथा टेकने से ही छुटकी ठीक हो जाएगी मगर रामदीन ने उस की एक न सुनी और छुट्की का इलाज सरकारी डाक्टर से ही कराया.

रामदीन की इस हरकत पर तो सुखिया ने उसे खुल्लमखुल्ला अभागा ऐलान करते हुए कह ही दिया, ‘‘बाबा का हुक्म होगा तो ही दर्शन होंगे उन के… यह हर किसी के भाग्य में नहीं होता… बाबा खुद ही ऐसे नास्तिकों को अपने दरबार में बुलाना नहीं चाहते जो उन पर भरोसा नहीं करते…’’

रामदीन ने दोस्त की बात को बचपना समझाते हुए टाल दिया.

सुखिया और रामदीन दोनों ही नगरनिगम में सफाई मुलाजिम हैं. रामदीन ज्यादा तो नहीं मगर 10वीं जमात तक स्कूल में पढ़ा है. उसे पढ़ने का बहुत शौक था मगर पिता की हुई अचानक मौत के बाद उसे स्कूल बीच में ही छोड़ना पड़ा और वह परिवार चलाने के लिए नगरनिगम में नौकरी करने लगा.

रामदीन ने केवल स्कूल छोड़ा था, पढ़ाई नहीं… उसे जब भी वक्त मिलता था, वह कुछ न कुछ पढ़ता ही रहता था. खुद का स्कूल छूटा तो क्या, वह अपने बच्चों को खूब पढ़ाना चाहता था.

सुखिया और रामदीन में इस नौलखा बाबा के मसले को छोड़ दिया जाए तो खूब छनती है. दोनों की पत्नियां भी आपस में सहेलियां हैं और आसपास के फ्लैटों में साफसफाई का काम कर के परिवार चलाने में अपना सहयोग देती हैं.

एक दिन रामदीन की पत्नी लक्ष्मी को अपने माथे पर बिंदी लगाने वाली जगह पर एक सफेद दाग सा दिखाई दिया. उस ने इसे हलके में लिया और बिंदी थोड़ी बड़ी साइज की लगाने लगी.

मगर कुछ दिनों बाद जब दाग बिंदी से बाहर झांकने लगा तो सुखिया की पत्नी शांति का ध्यान उस पर गया. उस ने पूछा, ‘‘लक्ष्मी, यह तुम्हारे माथे पर दाग कैसा है?’’

‘‘पता नहीं, यह कैसे हो गया. मैं ने तो कई देशी इलाज कर लिए मगर यह तो ठीक ही नहीं हो रहा, आगे से आगे बढ़ता ही जा रहा है,’’ कहते हुए लक्ष्मी रोंआसी सी हो गई.

‘‘अरे, बस इतनी सी बात. तुम नौलखा बाबा के नाम की तांती क्यों नहीं बांध लेती? इसे अपने दाएं हाथ पर बांध कर मन्नत मांग लो कि ठीक होते ही बाबा के दरबार में पैदल जा कर धोक लगा कर आओगी… फिर देखो चमत्कार… सफेद दाग जड़ से न चला जाए तो कहना…’’ शांति ने दावे से कहा.

‘‘क्या ऐसा करने से यह दाग सचमुच ठीक हो जाएगा?’’ लक्ष्मी ने हैरानी से पूछा.

‘‘यही तो परेशानी है… रामदीन भैया की तरह तुम्हें भी बाबा पर भरोसा नहीं… अरे, बाबा तो अंधों को आंखें, लंगड़ों को पैर और बां?ा को बेटा देने वाले हैं… देखती नहीं, हर साल लाखों भक्त कैसे उन के दर पर दौड़े चले आते हैं… अगर उन में कोई अनहोनी ताकत न होती तो कोई जाता क्या?’’ शांति ने उस की कमअक्ली पर तरस खाते हुए समझाया.

लक्ष्मी को अब भी सफेद दाग के इतनी आसानी से खत्म होने का भरोसा नहीं था. उस ने शक की निगाह से शांति की तरफ देखा.

‘‘मेरा अपना ही किस्सा सुन… मेरी शादी के बाद 4 साल तक भी मेरी गोद हरी नहीं हुई थी. हम सारे उपाय कर के निराश हो चुके थे. डाक्टर और हकीम भी हार मान गए थे. एक डाक्टर ने तो यहां तक कह दिया था कि मैं कभी मां नहीं बन सकती क्योंकि इन में ही कुछ कमी है. तब हमें किसी ने बाबा के दरबार में जाने की भली सलाह दी.

‘‘हारे का सहारा… नौलखा बाबा हमारा… और हम दोनों गिर पड़े बाबा के चरणों में… पुजारीजी से बाबा के नाम की तांती बंधवाई और सब दवादारू छोड़ कर हर महीने उन के दर्शनों को जाते रहे. और देखो बाबा का चमत्कार… अगले साल ही हरिया मेरी गोद में खेल रहा था,’’ शांति ने पूरे यकीन से कहा.

शाम को अब रामदीन घर आया तो लक्ष्मी ने उसे अपने सफेद दाग के बारे में बताया और बाबा की तांती का भी जिक्र किया.

लक्ष्मी की सफेद दाग वाली बात सुन कर रामदीन के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं. उस ने पत्नी को सम?ा कर शहर के चमड़ी के किसी अच्छे डाक्टर को दिखाने की बात की मगर लक्ष्मी पर तो जैसे शांति की बातों का जादू चला हुआ था.

लक्ष्मी ने कहा, ‘‘ठीक है. डाक्टर और अस्पताल अपनी जगह हैं और आस्था अपनी जगह… एक बार शांति की बात मान कर तांती बांधने में हर्ज ही क्या है? अगर फायदा न हुआ तो डाक्टर कहां भागे जा रहे हैं… बाद में दिखा देंगे.’’

रामदीन को गुस्से के साथसाथ हंसी भी आ गई. उस ने अपने बचपन का एक किस्सा लक्ष्मी को सुनाया कि उस की बड़ी बहन रानी की गरदन पर छोटेछोटे मस्से हो गए थे. मां ने उस की बांह पर तांती बांध कर मन्नत मांगी कि मस्से ठीक होते ही वे बाबा के मंदिर में 2 झाड़ू चढ़ा कर आएंगी. उन्हें बाबा के चमत्कार पर पूरा भरोसा था और सचमुच कुछ ही दिनों में रानी की गरदन से सारे मस्से गायब हो गए.

मां ने बहन के साथ बाबा के मंदिर में जा कर धोक लगाई और श्रद्धा से 2 झाड़ू वहां देवरे पर चढ़ाईं.

मेरा हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया था जब रानी ने मुझा बताया कि उस ने चुपकेचुपके चमड़ी के माहिर डाक्टर की सलाह पर दवाएं खाई थीं.

रामदीन को हंसता देख लक्ष्मी आगबबूला हो गई. शांति से होते हुए बात सुखिया तक पहुंची तो वह भी आया रामदीन को समझाने के लिए. मगर रामदीन ने वहां जाने से साफ इनकार कर दिया.

लक्ष्मी ने उसे पति धर्म का वास्ता दिया और एक आखिरी बार अपनी बात मानने की गुजारिश की तो आखिर में रामदीन को रिश्तों के आगे झाकना ही पड़ा और वह न चाहते हुए भी अपनों का मन रखने के लिए सुखिया के साथ लक्ष्मी को ले कर नौलखा बाबा के देवरे पर जा पहुंचा.

मंदिर के पीछे ही बड़े पुजारी का बड़ा सा कमरा बना हुआ था. चूंकि वह सुखिया को पहले से ही जानता था इसलिए तुरंत ही उसे भीतर बुला लिया.

बाहर खड़ा रामदीन कमरे का मुआयना करने लगा. एक ही कमरे में पुजारीजी ने सारी मौडर्न सुखसुविधाएं जुटा रखी थीं. गजब की ठंडक थी अंदर… रामदीन का ध्यान दीवार पर लगे एयरकंडीशनर की तरफ चला गया. दीवार पर एक बड़ा सा टैलीविजन भी लगा था.

अभी रामदीन अचंभे से सबकुछ देख ही रहा था कि सुखिया ने उसे और लक्ष्मी को अंदर आने का इशारा किया. पुजारी ने लक्ष्मी पर एक भरपूर नजर डाल कर देखा, फिर उस ने कुछ मंत्रों का जाप करते हुए लक्ष्मी के दाएं हाथ पर काले धागे की तांती बांध दी.

तांती बांधते समय जिस तरह से पुजारी लक्ष्मी का हाथ सहला रहा था, उसे देख कर रामदीन की त्योरियां चढ़ गईं. लक्ष्मी भी थोड़ी परेशान हो गई तो पुजारी ने माहौल की नजाकत को भांपते हुए बाबा के चरणों में से थोड़ी सी भस्म ले कर उसे चटा दी और आशीर्वाद के बदले में एक मोटी रकम दक्षिणा के रूप में वसूल ली.

लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘पुजारीजी, यह दाग कितने दिन में ठीक हो जाएगा?’’

‘‘यह तो बाबा की मेहर पर है… और साथ ही ही भक्त के भरोसे पर भी… कृपा तो वे ही करेंगे… मगर हां, जिन के मन में बाबा के प्रति जरा भी शक हो, उन पर बाबा की मेहर नहीं होती…’’ लक्ष्मी उस की गोलमोल बातों से कुछ समझ कुछ नहीं समझ और पुजारी को प्रणाम कर के कमरे से बाहर निकल आई.

रास्तेभर जहां सुखिया तो बाबा की ही महिमा का बखान करता रहा वहीं रामदीन की आंखों के सामने पुजारी का लक्ष्मी का हाथ सहलाना ही घूमता रहा.

2 महीने हो गए मगर दाग मिटने या कम होने के बजाय बढ़ ही रहा था. हालांकि लक्ष्मी को तांती पर पूरा भरोसा था, मगर रामदीन को चिंता होने लगी. उस ने सुखिया के सामने अपनी चिंता जाहिर की और लक्ष्मी को भी डाक्टर के पास चलने को कहा, तो सुखिया उखड़ गया.

वह बोला, ‘‘तुम्हारा यह अविश्वास ही भाभी की बीमारी ठीक नहीं होने दे रहा… तुम कल ही चलो मेरे साथ पुजारीजी के पास… तुम्हारा सारा शक दूर हो जाएगा.’’

‘‘तुम रहने दो, बेकार क्यों अपनी छुट्टी खराब करते हो… मैं और लक्ष्मी ही हो आएंगे,’’ रामदीन ने हथियार डालते हुए कहा. वह अपने दोस्त को नाराज नहीं करना चाहता था.

रामदीन को वहां जाने के लिए छुट्टी लेनी पड़ी. लक्ष्मी की तनख्वाह से भी एक दिन नागा होने से मालकिन ने पैसे काट लिए.

मंदिर पहुंचतेपहुंचते दोपहर हो चली थी. पुजारीजी अपने कमरे में एयरकंडीशनर चला कर आराम फरमा रहे थे. उन्हें अपने आराम में खलल अच्छा नहीं लगा. पहले तो उन्होंने रामदीन को पहचाना ही नहीं, फिर लक्ष्मी को देख कर खिल उठे.

अपने बिलकुल पास बिठा कर तांती को छूने के बहाने उस का हाथ पकड़ते हुए बोले, ‘‘अरे तुम… क्या, तुम्हारा दाग तो बढ़ रहा है.’’

‘‘वही तो मैं भी जानना चाहता हूं. आप ने तो कितने भरोसे के साथ कहा था कि यह ठीक हो जाएगा,’’ रामदीन जरा तेज आवाज में बोला.

‘‘लगता है कि तुम ने तांती के नियमों की पालना नहीं की,’’ पुजारीजी ने अब भी लक्ष्मी का हाथ थाम रखा था.

‘‘अब इस में भी नियमकायदे होते हैं क्या?’’ इस बार लक्ष्मी अपना हाथ छुड़ाते हुए धीरे से बोली.

‘‘और नहीं तो क्या. क्या जो दक्षिणा तुम ने बाबा के चरणों में चढ़ाई थी वह दान का पैसा नहीं था?’’ पुजारी ने पूछा.

‘‘दान का पैसा… क्या मतलब?’’ रामदीन ने पूछा.

‘‘मतलब यह कि तांती दान के पैसे से ही बांधी जाती है, वरना उस का असर नहीं होता. तुम एक काम करो, अपने पासपड़ोसियों और रिश्तेदारों से कुछ दान मांगो और वह रकम दक्षिणा के रूप में यहां भेंट करो… तब तांती सफल होगी,’’ पुजारीजी ने समझाया.

‘‘यानी हाथ पर बंधी यह तांती बेकार हो गई,’’ कहते हुए लक्ष्मी परेशान हो गई.

‘‘हां, अब इस का कोई मोल नहीं रहा. अब तुम जाओ और जब दक्षिणा लायक दान जमा हो जाए तब आ जाना… नई तांती बांधेंगे. और हां, नास्तिक लोगों को जरा इस से दूर ही रखना,’’ पुजारी ने कहा तो रामदीन उस का मतलब समझ गया कि उस का इशारा किस की तरफ है.

दोनों अपना सा मुंह ले कर लौट आए. सुखिया को जब पता चला तो वह बोला, ‘‘ठीक ही तो कह रहे हैं पुजारीजी…

तांती भी कोई जेब के पैसों से बांधता है क्या, तुम्हें इतना भी नहीं पता?’’

तांती के लिए दान जमा करतेकरते फिर से बाबा के सालाना मेले के दिन आ गए. इस बार सुखिया के रामदीन से कह दिया कि चाहे नगरनिगम से लोन लेना पड़े मगर उसे और भाभी को पैदल संघ के साथ चलना ही होगा.

रामदीन जाना तो नहीं चाहता था, उस ने एक बार फिर से लक्ष्मी को समझाने की कोशिश की कि चल कर डाक्टर को दिखा आए मगर लक्ष्मी को तांती की ताकत पर पूरा भरोसा था. वह इस बार पूरे विधिविधान के साथ इसे बांधना चाहती थी ताकि नाकाम होने की कोई गुंजाइश ही न रहे.

रामदीन को एक बार फिर अपनों के आगे हारना पड़ा.

हमेशा की तरह रातभर के जागरण के बाद तड़के ही नाचतेगाते संघ रवाना हो गया. बस्ती पार करते ही मेन सड़क पर आस्था का सैलाब देख कर लक्ष्मी की आंखें हैरानी से फैल गईं. उस ने रामदीन की तरफ कुछ इस तरह से देखा मानो उसे अहसास दिला रही हो कि इतने सालों से वह क्या खोता आ रहा है. दूर निगाहों की सीमा तक भक्त ही भक्त… भक्ति की ऐसी हद उस ने पहली बार ही देखी थी.

अगले ही चौराहे पर सेवा शिविर लगा था. संघ को देखते ही सेवादार उन की ओर लपके और चायकौफी की मनुहार करने लगे. सब ने चाय पी और आगे चले. कुछ ही दूरी पर फ्रूट जूस और चाट की सेवा लगी थी. सब ने जीभर कर खाया और कुछ ने महंगे फल अपने साथ लाए झोले के हवाले किए. पानी का टैंकर तो पूरे रास्ते चक्कर ही लगा रहा था.

दिनभर तरहतरह की सेवा का मजा लेते हुए शाम ढलने पर संघ ने वहीं सड़क के किनारे अपना तंबू लगाया और सभी आराम करने लगे.

तभी अचानक कुछ सेवादार आ कर उन के पैर दबाने लगे. लक्ष्मी के लिए यह सब अद्भुत था. उसे वीआईपी होने जैसा गुमान हो रहा था.

उधर रामदीन सोच रहा था, ‘लक्ष्मी की मनोकामना पूरी होगी या नहीं पता नहीं मगर बच्चों की कई अधूरी कामनाएं जरूर पूरी हो जाएंगी. ऐसेऐसे फल, मिठाइयां, शरबत और मेवे खाने को मिल रहे हैं जिन के उन्होंने केवल नाम ही सुने थे.’

10 दिन मौजमस्ती करते, सेवा करवाते आखिर पहुंच ही गए बाबा के धाम… 3 किलोमीटर लंबी कतार देख कर रामदीन के होश उड़ गए. दर्शन होंगे या नहीं… वह अभी सोच ही रहा था कि सुखिया ने कहा, ‘‘वह देख. ऊपर बाबा के मंदिर की सफेद ध्वजा के दर्शन कर ले… और अपनी यात्रा को सफल मान.’’

‘‘मगर दर्शन?’’

‘‘मेले में ऐसे ही दर्शन होते हैं… चल पुजारीजी के पास भाभी को ले कर चलते हैं,’’ सुखिया ने समझाया.

पुजारीजी बड़े बिजी थे मगर लक्ष्मी को देखते ही खिल उठे. वे बोले, ‘‘अरे तुम. आओआओ… इस बार विधिवत तरीके से तुम्हें तांती बांधी जाएगी…’’ फिर अपने सहायक को इशारा कर के लक्ष्मी को भीतर आने को कहा.

रामदीन और सुखिया को बाहर ही इंतजार करने को कहा गया. काफी देर हो गई मगर लक्ष्मी अभी तक बाहर नहीं आई थी. सुखिया शांति और बच्चों को मेला घुमाने ले गया.

रामदीन परेशान सा वहीं बाबा के कमरे में चहलकदमी कर रहा था. एकदो बार उस ने भीतर कोठरी में ?ांकने की कोशिश भी की मगर बाबा के सहायकों ने उसे कामयाब नहीं होने दिया. अब तो उस का सब्र जवाब देने लगा था. मन अनजाने डर से घबरा रहा था.

रामदीन हिम्मत कर के कोठरी के दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाए. सहायकों ने उसे रोकने की कोशिश की मगर रामदीन उन्हें धक्का देते हुए कोठरी में घुस गया.

कोठरी के भीतर नीम अंधेरा था. एक बार तो उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया. धीरेधीरे नजर साफ होने पर उसे जो सीन दिखाई दिया वह उस के होश उड़ाने के लिए काफी था. लक्ष्मी अचेत सी एक तख्त पर लेटी थी. वहीं बाबा अंधनगा सा उस के ऊपर तकरीबन झाका हुआ था.

रामदीन ने बाबा को जोर से धक्का दिया. बाबा को इस हमले की उम्मीद नहीं थी, वह धक्के के साथ ही एक तरफ लुढ़क गया.

रामदीन के शोर मचाने पर बहुत से लोग इकट्ठा हो गए और गुस्साए लोगों ने बाबा और उस के चेलों की जम कर धुनाई कर दी.

खबर लगते ही मेले का इंतजाम देख रही पुलिस आ गई और रामदीन की लिखित शिकायत पर बाबा को गिरफ्तार कर के ले गई.

तब तक लक्ष्मी को भी होश आ चुका था. घबराई हुई लक्ष्मी को जब पूरी घटना का पता चला तो वह शर्म और बेबसी से फूटफूट कर रो पड़ी.

रामदीन ने उसे सम?ाया, ‘‘तू क्यों रोती है पगली. रोना तो अब उस पाखंडी को है जो धर्म और आस्था की आड़ ले कर भोलीभाली औरतों की अस्मत से खेलता आया है.’’

सुखिया को जब पता चला तो वह दौड़ादौड़ा पुजारी के कमरे की तरफ आया. वह भी इस सारे मामले के लिए अपने आप को कुसूरवार ठहरा रहा था क्योंकि उसी की जिद के चलते रामदीन न चाहते हुए भी यहां आया था और लक्ष्मी इस वारदात का शिकार हुई थी.

सुखिया ने रामदीन से माफी मांगी तो रामदीन ने उसे गले से लगा कर कहा, ‘‘तुम क्यों उदास होते हो? अगर आज हम यहां न आते तो यह हवस का पुजारी पुलिस के हत्थे कैसे चढ़ता? इसलिए खुश रहो… जो हुआ अच्छा हुआ…’’

‘‘हम घर जाते ही किसी अच्छे डाक्टर को यह सफेद दाग दिखाएंगे,’’ लक्ष्मी ने अपने हाथ पर बंधी तांती तोड़ कर फेंकते हुए कहा और सब घर जाने के लिए बसस्टैंड की तरफ बढ़ गए.

शांति अपने बेटे हरिया की शक्ल के पीछे झुकती पुजारी की परछाईं को पहचानने की कोशिश कर रही थी.

पहचान: लता और मंगेश को करीब देख गुजरिया ने क्या किया?

चिलचिलाती धूप में रिकशा एक झांके के साथ एक खूबसूरत मकान के सामने ठहर गया. लता रिकशे से उतर कर मकान के अंदर जाने लगी कि तभी रिकशे वाले ने पुकारा, ‘‘मेम साहब, आप ने अभी मेरे पैसे नहीं दिए.’’

लता ने पलट कर देखा और झोंपती सी बोली, ‘‘ओह सौरी, मैं जल्दी में थी,’’ और पर्स से कुछ पैसे निकाल कर रिकशे वाले को दिए.

रिकशे वाला उसे देखते हुए बोला, ‘‘मेम साहब, गरमी बहुत है. थोड़ा पानी मिल जाता तो…’’ लता ने कहा, ‘‘हांहां, क्यों नहीं. अंदर आ जाओ.’’

वह रिकशे से उतर गया. लता आगेआगे और रिकशे वाला पीछेपीछे घर के भीतर चला गया. वह फ्रिज से पानी निकालने लगी.

रिकशे वाला बड़े ध्यान से घर देखता हुआ बोला, ‘‘मेम साहब, बड़ा सुंदर घर है आप का.’’

लता ने उसे पानी की एक बोतल पकड़ाई और गिलास थमाते हुए बोली, ‘‘यह लो और पानी लो.’’

रिकशे वाला पानी पी रहा था. लता उसे एकटक देख रही थी. वह तकरीबन 30-35 साल के आसपास का होगा. लंबीचौड़ी कदकाठी, चेहरे पर हलकी मूंछें और सिर पर घने बाल.

रिकशे वाले ने पानी पी कर लता को बोतल वापस की, तो लता बोली, ‘‘आओ, मैं तुम्हें अपना पूरा घर दिखाती हूं.’’

रिकशे वाला ‘जी’ कहते हुए लता के पीछेपीछे हो लिया.

‘‘यह देखो रसोईघर है.’’

रिकशे वाले ने कहा, ‘‘वाह…’’

लता बोली, ‘‘और यह बाथरूम.’’

इस के बाद लता ने शावर खोल कर दिखाया, तो वह मुसकरा उठा. शावर की बौछार से थोड़ा बदन लता का और थोड़ा बदन रिकशे वाले का भीग गया. वह सिहर कर पीछे हट गया.

लता ने अजीब नजरों से उसे देखा. कुछ पल के लिए वे दोनों ठिठक से गए, फिर लता ने खामोशी तोड़ी, ‘‘आओ, अब उधर चलें…’’ और वह उसे एक खूबसूरत हाल की ओर ले गई.

रिकशे वाला बड़े ध्यान से सब देख रहा था कि अचानक उस की नजर एक तसवीर पर टिक कर रह गई.

लता ने उस की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

रिकशे वाले ने कहा, ‘‘आप का यह फोटो बड़ा वो है.’’

लता ने पूछा, ‘‘वो मतलब…?’’

वह थोड़ा शरमाते हुए बोला, ‘‘जिसे कहते हैं सक्सी.’’

लता ठहाका मार कर हंस पड़ी, फिर बोली, ‘‘सक्सी नहीं… सैक्सी.’’

रिकशे वाले ने कहा, ‘‘हां, वही बात मैडम. हम ज्यादा पढ़ेलिखे तो हैं नहीं.’’

तभी लता ने आंखों में खुमारी लाते हुए पूछा, ‘‘वैसे, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, मंगेश.’’

‘‘तो मंगेश, मैं सिर्फ फोटो में ही सैक्सी लगती हूं… ऐसे नहीं?’’ कहते हुए लता ने उस की बांहें थाम लीं.

मंगेश एकदम से हकलाने लगा,

‘‘म… मैडम…’’

‘‘बोलो मंगेश… क्या मैं ऐसे सैक्सी नहीं लगती?’’ कहते हुए लता ने अपनी साड़ी का आंचल नीचे गिरा दिया और उसे बिस्तर पर धकेल दिया.

मंगेश संभलते हुए बोला, ‘‘मेम साहब, मेरी सवारियां आती होंगी. मुझे जाने दीजिए अब.’’

लता ने रिकशे वाले के करीब बैठ कर अपनी बांहें उस की कमर के इर्दगिर्द कर लीं और बोली, ‘‘कितनी सवारियां आएंगी दिनभर में? कितना पैसा कमा लोगे तुम?’’

मंगेश बोला, ‘‘यही कोई 8 से 10 सवारियां. पूरे दिन में तकरीबन 500 रुपए कमा लूंगा.’’

‘‘मैं तुम्हें 1,000 रुपए दूंगी. तुम कहीं मत जाओ. आज तुम देखो कि मैं सैक्सी दिखती ही नहीं… सैक्सी हूं भी,’’ इतना कह कर लता ने मंगेश का हाथ मजबूती से पकड़ लिया.

मंगेश सहमा सा हाथ छुड़ाते हुए बोला, ‘‘नहीं मेम साहब…’’

लता दांत पीसते हुए बोली, ‘‘जैसा कह रही हूं वैसा करो, वरना अभी पुलिस बुलाती हूं कि तुम ने पानी पीने के बहाने घर में घुस कर मेरे साथ छेड़छाड़ की है.’’

यह सुन कर मंगेश सहम गया. लता ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया और बैडरूम का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया.

आधा घंटे बाद मंगेश थकाथका सा बाहर निकला. उस की मुट्ठी में 1,000 रुपए थे. रास्ता सुनसान था. जेठ की गरमी के चलते लोग अपनेअपने घरों में दुबके पड़े थे. कुछ दूरी पर एक परचून की दुकान थी. उस पर भी जो लड़का बैठा था, वह अधसोया सा था.

मंगेश ने एक बार चोर निगाहों से हर तरफ देखा, फिर रिकशे पर बैठ कर वहां से निकल गया.

आते वक्त लता ने उस से कहा था, ‘तुम रोज यहीं आ जाया करो. तुम्हें दिनभर की कमाई भी मिल जाएगी और धूप में यहांवहां थकना भी नहीं पड़ेगा.’

अगले दिन मंगेश संकोच में कहीं बाहर नहीं गया. उस के दिमाग में पिछले दिन की सारी बातें चल रही थीं. एकएक सीन याद आ रहा था, जबकि पत्नी गुजरिया कई बार कह चुकी थी, ‘‘काम पर नहीं जाना हैं क्या? राशन भी खत्म हो गया है.’’

मंगेश अलसाते हुए बोला, ‘‘सब हो जाएगा, तुम चिंता न कर…’’ और फिर आंखें बंद कर के कुछ सोचने लगा.

अगले दिन मंगेश कुछ सहमा सा लता के पास गया. वह उसे देख कर खुश हो गई और बोली, ‘‘अरे, कहां चले गए थे? तुम कल क्यों नहीं आए? बैठो, मैं तुम्हें कुछ दिखाती हूं,’’ कहते हुए वह कमरे की तरफ जाने लगी.

मंगेश बैठने लगा कि तभी लता रुक कर बोली, ‘‘सुनो, तुम भी इधर ही चले आओ.’’

यह सुन कर मंगेश कांप गया. वह ठिठकते हुए उठा और लता के पीछेपीछे चला गया.

लता ने एक कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘बैठो.’’

मंगेश बैठ गया. इतने में लता ने अलमारी खोली. उस में से 2 पैकेट निकाले और उस की तरफ बढ़ा दिए.

मंगेश ने पैकेट ले लिए और उन्हें खोलने लगा, फिर हैरत से बोला, ‘‘अरे मेम साहब, इतने कीमती कपड़े…’’

लता बोली, ‘‘अरे कीमती क्या, बस ऐसे ही हैं…’’ फिर उस से कपड़े ले कर वह समेटते हुए बोली, ‘‘अब घर ले जा कर देखना अच्छी तरह से. चलो, अब कुछ काम कर लें…’’

इतना सुनते ही मंगेश का चेहरा उतर गया, मगर वह मजबूर सा बैठा रहा. लता ने आगे बढ़ कर दरवाजा बंद कर दिया.

अब यह रोज का काम हो गया था. मंगेश की रोजाना 1,000 रुपए की आमदनी हो जाती थी.

एक दिन मंगेश ने लता से पूछा, ‘‘मेम साहब, आप का परिवार और बच्चे कहां हैं?’’

लता ने एकदम सपाट सा जवाब दिया, ‘‘बच्चे नहीं हैं. पति सारा दिन औफिस में रहते हैं और शाम को वापस आते हैं. तुम ने क्यों पूछा वैसे?’’

मंगेश बोला, ‘‘बस, ऐसे ही.’’

लता ने कहा, ‘‘मेरा पति सिर्फ पैसे कमाने के लायक है… सुना तुम ने… औरत के लायक नहीं…’’

मंगेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, ‘‘आह… वे आप जैसी खूबसूरत पत्नी को भोग भी नहीं पा रहे हैं…’’ लता चुप रही.

गुजरिया कई दिनों से देख रही थी कि मंगेश सिर्फ 2-3 घंटे के लिए बाहर जाता है और अच्छाखासा पैसा कमा लाता है. वह कहीं कोई नंबर दो का काम तो नहीं करने लगा?

गुजरिया ने एक दिन पूछा, ‘‘मुनिया के बापू, तुम 2-4 घंटे में इतना पैसा कैसे कमा लाते हो… एकसाथ इतनी दिहाड़ी कैसे मिल जाती है?’’

मंगेश हंस कर पीढ़े पर बैठते हुए बोला, ‘‘सब तुम लोगों के भाग्य से आता है, इतना समझ लो.’’

गुजरिया ने आंखें तरेर कर उसे देखा, मगर बोली कुछ नहीं. यह बात उसे हजम नहीं हुई.

दूसरे दिन जब अपना रिकशा ले कर मंगेश घर से चला, तो गुजरिया भी दूसरे रिकशे वाले को बोल कर उस के पीछेपीछे चल दी. कई चौराहे और गलियां पार करते हुए आखिरकार मंगेश का रिकशा एक मकान के सामने ठहरा.

गुजरिया ने भी अपना रिकशा काफी दूरी पर रुकवा लिया, उसे पैसे दिए और वहीं खड़ी हो गई दीवार की ओट में.

गुजरिया ने देखा कि मकान का गेट खुला है और उस का पति अंदर दाखिल हो गया है. परचून की दुकान खुली थी. लड़का बैठा इधरउधर देख रहा था कि तभी गुजरिया वहां पहुंची और बोली, ‘‘भैया, यह घर किस का है?’’

दुकान वाला बोला, ‘‘रमेश बाबू का है. वे टैलीफोन दफ्तर में जेई हैं. वे बेचारे औफिस में खटते हैं और उन की बीवी यहां मजे करती है.’’

गुजरिया ने पूछा, ‘‘मतलब…?’’

दुकान वाला बोला, ‘‘दिख नहीं रहा सामने रिकशा. रिकशे वाले के हाथ मोती लग गया है. हम लोग तो वहां फटक भी नहीं पाते…’’

गुजरिया फौरन वापस हो ली और रिकशा कर के टैलीफोन दफ्तर पहुंची. वहां रमेश बाबू का केबिन पता किया और जल्दी से वहां पहुंची.

गुजरिया ने अंदर आने की इजाजत मांगी, तो रमेश बाबू ने शीशे से बाहर देखा और हुड़क दिया, ‘‘जाओ, अपना काम करो. ये भिखमंगे यहां भी पीछा नहीं छोड़ते.’’

लेकिन, गुजरिया दरवाजे पर ‘खटखट’ करती रही. आखिरकार वे झल्ला कर अपनी कुरसी से उठे और झटके से दरवाजा खोला.

गुजरिया ने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया, लेकिन उन्होंने उसे नजरअंदाज कर आवाज लगाई, ‘‘चौकीदार, ये किसकिस को आने देते हो यहां… ये भिखमंगों का अड्डा नहीं है, समझे…’’

चौकीदार गुजरिया की बांहें पकड़े खींच रहा था, तभी वह उस का हाथ झटकते हुए रमेश बाबू की ओर चिल्लाई, ‘‘बाबूजी, हमारे कपड़े गंदे हैं, लेकिन मन नहीं गंदा है…

‘‘जा कर अपने घर की गंदगी देखो एक बार. तुम को अपनी गंदगी का अंदाजा ही नहीं, जिसे गले से लगाए फिरते हो.’’

यह सुन कर रमेश बाबू सन्न रह गए. वे मुड़े और बोले, ‘‘चौकीदार, छोड़ दो इसे.’’

गुजरिया तीर की तरह केबिन में उन के पीछेपीछे आ गई और बोली, ‘‘साहब, इसी समय मेरे साथ चलिए.’’

रमेश बाबू कांपती सी आवाज में बोले, ‘‘कहां?’’

गुजरिया ने कहा, ‘‘आप के घर.’’

रमेश बाबू चिल्लाए, ‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? जाओ, अपना काम करो.’’

गुजरिया ने हाथ जोड़ दिए और बोली, ‘‘चलिए बाबूजी, बहुत जरूरी है. मेरे लिए न सही तो अपने लिए चलिए.’’

रमेश बाबू ने लता को फोन करना चाहा, तो गुजरिया बोली, ‘‘नहीं बाबूजी, बात खराब हो जाएगी. बिना बताए चलिए, देर मत कीजिए.’’

रमेश बाबू ने एक गहरी निगाह से उसे देखा, फिर उठ गए और पीछेपीछे गुजरिया. उन्होंने अपनी कार निकाली. पीछे गुजरिया बैठ गई.

कुछ ही देर में रमेश बाबू अपने घर के सामने थे. बाहरी गेट की एक चाभी उन के पास रहती थी. उन्होंने गेट खोला और दबे कदमों से बैडरूम की ओर गए.

बैडरूम का दरवाजा हलका सा बंद था. वे दोनों तेजी से अंदर घुसे. वहां का सीन देख कर गुजरिया तेजी से चीख ही पड़ी, ‘‘तू यहां अपना मुंह काला करा रहा है…’’

सैक्स में डूबे लता और मंगेश उन को देख कर हड़बड़ा गए. रमेश बाबू ने बढ़ कर लता को कई थप्पड़ जड़े. गुजरिया ने मंगेश को कई थप्पड़ लगाए.

मंगेश ने गुजरिया को धकेल दिया, तो वह चिल्लाई, ‘‘एक तो तू हम सब को हराम की कमाई खिलाता रहा, ऊपर से चिल्लाता है… बेहया,’’ फिर वह रमेश बाबू से बोली, ‘‘बाबूजी, पुलिस बुलाओ… इस को इस का अंजाम भुगतना पड़ेगा. अब इस का और हमारा साथ खत्म…’’

रमेश बाबू गुस्से से थरथरा रहे थे. वे फोन मिलाने लगे कि मंगेश ने उन का गला दबोच लिया. रमेश बाबू के गले से ‘गोंगों’ की आवाज निकलने लगी. गुजरिया उन्हें छुड़ा रही थी.

मंगेश ने लात मार कर गुजरिया को अलग किया. रमेश बाबू के गले पर उस की पकड़ कसती जा रही थी.

लता ने जल्दीजल्दी कपड़े पहन लिए थे. उस ने रमेश बाबू की हालत देखी, तो हड़बड़ाहट में बड़ा सा गुलदान उठा कर मंगेश के सिर पर दे मारा. वह चीख कर वहीं ढेर हो गया.

तब तक पड़ोसियों ने पुलिस बुला ली थी. लता को गिरफ्तार कर लिया गया. वह रमेश बाबू से हाथ जोड़ते हुए बोली, ‘‘रमेश… बचा लो मुझे…’’

रमेश बाबू ने नफरत से मुंह घुमा लिया और गुजरिया से बोले, ‘‘तुम ने सही कहा था. साफसुथरे कपड़ों में भी घिनौने और नीच लोग रहते हैं… माफ करना बहन. मुझे अच्छेबुरे की पहचान ही नहीं थी.’’

News Kahani: सियासत, सत्ता और समझदारी

एक तो तेज गरमी का मौसम, उस पर बारिश का डर. हाल ही में सरपंच बनी संगीता यह सोचसोच कर परेशान थी कि आज चुनाव प्रचार के सिलसिले में सत्ता पार्टी के जिलाध्यक्ष रामप्रकाश के साथ घर से बाहर निकले या नहीं?

दरअसल, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव रूपपुर में इस बार सरपंच का पद दलित महिला के लिए रिज्वर्ड था. संगीता अभी 28 साल की थी और राजनीति में भी दिलचस्पी रखती थी. पति पवन ने बढ़ावा दिया तो वह सरपंच पद के लिए खड़ी हो गई.

जिलाध्यक्ष रामप्रकाश ऊंची जाति का था और गांव में उस का दबदबा था. इलाके के एमपी साहब से उस का काफी मिलनाजुलना था. उस ने संगीता को जिताने में काफी अहम रोल निभाया था और अब वह लोकसभा चुनाव में संगीता के साथ इधर से उधर घूमता था.

‘‘सुनो…’’ संगीता ने अपने पति पवन से कहा, ‘‘मुझे बाहर बड़ी सड़क तक छोड़ आओ. वहां से मैं रामप्रकाशजी के साथ एमपी साहब के घर चली जाऊंगी. आज बहुत ज्यादा काम है, इसलिए मना नहीं कर सकती.’’

पवन सो रहा था. उस ने बिना आंखें खोले ही कहा, ‘‘तुम अपना खुद देख लो. मुझे नींद आ रही है,’’ फिर वह करवट बदल कर दोबारा सो गया.

इतने में जिलाध्यक्ष रामप्रकाश का फोन आ गया, ‘कहां हो सरपंचजी? मैं बड़ी रोड पर खड़ा हूं. हमें पहले ही देर हो गई है. एमपी साहब नाराज हो जाएंगे.’

‘‘क्या बताऊं रामप्रकाशजी, मैं तो तैयार बैठी हूं, पर आज पवन मुझे छोड़ने नहीं आ रहे हैं. आप ही कुछ कीजिए,’’ संगीता ने अपनी समस्या बताई.

‘ठीक है, तुम घर के बाहर तक आओ, मैं लेने आ जाता हूं,’ इतना कह कर रामप्रकाश ने फोन काट दिया.

थोड़ी देर में ही वे दोनों एमपी साहब के घर की तरफ रवाना हो गए. आज संगीता ने साड़ी बांधी थी. वह जवान तो थी ही, दिखने में भी खूबसूरत थी. गोरी देह, अच्छे नैननैक्श, घने काले बाल और कद भी ठीकठाक ही था. कोई कह नहीं सकता था कि उस की 5 साल की एक बेटी भी है, जिस की देखभाल सास ही करती थी.

रामप्रकाश 40 साल का हट्टाकट्टा मर्द था. उस के परिवार में पत्नी गोमती और 2 बच्चे थे. वह राजनीति में आगे बढ़ना चाहता था और इसीलिए वह एमपी साहब से मिलने का कोई मौका नहीं छोड़ता था.

चूंकि चुनाव नजदीक थे, इसलिए दिनभर की भागादौड़ी में दिन बीतने का पता ही नहीं चला. शाम के 5 बजने वाले थे, पर अब तक तो मौसम भी पलटी मार चुका था.

‘‘जल्दी चलो रामप्रकाशजी, कहीं बारिश शुरू हो गई तो दिक्कत हो जाएगी. मेरी बेटी की तबीयत भी ढीली है,’’ संगीता ने आसमान की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘तुम चिंता मत करो, हम समय से घर पहुंच जाएंगे. आज मैं खुश हूं, क्योंकि एमपी साहब हमारे काम से संतुष्ट हैं,’’ रामप्रकाश ने मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए कहा.

लेकिन मौसम को कुछ और ही मंजूर था. अभी वे थोड़ी ही दूर आए थे कि एकदम से घनघोर बारिश होने लगी. बारिश इतनी ज्यादा तेज थी कि रामप्रकाश को आगे सड़क पर कुछ नहीं दिखाई दे रहा था. वे दोनों पानी से तर हो गए थे.

‘‘अब क्या होगा? लगता नहीं कि यह बारिश जल्दी रुक जाएगी…’’ संगीता को चिंता होने लगी.

रामप्रकाश ने कहा, ‘‘यहीं आगे ही खेतों में मेरे एक दोस्त का ट्यूबवैल है. वहां बारिश से बचने का इंतजाम होगा,’’ फिर रामप्रकाश ने एक खेत की तरफ मोटरसाइकिल मोड़ दी. गन्ने के खेतों के बीच से वे दोनों ट्यूबवैल तक जा पहुंचे.

वहां एक टूटाफूटा कमरा भी बना हुआ था. वे दोनों उस में चले गए. भीतर एक छोटी सी पुरानी खाट थी और कोने में फूस रखा था. संगीता पानी से तर हो चुकी थी. गीली साड़ी में उस की देह फूट रही थी. उस ने ?ि?ाकते हुए कोने में जगह ली और कांपते हुए अपने कपड़े सुखाने की नाकाम कोशिश की.

रामप्रकाश सम?ा गया था कि संगीता को ठंड लग रही है. उस ने अपनी परवाह न करते हुए थोड़ा फूस और कुछ सूखी लकडि़यां जमा कीं और आग जला दी. उस कमरे में रोशनी होने से पता चला कि वहां कोई चादर वगैरह नहीं थी.

रामप्रकाश ने वह खाट उठाई और सीधी खड़ी कर दी और बोला, ‘‘संगीता, तुम इस की आड़ में अपने कपड़े ठीक से सुखा लो.’’

पहले तो संगीता को ?ि?ाक हुई, पर वह बहुत ज्यादा गीली थी, तो उस ने अपनी साड़ी खोल दी और आग की आंच में उसे सुखाने लगी.

रामप्रकाश ने खाट की आड़ में से देखा कि संगीता पेटीकोट और ब्लाउज में अपनी साड़ी सुखा रही थी. एक पल को तो वह बेचैन हो गया, पर फिर उस ने पूछा, ‘‘संगीता, तुम्हारी बेटी का क्या नाम है?’’

संगीता बोली, ‘‘महिमा.’’

‘‘अरे वाह, बहुत बढि़या नाम है. मेरी बेटी का नाम रोशनी है. बड़ी ही होनहार है. 10वीं जमात में पढ़ती है. अपनी मां के काम में हाथ बंटाती है’’ रामप्रकाश जैसे अपनी बेटी की याद में खो गया.

‘‘बेटियां होती ही अपने बाप की लाड़ली हैं. पवन भी महिमा के बगैर नहीं रह पाते हैं,’’ संगीता ने कहा, ‘‘लेकिन, फिलहाल तो इस बारिश का क्या करें… समय बीत रहा है और हम यहां फंस गए हैं,’’ संगीता बोली.

रामप्रकाश ने घड़ी देखी. शाम के 7 बजने वाले थे. पर बारिश तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसे भी चिंता हो रही थी. उस ने बात पलटते हुए पूछा, ‘‘तुम आगे क्या करना चाहती हो? हम इतने दिनों से एकसाथ काम कर रहे हैं, पर कभी एकदूसरे के बारे में ज्यादा पूछा नहीं.’’

तब तक संगीता के कपड़े कुछ हद तक सूख गए थे. वह खाट की ओट से बाहर आ गई. अब कपड़े सुखाने की बारी रामप्रकाश की थी.

‘‘मैं तो अपने गांव के लिए अच्छे काम करना चाहती हूं. अपने समाज की लड़कियों को पढ़ने की प्रेरणा देना चाहती हूं. महिमा को बड़ी अफसर बनाना चाहती हूं,’’ संगीता ने बताया.

‘‘बहुत अच्छी बात है. पढ़ेलिखे जनप्रतिनिधियों की इस देश को जरूरत है. तुम कामयाब रहो. जितना हो सकेगा, मैं तुम्हारी मदद करूंगा.’’

उन दोनों को घर पहुंचने में रात के 10 बज गए थे. पवन की मां ने दरवाजा खोला और जब संगीता के साथ रामप्रकाश को देखा, तो वे जलभुन गईं.

पवन का मिजाज भी ठीक नहीं था. उस ने कड़े शब्दों में कह दिया, ‘‘आज के बाद तुम रामप्रकाश के साथ कहीं नहीं जाओगी. आज रात में 10 बजे आई हो, कल क्या पता पूरी रात उस के साथ काली करो.’’

‘‘पर, हम दोनों बारिश में फंस गए थे,’’ संगीता ने अपनी बात रखी.

इस पर सास भी तिलमिला गईं, ‘‘पवन जो कह रहा है, वही कर. बहुत हो गई सरपंची. हम किसकिस का मुंह बंद करते फिरेंगे.’’

संगीता ने कुछ नहीं कहा और अपने कमरे में चली गई.

उधर, रामप्रकाश के घर में तो बवाल ही मच गया. गोमती को संगीता फूटी आंख नहीं भाती थी और आज इस बारिश में दोनों का एकसाथ होना गोमती के कान खड़े कर गया.

‘‘तुम बात का बतंगड़ बना रही हो. जो भी मैं ने तुम्हें बताया, वही सौ फीसदी सच है,’’ रामप्रकाश अपनी सफाई दे रहा था.

‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना. भले ही अखबार तुम खरीदते हो, पर पढ़ती मैं भी हूं,’’ गोमती ने तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘तुम से ज्यादा दीनदुनिया की खबर मुझे रहती है. देश में चुनावी माहौल है और दिल्ली में एक नामचीन औरत के साथ हुई बदसुलूकी पर तुम मर्दों की जबान को लकवा मार जाता है.’’

‘‘तुम किस खबर की बात कर रही हो?’’ राम प्रकाश ने झंझला कर पूछा.

‘‘स्वाति मालीवाल के साथ जो कांड हुआ है, वह किसी से नहीं छिपा है. अंदरखाते जो हुआ है, वह तो स्वाति मालीवाल और विभव कुमार ही जानें, पर अगर स्वाति मालीवाल की बातों में जरा सा भी दम है, तो तुम भी संभल जाओ. यह जो तुम उस कलमुंही सरपंच के पल्लू से बंधने की कोशिश कर रहे हो न, किसी दिन वही तुम्हारे लत्ते उतरवा देगी सरेआम. फिर न कहना कि बताया नहीं था,’’ गोमती के तेवर ही अलग थे.

‘‘अच्छा बताओ कि स्वाति मालीवाल ने क्या बयान दिया है?’’ रामप्रकाश ने गोमती से पूछा.

‘‘इस में क्या बड़ी बात है. अखबार की छपी खबर चीखचीख कर बता रही है कि स्वाति मालीवाल ने कहा कि मैं कैंप दफ्तर के अंदर गई. सीएम के पीए विभव कुमार को फोन किया, लेकिन मैं अंदर नहीं जा सकी. फिर मैं ने उन के मोबाइल नंबर पर एक मैसेज भेजा था. हालांकि, कोई जवाब नहीं आया.

‘‘इस के बाद स्वाति मालीवाल ने बताया कि मैं उन के आवास परिसर में गई, जहां मैं अकसर जाती थी. वहां विभव कुमार मौजूद नहीं थे, इसलिए मैं ने आवास परिसर में एंट्री की और वहां मौजूद कर्मचारियों को जानकारी दी कि मैं यहां सीएम से मिलने के लिए आई हूं.

‘‘ये सब बातें एफआईआर में लिखी गई हैं. स्वाति मालीवाल ने आगे कहा कि मुझे बताया गया कि वे घर में मौजूद हैं और मुझे ड्राइंगरूम में इंतजार करने के लिए कहा है. मैं ड्राइंगरूम में गई और सोफे पर बैठ गई और उन से मिलने का इंतजार किया.

‘‘इस के बाद स्वाति मालीवाल ने बताया कि मुझे पता चला कि सीएम मिलने के लिए आ रहे हैं, लेकिन अचानक पीए विभव कुमार कमरे में घुस आए. उन्होंने बिना किसी उकसावे के चिल्लाना शुरू कर दिया. मुझे गालियां भी दीं. मैं स्तब्ध रह गई. इतना ही नहीं, मुझे थप्पड़ मारना शुरू कर दिया. जब मैं लगातार चिल्लाती रही, तो मुझे कम से कम 7 से 8 बार थप्पड़ मारे. मैं वहां मदद के लिए भी चिल्लाई थी. जानबूझ कर मेरी शर्ट ऊपर खींची.

‘‘स्वाति मालीवाल ने आगे बताया कि मैं ने उन से बारबार कहा कि मैं मासिक धर्म के दौर से गुजर रही हूं, कृपया मुझे जाने दें, लेकिन जाने नहीं दिया. फिर मैं वहीं बैठ गई. मैं ड्राइंगरूम के सोफे पर गई और हमले के दौरान जमीन पर गिरे अपने चश्मे को उठाया. इस के बाद 112 नंबर पर फोन किया और पुलिस को सूचना दी.’’

‘‘तुम ने स्वाति मालीवाल का पक्ष तो बता दिया, पर आम आदमी पार्टी तो इसे साजिश बता रही है. स्वाति मालीवाल वाले मामले में आप नेता और दिल्ली सरकार में मंत्री आतिशी ने पत्रकारों के सामने सीएम हाउस का पक्ष रखा.

‘‘आतिशी ने इस साजिश के पीछे भारतीय जनता पार्टी का हाथ बताया है. उन्होंने कहा कि स्वाति मालीवाल झूठ बोल रही हैं. सीएम केजरीवाल के पीए विभव कुमार पर झूठे आरोप लगाए जा रहे हैं. मुख्यमंत्री केजरीवाल घटना वाले दिन वहां पर नहीं थे. अब बताओ कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ?

‘‘वैसे भी खबरों के मुताबिक, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ स्वाति मालीवाल की पहले से कोई मुलाकात तय नहीं थी. स्वाति जिस चोट की बात कह रही हैं, वह कहीं दिख नहीं रही.’’

गोमती भी कहां चुप रहने वाली थी, ‘‘ऐसा है तो राष्ट्रीय महिला आयोग ने स्वाति मालीवाल के मामले में अरविंद केजरीवाल के निजी सचिव विभव कुमार को क्यों नोटिस जारी किया था?

‘‘विभव कुमार को शुक्रवार, 17 मई, 2024 को सुबह 11 बजे कमीशन के सामने पेश होने के लिए कहा गया था, लेकिन वे एनसीडब्ल्यू के सामने पेश नहीं हुए.

‘‘एनसीडब्ल्यू की चीफ रेखा शर्मा ने बीबीसी संवाददाता दिलनवाज पाशा को बताया था कि आज विभव कुमार को दूसरा समन भेजा गया है. अगर वे नहीं आते हैं, तो उन्हें बुलाने के लिए पुलिस की मदद ली जाएगी.

‘‘रेखा शर्मा ने यह भी बताया कि महिला आयोग की टीम विभव कुमार के घर नोटिस देने के लिए गई थी, लेकिन वे घर पर नहीं थे.

‘‘रेखा शर्मा ने पत्रकारों से यह भी कहा कि विभव कुमार की पत्नी ने नोटिस लेने से मना कर दिया. मेरी टीम आज पुलिस के साथ उन के घर फिर से गई और अगर वे एनसीडब्ल्यू के सामने पेश नहीं हुए, तो हम खुद वहां जा कर जांच करेंगे.

‘‘इतना ही नहीं, रेखा शर्मा ने स्वाति मालीवाल का पक्ष लेते हुए कहा कि मैं स्वातिजी से ट्विटर पर कह रही थी कि वे अपनी आवाज उठाएं, लेकिन मुझे लगता है कि वे पार्टी नेता के घर में हुई घटना की वजह से सदमे में हैं. एक सांसद, जो हमेशा महिलाओं के मुद्दे उठाती रही हैं, उन्हें पीटा गया है.’’

‘‘इस खबर से तुम क्या साबित करना चाहती हो?’’ रामप्रकाश ने सवाल किया.

‘‘यही कि तुम उस सरपंच को ज्यादा भाव मत दो और उस के ज्यादा करीब मत रहो,’’ गोमती ने कहा.

‘‘पर, मेरे और संगीता के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है. हम सरकारी काम के सिलसिले में आपस में मिलते हैं और एमपी साहब के प्रचार का काम करते हैं. उन का हाथ सिर पर रहेगा, तभी तो हमें भी थोड़ी मलाई खाने को मिलेगी.’’

‘‘मुझे नहीं चाहिए ऐसी मलाई, जिस में किसी पराई औरत की गंध शामिल हो,’’ गोमती का गुस्सा सातवें आसमान पर था, ‘‘और अब तो मेरी इस समस्या का हल तुम्हारे एमपी साहब के घर से ही मिलेगा. हम चारों कल ही उन के घर जाएंगे और मैं फरियाद करूंगी कि मुझे सरपंच के भूत से नजात दिलाएं.’’

उधर संगीता के घर का भी यही हाल था. वह भले ही गांव की सरपंच बन गई थी, पर अब भी घर पर उस की दो कौड़ी की हैसियत थी. पवन भी गोमती की तरह यह मान बैठा था कि रामप्रकाश और संगीता काम के बहाने अपनी ही कामवासना का गेम खेल रहे हैं.

पवन खाना खाने बैठा ही था कि संगीता के मोबाइल फोन की घंटी बजी. रामप्रकाश का फोन था. वह उस का नाम देख कर कुढ़ गया.

संगीता ने फोन उठाया, तो उधर से आवाज आई, ‘आज तो गजब हो गया. हम दोनों के घर देर से आने के चलते गोमती ने घर सिर पर उठा लिया है. वह नहीं मान रही है कि हम दोनों बारिश में फंस गए थे. अब हमें अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए एमपी साहब के घर जाना होगा. कल तुम तैयार रहना. पवन को भी मना लेना’

फोन कट गया. संगीता ने पवन की ओर देखा और बोली, ‘‘कल हमें एमपी साहब के घर जाना है.’’

‘‘क्यों? अब रामप्रकाश ने कौन सा प्रपंच रचा है?’’ पवन तो जैसे भरा बैठा था.

‘‘अब यह तो कल ही पता चलेगा,’’ इतना कह कर संगीता रसोईघर में चली गई.

अगले दिन दोपहर के 2 बज रहे थे. वे चारों एमपी साहब के घर पर थे. पर उस समय एमपी साहब घर पर नहीं थे. लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिए दौरे पर थे. रामप्रकाश को थोड़ी निराशा हुई, पर जब एमपी साहब की पत्नी कुसुम देवी ने बाहर बैठक में आ कर रामप्रकाश की नमस्ते ली, तो रामप्रकाश का जी हलका हो गया. वह उन्हें थोड़ा अलग ले गया और अपनी समस्या बताई.

कुसुम देवी ने उन चारों को बिठाया और अपने नौकर से कह कर चाय मंगवाई, फिर उन्होंने गोमती से पूछा, ‘‘तुम्हें अपने पति पर यकीन नहीं है क्या?’’

गोमती पहले तो सकपका गई, फिर बोली, ‘‘ऐसा नहीं है, पर जब लोगों में कानाफूसी बढ़ जाती है, तो आंखों देखी मक्खी भी तो निगली नहीं जाती न.’’

‘‘अच्छा तो तुम लोगों ने यह मान लिया है कि रामप्रकाश और संगीता का ज्यादा घूमनाफिरना यह साबित करता है कि इन दोनों के बीच कोई नाजायज रिश्ता है’’

पवन कुछ नहीं बोला, पर उसे भी यही लगता था कि संगीता और रामप्रकाश में कुछ तो खिचड़ी पक रही है और ये दोनों घर से बाहर जा कर रंगरलियां मनाते हैं. संगीता को उस की चुप्पी अखर रही थी.

‘‘तुम लोगों की गलती नहीं है. पहले मैं भी एमपी साहब के दिनभर घर से बाहर रहने और तमाम मर्दऔरतों के मिलने के चलते परेशान रहती थी. मुझे लगता था कि ये राजनीति कम और ऐयाशी ज्यादा करते हैं, पर फिर समझ आने लगा कि दुनियाभर में बहुत से ऐसे काम हैं, जहां कोई मर्द हो या औरत, उसे परिवार से कट कर लोगों के बीच जाना ही पड़ता है. वहां तरहतरह की फितरत के मर्दऔरत से उन का वास्ता पड़ता है और बहुत बार तो अकेलेपन में उन में नजदीकियां भी बढ़ जाती हैं और इसे टाला नहीं जा सकता.

‘‘हमारा तो समाज ही ऐसा है कि औरतों को किसी पराए मर्द की नजदीकी के चलते गलत मान लिया जाता है. संगीता गांव की सरपंच है और रामप्रकाश हमारी पार्टी के जिलाध्यक्ष. चुनाव के दिनों में किसी भी नेता को ऐसे लोगों से बहुत काम पड़ता है. लिहाजा, इन्हें इधर से उधर दौड़ाया जाता है. न दिन देखा जाता और न ही रात.’’

‘‘लेकिन मैडम, इस में घर वाले क्या करें? हमें तो दुनिया को जवाब देना पड़ता है न,’’ पवन बोला.

‘‘तुम्हारी बात सही है, पर हमारे देश में तो सदियों से ऐसा होता आया है कि गलती चाहे मर्द की क्यों न हो, गाज तो औरत पर ही गिरती है. ‘महाभारत’ का वह किस्सा ही ले लो, जब विचित्रवीर्य की शादी कराने के लिए भीष्म ने काशीराज की 3 बेटियों का वाराणसीपुरी की स्वयंवर सभा से हरण कर लिया था,’’ कुसुम देवी ने कहा.

‘‘क्या किस्सा था यह?’’ रामप्रकाश ने पूछा.

‘‘उन तीनों लड़कियों का नाम अंबा, अंबिका और अंबालिका था. अंबा ने जब सुना कि भीष्म अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य से उस की शादी कराना चाहते हैं, तो उस ने कहा कि वह राजा शाल्व को मन ही मन अपना पति मान चुकी है, तो भीष्म ने उसे शाल्व के यहां जाने की इजाजत दे दी और बाकी दोनों बहनों अंबिका और अंबालिका को विचित्रवीर्य की पत्नी के रूप में सौंप दिया. लेकिन शादी के 7 साल बाद ही विचित्रवीर्य नहीं रहे,’’ कुसुम देवी ने बताया.

‘‘मेरा कहने का मतलब यह है कि हमारे समाज में औरतों और लड़कियों से उन के मन की बात न तो जानी जाती है और न ही समझ जाती है. अब जब वे अपनी मरजी से घर से बाहर निकलने लगी हैं, तब भी उन्हें अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है.

‘‘मेरा कहा मानो तो अपने दिमाग से यह बात बिलकुल निकाल दो कि संगीता और रामप्रकाश में कुछ गलत चल रहा है, तभी तुम चारों अपने परिवार को सही ढंग से संभाल पाओगे. अगर मैं एमपी साहब पर शक करती रहूंगी, तो वे कभी भी राजनीति में आगे नहीं बढ़ पाएंगे.’’

इतने में नौकर सब के लिए चाय ले आया. कुसुम देवी ने सब के साथ चाय पी. बाद में बैठक में लगे ठहाकों से ऐसा लग रहा था कि उन चारों की समस्या का हल मानो निकल आया है.

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