ऊंचे लोग : क्या स्कूल टीचर का हो पाया शिव

शिव सुबहसवेरे दौड़ लगा रहा था. वह इतना दौड़ चुका था कि पसीने से तरबतर हो कर धीरेधीरे चलते हुए घर लौट रहा था. सुबह के 6 बजे थे. सड़क पर हर उम्र के लोग टहलने के लिए निकल चुके थे. पूर्व दिशा से सूरज मानो किसी छोटे से बालक की तरह सुर्ख लाल रंग में ऊंची इमारत की छत पर से सिर उठा रहा था. शिव यह नजारा अकसर देखता था.

यह इमारत उस स्कूल की थी, जिस में वह नौकरी करता था. स्कूल की छत पर 3 लड़कियों की छाया नाचती हुई दिख रही थीं. यह देख कर वह ठगा सा वहीं खड़ा रह गया. शिव के कदम अपनेआप स्कूल की तरफ बढ़ गए. इन दिनों स्कूल बंद था, इसलिए शादी के लिए किराए पर दिया हुआ था. शिव ऊपर छत पर गया, जहां एक लड़की खड़ी थी.

उस ने सवालिया नजरों से शिव की ओर देखा, लेकिन उस के मुंह से कुछ न निकला. शिव बड़ी देर तक उस नाचने वाली लड़की को देखता रहा. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. ‘‘आप के साथ 2 और भी लड़कियां थीं? वे कहां गईं?’’ शिव ने उस लड़की से सवाल किया. ‘‘वे दोनों नाश्ता करने गई होंगी,’’ उस लड़की ने बताया, ‘‘आप उन के रिश्ते में हैं या…’’

‘‘नहीं, मैं तो आप का नाच देख कर ऊपर चला आया हूं… आप ने बहुत मेहनत की है शायद…’’ ‘‘ऐसा तो नहीं है, पर आप ने हमें कैसे देखा? हम तो छत पर…’’ ‘‘जाने दीजिए… मैं इस स्कूल में टीचर हूं. अग्रवाल साहब ने यह स्कूल शादी के लिए लिया है, पर…

रूटीन चैकअप के लिए स्टाफ में से कोई तो आ ही जाता है… आप का नाम?’’ ‘‘रमा.’’ ‘‘मैं शिव.’’ शिव को पलभर के लिए लगा कि बातचीत का सिरा टूटने वाला है.

इतने में वह लड़की बोली, ‘‘यहां मेहंदी लगाने वाला कोई नहीं है? एक ही औरत आई है और मेहंदी लगवाने वाली कई हैं… आप यहां किसी को जानते हैं?’’

‘‘मैं आप को ले चलूंगा… लेकिन 10 बजे के बाद.’’ ‘‘ठीक है.’’ शिव की तो मानो लौटरी लग गई. दोनों नीचे आए. रमा एक कमरे में गई और बोली, ‘‘हमें यह कमरा दिया है. यहां सब आराम हैं, पर…’’

‘‘किसी बात की परेशानी हो, तो मु झे बताइए?’’ शिव ने कहा. ‘‘यहां नहाने का इंतजाम नहीं है. ये बाथरूम स्कूल के लिहाज से बने हैं. यहां गरम पानी भी नहीं है.’’ ‘‘आप के लिए गीजर का इंतजाम है. आप चलिए मेरे साथ… 2 मकान छोड़ कर ही मेरा मकान है,’’ शिव ने कहा.

यह सुन कर रमा एकदम चलने को राजी हो गई. कमरे से कपड़े ले कर वह उस के साथ ‘धड़धड़’ करती हुई नीचे चली आई. शिव उसे अपने मकान पर ले गया. वह वहां तरोताजा हो कर उस की मोटरसाइकिल पर लौट आई. जब मोटरसाइकिल स्कूल की बिल्डिंग के गेट पर रुकी, उसी समय स्कूल के प्रिंसिपल ने कमरे में कदम रखा. रमा एक नजर प्रिंसिपल पर डाल कर ऊपर जाने लगी. जातेजाते उस ने शिव से कहा, ‘‘10 बजे याद रखना…’’ फिर उस ने शरारत से कहा, ‘‘दिन के 10 बजे… रात के नहीं.’’

शिव चला गया, लेकिन प्रिंसिपल हरिमोहन के दिल पर मानो छुरियां चलने लगीं. वे इस लड़की को बहुत अच्छी तरह से जानते थे. रमा कोठारी उन्हीं के शहर की रहने वाली थी. कालेज के समय में भी हरिमोहन ने रमा को लुभाने की बहुत कोशिश की थी, पर कुछ हाथ न आया. शिव की पत्नी ने 10 बजे घर आने को कहा था, लेकिन 10 बजे रमा को ले कर वह बाजार जाएगा.

वह स्कूल में ही बैठा रहा. 10 बजे रमा सजधज कर शिव के साथ चली गई. बाजार पहुंचते ही शिव ने कहा, ‘‘पहले कुछ खा लेते हैं, क्योंकि बाद में आप के हाथ मेहंदी से भरे होंगे. फिर आप को पानी का गिलास पकड़ने में भी मेहंदी सूखने तक इंतजार करना होगा.’’

मेहंदी वाले ने कहा, ‘‘आप अभी मेहंदी लगवा लो. मेरी बुकिंग है.’’ रमा ने मेहंदी लगवा ली. रैस्टोरैंट में रमा शिव के पास बैठ गई. शिव ने अपने हाथ से उसे बर्गर खिलाया. वे दोनों एकदूसरे से सट कर बैठे थे. यह छुअन उन दोनों में एक राजभरी नजदीकी बढ़ाए जा रही थी.

रमा ने शिव के कंधे पर सिर टिका दिया. उस के होंठ लरज रहे थे, आंखें मुंदी हुई थीं. शिव ने उसे अपनी बांहों में ले कर चूम लिया. जब तक वे शादी वाली जगह पर लौटे, औरतें बैंडबाजे के साथ मंदिर जा चुकी थीं. रमा ने बनावटी गुस्से में कहा, ‘‘तुम ने मु झे लेट करा दिया. अब मैं भाभी को क्या कहूंगी?’’ ‘‘मैं तुम्हें मंदिर छोड़ दूंगा.’’ ‘‘इन कपड़ों में?’’ ‘‘बदल लो.’’

वे दोनों ऊपर आ गए. कमरे में उन दोनों के अलावा कोई नहीं था. ‘‘मेरे हाथों में तो मेहंदी लगी है. तुम इतना भी नहीं सम झते.’’ ‘‘मैं कुछ मदद करूं,’’ कह कर शिव ने रमा को अपनी बांहों में भर लिया. रमा बेसुध शिव की बांहों में लिपटी हुई थी.

कुछ ही पलों में तूफान आ कर चला गया था, लेकिन रमा को जो सुख मिला, वह पा कर निहाल हो गई. बैंडबाजे की आवाज करीब आने लगी, तो वे दोनों संभलने लगे. एक आटोरिकशा के आने की आवाज आई. सीढि़यों पर किसी के चढ़ने की भी आवाज आ रही थी. मेहमान आने लगे थे. इस के बाद शाम और रात भी आ गई, लेकिन शिव को रमा से मिलने का मौका नहीं मिला.

दूसरे दिन सुबह ही मेहमानों के आने के बाद तो सबकुछ शादी की हलचल में खो गया. डिनर पार्टी में बरात आने पर दोनोें ने एकदूसरे को देखा. एक बार तो रमा ने आ कर शिव की प्लेट में से गुलाबजामुन भी उठा लिया. उस के लिए यह मामूली बात थी, लेकिन यह देख कर प्रिंसिपल हरिमोहन के तनबदन में आग लग गई. रमा शादीशुदा थी और दूसरे दिन सुबह उस का पति गोविंद इंदौर से कार से आ पहुंचा. सब लोग उस की आवभगत में लग गए. रमा भी नखरे भूल कर पति के आगेपीछे घूमने लगी.

प्रिंसिपल हरिमोहन ने रमा को इस अंदाज में देखा. उन्हें बहुत हैरानी हुई. उसी समय शिव इठलाता हुआ आया. वह प्रिंसिपल हरिमोहन को अनदेखा करते हुए ऊपर चला गया. उन्हें उत्सुकता हुई कि अब क्या होगा? इस की कल्पना कर के उन्हें खुशी हुई. वे अपने दफ्तर में बैठ गए. अचानक हरिमोहन की नजर टेबल पर रखे कंप्यूटर मौनीटर पर गई, जो गलती से चालू रह गया था.

उन्होंने रिमोट चला कर देखा. ऊपर के सब कमरों में सीसीटीवी कैमरे लगे थे, जिन से यह पता लग जाता था कि कौन सी क्लास में क्या हो रहा है. स्कूल 3 दिन से बंद था. उन्होंने जिज्ञासावश कंप्यूटर चालू किया. सब कमरों में मर्दऔरत नजर आ रहे थे.

एक कमरे में रमा घूमतीफिरती दिखी. उन्हें उत्सुकता हुई. वे उसी कमरे का नजारा देखने लगे. रमा के साथ शिव आया, फिर दोनों की प्रेमलीला शुरू हुई. रासलीला के नजारे आते रहे. कुछ समय के लिए हरिमोहन अपने होश भूल गए, फिर उन्होंने वह नजारा सीडी में लोड कर लिया. शिव ने देखा कि गोविंद रमा को ले कर होटल चला गया.

उस की हिम्मत रमा और गोविंद से बात करने की नहीं हुई. उन्हें देख कर वह सकपकाया और चुपचाप स्कूल की छत पर चला गया. जब रमा और गोविंद कार में बैठ कर चले गए, तब वह हाथ मलता हुआ हारे हुए खिलाड़ी की तरह नीचे उतरने लगा. दफ्तर में बैठे हरिमोहन ने उसे बुला कर उस के जले पर नमक छिड़कने वाली बातें कीं, फिर तैश में आ कर वे बोले, ‘‘यह देखो तुम्हारी करतूत. स्कूल में तुम ने कैसी रासलीला रचाई है. तुम्हें शर्म नहीं आई कि तुम एक टीचर हो.’’

हरिमोहन ने सीडी दिखाई. शिव शर्म से सिर झुका कर खड़ा था. ‘‘मैं तुम्हें एक दिन भी स्कूल में नहीं रखूंगा. निकल जाओ यहां से. ’’ यह सुन कर शिव चला गया. हरिमोहन का गुस्सा ठंडा हुआ. उन का शैतानी दिमाग उधेड़बुन में लग गया. रमा ने अपने से उम्र में छोटे शिव के साथ कैसी रासलीला रची.

2 दिन में लट्टू की तरह उस के आगेपीछे नाचने लगी और पति के आते ही सतीसावित्री बन गई. हरिमोहन ने तय कर लिया कि उन्हें क्या करना है. वे गोविंद के पास गए और कहा,

‘‘मैं आप से आधा घंटे के लिए जरूरी बात करना चाहता हूं.’’ गोविंद ने हां की और हरिमोहन से मिलने स्कूल पहुंचा. हरिमोहन ने कहा, ‘‘मिस्टर गोविंद, आप की पत्नी के किसी पराए मर्द के साथ कैसे रिश्ते हैं, क्या आप जानते हैं? वह आप के साथ धोखा कर रही है.’’

पहले तो गोविंद यह सच मानने को तैयार ही नहीं था. उस ने कहा, ‘‘क्या आप ने मेरा समय बरबाद करने के लिए मु झे यहां बुलाया है?’’ ‘‘ठहरिए, मैं आप को दिखाता हूं,’’ कह कर हरिमोहन ने सीडी चलाई. गोविंद ने रमा को दूसरे मर्द के साथ देखा. उस के चेहरे का रंग बदलने लगा. सीडी दिखाने के बाद हरिमोहन ने कहा, ‘‘कहिए मिस्टर गोविंद, अब क्या बोलेंगे?’’

‘‘मु झे यह सीडी चाहिए. आप को कितनी रकम चाहिए?’’ ‘‘क्या यह नहीं जानना चाहोगे कि यह आदमी कौन है? यह इसी स्कूल का एक टीचर है. रमा से 6 साल छोटा है. यह सीडी इसी स्कूल में बनी है.’’ ‘‘आप ने बनाई है?’’ ‘‘इत्तिफाक से बन गई. हर क्लासरूम में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. इन दोनों को जरा भी होश नहीं था कि कैमरा चालू है. इन दोनों ने स्कूल में ही वासना का खेल खेला.’’

‘‘और इस सीडी से आप मु झे ब्लैकमेल कर रहे हैं?’’ ‘‘जो मौके का फायदा नहीं उठाते, मैं उन बेवकूफों में से नहीं. मु झे 2 लाख रुपए चाहिए.’’ ‘‘मु झे मंजूर है.’’ गोविंद ने 2 लाख रुपए दे कर सीडी ले ली और बोला, ‘‘मैं उम्मीद करता हूं कि अब आप इस बात का जिक्र किसी से नहीं करोगे.’’

‘‘मैं वादा करता हूं…’’ हरिमोहन ने कहा, ‘‘मैं एक बात पूछना चाहता हूं कि रमा ने आप के साथ धोखा किया है, तो आप उसे तलाक क्यों नहीं दे देते? अपनी इज्जत बचाने के लिए 2 लाख रुपए में सीडी ले ली. क्या आप इसे रमा को दिखाएंगे?’’ ‘‘यह बात जान कर वह शर्मिंदा होगी, दुखी होगी, जो मैं नहीं चाहता. इस सीडी को मैं लव चैनल को दूंगा, जो केवल होटल के डीलक्स कमरों में दिखाया जाता है. ‘‘मैं ने लाखों रुपए कमाने के लिए आप को 2 लाख रुपए दिए हैं.

मेरे लिए बेवफा बीवी कमाई का एक जरीया है, इस से ज्यादा कुछ नहीं.’’ प्रिंसिपल हरिमोहन गोविंद की बात सुन कर हैरान रह गए. वे सोचने लगे कि क्या ऊंचे लोग ऐसे भी होते हैं?

ईंट का जवाब पत्थर: गणेश ठेकेदार का लालच

सूरज हुआ अस्त और मजदूर हुआ मस्त. शाम के 6 बजते ही कारीगर, मजदूर और कुली का काम करने वाली मजदूरिनें अपने हाथपैर धोने लगीं. मजदूर तसला, बालटी व फावड़ा उठा कर समेटने लगे. मुंहलगी कुछ मजदूरिनें ठेकेदार की मोटरसाइकिल के आसपास मधुमक्खियों की तरह मंडराने लगीं.

गणेश ठेकेदार नखरे से भरी उन की अदाओं को देख रहा था और शिकायतभरी मनुहारों को सुन रहा था. गुरुवार के दिन स्थानीय बाजार लगने के चलते कारीगरों को मजदूरी मिलती थी, लेकिन जरूरत के मुताबिक मजदूर बाजार के दिन से पहले भी ठेकेदार से पैसे मांग लेते थे. कमला ठेकेदार से पैसे मांग रही थी और वह आनाकानी कर रहा था.

दूसरी कुली मजदूरिनें भी तकादा करने लगी थीं, लेकिन गणेश का ध्यान तो अपनी मोटरसाइकिल के शीशे पर था, जिस में उसे एक नई मजदूरिन का चेहरा दिखाई दे रहा था. बेला नाम की यह मजदूरिन 4-5 दिन से ही काम पर आ रही थी. सांवला रंग, तीखे नैननक्श और गदराई देह वाली बेला गणेश को गजब की हसीन लगी थी. गणेश का ठेका 3-4 जगहों पर चल रहा था, इसलिए वह शाम को ही इधर आया करता था.

जब उस ने पहली बार बेला को देखा, तो बरबस उस के मुंह से निकला था, ‘यह हीरा इस कोयले के ढेर में कहां से आया?’ गणेश ने एडवांस मांगने वालों को 50-50 रुपए दिए. कमला ने उस का नोटों से भरा बटुआ देखा, तो ललचाई नजरों से वह बोली, ‘‘बटुए में इतने रुपए भर रखे हैं और हमें 50 रुपए देने में भी बहाने करते हो.’’ ‘‘लेकिन मना तो नहीं करता कभी…’’

गणेश ने कहा, फिर बेला को सुनाने के लिए जोर से बोला, ‘‘अरे मुनीमजी, और किसी को एडवांस चाहिए क्या?’’ लेकिन बेला ने तो जैसे कुछ सुना ही नहीं था. तब गणेश ने उस की ओर देख कर कहा, ‘‘तु?ो चाहिए क्या 100-50 रुपए?’’

‘‘मैं तो परसों पूरे साढ़े 3 सौ रुपए लूंगी,’’ बेला ने दोटूक बात कही और तसला उठा कर चली गई. वह गणेश की ललचाई आंखों को भांप गई थी. बेला की कमर पर नाचती हुई चोटी को देख कर गणेश का मन हुआ कि वह मोटरसाइकिल से उतर कर भीतर जाए और उसे मसल कर रख दे, लेकिन वह डरता था, क्योंकि बेला हीरा की मंगेतर थी और हीरा उस का सब से भरोसे का व मेहनती मजदूर था.

हीरा जितना ईमानदार और स्वामीभक्त था, उतना ही निडर और स्वाभिमानी भी था. ऐसे भरोसे के आदमी को गणेश खोना नहीं चाहता था. रविवार के दिन बेला अपनी ?ाग्गी के बाहर ?ाड़ी की ओट में बैठी कपड़े धो रही थी. उधर गणेश भी किसी मजदूर से बात कर रहा था.

अनजान बेला ने नहाने के लिए एकएक कर के अपने कपड़े उतारे. भरपूर जवानी से गदराई उस की देह की एक ?ालक पा कर गणेश कामातुर हो गया. बेला की पीठ को देख कर वह अपने पर काबू नहीं रख सका. उस की रगों का खून गरमाने लगा. तभी पीछे से आ कर मुनीम बोला, ‘‘ठेकेदार, यह चिडि़या ऐसे हाथ नहीं आएगी.’’ ‘‘तब मुनीमजी, तुम्हीं कोई तरकीब बताओ.

तुम भी तो पुराने शिकारी हो,’’ गणेश मुनीम की चिरौरी करने लगा. मुनीम ने दूसरे दिन बेला की ड्यूटी नई कालोनी में लगा दी, जहां एक नए सैक्टर में कुछ मकान बन चुके थे, कुछ बन रहे थे. बेला को दीवारों पर पानी से छिड़काव करने के काम पर लगाया गया था. एकएक मकान पर छिड़काव करते हुए जब वह 5वें मकान पर पहुंची, तो वहां एक चारपाई पर ठेकेदार गणेश लेटा हुआ था.

उसे देख कर बेला सहम गई. बेला कुछ सम?ा पाती, उस से पहले ही गणेश बाज की तरह उस पर ?ापटा. गणेश ने बेला के मुंह को दबा कर उसे चारपाई पर डाल दिया. अपनी देह की आग को ठंडी कर के गणेश बेशर्मी से हंसने लगा और बेबस बेला अभी तक सहमी हुई थी.

वह तन और मन की पीड़ा से अभी छूट नहीं पाई थी. अपने कपड़े संभालते हुए उस की आंखों से आंसू बह निकले. उस की ओर सौ रुपए का नोट फेंक कर गणेश बोला, ‘‘रख लो मेरी जान, काम आएगा.’’ ठेकेदार गणेश की मुराद पूरी हो गई. वह बहुत खुश था. उस ने मुनीम को भी खुश हो कर 50 रुपए दिए. मुनीम ने कहा, ‘‘ठेकेदारजी, अगर बेला ने हीरा से कह दिया,

तो गजब हो जाएगा.’’ ‘‘अरे मुनीम, तू तो बेकार में डरता है. बेला उस से कुछ नहीं कहेगी. दिनभर सिर पर तसला ढोती है, तब कहीं 50 रुपए मिलते हैं. मैं ने तो उसे छूने के सौ रुपए दिए हैं. क्या बिगड़ा है उस का.’’ मुनीम ने कहा, ‘‘पर बेला और तरह की औरत है.’’

‘‘अरे, सब औरतें एकजैसी होती हैं,’’ गणेश ने लापरवाही से कहा. दूसरे दिन बेला काम पर आई, तो गणेश का बाकी शक भी जाता रहा. उस ने एकांत पा कर पूछा, ‘‘बेला, तू खुश तो है न?’’ बेला कुछ बोलने के बजाय मुसकरा कर रह गई. गणेश की बांछें खिल गईं.

उस ने बेला का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा, तो बेला बोली, ‘‘आज नहीं कल. मेरी बात का भरोसा रखो.’’ गणेश बहुत खुश हुआ. बेला जैसी सुंदरी अपनी इच्छा से कल का वादा कर रही थी. उस ने फिर जोरजबरदस्ती करना ठीक नहीं सम?ा.

कल के सुहाने सपने संजोए गणेश घर आया. उस की बीवी राधा खड़ी थी. उस की आंखें सूजी हुई थीं, जैसे वह काफी देर तक रोती रही हो. गणेश का माथा ठनका. उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘कुछ नहीं,’’ राधा का स्वर बु?ा हुआ था. ‘‘कोई बुरी खबर आई है क्या?’’ ‘‘नहीं, हीरा आया था.’’ हीरा का नाम सुनते ही ठेकेदार गणेश चौंक पड़ा. उस ने पूछा, ‘‘क्यों आया था?’’ ‘‘यह नोट और कंघा दे गया है.’’ ठेकेदार सहम गया. उस ने कहा, ‘‘अरे हां, यह कंघा गिर गया था. लेकिन यह नोट तुम्हारे पास कैसे आया?’’ उस की बीवी ने बताया, ‘‘तुम ने बेला को दिया था न?’’ ‘‘हां, उस ने मजदूरी के मांगे थे, पर हीरा तुम्हें क्यों दे गया?’’ ठेकेदार ने हैरानी से पूछा. कुछ देर राधा चुप रही, फिर बोली, ‘‘मु?ो भी वह मजदूरी दे गया.’’

फैसला इक नई सुबह का : बचपन जिया फिर से

लखनऊ की पौश कौलोनी गोमतीनगर में स्थित इस पार्क में लोगों की काफी आवाजाही थी. पार्क की एक बैंच पर काफी देर से बैठी मानसी गहन चिंता में लीन थी. शाम के समय पक्षियों का कलरव व बच्चों की धमाचौकड़ी भी उसे विचलित नहीं कर पा रही थी. उस के अंतर्मन की हलचल बाहरी शोर से कहीं ज्यादा तेज व तीखी थी.

उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उस से गलती कहां हुई है. पति के होते हुए भी उस ने बच्चों को अपने बलबूते पर कड़ी मेहनत कर के बड़ा किया, उन्हें इस काबिल बनाया कि वे खुले आकाश में स्वच्छंद उड़ान भर सकें. पर बच्चों में वक्त के साथ इतना बड़ा बदलाव आ जाएगा, यह वह नहीं जानती थी. बेटा तो बेटा, बेटी भी उस के लिए इतना गलत सोचती है. वह विचारमग्न थी कि कमी आखिर कहां थी, उस की परवरिश में या उस खून में जो बच्चों के पिता की देन था. अब वह क्या करे, कहां जाए?

दिल्ली में अकेली रह रही मानसी को उस का खाली घर काट खाने को दौड़ता था. बेटा सार्थक एक कनैडियन लड़की से शादी कर के हमेशा के लिए कनाडा में बस चुका था. अभी हफ्तेभर पहले लखनऊ में रह रहे बेटीदामाद के पास वह यह सोच कर आई थी कि कुछ ही दिनों के लिए सही, उस का अकेलापन तो दूर होगा. फिर उस की प्रैग्नैंट बेटी को भी थोड़ा सहारा मिल जाएगा, लेकिन पिछली रात 12 बजे प्यास से गला सूखने पर जब वह पानी पीने को उठी तो बेटी और दामाद के कमरे से धीमे स्वर में आ रही आवाज ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि बातचीत का मुद्दा वही थी.

‘यार, तुम्हारी मम्मी यहां से कब जाएंगी? इतने बड़े शहर में अपना खर्च ही चलाना मुश्किल है, ऊपर से इन का खाना और रहना.’ दामाद का झल्लाहट भरा स्वर उसे साफ सुनाई दे रहा था.

‘तुम्हें क्या लगता, मैं इस बात को नहीं समझती, पर मैं ने भी पूरा हिसाब लगा लिया है. जब से मम्मी आई हैं, खाने वाली की छुट्टी कर दी है यह बोल कर कि मां मुझे तुम्हारे हाथ का खाना खाने का मन होता है. चूंकि मम्मी नर्स भी हैं तो बच्चा होने तक और उस के बाद भी मेरी पूरी देखभाल मुफ्त में हो जाएगी.

देखा जाए तो उन के खाने का खर्च ही कितना है, 2 रोटी सुबह, 2 रोटी शाम. और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उन के पास दौलत की कमी नहीं है. अगर वे हमारे पास सुकून से रहेंगी तो आज नहीं तो कल, उन की सारी दौलत भी हमारी होगी. भाई तो वैसे भी इंडिया वापस नहीं आने वाला,’ कहती हुई बेटी की खनकदार हंसी उस के कानों में पड़ी. उसे लगा वह चक्कर खा कर वहीं गिर पड़ेगी. जैसेतैसे अपनेआप को संभाल कर वह कमरे तक आई थी.

बेटी और दामाद की हकीकत से रूबरू हो उस का मन बड़ा आहत हुआ. दिल की बेचैनी और छटपटाहट थोड़ी कम हो, इसीलिए शाम होते ही घूमने के बहाने वह घर के पास बने इस पार्क में आ गई थी.

पर यहां आ कर भी उस की बेचैनी बरकरार थी. निगाहें सामने थीं, पर मन में वही ऊहापोह थी. तभी सामने से कुछ दूरी पर लगभग उसी की उम्र के 3-4 व्यक्ति खड़े बातें करते नजर आए. वह आगे कुछ सोचती कि तभी उन में से एक व्यक्ति उस की ओर बढ़ता दिखाई पड़ा. वह पसोपेश में पड़ गई कि क्या करे. अजनबी शहर में अजनबियों की ये जमात. इतनी उम्र की होने के बावजूद उस के मन में यह घबराहट कैसी? अरे, वह कोई किशोरी थोड़े ही है जो कोई उसे छेड़ने चला आएगा? शायद कुछ पूछने आ रहा हो, उस ने अपनेआप को तसल्ली दी.

‘‘हे मनु, तुम यहां कैसे,’’ अचकचा सी गई वह यह चिरपरिचित आवाज सुन कर.

‘‘कौन मनु? माफ कीजिएगा, मैं मानसी, पास ही दिव्या अपार्टमैंट में रहती हूं,’’  हड़बड़ाहट में वह अपने बचपन के नाम को भी भूल गई. आवाज को पहचानने की भी उस की भरसक कोशिश नाकाम ही रही.

‘‘हां, हां, आदरणीय मानसीजी, मैं आप की ही बात कर रहा हूं. आय एम समीर फ्रौम देवास.’’ देवास शब्द सुनते ही जैसे उस की खोई याददाश्त लौट आई. जाने कितने सालों बाद उस ने यह नाम सुना था. जो उस के भीतर हमेशा हर पल मौजूद रहता था. पर समीर को सामने खड़ा देख कर भी वह पहचान नहीं पा रही थी. कारण उस में बहुत बदलाव आ गया था. कहां वह दुबलापतला, मरियल सा दिखने वाला समीर और कहां कुछ उम्रदराज परंतु प्रभावशाली व्यक्तित्व का मालिक यह समीर. उसे बहुत अचरज हुआ और अथाह खुशी भी. अपना घर वाला नाम सुन कर उसे यों लगा, जैसे वह छोटी बच्ची बन गई है.

‘‘अरे, अभी भी नहीं पहचाना,’’ कह कर समीर ने धीरे से उस की बांहों को हिलाया.

‘‘क्यों नहीं, समीर, बिलकुल पहचान लिया.’’

‘‘आओ, तुम्हें अपने दोस्तों से मिलाता हूं,’’ कह कर समीर उसे अपने दोस्तों के पास ले गया. दोस्तों से परिचय होने के बाद मानसी ने कहा, ‘‘अब मुझे घर चलना चाहिए समीर, बहुत देर हो चुकी है.’’

‘‘ठीक है, अभी तो हम ठीक से बात नहीं कर पाए हैं परंतु कल शाम 4 बजे इसी बैंच पर मिलना. पुरानी यादें ताजा करेंगे और एकदूसरे के बारे में ढेर सारी बातें. आओगी न?’’ समीर ने खुशी से चहकते हुए कहा.

‘‘बिलकुल, पर अभी चलती हूं.’’

घर लौटते वक्त अंधेरा होने लगा था. पर उस का मन खुशी से सराबोर था. उस के थके हुए पैरों को जैसे गति मिल गई थी. उम्र की लाचारी, शरीर की थकान सभीकुछ गायब हो चुका था. इतने समय बाद इस अजनबी शहर में समीर का मिलना उसे किसी तोहफे से कम नहीं लग रहा था. घर पहुंच कर उस ने खाना खाया. रोज की तरह अपने काम निबटाए और बिस्तर पर लेट गई. खुशी के अतिरेक से उस की आंखों की नींद गायब हो चुकी थी.

उस के जीवन की किताब का हर पन्ना उस के सामने एकएक कर खुलता जा रहा था, जिस में वह स्पष्ट देख पा रही थी. अपने दोस्त को और उस के साथ बिताए उन मधुर पलों को, जिन्हें वह खुल कर जिया करती थी. बचपन का वह समय जिस में उन का हंसना, रोना, लड़ना, झगड़ना, रूठना, मनाना सब समीर के साथ ही होता था. गुस्से व लड़ाई के दौरान तो वह समीर को उठा कर पटक भी देती थी. दरअसल, वह शरीर से बलिष्ठ थी और समीर दुबलापतला. फिर भी उस के लिए समीर अपने दोस्तों तक से भिड़ जाया करता था.

गिल्लीडंडा, छुपाछुपी, विषअमृत, सांकलबंदी, कबड्डी, खोखो जैसे कई खेल खेलते वे कब स्कूल से कालेज में आ गए थे, पता ही नहीं चला था. पर समीर ने इंजीनियरिंग फील्ड चुनी थी और उस ने मैडिकल फील्ड का चुनाव किया था. उस के बाद समीर उच्चशिक्षा के लिए अमेरिका चला गया. और इसी बीच उस के भैयाभाभी ने उस की शादी दिल्ली में रह रहे एक व्यवसायी राजन से कर दी थी.

शादी के बाद से उस का देवास आना बहुत कम हो गया. इधर ससुराल में उस के पति राजन मातापिता की इकलौती संतान और एक स्वच्छंद तथा मस्तमौला इंसान थे जिन के दिन से ज्यादा रातें रंगीन हुआ करती थीं. शराब और शबाब के शौकीन राजन ने उस से शादी भी सिर्फ मांबाप के कहने से की थी. उन्होंने कभी उसे पत्नी का दर्जा नहीं दिया. वह उन के लिए भोग की एक वस्तु मात्र थी जिसे वह अपनी सुविधानुसार जबतब भोग लिया करते थे, बिना उस की मरजी जाने. उन के लिए पत्नी की हैसियत पैरों की जूती से बढ़ कर नहीं थी.

लेकिन उस के सासससुर बहुत अच्छे थे. उन्होंने उसे बहुत प्यार व अपनापन दिया. सास तो स्वयं ही उसे पसंद कर के लाई थीं, लिहाजा वे मानसी पर बहुत स्नेह रखती थीं. उन से मानसी का अकेलापन व उदासी छिपी नहीं थी. उन्होंने उसे हौसला दे कर अपनी पढ़ाई जारी रखने को कहा, जोकि  शादी के चलते अधूरी ही छूट गई थी.

मानसी ने कालेज जाना शुरू कर दिया. हालांकि राजन को उस का घर से बाहर निकलना बिलकुल पसंद नहीं था परंतु अपनी मां के सामने राजन की एक न चली. मानसी के जीवन में इस से बहुत बड़ा बदलाव आया. उस ने नर्सिंग की ट्रेनिंग पूरी की. पढ़ाई पूरी होने से उस का आत्मविश्वास भी बढ़ गया था. पर राजन के लिए मानसी आज भी अस्तित्वहीन थी.

मानसी का मन भावनात्मक प्रेम को तरसता रहता. वह अपने दिल की सारी बातें राजन से शेयर करना चाहती थी, परंतु अपने बिजनैस और उस से बचे वक्त में अपनी रंगीन जिंदगी जीते राजन को कभी मानसी की इस घुटन का एहसास तक नहीं हुआ. इस मशीनी जिंदगी को जीतेजीते मानसी 2 प्यारे बच्चों की मां बन चुकी थी.

बेटे सार्थक व बेटी नित्या के आने से उस के जीवन को एक दिशा मिल चुकी थी. पर राजन की जिंदगी अभी भी पुराने ढर्रे पर थी. मानसी के बच्चों में व्यस्त रहने से उसे और आजादी मिल गई थी. हां, मानसी की जिंदगी ने जरूर रफ्तार पकड़ ली थी, कि तभी हृदयाघात से ससुर की मौत होने से मानसी पर मानो पहाड़ टूट पड़ा. आर्थिक रूप से मानसी उन्हीं पर निर्भर थी.

राजन को घरगृहस्थी में पहले ही कोई विशेष रुचि नहीं थी. पिता के जाते ही वह अपनेआप को सर्वेसर्वा समझने लगा. दिनोंदिन बदमिजाज होता रहा राजन कईकई दिनों तक घर की सुध नहीं लेता था. मानसी बच्चों की परवरिश व पढ़ाईलिखाई के लिए भी आर्थिक रूप से बहुत परेशान रहने लगी. यह देख कर उस की सास ने बच्चों व उस के भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपनी आधी जायदाद मानसी के नाम करने का निर्णय लिया.

यह पता लगते ही राजन ने घर आ कर मानसी को आड़े हाथों लिया. परंतु उस की मां ने मानसी का पक्ष लेते हुए उसे लताड़ लगाई, लेकिन वह जातेजाते भी मानसी को देख लेने की धमकी दे गया. मानसी का मन बहुत आहत हुआ, जिस रिश्ते को उस ने हमेशा ईमानदारी से निभाने की कोशिश की, आज वह पूरी तरह दरक गया. उस का मन चाहा कि वह अपनी चुप्पी तोड़ कर जायदाद के पेपर राजन के मुंह पर मार उसे यह समझा दे कि वह दौलत की भूखी नहीं है, लेकिन अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उस ने चुप्पी साध ली.

समय की रफ्तार के साथ एक बार फिर मानसी के कदम चल पड़े. बच्चों की परवरिश व बुजुर्ग सास की देखभाल में व्यस्त मानसी अपनेआप को जैसे भूल ही चुकी थी. अपने दर्द व तकलीफों के बारे में सोचने का न ही उस के पास वक्त था और न ही ताकत. समय कैसे गुजर जाता था, मानसी को पता ही नहीं चलता था.

उस के बच्चे अब कुछ समझदार हो चले थे. ऐसे में एक रात मानसी की सास की तबीयत अचानक ही बहुत बिगड़ गई. उस के फैमिली डाक्टर भी आउट औफ स्टेशन थे. कोई दूसरी मदद न होने से उस ने मजबूरी में राजन को फोन लगाया.

‘मां ने जब तुम्हें आधी जायदाद दी है तो अब उन की जिम्मेदारी भी तुम निभाओ. मैं तो वैसे भी नालायक औलाद हूं उन की,’ दोटूक बात कह कर राजन ने फोन काट दिया. हैरानपरेशान मानसी ने फिर भी हिम्मत न हारते हुए अपनी सास का इलाज अपनी काबिलीयत के बल पर किया. उस ने उन्हें न सिर्फ बचाया बल्कि स्वस्थ होने तक सही देखभाल भी की.

इतने कठिन समय में उस का धैर्य और कार्यकुशलता देख कर डाक्टर प्रकाश, जोकि उन के फैमिली डाक्टर थे, ने उसे अपने अस्पताल में सर्विस का औफर दिया. मानसी बड़े ही असमंजस में पड़ गई, क्योंकि अभी उस के बड़े होते बच्चों को उस की जरूरत कहीं ज्यादा थी. पर सास के यह समझाने पर कि बच्चों की देखभाल में वे उस की थोड़ी सहायता कर दिया करेंगी, वह मान गई. उस के जौब करने की दूसरी वजह निसंदेह पैसा भी था जिस की मानसी को अभी बहुत जरूरत थी.

अब मानसी का ज्यादातर वक्त अस्पताल में बीतने लगा. घर पर सास ने भी बच्चों को बड़ी जिम्मेदारी से संभाल रखा था. जल्द ही अपनी मेहनत व योग्यता के बल पर वह पदोन्नत हो गई. अब उसे अच्छी तनख्वाह मिलने लगी थी. पर बीचबीच में राजन का उसे घर आ कर फटकारना जारी रहा. इसी के चलते अपनी सास के बहुत समझाने पर उस ने तलाक के लिए आवेदन कर दिया. राजन के बारे में सभी भलीभांति जानते थे. सो, उसे सास व अन्य सभी के सहयोग से जल्द ही तलाक मिल गया.

कुछ साल बीततेबीतते उस की सास भी चल बसीं. पर उन्होंने जाने से पहले उसे बहुत आत्मनिर्भर बना दिया था. उन की कमी तो उसे खलती थी लेकिन अब उस के व्यक्तित्व में निखार आ गया था. अपने बेटे को उच्चशिक्षा के लिए उस ने कनाडा भेजा तथा बेटी का उस के मनचाहे क्षेत्र फैशन डिजाइनिंग में दाखिला करवा दिया. अब राजन का उस से सामना न के बराबर ही होता था.

पर समय की करवट अभी उस के  कुछऔर इम्तिहान लेने को आतुर थी. कुछ ही वर्षों में उस के सारे त्याग व तपस्या को भुलाते हुए सार्थक ने कनाडा में ही शादी कर वहां की नागरिकता ग्रहण कर ली. इतने वर्षों में वह इंडिया भी बस 2 बार ही आया था. मानसी को बहुत मानसिक आघात पहुंचा. पर वह कर भी क्या सकती थी. इधर बेटी भी पढ़ाई के दौरान ही रजनीश के इश्क मेें गिरफ्तार हो चुकी थी. जमाने की परवा न करते हुए उस ने बेटी की शादी रजनीश से ही करने का निर्णय ले लिया.

मुंह पर प्यार से मांमां करने वाला रजनीश बेगैरत होगा, यह उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. परंतु जब अपना सिक्का ही खोटा हो तो किसे दोष देना. अभी कुछ वक्त पहले ही उस ने यह फ्लैट खरीदने के लिए 20 लाख रुपयों से दामाद  की मदद की थी, परंतु वह तो…सोचतेसोचते उस की आंखों में पानी आ गया.

आजकल रिश्ते वाकई मतलब के हो गए हैं. सब की छोड़ो, पर अपनी बेटी भी…उस का सबकुछ तो बच्चों का ही था. फिर भी उन का मन इतना मैला क्यों है. उस की आंखों से आंसू निकल कर उस के गालों पर ढुलकते चले गए. क्या बताएगी कल वह समीर को अपने अतीत के बारे में. क्या यही कि अपने अतीत में उस ने हर रिश्ते से सिर्फ धोखा खाया है. इस से अच्छा तो यह है कि वह कल समीर से मिलने ही न जाए. इतने बड़े शहर में समीर उसे कभी ढूंढ़ नहीं पाएगा. लेकिन बचपन के दोस्त से मिलने का मोह वह छोड़ नहीं पा रही थी क्योंकि यहां, इस स्थिति में इत्तफाक से समीर का मिल जाना उसे बहुत सुकून दे रहा था.

समीर उस के मन के रेगिस्तान में एक ठंडी हवा का झोंका बन कर आया था, इस उम्र में ये हास्यास्पद बातें वह कैसे सोच सकती है? क्या उस की उम्र में इस तरह की सोच शोभा देती है. ऐसे तमाम प्रश्नों में उस का दिमाग उलझ कर रह गया था. वह अच्छी तरह जानती थी कि यह कोई वासनाजनित प्रेम नहीं, बल्कि किसी अपनेपन के एहसास से जुड़ा मात्र एक सदभाव ही है, जो अपना दुखदर्द एक सच्चे साथी के साथ बांटने को आतुर हो रहा है. वह साथी जो उसे भलीभांति समझता था और जिस पर वह आंख मूंद कर भरोसा कर सकती थी. यही सब सोचतेसोचते न जाने कब उस की आंख लग गई.

सुबह 7 बजे से ही बेटी ने मांमां कह कर उसे आवाज लगानी शुरू कर दी. सही भी है, वह एक नौकरानी ही तो थी इस घर में, वह भी बिना वेतन के, फिर भी वह मुसकरा कर उठी. उस का मन कुछ हलका हो चुका था.

उसे देख बेटी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘क्यों मां, कितनी देर तक सोती हो? आप को तो मालूम है मैं सुबहसुबह आप के हाथ की ही चाय पीती हूं.’’

‘‘अभी बना देती हूं, नित्या,’’ कह कर उन्होंने उधर से निगाहें फेर लीं, बेटी की बनावटी हंसी ज्यादा देर तक देखने की इच्छा नहीं हुई उन की. घर का सब काम निबटा कर नियत 4 बजे मानसी घर से निकल गई. पार्क पहुंच कर देखा तो समीर उस का इंतजार करता दिखाई दिया.

‘‘आओ मानसी, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था,’’ समीर ने प्रसन्नता व अपनेपन के साथ कहा.

‘‘मुझे बहुत देर तो नहीं हो गई समीर, क्या तुम्हें काफी इंतजार करना पड़ा?’’

‘‘हां, इंतजार तो करना पड़ा,’’ समीर रहस्यमय ढंग से मुसकराया.

थोड़ी ही देर में वे दोनों अपने बचपन को एक बार फिर से जीने लगे. पुरानी सभी बातें याद करतेकरते दोनों थक गए. हंसहंस कर दोनों का बुरा हाल था. तभी समीर ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा, ‘‘तुम अब कैसी हो, मानसी, मेरा मतलब तुम्हारे पति व बच्चे कैसे हैं, कहां हैं? कुछ अपने आज के बारे में बताओ?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, बहुत अच्छे से,’’ कहते हुए मानसी ने मुंह दूसरी ओर कर लिया.

‘‘अच्छी बात है, यही बात जरा मुंह इधर कर के कहना,’’ समीर अब असली मुद्दे पर आ चुका था, ‘‘बचपन से तुम्हारी आंखों की भाषा समझता हूं, तुम मुझ से छिपा नहीं सकती अपनी बेचैनी व छटपटाहट. कुछ तो तुम्हारे भीतर चल रहा है. मैं ने कल ही नोटिस कर लिया था, जब तुम ने हमें देख कर भी नहीं देखा. तुम्हारा किसी खयाल में खोया रहना यह साफ दर्शा रहा था कि तुम कुछ परेशान हो. तुम पर मेरी नजर जैसे ही पड़ी, मैं तुम्हें पहचान गया था. अब मुझे साफसाफ बताओ किस हाल में हो तुम? अपने बारे में पूरा सच, और हां, यह जानने का मुझे पूरा हक भी है.’’

‘‘समीर’’ कहती हुई मानसी फूटफूट कर रोने लगी. उस के सब्र का बांध टूट गया. अपनी शादी से ले कर, राजन की बेवफाई, अपनी घुटन, सासससुर, अपने बच्चों व उन की परवरिश के बारे में पूरा वृतांत एक कहानी की तरह उसे सुना डाला.

‘‘ओह, तुम जिंदगीभर इतना झेलती रही, एक बार तो अपने भैयाभाभी को यह बताया होता.’’

‘‘क्या बताती समीर, मेरा सुख ही तो उन की जिंदगी का एकमात्र लक्ष्य था. उन के मुताबिक तो मैं बहुत बड़े परिवार में खुशियांभरी जिंदगी गुजार रही थी. उन्हें सचाई बता कर कैसे दुखी करती?’’

‘‘चलो, जो भी हुआ, जाने दो. आओ, मेरे घर चलते हैं,’’ समीर ने उस का हाथ पकड़ते हुए कहा.

‘‘नहीं समीर, आज तो बहुत देर हो चुकी है, नित्या परेशान हो रही होगी. फिर किसी दिन चलूंगी तुम्हारे घर.’’ समीर के अचानक से हाथ पकड़ने पर वह थोड़ी अचकचा गई.

‘‘तुम आज ही चलोगी. बहुत परेशान हुई आज तक, अब थोड़ा उन्हें भी परेशान होने दो. मेरे बच्चों से मिलो, तुम्हें सच में अच्छा लगेगा,’’ कहते हुए समीर उठ खड़ा हुआ.

समीर की जिद के आगे बेबस मानसी कुछ संकोच के साथ उस के संग चल पड़ी. बड़ी ही आत्मीयता के साथ समीर की बहू ने मानसी का स्वागत किया. कुछ देर के लिए मानसी जैसे अपनेआप को भूल ही गई. समीर के पोते के साथ खेलतेखेलते वह खुद भी छोटी सी बच्ची बन बैठी.

वहीं बातोंबातों में समीर की बहू से ही उसे पता चला कि उस की सासूमां अर्थात समीर की पत्नी का देहांत 2 साल पहले एक रोड ऐक्सिडैंट में हो चुका है. उस दिन समीर का जन्मदिन था और वे समीर के जन्मदिन पर उन के लिए सरप्राइज पार्टी की तैयारियां करने ही बाहर गई थीं. यह सुन कर मानसी चौंक उठी. उसे समीर के लिए बहुत दुख हुआ.

अचानक उस की नजर घड़ी पर पड़ी और उस ने चलने का उपक्रम किया. समीर उसे छोड़ने पैदल ही उस के अपार्टमैंट के बाहर तक आया.

‘‘समीर तुम्हारे पोते और बहू से मिल कर मुझे बहुत अच्छा लगा. सच, बहुत खुश हो तुम.’’

‘‘अरे, अभी तुम हमारे रौशनचिराग से नहीं मिली हो, जनाब औफिस से बहुत लेट आते हैं,’’ समीर ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘चलो, फिर सही, कहते हुए मानसी लिफ्ट की ओर चल पड़ी.’’

‘‘अब कब मिलोगी,’’ समीर ने उसे पुकारा.

‘‘हां समीर, देखो अब कब मिलना होता है, मानसी ने कुछ बुझी सी आवाज में कहा.’’

‘‘अरे, इतने पास तो हमारे घर हैं और मिलने के लिए इतना सोचोगी. कल शाम को मिलते हैं न पार्क में,’’ समीर ने जोर दिया.

‘‘ठीक है समीर, मैं तुम्हें फोन करती हूं, जैसा भी संभव होगा,’’ कहते हुए लंबे डग भरते हुए वह लिफ्ट में दाखिल हो गई. जैसा कि उसे डर था, घर के अंदर घुसते ही उसे नित्या की घूरती आंखों का सामना करना पड़ा. बिना कुछ बोले वह जल्दी से अपने काम में लग गई.

रात में सोते समय वह फिर समीर के बारे में सोचने लगी. कितना प्यारा परिवार है समीर का. उस के बेटेबहू कितना मान देते हैं उसे? कितना प्यारा पोता है उस का? मेरा पोता भी तो लगभग इतना ही बड़ा हो गया होगा. पर उस ने तो सिर्फ तसवीरों में ही अपनी बहू और पोते को देखा है. कितनी बार कहा सार्थक से कि इंडिया आ जाओ, पर वह तो सब भुला बैठा है. काश, अपनी मां की तसल्ली के लिए ही एक बार आ जाता तो वह अपने पोते और बहू को जी भर कर देख लेती और उन पर अपनी ममता लुटाती. लेकिन उस का बेटा तो बहुत निष्ठुर हो चुका है. एक गहरी आह निकली उस के दिल से.

समीर की खुशहाली देख कर शायद उसे अपनी बदहाली और साफ दिखाई देने लगी थी. परंतु अब वह समीर से ज्यादा मिलना नहीं चाहती थी क्योंकि रोजरोज बेटी से झूठ बोल कर इस तरह किसी व्यक्ति से मिलना उसे सही नहीं लग रहा था, भले ही वह उस का दोस्त ही क्यों न हो. बेटी से मिलवाए भी तो क्या कह कर, आखिर बेटीदामाद उस के बारे में क्या सोचेंगे.

वैसे भी उसे पता था कि स्वार्थ व लालच में अंधे हो चुके उस के बच्चों को उस से जुड़े किसी भी संबंध में खोट ही नजर आएगी. पर समीर को मना कैसे करे, समझ नहीं आ रहा था, क्योंकि उस का दिल तो बच्चों जैसा साफ था. मानसी अजीब सी उधेड़बुन में फंस चुकी थी.

सुबह उठ कर वह फिर रोजमर्रा के काम में लग गई. 10-11 बजे मोबाइल बजा, देखा तो समीर का कौल था. अच्छा हुआ साइलैंट पर था, नहीं तो बेटी के सवाल शुरू हो जाते. उस ने समीर का फोन नहीं उठाया. इस कशमकश में पूरा दिन व्यतीत हो गया. शाम को बेटीदामाद को चायनाश्ता दे कर खुद भी चाय पीने बैठी ही थी कि दरवाजे पर हुई दस्तक से उस का मन घबरा उठा, आखिर वही हुआ जिस का डर था. समीर को दरवाजे पर खड़े देख उस का हलक सूख गया, ‘‘अरे, आओ, समीर,’’ उस ने बड़ी कठिनता से मुंह से शब्द निकाले.

समीर ने खुद ही अपना परिचय दे दिया. उस के बाद मुसकराते हुए उसे अपने पास बैठाया. और बड़ी ही सहजता से उस ने मानसी के संग अपने विवाह की इच्छा व्यक्त कर दी. यह बात सुनते ही मानसी चौंक पड़ी. कुछ बोल पाती, उस से पहले ही समीर ने कहा, ‘‘वह जो भी फैसला ले, सोचसमझ कर ले. मानसी का कोई भी फैसला उसे मान्य होगा.’’ कुछ देर चली बातचीत के दौरान उस की बेटी और दामाद का व्यवहार समीर के प्रति बेहद रूखा रहा.

समीर के जाते ही बेटी ने उसे आड़े हाथों लिया और यहां तक कह दिया, ‘‘मां क्या यही गुल खिलाने के लिए आप दिल्ली से लखनऊ आई थीं. अब तो आप को मां कहने में भी मुझे शर्म आ रही है.’’ दामाद ने कहा कुछ नहीं, लेकिन उस के हावभाव ही उसे आहत करने के लिए काफी थे.

अपने कमरे में आ कर मानसी फूटफूट कर रोने लगी. बिना कुछ भी किए उसे उन अपनों द्वारा जलील किया जा रहा था, जिन के लिए अपनी पूरी जिंदगी उस ने दांव पर लगा दी थी. उस का मन आज चीत्कार उठा. उसे समीर पर भी क्रोध आ रहा था कि उस ने ऐसा सोचा भी कैसे? इतनी जल्दी ये सब. अभी कलपरसों ही मिले हैं, उस से बिना पूछे, बिना बताए समीर ने खुद ही ऐसा निर्णय कैसे ले लिया? लेकिन वह यह भी जानती थी कि उस की परेशानियां और परिस्थिति देख कर ही समीर ने ऐसा निर्णय लिया होगा.

वह उसे अच्छे से जानती थी. बिना किसी लागलपेट के वह अपनी बात सामने वाले के पास ऐसे ही रखता था. स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी. उस की जिंदगी ने कई झंझावत देखे थे, परंतु आज उस के चरित्र की मानप्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई थी. उस ने अपने मन को संयत करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन आज हुए इस अपमान पर पहली बार उस का मन उसी से विद्रोह कर बैठा.

‘क्या उस का जन्म केवल त्याग और बलिदान के लिए ही हुआ है, क्या उस का अपना कोई वजूद नहीं है, सिवा एक पत्नी, बहू और मां बनने के? जीवन की एकरसता को वह आज तक ढोती चली आई, महज अपना समय मान कर. क्या सिर्फ इसलिए कि ये बच्चे आगे चल कर उसे इस तरह धिक्कारें. आखिर उस की गलती ही क्या है? क्या कुछ भी कहने से पहले बेटी और दामाद को उस से इस बात की पूरी जानकारी नहीं लेनी चाहिए थी? क्या उस की बेटी ने उसे इतना ही जाना है? लेकिन वह भी किस के व्यवहार पर आंसू बहा रही है.

‘अरे, यह तो वही बेटी है, जिस ने अपनी मां को अपने घर की नौकरानी समझा है. उस से किसी भी तरह की इज्जत की उम्मीद करना मूर्खता ही तो है. जो मां को दो रोटी भी जायदाद हासिल करने के लालच से खिला रही हो, वह उस की बेटी तो नहीं हो सकती. अब वह समझ गई कि दूसरों से इज्जत चाहिए तो पहले उसे स्वयं अपनी इज्जत करना सीखना होगा अन्यथा ये सब इसी तरह चलता रहेगा.’

कुछ सोच कर वह उठी. घड़ी ने रात के 9 बजाए. बाहर हौल में आई तो बेटीदामाद नहीं थे. हालात के मुताबिक, खाना बनने का तो कोई सवाल नहीं था, शायद इसीलिए खाना खाने बाहर गए हों. शांतमन से उस ने बहुत सोचा, हां, समीर ने यह जानबूझ कर किया है. अगर वह उस से इस बात का जिक्र भी करता तो वह कभी राजी नहीं होती. खुद ही साफ शब्दों में इनकार कर देती और अपने बच्चों की इस घिनौनी प्रतिक्रिया से भी अनजान ही रहती. फिर शायद अपने लिए जीने की उस की इच्छा भी कभी बलवती न होती. उस के मन का आईना साफ हो सके, इसीलिए समीर ने उस के ऊपर जमी धूल को झटकने की कोशिश की है.

अभी उस की जिंदगी खत्म नहीं हुई है. अब से वह सिर्फ अपनी खुशी के लिए जिएगी.

मानसी ने मुसकरा कर जिंदगी को गले लगाने का निश्चय कर समीर को फोन किया. उठ कर किचन में आई. भूख से आंतें कुलबुला रही थी. हलकाफुलका कुछ बना कर खाया, और चैन से सो गई. सुबह उठी तो मन बहुत हलका था. उस का प्रिय गीत उस के होंठों पर अनायास ही आ गया, ‘हम ने देखी है इन आंखों की महकती खूशबू, हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो…’ गुनगुनाते हुए तैयार होने लगी इस बात से बेफिक्र की बाहर उस की बेटी व दामाद उस के हाथ की चाय का इंतजार कर रहे हैं.

दरवाजे की घंटी बजी, मानसी ने दरवाजा खोला. बाहर समीर खड़े थे. मानसी ने मुसकराकर उन का अभिवादन किया और भीतर बुला कर एक बार फिर से ?उन का परिचय अपनी बेटी व दामाद से करवाया, ‘‘ये हैं तुम्हारे होने वाले पापा, हम ने आज ही शादी करने का फैसला लिया है. आना चाहो तो तुम भी आमंत्रित हो.’’ बिना यह देखे कि उस में अचानक आए इस परिवर्तन से बेटी और दामाद के चेहरे पर क्या भाव उपजे हैं, मानसी समीर का हाथ थाम उस के साथ चल पड़ी अपनी जिंदगी की नई सुबह की ओर…

घुटघुट कर क्यों जीना : क्या पवन एक जिम्मेदार बाप बना

मुझे यह तो पता था कि वे कभीकभार थोड़ीबहुत शराब पी लेते हैं, पर यह नहीं पता था कि उन का पीना इतना बढ़ जाएगा कि आज मेरे साथसाथ बच्चों को भी उन से नफरत होने लगेगी.

मैं ने उम्रभर जोकुछ सहा, जोकुछ किया, वह बस अपने बच्चों के लिए ही तो था, मगर मैं ने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि बड़े होने पर मेरे बच्चे ऐसे पिता को कैसे स्वीकारेंगे जो उन के लिए कभी एक आदर्श पिता बन ही नहीं पाए.

बात तब की है, जब मेरा घर कोलकाता में हुआ करता था. गरीब परिवार था. एक बहन और एक भाई थे, जिन के साथ बिताया बचपन बहुत ज्यादा यादगार था.

मुझे तालाब में गोते लगाने का बहुत शौक था. मैं पेड़ से आम तोड़ कर लाया करती थी. जिंदगी कितनी अच्छी थी उस वक्त. दिनभर बस खेलते ही रहना. स्कूल तो जाना होता नहीं था.

मम्मी ने उस वक्त यह कह कर स्कूल में दाखिला नहीं कराया था कि पढ़ाईलिखाई लड़कियों का काम नहीं है.

मैं 13 साल की थी, जब मम्मीपापा का बहुत बुरा झगड़ा हुआ था. मम्मी भाई को गोद में उठा कर अपने साथ ले गईं. कहां ले गईं, पापा ने नहीं बताया.

पापा के ऊपर अब मेरी और दीदी की जिम्मेदारी थी, वह जिम्मेदारी जिसे उठाने में न उन्हें कोई दिलचस्पी थी, न फर्ज लगता था.

वे मुझे गांव की एक कोठी में ले गए और वहां झाड़ूपोंछे के काम में लगा दिया. मुझे वह काम ज्यादा अच्छे से तो नहीं आता था, पर मैं सीख गई. दीदी भी किसी दूसरी कोठी में काम करती थीं.

हम जहां काम करती थीं, वहीं रहती भी थीं इसलिए हमारा मिलना नहीं हो पाता था. मुझे घर की याद आती थी. कभीकभी मन करता था कि घर भाग जाऊं, लेकिन फिर खयाल आता कि अब वहां अपना है ही कौन.

मम्मी ने तो पहले ही अपनी छोटी औलाद के चलते या कहूं बेटा होने के चलते भाई को थाम लिया था.

मुझे उस कोठी में काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे जब बड़े साहब की बेटी दिल्ली से आई थीं. उन्होंने मुझे काम करते देखा तो साहब से कहा कि दिल्ली में अच्छी नौकरानियां नहीं मिलती हैं. इस लड़की को मुझे दे दो, अच्छा खिलापहना तो दूंगी ही.

बड़े साहब ने 2 मिनट नहीं लगाए और फैसला सुना दिया कि मैं अब शहर जाऊंगी.

मेरे मांबाप ने मुझे पार्वती नाम दिया था, शहर आ कर मेमसाहब ने मुझे पुष्पा नाम दे दिया. मुझे शहर में सब पुष्पा ही बुलाते थे. गांव में शहर के बारे में जैसा सुना था, यह बिलकुल वैसा ही था, बड़ीबड़ी सड़कें, मीनारों जैसी इमारतें, गाडि़यां और टीशर्ट पहनने वाली लड़कियां. सब पटरपटर इंगलिश बोलते थे वहां. कितनाकुछ था शहर में.

मेरी उम्र तब 17 साल थी. एक दिन जब मैं बरामदे में कपड़े सुखा रही थी, बगल वाले घर में काम करने वाली आंटी का बेटा मेमसाहब से पैसे मांगने आया था. वह देखने में सुंदर था, मेरी उम्र का ही था, गोराचिट्टा रंग और काले घने बाल.

मैं ने उस लड़के की तरफ देखा तो उस ने भी नजरें मेरी तरफ कर लीं. उस ने जिस तरह मुझे देखा था, उस तरह आज से पहले किसी और लड़के ने नहीं देखा था.

मेमसाहब के घर में सब बड़े मुझे बेटी की तरह मानते थे. उन के बच्चों की मैं ‘दीदी’ थी. घर में कोई मेहमान आता भी था तो मुझे जैसी नौकरानी पर किसी की नजर पड़ती भी तो क्यों? यह पहला लड़का था जिस का मुझे इस तरह देखना कुछ अलग सा लगा, अच्छा लगा.

अब वह रोज किसी न किसी बहाने यहां आया करता था. कभी आंटी को खाना देने, कभी कुछ सामान लेने या देने, कभी पैसे लौटाने और कभी तो अपने भाईबहनों की शिकायत ले कर. मैं उसे रोज देखा करती थी, कभीकभार तो मुसकरा भी दिया करती थी.

एक दिन मैं गेट के बाहर निकल कर झाड़ू लगा रही थी. तब वह लड़का मेरे पास आया और मुझ से मेरा नाम पूछा.

मैं ने उसे अपना नाम पुष्पा बताया. मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने अपना नाम पवन बताया.

‘हमारे नाम ‘प’ अक्षर से शुरू होते हैं,’ मुझे तो यही सोच कर मन ही मन खुशी होने लगी. उस ने मुझ से कहा कि उसे मैं पसंद हूं. मैं ने भी बताया कि मुझे भी वह अच्छा लगता है.

अब पवन अकसर मुझ से मिलने आया करता था. एक दिन जब वह आया तो साथ में एक अंगूठी भी लाया. वह सोने की अंगूठी थी. मेरी तो हवाइयां उड़ गईं. मेरे पास हर महीने मिलने वाली तनख्वाह के पैसों से खरीदी हुई एक सोने की अंगूठी थी और कान के कुंडल भी थे, लेकिन आज तक मेरे लिए इतना महंगा तोहफा कोई नहीं लाया था, कोई भी नहीं.

वैसे भी अपना कहने वाला मेरे पास था ही कौन? मेरी आंखों में आंसू थे. मैं रो पड़ी, तो उस ने मुझे गले से लगा लिया. मन हुआ कि बस इसी तरह, इसी तरह अपनी पूरी जिंदगी इन बांहों में गुजार दूं.

मैं ने पवन से शादी करने का मन बना लिया था. मेमसाहब को सब बताया तो वे भी बहुत खुश हुईं. मैं ने और पवन ने मंदिर में शादी कर ली. अब पवन मेरा सिर्फ प्यार नहीं थे, पति बन चुके थे.

हमारी शादी में उन का पूरा परिवार आया था और मेरे पास परिवार के नाम पर कोई नहीं था. मेमसाहब भी नहीं आई थीं. हां, उन्होंने कुछ तोहफे जरूर भिजवाए थे.

शादी को 2 हफ्ते ही बीते थे कि एक दिन पवन खूब शराब पी कर घर आए. उन की हालत सीधे खड़े होने की भी नहीं थी.

‘आप ने शराब पी है?’

‘हां.’

‘आप शराब कब से पीने लगे?’

‘हमेशा से.’

‘आप ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

‘चुप हो जा… सिर मत खा. चल, अलग हट,’ कहते हुए पवन ने मुझे इतनी तेज धक्का दिया कि मैं जमीन पर जा कर गिरी. मेरी चूड़ियां टूट कर हाथ में धंस गईं.

मैं पूरी रात नहीं सो पाई. शराब पीने के बाद इनसान इनसान नहीं रहता है, यह मैं बखूबी जानती थी.

मैं ने अगली सुबह पवन से बात नहीं की तो वे शाम को भी शराब पी कर घर आए. मैं ने पूछा नहीं, पर उन्होंने खुद ही कह दिया कि मेरी मुंह फुलाई शक्ल से मजबूर हो कर पी है.

अगले दिन वे मेरे लिए गजरा ले आए. मैं थोड़ा खुश भी हुई थी, पर वह खुशी शायद मेरी जिंदगी में ठहरने के लिए कभी आई ही नहीं.

4 दिन बाद ही अचानक पवन ने काम पर जाना छोड़ दिया. कहने लगे कि मालिक ड्राइविंग के नाम पर सामान उठवाता है तो मैं काम नहीं करूंगा. एक हफ्ते अपने मांबाप के आगे गिड़गिड़ा कर पैसे मांगे और जब पैसे खत्म हो गए तो शुरू हुई हमारी लड़ाइयां.

‘मेरे पास पैसे नहीं हैं,’ पवन ने मेरी ओर देखते हुए कहा.

‘अब तो मालकिन के दिए पैसे भी नहीं हैं मेरे पास,’ मैं ने जवाब दिया.

‘मैं खुद को बेच सकता तो बेच देता, क्या करूं मैं…’ पवन की आंखों में आंसू थे.

‘घर खर्च के लिए पैसे नहीं हैं तो क्या हुआ, मम्मीपापा दे देंगे हमें.’

‘बात वह नहीं है,’ पवन ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘फिर क्या बात है?’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘वह… वह… मैं ने जुआ खेला है.’

‘जुआ…’ मैं तकरीबन चीख पड़ी.

‘हां, 10,000 रुपए हार गया मैं… कर्जदार आते ही होंगे. मुझे माफ कर दे पुष्पा, मुझे माफ कर दे. आज के बाद न मैं शराब पीऊंगा, न जुआ खेलूंगा, तेरी कसम.’

‘मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ मैं ने बेबस हो कर कहा.

‘तुम्हारे कुंडल और अंगूठी तो हैं.’

एक पल को तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूं, लेकिन हैं तो वे मेरे पति ही, उन का कहा मैं कैसे झूठला सकती हूं. आखिर अब सिर पर परेशानी आई है तो बोझ भी तो दोनों को उठाना है. साथ भी तो दोनों को ही निभाना है.

मैं ने जिस खुशी से अपने कानों में वे कुंडल और उंगलियों में वे अंगूठियां पहनी थीं, उतने ही दुख से उन्हें उतार कर पवन के सामने रख दिया.

वे सुबह के घर से निकले थे, शाम को आए तो हाथ में मिठाई के 2 डब्बे थे. चाल डगमगाई हुई थी और मुंह से शराब की बू आ रही थी…

उस दिन पवन से जो मेरा विश्वास टूटा, वह शायद फिर कभी जुड़ नहीं पाया. मैं उन से कहती भी तो क्या… करती भी तो क्या… मेरी सुनने वाला था ही कौन.

शादी को 11 साल ही हुए थे और नमन और मीनू 10 और 8 साल के हो गए थे. पवन ने एक बार फिर काम करना शुरू तो कर दिया था, पर जो कमाते शराब और जुए में लुटा आते. मेरे हाथ में पैसों के नाम पर चंद रुपए आते जो बच्चों के लिए दूध लाने में निकल जाते.

मेरी सास कोठियों में बरतन मांजने का काम करती ही थीं, तो मैं ने सोचा कि मैं भी फिर यही काम करने लग जाती हूं. दोनों बच्चे स्कूल जाते और मैं काम पर. जिंदगी पवन के साथ कैसे बीत रही थी, यह तो नहीं पता, पर कैसे कट रही थी, यह अच्छी तरह पता था.

पवन के पिता ने अपनी गांव की जमीन बेच कर हमें दिल्ली में एक घर दिला दिया था. मैं ने काम करना भी छोड़ दिया. पवन ने पीना तो नहीं छोड़ा, पर कम जरूर कर दिया था. बच्चे भी नई जगह और नए माहौल में ढल गए थे.

हमारा गली के कोने में ही एक घर था. उस घर में रहने वाले मर्द कब पवन के दोस्त बन गए, पता नहीं चला. वे पवन के दोस्त बने तो उन की पत्नी मेरी दोस्त और उन के व हमारे बच्चे आपस में दोस्त बन गए.

वे लोग कुछ समय पहले तक बड़े गरीब थे. पर हाल के 2 सालों में उन के घर अच्छा खानापीना होने लगा. झुग्गी जैसा दिखने वाला घर अब मकान बन चुका था. वहीं दूसरी ओर पता नहीं क्यों, पर मेरे घर के हालात बिगड़ने लगे थे. पवन घर के खर्च में कटौती करने लगे थे. उन के और मेरे संबंध तो सामान्य थे, पर कुछ तो था जो अटपटा था.

एक दिन मैं गली की ही अपनी एक सहेली कमल की मम्मी के साथ बैठ कर मटर छील रही थी. हम दोनों यों ही अपनी बातों में लगी हुई थीं.

‘नमन की मम्मी, एक बात थी जो मैं कई दिनों से तुम्हें बताने के बारे में सोच रही हूं,’ कमल की मम्मी ने झिझकते हुए कहा.

‘हांहां, बोलो न, क्या हुआ?’

‘वह… मैं ने नमन के पापा को …वे उन के दोस्त हैं न जो कोने वाले घर में रहते हैं, वहां एक दिन पीछे से रात में जाते हुए देखा था.’

‘हां, तो किसी काम से गए होंगे.’

‘वह तो पता नहीं, पर मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा. तुम अपनी हो तो सोचा बता दूं.’

मैं ने कमल की मम्मी की बातों पर विश्वास तो नहीं किया, पर वह बात मेरे दिमाग से निकल भी नहीं रही थी.

एक हफ्ता बीत गया, पर मुझे कुछ गड़बड़ नहीं लगी और पवन से सामने से कुछ भी पूछना मुझे सही नहीं लगा. आखिर पवन जैसे भी थे, बेवफा नहीं थे, धोखेबाज नहीं थे. वे मुझे इतना प्यार करते थे, मैं सपने में भी ऐसा कुछ नहीं सोच सकती थी.

अगली सुबह घर से निकलते वक्त पवन ने कहा कि वे रात को घर नहीं आएंगे, काम ज्यादा है औफिस में ही रुकेंगे.

रात के 2 बज रहे थे. बच्चे पलंग पर मेरे साथ ही सो रहे थे. मेरे मन में पता नहीं क्या आया, मैं उठी और मेरे पैर अपनेआप ही उस घर की तरफ मुड़ गए, जहां हमारे वे पड़ोसी रहते थे.

मैं घबराई, डर लग रहा था, पर मन में बारबार यही था कि जो मेरे दिमाग में है, वह बस सच न हो.

मैं ने उस घर के बाहर जा कर दरवाजा खटखटाया. अंदर से कुछ आवाज आई, पर किसी ने दरवाजा

नहीं खोला. मैं आगे वाले दरवाजे पर गई, फिर दरवाजा खटखटाया. इस बार दरवाजा खुल गया.

अंदर से वह औरत नाइटी पहने आई. उस के पति भी उस के साथ थे. मेरी जान में जान आ गई. जो मैं सोच रही थी, वह सच नहीं था.

‘क्या हुआ नमन की मम्मी, इतनी रात गए आप यहां? सब ठीक तो है न?’

‘हां, वह नमन के पापा घर पर नहीं थे. जरा उन्हें फोन कर के पूछ लीजिए, मुझे संतुष्टि हो जाएगी.’

‘जी, अभी करता हूं फोन,’ उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा.

उन्होेंने फोन मिलाया तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. फोन की घंटी की आवाज पिछले कमरे से आ रही थी. वे वहीं थे.

मैं तेजी से उस कमरे की तरफ गई. पवन अधनंगे मेरे सामने खड़े थे. मेरी आंखों से आंसू फूट पड़े. मेरी दुनिया उस एक पल में रुक सी गई.

‘यह क्या धंधा लगा रखा है यहां… यह है आप का काम… यहां जा रही है आप की सारी कमाई… यह है आप की ऐयाशी…’

मेरी हालत उस पल में क्या थी, यह तो शायद ही मैं बयां कर पाऊं, लेकिन जवाब में पवन ने जो कहा, वह सुन कर मुझ में बचाखुचा जो आत्मसम्मान था, जो जान थी, सब मिट्टी में मिल गए.

‘इस में गलत क्या है? तुझ में बचा ही क्या है. तुझे जाना है तो सामान बांध कर निकल जा मेरे घर से,’ पवन कपड़े पहनते हुए बोले.

मैं वहां से निकल गई. घर आई तो खुद पर अपने वजूद पर शर्म आई. मन तो किया कि सब छोड़छाड़ कर भाग जाऊं कहीं, मर जाऊं कहीं जा कर. पर बच्चों की शक्ल आंखों के सामने आ गई. उन्हें छोड़ कर मर गई तो वह कुलटा मेरे बच्चों को खा कर अपने बच्चों का पेट पालेगी. नहीं, मैं नहीं मरूंगी, मैं नहीं हारूंगी.

अगले दिन पवन घर आए तो न मैं ने उन से बात की और न उन्होंने. उन्हें खाना बना कर दिया जरूर, लेकिन वैसे ही जैसे घर की नौकरानी देती है.

अगले ही दिन जा कर मैं फिर से अपने काम पर लग गई. उस औरत का चक्कर तो पवन के मम्मीपापा के कानों तक पहुंचा तो उन्होंने छुड़वा दिया, लेकिन इस से मुझे क्या फर्क पड़ा,  पता नहीं.

शायद, मैं बहुत खुश थी क्योंकि पति तो आखिर पति ही है, वह चाहे कुछ भी करे. रिश्ते यों ही खत्म तो नहीं हो सकते न.

पवन ने मुझे से माफी मांगी तो मैं ने उन्हें कुछ दिनों में माफ भी कर दिया. जिंदगी पटरी पर तो आ गई थी, पर टूटी और चरमराई पटरी पर…

नमन और मीनू दोनों अब 22 साल और 24 साल के हैं. उन की मां आज भी कोठी मैं बरतन मांजती है. सिर के ऊपर अपनी छत नहीं है, क्योंकि बाप तो पहले ही उसे बेच कर खा गया. दोनों ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की, यहांवहां से पैसे कमाकमा कर.

पवन की तो खुद की नौकरी का कोई ठिकाना तक नहीं है, कभी पी कर चले जाते हैं तो धक्के मार कर निकाल दिए जाते हैं. जिस उम्र में लोगों के बच्चे कालेज में पढ़ाई करते हैं, मेरे बच्चों को नौकरी करनी पड़ रही है. यह दुख मुझे खोखला करता है, हर दिन, हर पल.

हां, लेकिन मेरे बच्चे पढ़ेलिखे हैं. मेरा बेटा शराब या जुए का आदी नहीं है और न ही मेरी बेटी को कभी अपनी जिंदगी में किसी के घर में जूठे बरतन मांजने पड़ेंगे. वह मेरी तरह कभी रोएगी नहीं, घुटेगी नहीं उस तरह जिस तरह मैं घुटघुट कर जी हूं.

पवन एक जिम्मेदार बाप नहीं बन सके, मैं शायद जिम्मेदार मां बन गई. पवन से बैर करूं भी तो क्या, उन्होंने मुझे नमन और मीनू दिए हैं, जिस के लिए मैं उन की हमेशा एहसानमंद रहूंगी, लेकिन जिस जिंदगी के ख्वाब मैं देखा करती थी, वह हाथ तो आई, पर कभी मुंह न लगी.

‘‘सुन लिया तू ने. अब मैं सो जाऊं?’’

‘‘बस, एक सवाल और है.’’

‘‘पूछ…’’

‘‘आप ने जिंदगीभर इतना कुछ क्यों सहा? पापा को छोड़ क्यों नहीं दिया?

मैं आप की जगह होती तो शायद ऐसे इनसान के साथ कभी न रहती.’’

‘‘मैं 12 साल की थी तो दुनिया से बहुत डरती थी, लेकिन ऐसे दिखाती थी कि चाहे शेर भी आ जाए तो मैं शेरनी बन कर उस से लड़ बैठूंगी. पर मैं अंदर ही अंदर बहुत डरती थी. तेरे पापा इस दुनिया के पहले इनसान थे जिन्होंने मेरे डर को जाना था.

‘‘जब मैं ने उन्हें जाना तो लगा कि इस भीड़ में कोई अपना मिल गया है. उन की आंखों में मेरे लिए जो प्यार था, वह कहीं और नहीं था.

‘‘जब मेरे सपने बिखरे, जब उन्होंने मुझे धोखा दिया, जब उन्होंने मुझे अनचाहा महसूस कराया, तो मैं फिर अकेली हो गई, डर गई थी मैं.

‘‘कभीकभी तो लगता था घुटघुट कर जीना है तो जीया ही क्यों जाए, पर जब तुम दोनों के चेहरे देखती तो लगता था, जैसे तुम ही हो मेरी हिम्मत और अगर मैं टूट गई तो तुम्हें कैसे संभालूंगी.

‘‘तुम दोनों मुझे से छिन जाते या मेरे बिना तुम्हें कुछ हो जाता, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकती थी. तो बस जिंदगी जैसी थी, उसे अपना लिया मैं ने.’’

हिल स्टेशन पर तबादला: क्या खुश था भगत राम

भगत राम का तबादला एक सुंदर से हिल स्टेशन पर हुआ तो वे खुश हो गए, वे प्रकृति और शांत वातावरण के प्रेमी थे, सो, सोचने लगे, जीवन में कम से कम 4-5 साल तो शहरी भागमभाग, धुएं, घुटन से दूर सुखचैन से बीतेंगे.

पहाड़ों की सुंदरता उन्हें इतनी पसंद थी कि हर साल गरमी में 1-2 हफ्ते की छुट्टी ले कर परिवार सहित घूमने के लिए किसी न किसी हिल स्टेशन पर अवश्य ही जाते थे और फिर वर्षभर उस की ताजगी मन में बसाए रखते थे.

तबादला 4-5 वर्षों के लिए होता था. सो, लौटने के बाद ताजगी की जीवनभर ही मन में बसे रहने की उम्मीद थी. दूसरी खुशी यह थी कि उन्हें पदोन्नति दे कर हिल स्टेशन पर भेजा जा रहा था.

साहब ने तबादले का आदेश देते हुए बधाई दे कर कहा था, ‘‘अब तो 4 वर्षों तक आनंद ही आनंद लूटोगे. हर साल छुट्टियां और रुपए बरबाद करने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी. कभी हमारी भी घूमनेफिरने की इच्छा हुई तो कम से कम एक ठिकाना तो वहां पर रहेगा.’’

‘‘जी हां, आप की जब इच्छा हो, तब चले आइएगा,’’ भगत राम ने आदर के साथ कहा और बाहर आ गए.

बाहर साथी भी उन्हें बधाई देने लगे. एक सहकर्मी ने कहा, ‘‘ऐसा सुअवसर तो विरलों को ही मिलता है. लोग तो ऐसी जगह पर एक घंटा बिताने के लिए तरसते हैं, हजारों रुपए खर्च कर डालते हैं. तुम्हें तो यह सुअवसर एक तरह से सरकारी खर्चे पर मिल रहा है, वह भी पूरे 4 वर्षों के लिए.’’

‘‘वहां जा कर हम लोगों को भूल मत जाना. जब सीजन अच्छा हो तो पत्र लिख देना. तुम्हारी कृपा से 1-2 दिनों के लिए हिल स्टेशन का आनंद हम भी लूट लेंगे,’’ दूसरे मित्र ने कहा.

‘‘जरूरजरूर, भला यह भी कोई कहने की बात है,’’ वे सब से यही कहते रहे.

घर लौट कर तबादले की खबर सुनाई तो दोनों बच्चे खुश हो गए.

‘‘बड़ा मजा आएगा. हम ने बर्फ गिरते हुए कभी भी नहीं देखी. आप तो घुमाने केवल गरमी में ले जाते थे. जाड़ों में तो हम कभी गए ही नहीं,’’ बड़ा बेटा खुश होता हुआ बोला.

‘‘जब फिल्मों में बर्फीले पहाड़ दिखाते हैं तो कितना मजा आता है. अब हम वह सब सचमुच में देख सकेंगे,’’ छोटे ने भी ताली बजाई.

मगर पत्नी सुजाता कुछ गंभीर सी हो गई. भगत राम को लगा कि उसे शायद तबादले वाली बात रास नहीं आई है. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है, गुमसुम क्यों हो गई हो?’’

‘‘तबादला ही कराना था तो आसपास के किसी शहर में करा लेते. सुबह जा कर शाम को आराम से घर लौट आते, जैसे दूसरे कई लोग करते हैं. अब पूरा सामान समेट कर दोबारा से वहां गृहस्थी जमानी पड़ेगी. पता नहीं, वहां का वातावरण हमें रास आएगा भी या नहीं,’’ सुजाता ने अपनी शंका जताई.

‘‘सब ठीक  हो जाएगा. मकान तो सरकारी मिलेगा, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होगी. और फिर, पहाड़ों में भी लोग रहते हैं. जैसे वे सब रहते हैं वैसे ही हम भी रह लेंगे.’’

‘‘लेकिन सुना है, पहाड़ी शहरों में बहुत सारी परेशानियां होती हैं-स्कूल की, अस्पताल की, यातायात की और बाजारों में शहरों की तरह हर चीज नहीं मिल पाती,’’ सुजाता बोली.

भगत राम हंस पड़े, ‘‘किस युग की बातें कर रही हो. आज के पहाड़ी शहर मैदानी शहरों से किसी भी तरह से कम नहीं हैं. दूरदराज के इलाकों में वह बात हो सकती है, लेकिन मेरा तबादला एक अच्छे शहर में हुआ है. वहां स्कूल, अस्पताल जैसी सारी सुविधाएं हैं. आजकल तो बड़ेबड़े करोड़पति लाखों रुपए खर्च कर के अपनी संतानों को मसूरी और शिमला के स्कूलों में पढ़ाते हैं. कारण, वहां का वातावरण बड़ा ही शांत है. हमें तो यह मौका एक तरह से मुफ्त ही मिल रहा है.’’

‘‘उन्नति होने पर तबादला तो होता ही है. अगर तबादला रुकवाने की कोशिश करूंगा तो कई पापड़ बेलने पड़ेंगे. हो सकता है 10-20 हजार रुपए की भेंटपूजा भी करनी पड़ जाए और उस पर भी आसपास की कोई सड़ीगली जगह ही मिल पाए. इस से तो अच्छा है, हिल स्टेशन का ही आनंद उठाया जाए.’’

यह सुन कर सुजाता ने फिर कुछ न कहा.

दफ्तर से विदाई ले कर भगत राम पहले एक चक्कर अकेले ही अपने नियुक्तिस्थल का लगा आए और 15 दिनों बाद उन का पूरा परिवार वहां पहुंच गया. बच्चे काफी खुश थे.

शुरूशुरू की छोटीमोटी परेशानी के बाद जीवन पटरी पर आ ही गया. अगस्त के महीने में ही वहां पर अच्छीखासी ठंड हो गई थी. अभी से धूप में गरमी न रही थी. जाड़ों की ठंड कैसी होगी, इसी प्रतीक्षा में दिन बीतने लगे थे.

फरवरी तक के दिन रजाई और अंगीठी के सहारे ही बीते, फिर भी सबकुछ अच्छा था. सब के गालों पर लाली आ गई थी. बच्चों का स्नोफौल देखने का सपना भी पूरा हो गया.

मार्च में मौसम सुहावना हो गया था. अगले 4 महीने के मनभावन मौसम की कल्पना से भगत राम का मन असीम उत्साह से भर गया था. उसी उत्साह में वे एक सुबह दफ्तर पहुंचे तो प्रधान कार्यालय का ‘अत्यंत आवश्यक’ मुहर वाला पत्र मेज पर पड़ा था.

उन्होंने पत्र पढ़ा, जिस में पूछा गया था कि ‘सीजन कब आरंभ हो रहा है, लौटती डाक से सूचित करें. विभाग के निदेशक महोदय सपरिवार आप के पास घूमने आना चाहते हैं.’

सीजन की घोषणा प्रशासन द्वारा अप्रैल मध्य में की जाती थी, सो, भगत राम ने वही सूचना भिजवा दी, जिस के उत्तर में एक सप्ताह में ही तार आ गया कि निदेशक महोदय 15 तारीख को पहुंच रहे हैं. उन के रहने आदि की व्यवस्था हो जानी चाहिए.

निदेशक के आने की बात सुन कर सारे दफ्तर में हड़कंप सा मच गया.

‘‘यही तो मुसीबत है इस हिल स्टेशन की, सीजन शुरू हुआ नहीं, कि अधिकारियों का तांता लग जाता है. अब पूरे 4 महीने इसी तरह से नाक में दम बना रहेगा,’’ एक पुराना चपरासी बोल पड़ा.

भगत राम वहां के प्रभारी थे. सारा प्रबंध करने का उत्तरदायित्व एक प्रकार से उन्हीं का था. उन का पहला अनुभव था, इसलिए समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे और क्या किया जाए.

सारे स्टाफ  की एक बैठक बुला कर उन्होंने विचारविमर्श किया. जो पुराने थे, उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर राय भी दे डालीं.

‘‘सब से पहले तो गैस्टहाउस बुक करा लीजिए. यहां केवल 2 गैस्टहाउस हैं. अगर किसी और ने बुक करवा लिए तो होटल की शरण लेनी पड़ेगी. बाद में निदेशक साहब जहांजहां भी घूमना चाहेंगे, आप बारीबारी से हमारी ड्यूटी लगा दीजिएगा. आप को तो सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक उन के साथ ही रहना पड़ेगा,’’ एक कर्मचारी ने कहा तो भगत राम ने तुरंत गैस्टहाउस की ओर दौड़ लगा दी.

जो गैस्टहाउस नगर के बीचोंबीच था, वहां काम बन नहीं पाया. दूसरा गैस्टहाउस नगर से बाहर 2 किलोमीटर की दूरी पर जंगल में बना हुआ था. वहां के प्रबंधक ने कहा, ‘‘बुक तो हो जाएगा साहब, लेकिन अगर इस बीच कोई मंत्रीवंत्री आ गया तो खाली करना पड़ सकता है. वैसे तो मंत्री लोग यहां जंगल में आ कर रहना पसंद नहीं करते, लेकिन किसी के मूड का क्या भरोसा. यहां अभी सिर्फ 4 कमरे हैं, आप को कितने चाहिए?’’

भगत राम समझ नहीं पाए कि कितने कमरे लेने चाहिए. साथ गए चपरासी ने उन्हें चुप देख कर तुरंत राय दी, ‘‘कमरे तो चारों लेने पड़ेंगे, क्या पता साहब के साथ कितने लोग आ जाएं, सपरिवार आने के लिए लिखा है न?’’

भगत राम को भी यही ठीक लगा. सो, उन्होंने पूरा गैस्टहाउस बुक कर दिया.

ठीक 15 अप्रैल को निदेशक महोदय का काफिला वहां पहुंच गया. परिवार के नाम पर अच्छीखासी फौज उन के साथ थी. बेटा, बेटी, दामाद और साले साहब भी अपने बच्चों सहित पधारे थे. साथ में 2 छोटे अधिकारी और एक अरदली भी था.

सुबह 11 बजे उन की रेल 60 किलोमीटर की दूरी वाले शहर में पहुंची थी. भगत राम उन का स्वागत करने टैक्सी ले कर वहीं पहुंच गए थे. मेहमानों की संख्या ज्यादा देखी तो वहीं खड़ेखड़े एक मैटाडोर और बुक करवा ली.

शाम 4 बजे वे सब गैस्टहाउस पहुंचे. निदेशक साहब की इच्छा आराम करने की थी, लेकिन भगत राम का आराम उसी क्षण से हराम हो गया था.

‘‘रहने के लिए बाजार में कोई ढंग की जगह नहीं थी क्या? लेकिन चलो, हमें कौन सा यहां स्थायी रूप से रहना है. खाने का प्रबंध ठीक हो जाना चाहिए,’’ निदेशक महोदय की पत्नी ने गैस्टहाउस पहुंचते ही मुंह बना कर कहा. उन की यह बात कुछ ही क्षणों में आदेश बन कर भगत राम के कानों में पहुंच गई थी.

खाने की सूची में सभी की पसंद और नापंसद का ध्यान रखा गया था. भगत राम अपनी देखरेख में सारा प्रबंध करवाने में जुट गए थे. रहीसही कसर अरदली ने पूरी कर दी थी. वह बिना किसी संकोच के भगत राम के पास आ कर बोला, ‘‘व्हिस्की अगर अच्छी हो तो खाना कैसा भी हो, चल जाता है. साहब अपने साले के साथ और उन का बेटा अपने बहनोई के साथ 2-2 पेग तो लेंगे ही. बहती गंगा में साथ आए साहब लोग भी हाथ धो लेंगे. रही बात मेरी, तो मैं तो देसी से भी काम चला लूंगा.’’

भगत राम कभी शराब के आसपास भी नहीं फटके थे, लेकिन उस दिन उन्हें अच्छी और खराब व्हिस्कियों के नाम व भाव, दोनों पता चल गए थे.

गैस्टहाउस से घर जाने की फुरसत भगत राम को रात 10 बजे ही मिल पाई, वह भी सुबह 7 बजे फिर से हाजिर हो जाने की शर्त पर.

निदेशक साहब ने 10 दिनों तक सैरसपाटा किया और हर दिन यही सिलसिला चलता रहा. भगत राम की हैसियत निदेशक साहब के अरदली के अरदली जैसी हो कर रह गई.

निदेशक साहब गए तो उन्होंने राहत की सांस ली. मगर जो खर्च हुआ था, उस की भरपाई कहां से होगी, यह समझ नहीं पा रहे थे.

दफ्तर में दूसरे कर्मचारियों से बात की तो तुरंत ही परंपरा का पता चल गया.

‘‘खर्च तो दफ्तर ही देगा, साहब, मरम्मत और पुताईरंगाई जैसे खर्चों के बिल बनाने पड़ेंगे. हर साल यही होता है,’’ एक कर्मचारी ने बताया.

दफ्तर की हालत तो ऐसी थी जैसी किसी कबाड़ी की दुकान की होती है, लेकिन साफसफाई के बिलों का भुगतान वास्तव में ही नियमितरूप से हो रहा था. भगत राम ने भी वही किया, फिर भी अनुभव की कमी के कारण 2 हजार रुपए का गच्चा खा ही गए.

निदेशक का दौरा सकुशल निबट जाने का संतोष लिए वे घर लौटे तो पाया कि साले साहब सपरिवार पधारे हुए हैं.

‘‘जिस दिन आप के ट्रांसफर की बात सुनी, उसी दिन सोच लिया था कि इस बार गरमी में इधर ही आएंगे. एक हफ्ते की छुट्टी मिल ही गई है,’’ साले साहब खुशी के साथ बोले.

भगत राम की इच्छा आराम करने की थी, मगर कह नहीं सके. जीजा, साले का रिश्ता वैसे भी बड़ा नाजुक होता है.

‘‘अच्छा किया, साले साहब आप ने. मिलनेजुलने तो वैसे भी कभीकभी आते रहना चाहिए,’’ भगत राम ने केवल इतना ही कहा.

साले साहब के अनुरोध पर उन्हें दफ्तर से 3 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी और गाइड बन कर उन्हें घुमाना भी पड़ा.

छुट्टियां तो शायद और भी लेनी पड़ जातीं, मगर बीच में ही बदहवासी की हालत में दौड़ता हुआ दफ्तर का चपरासी आ गया. उस ने बताया कि दफ्तर में औडिट पार्टी आ गई है, अब उन के लिए सारा प्रबंध करना है.

सुनते ही भगत राम तुरंत दफ्तर पहुंच गए और औडिट पार्टी की सेवाटहल में जुट गए.

साले साहब 3 दिनों बाद ‘सारी खुदाई एक तरफ…’ वाली कहावत को चरितार्थ कर के चले गए, मगर औडिट पार्टी के सदस्यों का व्यवहार भी सगे सालों से कुछ कम न था. दफ्तर का औडिट तो एक दिनों में ही खत्म हो गया था लेकिन पूरे हिल स्टेशन का औडिट करने में एक सप्ताह से भी अधिक का समय लग गया.

औडिट चल ही रहा था कि दूर की मौसी का लड़का अपनी गर्लफ्रैंड सहित घर पर आ धमका. जब तक भगत राम मैदानी क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्त थे, उस के दर्शन नहीं होते थे, लेकिन अचानक ही वह सब से सगा लगने लगा था. एक हफ्ते तक वह भी बड़े अधिकारपूर्वक घर में डेरा जमाए रहा.

औडिट पार्टी भगत राम को निचोड़ कर गई तो किसी दूसरे वरिष्ठ अधिकारी के पधारने की सूचना आ गई.

‘‘समझ में नहीं आता कि यह सिलसिला कब तक चलेगा?’’ भगत राम बड़बड़ाए.

‘‘जब तक सीजन चलेगा,’’ एक कर्मचारी ने बता दिया.

भगत राम ने अपना सिर दोनों हाथों से थाम लिया. घर पर जा कर भी सिर हाथों से हट न पाया क्योंकि वहां फूफाजी आए हुए थे.

बाद में दूसरे अवसर पर तो बेचारे चाह कर भी ठीक से मुसकरा तक नहीं पाए थे, जब घर में दूर के एक रिश्तेदार का बेटा हनीमून मनाने चला आया था.

उसी समय सुजाता की एक रिश्तेदार महिला भी पति व बच्चों सहित आ गई थी. और अचानक उन के दफ्तर के एक पुराने साथी को भी प्रकृतिप्रेम उमड़ आया था. भगत राम को रजाईगद्दे किराए पर मंगाने पड़ गए थे.

वे खुद तो गाइड की नौकरी कर ही रहे थे, पत्नी को भी आया की नौकरी करनी पड़ गई थी. सुजाता की रिश्तेदार अपने पति के साथ प्रकृति का नजारा लेने के लिए अपने छोटेछोटे बच्चों को घर पर ही छोड़ जाया करती थी.

उधर, दफ्तर में भी यही हाल था. एक अधिकारी से निबटते ही दूसरे अधिकारी के दौरे की सूचना आ जाती थी. शांति की तलाश में भगत राम दफ्तर में आ जाते थे और फिर दफ्तर से घर में. लेकिन मानसिक शांति के साथसाथ आर्थिक शांति भी छिन्नभिन्न हो गई थी. 4 महीने कब गुजर गए, कुछ पता ही न चला. हां, 2 बातों का ज्ञान भगत राम को अवश्य हो गया था. एक तो यह कि दफ्तर के कुल कितने बड़ेबड़े अधिकारी हैं और दूसरी यह कि दुनिया में उन के रिश्तेदार और अभिन्न मित्रों की कोई कमी नहीं है.

‘‘सच पूछिए तो यहां रहने का मजा ही आ गया…जाने की इच्छा ही नहीं हो रही है, लेकिन छुट्टियां इतनी ही थीं, इसलिए जाना ही पड़ेगा. अगले साल जरूर फुरसत से आएंगे.’’ रिश्तेदार और मित्र यही कह कर विदा ले रहे थे. उन की फिर आने की धमकी से भगत राम बुरी तरह से विचलित होते जा रहे थे.

‘‘क्योंजी, अगले साल भी यही सब होगा क्या?’’ सुजाता ने पूछा. शायद वह भी विचलित थी.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ भगत राम निर्णायक स्वर में चीख से पड़े, ‘‘मैं आज ही तबादले का आवदेन भिजवाए देता हूं. यहां से तबादला करवा कर ही रहूंगा, चाहे 10-20 हजार रुपए खर्च ही क्यों न करने पड़ें.’’

सुजाता ने कुछ न कहा. भगत राम तबादले का आवेदनपत्र भेजने के लिए दफ्तर की ओर चल पड़े.

सही फैसला : क्या पूरी हुई सुनील और पूनम की प्रेम कहानी?

सुनील मुजफ्फरपुर का रहने वाला था. बीए करने के बाद उसे कोलकाता में नौकरी मिल गई. कुछ दिनों की कोशिश के बाद उसे किराए पर मकान भी मिल गया.

मकान मालिक का नाम रंजीत प्रसाद था. उन की उम्र 40 साल के आसपास थी. उन की पत्नी का नाम पूनम था, जिस की उम्र 22 साल के आसपास थी. वह बेहद खूबसूरत थी.

पूनम रंजीत प्रसाद की दूसरी पत्नी थी. उन की पहली पत्नी की 4 साल पहले मौत हो गई थी. बच्चे की लालसा में रंजीत प्रसाद ने 2 साल पहले पूनम से शादी की थी. मगर पूनम ने भी उन्हें अब तक कोई बच्चा नहीं दिया था.

मकान 2 मंजिल का था. मकान मालिक ऊपरी मंजिल पर रहते थे और सुनील नीचे रहता था.

सुनील रंजीत प्रसाद को भैया कहता था और पूनम को भाभी. वह उन के घर के छोटेमोटे काम भी कर देता था.

एक दिन रंजीत प्रसाद ने सुनील से कहा, ‘‘अब तुम्हें खाना बनाने की जरूरत नहीं. कल से तुम हमारे साथ ही खाना खाओगे.’’

पहले सुनील इस के लिए तैयार नहीं हुआ, मगर जब पूनम ने भी जोर दिया, तो वह उन लोगों के साथ खाना खाने के लिए राजी हो गया. मगर शर्त यह रखी कि भोजन के बदले उन्हें रुपए लेने होंगे. आखिरकार रंजीत प्रसाद ने भी उस की शर्त मान ली.

धीरेधीरे सुनील को लगने लगा कि वह पूनम को चाहने लगा है. अगर पूनम उसे नहीं मिलेगी, तो उस की जिंदगी बेकार हो जाएगी.

इसी तरह 6 महीने बीत गए. उस के बाद एक दिन ऐसा वाकिआ हुआ कि वे दोनों एकदूसरे में समाए बिना न रह सके.

उस दिन रविवार था. सुनील की छुट्टी थी. रंजीत प्रसाद रोजाना की तरह सुबह 11 बजे अपनी दुकान पर चले गए थे. वे रात के 10 बजे से पहले घर नहीं लौटते थे. वे अपनी दुकान वृहस्पतिवार को बंद रखते थे.

दोपहर का भोजन करते समय अचानक पूनम ने सुनील से कहा कि वह उस के साथ सिनेमाघर में कोई फिल्म देखना चाहती है.

सुनील को लगा कि जैसे उस के मन की मुराद पूरी हो गई हो. दोनों ने शाम को फिल्म देखने की योजना बना ली.

शाम को सुनील अपने कमरे में तैयार हो रहा था कि अचानक वहां पूनम आ गई. वह एकटक उसे देखने लगा. उस की नजरें पूनम के हर एक अंग को निहारने लगीं.

कसा हुआ बदन, उभरी हुई छाती, बड़ीबड़ी आंखें, पतली कमर, गुलाबी होंठ और उस समय उस ने काले रंग का सूट भी पहन रखा था, जो उस के गोरे रंग पर कयामत ढा रहा था.

सुनील कुछ कहता, इस से पहले पूनम बोली, ‘‘क्या हुआ? इस तरह आंखें फाड़ कर मुझे क्यों देख रहे हो? क्या मैं इस लिबास में अच्छी नहीं लग रही?’’

‘‘अच्छी तो आप हर लिबास में लगती हैं, मगर इस लिबास में तो कुछ और ही बात है भाभी.’’

पूनम मुसकराती हुई बोली, ‘‘क्या तुम्हारा दिल घायल हो गया है?’’

सुनील खुद पर काबू न पा सका और दिल की बात जबान पर झट से ला दिया, ‘‘अगर मैं कहूं कि मेरा दिल आप को पाने के लिए छटपटा उठा है, तो…?’’

‘‘ऐसी बात है, तो तुम्हीं बताओ कि तुम्हारे दिल की छटपटाहट दूर करने के लिए मुझे क्या करना होगा?’’

सुनील को लगा कि अगर उस ने यह मौका गंवा दिया, तो पूनम को कभी भी पा नहीं सकेगा.

उस ने बगैर देर किए झट से पूनम को अपनी बांहों में भर लिया और कहा, ‘‘आप को कुछ करना नहीं है. जो कुछ करना है, मुझे करना है. आप को सिर्फ मेरा साथ देना है.’’

इतना कहने के बाद सुनील पूनम के गुलाबी गालों और रसीले होंठों को बारबार चूमने लगा.

थोड़ी देर बाद पूनम बोली, ‘‘अब छोड़ो, नहीं तो फिल्म जाने में देर हो जाएगी.’’

सुनील ने पूनम को अपनी बांहों से जुदा नहीं किया. उस ने पूनम के गालों पर एक जोरदार चुंबन जड़ कर कहा, ‘‘मैं कुछ और ही सोच रहा हूं.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘आज जब हम दोनों ने एकदूसरे पर अपने प्यार का इजहार कर ही दिया है, तो क्यों न जिंदगी का असली मजा बिस्तर पर लिया जाए? फिल्म फिर कभी देख लेंगे.’’

पूनम मुसकरा कर बोली, ‘‘खयाल बुरा नहीं है. दरवाजा बंद कर लो. मैं बिस्तर पर चलती हूं.’’

पूनम को अपनी बांहों से अलग कर सुनील कमरे का दरवाजा बंद करने चला गया.

वह दरवाजा बंद कर के बिस्तर पर आया, तो वहां पूनम मुंह के बल लेटी थी. सुनील की बेकरारी बढ़ गई, तो वह पूनम के कपड़े उतारने लगा. पूनम का संगमरमरी बदन देख कर सुनील को लगा कि आज उस की प्यास बुझ जाएगी.

वह धीरेधीरे प्यार के रास्ते पर आगे बढ़ता गया… पूनम भी लाजशर्म छोड़ कर उस का साथ देती गई.

प्यार की मंजिल पर पहुंच कर जब दोनों शांत हो गए, तो पूनम ने कहा, ‘‘आज तुम से जो सुख मुझे मिला है, वैसा सुख मुझे मेरे पति से सुहागरात को भी नहीं मिला था.’’ न चाहते हुए भी सुनील ने उस से पूछ लिया, ‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘शायद इसलिए कि वे उम्र में मुझ से काफी बड़े हैं. मैं सच कहती हूं, पति से मैं एक दिन भी खुश नहीं हो पाई. अगर मैं उन से संतुष्ट होती, तो अपना जिस्म तुम्हें क्यों सौंपती?’’

‘‘फिर आप ने रंजीत भैया से शादी क्यों की?’’

‘‘यह मेरी मजबूरी थी. मेरे पिता बहुत गरीब थे. मेरे अलावा उन की

4 बेटियां और थीं. मैं सब से बड़ी थी. कोई भी बिना दहेज के मु?ा से शादी करने के लिए तैयार नहीं था. मेरे पिता की दहेज देने की हैसियत नहीं थी.

‘‘इसलिए जब रंजीत प्रसाद ने मुझसे शादी करने के लिए पिता को प्रस्ताव दिया, तो वे मान गए. मैं पिता की मजबूरी समझाती थी, इसलिए इस बेमेल शादी का विरोध नहीं कर पाई.

‘‘मैं ने सोचा था कि रंजीत प्रसाद उम्र में मुझ से 18 साल बड़े जरूर हैं, मगर जब वे मुझे प्यार करेंगे, तो मैं सुख से भर जाऊंगी, पर ऐसा नहीं हुआ.

‘‘2 साल तक मैं ने अपनी कामनाओं को दबा कर रखा, मगर जब तुम्हें देखा, तो अपनेआप पर काबू न रख सकी और सोचा कि अपनी प्यास बुझने के लिए अपनेआप को तुम्हारे हवाले कर दूंगी. अभी मैं तुम्हारी बांहों में हूं.’’

यह कह कर पूनम चुप हो गई, तो सुनील ने उसे अपनी बांहों में कस लिया. उस के गालों पर एक चुंबन जड़ने के बाद कहा, ‘‘मैं सच कहता हूं भाभी, अगर आप मुझे नहीं मिलतीं, तो मैं जी नहीं पाता.’’

उस दिन के बाद से दोनों को जब भी मौका मिलता, वे एकदूसरे में समा जाते.

2 साल बीत गए. इस बीच सुनील के मातापिता ने शादी करने के लिए उस पर कई बार दबाव डाला, मगर उस ने हर बार कोई न कोई बहाना बना दिया.

एक बार जब सुनील गांव गया, तो उस की मां ने अपना यह फैसला सुनाया कि अगर उस ने 6 महीने के अंदर शादी नहीं की, तो वे खुदकुशी कर लेंगी.

यह सुन कर सुनील चिंता में पड़ गया. उस की मां ने उस के लिए एक लड़की भी देख रखी थी.

पूनम को सुनील इतना ज्यादा प्यार करने लगा था कि किसी भी हाल में वह उस से अलग नहीं होना चाहता था. काफी सोचने के बाद उस ने फैसला किया कि वह समाज की परवाह किए बिना पूनम से शादी करेगा.

गांव से लौट कर सुनील कोलकाता आया. मौका देख कर एक दिन उस ने पूनम को अपनी बांहों में भर लिया और कहा, ‘‘मुझे तुम से कुछ कहना है.’’

‘‘मैं भी तुम्हें एक बात बताने के पिछले एक हफ्ते से बेचैन हूं. कहो तो बता दूं.’’

‘‘पहले तुम अपनी बात कहो, फिर मैं कहूंगा.’’

‘‘मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं…’’ कहतेकहते पूनम शरमा गई, ‘‘मैं जानती हूं कि तुम मुझे बहुत प्यार करते हो, इसीलिए मैं ने यह फैसला किया है कि अब मैं रंजीत प्रसाद के साथ नहीं रहूंगी. उन से तलाक ले कर तुम से शादी करूंगी. तुम मुझ से शादी करोगे न?’’

सुनील खुशी से झूम उठा. पूनम ने कहा कि सब से पहले वह अपने और सुनील के जिस्मानी संबंध की जानकारी अपने पति को देगी और फिर उन से तलाक की बात करेगी. अगर वे मान गए तो ठीक, नहीं तो उन्हें नामर्द साबित कर के कोर्ट से तलाक ले लेगी.

पूनम ने सुनील से कहा था कि वह रंजीत प्रसाद से रात में तलाक की बात करेगी और अगले दिन सुबह वह उसे उन का फैसला बता देगी.

मगर अगले दिन सुबह सुनील को पूनम से बात करने का मौका नहीं मिला. मजबूरी में वह दफ्तर चला गया.

दफ्तर से लौट कर सुनील शाम के 6 बजे घर आया, तो पूनम अपने कमरे में थी. रोज की तरह उस समय रंजीत प्रसाद घर पर नहीं थे.

पूनम के पास बैठ कर सुनील ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने रंजीत से तलाक की बात की?’’

‘‘बात की थी, मगर उन्होंने जो कुछ कहा, उस पर सोचने के बाद मैं ने अपना फैसला बदल दिया.

‘‘अब मैं उन्हें तलाक नहीं दूंगी और न ही तुम्हारे साथ कोई संबंध रखूंगी.’’

यह सुन कर सुनील हैरान रह गया. उस ने पूनम से पूछा, ‘‘ऐसी कौन सी बात उन्होंने तुम्हें बताई कि तुम मेरे साथ विश्वासघात करने पर उतारू हो गई.’’

‘‘उन से बात करने के बाद मुझे पता चला कि उन्हें मेरे और तुम्हारे नाजायज संबंध की जानकारी बहुत पहले से थी. उन्होंने जानबूझ कर हमें रोकने की कोशिश नहीं की.

‘‘उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि उन का मानना है कि औरत अगर किसी मर्द के साथ बेवफाई करना चाहे, तो सात तालों में बंद रहने के बावजूद कर डालेगी. अगर औरत किसी के प्रति वफादार रहना चाहेगी, तो दुनिया में ऐसी कोई ताकत नहीं है कि उसे बेवफाई करने पर मजबूर कर दे.

‘‘मेरे पति ने मुझे यह भी कहा, ‘अगर तुम्हें मुझ से संतुष्टि नहीं मिलती है, सुनील से मिलती है, तो तुम उस से नाजायज संबंध बनाए रख सकती हो. मगर मुझे तलाक दे कर उस से शादी करने की बात मत करो, क्योंकि मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं, तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी बेकार हो जाएगी.’

‘‘मेरे पति की बातों ने मुझे झकझोर कर रख दिया. आखिरकार मैं ने फैसला किया कि अब मैं पति को नहीं छोड़ूंगी.’’

पूनम का फैसला जान कर सुनील गुस्से में आ गया. उस ने पूनम का गला दबोच लिया और कहा, ‘‘अगर तुम मुझ से शादी नहीं करोगी, तो मैं तुम्हें जान से मार दूंगा.’’

पूनम ने कहा, ‘‘तुम मुझे जान से मार दो, मैं चूं तक नहीं करूंगी. पर पति के साथ बेवफाई करने को मत कहना.’’

सुनील उस के गले पर अपने हाथ का दबाव डालने ही जा रहा था कि अचानक उसे लगा कि वह सही नहीं है, सही रास्ते पर तो पूनम थी.

उस के बाद सुनील ने पूनम के गले पर से अपना हाथ हटा लिया और कहा, ‘‘मैं तुम्हें मार नहीं सकता पूनम, क्योंकि मैं तुम्हें दिल की गहराइयों से चाहता हूं. तुम्हें तुम्हारा पति भी चाहता है. तुम तो एक ही हो. तुम दोनों के साथ तो रह नहीं सकती, इसलिए तुम अपने पति के साथ ही रहो.

‘‘मैं कल ही तुम्हारे घर से, तुम्हारी दुनिया से दूर चला जाऊंगा. तुम अपने पति के साथ हमेशा खुश रहना.’’

अभिषेक: अंधविश्वास पर सुलगते सवाल

‘बमबम भोले…’ के जयजयकारे लग रहे थे. आगे से आवाज आई तो पीछे से भी जोर से सुर में सुर मिलाया गया.

‘हरहर महादेव…’ भीड़ के बीचोंबीच फंसी लगभग 80 साल की वृद्धा ने सम्मोहन की स्थिति में पुकार लगाई. ऐसा लगता था, वह इस अवस्था में काल पर विजय प्राप्त करने के लिए ही रातभर से भूखीप्यासी लाइन में लगी है.

मानस इस लाइन में 10वें नंबर पर खड़ा था. उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि वह यहां क्यों खड़ा है? दर्शन व अभिषेक कर वह ऐसा क्या प्राप्त कर लेगा जो उसे अभी तक नहीं मिल पाया? और जो नहीं भी मिला है, वह क्या आज के ही दिन दर्शन करने से मिलेगा, अन्य किसी दिन क्यों नहीं? ऐसी कई तार्किक बातें थीं जिन पर उस का विचारमंथन चल रहा था. वह था तो तार्किक पर अपनी पत्नी के अंधविश्वासी स्वभाव के सामने असहाय हो जाता था. इसलिए अनमने ही सही, वह भी एक हाथ में पानी से भरा तांबे का लोटा और दूसरे हाथ में बिल्व पत्र लिए रात 12 बजे से ही लाइन में धक्के खा रहा था. उसे स्वयं पर कोफ्त भी हो रही थी कि क्योंकर वह इस कुचक्र में फंस गया. उसे रहरह कर मां पर गुस्सा और पत्नी पर चिढ़ आती थी. उसे लगा कि उस के सारे तर्क मां व पत्नी की आस्था के सामने ढेर हो गए हैं.

लाइन में खड़ेखड़े मानस के पांव दुखने लगे, रहरह कर लगने वाले धक्के उस के विचारों के क्रम को तोड़ डालते थे. वह क्रम जोड़ता पर कुछ ही देर में वह फिर से टूट जाता था. इस टूटने व जुड़ने के क्रम के साथसाथ दर्शनार्थियों की लाइन भी इंच दर इंच आगे रेंग रही थी. मानस ने गति के साथ इस का तालमेल बिठाया तो पाया कि 1 घंटे में वह मात्र 2 फुट ही आगे बढ़ पाया है. उस दिन सोमवती अमावस्या थी. वैसे तो कई सोमवती अमावस्याओं पर उस ने रंगबिरंगे परिधानों से सजे ग्रामीण भक्तों की भीड़ देखी थी पर आज 27 वर्षों बाद बने दुर्लभ संयोग ने भीड़ को कई गुना बढ़ा दिया था. मानस 11 बजे रामघाट पहुंचा. तब घाट पर कीड़ेमकोड़ों की तरह भीड़ नजर आ रही थी जो सिर्फ इस बात का इंतजार कर रही थी कि जैसे ही 12 बजे अमावस लगे वैसे ही क्षिप्रा के पवित्र जल में डुबकी लगा ली जाए. लेकिन नहाने के विचार से ही मानस को उबकाई आने लगी. उसे लगा कि जरा से पानी में लाखों लोग हर डुबकी के साथ अपनी गंदगी पानी में धो लेंगे और उसी पानी में उसे नहाना होगा. वह अचकचा गया. वैसे भी, क्षिप्रा का पानी कब साफ रहता है. सारे शहर की गंदगी का नाला इस ‘पवित्र’ नदी में मिलता ही है, ऊपर से इतने लोगों का स्नान.

उस का जी वापस जाने को हुआ था. सोचा, ‘मां या पत्नी उसे देखने तो आ नहीं रहे हैं, कह दूंगा कि नहा लिया था.’

उस का मन फिरने ही लगा था कि वह एक बार फिर आस्था के आगे नतमस्तक हो गया.

एक जोर के धक्के ने उस की तंद्रा भंग की. वह जोर से चिल्ला पड़ा, ‘‘अरे भाई, धक्के मत मारो, बच्चे और बूढ़े भी लाइन में लगे हैं. ये भक्तों की लाइन है, कोई घासलेट, शक्कर की नहीं.’’

परंतु उस की आवाज संकरे गलियारे के मोड़ को भी पार न कर सकी. मानस ने पीछे गरदन घुमा कर देखा, कतार का कोई ओरछोर नजर नहीं आ रहा था. शायद पीछे वाले मोड़ के बाद खुले मैदान में भी चक्राकार कतार होगी. एकदूसरे को ठेल कर आगे बढ़ने का प्रयास करती भीड़ को पुलिस की लाठी ही संयमित कर सकती थी. फिर से मानस पर तक हावी हो गया. उस ने सोचा, क्या चाहती है यह भीड़? क्या ‘भगवान’ इतने सस्ते हैं कि एक बार चलतेचलते 2 बिल्व पत्रों और छटांकभर जल चढ़ाने से प्रसन्न हो जाएंगे? उस का मन किया कि इस भीड़ में फंसे लोगों में से किसी बनिए से पूछे कि ‘क्या वह आज के इस महादर्शन के बाद कभी डंडी नहीं मारेगा या किसी सूदखोर से पूछे कि क्या वह आज सूद न लेने का प्रण करेगा या फिर किसी वृद्धा से पूछे कि वह ऐसा प्रण कर सकती है कि आज के बाद वह अपनी बहू पर अत्याचार नहीं करेगी? पर अंधश्रद्धा से सराबोर इस भीड़ से इस तरह के प्रश्न करना मूर्खता ही होती, इसलिए वह चुप रहा.

मंदिर के एक ओर बना प्रवेशद्वार 5 मीटर चौड़े गलियारे में खुलता था. यह गलियारा, जिस में कि मानस खड़ा था, डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर मंदिर के गर्भगृह में जाने के लिए इस द्वार को 2 मोड़ दिए गए थे. बीचबीच में छोटेछोटे मंदिरों के कारण गलियारा और भी संकरा हो गया था. गलियारा, जहां पर गर्भगृह के लिए खुलता था, वहां नीचे जाने के लिए सीढि़यां थीं. संगमरमर की होने से सीढि़यां धवल प्रकाश में जगमग चमकती थीं. सुबह 4 बजे का समय हो चला था. मानस अपनी जगह से मात्र 5 फुट ही आगे बढ़ पाया था. धक्कामुक्की में थकान के कारण कुछ शिथिलता आ गई थी. हलकीहलकी बारिश भी गरमी को कम नहीं कर पा रही थी. गलियारे में गरमी बढ़ती ही जा रही थी. लोगों के गले खुश्क और कपड़े तरबतर हो रहे थे. लाइन में लगे बच्चों की हिम्मत जवाब दे गई. 10 साल की एक बच्ची बेहाल हो कर गिर गई, शायद गरमी और प्यास के कारण ऐसा हुआ था. पर आगेपीछे खड़े किसी भी भक्त ने अभिषेक के लिए साथ में लिए लोटे से उसे पानी पिलाना उचित न समझा.

‘‘माताजी, इस बच्ची को पानी क्यों नहीं दे देतीं?’’ मानस बोला. माताजी कुछ सोचविचार में पड़ गईं, शायद धर्म का प्रश्न उन के मस्तिष्क में घूम रहा होगा. मानस ने देर न करते हुए अपने लोटे में से थोड़ा सा पानी उस लड़की को पिला दिया. चंद मिनटों बाद ही वह होश में आ गई. ‘‘दादी, दादी, भूख लगी है,’’ लड़की बोली.

अपनी धार्मिक भावना का बलपूर्वक पालन करवाने की गरज से दादी अपनी पोती को भी साथ लेती आई थी, अपने साथसाथ उस से भी उपवास करवाया लगता था. पर नन्ही बच्ची कब तक भूख सहती?

‘‘कहां से आई हो, अम्मा?’’ मानस ने समय गुजारने के लिए पूछा.

वृद्ध महिला कुछ संकोच में पड़ी हुई थी, बोली, ‘‘बेटा, औरंगाबाद से आई हूं.’’

‘‘कोई खास मन्नतवन्नत है क्या?’’ मानस ने बात बढ़ाई.

‘‘हां, इस ‘अभागी’ लड़की का भाई गूंगा है, उसी के लिए आई हूं,’’ वृद्धा ने थकी आवाज में कहा.

‘‘अम्मा, इस में लड़की कैसे अभागी हुई?’’ मानस की आवाज से हलका सा क्रोध झलक रहा था.

‘‘काहे नहीं, बहनों के ‘भाग’ से ही तो भाई का भाग होवे है,’’ वृद्धा ने जोर दे कर कहा.

मानस का जी तो किया कि इस बात पर वृद्धा को खरीखोटी सुना दे पर वह वक्त इस बात के लिए उसे ठीक न जान पड़ा. उस ने एक बार फिर उस समाज को मन ही मन कोसा जो सारे परिवार के दुख के कारण को नारी जाति से जोड़ देता है.

तभी जोर का एक धक्का आया और मानस ने अपनेआप को गलियारे के मोड़ पर खड़ा पाया, जहां से नीचे गर्भगृह में जाने की सीढि़यां शुरू होती हैं. पहले से ही संकरी जगह को बैरिकैड लगा कर और संकरा कर दिया गया था. 2 सालों के बाद ही मानस वहां गया था, उसे वहां की व्यवस्था पर आश्चर्य हो रहा था. इतनी बड़ी भीड़ को संभालने के लिए गलियारे में होमगार्ड के केवल 2 जवान थे, धक्कामुक्की पर नियंत्रण करना उन के वश में नहीं था. मानस के ठीक आगे औरंगाबाद वाली वृद्धा थी. मानस ने जानबूझ कर उस की पोती को बीच में खड़ा कर लिया था, उस के पीछे 3-4 वृद्ध और थे, जिन से वह बीचबीच में बतिया कर रातभर से उन की आस्था की थाह लेने का प्रयास कर रहा था. इसी बीच, जो लाइन धीरेधीरे रेंग रही थी, वह भी बंद हो गई. बताया जा रहा था कि भस्मारती शुरू हो गई है. भोले से रूबरू होने का समय 2 घंटे और आगे खिसक गया. संकरा मोड़ और ऊपर से उमस, उस पर शरीरों की आपसी रगड़, तपिश और जलन को मानस का पोरपोर महसूस कर रहा था. उस ने सोचा, जब उस की यह हालत है तो बच्चों और वृद्धों का क्या हाल होगा. लगता है, ये प्राणी आज ही भोले के दरबार में आवागमन चक्र से मुक्त हो जाएंगे.

भीड़ पर एकएक मिनट भारी था. व्याकुलता बढ़ती ही जाती थी. मुक्त होने पर वह और भीड़ कैसा महसूस करेगी, खुली हवा में कितनी शांति और शीतलता होगी, इस विचार ने कुछ क्षणों का कष्ट कम कर दिया. तभी बाहर दालान में तेजी से बूटों के चलने की आवाजें आईं, उसी के पीछे कई पैरों की पदचाप सुनाई पड़ी. मानस ने महज अंदाजा लगाया, कोई वीआईपी इस दुर्लभ अवसर के पुण्य को अपने खाते में डालने आया होगा. भीड़ की मुक्ति का समय कुछ और आगे बढ़ गया. आधे घंटे बाद फिर उन्हीं बूटों की आवाज गूंजी. ठीक उसी समय लोगों के लिए आगे का मार्ग खोल दिया गया. अकुलाई भीड़ ने बिना आगापीछा सोचे जोर का धक्का मारा. मानस ने आगे खड़ी लड़की का हाथ कस कर पकड़ लिया. बूढ़ी दादी को वह सहारा देता, लेकिन तब तक वह सीढि़यों पर लुढ़क गई थी. मानस ने स्वयं और लड़की को पूरा जोर लगा कर एक तरफ कर लिया. उस के बाद तो एक के बाद एक पके फल की तरह लोग गिरने लगे. मानस को कुछ सूझता, इस के पहले ही एक बड़ा रेला उन सब लोगों के ऊपर से गुजर गया.

वह पागलों की तरह चिल्ला रहा था, ‘‘अरे, आगे… मत बढ़ो. तुम्हारे भाईबंधु दब कर मर रहे हैं.’’

पर उस की कौन सुनता, सभी को भूतभावन के दरबार में जाने की जल्दी थी. जब तक भीड़ को होश आता, तब तक तो अनर्थ हो चुका था. जहां मंदिर में घंटियों का मधुर स्वर गूंजना चाहिए था वहां चारों ओर लोगों का करुणक्रंदन और चीत्कार गूंज रही थी. सभी हतप्रभ थे. मानस एक हाथ से उस लड़की को थामे था, उस के दूसरे हाथ में अभी भी जल से आधा भरा तांबे का लोटा था, जिस से शिवलिंग का अभिषेक करने का उस का मन था.

पर वह कैसे आगे बढ़ता, किस मन से करता अभिषेक? जबकि उस के इर्दगर्द व भीतर प्रलयंकारी तांडव हो रहा था. उस ने पास ही कराह रहे घायल के मुंह में अभिषेक करने की मुद्रा में जलधारा छोड़ दी. यही सच्चा अभिषेक था.

News Kahani: सत्संग में भगदड़, हाथरस बना मरघट

उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के एक गांव बरौना से थोड़ी दूर खेतों में बाबा बटेश्वर का बहुत बड़ा आश्रम था, जहां दुखियारों के दर्द मिटाए जाते थे.

बाबा बटेश्वर 45 साल के थे, पर उन के चेहरे पर चमक ऐसी थी मानो 30 साल के हों. पढ़ेलिखे कितने थे, यह तो उन के फरिश्तों को भी नहीं मालूम, पर कोई भी धार्मिक किताब रटने की कला में नंबर वन थे.

वैसे तो बाबा बटेश्वर की कई चेलियां थीं, पर साध्वी सुधा का जलवा ही अलग था. वह बाबा बटेश्वर के हर राज जानती थी और 26 साल की कम उम्र में ही पेचीदा से पेचीदा काम का हल ढूंढ़ने में माहिर थी. वह खूबसूरत होने के साथसाथ शातिर भी.

एक दिन साध्वी सुधा और बाबा बटेश्वर एक गंभीर मसले पर बात कर रहे थे. बाबा थोड़े चिंतित थे, पर साध्वी सुधा उन के माथे को दबाते हुए कह रही थी, ‘‘आप क्यों टैंशन ले रहे हैं? हमारा धंधा एकदम बढि़या चल रहा है.’’

इस पर बाबा बटेश्वर सुधा का हाथ अपने हाथ में ले कर बोले, ‘‘तुम सम?ा नहीं रही हो. जितनी कमाई होनी चाहिए, उतनी हो नहीं पा रही है. अब आश्रम में औरतें कम दिखती हैं. ऐसे ही चलता रहा, तो हम सब सड़क पर आ जाएंगे.’’

साध्वी सुधा ने बाबा बटेश्वर के हाथों को प्यार से दबाते हुए कहा, ‘‘मैं ने इस का भी तोड़ निकाल लिया है. यहां शहर के पास ही मैं ने 2 ऐसे अस्पताल बंद करा दिए हैं, जहां औरतों की बीमारियों का इलाज किया जाता था. वहां गर्भपात कराने वाली लड़कियां, औरतों की बीमारियों से जू?ाने वाली लड़कियां और औरतें, पागलपन के दौरे पड़ने वालियों का इलाज किया जाता था.

‘‘हमारे कारसेवकों ने किसी मरीज की मौत के बाद वहां जम कर हंगामा किया और अस्पताल में खूब तोड़फोड़ मचाई. डाक्टर को भी अच्छे से सम?ा दिया गया. मजाल है कि अब कोई औरत वहां इलाज कराने चली जाए. अब उन के लिए हमारा आश्रम ही अपनी समस्याओं का हल पाने का आखिरी रास्ता है.

‘‘हमारे कारसेवकों ने उन औरतोें को बहलाफुसला कर यहां लाने का इंतजाम कर दिया है. आप की चेलियां गांवगांव घूम कर लोगों को आप के सत्संग में आने का न्योता दे रही हैं. बहुत जल्दी ही आश्रम में भीड़ लग जाएगी.’’

यह सुन कर बाबा बटेश्वर की बांछें खिल गईं. उन्होंने साध्वी सुधा की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘तुम लोग ज्यादा से ज्यादा औरतों को आश्रम में लाओ. तन और मन से बीमार औरतों और लड़कियों को मैं भस्म में एलोपैथिक दवाएं और अफीम दूंगा, जिस से उन का बारबार यहां आने का मन करे.

‘‘और हां, कुछ जवान और खूबसूरत लड़कियों को भी घेर कर लाना, जिस

से आश्रम में नई चेलियां आ जाएं. तुम सम?ा रही हो न?’’

साध्वी सुधा ने बाबा बटेश्वर के

सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘मैं सब सम?ाती हूं. मैं भी तो ऐसे ही यहां आई थी. मेरी सौतेली मां ने 15 साल की कच्ची उम्र में ही मेरी शादी करा दी थी. पति भी ऐसा ढूंढ़ा, जो बिस्तर पर जाते ही पस्त हो जाता था. नामर्द कहीं का. ऊपर से सास का फरमान था कि मु?ो तो जल्दी से जल्दी पोता ही चाहिए.

‘‘अच्छा हुआ कि मैं आप के आश्रम में आई और आप की चहेती चेली बन गई. पति का सुख और मु?ो बच्चा दे कर आप ने धन्य कर दिया. सास को उस

का वारिस और मेरे पति को घर बैठे

पैसे मिलने लगे. मैं ने दोनों की जबान एकसाथ बंद करा दी.’’

यह सुन कर बाबा बटेश्वर मुसकरा दिए और साध्वी सुधा के साथ अपने खास कमरे में चले गए.

अगले दिन जब साध्वी सुधा अपने खास कारसेवकों के साथ अलगअलग गांव से औरतों और लड़कियों को आश्रम में आने का दाना फेंक कर आई, तो उस के चेहरे पर घबराहट साफ दिख रही थी.

साध्वी सुधा सीधी बाबा के तपस्या वाले कमरे में गई, जहां उस के अलावा किसी को जाने की इजाजत नहीं थी.

साध्वी सुधा की बदहवासी देख कर बाबा ने पूछा, ‘‘आज इतनी जल्दी कैसे आ गई? अभी तो दोपहर के 4 ही बजे हैं?’’

‘‘बाबाजी, अगर जान प्यारी है, तो मालमत्ता समेटो और कुछ दिन के लिए यहां से रफूचक्कर हो जाओ,’’ साध्वी सुधा ने अपनी ऊपर नीचे होती सांसें ठीक करते हुए कहा.

‘‘क्या हुआ…? तेजी के घोड़े पर क्यों सवार हो? साफसाफ बताओ?’’ बाबा बटेश्वर ने अपने आसन से उठते हुए पूछा.

‘‘बाबाजी, गजब हो गया है. हाथरस में ‘भोले बाबा’ के सत्संग में भगदड़ मचने से कई लोग मर गए हैं. मेरे पास अभी फोन आया है. दोपहर के ढाई बजे यह कांड हुआ है,’’ साध्वी सुधा ने कहा.

‘‘क्या… ‘भोले बाबा’ के सत्संग में भगदड़ मच गई… जल्दी बताओ, बात क्या है?’’ बाबा बटेश्वर ने कहा.

साध्वी सुधा ने बताया, ‘‘हाथरस में आज मंगलवार, 2 जुलाई, 2024 को हुए एक बड़े हादसे में 121 लोगों की मौत हो गई और दर्जनों दूसरे लोग घायल हो गए. वैसे, जिस आदमी का फोन मु?ो आया था, वह तो मरने वालों की तादाद ज्यादा बता रहा था.

‘‘मु?ो मिली खबर के मुताबिक, हाथरस से एटा की तरफ जाने वाले रास्ते पर जीटी रोड के किनारे फुलरई के

पास एक सत्संग कार्यक्रम का आयोजन किया गया था, जिस में ‘भोले बाबा’ उर्फ हरिनारायण साकार के पैरों की धूल लेने के लिए लोगों का हुजूम था.

‘‘कार्यक्रम में आने वाले हजारों की तादाद में भक्तों को देखते हुए 100 बीघा खाली खेत पर सत्संग का इंतजाम किया गया था. लोगों के लिए वहां खानेपीने का भी इंतजाम था. वहां उत्तर प्रदेश के साथसाथ दिल्ली और हरियाणा से भी भारी तादाद में लोग पहुंचे थे.

‘‘बारिश होने के चलते पानी भरने से वहां की मिट्टी दलदली हो गई थी, जिस से लोगों के फिसलने का खतरा था. सड़क और खेत के बीच भी फिसलन भरी ढलान थी, क्योंकि आननफानन में खेत को आयोजन के लिए तैयार किया गया था. कार्यक्रम की जगह कोई सपाट मैदान की तरह नहीं थी. कार्यक्रम कराने वाले लोगों ने इस बात का ध्यान नहीं रखा था.

‘‘जब ‘भोले बाबा’ का सत्संग खत्म हुआ और वे वहां से निकले, तो अचानक उन्हें देखने और उन के पैरों की धूल को छूने के लिए लोग टूट पड़े. इस से लोगों में भगदड़ मच गई और बेकाबू भीड़ एकदूसरे को रौंदते हुए आगे बढ़ती गई.

‘‘भगदड़ ऐसी मची कि लोग जब तक कुछ सम?ा पाते, तब तक एक के ऊपर एक चढ़ते चले गए. कुछ ही देर में 121 लोगों की मौत हो गई.

‘‘अच्छा, ‘भोले बाबा’ इतने बड़े महारथी हैं… हम ने तो इन के बारे में ज्यादा सुना नहीं,’’ बाबा बटेश्वर ने कहा.

साध्वी सुधा ने कहा, ‘‘मैं थोड़ाबहुत पहले से जानती थी, पर अब वापस आते हुए इन के बारे में और जाना.

‘‘खबरों की मानें, तो आध्यात्मिक उपदेशक सूरजपाल, जिन्हें लोकप्रिय रूप से ‘नारायण साकार हरि’ या ‘भोले बाबा’ के नाम से जाना जाता है, उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले की पटियाली तहसील के बहादुर नगर गांव के रहने वाले हैं.

‘‘स्थानीय सूत्रों ने बताया है कि सूरजपाल 1990 के दशक तक उत्तर प्रदेश पुलिस में स्थानीय खुफिया इकाई में कांस्टेबल थे, जब उन्होंने अध्यात्म की ओर रुख किया, एक नया नाम अपनाया और सादा और पवित्र जीवन जीने के बारे में सार्वजनिक उपदेश देना शुरू किया. उन्होंने खुद को ‘नारायण साकार हरि’ का शिष्य बताया और अपने अनुयायियों से अपने भीतर सर्वशक्तिमान को खोजने के लिए कहा.

‘‘गांव में सूरजपाल का ‘नारायण साकार हरि आश्रम’ 30 एकड़ में फैला हुआ है. वे कारों के काफिले के साथ चलते हैं और उन के पास निजी सिक्योरिटी गार्ड भी हैं. वे मीडिया से दूरी बनाए रखते हैं, लेकिन गांवदेहात में उन के काफी समर्थक हैं.

‘‘60 की उम्र के आसपास के ‘भोले बाबा’ आमतौर पर सफेद कोट और पतलून और धूप का रंगीन चश्मा पहनते हैं. उन के अनुयायी, जिन में से ज्यादातर औरतें हैं, आमतौर पर गुलाबी कपड़े पहनते हैं और उन्हें ‘भोले बाबा’ के रूप में पूजते हैं. उन की पत्नी, जो अकसर सभाओं के दौरान मौजूद रहती हैं, को ‘माताश्री’ कह कर बुलाया जाता है.

‘‘बताया जाता है कि कई आईएएस और आईपीएस भी ‘भोले बाबा’ के भक्त हैं. उन के सत्संग में बड़े नेता और  अफसर भी पहुंचते हैं. ‘भोले बाबा’ के पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत उत्तराखंड, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली समेत देशभर में लाखों अनुयायी हैं.’’

‘‘गजब का बाबा है. इतने लोगों को अपने पीछे दौड़ा रखा है. पहुंच भी अच्छी है शासनप्रशासन में. पर, यह भगदड़ मची कैसे? क्या कोई इंतजाम नहीं किया गया था वहां पर?’’ बाबा बटेश्वर ने पूछा.

‘‘सत्संग में तकरीबन 80,000 लोगों के आने की इजाजत दी गई थी, लेकिन 2 लाख से ज्यादा लोग शामिल थे.

‘‘इन ‘भोले बाबा’ का यह सत्संग कम से कम 10 एकड़ की जमीन पर हुआ था. इतनी बड़ी जगह होने के बावजूद

यहां पर लोगों के आनेजाने के लिए एक रास्ता बनाया गया था, वह भी कच्चा था, जबकि गाइडलाइन के मुताबिक, अगर कोई बड़ा कार्यक्रम होता है, जिस में हजारों में लोग शामिल होते हैं, उस में आनेजाने के लिए कई रास्ते बनाए जाते हैं.

‘‘हालांकि, यहां पर भी लापरवाही दिखाई गई. वहीं, जिस मैदान में यह सत्संग हो रहा था, उस में कई जगह पर गड्ढे थे, जिन्हें भी नहीं भरा गया था.

‘‘मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, भगदड़ में कई लोगों के पैर इन्हीं गड्ढों में फंस गए थे, जिस की वजह से वे गिर गए और पीछे वाले लोग उन्हें रौंदते हुए आगे बढ़ गए,’’ साध्वी सुधा ने कहा.

‘‘इस बाबा का प्रचार तंत्र बड़ा मजबूत है. कैसे मैनेज किया उस ने यह सत्संग?’’ बाबा बटेश्वर ने पूछा.

‘‘जहां तक मेरी जानकारी है, आयोजन समिति अपने कार्यक्रम का प्रचारप्रसार होर्डिंग के जरीए करती है, जिस पर आयोजन का सारा ब्योरा लिखा होता है. किसी ने मु?ो फोटो खींच कर भेजा है और उस से पता चला है कि आज के आयोजन के होर्डिंग में लिखा था, ‘नारायण साकार हरि’ की संपूर्ण ब्रह्मांड में सदासदा के लिए जयजयकार हो. सोच कर देखो साथ क्या जाएगा? मानव धर्म सत्य था, है और रहेगा. ‘नारायण साकार हरि’ का परम पवित्र उद्देश्य : नारायण साकार हरि की अनुकंपा से वर्तमान समय में समस्त संस्काररूपी समाज संसार में व्याप्त धर्म की आड़ में अंधविश्वास से चित्त हटाने, बिखरी हुई मानवता को जोड़ने, अनेकता में एकता, मानवता को गले लगाने, मानवमानव से प्रेम करने, आदर्श मानवीय समाज का निर्माण करने का अमर संदेश जनहित में जनमानस तक पहुंचाने के उद्देश्य को ले कर ‘मानव मंगल मिशन सद्भावना समागम’ का आयोजन हो रहा है’.’’

बाबा बटेश्वर ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘इतना महान संदेश. फिर बाबा के हर सत्संग में लोगों का बहुत ज्यादा हुजूम लगता होगा?’’

साध्वी सुधा बोली, ‘‘इन के हर सत्संग में लाखों की भीड़ आती है. भीड़ लाने का काम आयोजन समिति और उस से जुड़ी दूसरी समितियों का होता है. आयोजन में जो भी चंदा जमा होता है, उस का 70 फीसदी ‘भोले बाबा’ के ट्रस्ट ‘मानव मंगल मिशन सद्भावना समागम’ में जमा होता है और बाकी 30 फीसदी चंदा लाने वाले को अपने पास रखने का अधिकार है.

‘‘बाबा के साथ मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से जुड़े लोग बस और ट्रेन के जरीए आते हैं. आयोजन स्थल की सुरक्षा का इंतजाम बाबा की ‘नारायणी सेना’ करती है. इस में 15,000 मर्दऔरत हैं. औरतें गुलाबी रंग की साड़ी, ब्लाउज और टोपी पहनती हैं और मर्द सफेद रंग की पैंटशर्ट और टोपी लगाते हैं.’’

‘‘मु?ो एक आइडिया आ रहा है. हम आगे से गरीब और वंचित तबके की औरतों को अपने आश्रम में लाने की कोशिश करेंगे. उन्हें एक ड्रैस दिलाएंगे, खानेपीने का खासा ध्यान रखेंगे और नई चेलियां बनाएंगे.

‘‘ऐसे परिवारों में मर्द कमजोर होते हैं. समाज में दबेकुचले होते हैं, पर मेहनती होते हैं. कहीं न कहीं से कमाई कर ही लेते हैं. उन से धर्म का डर दिखा कर पैसा निकलवाया जा सकता है. वैसे, ‘भोले बाबा’ के सत्संग में किस तबके की औरतें आती हैं?’’ बाबा बटेश्वर ने गंभीर हो कर पूछा.

‘‘ज्यादा तो नहीं पता, पर ‘नारायण साकार हरि’ के सत्संग में जो लड़कियां गोपिकाएं बनती हैं, उन में से 80 फीसदी लड़कियां अपनी मां के साथ आती हैं. पहले मां को सेवादार बना कर कुछ जिम्मेदारी दी जाती है, फिर उस की लड़की को भी वहां जोड़ लिया जाता है. यह सारा काम पुराने सेवादार करते हैं,’’ साध्वी सुधा बोली.

‘‘मु?ो एक और आइडिया आया है. हमारे यहां जो बसें भर कर आती हैं, उन बस वालों से भी हम कुछ कमीशन ले सकते हैं. 300 किलोमीटर की दूरी वाली बस में अगर 50 सवारी आती हैं, तो बस वाला उन से 30,000-35,000 रुपए तो लेता होगा. वह हमें 1,000 रुपए भी दे तो कई बस वालों से यह रकम हमें बिना कुछ किएधरे ही मिल जाएगी. इतना ही नहीं, फिर हम ‘भोले बाबा’ की तरह अपनी सेना बना लेंगे. ज्यादा सेवादार, ज्यादा कमाई,’’ बाबा बटेश्वर ने कहा.

‘‘यह तो सही है, पर फिलहाल तो हमें इस बड़ी मुसीबत को टालना होगा. जनता का कोई भरोसा नहीं, कहीं कोई चिनगारी सुलग गई तो लोग गुस्से में

इस आश्रम को भी निशाने पर ले लेंगे. प्रशासन भी बेवजह परेशान करेगा,’’ साध्वी सुधा ने कहा.

‘‘ऐसा करते हैं कि अपनी नकदी और कीमती सामान को गाडि़यों में भरते हैं और अपने खासमखास 12-15 लोगों की टोली के साथ शिरडी धाम चलते हैं. तुम ऐसा करना, अपनी हर गाड़ी पर ‘बाबा बटेश्वर की शिरडी यात्रा’ का बैनर लगा देना और कुछ बड़ी गाडि़यों में सब जरूरी सामान भर लेना. हम कल सुबह ही सड़क के रास्ते से महाराष्ट्र निकल जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं इंतजाम करती हूं. हम ने जो नकदी पीछे दालान में गाड़ रखी है, उसे निकालते हैं. पर मु?ो एक डर है कि हमारे लोग ही लालच में कोई गड़बड़ न कर दें,’’ साध्वी सुधा बोली.

‘‘इतना रिस्क तो लेना ही पड़ेगा.

पर हम सब को बताएंगे कि शिरडी में कोई स्पैशल हवनपूजन करने का बोल रखा है. अगर तुम्हें लगता है कि किसी सेवादार में लालच आ जाएगा, तो मेरी खास चेलियों को भी गाड़ी में बिठा लेना, वे सब पर नजर रखेंगी.’’

इस के बाद बाबा बटेश्वर और साध्वी सुधा ने नकदी और कीमती सामान गाडि़यों में भर दिया. ऊपर से हवन सामग्री रख दी.

सारा सामान सैट करने के बाद बाबा बटेश्वर ने कहा, ‘‘कल तड़के ही हम निकल लेंगे. अब हम चलते हैं नए सफर की ओर. रास्ते में जो होगा भुगत लेंगे. जब मामला शांत हो जाएगा तो लौट आएंगे. फिर से धर्म का धंधा जमा लेंगे. इस बार बड़े लैवल पर.’’

साध्वी सुधा ने ‘हां’ में सिर हिलाया और आगे की तैयारी करने के लिए कमरे से बाहर चली गई.

बदचलनी का ठप्पा: क्यों भागी परबतिया घर से?

कोलियरी की कोयला खदान में काम करने वाला एक सीधासादा मजदूर था अर्जुन महतो. पिछले से पिछले साल वह अपनी ननिहाल अनूपपुर गया था, तो वहां से पार्वती को ब्याह लाया. कच्चे महुए जैसा रंग और उस पर तीखे नयननक्श, खिलखिला कर हंसती तो उस के मोतियों जैसे दांत देखने वाले को बरबस मोहित कर लेते. वह कितनी खूबसूरत थी, उसे कह कर बताना बड़ा मुश्किल काम था. कोलियरी में जहां चारों ओर कोयले की कालिख ही कालिख बिखरी हो, वहां पार्वती की खूबसूरती उस के लिए एक मुसीबत ही तो थी. लोगों ने तरहतरह की बातें बनाईं.

एक ने कहा, ‘‘अर्जुन के दिन बहुरे हैं, जो इतनी सुंदर बहुरिया पा गया, वरना कौन पूछता उस कंगाल को?’’

एक छोटे दिल वाले ने जलभुन कर यह भी कह दिया, ‘‘ऐसा ही होता है यार, अंधे के हाथ ही बटेर लगती है.’’

उधर अर्जुन इन सब बातों से बेखबर, अपनी पार्वती में मगन था. लाड़ में वह उसे ‘परबतिया’ कह कर पुकारता था. उस की प्यारी परबतिया उस की गृहस्थी जमाने लगी थी.

अर्जुन को भी कोयला खदान की लोडर (गाड़ी में कोयला लादने वाला) की नौकरी में मकसद और जोश दोनों नजर आने लगे थे. कोलियरी के नेताओं के भाषणों में वह अमूमन एक ही घिसीपिटी बात सुनता था कि खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालना है और सरकार के हाथ मजबूत करने हैं, पर अर्जुन भी इन भाषणों को और मजदूरों की तरह पान खा कर थूक देता था.

अर्जुन की सरकार तो उस की परबतिया थी. गोरीचिट्टी और गोलमटोल. धरती के पेट में छिपी कोयला खदान की उस काली दुनिया में जब अर्जुन अपने कंधों पर कोयले से भरी टोकरी लादे टब (एक टन कोयले  की गाड़ी) को भर रहा होता, तब भी  उस के दिल और दिमाग में सिर्फ उस  की परबतिया होती, उस के छोटे से  घर में खाना बना कर उस का इंतजार करती हुई. मेहनत करने से अर्जुन का शरीर लोहा हो गया था. पहली बार जब उस  ने पार्वती को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ा था तो वह मीठेमीठे दर्द से चिहुक उठी थी.

अर्जुन को लगा था कि परबतिया तो कोयले से भरी उस टोकरी से बहुत हलकी है. कहां वह कालाकाला कोयला और कहां हलदी की तरह गोरी फूलों की यह चटकती कली. अर्जुन की बांहों की मजबूती पा कर वह कली खिलने लगी थी. कभीकभी अर्जुन पार्वती को छेड़ता, ‘‘कम खाया कर परबतिया, बहुत मोटी होती जा रही है.’’

पार्वती अर्जुन के चौड़े सीने से सट जाती और अपनी महीन आवाज में फुसफुसाती, ‘‘इतना प्यार क्यों करता है रे मुझ से? तेरा लाड़प्यार ही तो मुझे दूना किए दे रहा है.’’

अर्जुन निहाल हो जाता. उस जैसा एक आम मजदूर इस से बड़ी और किस खुशी की कल्पना कर सकता था. वह सिर्फ नाम का ही तो अर्जुन था, जिस के पास कोयला खदान की खतरनाक नौकरी के सिवा कुछ भी नहीं था. समय बीतता गया. इस बीच कोयला खदान से जुड़े नियमकानूनों में भारी बदलाव आए. कोयला खानों का ‘राष्ट्रीयकरण’ हो गया.

अर्जुन जैसे लोगों को इस ‘राष्ट्रीयकरण’ का अर्थ तो समझ में नहीं आया शुरू में, किंतु थोड़े ही दिन बाद इस का मतलब साफ हो गया. ‘राष्ट्रीयकरण’ के बाद  सभी मजदूर सरकारी मुलाजिम हो गए. और इस तरह मजदूर और कामगार कामचोर और उद्दंड भी हो गए, क्योंकि उन का कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था. अर्जुन जैसे गिनती के मजदूरों पर ही पूरी ईमानदारी और खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालने का जिम्मा आ पड़ा था.

मेहनत ऐसे मजदूरों के खून में थी, क्योंकि कोयला खानों से इन का रिश्ता उतना ही पुराना और मजबूत था, जितना एक खेतिहर का अपनी जमीन और माटी से होता है. धीरेधीरे यहां की कोलियरी में कई मजदूर नेता भी उभरने लगे. पर देवेंद्रजी ने, जिन का इतिहास भी यहां की कोयला खदान जितना ही पुराना है, अपने आगे किसी नए नेता को उभरने नहीं दिया. वे हमेशा से मजदूर के भरोसेमंद आदमी रहे थे और उन की चौपाल हमेशा हरीभरी रहती थी.  किसी मजदूर को घर चाहिए, तो किसी को बिजली. कहीं महल्ले में पानी का इंतजाम करवाना है, तो कहीं मजदूरों के लिए कैंटीन का. कोई रिटायर हो गया है, तो उस का दफ्तर से हिसाबकिताब करवाना है, भविष्य निधि वगैरह के पैसे दिलवाने हैं.

कोई भी काम हो, कैसी भी समस्या हो, देवेंद्रजी बड़ी आसानी से सुलझा देते थे. उन्हें मैनेजरों का पूरा भरोसा हासिल था, इसलिए विरोधी नेता भी उन्हें डिगा नहीं पाते थे.  अचानक इस कोलियरी में एक अजीब घटना हो गई. फैलने को या तो आग फैलती है या अफवाह. पर यह अफवाह नहीं थी, इसीलिए यहां के सभी लोग हैरान थे.

किसी ने कहा, ‘‘भाई, सुना तुम ने… बड़ा गजब हो गया.’’

दूसरे ने पूछा, ‘‘क्या पहाड़ टूट गया एक ही रात में? कल तक तो सबकुछ ठीकठाक था.’’

तीसरे ने कहा, ‘‘वाह भाई, कुछ दीनदुनिया की खबर भी रखा करो यार, खातेकमाते तो सभी हैं.’’

दूसरे ने फिर पूछा, ‘‘पर, हुआ क्या है, कुछ बताओगे भी?’’

‘‘अरे वह परबतिया थी न, दिनदहाड़े जा कर गया प्रसाद के घर बैठ गई,’’ बताने वाले की आवाज में ऐसा जोश था, मानो वह इस घटना के घटने का सालों से इंतजार कर रहा हो.

‘‘कौन परबतिया और कौन गया प्रसाद? यार, साफसाफ बताओ न,’’ पूछने वाले के चेहरे का रंग अजीब हो गया था.

‘‘गजब करते हो यार, धिक्कार है तुम्हारी जिंदगी को. अरे, परबतिया को नहीं जानते?’’ बताने वाले के चेहरे पर धिक्कार के भाव थे,

‘‘क्या उस जैसी  2-4 औरतें हैं यहां? अरे वही अर्जुन महतो की घरवाली. हां, वही पार्वती. कल वह अर्जुन का घर छोड़ गया प्रसाद के घर बैठ गई.’’

‘‘अच्छा, वह परबतिया,’’ उस घटना से अनजान आदमी ने चौंकते हुए  कहा, ‘‘अरे भई, ‘तिरिया चरित्तर’  को कौन समझ सकता है. भाई…बड़ी सतीसावित्री बनती थी.’’

जितने मुंह उतनी बातें. चारों तरफ कानाफूसी. लोग चटकारे लेले कर उस घटना की चर्चा कर रहे थे. बहुत दिनों से यहां कुछ हुआ नहीं था, इसलिए यहां के पान के ठेलों पर महफिलें सूनीसूनी रहने लगी थीं. पुरानी बातों  को ले कर आखिर लोग कब तक जुगाली करते…

इस नई घटना से सभी का जोश फिर लौट आया था. कुछ लोग इस घटना से दहशत और सन्नाटे की चपेट में भी आ गए थे. जब पार्वती जैसी बेदाग औरत ऐसा कर सकती है तो उन की अपनी बीवियों का क्या भरोसा? हर शक्की पति घबराया हुआ था. कहीं उन की बीवियां भी ऐसा कर बैठें तो…?

इस घटना के बाद देवेंद्र की  चौपाल फिर सजी थी ठीक किसी मदारी के तमाशे जैसी. कभी कोई भला आदमी गलती से यहां मर जाता तो अरथी के साथ चलने के लिए लोग  ढूंढ़े नहीं मिलते थे. कहते, ‘‘अरे, कोई मर गया तो मर गया. एक न एक  दिन तो सभी को मरना ही है.’’

भीड़ में आए ज्यादा लोगों को हमदर्दी अर्जुन महतो के साथ थी. बेचारा, बेसहारा अर्जुन. कितनी धोखेबाज होती हैं ये औरतें भी. और यदि खूबसूरत हुई तो मुसीबतें ही मुसीबतें. मनचले कुत्तों की तरह सूंघते फिरते हैं. देवेंद्र की चौपाल में भीड़ बढ़ी, तो पास ही मूंगफली बेचने वाली बुढि़या खुश हो गई थी. केवल वही थी वहां, जिसे सिर्फ अपनी मूंगफलियों की बिक्री की चिंता थी.

उसे न परबतिया से मतलब था, न गया प्रसाद से. घर के बाहर भीड़ का शोरगुल हुआ, तो देवेंद्र घर से बाहर निकल आए.  सभी ने उन को प्रणाम किया. वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे कुरसी लगवा कर बैठ गए. देवेंद्रजी ने गहराई से भीड़ का जायजा लिया और परेशानी भरी आवाज में बोले, ‘‘फिर कौन सा बवाल हो गया भाइयो? क्या हमें अब एक दिन का चैन भी नहीं मिलेगा…”

“ऐसे में तो हमारा मरना भी मुश्किल हो जाएगा.’’

भीड़ को देवेंद्रजी से हमदर्दी हो आई. बेचारे देवेंद्रजी, सारी कोलियरी का बोझ उठाए हैं अपने कंधों पर. कितनी चिंता है उन्हें लोगों की. एक वे ही तो हैं यहां, जो लोगों का दुखदर्द समझते हैं. उन को चैन कहां मिल पाता होगा. इस बार देवेंद्रजी की निगाह भीड़ से हट कर खड़े अर्जुन महतो पर पड़ी. बेचारा अर्जुन अपनी वीरान दुनिया लिए लगातार रोए जा रहा था. देवेंद्रजी को जैसे कुछ मालूम ही न हो. उन्होंने अर्जुन महतो की तरफ देख कर अपनेपन से पूछा,

‘‘क्या हो गया अर्जुन? क्यों सुबहसुबह हमारे दरवाजे पर आंसू बहा रहे हो?’’

अर्जुन महतो बिना जवाब दिए सिर्फ रोता रहा. उसी बीच महल्ले की ओर से बलदेव प्रसाद आता हुआ दिखा. देवेंद्रजी और भीड़ को शायद उसी का इंतजार था, इसीलिए सभी खुश हो गए.

मजदूर नेता देवेंद्रजी के दाहिने हाथ बलदेव प्रसाद का पहनावा देखते ही बनता था. कलफदार सफेद कुरतापाजामा, जिस पर आंखें ठहरती नहीं थीं. और कोई अर्जुन का पहनावा देखे, मैलीचीकट लुंगी और वैसी ही बनियान पहने था वह. कोयले की खदान में काम करने वाला एक अदना सा मजदूर, बेचारा अर्जुन. मजदूर अंधेरे में रेंग लेगा, खाली पैर चल लेगा और बरसते पानी में भीग लेगा, पर नेतागीरी के मजे ही और हैं. नेता हो या उन का दाहिना हाथ, उन के पास टौर्च भी हैं, जूते भी और छतरियां भी.

बलदेव प्रसाद को देख कर दुबेजी बोले, ‘‘भई बलदेवा, आजकल कहां रहते हो? बहुत दिनों से मिले नहीं. लगता है, खूब मस्ती कर रहे हो?’’

बलदेव प्रसाद ने अपने चेहरे पर परेशानी की परत चढ़ाते हुए कहा, ‘‘क्या कहें, अब तो यहां रहना ही मुश्किल हो गया है. रोज कोई न कोई झंझट खड़ा हो जाता है, ‘‘ऐसा कह कर उस ने अर्जुन की ओर ऐसी नजरों से देखा, जैसे सारा कुसूर उसी का हो. ‘‘वही तो हम भी इस से पूछ रहे हैं,’’

देवेंद्रजी बोले, ‘‘पर, यह बस रोए जा रहा है. कुछ बताता ही नहीं. अब तुम्हीं कुछ बताओ, तो हमें भी  मालूम हो?’’

‘‘अब हम क्या बताएं. मेरी तो जबान ही आगे नहीं बढ़ती. कहूं तो क्या कहूं. लगता है कि अब इस कोलियरी में गरीब आदमी का गुजारा नहीं रहा,’’

बलदेव प्रसाद ने कहा. फिर उस ने अर्जुन महतो की ओर देख कर कहा, ‘‘बताओ अर्जुन, खुद बताओ न अपना दुखड़ा?’’ देवेंद्रजी मन ही मन खुश हुए. बड़ी सधी हुई बात करता है बलदेव प्रसाद. अर्जुन ने अपने हाथ जोड़ दिए. मुंह से तो वह कुछ कह ही नहीं पा रहा था.

बड़ी कातर आंखों से उस ने बलदेव प्रसाद को देखा, जैसे कह रहा हो कि आप ही बताओ माईबाप, आप को सब मालूम ही है. ‘‘क्या हो गया अर्जुन? खुल कर कहो न. अरे, हम पर तुम्हारा भरोसा है, तभी तो आए हो न यहां?’’ देवेंद्रजी ने अर्जुन का हौसला बढ़ाया.

अर्जुन हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और फफकफफक कर जोर से रो पड़ा. बलदेव प्रसाद ने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘बसबस, अब रोनाधोना नहीं मेहरियों की तरह, नहीं तो मैं देवेंद्रजी को कुछ नहीं बताऊंगा, समझा?’’ फिर उस ने देवेंद्रजी से कहा, ‘‘आप परबतिया को तो जानते ही होंगे?’’

‘‘कौन परबतिया…? अरे वही… जगेशर की बिटिया न?’’ देवेंद्रजी  ने कहा.

‘‘नहींनहीं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘यह अर्जुन महतो है न, इसी की घरवाली परबतिया की बात कर रहा हूं. इस कोलियरी में ऐसा अंधेर न देखा, न सुना. क्या पता आगे क्याक्या देखना पड़ जाए यहां,’’ उस ने भीड़ पर एक धिक्कार भरी नजर डाली.

‘‘तो यह अर्जुन हमारे पास क्यों आया है?’’ देवेंद्रजी ने मजाक करते हुए कहा, ‘‘हम ने तो इस की घरवाली को छिपा कर नहीं रखा अपने यहां,’’ उन की बात सुन कर भीड़ हंसने लगी.

‘‘माईबाप…’’ अर्जुन महतो के मुंह से मुश्किल से निकला. हाथ उस के लगातार जुड़े हुए थे. उस के खाली पैरों में एक घाव पक गया था, जिस से मवाद बह रहा था. मक्खियों को भगाने के लिए वह बीचबीच में अपना पैर झटक लेता था.

‘‘वही तो मैं बताने जा रहा था,’’ बलदेव प्रसाद ने भीड़ को ऐसे देखा, जैसे कोई बहुत बड़ी बात कहने जा  रहा हो, ‘‘वही परबतिया कल रात  जा कर उस बदमाश गया प्रसाद के घर बैठ गई.’’

‘‘गया प्रसाद…?’’ देवेंद्रजी का चेहरा तन गया, ‘‘वही लठैत गया  प्रसाद न?’’

‘‘हांहां,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘एकदम वही, दिनदहाड़े ऐसी अंधेरगर्दी. तभी तो कहता हूं कि अब यहां किसी भलेमानुष का रहना  मुश्किल है.’’

‘‘किसी की घरवाली कोई दूसरा खसम कर ले, तो इस में हम क्या करें?’’

देवेंद्रजी थोड़ा नाराज हो कर बोले, ‘‘क्या सभी की समस्याएं सुलझाने का हम ने ठेका ले रखा है? किसी से अपनी घरवाली नहीं संभाली जाती तो कोई क्या करेगा?’’ भीड़ ने अर्जुन महतो की ओर देखा, देवेंद्रजी शायद ठीक ही कह रहे हैं. अर्जुन ने शर्म से अपना सिर झुका लिया.

‘‘वही तो हम भी कह रहे हैं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘पार्वती के रंगढंग कई दिनों से ठीक नहीं चल रहे थे. मैं ने सुना तो मैं ने समझाया भी था अर्जुन को. समझाना फर्ज बनता था हमारा. है कि नहीं अर्जुन?’’

अर्जुन ने रजामंदी में अपना सिर हिलाया.

‘‘बलदेवा, तुम चाहे जो करवा दो यहां,’’ देवेंद्रजी ने फिर मजाक किया, ‘‘बेचारी धनिया को भी लुटवा दिए थे ऐसे ही,’’ भीड़ फिर हंस पड़ी. बलदेव प्रसाद झेंपने का नाटक करते हुए बोला, ‘‘आप तो मजाक करने लगे. मुझे क्या पड़ी है कि मैं हर जगह टांग अड़ाऊं. वह तो ऐसे गरीबों का दुख नहीं देखा जाता इसीलिए. अब देखिए न, परबतिया गई सो गई, साथ में गहनेकपड़े, रुपयापैसा सबकुछ ले गई. अब इस बेचारे अर्जुन का क्या होगा?’’ ‘‘हां… माईबाप…’’

अर्जुन महतो फिर सिसकने लगा. देवेंद्रजी नाराजगी से बोले, ‘‘मरो भूखे अब. ये लोग अपनी सब कमाई तो खिला देते हैं ब्याज वालों को या दारू पी कर उड़ा देते हैं. चंदा भी देंगे तो दूसरे नेताओं को. और अब घरवाली भाग गई तो चले आए मेरे पास. जैसे देवेंद्र सब का दुख दूर करने का ठेका ले रखे हैं.’’

‘‘वही तो मैं भी कहता हूं,’’ बलदेव प्रसाद ने कहा, ‘‘लेकिन, ये लोग मानते कहां हैं. और अगर घरवाली खूबसूरत हुई तो हवा में उड़ने लगते हैं. वह तो आप जैसे दयालु हैं, जो सब सहते हैं.

पर सच पूछिए, तो एक गरीब के साथ ऐसी ज्यादती भी तो देखी नहीं जाती. आप के रहते यहां यह सब हो, यह तो अच्छी बात नहीं है न?’’ बलदेव प्रसाद के चेहरे पर देवेंद्रजी के लिए तारीफ के भाव थे. भीड़ ने सोचा कि देवेंद्रजी हैं तो कोई न कोई रास्ता जरूर निकालेंगे. अर्जुन को घबराना नहीं चाहिए. वह सही जगह पर आया है. ‘‘यही मस्का मारमार कर तो तुम ने हमें बरबाद करवा दिया है बलदेवा,’’ देवेंद्रजी मानो बलदेव को मीठा उलाहना देते हुए बोले. ‘‘खैर, यह तो बताओ कि अर्जुन और पार्वती की शादी को कितने दिन हुए थे?’’ उन्होंने जैसे भीड़ से सवाल किया. अर्जुन को कुछ उम्मीद बंधी.

देवेंद्रजी मामले में दिलचस्पी लेने लगे हैं. बस, वह एक बार हाथ तो धर दें सिर पर, फिर तो उस गया प्रसाद की ऐसीतैसी… यह सोच कर अर्जुन का खून जोश मारने लगा. बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘अरे, भली कही आप ने. यही तो मुसीबत है. इस ने अगर परबतिया से शादी की ही होती तो वह भागती क्यों? पर यहां तो फैशन है. या तो रिश्ता बना लेते हैं या खूबसूरत औरत के मांबाप को 200-400 रुपए  दे कर उस औरत को घर बैठा लेते हैं. तभी तो…’’ अर्जुन ने बलदेव प्रसाद की बात का विरोध करना चाहा. वह चीखचीख कर कहना चाहता था कि पार्वती उसी की ब्याहता है, पर उस के बोलने के पहले ही देवेंद्रजी बोल पड़े, ‘‘तब तो मामला हाथ से गया, समझो. जब ब्याह नहीं रचाया तो कहां की घरवाली और कैसी परबतिया? कौन मानेगा भला?  ‘‘अरे, मैं कहता हूं कि परबतिया अर्जुन की घरवाली नहीं थी.

तो है कोई माई का लाल, जो यह दावा करे?’’ देवेंद्रजी ने जैसे भीड़ को ललकार दिया था.  भीड़ में सनाका खिंच गया. यह तो सोचने वाली बात है. क्या दावा है अर्जुन के पास? बेचारा अब क्या करे? कहां से लाए अपनी और परबतिया की शादी का कागजी सुबूत? ‘‘तभी तो मैं भी कहता हूं कि अब कौन गया प्रसाद जैसे बदमाश से कहने जाए कि उस ने बड़ा गलत किया है. सभी जानते हैं कि वह कैसा आदमी है?’’ बलदेव प्रसाद ने कहा. ‘‘हांहां, जाओ,’’ देवेंद्र तैश में आ कर बोले,

‘‘कौन सा मुंह ले कर जाओगे उस बदमाश के घर? लाठी मार कर घर से निकाल न दे तो कहना.

‘‘अपने ऊपर हाथ भी नहीं धरने देगा वह बदमाश. क्या मैं कुछ गलत कह रहा हूं, बलदेवा?’’ उन्होंने बलदेव प्रसाद की ओर देखा. ‘‘अरे, आप और गलत बोलेंगे?’’

चमचागीरी करते हुए बलदेव प्रसाद ने नहले पर दहला मारा, ‘‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं. वह बदमाश गया प्रसाद तो मुंह पर कह देगा कि किस की बीवी और कैसी परबतिया? खुलेआम दावा करेगा कि यह तो मेरी बीवी है.

ज्यादा जोर लगाएंगे तो जमा देगा 2-4 डंडे. इस तरह अपना सिर भी फुड़वाओ और हाथ भी कुछ न आए.’’ देवेंद्रजी अपने दाहिने हाथ बलदेव प्रसाद की बातों से मन ही मन खुश हुए. भीड़ को भी लगा कि बलदेव प्रसाद की बातों में दम है. गया प्रसाद जैसे गुंडे से उलझना आसान काम नहीं.  अर्जुन फिर एक बार मानो किसी अंधेरी कोठरी में छटपटाने लगा. ‘तो क्या अब कुछ नहीं हो सकता?’

मन ही मन उस ने सोचा. अब देवेंद्रजी ने सधासधाया तीर चलाया,

‘‘भाइयो, एक मिनट के लिए मान भी लें कि गया प्रसाद कुछ नहीं कहेगा. पर क्या पार्वती ताल ठोंक कर कह सकती है कि वह अर्जुन की घरवाली है और गया प्रसाद उसे बहका कर लाया है? ‘‘बोलो लोगो, क्या ऐसा कह पाएगी परबतिया? क्या उस की अपनी मरजी न रही होगी गया प्रसाद के साथ जाने की? वह कोई बच्ची तो है नहीं, जो कोई उसे बहका ले जाए?’’

भीड़ फिर प्रभावित हो गई देवेंद्रजी से. कितनी जोरदार धार है उन की बातों में? सभी बेचारे अर्जुन के बारे में सोचने लगे. लगता है, बेचारा अपनी घरवाली को सदा के लिए गंवा ही बैठा.

देवेंद्रजी ठीक ही तो कह रहे हैं. क्या परबतिया की अपनी मरजी न रही होगी? अब तो अर्जुन को उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिए. भूल जाए पार्वती को. जिंदगी रहेगी तो उस जैसी कई मिल जाएंगी.

बलदेव प्रसाद ने देवेंद्रजी की हां में हां मिलाते हुए कहा, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं. यह औरत जात ही आफत की पुडि़या है. और यह अर्जुन तो बेकार रो रहा है ऐसी धोखेबाज और बदचलन औरत के लिए.’’

यह क्या सुन रहा था अर्जुन? परबतिया और बदचलन? नहीं, वह ऐसी औरत नहीं है. अर्जुन ने सोचा. फिर उस के मन में चोर उभरा. पार्वती उस का घर छोड़ कर गई ही क्यों? क्या कमी थी उस को? क्या नहीं किया उस ने पार्वती के लिए? फिर भी धोखा दे गई. जगहंसाई करा गई.

बदचलन कहीं की.  अर्जुन के मन में गुस्सा उमड़ने लगा. वह कुलटा मिल जाए तो वह उस का गला ही घोंट दे. पर कैसे करेगा ऐसा वह? जिन हाथों से उस ने परबतिया को प्यार किया, क्या उन्हीं हाथों से वह उस का गला दबा पाएगा? और परबतिया नहीं रहेगी तो उस के मासूम बच्चे का क्या होगा?

बच्चे का मासूम चेहरा घूम गया अर्जुन की आंखों में. कितना प्यार करता था वह अपने बच्चे को. कोयला खदान की हड्डीतोड़ मेहनत के बाद जब वह घर लौटता तो अपने बच्चे को गोद में उठाते ही उस की थकान दूर हो जाती. एक हूक सी उठी उस के मन में. बीवी भी गई, बच्चा भी गया. वह फिर पिघलने लगा. गुस्सा आंसू बन कर दोगुने वेग से बह चला था.

इस बार देवेंद्रजी ने अर्जुन को ढांढस देते हुए कहा, ‘‘अर्जुन रोओ मत. रोने  से तो समस्या सुलझेगी नहीं, इंसाफ अभी एकदम से नहीं उठा है धरती से. पुलिस है, अदालत है, कचहरी है. कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा, ताकि तुम्हें इंसाफ मिले.’’ बलदेव प्रसाद ने उन्हें टोका, ‘‘नहीं, नहीं. आप को ही कुछ करना पड़ेगा. पुलिस को तो आप जानते ही हैं.

वह दोनों तरफ से खापी कर चुप्पी मार जाएगी, इसलिए आप ही कोई उपाय बताइए.  ‘‘गया प्रसाद जैसा अकेला बदमाश यहां की जुझारू जनता को नहीं हरा सकता. हमें ऐसे लोगों को रोकना है और जोरजुल्म से इन गरीबों की हिफाजत करनी है.’’

यह सुन कर अर्जुन को कुछ उम्मीद बंधी. भीड़ भी एकमत थी बलदेव प्रसाद से. और लोगों की भी बीवियां तो खूबसूरत हैं कोलियरी में. अगर बदमाशों को न रोका गया तो न जाने कितने अर्जुन होंगे और कितनी परबतिया. देवेंद्रजी बोले, ‘‘भाइयो, आप सब की मदद से हम ने आज तक कई मामले निबटाए हैं. कभी बदनामी नहीं उठानी पड़ी. पर इस तरह के मियांबीवी वाले मामले में हम ने अब तक कभी हाथ नहीं डाला है, क्योंकि ऐसे मामलों में बड़ा जोखिम उठाना पड़ता है,’’

देवेंद्रजी भीड़ पर अपना रुतबा जमाते हुए बोले. भीड़ खुश हो गई. अर्जुन को उम्मीद बंधी कि अब देवेंद्रजी इस मामले को हाथ में ले रहे हैं तो वह जरूर कामयाब होें. पर खतरा? यह खतरे वाली बात कहां से पैदा हो गई. अर्जुन को थोड़ा शक हुआ. भीड़ के कान खड़े हो गए. ‘‘कैसा खतरा?’’

लगा कि बलदेव प्रसाद भी चकित था. ‘‘हम अगर जल्दबाजी में कोई कदम उठाएंगे तो हो सकता है कि वह बदमाश परबतिया को कोई नुकसान पहुंचा दे,’’ देवेंद्रजी ने कहा, ‘‘इसलिए हमें कतई जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए.’’ भीड़ को देवेंद्रजी की बातों में कुछ सार नजर आया.

उम्मीद बंधी. पर अर्जुन फिर निराशा से घिरने लगा था. गया प्रसाद उस की परबतिया को नुकसान पहुंचा सकता है, यह बात उस के दिमाग में घूम रही थी. उस का खून खौलने लगा.  अगर उस का बस चले तो… जैसे वह जंगल में लकड़ी काटा करता है, वैसे ही गया प्रसाद की गरदन पर कुल्हाड़ी चला दे.

पर, क्या करे?  नहींनहीं… वह बदमाश परबतिया को कोई नुकसान न पहुंचाए. वह दुष्ट तो उस के बच्चे को भी नुकसान पहुंचा सकता है. देवेंद्रजी शायद ठीक कह रहे हैं. कोई जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. मौका आने पर वह खुद ही निबट लेगा गया प्रसाद से.

अर्जुन का मन हुआ कि वह चिल्ला कर देवेंद्रजी से कह दे कि उसे कोई जल्दी नहीं है. बस, पार्वती और उस का बच्चा सहीसलामत रहे. ‘‘हांहां, आप ठीक ही कह रहे हैं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘उस जैसे दुष्टों का कोई भरोसा नहीं. लेकिन ऐसे दुष्टों को बताना ही होगा कि वे बसीबसाई घरगृहस्थी नहीं उजाड़ सकते. हां भाइयो, हम ऐसी धांधली नहीं चलने देंगे,’’ उस ने भीड़ को देखा. देवेंद्रजी के मुंह से अब एक नेता की आवाज उभरी, ‘‘हम गया प्रसाद को चेतावनी देना चाहते हैं कि वह अर्जुन की घरवाली परबतिया को बाइज्जत घर पहुंचाए और अपनी इस हरकत के लिए अर्जुन से माफी मांगे.’’

देवेंद्रजी के कहने के ढंग से लगा मानो गया प्रसाद वहीं भीड़ में दुबका हुआ उन की बातें सुन रहा हो. ‘बाइज्जत’ शब्द सभी के सामने एक बड़ा सवाल बन कर खड़ा हो गया.  परबतिया एक रात तो गया प्रसाद के घर में बिता ही चुकी है. अब भी उस की इज्जत बची होगी भला?

यह बात तो अर्जुन को भीतर ही भीतर मथे डाल रही थी. एक दर्द उभरा अर्जुन के मन में. यह क्या सोच गया वह? नहीं, परबतिया कैसी भी हो, उसे उस शैतान के चंगुल से छुड़ाना ही होगा. ‘‘और हम बता देना चाहते हैं कि…’’ देवेंद्रजी ने धमकी भरी आवाज में कहा, ‘‘अगर एक हफ्ते के भीतर इस बात पर अमल नहीं किया गया तो हमें कोई कड़े से कड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.’’

बलदेव प्रसाद ने भी अर्जुन को ढांढस बंधाया, ‘‘अब एक हफ्ते तक इंतजार करना ही पड़ेगा अर्जुन भाई, इसलिए अपने मन को कड़ा करो और जा कर नहाओ, खाओ. रात की ड्यूटी किए हो, थक गए होगे. हम सब तुम्हारा दुख समझते हैं.’’ भीड़ को एक बार फिर लगा कि देवेंद्रजी और बलदेव बड़े दयालु और दूसरों के दुख को अपना दुख समझने वाले इनसान हैं.

पहली बार अर्जुन ने कुछ कहा, ‘‘जो मरजी हुजूर. बस, आप लोगों का सहारा है. गरीब हूं, माईबाप,’’ कहतेकहते अर्जुन का गला भर आया. आगे बढ़ कर उस ने देवेंद्रजी के पैर छू लिए. ‘‘ठीक है, ठीक है,’’ देवेंद्रजी की आवाज में दया थी, करुणा थी,

‘‘अब, तुम निश्चिंत हो कर जाओ अर्जुन.’’ ‘‘हांहां, अर्जुन, अब चिंता की कोई बात नहीं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘अब तो देवेंद्रजी ने तुम्हारे मामले को अपने हाथों में ले ही लिया है. अब तो  हमारी और देवेंद्रजी की इज्जत का भी सवाल है.’’

देवेंद्रजी उठ कर अपने घर के भीतर चले गए. तमाशा खत्म हुआ तो भीड़ भी छंटने लगी. कुछ लोग देवेंद्रजी की प्रशंसा कर रहे थे. कुछ गया प्रसाद को कोस रहे थे. सभी जल्दीजल्दी अपने घरों की ओर बढ़ने लगे थे इस डर से कि कहीं इसी बीच उन की घरवालियां  भी किसी बदमाश के घर जा कर न बैठ गई हों.  न जाने कितने गया प्रसाद छिपे पड़े होंगे इस कोलियरी में. न जाने कितने निहत्थे अर्जुन, न जाने कितनी खूबसूरती का शाप झेलती औरतें. फिर देवेंद्र की वही चौपाल,

भीड़, तमाशा और सरेआम उछलती किसी मजदूर की इज्जत. एक हफ्ते के भीतर ही गया प्रसाद परबतिया को उस के बच्चे समेत बाइज्जत अर्जुन के घर पहुंचाने गया था. पर अर्जुन ने पार्वती को बहुत भलाबुरा कहा और उसे अपने घर पर रखने से इनकार कर दिया. इस अफवाह ने देवेंद्रजी की इज्जत को तो बढ़ाया, पर अर्जुन को सभी धिक्कारने लगे कि वह फिर बेवकूफी कर बैठा.

कुछ लोगों के विचार से अर्जुन ने जो किया वह ठीक ही किया. ऐसी बदचलन औरत को तो जिंदा ही जमीन में गाड़ देना चाहिए. गहनेकपड़े, रुपएपैसे सबकुछ तो वह गया प्रसाद के घर ही छोड़ आई थी. अर्जुन की जिंदगीभर की कमाई उस बदमाश को भेंट कर आई थी. अर्जुन को परबतिया का अचार तो डालना नहीं था, सो उस ने बिलकुल ठीक किया. परंतु एक खबर पूरी कोलियरी में बड़ी तेजी से फैली. कुछ लोग इसे अफवाह कह रहे थे, तो कुछ सौ फीसदी सच होने का दावा कर रहे थे.

दूसरी पार्टी के मजदूर नेता इस बात का जोरशोर से प्रचार कर रहे थे कि परबतिया जो गहनेकपड़े और रुपए अपने साथ लाई थी, उस में से देवेंद्रजी और बलदेव प्रसाद ने अपनेअपने हिस्से ले लिए हैं. यही नहीं, कुछ तो यहां तक कहते सुने गए कि भरी रात बलदेव प्रसाद और देवेंद्रजी गया प्रसाद के घर से मुंह काला कर के निकलते हुए भी देखे गए.

सचाई जो हो, पर इतना सच है कि परबतिया को अर्जुन ने अपने घर में घुसने तक नहीं दिया. बच्चे को भी नहीं रखा. बेचारी परबतिया बच्चे को साथ लिए कहां जाए? गया प्रसाद के यहां वह खुद गई थी या जबरन ले जाई गई थी, यह  भी किसी ने नहीं पूछा. उस पर क्या गुजरी, यह जानने की किसी ने जरूरत ही नहीं समझी.  अर्जुन के साथ हमदर्दी जताने के लिए तो अच्छीखासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी, पर ‘परबतिया’ को कौन पूछे? औरत जो ठहरी बेचारी. और उस पर भी बदचलन होने का ठप्पा जो लग चुका था.

बेटी की चिट्ठी: क्या था पिता का स्मृति के खत का जवाब

प्यारे पापा, नमस्ते.

सभी बच्चों की वरदियां बन गई हैं, पर मेरी अभी तक नहीं बनी है. मैडम रोज डांटती हैं. किताबें भी पूरी नहीं खरीदी हैं. जो खरीदी हैं, उन पर भी मम्मी ने खाकी जिल्द नहीं चढ़ाई है. अखबार की जिल्द लगाने के लिए मैडम मना करती हैं. कोई भी बच्चा अखबार की जिल्द नहीं चढ़ाता.

आप जल्दी घर पर आएं और वरदी व जिल्द जरूर लाएं. मम्मी ने मुझे जो टीनू की पुरानी वरदी दी थी, वह अब छोटी हो गई है. कई जगह से घिस भी गई है. मम्मी की आंख में दर्द रहता है.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरे जूते और जुराबें फट गई हैं. मां ने जूते सिल तो दिए थे, मगर उन में अंगूठा फंसता है. ऐसे में दर्द होता है. मैडम कहती हैं कि जूते छोटे पड़ गए हैं, तो नए ले लो. ये सारी उम्र थोड़े ही चलेंगे. मेरे पास ड्राइंग की कलर पैंसिलें नहीं हैं. रोजरोज बच्चों से मांगनी पड़ती हैं. आप घर आते समय हैरी पौटर डब्बे वाली कलर पैंसिलें जरूर लाना.

हमारे स्कूल में फैंसी बैग कंपीटिशन है, पर मेरा तो बैग ही फट गया है. आप एक अच्छा सा बैग भी जरूर ले आना, नहीं तो मैं उस दिन स्कूल नहीं जाऊंगी.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

हमारे स्कूल का एनुअल फंक्शन 15 दिन बाद है. सभी बच्चे कोई न कोई प्रोग्राम दे रहे हैं. मुझे भी देना है. कोई अच्छी सी ड्रैस ले आना. मम्मी के सिर में दर्द रहता है. डाक्टर ने बताया कि चश्मा लगेगा, तभी दर्द ठीक होगा. उन की नजर बहुत कमजोर हो गई है.

सभी बच्चों ने गरम वरदियां ले ली हैं. ठंड बढ़ गई है. गरमी वाली वरदी रहने दें, अब सर्दी वाली वरदी ही ले आएं. मम्मी ने इस बार भी अखबार की जिल्द चढ़ाई थी. मैडम ने 10 रुपए जुर्माना कर दिया है. 2 महीने की फीस भी जमा करानी है. आप इस बार पैसे ले कर जरूर आना, नहीं तो मेरा नाम काट दिया जाएगा.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैडम ने कहा है कि स्कूल बस का किराया नहीं दे सकते, तो पैदल आया करो. कम से कम फीस तो हर महीने भेज दिया करो, नहीं तो किसी खैराती स्कूल में जा कर धूप सेंको. स्कूल में डाक्टर अंकल ने हमारा चैकअप किया था. मेरे नाखूनों पर सफेदसफेद धब्बे हैं. डाक्टर अंकल ने बताया कि कैल्शियम की कमी है. मम्मी की आंखें ज्यादा खराब हो गई हैं. वे दिनरात अखबार के लिफाफे बनाती रहती हैं. मैडम ने कहा है कि अगर घर पर कोई पढ़ा नहीं सकता, तो ट्यूशन रख लो.

पापा, आप घर वापस क्यों नहीं आते? मुझे आप की बड़ी याद आती है. मम्मी कहती हैं कि आप रुपए कमाने गए हो, फिर भेजते क्यों नहीं?

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैं ने ट्यूशन रख ली है, मगर आप पैसे जरूर भेज देना. अगले महीने से इम्तिहान शुरू हो रहे हैं. सारी फीस देनी होगी. आप वरदी नहीं लाए. मुझे ठंड लगती है. मैडम कहती हैं कि यह लड़की तो ठंड में मर जाएगी. क्या मैं सचमुच मर जाऊंगी?

पापा, ट्यूशन वाले सर भी रुपए मांग रहे हैं. वे कहते हैं कि जब रुपए नहीं हैं, तो पढ़ क्यों रही हो? किसी के घर जा कर बरतन साफ करो. हां पापा, मुझे ड्राइवर अंकल ने स्कूल बस से नीचे उतार दिया. आजकल पैदल ही स्कूल जा रही हूं. पढ़ने का समय नहीं मिलता. हमारी गाय भी थोड़ा सा दूध दे रही है. मम्मी कहती हैं कि चारा नहीं है. लोगों के खेतों से भी कब तक लाते रहेंगे.

पापा, आप हमारी बात क्यों नहीं सुनते?
आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरे सालाना इम्तिहान हो गए हैं. मां ने गाय बेच कर सारी फीस जमा करा दी. ट्यूशन वाले सर के भी रुपए दे दिए हैं. बाकी बचे रुपयों से मां के लिए ऐनक खरीदनी पड़ी. पिछले दिनों आए तूफान व बारिश से घर की छत उखड़ गई है.

पापा, आप खूब सारे रुपए ले कर जल्दी घर आएं, तब तक मेरे इम्तिहान का रिजल्ट भी निकल जाएगा. पापा, क्या आप को हमारी याद ही नहीं आती? हमें तो आप हर पल याद आते हैं.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरा रिजल्ट आ गया है. मैं अपनी क्लास में फर्स्ट आई हूं. मुझे बैग, जूते और वरदी लेनी है. और हां पापा, इस बार मैं पुरानी नहीं, नई किताबें लूंगी. पुरानी किताबों के कई पन्ने फटे होते हैं.

आजकल स्कूल में मेरी छुट्टियां चल रही हैं. सभी बच्चे बाहर घूमने जाते हैं. मैं भी मम्मी के साथ कागज के लिफाफे बनाना सीख रही हूं, ताकि इस बार मुझे स्कूल पैदल न जाना पड़े.

पापा, बारिश में छत से पानी टपकता है. बाकी बातें मैं आप के घर आने पर करूंगी. अब की बार आप घर नहीं आए, तो मैं आप को कभी चिट्ठी नहीं लिखूंगी. तब तक मेरी और आप की कुट्टी.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

स्मृति की लिखी इन सभी चिट्ठियों का एक बड़ा सा बंडल बना कर संबंधित डाकघर ने इस टिप्पणी के साथ उसे वापस भेज दिया, ‘प्राप्तकर्ता पिछले साल हिंदूमुसलिम दंगों में मारा गया, जिस की जांच प्रशासन ने हाल ही में पूरी की है, इसलिए ये सारी चिट्ठियां वापस भेजी जाती हैं.’

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