
उसी दिन जयेश की मुलाकात उसी लैब के इंचार्ज से हो गई, जिस लैब में आग लगने की दुर्घटना घटी थी. उस ने लैब इंचार्ज को सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘मैं आप को यह बताना चाहता हूं कि मैं अभी भी अपने अभियान पर कड़ी मेहनत कर रहा हूं. विज्ञान विभाग के लिए और अधिक ग्रांट प्राप्त करने के लिए. आप की लैब के उपकरणों के लिए भी.’’ लैब इंचार्ज ने उदासीनता से कहा, ‘‘मुझे दोपहर के प्रयोगों के लिए साधन जुटाने जाना है.’’ इस पर जयेश बोला, ‘‘निर्णायक जीत हासिल करने में आप जो कुछ भी मेरी मदद कर सकते हैं, वह कीजिए. लैब और प्रयोगशालाओं के उपकरणों के भविष्य का सवाल है.’’
लैब इंचार्ज ने उसी विरक्त भाव से कहा, ‘‘फैकल्टी को छात्र चुनाव में शामिल होने का अधिकार नहीं है.’’ जयेश बोला, ‘‘यह बात तो मुझे भी समझ आती है कि आप को तटस्थ बने रहना है. लेकिन आप को अपनी प्रयोगशाला के लिए नए उपकरण चाहिए और मैं भी यही चाहता हूं कि आप को ऐसी मदद मिले. हमारा लक्ष्य एक ही है. हमें एकदूसरे का साथ देना चाहिए.’’ ?लैब इंचार्ज बिना कुछ कहे वहां से चला गया. 2 दिनों के बाद, दोनों प्रतिद्वंद्वियों के बीच भरी सभा में वादविवाद रखा गया था. दोनों को अपनेअपने पक्षों को रखने का मौका था. प्रांगण खचाखच भरा हुआ था.
सारा महाविद्यालय उमड़ आया था. मस्ती का माहौल था. छात्रों में उत्साह था. हर्षोल्लास के साथ इस वादविवाद को देखने के लिए वे पहुंचे थे. चुनाव के इंचार्ज नीलेंदु सर ने माइक पर घोषणा की, ‘‘छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ रहे दोनों उम्मीदवार, अनुरंजन और जयेश, अपनाअपना तर्क आप के सामने रखेंगे. ये लोग आप के अपने छात्र प्रतिनिधि हैं, आप की समस्याओं का निवारण करने के लिए.
आप ही के द्वारा चुने जाएंगे. इसीलिए ये जो भी कहेंगे, उन्हें ध्यान से सुनिएगा और सुनने के बाद, सोचविचार कर के ही अपना प्रतिनिधि चुनें. आप में से अधिकांश के लिए यह बिलकुल नया अनुभव होगा. सार्वजनिक वक्ता के साथ कृपया किसी भी प्रकार का दुर्व्यवहार न करें. न तो उन का उपहास उड़ाएं, न ही आक्रामक टिप्पणियों से उन्हें बेमतलब परेशान करें.’’ फिर थोड़ा रुक कर उन्होंने कहा, ‘‘सब से पहले अपने विचार आप के सामने रखेंगे हमारे स्नातकोत्तर विद्यार्थी, अनुरंजन नावे.’’ अनुरंजन अपनी जगह से उठ कर माइक के सामने आया तो जोरदार तालियों के साथ उस का स्वागत किया गया. जैसे संपूर्ण महाविद्यालय का वह बेताज बादशाह हो. तालियों की गड़गड़ाहट धीमी पड़ी तो उस ने सब से पहले नीलेंदु सर को धन्यवाद दिया, ‘‘मैं नीलेंदु सर का शुक्रिया अदा करता हूं कि मुझे अपने विचार रखने के लिए उन्होंने यह मंच प्रदान किया. वादविवाद का आयोजन भी उन्होंने ही किया है.
अपने प्रिंसिपल रत्नेश्वर, जिन का पूरा समय सब की समस्याओं को दूर करने में निकल जाता है, हमारे महाविद्यालय के मेहनती अध्यापकगण और मेरे साथी छात्र और मित्रगण. यह मेरा सौभाग्य है कि आप में से अधिकांश को मैं अपना दोस्त कह सकता हूं. आप सभी शायद मेरे बारे में सबकुछ पहले से ही जानते हैं. इसीलिए मैं आप से अपने प्रतिद्वंद्वी के बारे में बात करना चाहता हूं. वह हमारे कालेज में नए विज्ञान उपकरणों की पैरवी कर रहा है.’’ यह सुन कर सभी वाणिज्य, कला और मैनेजमैंट के छात्र जोरों से हंस दिए. जयेश उस पर हो रहे सीधेसीधे आक्रमण से सुन्न हो गया था.
जब हंसी कम हुई तो अनुरंजन ने कहना शुरू किया, ‘‘भले ही यह अद्भुत बात लगती हो, लेकिन उसे ऐसा लगता है कि हमारा कालेज खेल पर अपना पैसा बरबाद करता है.’’ वहां मौजूद लगभग सभी छात्रों ने जयेश को हूट कर के अपनी नापसंदगी जाहिर की. जयेश चुपचाप बैठ अपना तिरस्कार होते देखता रहा. अनुरंजन ने जयेश पर अपना आक्रमण जारी रखा, ‘‘क्या हम वास्तव में एक ऐसे छात्र प्रतिनिधि को चुनना चाहते हैं, जो खेलों की परवाह नहीं करता है? जिस को क्रिकेट की परवाह नहीं…?’’ सभी छात्र जोरजोर से चिल्लाने लगे. जयेश को अपनेआप पर काबू पाना कठिन हो रहा था. सभी छात्र उस के खिलाफ हो रहे थे. अनुरंजन सभी छात्रों को उस के खिलाफ भड़काने में कामयाब हो रहा था.
अनुरंजन ने आगे कहा, ‘‘मुझे गर्व इस बात का है कि मैं खुद क्रिकेट खेलता हूं और मैं चाहता हूं कि खेलों में हमारे महाविद्यालय का आर्थिक सहयोग और बढ़े.’’ फिर उस ने थम कर कहा, ‘‘एक चीज और है, जिसे मैं क्रिकेट से ज्यादा पसंद करता हूं और वह है जगन्नाथ.’’ जाहिर है, उस का उल्लेख रांची के मशहूर जगन्नाथ मंदिर से था. उस के इतना बोलने पर सभी ने जोरों से तालियां बजाईं.
अनुरंजन ने जयेश पर अपने प्रहारों का अंत नहीं किया था, ‘‘मेरे मित्र जयेश के बारे में मैं आप को एक और दिलचस्प तथ्य बताता हूं. उस का ईश्वर में विश्वास नहीं है. न तो जगन्नाथ मंदिर ही वह कभी गया है, न ही पहाड़ी मंदिर.’’ अब तो छात्रगण बेहद नाराज हो गए. शिव शांति पथ पहाड़ी मंदिर, शिवजी का मंदिर था. उस मंदिर में न जाना, खुद एक अपराध था. अनुरंजन ने अपनी बात की समाप्ति करते हुए कहा, ‘‘आशा है कि अपना वोट डालते समय मेरी बताई इन बातों का आप पूरी तरह से ध्यान रखेंगे. धन्यवाद.’’ और तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के साथ वह वापस अपनी जगह पर आ बैठा. नीलेंदु ने माइक संभाला, ‘‘अनुरंजन के बाद मैं अपने दूसरे उम्मीदवार जयेश को आमंत्रित करता हूं कि वह आए और अपना पक्ष रखे कि क्यों उसे छात्र प्रतिनिधि बनाया जाना चाहिए?’’
जब जयेश अपनी जगह से उठ कर माइक के सामने आया तो सन्नाटा छा गया. किसी ने उस का तालियों से स्वागत नहीं किया. सिर्फ प्रसेनजीत और संदेश तालियां बजा कर उस की हौसलाअफजाई कर रहे थे. माइक के सामने आज सभी जयेश को अपने दुश्मन नजर आ रहे थे. आज सचाई की जीत नामुमकिन थी. अपनी बात को कितने ही सुनहरे तरीके से वह पेश करे, लेकिन जो कीचड़ उस पर पड़ चुकी थी, उसे साफ करना भयंकर कठिन कार्य जान पड़ता था, मानो उसे चक्कर सा आ रहा हो. अब कुछ भी कहना व्यर्थ था. सभी उस के खिलाफ भड़क चुके थे.
जयेश के पास अब कोई रास्ता नहीं बचा था. अपने विचारों के बल पर छात्रों को वापस अपने पक्ष में लाने की बात वह सोच भी नहीं सकता था. अगर वह झठ का सहारा न भी लेना चाहे तो भी अपने प्रतिद्वंद्वी के स्तर तक तो उसे आज गिरना ही पड़ेगा, वरना सालों तक अपमान झेलते रहना पड़ेगा और उस स्तर तक गिरने के लिए, उसे संदेश द्वारा खोजबीन कर प्राप्त हुए अनुरंजन के पृष्ठभूमि तथ्यों का इस्तेमाल करना ही पड़ेगा और कोई चारा नहीं था. यही सब सोच कर जयेश ने अपने भाषण की शुरुआत की, ‘‘मेरे प्रतिद्वंद्वी अनुरंजन नावे ने आप को मेरे बारे में बताया. अब मैं भी आप को उस के बारे में कुछ बताना चाहता हूं. ऐसी बात जो वह खुद नहीं बताना चाहता है.
शायद आप लोगों को पता नहीं कि अनुरंजन नावे का इतिहास क्या है. अनुरंजन, झरखंड का मूल निवासी नहीं है.’’ वहां बैठे सभी छात्र आपस में फुसफुसाने लगे. महाविद्यालय में लगभग सभी छात्र रांची से ही थे. जयेश ने अपना वक्तव्य जारी रखा, ‘‘मुझे तो इस बात का बेहद गर्व है कि मेरे पूर्वजों के भी पूर्वजों के नाम की यहां की जमीन का खतियान है. लेकिन मेरे विरोधी की रांची में तो क्या, पूरे झरखंड में कोई जमीन नहीं है, न ही उस के बापदादाओं की है या कभी थी.’’ प्रांगण में बैठे विद्यार्थियों में अब आपस में बोलचाल और बढ़ गई. जयेश ने कहा, ‘‘मैं शुद्ध झरखंडी हूं और हमारे राज्य की 9 क्षेत्रीय भाषाओं को पाठ्यक्रम में लागू करवाने का जिम्मा लेता हूं. यह काम मेरा प्रतिद्वंद्वी कभी न कर सकेगा, क्योंकि उसे तो यह भी नहीं पता है कि हमारे राज्य की ये 9 भाषाएं कौन सी हैं. उसे कभी इस राज्य में सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती, क्योंकि वह स्थानीय नहीं है. क्या आप ऐसे व्यक्ति को अपना वोट देना चाहोगे, जिस के भविष्य में इस राज्य से पलायन करना ही लिखा है?’’ विद्यार्थीगण अब तैश में आ गए थे. जयेश ने आगे कहा, ‘‘क्या बाहर वाला कभी हमारी ही तरह सोच पाएगा?
अनुरंजन नावे भले ही खेल प्रेमी हो और ईश्वर में विश्वास रखता हो, लेकिन उस का जन्म माधोपुर में हुआ था.’’ इसी बात का संदेश ने पता लगाया था. बाहरी राज्य के शहर का नाम सुन कर विद्यार्थी भड़क गए. जयेश ने उन्हें और भड़काया, ‘‘आप को ऐसा नहीं लगता कि रांची के प्रमुख महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि, रांची या कम से कम झरखंड का होना चाहिए, ताकि आप की सोच और उस की सोच मेल खाती हो?’’ छात्रों की भीड़ में अब होहल्ला मच रहा था. जयेश ने उस शोर के ऊपर जोर से माइक में कहा, ‘‘मेरे विरोधी ने झरखंड में तब पहली बार कदम रखा, जब अपनी बीएससी की पढ़ाई करने के लिए वह यहां आया था. उस को न तो राज्य से जुड़ी समस्याओं की सूझबूझ है, न ही प्रांतीय लोगों की समझ. हमारी राज्य सरकार ऐसे लोगों को अपने राज्य का हिस्सा नहीं मानती और आप उसे अपना वोट देना चाहते हो?
अगर आप ने ऐसा किया तो आप राज्य सरकार के कानून के खिलाफ वोट करोगे. झरखंड के मूल निवासी के लोगों के अधिकार हमें सुरक्षित रखने हैं. हम बाहर वालों को ऐसी जिम्मेदारी सौंप कर यह गलती नहीं कर सकते. ‘‘याद रखिएगा कि हमारे अधिकारों की रक्षा करने वाली जितनी भी संस्थाएं हैं, वे सभी हमेशा मेरा साथ देंगी, लेकिन मेरे विरोधी का वे कभी भी साथ नहीं देंगी. ‘‘अगर आप चाहते हैं कि हम अपने अधिकारों की रक्षा करने वाली संस्थाओं के साथ जुड़े रहें तो अपना वोट आप मुझे ही देंगे.’’ इतना कह कर जयेश वापस अपनी जगह पर आ कर बैठ गया. जबरदस्त तालियों के साथ जयेश का नाम गूंजने लगा. नीलेंदु ने वादविवाद के समापन की घोषणा की. अगले ही दिन चुनाव थे. कुछ ही दिनों में चुनाव के नतीजे आ गए. जयेश को भारी बहुमत की प्राप्ति हुई और वह अपने महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि बन गया.
प्रसेनजीत ने नाराजगी से संदेश से कहा, ‘‘तुम्हें पूरी बात नहीं पता है.’’ संदेश बोला, ‘‘मुझे तो यही लगता है.’’ प्रसेनजीत ने जयेश का मनोबल कायम रखने के लिए कहा, ‘‘जीत हो या हार, मुझे तो इस बात की ही खुशी है कि तुम कोशिश कर रहे हो.’’ जयेश को शायद और प्रोत्साहन की जरूरत थी, ‘‘लेकिन तुझे ऐसा लगता है कि मैं जीतूंगा?’’ प्रसेनजीत ने कहा, ‘‘मुझे तो यही लगता है कि यह जीत निश्चित रूप से संभव है.’’ संदेश ने हुंकार भरी. प्रसेनजीत ने संदेश को अनदेखा कर जयेश से पूछा, ‘‘क्या तेरे पास अपने अभियान की कोई रणनीति है?’’ जयेश ने इस बारे में अभी सोचा नहीं था, ‘‘नहीं.’’ प्रसेनजीत बोला, ‘‘कोई ऐसा नारा है, जो एकदम आकर्षक हो?’’ जयेश ने फिर कहा, ‘‘नहीं.’’ प्रसेनजीत ने जयेश को समझते हुए कहा, ‘‘हमारी एक आंटी हैं, वृंदा कड़वे.
वे हमारे इलाके का कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. मैं उन से बात करवा सकता हूं तुम्हारी.’’ प्रसेनजीत ने तुरंत अपने मोबाइल फोन से वृंदा कड़वे को फोन लगाया, ‘‘आंटी, मैं प्रसेनजीत.’’ वृंदा ने आतुर हो कर कहा, ‘‘हां, बोलो बेटा, क्या बात है?’’ प्रसेनजीत ने स्थिति समझई, ‘‘मेरा एक मित्र छात्र संघ के लिए चुनाव लड़ रहा है. वह उम्मीद कर रहा है कि आप उसे कुछ सलाह दे सकती हैं.’’ प्रसेनजीत ने जयेश को मोबाइल थमा दिया. वृंदा ने पूछा, ‘‘बेटा, तुम कभी फेल हुए हो क्या?’’ जयेश एक पल के लिए यह प्रश्न सुन कर चौंक गया. फिर संभल कर उस ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं, मैं हमेशा अव्वल दर्जे में पास हुआ हूं और मैं हमेशा सभी के साथ तमीज से पेश आता हूं. अपने व्यवहार के बारे में आज तक मैं ने किसी को कुछ कहने का मौका नहीं दिया है.’’ कारपोरेटर होने के कारण वृंदा कडवे सफाई को बेहद महत्त्व देती थीं, ‘‘तुम अपने आसपास स्वच्छता रखते हो?’’
जयेश ने जोश में कहा, ‘‘गंदगी तो मुझे सर्वथा पसंद नहीं. आप तो खुद कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. क्या आप चुनाव जीतने के बारे में मुझे कुछ सलाह दे सकती हैं?’’ वृंदा ने अपने अनुभव से कहा, ‘‘सब से महत्त्वपूर्ण बात है, बाहर निकलना और लोगों से जुड़ना.’’ जयेश को यह थोड़ा मुश्किल कार्य लगा. वह विज्ञान का छात्र था. वह बोला, ‘‘मुझे लोगों से बहुत लगाव नहीं है.’’ कारपोरेटर वृंदा को अच्छे से इस बात का महत्त्व पता था, ‘‘ठीक है, तुम को उस पर काबू पाने की आवश्यकता हो सकती है.’’ जयेश ने इस के आगे का कदम जानना चाहा, ‘‘मान लें कि मैं यह कर सकता हूं. मैं उन से कैसे जुड़ं ू?’’ कारपोरेटर वृंदा बोली, ‘‘तुम्हारे लिए तो सब से अच्छी शुरुआत करने का तरीका है, सब के साथ दोस्ताना बना कर उन से हाथ मिलाओ.’’ हाथ मिलाने के नाम से ही जयेश के हाथ सिकुड़ गए. अगले कुछ दिनों में जयेश ने अपना अभियान चलाया. उस ने महाविद्यालय में जगहजगह पोस्टर लगवाए. सभी छात्रों से बातचीत की और उन्हें बताया, ‘‘मेरा नाम जयेश है और मैं छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ रहा हूं.’’ प्रसेनजीत और संदेश ने उस का भरपूर साथ दिया. हर जगह, हर विभाग में पोस्टर दिखने लगे, ‘छात्र प्रतिनिधि के लिए जयेश को वोट दीजिए.’ सभी से मिलते समय जयेश ने उन्हें एकएक पेन देना उचित समझ. थोक में खरीदने पर हर पेन की कीमत महज 5 रुपए पड़ी. ऐसे में अनजाने में उस की मुलाकात अपने प्रतिद्वंद्वी अनुरंजन नावे से हो गई. वाणिज्य विभाग की ओर जाते समय जयेश ने एक लंबे से युवक को जब पेन थमाते हुए कहा, ‘‘मैं जयेश हूं. मैं छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ रहा हूं.’’ इस पर उस युवक ने मुसकराते से कहा, ‘‘आखिरकार तुम से मुलाकात हो ही गई.’’ बड़े ही गर्मजोशी के साथ जयेश से हाथ मिला कर कहा, ‘‘मैं अनुरंजन नावे.’’ जयेश ने अपने विरोधी पक्ष पर गौर किया. उसे गौर से देखता देख अनुरंजन ने विस्मय से पूछा, ‘‘इस पेन का क्या करना है?’’ जयेश ने अस्पष्ट तरीके से कहा, ‘‘जो भी असाइनमैंट हम को करने के लिए मिलते हैं, वे इस से कर सकते हैं. मुझे अपने शिक्षकों के दिए हुए असाइनमैंट न केवल अच्छे लगते हैं, बल्कि उन्हें करने में भी मजा आता है.’’ अनुरंजन ने मुसकराते हुए पैन ले लिया और कहा, ‘‘हम में से जो श्रेष्ठ है, उसी की जीत होगी.’’ और पैन ले कर वहां से चल दिया. शाम को जयेश ने यह बात प्रसेनजीत को बताई, ‘‘वह वाकई में बहुत अच्छी तरह से पेश आया. उस का स्वभाव मुझे अच्छा ही लगा.’’ तभी संदेश बोला, ‘‘तभी तो वह लोकप्रिय है.’’ प्रसेनजीत ने एक और रणनीति को कार्यान्वित किया, ‘‘अब ढेर सारे चौकलेट ले लेते हैं. चौकलेट सभी को पसंद आते हैं.
इस से बाकियों के साथ आत्मीयता बढ़ेगी.’’ संदेश ने हामी भरी, ‘‘अच्छा तरीका है.’’ जयेश बोला, ‘‘अब मुझे समझ में आ रहा है कि अमीर व्यक्ति लोगों का वोट कैसे खरीद सकते हैं.’’ परंतु अगले दिन जब जयेश महाविद्यालय पहुंचा तो उसे जैसे झटका लगा. हर विभाग में उस के चित्र समेत पोस्टर लगे थे, जिन पर लिखा था, ‘जयेश को वोट देने का मतलब है ज्यादा असाइनमैंट और ज्यादा पढ़ाई.’ पोस्टर में नीचे इस प्रकार से लिखा था, ‘जयेश : ‘‘मुझे असाइनमैंट अच्छे लगते हैं.’’ अगर आप को और असाइनमैंट नहीं चाहिए तो अनुरंजन नावे को वोट दीजिए.’ यह देख जयेश सकते में आ गया. उस ने पोस्टरों की लड़ी में से एक पोस्टर निकाल कर हाथ में ले लिया. रातोंरात अपने विरोधी पक्ष को अपने से ऊपर होता देख वह दंग रह गया. उस के ही मुंह से निकले हुए शब्द थे ये. वाणिज्य और कला के विद्यार्थी कहां असाइनमैंट जैसी चीज को पसंद करने वाले थे. अनुरंजन नावे ने उस की यह बात पकड़ कर उसे इन दोनों विभागों के छात्रों से विमुख कर दिया था. मैनेजमैंट के छात्र भी कहां अधिक पढ़ाई चाहते थे और रही बात विज्ञान के छात्रों की तो वे भी ज्यादा बोझ तले नहीं जीना चाहते थे.
कुल मिला कर असाइनमैंट या गृहकार्य ही कोई नहीं चाहता था और अधिक की तो बात ही नहीं बनती. उस के विरोधी ने अपने हाथ खोल दिए थे. जयेश समझ गया कि उस का विरोधी किस हद तक जा सकता है. ऐसा काम कम से कम वह तो कभी न करता. प्रसेनजीत ने जब वह पोस्टर देखा तो जयेश से कहा, ‘‘बहुत दुर्भाग्य की बात है.’’ जयेश ने कट्टरता से कहा, ‘‘दुर्भाग्य नहीं, बिलकुल अनुचित व्यवहार है.’’ प्रसेनजीत बोला, ‘‘तुम ने ये क्यों उस से कह दिया कि असाइनमैंट करना तुम को अच्छा लगता है?’’ जयेश बोला, ‘‘मैं ने तो ऐसे ही कह दिया था. मैं तो ऐसे ही सभी से यह कहता रहता हूं. मुझे थोड़े ही पता था…’’ प्रसेनजीत बोला, ‘‘चुनाव के इंचार्ज नीलेंदु सर से शिकायत दर्ज कर के कोई फायदा नहीं है.’’ जयेश उन से कहने लगा, ‘‘लेकिन उस ने मेरे कथन को संदर्भ से बाहर कर दिया है और मेरे खिलाफ इस का इस्तेमाल कर रहा है.’’ प्रसेनजीत जयेश को समझते हुए बोला, ‘‘कितनों को तुम संदर्भ बताते फिरोगे.’’ तभी संदेश भी वहां आ पहुंचा. सारा मसला उसे पता था. उस ने कहा, ‘‘राजनीति में ऐसा ही होता है.
विरोधी पक्ष वाले सत्य को इस तरह से रबड़ की तरह खींच कर पेश करते हैं कि उस का मूल अर्थ ही गायब हो जाए.’’ जयेश बोला, ‘‘वे लोग गंदे हैं.’’ प्रसेनजीत बोला, ‘‘वह तो है. लेकिन मुझे एक बात बताओ. तुम इस चुनाव को कितनी बुरी तरह से जीतना चाहते हो?’’ जयेश ने दृढ़ता से कहा, ‘‘अब तो किसी भी कीमत पर…’’ प्रसेनजीत बोला, ‘‘तो तुझे सख्त होने की जरूरत है. राजनीति कमजोरों के लिए नहीं है.’’ यह सुन कर जयेश बोला, ‘‘तुम यह सुझव दे रहे हो कि मैं ईंट का जवाब पत्थर से दूं?’’ प्रसेनजीत बोला, ‘‘यही करना होगा. जो हो गया, उस पर विचार करते रहने से बात नहीं बनेगी.’’ संदेश ने कहा, ‘‘हमें भी कुछ सोचना पड़ेगा.’’ प्रसेनजीत ने संदेश से कहा, ‘‘संदेश, हम तीनों में से सब से ज्यादा निष्ठुर तुम हो. मैं ने कई बार तुम्हें क्रिकेट के मैदान में चीटिंग करते हुए भी देखा है.’’
संदेश को इस इलजाम से कोई फर्क नहीं पड़ा, ‘‘तो..?’’ प्रसेनजीत बोला, ‘‘इस की जवाबी कार्यवाही में क्या करना चाहिए?’’ संदेश ने सोचते हुए कहा, ‘‘अनुरंजन नावे के बारे में हमें ज्यादा कुछ पता नहीं है. हमें मनगढ़ंत कुछ बनाना पड़ेगा.’’ जयेश ने सत्य के प्रयोग पर बल दिया, ‘‘मैं झठ का सहारा नहीं लूंगा.’’ संदेश बोला, ‘‘मैं छानबीन कर के पता लगाने की कोशिश करता हूं कि उस के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कुछ मिल सकता है क्या?’’ जयेश बोला, ‘‘मैं ने तय कर लिया है कि मैं उस के स्तर तक नहीं गिरना चाहता. अगर मैं अपने विचारों की गुणवत्ता पर नहीं जीत सकता तो अपने सिर को ऊंचा रख कर हार जाना पसंद करूंगा.’’ प्रसेनजीत ने फिर भी संदेश को अनुरंजन नावे की पृष्ठभूमि खंगालने की अनुमति दे दी.
जयेश ने प्रयोगशाला में बैक्टीरिया कल्चर को तैयार किया. सभी विद्यार्थियों को करना था. यह उन के बीएससी पाठ्यक्रम का हिस्सा था. भोजन के पश्चात दोपहर 2 बजे से प्रयोगशाला का सत्र होने से बहुतों को नींद आ रही थी. लैब अटैंडैंट प्रयोग की क्रियाविधि छात्रों को थमा कर वहां से गायब हो जाता था. लैब इंचार्ज भी लेटलतीफ था. जब स्लाइड पर बैक्टीरिया के धब्बों को बंसेन बर्नर पर गरम करने के लिए जयेश ने स्लाइड आगे बढ़ाई तो पता नहीं कैसे वहां रखे ब्लोटिंग पेपर के जरिए आग माइक्रोस्कोप तक पहुंच गई और यहांवहां के कुछ उपकरण भी आग की चपेट में आ गए.
तुरंत लैब में ही रखे अग्निशामक से विद्यार्थियों के द्वारा ही आग बुझ ली गई. किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा, लेकिन प्रयोगशाला के कुछ उपकरण ध्वस्त हो गए. जयेश को इस वारदात से गहरा आघात लगा. गलती उस की नहीं थी, अवमानक लैब उपकरण ही इस के जिम्मेदार थे. शाम को जब जयेश कालेज से वापस अपने घर जाने के लिए चल दिया तो कालेज के खेल के मैदान पर क्रिकेट खेलते छात्रों पर उस की नजर पड़ी. सभी के लिए कालेज वालों ने नई किट मंगाई हुई थी. उसे समझ नहीं आया कि कालेज वाले खेल पर इतना पैसा कैसे खर्च कर रहे थे, जबकि विज्ञान प्रयोगशाला में पुराने और जीर्णशीर्ण उपकरण रखे हुए थे. चाहे भौतिकी हो, चाहे रसायनशास्त्र या जीवविज्ञान प्रयोगशाला हो, सभी में रगड़े हुए औजार और उपकरण दिखते थे. ऐसा लगता था, जैसे वे अभी टूट जाएंगे. इस बारे में उस की बात जब अपने खिलाड़ी मित्र संदेश से हुई तो उस का मित्र हंस दिया. उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘रांची शहर में रहते हो तुम भैय्या…?’’ बात सही थी. रांची शहर में क्रिकेट का जनून था.
हिंदुस्तान का पूर्व कप्तान जिस शहर से रहा हो, वहां हर युवा क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहता था. जयेश उदास लहजे में बोला, ‘‘यह बिलकुल भी उचित नहीं है. यह महाविद्यालय है. शिक्षा उन की प्राथमिकता होनी चाहिए.’’ जयेश के एक और साथी प्रसेनजीत ने भी इस वार्त्तालाप में भाग लिया. उस ने जयेश का साथ देते हुए कहा, ‘‘बात बिलकुल बराबर है. महाविद्यालय का कार्य छात्रों को भविष्य के लिए तैयार करना है. आखिर इन छात्रों में से कितने पेशेवर खिलाड़ी बन पाएंगे?’’ संदेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘कम से कम हम तीनों में से कोई नहीं.’’ फिर जयेश को गंभीर देखते हुए संदेश ने पूछा, ‘‘लेकिन इन छात्रों में से कितने ऐसे हैं, जो वैज्ञानिक बनेंगे?’’ प्रसेनजीत ने वाजिब प्रश्न किया, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता है कि महाविद्यालय खेल के पैसों में से कुछ पैसा लैब को नवीनतम बनाने और सुचारू रूप से चलाने पर खर्च करे?’’ संदेश बोला, ‘‘हमारे शहर में…?’’ प्रसेनजीत कहने लगा, ‘‘70-80 के दशक का इतिहास पढ़ो. तब जब भी चीजों को बदलने की आवश्यकता पड़ती थी तो वे धड़ल्ले से विरोध प्रदर्शन करते थे.’’ संदेश कहने लगा, ‘‘इस मामले में किस चीज का विरोध करोगे भाई?’’ प्रसेनजीत ने जयेश को सुझव दिया, ‘‘शायद, तुम एक पत्र लिख सकते हो?’’
जयेश ने विचार करते हुए कहा, ‘‘मुझे लगता है कि मुझे औपचारिक रूप से शिकायत दर्ज करानी पड़ेगी. महाविद्यालय के बोर्ड और मैनेजमैंट से.’’ संदेश बोला, ‘‘क्या कहोगे तुम उन से?’’ जयेश बोला, ‘‘यही कि खेल का बजट बाकी के विभागों पर गलत असर छोड़ रहा है.’’ संदेश ने फिर हंसते हुए जयेश को समझने की कोशिश की, ‘‘हिंदुस्तान में लाखों शहर और गांव हैं, जहां ऐसी दलील चल सकती है. लेकिन ये रांची है भैय्या, इस बात का ध्यान रखना.’’ अगले ही दिन जयेश विश्वास के साथ प्रिंसिपल रत्नेश्वर के चैंबर में जा पहुंचा. प्रिंसिपल की मेज पर काफी कागजात बिखरे पड़े थे. उस ने सिर उठा कर आगंतुक को देखा, ‘‘क्या चाहिए?’’ जयेश ने अपना लिखा हुआ पत्र प्रिंसिपल के समक्ष कर दिया, ‘‘मैं ने औपचारिक शिकायत के रूप में महाविद्यालय के बोर्ड के नाम यह पत्र लिखा है.’’ प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने अपना चश्मा नीचे करते हुए अनमने से पत्र को निहारा, ‘‘क्या है इस में?’’ जयेश ने बे?िझक कहा, ‘‘यह पत्र इस बारे में है कि खेल पर हम कितना पैसा खर्च कर रहे हैं.
उम्मीद है कि आप इस पत्र को उन तक पहुंचा पाओगे.’’ प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने इसे बिना बात के आई मुसीबत समझ और बेमन से जयेश के हाथों से पत्र लिया, ‘‘लाओ दिखाओ.’’ उस ने आह भरी और पत्र के बीच में से कोई पंक्ति पढ़ने लगा, ‘‘क्रिकेट के खेल में जख्मी होने के आसार बहुत अधिक रहते हैं. खिलाडि़यों में भी गुस्सा भरा हुआ रहता है. विकेट न मिलने और रन न बना पाने की वजह से उत्कंठा से भरे रहते हैं…’’ प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने हैरतअंगेज हो कर जयेश से पूछा, ‘‘तुम को क्रिकेट पसंद नहीं है?’’ जयेश ने कोई जवाब नहीं दिया. रत्नेश्वर ने पत्र की अंतिम पंक्ति पढ़ी, ‘‘महाविद्यालय के पैसों का बेहतर उपयोग तब होगा, जब उसे विज्ञान और सीखने पर खर्च किया जाएगा.’’ प्रिंसिपल रत्नेश्वर ने अपने चश्मे के भीतर से जयेश को घूरा, ‘‘इस पत्र को मैं बोर्ड को दूंगा तो मेरा उपहास उड़ाएंगे.’’ उन्होंने जयेश को पत्र लौटा दिया और कहा, ‘‘मेरे पास यहां और गंभीर मसले हैं.’’ जयेश पत्र ले कर प्रिंसिपल के औफिस से बाहर आ गया. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि प्रिंसिपल के ऊपर भी वह स्वयं ही जाएगा. उसे ही यह कदम उठाना पड़ेगा. तब अचानक उस की नजर नोटिस बोर्ड पर पड़ी. वहां नोटिस लगा हुआ था कि जो भी छात्र संघ का हिस्सा बनना चाहते हैं, वे अपना नाम रजिस्टर करवाएं.
अगले हफ्ते चुनाव की तिथि दी गई थी. आकस्मिक रूप से इस नोटिस का सामने आ जाना जयेश को ऐसा प्रतीत हुआ, मानो ऊपर वाले की भी यही इच्छा हो. उस ने दृढ़ संकल्प बना लिया. बिना एक क्षण की देरी किए वह सीधे प्राध्यापक नीलेंदु के पास जा पहुंचा. प्राध्यापक होने की वजह से नीलेंदु के पास छोटा ही सही पर स्वयं का कमरा था. इस बात का उन्हें गर्व था. बाकी की फैकल्टी को अपनी जगहें साझ करनी पड़ती थीं. नीलेंदु ने अभ्यागत को निहारा, ‘‘क्या है?’’ जयेश ने पूछा, ‘‘सर, आप छात्र संघ चुनाव के इंचार्ज हैं?’’ नीलेंदु ने सांस छोड़ कर कहा, ‘‘हां, हूं.’’ जयेश ने कहा, ‘‘सर, मुझे महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ना है.’’ नीलेंदु ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, ‘‘सही में…?’’ जयेश बोला, ‘‘जी सर.’’ नीलेंदु ने विस्मय से कहा, ‘‘ठीक है.’’ उन्होंने एक रजिस्टर अपनी डैस्क से निकाला और उस में एंट्री करते हुए कहा, ‘‘लेकिन, मैं तुम्हें बता दूं कि तुम किस के विरुद्ध खड़े हो रहे हो – अनुरंजन नावे.’’ जयेश को कोई फर्क नहीं पड़ा, ‘‘तो…?’’ प्राध्यापक नीलेंदु ने कहा, ‘‘छात्र संघ में सभी उसे पसंद करते हैं.’’ जयेश इस बात से अनजान था. नीलेंदु ने पहली बार चुनाव लड़ने वाले इस छात्र का मनोबल परखना चाहा, ‘‘यह चुनाव लोकप्रियता पर निर्भर है.
दरअसल यह लोकप्रियता प्रतियोगिता होती है. जो ज्यादा लोकप्रिय होता है, वही जीतता है.’’ यह सुन कर जयेश की भौहें तन गईं. नीलेंदु ने और हथौड़े का प्रहार किया, ‘‘स्नातकोत्तर छात्र है अनुरंजन. कितने वर्ष गुजारे हैं उस ने इस महाविद्यालय में और तुम तो अभीअभी आए हो. तुम्हें तो कोई जानता तक नहीं. मुझे भी नहीं पता कि तुम कौन हो?’’ जयेश ने कठोरता से कहा, ‘‘चुनाव लोकप्रियता के बारे में नहीं होने चाहिए. उन्हें इस बारे में होना चाहिए कि किस के पास सब से अच्छे विचार हैं.’’ नीलेंदु ने मुंह बनाया, ‘‘और, तुम्हारे क्या विचार हैं?’’ जयेश ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘खेल पर कम खर्च और विज्ञान पर ज्यादा.’’ नीलेंदु उसे देखता रह गया. शाम को जब जयेश की मुलाकात अपने मित्रों से हुई तो उस ने उन्हें इस प्रकरण से अवगत कराया, ‘‘मैं ने निश्चय किया है कि छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ं ूगा.’’ प्रसेनजीत खुश होते हुए बोला, ‘‘बहुत बढि़या.’’ संदेश ने विस्मय से प्रसेनजीत से कहा, ‘‘तुम इसे बढ़ावा दे रहे हो? चुनाव में इस का पूरा भाजीपाला निकल जाएगा. बुरी तरह से शिकस्त मिलेगी.’’
बीच में एक छोटी सी रात है और कल सुबह 10-11 बजे तक राकेश जमानत पर छूट कर आ जाएगा. झोंपड़ी में उस की पत्नी कविता लेटी हुई थी. पास में दोनों छोटी बेटियां बेसुध सो रही थीं. पूरे 22 महीने बाद राकेश जेल से छूट कर जमानत पर आने वाला है.
जितनी बार भी कविता राकेश से जेल में मिलने गई, पुलिस वालों ने हमेशा उस से पचाससौ रुपए की रिश्वत ली. वह राकेश के लिए बीड़ी, माचिस और कभीकभार नमकीन का पैकेट ले कर जाती, तो उसे देने के लिए पुलिस उस से अलग से रुपए वसूल करती.
ये 22 महीने कविता ने बड़ी परेशानियों के साथ गुजारे. अपराधियों की जिंदगी से यह सब जुड़ा होता है. वे अपराध करें चाहे न करें, पुलिस अपने नाम की खातिर कभी भी किसी को चोर, कभी डकैत बना देती है.
यह कोई आज की बात थोड़े ही है. कविता तो बचपन से देखती आ रही है. आंखें रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर खुली थीं, जहां उस के बापू कहीं से खानेपीने का इंतजाम कर के ला देते थे. अम्मां 3 पत्थर रख कर चूल्हा बना कर रोटियां बना देती थीं. कई बार तो रात के 2 बजे बापू अपनी पोटली को बांध कर अम्मां के साथ वह स्टेशन छोड़ कर कहीं दूसरी जगह चले जाते थे.
कविता जब थोड़ी बड़ी हुई, तो उसे मालूम पड़ा कि बापू चोरी कर के उस जगह से भाग लेते थे और क्यों न करते चोरी? एक तो कोई नौकरी नहीं, ऊपर से कोई मजदूरी पर नहीं रखता, कोई भरोसा नहीं करता. जमीन नहीं, फिर कैसे पेट पालें? जेब काटेंगे और चोरी करेंगे और क्या…
लेकिन आखिर कब तक ऐसे ही सबकुछ करते रहने से जिंदगी चलेगी? अम्मां नाराज होती थीं, लेकिन कहीं कोई उपाय दिखलाई नहीं देता, तो वे भी बेबस हो जाती थीं.
शादीब्याह में वे महाराष्ट्र में जाते थे. वहां के पारधियों की जिंदगी देखते तो उन्हें लगता कि वे कितने बड़े नरक में जी रहे हैं.
कविता ने बापू से कहा भी था, ‘बापू, हम यहां औरंगाबाद में क्यों नहीं रह सकते?’
‘इसलिए नहीं रह सकते कि हमारे रिश्तेदार यहां कम वहां ज्यादा हैं और यहां की आबोहवा हमें रास नहीं आती,’ बापू ने कहा था.
लेकिन, शादी के 4-5 दिनों में खूब गोश्त खाने को मिलता था. बड़ी खुशबू वाली साबुन की टिकिया मिलती थी. कविता उसे 4-5 बार लगा कर खूब नहाती थी, फिर खुशबू का तेल भी मुफ्त में मिलता था. जिंदगी के ये 4-5 दिन बहुत अच्छे से कटते थे, फिर रेलवे स्टेशन पर भटकने को आ जाते थे.
इधर जंगल महकमे वालों ने पारधी जाति के फायदे के लिए काम शुरू किया था, वही बापू से जानकारी ले रहे थे, जिस के चलते शहर के पास एक छोटे से गांव टूराखापा में उस जाति के 3-4 परिवारों को बसा दिया गया था.
इसी के साथ एक स्कूल भी खोल दिया गया था. उन से कहा जाता था कि उन्हें शिकार नहीं करना है. वैसे भी शिकार कहां करते थे? कभी शादीब्याह में या मेहमानों के आने पर हिरन फंसा कर काट लेते थे, लेकिन वह भी कानून से अपराध हो गया था.
यहां कविता ने 5वीं जमात तक की पढ़ाई की थी. आगे की पढ़ाई के लिए उसे शहर जाना था.
बापू ने मना कर दिया था, ‘कौन तुझे लेने जाएगा?’
अम्मां ने कहा था, ‘औरत की इज्जत कच्ची मिट्टी के घड़े जैसी होती है. एक बार अगर टूट जाए, तो जुड़ती नहीं है.’
कविता को नहीं मालूम था कि यह मिट्टी का घड़ा उस के शरीर में कहां है, इसलिए 5 साल तक पढ़ कर घर पर ही बैठ गई थी. बापू दिल्ली या इंदौर से प्लास्टिक के फूल ले आते, अम्मां गुलदस्ता बनातीं और हम बेचने जाते थे. 10-20 रुपए की बिक्री हो जाती थी, लेकिन मौका देख कर बापू कुछ न कुछ उठा ही लाते थे. अम्मां निगरानी करती रहती थीं.
कविता भी कभीकभी मदद कर देती थी. एक बार वे शहर में थे, तब कहीं कोई बाबाजी का कार्यक्रम चल रहा था. उस जगह रामायण की कहानी पर चर्चा हो रही थी. कविता को यह कहानी सुनना बहुत पसंद था, लेकिन जब सीताजी की कोई बात चल रही थी कि उन्हें उन के घर वाले रामजी ने घर से निकाल दिया, तो वहां बाबाजी यह बतातेबताते रोने लगे थे. उस के भी आंसू आ गए थे, लेकिन अम्मां ने चुटकी काटी कि उठ जा, जो इशारा था कि यहां भी काम हो गया है.
बापू ने बैठेबैठे 2 पर्स निकाल लिए थे. वहां अब ज्यादा समय तक ठहर नहीं सकते थे, लेकिन कविता के कानों में अभी भी वही बाबाजी की कथा गूंज रही थी. उस की इच्छा हुई कि वह कल भी जाएगी. धंधा भी हो जाएगा और आगे की कहानी भी मालूम हो जाएगी.
बस, इसी तरह से जिंदगी चल रही थी. वह धीरेधीरे बड़ी हो रही थी. कानों में शादी की बातें सुनाई देने लगी थीं. शादी होती है, फिर बच्चे होते हैं. सबकुछ बहुत ही रोमांचक था, सुनना और सोचना.
उन का छोटा सा झोंपड़ा ही था, जिस पर बापू ने मोमजामा की पन्नी डाल रखी थी. एक ही कमरे में ही वे तीनों सोते थे.
एक रात कविता जोरों से चीख कर उठ बैठी. बापू ने दीपक जलाया, देखा कि एक भूरे रंग का बिच्छू था, जो डंक मार कर गया था. पूरे जिस्म में जलन हो रही थी. बापू ने जल्दी से कहीं के पत्ते ला कर उस जगह लगाए, लेकिन जलन खूब हो रही थी.
कविता लगातार चिल्ला रही थी. पूरे 2-3 घंटे बाद ठंडक मिली थी. जिंदगी में ऐसे कई हादसे होते हैं, जो केवल उसी इनसान को सहने होते हैं, कोई और मदद नहीं करता. सिर्फ हमदर्दी से दर्द, परेशानी कम नहीं होती है.
आखिर पास के ही एक टोले में कविता की शादी कर दी गई थी. लड़का काला, मोटा सा था, जो उस से ज्यादा अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन था तो वह उस का घरवाला ही. फिर वह बापू के पास के टोले का था, इसलिए 5-6 दिनों में अम्मां के साथ मुलाकात हो जाती थी.
यहां कविता के पति की आधा एकड़ जमीन में खेती थी. 8-10 मुरगियां थीं. लग रहा था कि जिंदगी कुछ अच्छी है, लेकिन कभीकभी राकेश भी 4-5 दिनों के लिए गायब हो जाता था. बाद में पता चला कि राकेश भी डकैती या बड़ी चोरी करने जाता है. हिसाब होने पर हजारों रुपए उसे मिलते थे.
कविता भी कुछ रुपए चुरा कर अम्मां से मिलने जाती, तो उन्हें दे देती थी.
‘‘रमियाजी, रुकिए,’’ कानों में मिश्री घोलता मधुर स्वर सुन कर कुछ देर के लिए रमिया ठिठक गई फिर अपने सिर को झटक कर तेज कदमों से चलते हुए सोचने लगी कि उस जैसी मामूली औरत को भला कोई इतनी इज्जत से कैसे बुला सकता है, जिस को पेट का जाया बेटा तक हर वक्त दुत्कारता रहता है और बहू भड़काती है तो बेटा उस पर हाथ भी उठा देता है. बाप की तरह बेटा भी शराबी निकला. इस शराब ने रमिया की जिंदगी की सुखशांति छीन ली थी. यह तो लाल बंगले वाली अम्मांजी की कृपा है जो तनख्वाह के अलावा भी अकसर उस की मदद करती रहती हैं. साथ ही दुखी रमिया को ढाढ़स भी बंधाती रहती हैं कि देवी मां ने चाहा तो कोई ऐसा चमत्कार होगा कि तेरे बेटाबहू सुधर जाएंगे और घर में भी सुखशांति छा जाएगी.
तभी किसी ने उस के कंधे पर हाथ स्वयं रखा, ‘‘रमिया, मैं आप से ही कह रही हूं.’’
हैरानपरेशान रमिया ने पीछे मुड़ कर देखा तो एक युवती उसे देख कर मुसकरा रही थी.
हकबकाई रमिया बोल उठी, ‘‘आप कौन हैं? मैं तो आप को नहीं जानती… फिर आप मेरा नाम कैसे जानती हैं?’’
युवती ने अपने दोनों हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा, ‘‘सब देवी मां की कृपा है. मेरा नाम आशा है और हमारी अवतारी मां पर माता की सवारी आती है. देवी मां ने ही तुम्हारे लिए कृपा संदेश भेजा है.’’
रमिया अविश्वसनीय नजरों से आशा को देख रही थी. उस ने थोड़ी दूर खड़ी एक प्रौढ़ महिला की तरफ इशारा किया जोकि लाल रंग की साड़ी पहने थी और उस के माथे पर सिंदूर का टीका लगा हुआ था.
रमिया के पास आ कर अवतारी मां ने आशीर्वाद की मुद्रा में अपना दायां हाथ उठाया. उन की आंखों से आंसू बहने लगे. उन्होंने रमिया को खींच कर अपने गले लगा लिया और बड़बड़ाने लगीं :
‘‘मैं जानती हूं कि तू बहुत दुखी है. तुझे न पति से सुख मिला न बेटेबहू से मिलता है. शराब ने तेरी जिंदगी को कभी सुखमय नहीं बनने दिया. लेकिन तेरी भक्ति रंग ले आई है. माता का संदेशा आया है. वह तुझ से बहुत प्रसन्न हैं. अब तेरा बेटा सोहन व तेरी बहू कमली तुझे कभी तंग नहीं करेंगे.’’
रमिया हतप्रभ रह गई. देवी मां चमत्कारी हैं यह तो उस ने सुना था पर उन की ऐसी कृपा उस अभागी पर होगी ऐसा सपने में भी उस ने नहीं सोचा था.
अवतारी ने मिठाई का एक डब्बा उसे देते हुए कहा, ‘‘क्या सोचने लगी? तुझे तो खुश होना चाहिए कि मां की तुझ पर कृपा हो गई है. और हां, मैं केवल माता के भक्तों से ही मिलती हूं, नास्तिकों से नहीं. चल, पहले इस डब्बे में से प्रसाद निकाल कर खा ले और इस में कुछ रुपए भी रखे हैं. तू इन रुपयों से अपनी नातिन ऊषा की शादी के लिए जो सामान खरीदना चाहे खरीद लेना.’’
आश्चर्य में डूबी रमिया ने भक्तिभाव से ओतप्रोत हो डब्बे की डोरी खोली तो उस में तरहतरह की मिठाइयां थीं. एक लिफाफे में 100 रुपए के 10 नोट भी थे. रमिया ने एक टुकड़ा मिठाई का मुंह में डाला और भावावेश में अवतारी के पैर छूने चाहे लेकिन वह तो जाने कहां गायब हो चुकी थीं.
रमिया की नातिन ऊषा का ब्याह होने वाला था. लाल बंगले वाली अम्मांजी ने दया कर के उसे 200 रुपए दे दिए थे. उसी से वह नातिन के लिए साड़ीब्लाउज खरीदने बाजार आई थी. पर यहां देवी कृपा से मिले रुपयों से रमिया ने नातिन के लिए बढि़या सी साड़ी खरीदी, एक जोड़ी चांदी की पायल व बिछुए भी खरीदे. उस के पास 400 रुपए बच भी गए थे. इस भय से रमिया सीधे घर नहीं गई कि बेटेबहू पैसा व सामान ले लेंगे.
सारा सामान अम्मांजी के पास रखने का निश्चय कर रमिया रिकशा कर के लाल बंगले पहुंच गई. उस ने बंगले की घंटी बजाई तो उसे देख कर अम्मांजी हैरान रह गईं.
‘‘रमिया, तू बाजार से इतनी जल्दी आ गई?’’
‘‘हां, अम्मांजी,’’ कहती वह अंदर आ गई. रमिया के हाथ में शहर के मशहूर मिष्ठान भंडार का डब्बा देख कर अम्मांजी हैरान रह गईं.
‘‘क्या तू ने नातिन के लिए सामान लाने के बजाय मेरे दिए पैसों से मंदिर में इतना महंगा प्रसाद चढ़ा दिया?’’
रमिया चहकी, ‘‘अरे, नहीं अम्मांजी, अब आप से क्या छिपाना है. आप तो खुद ‘देवी मां’ की भक्त हैं…’’ और फिर रमिया ने सारी आपबीती अम्मांजी को ज्यों की त्यों सुना दी.
रमिया की बात सुन कर सावित्री देवी चकित रह गईं. रमिया जैसी गरीब और मामूली औरत को भला कोई बेवकूफ क्यों बनाएगा…फिर इतना सबकुछ दे कर वह औरत तो गायब हो गई थी. निश्चय ही रमिया पर देवी की कृपा हुई है. पल भर के लिए सावित्री देवी को रमिया से ईर्ष्या सी होने लगी. वह कितने सालों से देवी के मंदिर जा रही हैं पर मां ने उन पर ऐसी कृपा कभी नहीं की.
सावित्री देवी पुरानी यादों में खो गईं. उन का बेटा मनोज 7वीं कक्षा में पढ़ता था. गणित की परीक्षा से एक दिन पहले वह रोने लगा कि मां, मैं ने गणित की पढ़ाई ठीक से नहीं की है और मैं कल फेल हो जाऊंगा.
‘बेटा, मेरे पास एक मंत्र है’ उन्होंने पुचकारते हुए कहा, ‘तू इस को 108 बार कागज पर लिख ले. तेरा पेपर जरूर अच्छा हो जाएगा.’
मनोज मंत्र लिखने लगा. थोड़ी देर बाद मनोज के पिता कामता प्रसाद फैक्टरी से आ गए. बेटे को गणित के सवाल हल करने के बजाय मंत्र लिखते देख वह गुस्से से बौखला उठे और जोर से एक थप्पड़ मनोज के गाल पर दे मारा. साथ ही पत्नी सावित्री को जबरदस्त डांट पड़ी थी.
‘देखो, तुम अपने मंत्रतंत्र, चमत्कार के जाल में उलझे रहने के बेहूदा शौक पर लगाम लगाओ. अपने बच्चे के भविष्य के साथ मैं तुम्हें किसी तरह का खिलवाड़ नहीं करने दूंगा. दोबारा ऐसी हरकत की तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’
उस दिन के बाद सावित्री ने मनोज को अपनी चमत्कारी सलाह देनी बंद कर दी थी. मनोज पिता की देखरेख में रह कर मेहनतकश नौजवान बन गया था. वहीं सावित्री की सोच ने उसे नास्तिक मान लिया था.
इस पर मीता उस की पीठ सहलाती हुई बोली, ‘‘देख, सब बात खुल कर बता. जो हो गया सो हो गया. अगर अब भी नहीं समझी तो बहुत देर हो जाएगी. हां, यह तू ने सही नहीं किया. एक बार भी नहीं खयाल आया तुझे अपने बूढ़े अम्माबाबा का? यह कदम उठाने से पहले एक बार तो सोचा होता कि तेरे पापा को तुझ से कितना प्यार है. उन के विश्वास का खून कर दिया तू ने. तेरी इस करतूत की सजा पता है तेरे भाईबहनों को भुगतनी पड़ेगी. तेरा क्या गया?’’
अब दीपा पूरी तरह से टूट चुकी थी. ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं ने जो भी किया, अपने प्यार के लिए, उस को पाने के लिए किया. मुझे नहीं मालूम यह एमएमएस कैसे बना? किस ने बनाया?’’
‘‘सारी बात शुरू से बता. कुछ छिपाने की जरूरत नहीं वरना हम कुछ नहीं कर पाएंगे. जिसे तू प्यार बोल रही है वह सिर्फ धोखा था तेरे साथ, तेरे शरीर के साथ, बेवकूफ लड़की.’’
दीपा सुबकते हुए बोली, ’’राहुल घर के सामने ही रहता है. मैं उस से प्यार करती हूं. हम लोग कई महीनों से मिल रहे थे पर राहुल मुझे भाव ही नहीं देता था. उस पर कई और लड़कियां मरती हैं और वे सब चटखारे लेले कर बताती थीं कि राहुल उन के लिए कैसे मरता है. बहुत जलन होती थी मुझे. मैं उस से अकेले में मिलने की जिद करती थी कि सिर्फ एक बार मिल लो.’’
‘‘लेकिन छोटा शहर होने की वजह से मैं उस से खुलेआम मिलने से बचती थी. वही, वह कहता था, ‘मिल तो लूं पर अकेले में. कैंटीन में मिलना कोई मिलना थोड़े ही होता है.’
‘‘एकदिन मम्मीपापा किसी काम से शहर से बाहर जा रहे थे तो मौके का फायदा उठा कर मैं ने राहुल को घर आ कर मिलने को कह दिया, क्योंकि मुझे मालूम था कि वे लोग रात तक ही वापस आ पाएंगे. घर में सिर्फ दादी थी और बाबा तो शाम तक अपने औफिस में रहेंगे. दादी घुटनों की वजह से सीढि़यां भी नहीं चढ़ सकतीं तो इस से अच्छा मौका नहीं मिलेगा.
‘‘आप को भी मालूम होगा कि हमारे घर के 2 दरवाजे हैं, बस, क्या था, मैं ने पीछे वाला दरवाजा खोल दिया. उस दरवाजे के खुलते ही छत पर बने कमरे में सीधा पहुंचा जा सकता है और ऐसा ही हुआ. मौके का फायदा उठा कर राहुल कमरे में था. और मैं ने दादी से कहा, ‘अम्मा मैं ऊपर कमरे में काम कर रही हूं. अगर मुझ से कोई काम हो तो आवाज लगा देना.’
‘‘इस पर उन्होंने कहा, ‘कैसा काम कर रही है, आज?’ तो मैं ने कहा, ‘अलमारी काफी उलटपुलट हो रही है. आज उसी को ठीक करूंगी.’
‘‘सबकुछ मेरी सोच के अनुसार चल रहा था. मुझे अच्छी तरह मालूम था कि अभी 3 घंटे तक कोई नौकर भी नहीं आने वाला. जब मैं कमरे में गई तो अंदर से कमरा बंद कर लिया और राहुल की तरफ देख कर मुसकराई.
‘‘मुझे यकीन था कि राहुल खुश होगा. फिर भी पूछ बैठी, ‘अब तो खुश हो न? चलो, आज तुम्हारी सारी शिकायत दूर हो गई होगी. हमेशा मेरे प्यार पर उंगली उठाते थे.’ अब खुद ही सोचो, क्या ऐसी कोई जगह है. यहां हम दोनों आराम से बैठ कर एकदो घंटे बात कर सकते हैं. खैर, आज इतनी मुश्किल से मौका मिला है तो आराम से जीभर कर बातें करते हैं.’’
‘‘नहीं, मैं खुश नहीं हूं. मैं क्या सिर्फ बात करने के लिए इतना जोखिम उठा कर आया हूं. बातें तो हम फोन पर भी कर लेते हैं. तुम तो अब भी मुझ से दूर हो.’’ मुझे बहुत कुठा…औरतों के साथ तो वह जम कर…था.
‘‘मैं ने कहा, ‘फिर क्या चाहते हो?’
‘‘राहुल बोला, ‘देखो, मैं तुम्हारे लिए एक उपहार लाया हूं, इसे अभी पहन कर दिखाओ.’
‘‘मैं ने चौंक कर वह पैकेट लिया और खोल कर देखा. उस में एक गाउन था. उस ने कहा, ‘इसे पहनो.’
‘पर…र…?’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.
‘‘‘परवर कुछ नहीं. मना मत करना,’ उस ने मुझ पर जोर डाला. ‘अगर कोई आ गया तो…’ मैं ने डरते हुए कहा तो उस ने कहा, ‘तुम को मालूम है, ऐसा कुछ नहीं होने वाला. अगर मेरा मन नहीं रख सकती हो, तो मैं चला जाता हूं. लेकिन फिर कभी मुझ से कोई बात या मिलने की कोशिश मत करना,’ वह गुस्से में बोला.
‘‘मैं किसी भी हालत में उसे नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैं ने उस की बात मान ली. और जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी.’’ बोलतेबोलते दीपा चुप हो गई और पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगी.
‘‘आगे बता क्या हुआ? चुप क्यों हो गई? बताते हुए शर्म आ रही है पर तब यह सब करते हुए शर्म नहीं आई?’’ मीता ने कहा.
पर दीपा नीची निगाह किए बैठी रही.
‘‘आगे बता रही है या तेरे पापा को बुलाऊं? अगर वे आए तो आज कुछ अनहोनी घट सकती है,’’ मीता ने डांटते हुए कहा.
पापा का नाम सुनते ही दीपा जोरजोर से रोने लगी. वह जानती थी कि आज उस के पापा के सिर पर खून सवार है. ‘‘बता रही हूं.’’ सुबकते हुए बोली, ‘‘जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी, तो राहुल ने मुझे अपनी तरफ खींच लिया.
‘‘मैं ने घबरा कर उस को धकेला और कहा, ‘यह क्या कर रहे हो? यह सही नहीं है.’ इस पर उस ने कहा, ‘सही नहीं है, तुम कह रही हो? क्या इस तरह से बुलाना सही है? देखो, आज मुझे मत रोको. अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो.’
‘‘‘तो क्या?’
रामरतन गुर्जर ने जब अपनेआप को कोतवाली थाने में थानेदार के ओहदे के लिए पेश किया, तो सीनियर कारकून ने उन्हें खुद की हाजिर रिपोर्ट ले कर जिला पुलिस अधिकारी उमेश दत्त के सामने हाजिर होने के लिए कहा.
साहब के कमरे में जाते ही रामरतन गुर्जर ने सेना के जवान की तरह उन्हें सैल्यूट किया और बोला, ‘‘मैं रामरतन गुर्जर थानेदार. ड्यूटी पर आज ही हाजिर हुआ हूं.’’
दत्त साहब, जो किसी फाइल में सिर गड़ाए पढ़ रहे थे, ने बड़े अनमने भाव से चेहरा उठा कर उस की तरफ देखा.
‘‘रामरतन गुर्जर…’’ दत्त साहब ने उस का नाम दोहराया, ‘‘थानेदार…’’ फिर उसे पैर से ले कर ऊपर तक बारीक नजरों से देखा और बोले, ‘‘पुलिस की नौकरी कितनी मुश्किल है, यह जानते हो न…’’
‘‘जी सर…’’ रामरतन बोला, ‘‘रातदिन जागना पड़ता है. लोगों की सेवा करनी पड़ती है. कानून तोड़ने वालों को जेल के हवाले करना पड़ता है. देश और जनता की सेवा के लिए जान को भी जोखिम में डालना पड़ता है.’’
रामरतन के आत्मविश्वास को देख कर दत्त साहब प्रभावित हो गए, ‘‘काफी जोश है तुम में…’’ दत्त साहब ने तारीफ की, ‘‘पुलिस डिपार्टमैंट बदनाम हो रहा है. लोग हमें भ्रष्ट कह कर गाली देते हैं, घूसखोर कहते हैं. हमारी ऐसी इमेज को मिटाने के लिए तुम क्या करोगे?’’ दत्त साहब ने बड़ा जोर दे कर पूछा.
‘‘मैं ने ठान लिया है सर, मैं रिश्वत हरगिज नहीं लूंगा, एक पैसा नहीं,’’ रामरतन ने बड़े गर्व से कहा. फिर उस ने देखा कि दत्त साहब के चेहरे के भाव बदलने लगे हैं. वे गहरी सोच में डूबने लगे हैं.
‘‘थानेदार की नौकरी करना और रिश्वत न लेना कितना मुश्किल काम है, यह तुम जानते हो न?’’ दत्त साहब ने अपने तेवर कड़े करते हुए पूछा, ‘‘हर कोई जब पुलिस में भरती होता है, तो यही ईमानदारी की कसम खाता है, मगर जैसे ही नौकरी शुरू करता है, सबकुछ भूल कर रिश्वत लेना शुरू कर देता है. तुम भी कुछ दिन ईमानदार रहोगे, फिर औरों की तरह घूस खाना शुरू कर दोगे.’’
‘‘आप मेरे जमीर का इम्तिहान ले रहे हैं सर…’’ कह कर रामरतन हंस पड़ा, ‘‘अभी से क्या कहूं? मुझे अपना फर्ज निभाने दो. मैं अपने कहे पर टिके रहने की कोशिश करूंगा.’’
‘‘क्या खाक कोशिश करोगे…’’ अब दत्त साहब के चेहरे पर गंभीरता आने लगी थी, ‘‘यहां थानेदार से ले कर आईजी… यहां तक कि मंत्री तक को हफ्ता पहुंचाना पड़ता है. तुम बिना रिश्वत लिए अपने बड़े साहब को खुश कैसे करोगे?’’
‘‘माफ करना सर…’’ रामरतन ने कहा, ‘‘आप मेरा जोश कम कर रहे हैं. आप जैसे अफसरों को तो रिश्वत के खिलाफ होना चाहिए. हमें रिश्वत न लेने की सलाह देनी चाहिए. यह कह कर डराना चाहिए कि अगर हम रिश्वत लेते पकड़े गए, तो हमें नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा.’’
‘‘ये सब बातें सिनेमा के परदे पर दिखाई देती हैं…’’ दत्त साहब अब उग्र हो गए, ‘‘असलियत अलग है. हमें अगर सुखचैन से जीना है, अपने परिवार को ठीक से पालना है, तो रिश्वत लेनी ही पड़ेगी.
‘‘तुम अपनी मामूली सी तनख्वाह में से क्याक्या करोगे? कहां से लाओगे मोटरसाइकिल, रहने को घर, बच्चों की प्राइवेट स्कूल की फीस और बड़े होने पर विदेश भेजने का खर्च? यह सब ऊपर की कमाई से ही तो होगा न?’’
रामरतन चुप हो गया. वह समझ नहीं पाया कि साहब ऐसा क्यों कह रहे हैं? उस ने तो सोचा था कि साहब उसे यही हिदायत देंगे कि रिश्वत कभी मत लेना, ईमानदारी से नौकरी करना. फिर अगर बड़े अफसर ही रिश्वत लेने की तरफदारी करने लगेंगे, तो छोटे थानेदार कैसे सुधरेंगे? पूरा डिपार्टमैंट बदनामी से कैसे बचेगा? फिर भी नौकरी के पहले ही दिन साहब से उलझना उस ने ठीक नहीं समझा.
‘‘आप ठीक कह रहे हैं साहब. मगर…’’ उस ने रुक कर सहमते हुए कहा, ‘‘मैं ने कई रिश्वतखोर पुलिस वालों को बेमौत मरते देखा है. जितने ज्यादा रिश्वतखोर, उतने ज्यादा पियक्कड़ और औरतखोर. रिश्वत का पैसा भी नहीं बचता. उन्हें लाइलाज बीमारियों से जूझते देखा है. उन के बच्चों को भरी जवानी में महंगी कार, जो रिश्वत के पैसे से खरीदी थी, को शराब पी कर चलाते हुए सड़क हादसों में मरते हुए देखा है.
‘‘अच्छेखासे परिवार को बिखरते हुए देखा है, क्योंकि उन की पत्नियां ऐश तो करती हैं, पर पति की ढीली पतलून से दुखी रहती हैं. कइयों को जेल जाते देखा है. सबकुछ होते हुए भी दुख में डूबते हुए देखा है. यह तो कुदरत का इंसाफ है.
‘‘सिर्फ हमारे पुलिस डिपार्टमैंट के लिए ही नहीं, सभी के लिए. हराम की कमाई आज नहीं तो कल हमारा सारा सुखचैन छीन लेती है.’’
दत्त साहब रामरतन की तरफ चुपचाप देखते ही रहे. रामरतन शायद पहला ऐसा थानेदार था, जिस ने उन से इतनी दलील की थी, वरना हर पुलिस वाला उन की बात को मन ही मन मान कर एक रिश्वतखोर पुलिस वाला ही बन जाता था.
उन्होंने खड़े हो कर रामरतन से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा स्वागत है. शुभकामनाएं. उम्मीद है कि तुम्हारे ऊंचे खयाल हमारे डिपार्टमैंट की खोई हुई इज्जत वापस दिलाएंगे.’’
रामरतन के जाने के बाद दोपहर को उन्होंने पुलिस अफसर ओम माथुर को बुला कर कहा, ‘‘बहुत दिनों बाद हमारे थाने में एक ईमानदार थानेदार आया है. कहता है कि कभी घूस नहीं लेगा. कहता है कि उस ने कई घूसखोर पुलिस वालों को बेमौत मरते देखा है. शुरू में उस से बच कर रहना.’’
‘‘आप फिक्र मत कीजिए सर…’’ कहते हुए ओम माथुर हंस दिया, ‘‘हमारे डिपार्टमैंट में जो रिश्वत नहीं लेता, वह खुद ही रिश्वत में फंस जाता है…’’ फिर उस ने जातेजाते कहा, ‘‘अगर हमारे साथ हो लेता है तो ठीक है, वरना जेल की हवा तो उसे खानी ही है.’’
दत्त साहब भी सोचने लगे, ‘कैसेकैसे पागल अपनी ईमानदारी को ले कर पुलिस में भरती हो जाते हैं, फिर उसी ईमानदारी को दफन कर के रिश्वतखोरी में डूब जाते हैं.’
कुछ हफ्ते बाद एक रात जब दत्त साहब गहरी नींद में सो रहे थे, तभी उन्हें उन की बीवी ने जगाया, ‘‘उठिए, आप का फोन बज रहा है.’’
दत्त साहब ने अपना मोबाइल फोन उठाया, ‘‘क्या… एक्सीडैंट… पुलिस वैन का…’’ इस के बाद वे सुनते रहे और उन के चेहरे पर चिंता और खौफ की लकीरें साफ होने लगीं, ‘‘सभी मारे गए… सिर्फ एक को छोड़ कर…’’ फिर वे कुछ देर तक ध्यान से सुनते रहे, ‘‘सिर्फ रामरतन गुर्जर ही बचा…’’
दत्त साहब तुरंत तैयार हो कर अपनी गाड़ी में सिविल अस्पताल पहुंच गए. वहां उन्होंने अपने 6 पुलिस वालों की लाश की शिनाख्त की. पुलिस वैन में एक सबइंस्पैक्टर और 5 थानेदार सवार थे, और सिर्फ एक थानेदार बचा था रामरतन.
दत्त साहब ने आईसीयू में भरती रामरतन की खबर ली. वह बेहोश था.
डाक्टर ने कहा, ‘‘मरीज अब खतरे से बाहर है. सिर पर मामूली चोट लगी थी. यह चमत्कारिक तौर पर बच गया, वरना इस के साथ वालों के तो चेहरों की पहचान ही मुश्किल है.’’
‘‘आप ठीक कहते हैं डाक्टर साहब,’’ दत्त साहब ने गरदन हिलाई, फिर उन्होंने घूरघूर कर रामरतन के शांत चेहरे की तरफ देखा. उन्हें लगा मानो वह बोल रहा है, ‘मैं ने कई पुलिस वालों को बेमौत मरते देखा है…’
डाक्टर ने बताया कि रामरतन के अलावा सब नशे में चूर थे. गाड़ी में शराब के 20 कार्टन थे. सुलगती सिगरेट से एक कार्टन में आग लग गई, तो रामरतन गाड़ी से कूद गया, पर बाकी धमाके के शिकार हो गए.
दत्त साहब के भीतर से आवाज उठी, ‘रामरतन, तुम रिश्वत नहीं लेते हो. तुम शराब पीते नहीं हो. तुम बेमौत कैसे मर सकते हो?’
रामचरन हर्षाना
भारतीय सैन्य अकादमी में आज ‘पासिंग आउट परेड’ थी. सभी कैडेट्स के चेहरों पर खुशी झलक रही थी. 2 वर्ष के कठिन परिश्रम का प्रतिफल आज उन्हें मिलने वाला था. लेफ्टिनेंट जनरल जेरथ खुद परेड के निरीक्षण के लिए आए थे. अधिकांश कैडेट्स के मातापिता, भाईबहन भी अपने बच्चों की खुशी में सम्मिलित होने के लिए देहरादून आए हुए थे. चारों ओर खुशी का माहौल था.
नमिता आज बहुत गर्व महसूस कर रही थी. उस की खुशी का पारावार न था. वर्षों पूर्व संजोया उस का सपना आज साकार होने जा रहा था. वह ‘बैस्ट कैडेट’ चुनी गई थी. जैसे ही उसे ‘सोवार्ड औफ औनर’ प्रदान किया गया, तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा ग्राउंड गूंज उठा.
परेड की समाप्ति के बाद टोपियां उछालउछाल कर नए अफसर खुशी जाहिर कर रहे थे. महिला अफसरों की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था. उन्होंने दिखा दिया था कि वे भी किसी से कम नहीं हैं. नमिता की नजरें भी अपनों को तलाश रही थीं. परिवारजनों की भीड़ में उस की नजरें अपने प्यारे अब्दुल मामा और अपनी दोनों छोटी बहनों नव्या व शमा को खोजने लगीं. जैसे ही उस की नजर दूर खड़े अब्दुल मामा व अपनी बहनों पर पड़ी वह बेतहाशा उन की ओर दौड़ पड़ी.
अब्दुल मामा ने नमिता के सिर पर हाथ रखा और फिर उसे गले लगा लिया. आशीर्वाद के शब्द रुंधे गले से बाहर न निकल पाए. खुशी के आंसुओं से ही उन की भावनाएं व्यक्त हो गई थीं. नमिता भी अब्दुल मामा की ऊष्णता पा कर फफक पड़ी थी.
‘अब्दुल मामा, यह सब आप ही की तो बदौलत हुआ है, आप न होते तो हम तीनों बहनें न तो पढ़लिख पातीं और न ही इस योग्य बन पातीं. आप ही हमारे मातापिता, दादादादी और भैया सबकुछ हैं. सचमुच महान हैं आप,’ कहतेकहते नमिता की आंखों से एक बार फिर अश्रुधारा बह निकली. उस की पलकें कुछ देर के लिए मुंद गईं और वह अतीत में डूबनेउतराने लगी.
मास्टर रामलगन दुबे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. नमिता, नव्या व शमा उन की 3 प्यारीप्यारी बेटियां थीं. पढ़ने में एक से बढ़ कर एक. मास्टरजी को उन पर बहुत गर्व था. मास्टरजी की पत्नी रामदुलारी पढ़ीलिखी तो न थी, पर बेटियों को पढ़ने के लिए अकसर प्रेरित करती रहती. बेटियों की परवरिश में वह कभी कमी न छोड़ती. मास्टरजी का यहांवहां तबादला होता रहता, पर रामदुलारी मास्टरजी के पुश्तैनी कसबाई मकान में ही बेटियों के साथ रहती. मास्टरजी बस, छुट्टियों में ही घर आते थे.
पासपड़ोस के सभी लोग मास्टरजी और उन के परिवार की बहुत इज्जत करते थे. पूरा परिवार एक आदर्श परिवार के रूप में जाना जाता था. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. मास्टरजी की तीनों बेटियां मनोयोग से अपनीअपनी पढ़ाई कर रही थीं.
एक दिन मास्टरजी को अपनी पत्नी के साथ किसी रिश्तेदार की शादी में जाना पड़ा. पढ़ाई के कारण तीनोें बेटियां घर पर ही रहीं. शादी से लौटते समय जिस बस में मास्टरजी आ रहे थे, वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई. नहर के पुल पर ड्राइवर नियंत्रण खो बैठा. बस रेलिंग तोड़ती हुई नहर में जा गिरी. मास्टरजी, उन की पत्नी व कई अन्य लोगों की दुर्घटनास्थल पर ही मौत हो गई.
जैसे ही दुर्घटना की खबर मास्टरजी के घर पहुंची, तीनों बेटियां तो मानो जड़वत हो गईं. उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. जैसे ही उन की तंद्रा लौटी तो तीनों के सब्र का बांध टूट गया. रोरो कर उन का बुरा हाल हो गया.
जब नमिता ने अपने मातापिता की चिता को मुखाग्नि दी तो वहां मौजूद लोगों की आंखें भी नम हो गईं. सभी सोच रहे थे कि कैसे ये तीनों लड़कियां इस भारी मुश्किल से पार पाएंगी. सभी की जबान पर एक ही बात थी कि इतने भले परिवार को पता नहीं किस की नजर लग गई. सभी लोग तीनों बहनों को दिलासा दे रहे थे.
नमिता ने जैसेतैसे खुद पर नियंत्रण किया. वह सब से बड़ी जो थी. दोनों छोटी बहनों को ढाढ़स बंधाया. तीनों ने मुसीबत का बहादुरी से सामना करने की ठान ली.
तेरहवीं की रस्मक्रिया के बाद तीनों बहनें दोगुने उत्साह से पढ़ाई करने में जुट गईं. उन्होंने अपने मातापिता के सपने को साकार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था. उन्हें आर्थिक चिंता तो नहीं थी, पर मातापिता का अभाव उन्हेें सालता रहता.
अगले वर्ष नमिता ने कालेज में प्रवेश ले लिया था. अपनी प्रतिभा के बल पर वह जल्दी ही सभी शिक्षकों की चहेती बन गई. पढ़ाई के साथसाथ वह अन्य कार्यक्रमों में भी भाग लेती थी. उस की हार्दिक इच्छा सेना में अफसर बनने की थी. इसी के वशीभूत नमिता ने एनसीसी ले ली. अपने समर्पण के बल पर उस ने शीघ्र ही अपनेआप को श्रेष्ठ कैडेट के रूप में स्थापित कर लिया.
परेड के बाद अकसर नमिता को घर पहुंचने में देर हो जाती. उस दिन भी परेड समाप्त होते ही वह चलने की तैयारी करने लगी. शाम हो गई थी. कालेज के गेट के बाहर वह देर तक खड़ी रही, पर कोई रिकशा नहीं दिखाई दिया. आकाश में बादल घिर आए थे. बूंदाबांदी के आसार बढ़ गए थे. वह चिंतित हो गई थी, तभी एक रिकशा उस के पास आ कर रुका. चेकदार लुंगी पहने, सफेद कुरता, सिर पर टोपी लगाए रिकशा चालक ने अपनी रस घोलती आवाज में पूछा, ‘बिटिया, कहां जाना है?’
‘भैया, घंटाघर के पीछे मोतियों वाली गली तक जाना है, कितने पैसे लेंगे?’ नमिता ने पूछा.
‘बिटिया पहले बैठो तो, घर पहुंच जाएं, फिर पैसे भी ले लेंगे.’
नमिता चुपचाप रिकशे में बैठ गई.
बूंदाबांदी शुरू हो गई. हवा भी तेज गति से बहने लगी थी. अंधेरा घिरने लगा था.
‘भैया, तेजी से चलो,’ नमिता ने चिंतित स्वर में कहा.
‘भैया कहा न बिटिया, तनिक धीरज रखो और विश्वास भी. जल्दी ही आप को घर पहुंचा देंगे,’ रिकशे वाले भैया ने नमिता को आश्वस्त करते हुए कहा.
कुछ ही देर बाद बारिश तेज हो गई. नमिता तो रिकशे की छत की वजह से थोड़ाबहुत भीगने से बच रही थी, लेकिन रिकशे वाला भैया पूरी तरह भीग गया था. जल्दी ही नमिता का घर आ गया था. नव्या और शमा दरवाजे पर खड़ी उस का इंतजार कर रही थीं. रिकशे से उतरते ही भावावेश में दोनों बहनें नमिता से लिपट गईं. रिकशे वाला भैया भावविभोर हो कर उस दृश्य को देख रहा था.
‘भैया, कितने पैसे हुए… आज आप देवदूत बन कर आए. हां, आप भीग गए हो न, चाय पी कर जाइएगा,’ नमिता एक ही सांस में कह गई.
‘बिटवा, आज हम आप से किसी भी कीमत पर पैसे नहीं लेंगे. भाई कहती हो तो फिर आज हमारी बात भी रख लो. रही बात चाय की तो कभी मौका मिला तो जरूरी पीएंगे,’ कहते हुए रिकशे वाले भैया ने अपने कुरते से आंखें पोंछते हुए तीनों बहनों से विदा ली. तीनों बहनें आंखों से ओझल होने तक उस भले आदमी को जाते हुए देखती रहीं. वे सोच रही थीं कि आज के इस निष्ठुर समाज में क्या ऐसे व्यक्ति भी मौजूद हैं.
जब भी एनसीसी की परेड होती और नमिता को देर हो जाती तो उस की आंखें उसी रिकशे वाले भैया को तलाशतीं. एक बार अचानक फिर वह मिल गया. बस, उस के बाद तो नमिता को फिर कभी परेड वाले दिन किसी रिकशे का इंतजार ही नहीं करना पड़ा. वह नियमित रूप से नमिता को लेने कालेज पहुंच जाता.
नमिता को उस का नाम भी पता चल गया था, अब्दुल. हां, यही नाम था उस के रिकशे वाले भैया का. वह निसंतान था. पत्नी भी कई वर्ष पूर्व चल बसी थी. जब अब्दुल को नमिता के मातापिता के बारे में पता चला तो तीनों बहनों के प्रति उस का स्नेहबंधन और प्रगाढ़ हो गया था.
नमिता को तो मानो अब्दुल रूपी परिवार का सहारा मिल गया था. एक दिन अब्दुल के रिकशे से घर लौटते नमिता ने कहा, ‘अब्दुल भैया, अगर आप को मैं अब्दुल मामा कहूं तो आप को बुरा तो नहीं लगेगा?’
‘अरे पगली, मेरी लल्ली, तुम मुझे भैया, मामा, चाचा कुछ भी कह कर पुकारो, मुझे अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा लगेगा,’ भावविह्वल हो कर अब्दुल बोला.
अब्दुल मामा नमिता, नव्या व शमा के परिवार के चौथे सदस्य बन गए थे. तीनों बहनों को कोई कठिनाई होती, कहीं भी जाना होता, अब्दुल मामा तैयार रहते. पैसे की बात वे हमेशा टाल दिया करते. एकदूसरे के धार्मिक उत्सवों व त्योहारों का वे खूब ध्यान रखते.
रक्षाबंधन का त्योहार नजदीक था. तीनों बहनें कुछ उदास थीं. अब्दुल मामा ने उन के मन की बात पढ़ ली थी. रक्षाबंधन वाले दिन नहाधो कर नमाज पढ़ी और फिर अब्दुल मामा जा पहुंचे सीधे नमिता के घर. रास्ते से थोड़ी सी मिठाई भी लेते गए.
‘नमिता थाली लाओ, तिलक की सामग्री भी लगाओ,’ अब्दुल मामा ने घर पहुंचते ही नमिता से आग्रह किया. नमिता आश्चर्यचकित मामा को देखती रही. वह झटपट थाली ले आई. अब्दुल मामा ने कुरते की जेब से 3 राखियां निकाल कर थाली में डाल दीं और साथ लाई मिठाई भी.
‘नमिता, नव्या, शमा तीनों बहनें बारीबारी से मुझे राखी बांधो,’ अब्दुल मामा ने तीनों बहनों को माधुर्यपूर्ण आदेश दिया.
‘मामा… लेकिन…’ नमिता कुछ सकुचाते हुए कहना चाहती थी, पर कह न पाई.
‘सोच क्या रही हो लल्ली, तुम्हीं ने तो एक दिन कहा था आप हमारे मामा, भैया, चाचा, मातापिता सभी कुछ हो. फिर आज राखी बांधने में सकुचाहट क्यों,’ अब्दुल मामा ने नमिता को याद दिलाया.
नमिता ने झट से अब्दुल मामा की कलाई पर राखी बांध उन्हें तिलक कर उन का मुंह मीठा कराया व आशीर्वाद लिया. नव्या व शमा ने भी नमिता का अनुसरण किया. तीनों बहनों ने मातापिता के चित्र को नमन किया और उन का अब्दुल मामा को भेजने के लिए धन्यवाद किया.
उस दिन ‘ईद-उल-फितर’ के त्योहार पर अब्दुल मामा बड़ा कटोरा भर मीठी सेंवइयां ले आए थे. तीनों बहनों ने उन्हें ईद की मुबारकबाद दी और ईदी भी मांगी, फिर भरपेट सेंवइयां खाईं.
अब्दुल मामा तीनों बहनों की जीवन नैया के खेवनहार बन गए थे. जब भी जरूरत पड़ती वे हाजिर हो जाते. तीनों बहनों की मदद करना उन्होंने अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया था. तीनों बहनों को अब्दुल मामा ने भी मातापिता की कमी का एहसास नहीं होने दिया. किसी की क्या मजाल जो तीनों बहनों के प्रति जरा भी गलत शब्द बोल दे.
अब्दुल मामा जातिधर्म की दीवारों से परे तीनों बहनों के लिए एक संबल बन गए थे. उन की जिंदगी के मुरझाए पुष्प एक बार फिर खिल उठे. तीनों बहनें अपनेअपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समर्पण भाव से पढ़ती रहीं व आगे बढ़ती रहीं.
नमिता ने बीएससी अंतिम वर्ष की परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण कर भारतीय सैन्य अकादमी की परीक्षा दी. अपनी प्रतिभा, एनसीसी के प्रति समर्पण और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर उस का चयन भारतीय सेना के लिए हो गया. नव्या और शमा भी अब कालेज में आ गई थीं.
आज नमिता को देहरादून के लिए रवाना होना था. अब्दुल मामा के साथ नव्या और शमा भी स्टेशन पर नमिता को विदा करने आए थे. सभी की आंखें नम थीं. अव्यक्त पीड़ा चेहरों पर परिलक्षित हो रही थी.
‘अब्दुल मामा, नव्या और शमा का ध्यान रखना. दोनों आप ही के भरोसे हैं और हां, मैं भी तो आप के आशीर्वाद से ही ट्रेनिंग पर जा रही हूं,’ सजल नेत्रों से नमिता ने मामा से कहा.
‘तुम घबराना नहीं मेरी बच्ची, 2 वर्ष पलक झपकते ही बीत जाएंगे. आप को सद्बुद्धि प्राप्त हो और आगे बढ़ने की शक्ति मिले. छुटकी बहनों की चिंता मत करना. मैं जीतेजी इन्हें कष्ट नहीं होने दूंगा,’ नमिता को ढाढ़स बंधाते हुए अब्दुल मामा ने दोनों बहनों को गले लगा लिया.
गाड़ी धीरेधीरे आगे बढ़ रही थी. नमिता धीरेधीरे आंखों से ओझल हो गई. अब्दुल मामा ने जीजान से दोनों बहनों की देखभाल का मन ही मन संकल्प ले लिया था. 2 वर्ष तक वे उस संकल्प को मूर्त्तरूप देते रहे.
अचानक नमिता की तंद्रा टूटी तो उस ने पाया, अब्दुल मामा के आंसुओं से उस की फौजी वरदी भीग चुकी थी. मामा गर्व से नमिता को निहार रहे थे.
‘‘तुम ने अपने दिवंगत मातापिता और हम सभी का नाम रोशन कर दिया है नमिता. तुम बहुत तरक्की करोगी. मैं तुम्हारी उन्नति की कामना करता हूं. तुम्हारी छोटी बहनें भी एक दिन तुम्हारी ही तरह अफसर बनेंगी, मुझे पूरा यकीन है,’’ अब्दुल मामा रुंधे कंठ से बोले.
‘‘मामा… हम धन्य हैं, जो हमें आप जैसा मामा मिला,’’ तीनों बहनें एकसाथ बोल उठीं.
‘‘एक मामा के लिए या एक भाई के लिए इस से बढि़या सौगात क्या हो सकती है जो तुम जैसी होनहार बच्चियां मिलीं. तुम कहा करती थी न नमिता कि मुझ पर तुम्हारा उधार बाकी है. हां, बाकी है और उस दिन उतरेगा जब तुम तीनों अपनेअपने घरबार में चली जाओगी. मैं इन्हीं बूढ़े हाथों से तुम्हें डोली में बिठाऊंगा,’’ अब्दुल मामा कह कर एकाएक चुप हो गए.
तीनों बहनें एकटक मामा को देखे जा रही थीं और मन ही मन प्रार्थना कर रही थीं कि उन्हें अब्दुल मामा जैसा सज्जन पुरुष मिला. तीनों बहनें और अब्दुल मामा मौन थे. उन का मौन, मौन से कहीं अधिक मुखरित था. उन सभी के आंसू जमीन पर गिर कर एकाकार हो रहे थे. जातिधर्म की दीवारें भरभरा कर गिरती हुई प्रतीत हो रही थीं.
लेखक- डा. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’