बदचलनी का ठप्पा: क्यों भागी परबतिया घर से?

कोलियरी की कोयला खदान में काम करने वाला एक सीधासादा मजदूर था अर्जुन महतो. पिछले से पिछले साल वह अपनी ननिहाल अनूपपुर गया था, तो वहां से पार्वती को ब्याह लाया. कच्चे महुए जैसा रंग और उस पर तीखे नयननक्श, खिलखिला कर हंसती तो उस के मोतियों जैसे दांत देखने वाले को बरबस मोहित कर लेते. वह कितनी खूबसूरत थी, उसे कह कर बताना बड़ा मुश्किल काम था. कोलियरी में जहां चारों ओर कोयले की कालिख ही कालिख बिखरी हो, वहां पार्वती की खूबसूरती उस के लिए एक मुसीबत ही तो थी. लोगों ने तरहतरह की बातें बनाईं.

एक ने कहा, ‘‘अर्जुन के दिन बहुरे हैं, जो इतनी सुंदर बहुरिया पा गया, वरना कौन पूछता उस कंगाल को?’’

एक छोटे दिल वाले ने जलभुन कर यह भी कह दिया, ‘‘ऐसा ही होता है यार, अंधे के हाथ ही बटेर लगती है.’’

उधर अर्जुन इन सब बातों से बेखबर, अपनी पार्वती में मगन था. लाड़ में वह उसे ‘परबतिया’ कह कर पुकारता था. उस की प्यारी परबतिया उस की गृहस्थी जमाने लगी थी.

अर्जुन को भी कोयला खदान की लोडर (गाड़ी में कोयला लादने वाला) की नौकरी में मकसद और जोश दोनों नजर आने लगे थे. कोलियरी के नेताओं के भाषणों में वह अमूमन एक ही घिसीपिटी बात सुनता था कि खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालना है और सरकार के हाथ मजबूत करने हैं, पर अर्जुन भी इन भाषणों को और मजदूरों की तरह पान खा कर थूक देता था.

अर्जुन की सरकार तो उस की परबतिया थी. गोरीचिट्टी और गोलमटोल. धरती के पेट में छिपी कोयला खदान की उस काली दुनिया में जब अर्जुन अपने कंधों पर कोयले से भरी टोकरी लादे टब (एक टन कोयले  की गाड़ी) को भर रहा होता, तब भी  उस के दिल और दिमाग में सिर्फ उस  की परबतिया होती, उस के छोटे से  घर में खाना बना कर उस का इंतजार करती हुई. मेहनत करने से अर्जुन का शरीर लोहा हो गया था. पहली बार जब उस  ने पार्वती को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ा था तो वह मीठेमीठे दर्द से चिहुक उठी थी.

अर्जुन को लगा था कि परबतिया तो कोयले से भरी उस टोकरी से बहुत हलकी है. कहां वह कालाकाला कोयला और कहां हलदी की तरह गोरी फूलों की यह चटकती कली. अर्जुन की बांहों की मजबूती पा कर वह कली खिलने लगी थी. कभीकभी अर्जुन पार्वती को छेड़ता, ‘‘कम खाया कर परबतिया, बहुत मोटी होती जा रही है.’’

पार्वती अर्जुन के चौड़े सीने से सट जाती और अपनी महीन आवाज में फुसफुसाती, ‘‘इतना प्यार क्यों करता है रे मुझ से? तेरा लाड़प्यार ही तो मुझे दूना किए दे रहा है.’’

अर्जुन निहाल हो जाता. उस जैसा एक आम मजदूर इस से बड़ी और किस खुशी की कल्पना कर सकता था. वह सिर्फ नाम का ही तो अर्जुन था, जिस के पास कोयला खदान की खतरनाक नौकरी के सिवा कुछ भी नहीं था. समय बीतता गया. इस बीच कोयला खदान से जुड़े नियमकानूनों में भारी बदलाव आए. कोयला खानों का ‘राष्ट्रीयकरण’ हो गया.

अर्जुन जैसे लोगों को इस ‘राष्ट्रीयकरण’ का अर्थ तो समझ में नहीं आया शुरू में, किंतु थोड़े ही दिन बाद इस का मतलब साफ हो गया. ‘राष्ट्रीयकरण’ के बाद  सभी मजदूर सरकारी मुलाजिम हो गए. और इस तरह मजदूर और कामगार कामचोर और उद्दंड भी हो गए, क्योंकि उन का कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था. अर्जुन जैसे गिनती के मजदूरों पर ही पूरी ईमानदारी और खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालने का जिम्मा आ पड़ा था.

मेहनत ऐसे मजदूरों के खून में थी, क्योंकि कोयला खानों से इन का रिश्ता उतना ही पुराना और मजबूत था, जितना एक खेतिहर का अपनी जमीन और माटी से होता है. धीरेधीरे यहां की कोलियरी में कई मजदूर नेता भी उभरने लगे. पर देवेंद्रजी ने, जिन का इतिहास भी यहां की कोयला खदान जितना ही पुराना है, अपने आगे किसी नए नेता को उभरने नहीं दिया. वे हमेशा से मजदूर के भरोसेमंद आदमी रहे थे और उन की चौपाल हमेशा हरीभरी रहती थी.  किसी मजदूर को घर चाहिए, तो किसी को बिजली. कहीं महल्ले में पानी का इंतजाम करवाना है, तो कहीं मजदूरों के लिए कैंटीन का. कोई रिटायर हो गया है, तो उस का दफ्तर से हिसाबकिताब करवाना है, भविष्य निधि वगैरह के पैसे दिलवाने हैं.

कोई भी काम हो, कैसी भी समस्या हो, देवेंद्रजी बड़ी आसानी से सुलझा देते थे. उन्हें मैनेजरों का पूरा भरोसा हासिल था, इसलिए विरोधी नेता भी उन्हें डिगा नहीं पाते थे.  अचानक इस कोलियरी में एक अजीब घटना हो गई. फैलने को या तो आग फैलती है या अफवाह. पर यह अफवाह नहीं थी, इसीलिए यहां के सभी लोग हैरान थे.

किसी ने कहा, ‘‘भाई, सुना तुम ने… बड़ा गजब हो गया.’’

दूसरे ने पूछा, ‘‘क्या पहाड़ टूट गया एक ही रात में? कल तक तो सबकुछ ठीकठाक था.’’

तीसरे ने कहा, ‘‘वाह भाई, कुछ दीनदुनिया की खबर भी रखा करो यार, खातेकमाते तो सभी हैं.’’

दूसरे ने फिर पूछा, ‘‘पर, हुआ क्या है, कुछ बताओगे भी?’’

‘‘अरे वह परबतिया थी न, दिनदहाड़े जा कर गया प्रसाद के घर बैठ गई,’’ बताने वाले की आवाज में ऐसा जोश था, मानो वह इस घटना के घटने का सालों से इंतजार कर रहा हो.

‘‘कौन परबतिया और कौन गया प्रसाद? यार, साफसाफ बताओ न,’’ पूछने वाले के चेहरे का रंग अजीब हो गया था.

‘‘गजब करते हो यार, धिक्कार है तुम्हारी जिंदगी को. अरे, परबतिया को नहीं जानते?’’ बताने वाले के चेहरे पर धिक्कार के भाव थे,

‘‘क्या उस जैसी  2-4 औरतें हैं यहां? अरे वही अर्जुन महतो की घरवाली. हां, वही पार्वती. कल वह अर्जुन का घर छोड़ गया प्रसाद के घर बैठ गई.’’

‘‘अच्छा, वह परबतिया,’’ उस घटना से अनजान आदमी ने चौंकते हुए  कहा, ‘‘अरे भई, ‘तिरिया चरित्तर’  को कौन समझ सकता है. भाई…बड़ी सतीसावित्री बनती थी.’’

जितने मुंह उतनी बातें. चारों तरफ कानाफूसी. लोग चटकारे लेले कर उस घटना की चर्चा कर रहे थे. बहुत दिनों से यहां कुछ हुआ नहीं था, इसलिए यहां के पान के ठेलों पर महफिलें सूनीसूनी रहने लगी थीं. पुरानी बातों  को ले कर आखिर लोग कब तक जुगाली करते…

इस नई घटना से सभी का जोश फिर लौट आया था. कुछ लोग इस घटना से दहशत और सन्नाटे की चपेट में भी आ गए थे. जब पार्वती जैसी बेदाग औरत ऐसा कर सकती है तो उन की अपनी बीवियों का क्या भरोसा? हर शक्की पति घबराया हुआ था. कहीं उन की बीवियां भी ऐसा कर बैठें तो…?

इस घटना के बाद देवेंद्र की  चौपाल फिर सजी थी ठीक किसी मदारी के तमाशे जैसी. कभी कोई भला आदमी गलती से यहां मर जाता तो अरथी के साथ चलने के लिए लोग  ढूंढ़े नहीं मिलते थे. कहते, ‘‘अरे, कोई मर गया तो मर गया. एक न एक  दिन तो सभी को मरना ही है.’’

भीड़ में आए ज्यादा लोगों को हमदर्दी अर्जुन महतो के साथ थी. बेचारा, बेसहारा अर्जुन. कितनी धोखेबाज होती हैं ये औरतें भी. और यदि खूबसूरत हुई तो मुसीबतें ही मुसीबतें. मनचले कुत्तों की तरह सूंघते फिरते हैं. देवेंद्र की चौपाल में भीड़ बढ़ी, तो पास ही मूंगफली बेचने वाली बुढि़या खुश हो गई थी. केवल वही थी वहां, जिसे सिर्फ अपनी मूंगफलियों की बिक्री की चिंता थी.

उसे न परबतिया से मतलब था, न गया प्रसाद से. घर के बाहर भीड़ का शोरगुल हुआ, तो देवेंद्र घर से बाहर निकल आए.  सभी ने उन को प्रणाम किया. वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे कुरसी लगवा कर बैठ गए. देवेंद्रजी ने गहराई से भीड़ का जायजा लिया और परेशानी भरी आवाज में बोले, ‘‘फिर कौन सा बवाल हो गया भाइयो? क्या हमें अब एक दिन का चैन भी नहीं मिलेगा…”

“ऐसे में तो हमारा मरना भी मुश्किल हो जाएगा.’’

भीड़ को देवेंद्रजी से हमदर्दी हो आई. बेचारे देवेंद्रजी, सारी कोलियरी का बोझ उठाए हैं अपने कंधों पर. कितनी चिंता है उन्हें लोगों की. एक वे ही तो हैं यहां, जो लोगों का दुखदर्द समझते हैं. उन को चैन कहां मिल पाता होगा. इस बार देवेंद्रजी की निगाह भीड़ से हट कर खड़े अर्जुन महतो पर पड़ी. बेचारा अर्जुन अपनी वीरान दुनिया लिए लगातार रोए जा रहा था. देवेंद्रजी को जैसे कुछ मालूम ही न हो. उन्होंने अर्जुन महतो की तरफ देख कर अपनेपन से पूछा,

‘‘क्या हो गया अर्जुन? क्यों सुबहसुबह हमारे दरवाजे पर आंसू बहा रहे हो?’’

अर्जुन महतो बिना जवाब दिए सिर्फ रोता रहा. उसी बीच महल्ले की ओर से बलदेव प्रसाद आता हुआ दिखा. देवेंद्रजी और भीड़ को शायद उसी का इंतजार था, इसीलिए सभी खुश हो गए.

मजदूर नेता देवेंद्रजी के दाहिने हाथ बलदेव प्रसाद का पहनावा देखते ही बनता था. कलफदार सफेद कुरतापाजामा, जिस पर आंखें ठहरती नहीं थीं. और कोई अर्जुन का पहनावा देखे, मैलीचीकट लुंगी और वैसी ही बनियान पहने था वह. कोयले की खदान में काम करने वाला एक अदना सा मजदूर, बेचारा अर्जुन. मजदूर अंधेरे में रेंग लेगा, खाली पैर चल लेगा और बरसते पानी में भीग लेगा, पर नेतागीरी के मजे ही और हैं. नेता हो या उन का दाहिना हाथ, उन के पास टौर्च भी हैं, जूते भी और छतरियां भी.

बलदेव प्रसाद को देख कर दुबेजी बोले, ‘‘भई बलदेवा, आजकल कहां रहते हो? बहुत दिनों से मिले नहीं. लगता है, खूब मस्ती कर रहे हो?’’

बलदेव प्रसाद ने अपने चेहरे पर परेशानी की परत चढ़ाते हुए कहा, ‘‘क्या कहें, अब तो यहां रहना ही मुश्किल हो गया है. रोज कोई न कोई झंझट खड़ा हो जाता है, ‘‘ऐसा कह कर उस ने अर्जुन की ओर ऐसी नजरों से देखा, जैसे सारा कुसूर उसी का हो. ‘‘वही तो हम भी इस से पूछ रहे हैं,’’

देवेंद्रजी बोले, ‘‘पर, यह बस रोए जा रहा है. कुछ बताता ही नहीं. अब तुम्हीं कुछ बताओ, तो हमें भी  मालूम हो?’’

‘‘अब हम क्या बताएं. मेरी तो जबान ही आगे नहीं बढ़ती. कहूं तो क्या कहूं. लगता है कि अब इस कोलियरी में गरीब आदमी का गुजारा नहीं रहा,’’

बलदेव प्रसाद ने कहा. फिर उस ने अर्जुन महतो की ओर देख कर कहा, ‘‘बताओ अर्जुन, खुद बताओ न अपना दुखड़ा?’’ देवेंद्रजी मन ही मन खुश हुए. बड़ी सधी हुई बात करता है बलदेव प्रसाद. अर्जुन ने अपने हाथ जोड़ दिए. मुंह से तो वह कुछ कह ही नहीं पा रहा था.

बड़ी कातर आंखों से उस ने बलदेव प्रसाद को देखा, जैसे कह रहा हो कि आप ही बताओ माईबाप, आप को सब मालूम ही है. ‘‘क्या हो गया अर्जुन? खुल कर कहो न. अरे, हम पर तुम्हारा भरोसा है, तभी तो आए हो न यहां?’’ देवेंद्रजी ने अर्जुन का हौसला बढ़ाया.

अर्जुन हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और फफकफफक कर जोर से रो पड़ा. बलदेव प्रसाद ने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘बसबस, अब रोनाधोना नहीं मेहरियों की तरह, नहीं तो मैं देवेंद्रजी को कुछ नहीं बताऊंगा, समझा?’’ फिर उस ने देवेंद्रजी से कहा, ‘‘आप परबतिया को तो जानते ही होंगे?’’

‘‘कौन परबतिया…? अरे वही… जगेशर की बिटिया न?’’ देवेंद्रजी  ने कहा.

‘‘नहींनहीं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘यह अर्जुन महतो है न, इसी की घरवाली परबतिया की बात कर रहा हूं. इस कोलियरी में ऐसा अंधेर न देखा, न सुना. क्या पता आगे क्याक्या देखना पड़ जाए यहां,’’ उस ने भीड़ पर एक धिक्कार भरी नजर डाली.

‘‘तो यह अर्जुन हमारे पास क्यों आया है?’’ देवेंद्रजी ने मजाक करते हुए कहा, ‘‘हम ने तो इस की घरवाली को छिपा कर नहीं रखा अपने यहां,’’ उन की बात सुन कर भीड़ हंसने लगी.

‘‘माईबाप…’’ अर्जुन महतो के मुंह से मुश्किल से निकला. हाथ उस के लगातार जुड़े हुए थे. उस के खाली पैरों में एक घाव पक गया था, जिस से मवाद बह रहा था. मक्खियों को भगाने के लिए वह बीचबीच में अपना पैर झटक लेता था.

‘‘वही तो मैं बताने जा रहा था,’’ बलदेव प्रसाद ने भीड़ को ऐसे देखा, जैसे कोई बहुत बड़ी बात कहने जा  रहा हो, ‘‘वही परबतिया कल रात  जा कर उस बदमाश गया प्रसाद के घर बैठ गई.’’

‘‘गया प्रसाद…?’’ देवेंद्रजी का चेहरा तन गया, ‘‘वही लठैत गया  प्रसाद न?’’

‘‘हांहां,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘एकदम वही, दिनदहाड़े ऐसी अंधेरगर्दी. तभी तो कहता हूं कि अब यहां किसी भलेमानुष का रहना  मुश्किल है.’’

‘‘किसी की घरवाली कोई दूसरा खसम कर ले, तो इस में हम क्या करें?’’

देवेंद्रजी थोड़ा नाराज हो कर बोले, ‘‘क्या सभी की समस्याएं सुलझाने का हम ने ठेका ले रखा है? किसी से अपनी घरवाली नहीं संभाली जाती तो कोई क्या करेगा?’’ भीड़ ने अर्जुन महतो की ओर देखा, देवेंद्रजी शायद ठीक ही कह रहे हैं. अर्जुन ने शर्म से अपना सिर झुका लिया.

‘‘वही तो हम भी कह रहे हैं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘पार्वती के रंगढंग कई दिनों से ठीक नहीं चल रहे थे. मैं ने सुना तो मैं ने समझाया भी था अर्जुन को. समझाना फर्ज बनता था हमारा. है कि नहीं अर्जुन?’’

अर्जुन ने रजामंदी में अपना सिर हिलाया.

‘‘बलदेवा, तुम चाहे जो करवा दो यहां,’’ देवेंद्रजी ने फिर मजाक किया, ‘‘बेचारी धनिया को भी लुटवा दिए थे ऐसे ही,’’ भीड़ फिर हंस पड़ी. बलदेव प्रसाद झेंपने का नाटक करते हुए बोला, ‘‘आप तो मजाक करने लगे. मुझे क्या पड़ी है कि मैं हर जगह टांग अड़ाऊं. वह तो ऐसे गरीबों का दुख नहीं देखा जाता इसीलिए. अब देखिए न, परबतिया गई सो गई, साथ में गहनेकपड़े, रुपयापैसा सबकुछ ले गई. अब इस बेचारे अर्जुन का क्या होगा?’’ ‘‘हां… माईबाप…’’

अर्जुन महतो फिर सिसकने लगा. देवेंद्रजी नाराजगी से बोले, ‘‘मरो भूखे अब. ये लोग अपनी सब कमाई तो खिला देते हैं ब्याज वालों को या दारू पी कर उड़ा देते हैं. चंदा भी देंगे तो दूसरे नेताओं को. और अब घरवाली भाग गई तो चले आए मेरे पास. जैसे देवेंद्र सब का दुख दूर करने का ठेका ले रखे हैं.’’

‘‘वही तो मैं भी कहता हूं,’’ बलदेव प्रसाद ने कहा, ‘‘लेकिन, ये लोग मानते कहां हैं. और अगर घरवाली खूबसूरत हुई तो हवा में उड़ने लगते हैं. वह तो आप जैसे दयालु हैं, जो सब सहते हैं.

पर सच पूछिए, तो एक गरीब के साथ ऐसी ज्यादती भी तो देखी नहीं जाती. आप के रहते यहां यह सब हो, यह तो अच्छी बात नहीं है न?’’ बलदेव प्रसाद के चेहरे पर देवेंद्रजी के लिए तारीफ के भाव थे. भीड़ ने सोचा कि देवेंद्रजी हैं तो कोई न कोई रास्ता जरूर निकालेंगे. अर्जुन को घबराना नहीं चाहिए. वह सही जगह पर आया है. ‘‘यही मस्का मारमार कर तो तुम ने हमें बरबाद करवा दिया है बलदेवा,’’ देवेंद्रजी मानो बलदेव को मीठा उलाहना देते हुए बोले. ‘‘खैर, यह तो बताओ कि अर्जुन और पार्वती की शादी को कितने दिन हुए थे?’’ उन्होंने जैसे भीड़ से सवाल किया. अर्जुन को कुछ उम्मीद बंधी.

देवेंद्रजी मामले में दिलचस्पी लेने लगे हैं. बस, वह एक बार हाथ तो धर दें सिर पर, फिर तो उस गया प्रसाद की ऐसीतैसी… यह सोच कर अर्जुन का खून जोश मारने लगा. बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘अरे, भली कही आप ने. यही तो मुसीबत है. इस ने अगर परबतिया से शादी की ही होती तो वह भागती क्यों? पर यहां तो फैशन है. या तो रिश्ता बना लेते हैं या खूबसूरत औरत के मांबाप को 200-400 रुपए  दे कर उस औरत को घर बैठा लेते हैं. तभी तो…’’ अर्जुन ने बलदेव प्रसाद की बात का विरोध करना चाहा. वह चीखचीख कर कहना चाहता था कि पार्वती उसी की ब्याहता है, पर उस के बोलने के पहले ही देवेंद्रजी बोल पड़े, ‘‘तब तो मामला हाथ से गया, समझो. जब ब्याह नहीं रचाया तो कहां की घरवाली और कैसी परबतिया? कौन मानेगा भला?  ‘‘अरे, मैं कहता हूं कि परबतिया अर्जुन की घरवाली नहीं थी.

तो है कोई माई का लाल, जो यह दावा करे?’’ देवेंद्रजी ने जैसे भीड़ को ललकार दिया था.  भीड़ में सनाका खिंच गया. यह तो सोचने वाली बात है. क्या दावा है अर्जुन के पास? बेचारा अब क्या करे? कहां से लाए अपनी और परबतिया की शादी का कागजी सुबूत? ‘‘तभी तो मैं भी कहता हूं कि अब कौन गया प्रसाद जैसे बदमाश से कहने जाए कि उस ने बड़ा गलत किया है. सभी जानते हैं कि वह कैसा आदमी है?’’ बलदेव प्रसाद ने कहा. ‘‘हांहां, जाओ,’’ देवेंद्र तैश में आ कर बोले,

‘‘कौन सा मुंह ले कर जाओगे उस बदमाश के घर? लाठी मार कर घर से निकाल न दे तो कहना.

‘‘अपने ऊपर हाथ भी नहीं धरने देगा वह बदमाश. क्या मैं कुछ गलत कह रहा हूं, बलदेवा?’’ उन्होंने बलदेव प्रसाद की ओर देखा. ‘‘अरे, आप और गलत बोलेंगे?’’

चमचागीरी करते हुए बलदेव प्रसाद ने नहले पर दहला मारा, ‘‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं. वह बदमाश गया प्रसाद तो मुंह पर कह देगा कि किस की बीवी और कैसी परबतिया? खुलेआम दावा करेगा कि यह तो मेरी बीवी है.

ज्यादा जोर लगाएंगे तो जमा देगा 2-4 डंडे. इस तरह अपना सिर भी फुड़वाओ और हाथ भी कुछ न आए.’’ देवेंद्रजी अपने दाहिने हाथ बलदेव प्रसाद की बातों से मन ही मन खुश हुए. भीड़ को भी लगा कि बलदेव प्रसाद की बातों में दम है. गया प्रसाद जैसे गुंडे से उलझना आसान काम नहीं.  अर्जुन फिर एक बार मानो किसी अंधेरी कोठरी में छटपटाने लगा. ‘तो क्या अब कुछ नहीं हो सकता?’

मन ही मन उस ने सोचा. अब देवेंद्रजी ने सधासधाया तीर चलाया,

‘‘भाइयो, एक मिनट के लिए मान भी लें कि गया प्रसाद कुछ नहीं कहेगा. पर क्या पार्वती ताल ठोंक कर कह सकती है कि वह अर्जुन की घरवाली है और गया प्रसाद उसे बहका कर लाया है? ‘‘बोलो लोगो, क्या ऐसा कह पाएगी परबतिया? क्या उस की अपनी मरजी न रही होगी गया प्रसाद के साथ जाने की? वह कोई बच्ची तो है नहीं, जो कोई उसे बहका ले जाए?’’

भीड़ फिर प्रभावित हो गई देवेंद्रजी से. कितनी जोरदार धार है उन की बातों में? सभी बेचारे अर्जुन के बारे में सोचने लगे. लगता है, बेचारा अपनी घरवाली को सदा के लिए गंवा ही बैठा.

देवेंद्रजी ठीक ही तो कह रहे हैं. क्या परबतिया की अपनी मरजी न रही होगी? अब तो अर्जुन को उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए. भूल जाए पार्वती को. जिंदगी रहेगी तो उस जैसी कई मिल जाएंगी.

बलदेव प्रसाद ने देवेंद्रजी की हां में हां मिलाते हुए कहा, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं. यह औरत जात ही आफत की पुडि़या है. और यह अर्जुन तो बेकार रो रहा है ऐसी धोखेबाज और बदचलन औरत के लिए.’’

यह क्या सुन रहा था अर्जुन? परबतिया और बदचलन? नहीं, वह ऐसी औरत नहीं है. अर्जुन ने सोचा. फिर उस के मन में चोर उभरा. पार्वती उस का घर छोड़ कर गई ही क्यों? क्या कमी थी उस को? क्या नहीं किया उस ने पार्वती के लिए? फिर भी धोखा दे गई. जगहंसाई करा गई.

बदचलन कहीं की.  अर्जुन के मन में गुस्सा उमड़ने लगा. वह कुलटा मिल जाए तो वह उस का गला ही घोंट दे. पर कैसे करेगा ऐसा वह? जिन हाथों से उस ने परबतिया को प्यार किया, क्या उन्हीं हाथों से वह उस का गला दबा पाएगा? और परबतिया नहीं रहेगी तो उस के मासूम बच्चे का क्या होगा?

बच्चे का मासूम चेहरा घूम गया अर्जुन की आंखों में. कितना प्यार करता था वह अपने बच्चे को. कोयला खदान की हड्डीतोड़ मेहनत के बाद जब वह घर लौटता तो अपने बच्चे को गोद में उठाते ही उस की थकान दूर हो जाती. एक हूक सी उठी उस के मन में. बीवी भी गई, बच्चा भी गया. वह फिर पिघलने लगा. गुस्सा आंसू बन कर दोगुने वेग से बह चला था.

इस बार देवेंद्रजी ने अर्जुन को ढांढस देते हुए कहा, ‘‘अर्जुन रोओ मत. रोने  से तो समस्या सुलझेगी नहीं, इंसाफ अभी एकदम से नहीं उठा है धरती से. पुलिस है, अदालत है, कचहरी है. कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा, ताकि तुम्हें इंसाफ मिले.’’ बलदेव प्रसाद ने उन्हें टोका, ‘‘नहीं, नहीं. आप को ही कुछ करना पड़ेगा. पुलिस को तो आप जानते ही हैं.

वह दोनों तरफ से खापी कर चुप्पी मार जाएगी, इसलिए आप ही कोई उपाय बताइए.  ‘‘गया प्रसाद जैसा अकेला बदमाश यहां की जुझारू जनता को नहीं हरा सकता. हमें ऐसे लोगों को रोकना है और जोरजुल्म से इन गरीबों की हिफाजत करनी है.’’

यह सुन कर अर्जुन को कुछ उम्मीद बंधी. भीड़ भी एकमत थी बलदेव प्रसाद से. और लोगों की भी बीवियां तो खूबसूरत हैं कोलियरी में. अगर बदमाशों को न रोका गया तो न जाने कितने अर्जुन होंगे और कितनी परबतिया. देवेंद्रजी बोले, ‘‘भाइयो, आप सब की मदद से हम ने आज तक कई मामले निबटाए हैं. कभी बदनामी नहीं उठानी पड़ी. पर इस तरह के मियांबीवी वाले मामले में हम ने अब तक कभी हाथ नहीं डाला है, क्योंकि ऐसे मामलों में बड़ा जोखिम उठाना पड़ता है,’’

देवेंद्रजी भीड़ पर अपना रुतबा जमाते हुए बोले. भीड़ खुश हो गई. अर्जुन को उम्मीद बंधी कि अब देवेंद्रजी इस मामले को हाथ में ले रहे हैं तो वह जरूर कामयाब होें. पर खतरा? यह खतरे वाली बात कहां से पैदा हो गई. अर्जुन को थोड़ा शक हुआ. भीड़ के कान खड़े हो गए. ‘‘कैसा खतरा?’’

लगा कि बलदेव प्रसाद भी चकित था. ‘‘हम अगर जल्दबाजी में कोई कदम उठाएंगे तो हो सकता है कि वह बदमाश परबतिया को कोई नुकसान पहुंचा दे,’’ देवेंद्रजी ने कहा, ‘‘इसलिए हमें कतई जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए.’’ भीड़ को देवेंद्रजी की बातों में कुछ सार नजर आया.

उम्मीद बंधी. पर अर्जुन फिर निराशा से घिरने लगा था. गया प्रसाद उस की परबतिया को नुकसान पहुंचा सकता है, यह बात उस के दिमाग में घूम रही थी. उस का खून खौलने लगा.  अगर उस का बस चले तो… जैसे वह जंगल में लकड़ी काटा करता है, वैसे ही गया प्रसाद की गरदन पर कुल्हाड़ी चला दे.

पर, क्या करे?  नहींनहीं… वह बदमाश परबतिया को कोई नुकसान न पहुंचाए. वह दुष्ट तो उस के बच्चे को भी नुकसान पहुंचा सकता है. देवेंद्रजी शायद ठीक कह रहे हैं. कोई जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. मौका आने पर वह खुद ही निबट लेगा गया प्रसाद से.

अर्जुन का मन हुआ कि वह चिल्ला कर देवेंद्रजी से कह दे कि उसे कोई जल्दी नहीं है. बस, पार्वती और उस का बच्चा सहीसलामत रहे. ‘‘हांहां, आप ठीक ही कह रहे हैं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘उस जैसे दुष्टों का कोई भरोसा नहीं. लेकिन ऐसे दुष्टों को बताना ही होगा कि वे बसीबसाई घरगृहस्थी नहीं उजाड़ सकते. हां भाइयो, हम ऐसी धांधली नहीं चलने देंगे,’’ उस ने भीड़ को देखा. देवेंद्रजी के मुंह से अब एक नेता की आवाज उभरी, ‘‘हम गया प्रसाद को चेतावनी देना चाहते हैं कि वह अर्जुन की घरवाली परबतिया को बाइज्जत घर पहुंचाए और अपनी इस हरकत के लिए अर्जुन से माफी मांगे.’’

देवेंद्रजी के कहने के ढंग से लगा मानो गया प्रसाद वहीं भीड़ में दुबका हुआ उन की बातें सुन रहा हो. ‘बाइज्जत’ शब्द सभी के सामने एक बड़ा सवाल बन कर खड़ा हो गया.  परबतिया एक रात तो गया प्रसाद के घर में बिता ही चुकी है. अब भी उस की इज्जत बची होगी भला?

यह बात तो अर्जुन को भीतर ही भीतर मथे डाल रही थी. एक दर्द उभरा अर्जुन के मन में. यह क्या सोच गया वह? नहीं, परबतिया कैसी भी हो, उसे उस शैतान के चंगुल से छुड़ाना ही होगा. ‘‘और हम बता देना चाहते हैं कि…’’ देवेंद्रजी ने धमकी भरी आवाज में कहा, ‘‘अगर एक हफ्ते के भीतर इस बात पर अमल नहीं किया गया तो हमें कोई कड़े से कड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.’’

बलदेव प्रसाद ने भी अर्जुन को ढांढस बंधाया, ‘‘अब एक हफ्ते तक इंतजार करना ही पड़ेगा अर्जुन भाई, इसलिए अपने मन को कड़ा करो और जा कर नहाओ, खाओ. रात की ड्यूटी किए हो, थक गए होगे. हम सब तुम्हारा दुख समझते हैं.’’ भीड़ को एक बार फिर लगा कि देवेंद्रजी और बलदेव बड़े दयालु और दूसरों के दुख को अपना दुख समझने वाले इनसान हैं.

पहली बार अर्जुन ने कुछ कहा, ‘‘जो मरजी हुजूर. बस, आप लोगों का सहारा है. गरीब हूं, माईबाप,’’ कहतेकहते अर्जुन का गला भर आया. आगे बढ़ कर उस ने देवेंद्रजी के पैर छू लिए. ‘‘ठीक है, ठीक है,’’ देवेंद्रजी की आवाज में दया थी, करुणा थी,

‘‘अब, तुम निश्चिंत हो कर जाओ अर्जुन.’’ ‘‘हांहां, अर्जुन, अब चिंता की कोई बात नहीं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘अब तो देवेंद्रजी ने तुम्हारे मामले को अपने हाथों में ले ही लिया है. अब तो  हमारी और देवेंद्रजी की इज्जत का भी सवाल है.’’

देवेंद्रजी उठ कर अपने घर के भीतर चले गए. तमाशा खत्म हुआ तो भीड़ भी छंटने लगी. कुछ लोग देवेंद्रजी की प्रशंसा कर रहे थे. कुछ गया प्रसाद को कोस रहे थे. सभी जल्दीजल्दी अपने घरों की ओर बढ़ने लगे थे इस डर से कि कहीं इसी बीच उन की घरवालियां  भी किसी बदमाश के घर जा कर न बैठ गई हों.  न जाने कितने गया प्रसाद छिपे पड़े होंगे इस कोलियरी में. न जाने कितने निहत्थे अर्जुन, न जाने कितनी खूबसूरती का शाप झेलती औरतें. फिर देवेंद्र की वही चौपाल,

भीड़, तमाशा और सरेआम उछलती किसी मजदूर की इज्जत. एक हफ्ते के भीतर ही गया प्रसाद परबतिया को उस के बच्चे समेत बाइज्जत अर्जुन के घर पहुंचाने गया था. पर अर्जुन ने पार्वती को बहुत भलाबुरा कहा और उसे अपने घर पर रखने से इनकार कर दिया. इस अफवाह ने देवेंद्रजी की इज्जत को तो बढ़ाया, पर अर्जुन को सभी धिक्कारने लगे कि वह फिर बेवकूफी कर बैठा.

कुछ लोगों के विचार से अर्जुन ने जो किया वह ठीक ही किया. ऐसी बदचलन औरत को तो जिंदा ही जमीन में गाड़ देना चाहिए. गहनेकपड़े, रुपएपैसे सबकुछ तो वह गया प्रसाद के घर ही छोड़ आई थी. अर्जुन की जिंदगीभर की कमाई उस बदमाश को भेंट कर आई थी. अर्जुन को परबतिया का अचार तो डालना नहीं था, सो उस ने बिलकुल ठीक किया. परंतु एक खबर पूरी कोलियरी में बड़ी तेजी से फैली. कुछ लोग इसे अफवाह कह रहे थे, तो कुछ सौ फीसदी सच होने का दावा कर रहे थे.

दूसरी पार्टी के मजदूर नेता इस बात का जोरशोर से प्रचार कर रहे थे कि परबतिया जो गहनेकपड़े और रुपए अपने साथ लाई थी, उस में से देवेंद्रजी और बलदेव प्रसाद ने अपनेअपने हिस्से ले लिए हैं. यही नहीं, कुछ तो यहां तक कहते सुने गए कि भरी रात बलदेव प्रसाद और देवेंद्रजी गया प्रसाद के घर से मुंह काला कर के निकलते हुए भी देखे गए.

सचाई जो हो, पर इतना सच है कि परबतिया को अर्जुन ने अपने घर में घुसने तक नहीं दिया. बच्चे को भी नहीं रखा. बेचारी परबतिया बच्चे को साथ लिए कहां जाए? गया प्रसाद के यहां वह खुद गई थी या जबरन ले जाई गई थी, यह  भी किसी ने नहीं पूछा. उस पर क्या गुजरी, यह जानने की किसी ने जरूरत ही नहीं समझी.  अर्जुन के साथ हमदर्दी जताने के लिए तो अच्छीखासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी, पर ‘परबतिया’ को कौन पूछे? औरत जो ठहरी बेचारी. और उस पर भी बदचलन होने का ठप्पा जो लग चुका था.

बेटी की चिट्ठी: क्या था पिता का स्मृति के खत का जवाब

प्यारे पापा, नमस्ते.

सभी बच्चों की वरदियां बन गई हैं, पर मेरी अभी तक नहीं बनी है. मैडम रोज डांटती हैं. किताबें भी पूरी नहीं खरीदी हैं. जो खरीदी हैं, उन पर भी मम्मी ने खाकी जिल्द नहीं चढ़ाई है. अखबार की जिल्द लगाने के लिए मैडम मना करती हैं. कोई भी बच्चा अखबार की जिल्द नहीं चढ़ाता.

आप जल्दी घर पर आएं और वरदी व जिल्द जरूर लाएं. मम्मी ने मुझे जो टीनू की पुरानी वरदी दी थी, वह अब छोटी हो गई है. कई जगह से घिस भी गई है. मम्मी की आंख में दर्द रहता है.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरे जूते और जुराबें फट गई हैं. मां ने जूते सिल तो दिए थे, मगर उन में अंगूठा फंसता है. ऐसे में दर्द होता है. मैडम कहती हैं कि जूते छोटे पड़ गए हैं, तो नए ले लो. ये सारी उम्र थोड़े ही चलेंगे. मेरे पास ड्राइंग की कलर पैंसिलें नहीं हैं. रोजरोज बच्चों से मांगनी पड़ती हैं. आप घर आते समय हैरी पौटर डब्बे वाली कलर पैंसिलें जरूर लाना.

हमारे स्कूल में फैंसी बैग कंपीटिशन है, पर मेरा तो बैग ही फट गया है. आप एक अच्छा सा बैग भी जरूर ले आना, नहीं तो मैं उस दिन स्कूल नहीं जाऊंगी.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

हमारे स्कूल का एनुअल फंक्शन 15 दिन बाद है. सभी बच्चे कोई न कोई प्रोग्राम दे रहे हैं. मुझे भी देना है. कोई अच्छी सी ड्रैस ले आना. मम्मी के सिर में दर्द रहता है. डाक्टर ने बताया कि चश्मा लगेगा, तभी दर्द ठीक होगा. उन की नजर बहुत कमजोर हो गई है.

सभी बच्चों ने गरम वरदियां ले ली हैं. ठंड बढ़ गई है. गरमी वाली वरदी रहने दें, अब सर्दी वाली वरदी ही ले आएं. मम्मी ने इस बार भी अखबार की जिल्द चढ़ाई थी. मैडम ने 10 रुपए जुर्माना कर दिया है. 2 महीने की फीस भी जमा करानी है. आप इस बार पैसे ले कर जरूर आना, नहीं तो मेरा नाम काट दिया जाएगा.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैडम ने कहा है कि स्कूल बस का किराया नहीं दे सकते, तो पैदल आया करो. कम से कम फीस तो हर महीने भेज दिया करो, नहीं तो किसी खैराती स्कूल में जा कर धूप सेंको. स्कूल में डाक्टर अंकल ने हमारा चैकअप किया था. मेरे नाखूनों पर सफेदसफेद धब्बे हैं. डाक्टर अंकल ने बताया कि कैल्शियम की कमी है. मम्मी की आंखें ज्यादा खराब हो गई हैं. वे दिनरात अखबार के लिफाफे बनाती रहती हैं. मैडम ने कहा है कि अगर घर पर कोई पढ़ा नहीं सकता, तो ट्यूशन रख लो.

पापा, आप घर वापस क्यों नहीं आते? मुझे आप की बड़ी याद आती है. मम्मी कहती हैं कि आप रुपए कमाने गए हो, फिर भेजते क्यों नहीं?

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैं ने ट्यूशन रख ली है, मगर आप पैसे जरूर भेज देना. अगले महीने से इम्तिहान शुरू हो रहे हैं. सारी फीस देनी होगी. आप वरदी नहीं लाए. मुझे ठंड लगती है. मैडम कहती हैं कि यह लड़की तो ठंड में मर जाएगी. क्या मैं सचमुच मर जाऊंगी?

पापा, ट्यूशन वाले सर भी रुपए मांग रहे हैं. वे कहते हैं कि जब रुपए नहीं हैं, तो पढ़ क्यों रही हो? किसी के घर जा कर बरतन साफ करो. हां पापा, मुझे ड्राइवर अंकल ने स्कूल बस से नीचे उतार दिया. आजकल पैदल ही स्कूल जा रही हूं. पढ़ने का समय नहीं मिलता. हमारी गाय भी थोड़ा सा दूध दे रही है. मम्मी कहती हैं कि चारा नहीं है. लोगों के खेतों से भी कब तक लाते रहेंगे.

पापा, आप हमारी बात क्यों नहीं सुनते?
आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरे सालाना इम्तिहान हो गए हैं. मां ने गाय बेच कर सारी फीस जमा करा दी. ट्यूशन वाले सर के भी रुपए दे दिए हैं. बाकी बचे रुपयों से मां के लिए ऐनक खरीदनी पड़ी. पिछले दिनों आए तूफान व बारिश से घर की छत उखड़ गई है.

पापा, आप खूब सारे रुपए ले कर जल्दी घर आएं, तब तक मेरे इम्तिहान का रिजल्ट भी निकल जाएगा. पापा, क्या आप को हमारी याद ही नहीं आती? हमें तो आप हर पल याद आते हैं.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरा रिजल्ट आ गया है. मैं अपनी क्लास में फर्स्ट आई हूं. मुझे बैग, जूते और वरदी लेनी है. और हां पापा, इस बार मैं पुरानी नहीं, नई किताबें लूंगी. पुरानी किताबों के कई पन्ने फटे होते हैं.

आजकल स्कूल में मेरी छुट्टियां चल रही हैं. सभी बच्चे बाहर घूमने जाते हैं. मैं भी मम्मी के साथ कागज के लिफाफे बनाना सीख रही हूं, ताकि इस बार मुझे स्कूल पैदल न जाना पड़े.

पापा, बारिश में छत से पानी टपकता है. बाकी बातें मैं आप के घर आने पर करूंगी. अब की बार आप घर नहीं आए, तो मैं आप को कभी चिट्ठी नहीं लिखूंगी. तब तक मेरी और आप की कुट्टी.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

स्मृति की लिखी इन सभी चिट्ठियों का एक बड़ा सा बंडल बना कर संबंधित डाकघर ने इस टिप्पणी के साथ उसे वापस भेज दिया, ‘प्राप्तकर्ता पिछले साल हिंदूमुसलिम दंगों में मारा गया, जिस की जांच प्रशासन ने हाल ही में पूरी की है, इसलिए ये सारी चिट्ठियां वापस भेजी जाती हैं.’

बदचलन औरत : आलम क्यों बना अपनी मां का दुश्मन

यह घटना उत्तर प्रदेश के बिजनौर शहर की है, जहां छम्मो नाम की एक औरत अपने शौहर अली और बेटे आलम के साथ एक किराए के मकान में रहती थी. छम्मो गदराए बदन की औरत थी. उस की खूबसूरती और उठी हुई मोटीमोटी छाती देख कर कोई भी उस की तरफ फौरन खिंच जाता था.

छम्मो का उठा हुआ सीना देख कर लोग अपनी लार टपकाते थे. जब वह चलती तो लोग उस के उठे हुए कूल्हे देख कर उस पर नजर गड़ाए रहते और उसे पाने की लालसा रखते.

बिजनौर में छम्मो अपने शौहर अली के साथ खुशीखुशी रह रही थी. उस का 5 साल का बेटा आलम 10वीं जमात में पढ़ता था. छम्मो का शौहर अली एक ट्रक ड्राइवर था, जो महीनेभर में 20 दिन तो घर से बाहर ही रहता था.

अली की माली हालत काफी कमजोर थी, जबकि छम्मो फैशनपरस्त औरत थी. इस बात पर उस का अपने शौहर अली से झगड़ा होता था.

यही वजह थी कि अली ने अब घर आना छोड़ दिया था और वह अपनी जिस्मानी जरूरत बाहर की औरतों के पास जा कर पूरी करने लगा था. अली के घर पर न आने और खर्चा न देने से छम्मो कुछ दिन तो काफी परेशान रही, फिर उस ने अपने जीने और मौजपरस्ती का एक नया रास्ता ढूंढ़ लिया.

हुआ यों था कि एक सुबह जब छम्मो नहा कर निकली, तो उस ने तौलिए से अपने जिस्म को ढक रखा था. वह आईने के सामने खड़ी हो कर कुछ गुनगुना रही थी कि अचानक उस का तौलिया उस के जिस्म से हट कर फर्श पर गिर गया.

छम्मो ने जब अपने खूबसूरत बदन और ऊंची उठी हुई छाती को आईने में देखा, तो वह हैरान रह गई. वह सोचने लगी कि इस गदराए बदन से तो किसी भी मर्द को अपनी ओर खींच कर उसे लूटा जा सकता है.

छम्मो ने अब अपने शिकार को ढूंढ़ना शुरू कर दिया. जल्द ही उस ने एक वकील शाहिद को अपनी मदमस्त जवानी का दीवाना बना लिया. शाहिद छम्मो के नाजुक और गदराए बदन को देख कर लार टपकाने लगा और उसे घूरघूर कर अपने दिल की ख्वाहिश छम्मो को बताने की कोशिश करने लगा.

छम्मो शाहिद का इशारा भांप गई, तो उस ने भी अपनी कातिल मुसकान बिखेर कर उसे बेकाबू कर दिया.

शाहिद मौका देख कर छम्मो के पास आया और बोला, ‘‘आप कितनी खूबसरत हो. मैं ने पहले कभी आप को यहां नहीं देखा.’’

छम्मो हंसते हुए बोली, ‘‘हां, मैं अभी  कुछ दिन पहले ही यहां किराए पर

रहने आई हूं. मेरा घर महल्ला काजीपुरा में है.’’

शाहिद ने कहा, ‘‘तो आज शाम की चाय मुझ नाचीज के साथ हो जाए?’’

छम्मो हंसते हुए बोली, ‘‘आप का हुक्म सिरआंखों पर. आप अगर मेरे साथ चाय पीना चाहते हैं, तो मैं कौन होती हूं आप को मना करने वाली.’’

शाम का समय था. छम्मो और शाहिद एक कैफे में बैठे चाय की चुसकी ले रहे थे. आसमान में काले घने बादल छाए हुए थे. मौसम आज कुछ ज्यादा ही रंगीन नजर आ रहा था.

शाहिद ने छम्मो के हाथ पर अपना हाथ रखा, तो वह मुसकरा दी. शाहिद समझ गया कि छम्मो को उस की यह हरकत बुरी नहीं लगी.

तभी तेज बारिश शुरू हो गई. वे दोनों अपनेआप को बारिश से बचतेबचाते भी बुरी तरह भीग गए.

छम्मो के भीगे कपड़े उस के जिस्म से चिपक गए, तो उस के बदन का एकएक अंग साफ नजर आने लगा,

जिसे देख कर शाहिद छम्मो का दीवाना हो गया.

शाहिद ने छम्मो से कहा, ‘‘बुरा न मानो, तो एक बात कहूं कि आज रात हम दोनों इस होटल में ही रुक जाते हैं. बारिश का कुछ पता नहीं है कि कब रुकेगी. वैसे भी हमारे कपड़े बुरी तरह भीग गए हैं.’’

छम्मो बोली, ‘‘नहीं, मेरा बेटा घर पर अकेला है. वह मेरी राह देख रहा होगा. मुझे अब चलना चाहिए.’’

शाहिद बोला, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हें अपनी गाड़ी से घर तक छोड़ देता हूं.’’

शाहिद ने गाड़ी स्टार्ट की और छम्मो को अपनी बगल वाली सीट पर बैठाया और उस के घर की तरफ चल दिया.

कुछ ही देर में छम्मो का घर आ गया, तो शाहिद बोला, ‘‘मुझे ठंड लग रही है, एक कप गरमागरम कौफी तो पिला दो.’’

छम्मो पहले तो कुछ न बोली, पर जब शाहिद ने दोबारा कहा, तो उस ने कहा, ‘‘ठीक है, आ जाओ.’’

छम्मो जैसे ही घर पहुंची, तो उस ने देखा कि उस का बेटा आलम अभी तक घर नहीं आया है.

छम्मो ने फौरन आलम को फोन लगाया और उस से पूछा, ‘‘आलम, तुम  कहां हो?’’

आलम बोला, ‘‘अम्मी, मैं अपने दोस्त के घर आया था. हम पढ़ाई कर रहे थे कि तभी तेज बारिश आ गई, तो अंकलआंटी ने बोला कि तुम आज रात हमारे घर पर ही सो जाओ. मैं ने उन्हें बहुत मना किया, पर बारिश बहुत तेज थी, तो मजबूरन मुझे यहीं रुकना पड़ रहा है.

‘‘आप फिक्र मत करो, मैं सुबह होते ही आ जाऊंगा,’’ कह कर आलम ने फोन रख दिया.

शाहिद और छम्मो पूरी तरह भीग चुके थे. छम्मो ने शाहिद को अपने शौहर अली के कपड़े देते हुए कहा, ‘‘आप को ठंड लग रही होगी. आप कपड़े बदल लें, तब तक मैं आप के कपड़े इस्तरी से सुखा देती हूं.’’

छम्मो का गोरा बदन अभी भी भीगे हुए कपड़ों में संगमरमर की तरह साफ चमक रहा था, जिसे शाहिद निहार रहा था और उसे अपने आगोश में लेने का बहाना ढूंढ़ रहा था.

तभी छम्मो बोली, ‘‘मैं कपड़े बदल लेती हूं, उस के बाद आप को कौफी पिलाती हूं, ताकि शरीर में कुछ गरमी आ जाए.’’

छम्मो कपड़े बदलने अपने कमरे में गई और एक सुर्ख गुलाबी रंग की नाइटी पहन कर जब बाहर आई, तो शाहिद उसे देख कर अपने होश खो बैठा.

वह नाइटी छम्मो के गोरे बदन पर अलग ही कयामत ढा रही थी. उस की ऊंची उठी हुई छाती उस की नाइटी से बाहर निकलने को बेताब थी.

शाहिद ने फौरन छम्मो की कमर में अपनी बांहों का जाल डाल दिया और उस के रसीले होंठों को चूसने लगा.

शाहिद की पकड़ इतनी मजबूत थी कि छम्मो अपनेआप को उस की पकड़ से छुड़ाने की नाकाम कोशिश करती रही, फिर कुछ देर बाद उस ने खुद को शाहिद की बांहों में धकेल दिया.

शाहिद छम्मो की गरदन पर अपने चुम्मों की बौछार करने लगा, तो छम्मो कसमसाने लगी और उस ने भी शाहिद को कस कर अपनी बांहों में जकड़ लिया. कुछ ही देर में उन दोनों के बीच जिस्मानी रिश्ता बन गया. पूरी रात यह सिलसिला चलता रहा.

सुबह होते ही शाहिद छम्मो को 5,000 रुपए दे कर बोला, ‘‘हमें खुश करने का तुम्हारा इनाम.’’

छम्मो ने खुश हो कर शाहिद को अपने गले लगा लिया और उस के गाल पर एक चुम्मा रसीद करते हुए उस का शुक्रिया अदा करने लगी.

अब शाहिद और छम्मो को जब भी मौका मिलता, वे दोनों एकदूसरे से अपनी जिस्मानी जरूरत पूरी करते और खूब मजा लेते. शाहिद हर बार छम्मो को एक मोटी रकम अदा करता था.

एक दिन छम्मो शाहिद के साथ अपने ही घर में रंगरलियां मना रही थी कि अचानक उस का शौहर अली आ गया.

घर बंद था. अली ने दरवाजा खटखटाया, पर काफी देर तक दरवाजा नहीं खुला, तो वह बाहर ही इंतजार करने लगा.

काफी देर बाद जब दरवाजा खुला, तो अंदर से किसी गैरमर्द को बाहर निकलते देख अली हैरान हो गया और वह अंदर जा कर छम्मो से बोला, ‘‘कौन था जिस के साथ तुम भीतर से दरवाजा बंद कर के बैठी थी?’’

छम्मो बोली, ‘‘तुम्हें इस से क्या मतलब? मैं किस के साथ हूं, क्या कर रही हूं, तुम होते कौन हो मुझ से यह मालूम करने वाले?’’

अली ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारा शौहर हूं. मुझे भी यह जानने का पूरा हक है कि तुम बंद कमरे में किस के साथ हो और क्या कर रही हो.’’

छम्मो बोली, ‘‘मैं तुम्हें यह हक नहीं देती और तुम अपने गरीबान में झांक कर देखो, जो बीवी को अकेला छोड़ कर चले गए. तुम न तो मुझे खर्चा देते हो और न ही जिस्मानी सुकून. मैं नहीं मानती तुम्हें कुछ भी अपना.

‘‘आज से मेरे काम में टांग अड़ाने या मुझ से कुछ पूछने की हिम्मत मत करना, वरना तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा.’’

अली छम्मो की यह बात सुन कर दंग रह गया. वह समझ गया कि छम्मो को इस दलदल में घुसाने का जिम्मेदार कुछ हद तक वह भी है. वह कुछ नहीं बोला और वहां से चुपचाप चला गया.

अब छम्मो खुलेआम शाहिद के साथ मजे करने लगी. वह अपना जिस्म शाहिद को सौंप देती, जिस के एवज में शाहिद उसे मोटी रकम दे दिया करता.

उधर जब लोगों को छम्मो और शाहिद के इस नाजायज रिश्ते का पता चला, तो वे तरहतरह की बातें करने लगे. पर किसी के अंदर छम्मो के इस गलत रिश्ते का विरोध करने की हिम्मत न थी, क्योंकि छम्मो झगड़ालू किस्म की औरत थी और लड़ने झगड़ने के लिए तैयार रहती थी.

आलम के सारे दोस्त उस का मजाक उड़ाते और उस पर तंज कसते. आलम परेशान रहने लगा. उस ने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया, पर उस के अंदर अपनी अम्मी से कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं थी.

एक रात की बात है. आलम अपने घर पर सोया हुआ था कि तभी शाहिद वहां आ गया. आलम को सोता देख उस ने छम्मो को अपनी बांहों में उठाया और बिस्तर पर ले गया.

छम्मो भी बेकाबू हो गई. उस का तनमन जोश में आने लगा और उस ने शाहिद को अपनी बांहों में भर लिया.

शाहिद ने भी छम्मो को चूमना शुरू कर दिया. थोड़ी ही देर में पूरा कमरा कामुक आवाजों से गूंजने लगा. वे दोनों अपने जिस्म की आग बुझाने के लिए इतने बेताब हो गए कि उन्होंने एकदूसरे के कपड़े उतारने शुरू कर दिए. उन्हें यह भी खयाल न आया कि आलम घर में है. वे अभी एकदूसरे के जिस्म का मजा ही ले रहे थे कि आलम की नींद खुल गई. उस ने कामुक आवाज सुन कर अपनी अम्मी के कमरे में झांक कर देखा, तो हैरान रह गया.

अपनी अम्मी की करतूत देख आलम रोने लगा. उसे लोगों की कही बात सच होती दिख रही थी. उसे अपनी अम्मी से नफरत हो रही थी. वह समझ गया कि उस की अम्मी एक गंदी औरत है. पर वह कुछ कर न सका और अंदर ही अंदर घुटने लगा.

कुछ दिन बाद छम्मो बेटे आलम से बोली, ‘‘चलो, आज कोटद्वार से ऊपर दुगड्डे की पहाड़ी पर घूमने चलते हैं. वहां का मौसम बड़ा ही सुहाना रहता है. बहुत दिन हो गए पहाड़ी पर घूमे हुए.’’

आलम बोला, ‘‘ठीक है, मैं चलने के लिए तैयार हूं.’’

आलम ने अपने गुस्से और नफरत का अंदाजा अपनी अम्मी को नहीं होने दिया और उन के साथ दुगड्डे की पहाडि़यों का नजारा देखने चला गया.

काफी ऊंचाई पर पहुंच कर जब आलम ने देखा कि अब वे दोनों एकांत में हैं, तो उस ने मौका देख कर अपनी अम्मी को पहाड़ियों से नीचे धक्का दे दिया.

पलभर में ही छम्मो पहाड़ी से गिरती और पत्थरों से टकराती हुई गहरे पानी में जा गिरी.

आलम ने अम्मी को अपनी आंखों से नीचे गिरता देखा था, जिस का सदमा उस के दिल पर एक गहरी छाप छोड़ गया.

इस के बाद आलम अपने घर आ गया और गुमसुम सा रहने लगा. न किसी से बातचीत, न किसी से मिलना. न खाने की फिक्र, न पहनने की चिंता.

वह तो बस हर समय गहरी सोच में डूबा रहता.

कई दिनों तक जब छम्मो आसपास के लोगों को दिखाई न दी, तो उन्होंने आलम से छम्मो के बारे में पूछा.

इतना सुनते ही आलम पागलों की तरह चिल्लाते हुए बोला, ‘‘मार डाला… मैं ने अपनी अम्मी को मार डाला… वह गंदी औरत थी…’’

लोग आलम को अजीब सी नजरों से देखने लगे. एक आदमी ने कहा, ‘‘भला तुम क्यों अपनी अम्मी को मारोगे?’’

पर आलम बोलता रहा, ‘‘मार डाला. मैं ने एक गंदी औरत को मार डाला. पहाड़ी से धक्का दे कर मार डाला.’’

तभी दूसरा आदमी बोला, ‘‘यह तो पागल हो गया है. भला यह क्यों अपनी अम्मी को मारेगा और कैसे मारेगा?’’

आलम चिल्लाते हुए बोला, ‘‘मैं ने ऐसे मारा तुम देख लो, वह ऐसे मरी,’’ कहते हुए वह तेज रफ्तार से भाग कर दोमंजिला मकान की छत पर चढ़ गया और चिल्ला कर बोला, ‘‘ऐसे मरी छम्मो…’’ कहते हुए उस ने ऊपर से छलांग लगा दी. पलभर में ही आलम ने भी तड़पतड़प कर दम तोड़ दिया.

लोग आलम की यह हरकत देख कर हैरान रह गए. उन्हें समझ आ गया कि आलम ने ही अपनी मां को पहाडि़यों से धक्का दे कर नीचे फेंक दिया था, जिस से वह मर गई.

इस तरह आलम अपनी मां की ऐयाशी के चलते उस की जान का दुश्मन बन गया. उस ने अपनी अम्मी को तो मार ही डाला, पर इस मौत का असर उस के दिल पर इस कदर हुआ कि वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा और उस ने अपनेआप को भी मौत के गले लगा लिया.

भीतर लगी आग: मेमसाहब के चंगुल में फंसा नौकर

‘‘मेमसाहब, क्या अब मैं घर जाऊं?’’ रामलाल अपना काम निबटा कर सुधा मैडम के पास आ कर बोला.

पहले तो सुधा मैडम ने उसे ऊपर से नीचे तक हवस की नजर से देखा, जबकि रामलाल का चेहरा नीचे था, फिर वे रामलाल की ठोड़ी ऊंची करते हुए बोलीं, ‘‘आज इतनी जल्दी क्यों जा रहा है रामलाल?’’

रामलाल ने कोई जवाब नहीं दिया, वापस मुंह लटका दिया.

सुधा मैडम फिर उस की ठोड़ी ऊंची करते हुए बोलीं, ‘‘शरमा क्यों रहा है रामलाल? बोल न, इतनी जल्दी क्यों जाना चाह रहा है? ऐसा क्या काम है? ’’

‘‘अब मैं आप को क्या बताऊं मेमसाहब,’’ रामलाल उसी तरह नीची गरदन कर के बोला.

‘‘बताने में शर्म आ रही है क्या? मेरी आंखों में आंखें डाल कर देख,’’ फिर उन्होंने कहा, ‘‘आज जल्दी क्यों जाना चाहता है?’’

सुधा मैडम ने जब यह बात कही, तब रामलाल उन की आंखों में आंखें डाल कर बोला, ‘‘मेमसाहब, मेरी पत्नी चंपा अभी महीनाभर पीहर में रह कर आज ही लौटी है.’’

‘‘अच्छा, मैं अब समझी. तेरी जोरू आई है और तेरी नईनई शादी हुई है, इसलिए उस की याद सता रही है,’’ सुधा मैडम ने जब यह बात कही, तब रामलाल मुसकरा दिया.

सुधा मैडम भी मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘तब तो मैं तुझे रोकूंगी नहीं, मगर जाने से पहले मेरा एक काम करेगा क्या?’’

‘‘कौन सा काम?’’ रामलाल ने पूछा.

रामलाल अभी 2 महीने पहले ही इस सरकारी बंगले में नौकर बन कर आया है. सुधा मैडम के पति दिनेश गुप्ता बड़े अफसर हैं. उन का पूरे शहर में दबदबा है. सरकारी बंगला है. उन के 2 बेटे हैं, जो इंजीनियरिंग कालेज जबलपुर में पढ़ रहे हैं.

‘‘साहब आएदिन दौरे पर रहते हैं. आज भी 4 दिन के लिए वे दौरे पर गए हुए हैं. अफसर होने के नाते उन की जिंदगी बिजी रहती है. कभी दफ्तर से जल्दी लौट आते हैं, तो कभी काम ज्यादा होने के चलते देर रात को घर आते हैं.

सुधा मैडम ज्यादातर अकेली रहती हैं. हालांकि, गेट पर चौकीदार बहादुर पहरा देता है. रामलाल को इसलिए रखा है कि वह घर का काम करे और अकेली रह रही मेमसाहब की देखरेख भी करे.

‘‘मेमसाहब, ऐसा कौन सा काम है?’’ रामलाल ने दोबारा पूछा, तब सुधा मैडम अतीत से वर्तमान में लौटीं. वे बोलीं, ‘‘अरे रामलाल, तू तो आज रातभर जोरू से मजे करेगा.’’

जवाब देने के बजाय रामलाल शरमा गया, फिर उस के गाल पर हाथ रखते हुए वे बोलीं, ‘‘शर्म कैसी?’’

‘‘आप तो मेमसाहब… बताइए, मुझ से क्या काम है?’’ बात बदलते हुए रामलाल बोला.

‘‘तू मेरा एक काम कर देगा?’’ सुधा मैडम ने हवस भरी नजर से रामलाल को देख कर कहा.

‘‘आप काम तो बताइए…’’

‘‘चल बैडरूम में. तुझे वही काम करना है, जो तू अपनी जोरू के साथ करेगा,’’ रामलाल का हाथ पकड़ कर सुधा मैडम अपने बैडरूम में ले गईं.

रामलाल ‘नहींनहीं’ कह कर इनकार करता रह गया. बैडरूम में जाते ही सुधा मैडम ने थोड़ी देर के बाद ही अपना गाऊन उतार दिया और रामलाल को अपनी बांहों में भर लिया.

उसी दिन उन दोनों के बीच मेमसाहब और नौकर का रिश्ता खत्म हो गया. बिस्तरबाजी के बाद सुधा मैडम ने अपने कपड़े पहनते हुए कहा, ‘‘रामलाल, हमारे बीच जोकुछ हुआ है, किसी से कहना मत. तुम्हारे साहब 4 दिन के लिए दौरे पर गए हैं और मैं अपनेआप को रोक नहीं सकी.’’

‘‘मैं किसी से नहीं कहूंगा मेमसाहब, मगर मुझे नौकरी से मत निकालना,’’ रामलाल हाथ जोड़ते हुए बोला.

‘‘जब तक इस शहर में तुम्हारे साहब हैं, तब तक तुझे यहां से नहीं निकलने दूंगी. हां, मौके और समय पर इसी तरह से अपनी सेवा देते रहना,’’ सुधा मैडम ने जब यह कहा, तब गरदन हिलाते हुए बोला, ‘‘हां मैमसाहब, क्या अब मैं घर जाऊं?’’

‘‘हां, जा और अपनी जोरू को संतुष्ट करना. कल उसे अपने साथ ले कर आना,’’ सुधा मैडम ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

रामलाल बंगले से बाहर निकल गया. अभी वह दालान पार कर ही रहा था कि चौकीदार बहादुर उस पर उड़ती हुई नजर से देखते हुए बोला, ‘‘अरे रामलाल, आज तो तू बहुत जल्दी जा रहा है.’’

‘‘हां, चौकीदार साहब,’’ रामलाल ने इतना ही कहा. यह कहने के साथ ही उस के चेहरे पर आई मुसकराहट देख कर चौकीदार बहादुर फिर बोला, ‘‘ऐसी कौन सी बात है रामलाल, बड़े खुश नजर आ रहे हो?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं,’’ रामलाल अपनी मुसकराहट छिपाते हुए बोला.

‘‘लगता है कि मेमसाहब ने कुछ उपहार दिया है,’’ चौकीदार बहादुर ने जब यह कहा, तब रामलाल सोच में पड़ गया. उसे मेमसाहब के साथ बिताए वे पल याद आ गए. मगर, मेमसाहब ने कहा है कि यह बात किसी से कहना मत. यह बात तो उस के होंठों पर आतेआते रह गई. मगर इन बड़े लोगों के चोंचले बड़े होते हैं.

ये दबेकुचले लोगों का शोषण पैसे से भी करते हैं और जिस्म से भी. आखिर मेमसाहब के भीतर आग जल रही थी, जो उन्होंने उस के बदन से खेल कर शांत कर दी.

रामलाल को चुप देख कर चौकीदार बहादुर बोला, ‘‘अरे रामलाल, चुप क्यों है? ऐसा मेमसाहब ने क्या कह दिया, जो खुश नजर आ रहा है.’’

‘‘अरे चौकीदार साहब, मेमसाहब ने तो कुछ नहीं कहा. आप को बेकार का शक है,’’ कह कर रामलाल गेट से बाहर हो गया.

फिर भी जाते हुए चौकीदार ने ताना कसते हुए कहा, ‘‘मत बता रामलाल, देरसवेर पता तो चल ही जाएगा.’’

पर रामलाल अनसुनी करते हुए सड़क पर हो लिया. सड़क पर आने के बाद भी उस का मन मचल रहा था. रहरह कर उसे मेमसाहब के साथ गुजारे वे पल याद आ रहे थे.

जब से वह मेमसाहब के यहां काम पर लगा है, तब से वे ज्यादा ही मेहरबान रही हैं. कभी साड़ी का आंचल गिरा देती हैं, कभी ब्लाउज का ऊपर का एक बटन खोल देती हैं. वह कनखियों से देख लेता है. एक नौकर की हैसियत से कभी आगे बढ़ने की कोशिश नहीं की, मगर आज तो मेमसाहब ने खुद ही आगे आ कर सारी दीवार गिरा दी.

मगर चंपा का बदन मेमसाहब के बदन से बहुत गठा हुआ है. मेमसाहब अब ढलती उम्र में चल रही हैं, फिर भी उन में जोश अब भी कायम है. कहते हैं न आम कितना ही पिलपिला हो, मगर मजा देता है. यही मजा मेमसाहब से उसे मिला है. मगर चंपा की बात और है.

यह बात चंपा को कहनी चाहिए या नहीं, चंपा उस की जोरू है, उस से छिपा कर नहीं रखना चाहिए. साफसाफ बता देना चाहिए. मगर कहीं चंपा नाराज हो गई तो… नहीं, उसे नहीं बताना चाहिए.

यही सोचतेसोचते रामलाल कब घर आ पहुंचा, उसे पता भी नहीं चला. चंपा उसी का इंतजार कर रही थी. वह नाराज हो कर बोली, ‘‘आने में इतनी देर क्यों कर दी?’’

‘‘मेमसाहब ने मुझे आने ही नहीं दिया,’’ रामलाल के मुंह से निकल पड़ा.

‘‘ऐसे कह रहे हो, जैसे मेमसाहब ने चिपका लिया.’’

‘‘हां, ऐसा ही समझो.’’

‘‘क्या कहा? मेमसाहब के साथ…’’ जब चंपा ने गुस्से से कहा, तो उस के मुंह पर हाथ रखते हुए रामलाल बोला, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है, जो तुम समझ रही हो. अरे, मैं तो जल्दी निकल रहा था. मेमसाहब सामान की लिस्ट पकड़ा कर बोलीं कि रामलाल, बाजार से यह सामान ले आओ और मैं सामान लेने चला गया.’’

‘‘झूठ तो नहीं बोल रहे हो न?’’ चंपा शक जाहिर करते हुए बोली.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘खाओ मेरी कसम.’’

‘‘चंपा, तुम्हारी कसम खा कर कहता हूं कि मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं.’’

‘‘ठीक है, तुम्हारी सचाई तुम्हारे साथ है.’’

‘‘हां, तुम्हें भी कल मेरे साथ चलना है, मेमसाहब ने तुम्हें बुलाया है.’’

‘‘जरूर चलूंगी, अब यहीं बातें करते रहोगे, बिस्तर तक नहीं चलोगे. महीनेभर की लगी आग नहीं बुझाओगे?’’ जब चंपा ने यह कहा, तब रामलाल उसे उठा कर बिस्तर पर ले गया.

रंगीनियत: प्यार और रंजिश की दास्तान

और खींच इसे बे, अभी मरा नहीं है… इस की स्कूटी फंस गई है. खींच इसे जब तक मर न जाए,’’ अमजद के यह कहते ही सुहैल ने ट्रक को और तेज रफ्तार से आगे बढ़ाया. वह तकरीबन 200 मीटर तक स्कूटी को खींचता हुआ आगे ले गया, फिर उस ने ट्रक को तेज रफ्तार से रुड़की रोड पर आगे बढ़ा दिया. उन्होंने समझ लिया था कि स्कूटी वाला आदमी अब बच नहीं पाएगा.यह कांड रात के 10 बजे के आसपास हरिद्वार में हुआ था. जिस आदमी को सड़क पर ट्रक से घसीटा गया था, वह लहूलुहान हो गया था.

उस की खाल उधड़ सी गई थी. हड्डीपसली टूटफूट गई थीं, पर उस की सांसें अभी भी बाकी थीं.अगर उस आदमी को समय से अस्पताल न ले जाया जाता तो उस की मौत तय थी. भला हो उस आदमी का, जिस ने पुलिस और कानून के डर से ऊपर उस घायल आदमी की जिंदगी की कीमत को ज्यादा समझा. उस ने 2-3 लोगों की मदद से उस घायल आदमी को अपनी कार में डाला और जल्दी से पास के अस्पताल में ले गया.डाक्टर सुमनदीप घायल आदमी की हालत देख कर समझ गए कि अगर लिखतपढ़त में समय गंवाया तो उस आदमी का बचना मुश्किल है.

वे तुरंत उसे आईसीयू में ले गए और दूसरे डाक्टरों और नर्सों की मदद से उस का आपरेशन किया. बड़ी मुश्किल से वे उस की जान बचा पाए.उधर पुलिस ने ट्रक ड्राइवर सुहैल और उस के क्लीनर अमजद को लक्सर कसबे से पकड़ लिया था. वे दोनों पुलिस को चकमा देने के लिए रुड़की के बजाय लक्सर की तरफ चले गए थे, लेकिन पुलिस के आगे उन की एक न चली.

कुछ देर नानुकर करने के बाद सुहैल और अमजद ने अपना अपराध कबूल कर लिया. ‘थर्ड डिगरी’ का इस्तेमाल करने पर शकील का नाम भी उगल दिया, जिस ने उन्हें उस आदमी को कुचलने के लिए डेढ़ लाख रुपए दिए थे.‘थर्ड डिगरी’ के नाम से अच्छेअच्छे शातिर अपराधी कांप जाते हैं, क्योंकि इस में कैदी या मुलजिम को जुर्म कबूल करवाने के लिए कई तरह के कठोर तरीके अपनाए जाते हैं, जैसे बेंत से लगातार जोर से मारना, भूखाप्यासा रखना, सोने न देना या मलमूत्र त्याग करने से रोक देना वगैरह.

जब पुलिस ने शकील के हाथ मरोड़े, तो एक नई कहानी उभर कर सामने आई. उसे अमनदीप नाम के एक आदमी ने अस्पताल में भरती घायल अभिनव के कत्ल के लिए 3 लाख रुपए दिए थे.एक कड़ी से दूसरी कड़ी जुड़ती जा रही थी और कहानी में नएनए मोड़ आते जा रहे थे, लेकिन पुलिस को तो कहानी की तह तक जाना था. उसे असली अपराधी चाहिए था.

अमनदीप भी बहुत होशियारी दिखा रहा था, लेकिन पुलिस की मार के आगे उस ने सब सच उगल दिया. जो कहानी उस ने सुनाई, वह आपसी रिश्तों को शर्मसार करने वाली थी.अमनदीप और अभिनव लंगोटिया यार थे. अमनदीप दोनेपत्तल का कारोबारी था.

हरिद्वार में दोनेपत्तल की डिमांड काफी है, इसलिए उस का कारोबार अच्छाखासा फलफूल रहा था. अभिनव भी कई बार उस से दोनेपत्तल खरीदा करता था. धीरेधीरे दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे.अमनदीप अभी कुंआरा था, हृष्टपुष्ट था, नौजवान और खूबसूरत था.

अभिनव के यहां उस का खूब आनाजाना था, लेकिन अमनदीप में एक अच्छे आदमी के सभी गुण मौजूद थे. वह भला मानस था, चरित्रवान था, भरोसेमंद था. दोनों दोस्त एकदूसरे पर पूरा भरोसा करते थे, इसलिए दोनों की दोस्ती खूब फब रही थी.अभिनव की शादी हुए 12 साल गुजर चुके थे. उस का 10 साल का बेटा मोहन और 7 साल की बेटी मोहिनी थी. उस का परिवार सुखी परिवार था.

पत्नी रीना खूबसूरत भी थी और अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने वाली थी.लेकिन रीना को न जाने कहां से सोशल मीडिया पर सैक्सी और ब्लू फिल्मों के वीडियो देखने का चसका लग गया. यहीं से उस का मन बदलने लगा. चैन की जिंदगी जीने वाली बेचैन रहने लगी.

सैक्स की डिमांड कुछ ज्यादा ही करने लगी. अभिनव अपनी पत्नी के इस बदलाव को देख कर हैरान था, लेकिन खुश भी था. अब वह उस को ज्यादा शारीरिक सुख दे रही थी, वह भी अलगअलग पोज दे कर.लेकिन रीना यहीं नहीं रुकी. रंगीनियत का शैतान उस पर हावी हो गया. वह हरदम उस को और ज्यादा रंगीनियत के लिए उकसा रहा था.

वह उस से बारबार कहता, ‘जिंदगी में गैरमर्द से प्यार नहीं किया तो कुछ नहीं किया.’रीना का मन भी कहता कि इस में गलत ही क्या है. जिंदगी के सूखे को खत्म किया जाए, उस में रंगीनियत और रोमांस का रंग उड़ेला जाए, पर रोमांस किस से किया जाए? आसान शिकार कौन? पास का शिकार कौन?

रीना की निगाहें अमनदीप पर टिक गईं.रीना एक दिन जानबूझ कर घर आए अमनदीप से टकराई और शरमाने का ढोंग करने लगी. अमनदीप ने इसे बड़े ही आम तरीके से लिया, लेकिन अपने घर जा कर रीना भाभी से टकराने का सीन बारबार उस की आंखों के सामने आने लगा.

किसी भी बीज को खाद, पानी और धूप ठीक से मिल जाए तो उसे पनपने में देर नहीं लगती. जमीन उपजाऊ थी. प्यार का बीज फूटा तो तेजी से बढ़ा. कुछ ही दिनों में इश्क का यह पौधा फलफूल से लदने लगा.अभिनव शुरुआत में हर चीज से अनजान था. उसे जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि उस के घर में उस के अपने ही आग लगाने में लगे हैं, लेकिन कहावत है इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. एक दिन रीना और अमनदीप रंगे हाथ पकड़े गए. अमनदीप भाग निकला.

अभिनव ने रीना को खूब खरीखोटी सुनाई.इस के बाद तो आएदिन पतिपत्नी और वो का झगड़ा घर में होने लगा. रीना तो अमनदीप की हवस में इस कदर पागल हुई कि वह चाह कर भी उसे छोड़ नहीं पा रही थी. अमनदीप उम्र में कम था, वह तो रीना के प्यार और हवस में उस का गुलाम बन गया.अभिनव तो रीना को अब कांटे की तरह चुभने लगा था. अभिनव मानसिक रूप से बुरी तरह से परेशान था. उस के सोचनेसमझने की ताकत जवाब देने लगी थी.

मर्द के बरदाश्त की एक सीमा होती है. एक दिन वह सीमा टूट गई. रोजरोज के झगड़े से तंग आ कर अभिनव ने रीना को बुरी तरह से पीट डाला.रीना ने सोचा कि अभिनव नाम का यह कांटा अब बड़ा और तीखा हो गया है. चुभने भी कुछ तेज लगा है.

अब इसे निकाल फेंकना चाहिए. एक दिन रीना अमनदीप से मिली और उस से कहा, ‘‘अमनदीप, अब और नहीं सहा जाता. बताओ, तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार हो कि नहीं?’’‘‘लेकिन, यह कैसे मुमकिन है भाभी?’’ अमनदीप कुछ हिचकिचाया.‘‘मुमकिन है. अगर तुम मुझे अपनाना चाहते हो तो रास्ते के रोड़े को तुम्हें हटाना होगा. फिर, मैं भी तुम्हारी और मेरी सारी प्रोपर्टी भी तुम्हारी.’’अमनदीप बिजनैस को भी अच्छे से समझता था. उसे लगा कि सौदा फायदे ही फायदे का है.

खूबसूरत औरत और इतनी प्रोपर्टी… जिंदगी आराम से गुजरेगी.इश्क, हवस और पैसा तीनों ने मिल कर रीना और अमनदीप की अक्ल को मार दिया था. अमनदीप का संबंध अपराधी सोच के शकील से था. अनाड़ी इनसान कहीं भी सिर मुंड़ा बैठता है. शकील ने अभिनव की जान लेने के लिए 5 लाख रुपए मांगे और 3 लाख में सौदा पट गया.

शकील जानता  था, यह अभी भी फायदे का सौदा है.शकील शातिर था. वह किसी की जान लेने में कभी सीधे शामिल नहीं होता था. उसे कानून के फंदे में सीधे फंसने का डर बना रहता था. वह जानता था कि कत्ल किसी और से कराया जाए तो ज्यादा से ज्यादा हत्या की साजिश में शामिल होने का केस बनता है. वह यह भी बखूबी जानता था कि अगर वह पकड़ा भी गया तो आसानी से जमानत पर बाहर आ जाएगा और फिर लंबा मुकदमा और तारीख पर तारीख.

ऐसे न जाने कितने मुकदमे शकील पर चल रहे थे. वह कानून की कमजोरी जानता था कि इन मुकदमों का फैसला उस की इस जिंदगी में नहीं होना है. पेशकार से ले कर वकील और जज सब उस की नजर में बिकाऊ थे, इसलिए बेखौफ अपराध करते जाओ, मुकदमे चलते रहेंगे, मुकदमों का क्या?शायद इसीलिए शकील ने अपने 2 पिट्ठुओं को अभिनव की जान लेने के लिए तैयार किया. उन दोनों को डेढ़ लाख रुपए देने का वादा किया. आधा पैसा उस ने पहले ही दे दिया.

वे इसे ऐक्सीडैंट केस बनाना चाहते थे, लेकिन कहानी की परत दर परत खुलने से वे फंसते चले गए.अभिनव कई हफ्ते अस्पताल में रहा, लेकिन रीना गिरफ्तार होने से पहले एक बार भी उसे अस्पताल में देखने के लिए नहीं गई. अभिनव की बहन और बहनोई ही नगीना से आ कर उस की देखभाल करते रहे. ठीक होने के बाद भी वह कभी अपने घर नहीं गया. उस ने अपनी दुकान संभाली और पास में ही किराए के मकान में रहने लगा. उस के बच्चे भी उस से मिलना नहीं चाहते थे.

अभिनव ने पहले ही अपनी प्रोपर्टी रीना के नाम कर दी थी. उसे कभी इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि उस की पत्नी कभी ऐसा कदम भी उठा सकती है.अमनदीप और रीना की गिरफ्तारी हुई. दोनों जल्दी ही जमानत पर बाहर आ गए. मुकदमा चला, सजा हुई, लेकिन 2 साल जेल में रह कर दोनों बाहर आ गए. अभिनव से तलाक लेने में रीना को कोई दिक्कत ही नहीं हुई. अभिनव रीना और उस के बच्चों के साथ उसी मकान में सुकून भरी जिंदगी बिताने लगा. उसे गंगा के शांत घाट ज्यादा अच्छे लगने लगे थे. वह घाटों पर घूमता हुआ सोचता कि गंगा का बहता पानी कभी वापस नहीं आता.

सोनचिरैया : जब अधेड़ से ब्याही गई एक कमसिन

ठाकुर भवानी प्रसाद अपने रुतबे के लिए आसपास के कई गांवों में जाने जाते थे. 6 फुट लंबा कद और चौड़े कंधे वाले ठाकुर भवानी प्रसाद के बदन पर सफेद रंग का कुरताधोती खूब फबता था. उन के शरीर का साथ देती हुई उन की रोबदार आवाज और मजबूत भुजाएं उन्हें पहलवान जैसा बलशाली दिखाती थीं.

गांव वाले ठाकुर भवानी प्रसाद को आदर भाव से ‘बाऊजी’ कह कर बुलाते और बहुत इज्जत देते थे, क्योंकि उन्हें मेहमाननवाजी का बहुत शौक था. उन के घर पर चायनाश्ते के दौर चलते ही रहते थे.

बाऊजी आत्मा और परमात्मा पर खूब प्रवचन देते थे. यह अलग बात है कि जब आज से 20 साल पहले उन की पहली पत्नी सुधा की मौत हुई थी, तब वे दहाड़ मार कर रोए थे.

वैसे, वे औरत की खूबसूरती के बहुत गहरे पारखी थे. अभी पहली पत्नी की मौत का ठीक से एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि बाऊजी दूसरी पत्नी सोमवती ब्याह लाए थे और सोमवती के आते ही मानो उन पर जवानी फिर से लौट आई थी. उन का चेहरा पत्नी द्वारा की गई सेवा से गुलाबी हो चला था.

पहली पत्नी सुधा अपने पीछे

2 लड़कियां छोड़ कर मरी थी. बड़ी लड़की गीता जवान हुई, तो बाऊजी ने उस की शादी खूब धूमधाम से कर दी थी. हालांकि उस समय उन के दामादजी नवीन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाई ही कर रहे थे, पर पंडितजी ने लड़के का ऊंचा कुल और परिवार की हैसियत देख कर शादी करा दी थी.

पहली लड़की तो किनारे लग गई थी. ठाकुर भवानी प्रसाद अब जल्दी से जल्दी अपनी दूसरी लड़की रीता की शादी निबटाना चाहते थे, पर रीता के लिए भी लड़का कुलीन होना चाहिए था, भले ही उस का रंगरूप कैसा भी हो.

बताने वालों ने एक से एक रिश्ते बताए, पर वे सब बाऊजी को बराबरी के नहीं लगे. कहीं पैसे की कमी थी, तो कहीं कुल की.

‘‘भाई, रंगरूप का क्या है, आज है तो कल ढल गया… पर कुल की इज्जत तो हमेशा के लिए रहती है और हमें दूसरों से बेहतर बनाती है,’’ कुछ ऐसा मानना था बाऊजी का.

रीता की शादी कुलीन लड़के से हो, इस के लिए बाऊजी ने एड़ीचोटी का जोर लगा दिया और उन की मेहनत भी रंग ले आई. आखिरकार एक मनचाहा लड़का मिल ही गया.

22 साल की रीता के लिए 45 साल का अधेड़ मिल गया था. चेहरे पर थोड़े से चेचक के हलके दाग और पेट निकला हुआ, पर बहुत ऊंचे कुल का. बाऊजी तो बस इसी बात से फूले नहीं समाते थे.

उस अधेड़ का नाम संतोष था, जो एक ट्रस्ट के पुस्तकालय में काम करता था. हालांकि उस के घर में पुरखों का बनाया हुआ बहुतकुछ था और खानेपहनने की कोई कमी न थी, फिर भी संतोष ने हाथ में एक नौकरी पकड़ना उचित समझा था.

रीता की शादी तो एक कुलीन घर में हो गई थी, पर वहां का माहौल उसे बहुत अजीब सा लग रहा था. दोगुनी उम्र का पति, घर में पूजापाठ और साफसफाई का सनक की हद तक माहौल था.

ससुर मर चुके थे, केवल सास ही थी. संतोष और उस की मां में खूब बनती थी और उन दोनों मांबेटे ने कई नियम बनाए हुए थे, कई व्रत ले रखे थे.

सुबह 4 बजे से ही उन के घर के मंदिर की साफसफाई का कार्यक्रम शुरू हो जाता था. रीता के लिए इतनी जल्दी जागना कभी आसान काम नहीं रहा था. उसे अपनेआप को ससुराल में ढालने में बहुत मुश्किल हो रही थी. इस माहौल में बहुत जल्दी ही उस का दम घुटने लगा था.

रीता की ससुराल में सफाई, नियम और व्रत का इतना ध्यान रखा जाता था कि जब भी रीता को माहवारी होती तो संतोष उसे अपने बिस्तर को भी नहीं छूने देता था और महज एक चादर लपेट कर उसे जमीन पर सोना पड़ता था.

संतोष अपनेआप में ही मगन रहता था और रात में प्यार की बात करने के बजाय जल्द ही खर्राटे भरने लगता था. रीता का समय बस घर का काम करने में ही बीतता रहता था.

थकाहारा सा संतोष बातबात में संस्कृत के शब्द तो बोलता था, पर जिंदगी के मजे से दूर भागता था. इसी वजह से वह रीता से दूरी बना कर रखता था. संतोष को न तो अपनी पत्नी से कोई लगाव था और न ही उस के मन में बच्चे पैदा करने की इच्छा नजर आती थी.

धीरेधीरे रीता भी अपने पति का रूखा और ठंडापन समझ गई थी और इसी तरह 5 साल गुजर गए. संतोष पूरे 50 साल का हो गया था और रीता 27 साल की.

एक दिन रीता बाथरूम से बाहर निकली, तो दरवाजे पर किसी अनजान ने आवाज दी. वह गीले बालों के साथ ही दरवाजा खोलने चली गई. सामने एक लड़का खड़ा था, जिस ने अपनी साइकिल पर एक बड़ी सी पोटली बांध रखी थी.

रीता की बड़ीबड़ी आंखों में सवाल तैर रहे थे और उस नौजवान ने उन सवालों को अच्छी तरह से पढ़ लिया था. बिना कुछ कहे उस ने हरे केले के पत्तों को लपेट कर बनाई गई एक पुडि़या रीता की तरफ बढ़ा दी.

‘‘पर, हमारे यहां तो फूल देने के लिए चंद्रिका काका आते हैं…’’ रीता बोली.

‘‘जी, मैं उन का बेटा तिलक हूं. वे बीमार हैं, इसलिए नहीं आ पाए हैं,’’ उस नौजवान ने कहा.

रीता ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, तो तिलक की उंगलियां उस के हाथों को छू गईं. रीता को पराए मर्द का अहसास किसी ताजा बयार की तरह महसूस हुआ था, पर अगले ही पल उस ने अपने बालों को झटक कर मन से इस भाव को तुरंत निकाल दिया था.

अगले दिन जैसे ही दरवाजे पर तिलक की आहट हुई, रीता दरवाजा खोलते हुए बोल पड़ी, ‘‘क्या बात है, कल सारे फूल मुरझाए हुए थे?’’

तिलक अचानक रीता के इस शिकायती लहजे से चौंक गया था.

‘‘जी, वैसे फूल तो ताजा थे, पर गरमी के चलते थोड़ा सा असर आ गया होगा. कल मैं ताजा फूल ले आऊंगा. फिलहाल तो यह कमल का फूल है. एक ही था, आप के लिए ले आया,’’ तिलक ने कहा.

रीता ने कमल का फूल ले लिया. अंदर आ कर उस की खुशबू को महसूस करने की कोशिश की, पर नाकाम ही रही. खुशबू न थी, पर कमल कितना सुंदर था और उस पर पड़ी हुई पानी की बूंदें मोतियों के समान लग रही

थीं. रीता ने उस कमल को अपने कमरे में ला कर बिस्तर के सिरहाने रख दिया.

इतने साल तक गोद हरी न होने पर सास ने रीता को ले जा कर माहिर डाक्टर से जांच कराई. डाक्टर ने बताया कि रीता की तो सब रिपोर्ट ठीक हैं, हो सकता है कि इन के पति में कुछ कमी हो, इसलिए बेहतर होगा कि वह भी अपनी जांच करवा ले.

रात को जब संतोष बिस्तर पर आया, तो रीता उस से अपने मन की बात कह बैठी, ‘‘मैं तो कहती हूं कि आप को भी किसी डाक्टर से जांच करा लेनी चाहिए.’’

‘‘बच्चे नहीं हुए, तो इस का मतलब यह नहीं है कि मुझ में कोई कमी है… और फिर इस शहर में बहुत सारे लोगों से मेरी जानपहचान है. अगर मैं किसी डाक्टर से मिलूंगा तो मेरी बदनामी नहीं होगी क्या?’’ संतोष की धीरेधीरे आवाज तेज हो उठी थी, ‘‘तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मुझ में कुछ कमी है… आज मैं तुम्हें अपनी मर्दानगी दिखाता हूं,’’ चीख रहा था संतोष और चीखते हुए उस ने रीता को लातघूंसों से बहुत मारा.

रीता सिसकती रही और सोचती रही कि अगर औरत को पीटना ही मर्दानगी है, तब तो नामर्द होना कई गुना बेहतर है.

3 लोगों के इस घर में रीता को अकेलापन खाने लगा था. संतोष काम पर चला जाता, सास अपने मंदिर और पूजापाठ में मगन रहती, बेचारी रीता से बात करने वाला कोई न बचता. ऐसे में तिलक बाहर से आने वाला एकमात्र ऐसा इनसान था, जिस से रीता बातें कर सकती थी और इसीलिए रीता को तिलक के आने का इंतजार रहता था.

अगले दिन तिलक आया, तो सीधा घर के आंगन में संगमरमर के पत्थर पर बैठ गया. रीता रसोईघर में थी. वह तिलक को आया देख कर चौंक गई और अपनी साड़ी को सही करते हुए बाहर आई और बोली, ‘‘अरे तिलक, तुम आ गए…’’ रीता की आवाज में खुशी की चहक थी.

तिलक ने फूलों की पुडि़या आगे बढ़ाई, तो उस की नजर रीता के हाथ पर बने नीले निशान पर पड़ी. उस ने इस की वजह पूछी.

‘‘सोनचिरैया… पिंजरा…’’ रीता हंस कर बात को टाल गई, ‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है, जो तुम छिपा रहे हो?’’

‘‘यह वेणी है. बालों में लगाने के लिए,’’ तिलक बोला.

‘‘लाओ, इसे मुझे दे दो. मैं सजाऊंगी इसे अपने बालों में,’’ कह कर रीता ने वेणी ले ली और बालों में लगाने के लिए अपने कमरे में चली गई.

वेणी के सिंगार से रीता की खूबसूरती कई गुना बढ़ गई थी. तिलक की निगाहें यह बात महसूस कर रही थीं और उस की जबान ने भी यह बात रीता को महसूस करा दी थी.

‘‘इस वेणी को लगा कर आप बहुत सुंदर लग रही हैं,’’ तिलक ने शरमाते

हुए कहा.

शादी के इतने साल बाद भी कभी संतोष ने रीता को प्यारभरी नजरों से नहीं देखा था. उस के रूप की कभी तारीफ तक नहीं की थी, पर आज इस लड़के से अपनी सुंदरता की तारीफ सुन कर रीता का मन खुश हो उठा. उस की नसनस में रोमांच भर उठा.

रीता कुछ भी कह न सकी. वह भाग कर अपने कमरे मे लगे आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को निहारने लगी.

‘क्या है यह? क्या मुझे तिलक से प्यार हो गया है? और फिर वह वेणी क्यों लाया? मेरे लिए ही तो न… नहीं, मैं तो ब्याहता हूं… किसी दूसरे से प्यार नहीं कर सकती… पर ऐसी शादी का भी क्या फायदा, जो सिर्फ पैसे और खानदान की झूठी शान को बनाए रखने के लिए कर दी गई हो और वह भी दोगुनी उम्र के एक अधेड़ के साथ?’ रीता ने अपने विचारों को झटक दिया था और जा कर काम में लग गई.

तिलक जा चुका था. रीता ने अपने कमरे में जा कर देखा, तो वह कमल का फूल मुरझाया हुआ पड़ा था.

‘‘कोई बात नहीं, कल तिलक आएगा तो और कमल मंगवा लूंगी,’’ रीता उस मुरझाए कमल को देखते हुए बुदबुदा रही थी.

अगले दिन सास पूजा में लीन थी कि तिलक आया और सीधा आंगन में आ कर उसी संगमरमर के पत्थर पर बैठ गया और फूल की पुडि़या निकालने के लिए झोली जमीन पर रख दी.

तिलक को देख कर रीता के चेहरे पर  मुसकराहट दौड़ गई और वह आगे बढ़ चली. इतने में रीता की सास की नजर भी आंगन में बैठे तिलक पर पड़ी और वह गुस्से से भर गई.

जब तिलक चला गया, तो सास रीता पर बिफर पड़ी, ‘‘इस माली के लड़के को घर के अंदर आने की क्या जरूरत पड़ गई… इसे बाहर खड़े हो कर ही फूल दे देने चाहिए. अब यह आंगन और चबूतरा सब अछूत हो गया. अब तुम

ही यहां की सफाई करो,’’ सास चिल्ला रही थी.

सास की बात सुन कर रीता ने सिर झुका कर आंगन की धुलाई शुरू कर दी.

‘‘माली फूल चुन कर ला दे तो इन्हें कोई परेशानी नहीं, कुछ भी अछूत नहीं… और वही माली आंगन में आ कर बैठ गया, तो आंगन ही अछूत हो गया… कितनी अजीब बात है,’’ रीता को इस रूढि़वाद पर कुढ़न हो रही थी.

अगले 2 दिनों तक तिलक नहीं आया. रीता परेशान होने लगी, ‘लगता है, उस ने मेरी सास की कड़वी बातें सुन ली होंगी. क्या सोचेगा तिलक? कहीं वह बीमार तो नहीं हो गया? क्या मैं तिलक को फिर कभी देख नहीं पाऊंगी?’ अपनेआप से ही कई सवाल और कई जवाब… रीता का सिर भारी होने लगा.

संतोष के बाहर जाने के बाद रीता बिस्तर पर लेट गई और उस की आंख लग गई. वह सपने में खो गई… यह तिलक ही तो है, जो उसे अपनी बांहों में उठाए हुए है… उस के होंठों पर अपने होंठ रखे हुए है, उस के साथ सैक्स कर रहा है और रीता भी तो तिलक का पूरा साथ दे रही है…

जब रीता अपने चरमसुख पर पहुंची, तो एक झटके के साथ उस की नींद टूट गई. उस का रोमरोम रोमांचित हो रहा था

‘यह कैसा सपना… और यह कैसा प्यार, जिसे मैं बारबार जीना चाहूंगी… पर तिलक का इस तरह मेरे सपने में आना?’ और फिर खुद ही सारे सवालों का जवाब उस ने दे दिया, ‘तो इस में गलत क्या है? अगर मुझे तिलक से प्यार है… इस कुलीन खानदान और मेरे पति ने मुझे दिया ही क्या है… शरीर का सुख तो दूर की बात, वह तो मन का सुख भी न दे सका, उलटा मारनापीटना…

‘मायके वाले भी समर्पण कर के गुजारा करने की बात ही कहते हैं. ऐसे में मुझे किसी और से प्यार हो गया तो क्या? पर उस प्यार का नतीजा क्या होगा?’

‘‘प्यार खुद अपना रास्ता खोज लेगा,’’ रीता ने अपनेआप से कहा और रसोईघर में चली गई.

तिलक के आने की आहट हुई. रीता आज पहले से ही तैयार थी. दरवाजे

पर जा कर फूलों की पुडि़या ली और बोली, ‘‘क्या इस सोनचिरैया को आजाद करा सकोगे?’’

तिलक ऐसा सवाल सुन कर चौंक जरूर गया, पर रीता की हालत उस से छिपी न थी.

‘‘सोनचिरैया इस गरीब और अछूत के साथ कैसे जिएगी?’’ तिलक ने पूछा.

‘‘प्यार की चाह सोनेचांदी और खानदान को चाट लेने से नहीं मिट जाती,’’ रीता ने कहा.

इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे की आंखों में ही बहुतकुछ पढ़ लिया और तिलक ने कांपते हाथ से अपना मोबाइल नंबर रीता की तरफ बढ़ा दिया.

अगले दिन से चंद्रिका फूल लाने लगा था. दिनों के बीतने के साथसाथ तिलक और रीता के बीच मोबाइल फोन पर बातें लंबी होती जा रही थीं.

रीता ने अपनी हालत और पति के बारे में तिलक को सबकुछ बता दिया और एक ऐसा समय भी आया, जब

27 साल की ठकुराइन एक 25 साल के माली के लड़के के साथ सबकुछ छोड़ कर भाग जाने को मजबूर हो गई.

रीता रात में दबे पैर उठी, एक नजर अपने पति पर डाली और बुदबुदाई, ‘‘हो सकता है कि सभ्य समाज मेरे इस कदम को कलंकिनी का नाम दे, पर कोई बात नहीं. जाति और कुल की बातें करने वालों ने ही मुझे यह कदम उठाने पर मजबूर किया है,’’ और बिना कोई पैसे या गहने लिए ही वह घर से बाहर निकल आई और उस दिशा में चल दी, जहां तिलक उस का इंतजार कर रहा था.

सुबह 4 बजे से सास पूजापाठ में बिजी हो गई. संतोष अब भी खर्राटे भर कर बेसुध सो रहा था, जबकि सोनचिरैया खुले आसमान में उड़ान भर रही थी.

अनजाना डर: आजादी के पहले

रामलाल की झोपड़ी जला दी गई. किन लोगों ने जलाई, यह सभी को मालूम था, मगर पूरे गांव में एक डर था.

पिछले साल गांव में सरपंच पद का चुनाव हुआ था. वहां राजपूतों का दबदबा था. राजपूतों के बाद ब्राह्मण और दलित तबके की तादाद ज्यादा थी.

8 हजार की आबादी वाले इस गांव को टैलीविजन और अखबार ने जागरूक बना दिया था.

आजादी के पहले इस गांव में ठाकुरों का रजवाड़ा था. ठाकुर रामशेर सिंह की बड़ी हवेली थी. उन का दबदबा था. एक तरह से उन का राज पूरे गांव में था.

ठाकुर रामशेर सिंह की मौत के बाद उन के बड़े बेटे आजाद सिंह ठाकुर बने. उन की मौत के बाद उन के बड़े बेटे रतन सिंह की ताजपोशी हुई.

आजादी के बाद राजनीति बहुत बदल चुकी थी. आजाद सिंह शहर में रहते थे, जब कि उन के छोटे भाई मदन सिंह गांव में.

हवेली में जो रौनक पहले रहा करती थी, अब वह खत्म हो गई थी. लोग मदन सिंह का मजाक उड़ाया करते थे, मगर गांव के लोग आज भी आजाद सिंह का सम्मान किया करते थे.

ऐसे में वे मदन सिंह के लिए सरपंच पद के चुनाव का टिकट ले आए. मदन सिंह की इच्छा थी कि आजाद सिंह ही चुनाव लड़ें, इसलिए पूरा गांव अखाड़ा बन गया. हर कोई उन्हें हराने के मूड था.

मगर आजाद सिंह की इज्जत का सवाल था. वे खुद जानते थे कि मदन सिंह की गांव में कोई पूछपरख नहीं है, इसलिए हार तय है. लिहाजा, चुनाव की बागडोर आजाद सिंह को संभालनी पड़ी.

उस दिन ठाकुर आजाद सिंह पहली बार प्रचारकों के साथ रामलाल की ?ोंपड़ी के बाहर पड़ी खाट पर थकान उतारने बैठ गए. तब रामलाल हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘नंगी खाट पर मत बैठिए. इस पर कुछ बिछवा दूं.’’

‘‘रामलाल, शहर की कोठी में गद्दों पर बैठतेबैठते यह शरीर आलसी हो गया. नंगी खाट का मजा भी लेने दो भाई,’’ आजाद सिंह बोले.

‘‘मेरी खुशकिस्मती है कि आप हमारी ?ोंपड़ी में आए…’’ हाथ जोड़ते हुए रामलाल बोला, ‘‘और कोई सेवा?’’

‘‘मु?ो कोई सेवा नहीं चाहिए…’’ आजाद सिंह बोले, ‘‘तुम्हें पता है कि मेरा छोटा भाई मदन सिंह सरपंच का चुनाव लड़ रहा है. तुम लोग वोट दे कर उसे ही जिताना.’’

‘‘मगर…’’

‘‘मगरवगर कुछ नहीं…’’ आजाद सिंह बोले, ‘‘मु?ो पता है कि मेरा भाई शराब पीता है. गांव में बदनाम भी है, मगर आप सब देख लेना…’’

‘‘आप तो राजा हैं…’’ रामलाल बोला, ‘‘हम तो आप को ही वोट देंगे हुजूर.’’

‘‘तुम तो दोगे ही, मु?ो सारी बस्ती के वोट मिलने चाहिए.’’

‘‘ठीक है हुजूर.’’

‘‘मेरे भाई को पंचायत में बैठाओ, फिर मैं दिल्ली से पैसा दिलाऊंगा.’’

‘‘हुजूर, आप पर तो बस्ती के लोगों को पूरा भरोसा है,’’ रामलाल बोला.

‘‘बस, रामलाल तू ने यह कह दिया, तो मु?ो भाई की जीत का पूरा भरोसा है. रामलाल, हमें प्यास लगी है, पानी दोे.’’

जब आजाद सिंह ने यह बात कही, तब रामलाल संकोच में पड़ गया. उसे चुप देख कर आजाद सिंह बोले, ‘‘अरे रामलाल, क्या सोच रहे हो? हमें पानी नहीं दोगे?’’

‘‘हुजूर, आप हमारे घर का पानी पी लेंगे?’’

‘‘क्यों, क्या हम इनसान नहीं हैं?’’

‘‘यह बात नहीं है हुजूर. ऊंची जाति वाले हमें छूना तक नहीं चाहते हैं.’’

‘‘अरे भई, अब तो छुआछूत खत्म हो गई. आज हम तेरे हाथ का पानी पीएंगे… लाओ पानी, गला सूखा जा रहा है.’’

‘‘यों तो हम आप को पानी पिला देंगे हुजूर, मगर गांव वाले अभी भी छुआछूत मानते हैं. हमें इसी बात का डर है.’’

‘‘मैं इसी गांव से छुआछूत मिटाने का संकल्प लेता हूं…’’ ठाकुर आजाद सिंह ने सारी बस्ती, जो खाट के आसपास इकट्ठा थी, को यह बात सुना कर कही.

तब रामलाल ?ोंपड़ी के भीतर गया और एक लोटा पानी ले आया.

ठाकुर आजाद सिंह पानी पी कर बोले, ‘‘रामलाल, आज मटके का पानी पी कर काफी सुकून मिला.’’

ठाकुर आजाद सिंह का पैतरा काम कर गया. ठाकुर मदन सिंह चुनाव जीत गए. धीरेधीरे समय बीतने लगा. चुनाव का जोश ठंडा पड़ गया.

ठाकुर मदन सिंह पहले से ज्यादा शराब पीने लगे थे. वे दलितों की बस्ती की मांबेटियों को गलत नजर से देखने लगे थे.

इस का नतीजा यह हुआ कि गांव में फिर से छुआछूत पनपने लगी.

एक दिन रामलाल की घरवाली चंपा को गुस्सा आ गया. कोई ऊंची जाति की औरत मटका रखे, उस के पहले ही चंपा ने अपना मटका रख दिया.

ऊंची जाति की वह औरत गुस्से से बोली, ‘‘चल उठा अपना मटका, पहले मैं पानी भरूंगी?’’

‘‘पहले मैं पानी भरूंगी,’’ चंपा भी गुस्से से बोली.

‘‘ज्यादा आंखें मत दिखा. हटा अपना मटका,’’ उस औरत ने कहा.

‘‘क्यों हटाऊं… मेरा नंबर है?’’ चंपा ने भी जिद की.

‘‘नंबर गया भाड़ में…’’ वह औरत रोब से बोली, ‘‘जब तक हम पानी न भर लें, तब तक तुम्हें हैंडपंप छूना भी नहीं चाहिए. सम?ा?’’

‘‘क्यों छूना नहीं चाहिए?’’ चंपा उसी अंदाज में बोली, ‘‘ठाकुर साहब ने हमारे घर का पानी पीया है.’’

‘‘ठाकुर साहब को तुम लोगों से वोट लेने थे, इसलिए उन्होंने तुम्हारे घर का पानी पी लिया और अपना धर्म खराब कर लिया. क्या हम भी अपना धर्म खराब कर लें,’’ उस औरत ने कहा.

‘‘धरमकरम की बातें तो तुम लोगों ने बनाई हैं. जब तक चुनाव नहीं हुए, तब तक तो तुम बिना छुआछूत पानी भरवा दिया करती थीं. अब तुम्हारे मन में खोट आ गया. हमें तुम अब अछूत सम?ाने लगे,’’ चंपा ने जब यह बात कही, तब वहां खड़ी सभी ऊंची जाति की औरतें आगबबूला हो उठीं.

उस औरत का नाम रूपकुंवर था. वह ठाकुर मदन सिंह की करीबी थी.

रूपकुंवर बोली, ‘‘तू तमीज से बात कर. हम ने कह दिया न कि पहले हम सभी पानी भरेंगी.’’

‘‘मैं भी देखती हूं कि तुम सब पहले पानी कैसे भरती हो? पहले मैं पानी भरूंगी…’’ चंपा बोली.

‘‘अपनी जबान बंद रख…’’ तीसरी औरत बोली, ‘‘तु?ो हुकुम चलाना है, तो जा कर ठाकुर साहब की कोठी पर चला.

‘‘अरे, तेरे खानदान ने कभी सिर उठाने की हिम्मत नहीं की और तू हमारे सिर पर चढ़ी जा रही है. उठा मटका, नहीं तो फेंक दूंगी.’’

‘‘किसी में हिम्मत है, तो फेंक कर दिखाए,’’ चंपा बोली.

रूपकुंवर को ताव आ गया. उस ने चंपा का मटका उठा कर फेंक दिया. चूंकि मटका मिट्टी का था, इसलिए टूट गया.

मौका देख कर चंपा बस्ती में भाग गई, मगर वह रूपकुंवर का सिर जरूर फोड़ गई.

उस दिन हैंडपंप की इस घटना ने कुहराम मचा दिया.

रूपकुंवर का पति शमशेर सिंह रामलाल की ?ोंपड़ी के बाहर चिल्लाते हुए बोला, ‘‘रामलाल बाहर निकल… अभी बताता हूं.’’

तब भीतर से रामलाल आया और बोला, ‘‘क्या हुआ हुजूर?’’

‘‘हुआ मेरा सिर… कहां गई तेरी जोरू? निकाल उसे बाहर.’’

‘‘आखिर चंपा ने क्या किया है?’’

‘‘अरे, जैसे तु?ो पता ही नहीं… निकाल बाहर, उसे बताता हूं.’’

‘‘चल, मैं आ गई बाहर…’’ चंपा  बोली, ‘‘क्या करेगा तू?’’

‘‘ऐ चंपा, तू भीतर जा,’’ उसे ?ोंपड़ी के अंदर धकेलते हुए रामलाल बोला.

‘‘क्यों जाऊं भीतर…’’ रामलाल की ?िड़की के बावजूद भी चंपा का गुस्सा कम न हुआ.

‘‘तू सुनती है कि नहीं,’’ रामलाल बोला.

‘‘वह शराबी मदन सिंह सरपंच बन गया, तो इन सब को ऊंची जाति का घमंड चढ़ गया. अरे, वह जीता तो हमारे ही वोटों से है,’’ चंपा का गुस्सा बढ़ गया, ‘‘अब बोल, चुप क्यों हो गया. बड़ी दादागीरी दिखा रहा था एक मर्द हो कर औरत पर.

‘‘अपनी जोरू को सम?ा ले रामलाल,’’ शायद चंपा की बात सुन कर शमशेर सिंह का नशा उतर गया था.

‘‘अरे जाजा, ऐसी धमकी देने वाले बहुत देखे हैं,’’ जब चंपा ने कहा, तब गुस्से से शमशेर सिंह वहां से चला गया.

‘‘ऐ चंपा, तू ने जो किया, अच्छा नहीं किया,’’ रामलाल ने गुस्से से कहा.

‘‘अरे, क्या अच्छा नहीं किया. अगर डर कर बैठ गए न, तब ये लोग हमें दबोच लेंगे,’’ कह कर चंपा ?ोंपड़ी के भीतर चली गई.

इस घटना के ठीक तीसरे दिन रामलाल की ?ोंपड़ी में आग लगा दी गई. किस ने आग लगाई, सभी जानते थे, मगर किसी अनजाने डर से अपना मुंह नहीं खोल रहे थे.

 

मौडर्न सिंड्रेला: मनाली ने लगाया रिश्तों पर दांव

आज मयंक ने मनाली को खूब शौपिंग करवाई थी. मनाली काफी खुश लग रही थी. उसे खुश देख कर मयंक भी अच्छा महसूस कर रहा था. वैसे वह बड़ा फ्लर्ट था, पर मनाली के लिए वह बिलकुल बदल गया था. मनाली से पहले भी उस की कई गर्लफ्रैंड्स रह चुकी थीं, पर जैसी फीलिंग उस के मन में मनाली के प्रति थी वैसी पहले किसी के लिए नहीं रही.

‘‘चलो, तुम्हें घर ड्रौप कर दूं,’’ मयंक ने कहते ही मनाली के लिए कार का दरवाजा खोल दिया.

‘‘नहीं मयंक, मुझे निमिशा दीदी का कुछ काम करना है इसलिए आप चले जाइए. मैं घर चली जाऊंगी,’’ प्यार से मुसकराते हुए मनाली निकल गई. फिर उस ने फोन कर के कोको स्टूडियो में पता किया कि कोको सर आए हैं कि नहीं. उसे आज हर हाल में फोटोशूट करवाना था. कैब बुक कर के वह कोको स्टूडियो पहुंच गई. तभी उसे याद आया, ‘आज तो ईशा मैम की क्लास है. उन की क्लास मिस करना बड़ी बात थी. वे क्लास बंक करने वाले स्टूडैंट्स को प्रैक्टिकल में बहुत कम नंबर देती थीं. तुरंत कीर्ति को फोन कर रोनी आवाज में दुखड़ा रोया, ‘‘प्लीज मेरी हाजिरी लगवा देना. चाची और निमिशा दीदी ने सुबह से जीना हराम कर रखा है.’’

‘‘ओह, तुम परेशान मत हो,’’ कीर्ति उसे दुखी नहीं देख सकती थी. वह समझती थी कि चाचाचाची मनाली को बहुत तंग करते हैं. तभी कोको सर भी आ गए. मौडलिंग की दुनिया में काफी नाम कमाया था उन्होंने. हां, थोड़े सनकी जरूर थे पर मौलिक, कल्पनाशील लोग ज्यादातर ऐसे होते ही हैं. कोको सर ने मनाली को ध्यान से देखा और उस पर बरस पड़े, ‘‘तुम्हें वजन कम करने की जरूरत है. मैं ने पहले भी तुम्हें बताया था. आज तुम्हारा फोटोशूट नहीं हो सकेगा.’’‘‘बुरा हो इस मयंक का और कालेज के अन्य दोस्तों का. जबतब जबरदस्ती कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं,’’ मनाली आगबबूला हो कर स्टूडियो से बड़बड़ाती हुई निकली. घर पहुंची तो चाची ने चुपचाप खाना परोस दिया. चाची उस से ज्यादा बातचीत नहीं करती थीं पर उस का खयाल अवश्य रखती थीं.

उस ने खाने की प्लेट की तरफ देखा तक नहीं, क्योंकि अब उस पर डाइटिंग का भूत सवार हो चुका था. रात का खाना भी उस ने नहीं खाया तो चाचाचाची को चिंता हुई. वैसे भी वह चाचा की लाड़ली थी. वे उसे अपने तीनों बच्चों की तरह ही प्यार करते थे. मनाली के मातापिता का तलाक हो गया था. उस की मां ने एक एनआरआई डाक्टर के साथ दूसरी शादी कर ली थी और अमेरिका में ही सैटल हो गई थीं. वहीं पिता कैंसर के मरीज थे. मनाली जब 8 वर्ष की थी तभी उन की मृत्यु हो गई थी. कुछ समय बूआ के पास रहने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे चंडीगढ़ चाचाचाची के पास भेजा गया. पढ़ाईलिखाई में मनाली का मन कम ही लगता था जबकि चाचा के तीनों बच्चे पढ़ने में बहुत अच्छे थे. चाची उसे भी पढ़ने को कहतीं पर मनाली पर उस का कम ही असर होता था. इंटर में गिरतेपड़ते पास हुई तो चाचा उस के अंक देख कर चकराए. ‘‘किस कालेज में दाखिला मिलेगा?’’

इस का हल भी मनाली ने सोच लिया था. वह चाचा को आते देख कर किसी न किसी काम में जुट जाती. यह देख कर चाचा चाची पर खूब नाराज होते. उस के कम अंक आने का जिम्मेदार चाचा ने चाची और बड़ी बेटी निमिशा को मान लिया था. खैर, जैसेतैसे चाचा ने मनाली का ऐडमिशन अच्छे कालेज में करा दिया था. कालेज में भी मनाली ने सब को चाची और निमिशा के अत्याचारों के बारे में बता कर सहानुभूति अर्जित कर ली थी. चाचा की छोटी बेटी अनीशा की मनाली के साथ अच्छी बनती थी. अनीशा थोड़ी बेवकूफ थी और अकसर मनाली की बातों में आ जाती थी. दोनों बाहर जातीं और देर होने पर मनाली अनीशा को आगे कर देती. बेचारी को चाचाचाची से डांट खानी पड़ती. चाची मनाली की चालाकियां खूब समझती थीं पर अनीशा मनाली का साथ छोड़ने को तैयार न थी. उस का लैपटौप, फोन, मेकअप का सामान मनाली खूब इस्तेमाल करती थी.

एक दिन अनीशा ने उसे बताया कि वह एक लड़के को पसंद करती है. पापा के दोस्त का बेटा है. उस की पार्टी में ही मुलाकात हुई थी. अनीशा ने मनाली को मयंक से मिलवाया. मयंक बहुत हैंडसम था और अमीर बाप की इकलौती संतान. मनाली ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह कैसे भी मयंक को हासिल कर के रहेगी. ‘‘देखो मयंक, मैं कहना तो नहीं चाहती पर अनीशा को साइकोसिस की बीमारी है.’’ मनाली ने भोली सी सूरत बना कर कहा.

‘‘क्या?’’ मयंक तो हैरान रह गया था.

‘‘प्लीज, तुम यह बात अनीशा और उस की फैमिली से मत कहना. तुम्हें तो पता ही है न उस घर में मेरी क्या हैसियत है.’’

मयंक मनाली की बातों में आ गया. और उस ने अनीशा के प्रति अपना नजरिया बदल लिया. उधर अनीशा को मयंक का व्यवहार कुछ अलग लगने लगा. उस के फोन उठाने भी उस ने बंद कर दिए. अनीशा ने मनाली को इस बारे में बताया तो उस ने आंखें मटकाते हुए समझाया, ‘‘मयंक को मैं ने एक नामी मौडल के साथ देखा है. वह उस की गर्लफ्रैंड है. तुम उसे भूल जाओ.’’ मनाली को तसल्ली हो गई कि अनीशा के भी अंक इस बार कम ही आएंगे. अच्छा हो, दोनों ही डांट खाएं. एक दिन चाचा के बेटे मनीष ने उसे कालेज टाइम में मयंक के साथ घूमते देख लिया. घर आ कर चाचाचाची के सामने मनाली की पोल खुली. ‘‘मैं तो मयंक की खबर लेने गई थी कि उस ने अनीशा का दिल दुखाया,’’ सुबकते हुए मनाली ने कारण बताया. बात बनाना उसे खूब आता था. घर वालों को अनीशा की उदासी का कारण भी पता चला. अनीशा मनाली से नाराज होने के बजाय उस से लिपट गई, ‘‘इस घर में एक तुम ही हो, जिसे मेरी फिक्र है.’’ खैर, कड़ी मेहनत के बाद मनाली ने वजन घटा ही लिया. फोटोशूट भी हो गया और चोरीछिपे एक दो असाइनमैंट भी मिल गए.

एक दिन मयंक से उस ने साफसाफ पूछा, ‘‘मयंक, मैं चाचाचाची के पास रहते हुए तंग आ चुकी हूं. मुंबई में मेरी मौसी रहती हैं. क्या, तुम कुछ समय के लिए मेरी मदद कर सकते हो?’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारे रहने का बंदोबस्त कर देता हूं. तुम बस मुझे बताओ कि तुम्हें कितनी रकम चाहिए,’’ मयंक सोच रहा था कि मनाली मुंबई जा कर मौसी के पास रह कर अपनी पढ़ाई करना चाहती है. उस ने ढेर सारी रकम और एटीएम कार्ड मनाली को दिया और निश्चित तारीख का टिकट भी पकड़ा दिया. चाचाचाची से कालेज ट्रिप का बहाना बना कर मुंबई जाने का रास्ता मनाली ने खोज लिया था. ‘वापसी शायद अब कभी न हो,’ सोच कर मंदमंद मुसकराती मौडर्न सिंड्रेला मुंबई की उड़ान भर चुकी थी. उसे खुद पर और उस से भी ज्यादा लोगों की बेवकूफी पर भरोसा था कि वह जो चाहेगी वह पा ही लेगी.

खुली हवा: मां के लिए प्रेम का प्यार

‘आंखें बंद करो न मां…’’ इतना कह कर प्रेम ने अपने हाथों से अपनी मां की आंखों को ढक लिया.‘‘अरे, क्या कर रहा है? इस उम्र में भी शरारतें सूझती रहती हैं तुझे मेरे साथ,’’ मां ने नाटकीय गुस्से में उसे फटकारा.‘‘कुछ नहीं कर रहा. बस, गेट तक चलो,’’ प्रेम ने कहा.वे दोनों दरवाजे तक पहुंचे, तो प्रेम ने हलके से मां की आंखों को अपने हाथों के ढक्कन से आजाद कर दिया.

मां ने आंखें खोलीं, तो सामने स्कूटी खड़ी थी, एकदम नई और चमचमाती.‘‘अच्छा, तो यह तमाशा था… कब लाया? बताया भी नहीं? वैसे, इस की जरूरत क्या थी? घर में 2 बाइक हैं तो सही. नौकरी क्या मिली, हो गई जनाब की फुजूलखर्ची शुरू,’’ मां हमेशा की तरह सब एक सांस में बोल गईं.‘

‘अरे, ठहरो मेरी डियर ऐक्सप्रैस. यह मैं अपने लिए नहीं लाया,’’ प्रेम बोला.‘‘तो किस के लिए लाया है?’’ मां ने गहरी भेदी नजर से सवाल किया.‘‘आप के लिए…’’ बोलते हुए प्रेम ने मां का चेहरा अपने हाथों में थाम लिया.‘‘मेरे लिए…? मुझे क्या जरूरत थी?’’ मां ने हैरान हो कर पूछा.‘‘जरूरत क्यों नहीं… पापा काम में बिजी रहते हैं और अब मुझे भी नौकरी मिल गई है. घर में ऐसे कितने काम होते हैं, जिन्हें पूरा होने के लिए तुम्हें हमारा रविवार तक इंतजार करना पड़ता है.

अब तुम हम पर डिपैंड नहीं रहोगी,’’ प्रेम ने कहा.‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या प्रेम? यह शहर नहीं, बल्कि गांव है बेटा. लोग हंसेंगे मुझ पर. कहेंगे बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम… ‘‘और फिर मैं कौन सा नौकरी करती हूं, जो यह स्कूटी लिए घूमूं,’’ मां ने अपनी चिंता जाहिर की.‘‘मां, आप को लोगों से क्या लेनादेना. भागदौड़ कर के जो आप इतना थक जाती हो, लोग आते हैं क्या देखभाल करने? ‘‘मेरी प्यारी मां, यही तो उम्र है इन सुविधाओं का हाथ पकड़ने की. जवानी में तो इनसान दौड़दौड़ कर भी काम कर लेता है, लेकिन अब कर सकती हो क्या?’’‘‘लेकिन बेटा, इस उम्र में…’’ मां ने चिंता जाहिर की.मां की बात पूरी होने से पहले ही प्रेम ने अपनी उंगली मां के होंठों पर रख दी और कहा, ‘‘चुप. कोई उम्रवुम्र नहीं. 50 की ही तो हो और बोल ऐसे रही हो जैसे 100 साल की हो,’’ कह कर प्रेम हंस दिया.‘‘तू समझ नहीं रहा.

गांव में लोग हंसेंगे कि इसे इस उम्र में क्या सूझी.’’‘‘कोई कुछ भी समझे, तुम बस वह समझो जो मैं कह रहा हूं,’’ कह कर प्रेम अपनी मां का हाथ पकड़ कर स्कूटी तक ले गया और बोला, ‘‘बैठो…’’मां हिचकिचाईं, तो प्रेम ने प्यार से उन्हें स्कूटी पर जबरदस्ती बैठा दिया और खुद पीछे बैठ गया.‘‘देखो, ऐसे करते हैं स्टार्ट… ध्यान से सीखना,’’ प्रेम बोला.मां भीतर से खुश भी थीं और बेचैन भी.

बेचैनी समाज की बनी रूढि़यों से थी और खुशी जिस बेटे को जन्म से ले कर आज तक सिखाया, वह आज उस का शिक्षक था.स्कूटी स्टार्ट कर के प्रेम अपनी मां को समझाता जा रहा था और मां बड़े ध्यान से सब समझ रही थीं. लोगों की नजरें खुद पर पड़ती देख कर वे हिचकिचा जातीं, लेकिन बेटे का जोश उन्हें और उमंग से भर देता.उल्लास की लहर पर सवार मां खुद को खुली हवा में आजाद महसूस कर रही थीं.

उन्हें याद आया कि बचपन में वे चिडि़या बन कर उड़ जाना चाहती थीं. आज लगा जैसे वह ख्वाब पूरा हो गया है. वे उड़ ही तो रही थीं एक ताजा हवा में चिडि़या की तरह चहकते हुए.

वहम : जब बुधिया को भूत ने जकड़ा

बुधिया और बलुवा पक्के दोस्त थे. बुधिया भूतप्रेत पर यकीन करता था, जबकि बलुवा उन्हें मन का वहम मानता था. एक बार उन की बछिया जंगल में खो गई, जिसे ढूंढ़ने में रात हो गई. इसी बीच बुधिया को किसी भूत ने पकड़ लिया. आगे क्या हुआ?

बुद्धि चंद्र जोशी… गांव के लोग अकसर उसे बुधिया कह कर बुलाते थे. वह ठेठ रूढि़वादी पहाड़ी पंडित परिवार से था. सवेरे स्कूल जाने से पहले आधा बालटी पानी से स्नान, एक घंटा पूजापाठ, फिर आधी फुट लंबी चुटिया में सहेज कर गांठ लगाना, रोली और चंदन से ललाट को सजाना  उस के रोजमर्रा के काम थे.

बेशक कपड़े मैले पहन ले, पर बुधिया ने नहाना कभी नहीं छोड़ा, फिर चाहे गरमी हो या सर्दी. उसे पढ़ाई में मेहनत से ज्यादा भाग्य और जीवन में लौकिक से परलौकिक संसार पर ज्यादा भरोसा था. वह हमेशा भूतप्रेत, आत्मापरमात्मा और तंत्रमंत्र की ही बातें किया करता था और ऐसी ही कथाकहानियों को पढ़ा भी करता था.

बलुवा यानी बाली राम आर्या बुधिया का जिगरी दोस्त था, लेकिन आचारविचार में एकदम उलट. न पूजापाठ, न रोलीचंदन और न ही वह चुटिया रखता था. हर बात पर सवाल करना उस के स्वभाव में शुमार था. जब तक तर्क से संतुष्ट नहीं हो जाता था, तब तक वह किसी बात को नहीं मानता था.

वे दोनों गांव के पास के स्कूल में 11वीं क्लास में पढ़ते थे. बुधिया ने आर्ट्स, तो बलुवा ने साइंस ली थी. वे दोनों साथसाथ स्कूल जाते थे.

उन दोनों में अकसर भूतप्रेत के बारे में बहस होती रहती थी. बलुवा कहता था कि भूतप्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती, बस सिर्फ मन का वहम है, पर बुधिया मानने को तैयार नहीं था और कहता, ‘‘तू बड़ा नास्तिक बनता है. जब भूतप्रेत का साया तुझ पर पड़ेगा, तब तेरी अक्ल ठिकाने आएगी.’’

इस पर बलुवा कहता, ‘‘भूतप्रेत की कहानियां पढ़पढ़ कर तू हमेशा उन की ही कल्पना करता है, जिस से तेरे अंदर उन का डर बैठ गया है.’’

तब बुधिया शेखी बघारता, ‘‘एक न एक दिन तुझे भी भूत के दर्शन करा दूंगा, तब तू सच मानेगा,’’ फिर वह गांव के कई लोगों के नाम गिनाता जैसे रमूली, सरला, किशन, महेश जिन्हें भूत लग गया था और जो बाद में तांत्रिक के भूत भागने से ठीक हुए थे.

पहाड़ों में दिसंबर में छमाही के इम्तिहान के बाद स्कूल में छुट्टियां पड़ जाती हैं. छुट्टियों में उन दोनों का काम होता था जंगल में गाय चराना.

वे दोनों अपनीअपनी गाय ले कर दूर जंगल में निकल जाते. दिनभर खेलतेकूदते रहते और शाम को गाय ले कर घर वापस आ जाते. जंगल में बाघतेंदुए का आतंक भी बना रहता था, इसलिए घर आते समय जानवरों की गिनती की जाती थी कि पूरे हैं या नहीं.

एक दिन जब बुधिया जानवरों की गिनती कर रहा था तो एक बछिया नहीं दिखी. चूंकि एक बछिया कम थी, घर कैसे जाया जाए. घर पर डांट जो पड़ेगी.

जाड़ों में दिन छोटे होते हैं, तो अंधेरा जल्दी पसरने लगता है. दोनों ने फैसला लिया कि जल्दी से जल्दी बछिया को ढूंढ़ा जाए, नहीं तो रात हो जाएगी. दोनों बछिया को ढूंढ़ने अलगअलग दिशाओं में निकाल गए, ताकि काम जल्दी हो जाए.

एक पहाड़ी के इस तरफ तो दूसरा पहाड़ी के दूसरी तरफ चला गया.

तय हुआ कि जिसे भी बछिया पहले

मिल जाएगी, वह दूसरे को आवाज दे कर बताएगा.

बछिया ढूंढ़तेढूंढ़ते वे दोनों काफी

दूर निकाल गए. रात भी धीरेधीरे

गहराने लगी. अचानक जोरजोर से चीखने की आवाज आने लगी, ‘‘भूत… भूत… बचाओ बचाओ… इस ने मुझे पकड़ लिया.’’

बलुवा रुक कर आवाज पहचानने की कोशिश करने लगा. यह बुधिया के चीखने की आवाज थी. बलुवा ने सोचा कि बुधिया डरपोक है. ऐसे ही रात में कोई जंगली जानवर की आहट को भूत समझ कर चिल्ला रहा होगा.

बलुआ ने जोर से चिल्ला कर कहा, ‘‘बुधिया, डर मत. तू किसी जंगली जानवर को भूत समझ कर डर गया होगा. भूतप्रेत कुछ नहीं होते. सब तेरे मन का वहम है.’’

बुधिया फिर गला फाड़फाड़ कर चिल्लाने लगा, ‘‘नहीं, यह सचमुच का भूत है. इस के बड़ेबड़े दांत, सींग और नाखून हैं. इस के पैर भी उलटे हैं. यह मुझे खा जाएगा. जल्दी आ कर मुझे बचा ले.’’

बलुवा भी अब थोड़ा सहम सा गया और सोचने लगा, ‘बुधिया इतने विश्वास से कह रहा है कि उसे भूत ने पकड़ लिया है, तो जरूर कोई बात होगी.’

रात की बात थी. बलुवा ने घने अंधेरे जंगल में अकेले जाना ठीक नहीं समझा. लिहाजा, वह वापस गांव की ओर आ गया. जंगल से सटे घरों से 4 लोगों को इकट्ठा कर के उस ओर को चला, जहां से बुधिया की आवाज आ रही थी. सब के हाथों में मशालें थीं.

बुधिया का चीखतेचीखते गला भी बैठ चुका था. अब चीखने की आवाज भी रुंधी हुई दबीदबी सी आ रही थी.

उन पांचों में सब से सयाना पंडित धनीराम था, पर सब से ज्यादा वही डरा हुआ था. उस ने बताया कि इस जंगल में लकड़ी के तस्करों ने एक फौरैस्ट गार्ड की हत्या कर दी थी. जरूर उस भूत ने ही बुधिया को पकड़ा होगा.

यह सुन कर बलुवा ने कहा, ‘‘क्या बात कर रहे हो पंडितजी. अगर वह भूत बन गया तो बाघ ने तो यहां सैकड़ों जानवर मारे होंगे. तब सब को भूत

बन जाना चाहिए. क्यों हम सब को डरा रहे हो…’’

‘‘डरा नहीं रहा हूं बलुवा. चल, अब तू अपनी आंखों से देखेगा भूत की पकड़…’’ धनीराम ने डराने के लहजे

से कहा.

अब वे लोग करीबकरीब बुधिया के नजदीक पहुंच चुके थे. बुधिया का गला चिल्लातेचिल्लाते तकरीबन बैठ चुका था. वह रुंधे गले से धीरेधीरे चीख रहा था, ‘‘बचाओ… बचाओ…भूत से मुझे छुड़ाओ… नहीं तो वह मुझे खा जाएगा.’’

बलुवा दिलासा देते हुए बोला, ‘‘डर  मत बुधिया. मैं गांव से लोगों को ले कर आया हूं. तुझे कुछ नहीं होगा.’’

पहाड़ों में मौसम का कुछ भरोसा नहीं होता. कुछ ही मिनटों में वहां बादल घिर आते हैं और बारिश होने लगती है. ऐसा ही आज भी हुआ. जैसे ही वे लोग बुधिया के पास पहुंचे, तेज बारिश होने लगी. सब की मशालें बुझ गईं.

तेज बारिश और चारों ओर घना अंधेरा. किसी को कुछ नजर नहीं आ रहा था. बस, बुधिया की रुकीरुकी चीखने की आवाज सुनाई पड़ रही थी.

बलुवा आवाज की दिशा में धीरेधीरे आगे बढ़ने लगा और बुधिया से बोला, ‘‘ला, अपना हाथ मुझे दे…’’ बलुवा ने  बुधिया का हाथ पकड़ कर जोर से खींचा, पर बुधिया निकल नहीं पा रहा था. अब तो बलुवा को भी शक होने लगा था कि कहीं बुधिया को सचमुच तो भूत ने नहीं पकड़ लिया है.

बलुवा ने कुछ घबराई हुई आवाज में साथ आए राम सिंह से कहा, ‘‘देखो तो भाई, आप की जेब में माचिस पड़ी होगी. उस से थोड़ा चीड़ के नुकीले पत्ते जला कर उजाला करो. देखें, आखिर बुधिया को किस ने पकड़ा है…’’

अब तक बारिश भी थम चुकी थी. राम सिंह ने आसपास से कुछ पत्ते इकट्ठा कर के जलाए. उजाले में जोकुछ देखा उस से सब की हंसी छूट गई.

बुधिया घबराते हुए बोला, ‘‘इधर मेरी जान जा रही है और तुम लोग हंस रहे हो.’’

जवाब में राम सिंह ने हंसते हुए कहा, ‘‘बुधिया, पीछे मुड़ कर तो देख तुझे भी अपनी बेवकूफी पर हंसी आ जाएगी.’’

बुधिया ने पीछे मुड़ कर देखा तो उस के पाजामा के दाहिने पैर की मोहरी एक खूंटे में फंस हुई थी. वह ज्योंज्यों ज्यादा जोर लगाता, घबराहट में और भी फंसता जाता. वह बहुत डर गया था. उस के डर ने कहानियों और टैलीविजन पर देखे भूत की शक्ल ले ली थी.

बड़ेबड़े दांत, लंबेलंबे नाखून, सींग और उलटे पैर. जंगली जानवरों की अजीबोगरीब आवाजें उस के डर को और भी बढ़ा रही थीं. डर के मारे उस की सोचने की ताकत जीरो हो गई थी. वह एक मामूली खूंटे से भी अपनेआप को नहीं छुड़ा पा रहा था.

बलुवा ने फिर बुधिया को समझाते हुए कहा, ‘‘देख, मैं कहता था न कि भूतप्रेत कुछ नहीं होते. हमारे मन का डर ही भूत को जन्म देता है.’’

पर बुधिया कहां मानने वाला था.

वह फिर भी कह रहा था, ‘‘नहीं यार, कुछ तो था. शायद उजाला देख कर भाग गया होगा.’’

बलुवा बुधिया को उस के घर तक छोड़ आया. घर वाले बछिया नहीं, बल्कि बुधिया कि चिंता कर रहे थे कि वह अब तक घर क्यों नहीं पहुंचा.

घर पहुंच कर बुधिया ने सारी बातें बताईं. बछिया तो अपनेआप बहुत पहले ही घर पहुंच चुकी थी.

जड़ों की छुट्टियां अब खत्म हो चुकी थीं. आज तकरीबन 4 महीने के बाद फिर से वे दोनों गपें मारते हुए

स्कूल जा रहे थे. रास्ते में एक सुनसान पहाड़ी नाले के पास ‘छपछप’ की आवाज सुनाई दी.

बुधिया ने डर के मारे बलुवा का हाथ कस के पकड़ लिया और कांपती आवाज में बोला, ‘‘देख, वह ‘छपछप’ की आवाज करते हुए भूत आ रहा है.’’

बलुवा जोर का ठहाका लगा कर हंसते हुए बोला, ‘‘हां, उस दिन वाले जंगल के भूत का अब इधर ट्रांसफर हो गया है. वह तुझ से मिलने आया है.’’

तभी झाड़ी से एक जंगली मुरगी फड़फड़ाते हुए भागी. बलुवा हंसते हुए बोला, ‘‘देख, तेरा भूत वह जा रहा है. जा, जा कर पकड़ ले.’’

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