भारत की लोकतांत्रिक कमजोरी है घूसखोरी

जल संसाधन महकमे के चतुर्थ श्रेणी के एक मुलाजिम नामदेव नागले को अपनी बेटी की शादी के लिए पैसों की जरूरत थी. इस बाबत उन्होंने अपने जीपीएफ के पैसे निकालने के लिए फौर्म भरा. उन्हें 1 लाख 65 हजार रुपए की राशि मंजूर भी हो गई पर अड़ंगा डाल दिया एक क्लर्क रमाशंकर मौर्य ने कि बगैर 4 हजार रुपए की घूस लिए वह यह राशि जारी नहीं करेगा. इस पर नामदेव का बड़बड़ाना लाजिमी था क्योंकि एक महीने बाद मई में उन की बेटी की शादी थी. यह जानते हुए भी कि जीपीएफ का पैसा उन का हक है, वे मन मार कर रिश्वत देने को तैयार हो गए. अप्रैल के पहले हफ्ते में नामदेव नागले ने घूस के एक हजार रुपए एडवांस में दे भी दिए और रमाशंकर के आगे गिड़गिड़ाए कि राशि खाते में आते ही बाकी 3 हजार रुपए भी दे देंगे. पर इस बाबू को तजरबा था कि घूस देने के मामले में लोग इतने ईमानदार नहीं होते कि काम हो जाने के बाद बकाया रकम दे दें, इसलिए वह अंगद के पांव की तरह अड़ गया कि बाकी पैसे दो, तभी भुगतान होगा.

इस पर हैरानपरेशान नामदेव के बेटे राजू ने लोकायुक्त पुलिस में शिकायत कर दी. 6 अप्रैल को रमाशंकर भोपाल के जुबली गेट पर पहुंचा तो लोकायुक्त पुलिस ने उसे राजू से घूस लेते रंगे हाथों धर लिया.

बेअसर खबरें

इस और ऐसी खबरों का कोई असर अब किसी पर पड़ता हो, ऐसा कतई नहीं लगता. देशभर में रोजाना सैकड़ों लोग घूस लेते पकड़े जाते हैं. इस से लगता यह है कि घूसखोरी को एक सामाजिक मंजूरी मिल चुकी है.

किसी भी सरकारी दफ्तर में छोटेबड़े काम के लिए चले जाइए, बगैर घूस दिए कुछ नहीं होता. काम जायज हो या नाजायज, नजराना तो देना ही पड़ता है. जाहिर है हर रोज लाखोंकरोड़ों रुपए सरकारी मुलाजिम घूस खाते हैं और किसी का कुछ खास नहीं बिगड़ता. थोड़ाबहुत हल्ला तब जरूर मचता है जब किसी छोटे मुलाजिम के पास से उस की हैसियत और औकात से ज्यादा जायदाद बरामद होती है.

तब भी लोग पहले की तरह यह नहीं कहते कि घूसखोरी बढ़ रही है, बल्कि इस बात पर हैरानी जताते हैं कि एक चपरासी के पास करोड़ों की जायदाद निकली या फिर 30-35 हजार रुपए महीने की पगार वाले बाबू के घर छापे में इतने किलो सोना, इतनी जमीनें, इतना नकदी और इतनी गाडि़यां मिलीं. क्या जमाना आ गया है.

जमाना धीरेधीरे होते यह आ गया है कि घूसखोरी को लोगों ने तथाकथित भाग्य की तरह स्वीकार लिया है. इस का अब बड़े पैमाने पर कोई विरोध नहीं होता. जाहिर है बातबात पर भड़कने वाले आम लोगों ने घूसखोरों और घूसखोरी के सामने हथियार डाल दिए हैं. लोगों ने घूसखोरी को एक तरह से सरकारी मुलाजिमों का हक मान लिया है. हां, इस की रकम पर जरूर वे मुलाजिमों से चखचख करते हैं, बाजार की जबां में कहें तो मोलभाव करते हैं. बावजूद यह जानने के कि हर महकमे में हरेक काम का दाम फिक्स है. बस, सरकार इस की दरों की लिस्ट नहीं टांग सकती क्योंकि इस में कानून आडे़ आता है.

इन कानूनों को भी कोई नहीं कोसता क्योंकि इन्हीं नियमकायदे व कानूनों की वजह से सरकारी मुलाजिमों को घूस मिलती है. कानून की चौखट पर इंसाफ के लिए सिर रगड़ने लोग जाएं तो वहां भी तारीखों के लिए घूस जरूरी है. पटवारी से अपनी ही जमीन का खसरा नक्शा चाहिए तो घूस, पुलिस में रिपोर्ट लिखानी है तो घूस, अपनी ही जमीन पर मकान बनवाने की इजाजत चाहिए तो नगर पालिका या नगर निगम में घूस, अस्पताल में इलाज चाहिए तो भी घूस, और तो और, सरकार को टैक्स चुकाना हो तो भी घूस देनी पड़ती है.

घूस देना अब अक्लमंदी का दूसरा नाम हो गया है. आम लोग कितने समझदार हो गए हैं, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भी वे अपने किसी काम के लिए घर से सरकारी दफ्तर जाते हैं तो काम के मुताबिक जेब में रुपए रख कर ले जाते हैं कि कम से कम इतने तो लगेंगे ही.

नौबत तो यहां तक आ गई है कि किसी डर या दूसरी वजह के चलते घूस लेने से मुलाजिम इनकार कर दें तो लोग उस को कोसने लगते हैं कि काइयां है जो काम करने से इस तरह मना कर रहा है. लिहाजा, वे अपनी पेशकश बढ़ाते जाते हैं कि अच्छा हजार की जगह 2 हजार दे दूंगा पर मुफ्त में ईमानधरम और कायदेनियमों से काम हो जाएगा, यह मजाक मत करो.

उधर, लेने वाला मन ही मन झल्लाता है कि एक तो ईमानदारी से काम करें और ऊपर से इन के नखरे भी बरदाश्त करो कि नहीं, घूस तो हम देंगे ही. यानी घूस लेना ही नहीं, बल्कि घूस देना भी लोगों की आदत में शुमार हो चला है. इसलिए घूसखोरी की खबरों से किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. उलटे, यह तसल्ली हो जाती है कि घूस के जरिए काम अभी भी हो रहे हैं, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं.

अक्लमंद आदमी घूस पर गुस्सा नहीं करता और न ही एतराज जताता. वह मशवरा देता और लेता है कि अजी खामखां परेशान हो रहे हो, जा कर बाबू की टेबल पर हजारपांच सौ रुपए पटक दो, काम चुटकियों में हो जाएगा. ऐसा होता भी है. इस के अलावा घूस देने वाला कह उठता है कि कितना भला आदमी है बेचारा, कुछ ले कर ही सही, काम तो कर दिया. वरना कुछ मुलाजिम तो घूस लेने से ही इनकार कर दिल तोड़ देते हैं.

यहां से आई बीमारी

घूसखोरी का रोजमर्राई जिंदगी का हिस्सा बन जाना हैरत की बात नहीं है. बातबात में मंदिरों और पंडों के जरिए भगवान को घूस देने का तरीका आदमी बचपन से ही सीख जाता है.

जिस देश में सवा रुपए मंदिर में चढ़ा देने से बेटे को नौकरी मिल जाती हो और 11 रुपए की दक्षिणा में बेटी की शादी हो जाती हो, उस देश में घूसखोरी कतई छानबीन का मसौदा नहीं. धर्म ने लोगों को उस की पैदाइश के साथ ही सिखा दिया था कि कोई काम बगैर दिए नहीं होता. जेब में चढ़ाने के लिए पैसा हो, तो कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी के ठीक होने में भी घूस चल जाती है पर इस में जरा सी खोट यह है कि ऐसे काम होने की कोई गारंटी नहीं क्योंकि ऊपर वाले के दफ्तर (दरबार) में रोज लाखोंकरोड़ों अर्जियां लगती हैं. अब यह समय की बात है कि वह किस की सुनता है.

सच्चा हिंदुस्तानी वह नहीं है जो फख्र से भारतमाता की जय बोले, बल्कि वह

है जो इस सच से वाकिफ हो कि फख्र घूसखोरी पर किया जाना है. पंडित भी बच्चे का राशिफल मुफ्त में निकाल कर नहीं देता, फिर सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए बिना धर्मस्थलों में पैसा चढ़ाने से काम हो जाएगा, यह सोचना भी गुनाह है.

अब कौन शरीफ आदमी भला गुनाह का पाप अपने सिर लेना चाहेगा, इसलिए वह दानपत्र में हलाल और हराम दोनों की कमाई ठूंसता रहता है और बेफिक्र हो जाता है कि अब कुछ नहीं बिगड़ने वाला. ऊपर वाले तक चढ़ावा पहुंचा दिया है.

जहां भगवान और उस के दलाल तक घूसखोर हों वहां सरकारी मुलाजिमों से पाकसाफ होने की उम्मीद करना वाकई उन के साथ ज्यादती है जो दिनभर घूस बटोरते हैं. और फिर वे शाम को घर जातेजाते उस का कुछ हिस्सा मंदिर, मसजिद, चर्च या गुरुद्वारे में दे आते हैं. इस तरह घूस का पैसा भी घूमफिर कर ऊपर वाले तक पहुंच जाता है. इसलिए मानने में ही भलाई है कि सबकुछ ऊपर वाले का है, वह अपनी मरजी से लेता और देता है. इसलिए घूस पर हायहाय करने के बजाय उस की जयजयकार करना बेहतर है.

नामदेव नागले जैसे शिकायती लोग जागरूक नहीं, बल्कि नास्तिक होते हैं. इसलिए रमाशंकर मौर्य जैसे मुलाजिम पकड़े जाते हैं. यह दीगर बात है कि इन में से 80 फीसदी घूस दे कर छूट भी जाते हैं. इस से लोगों में भगवान के लिए भरोसा और बढ़ता है.

धर्म से यह बीमारी सरकारी दफ्तरों तक पसर गई है, इसलिए किसी को अपने कानूनी हक की चिंता नहीं. उलटे लोगों को इस बात की खुशी रहती है कि 51 रुपए के प्रसाद और 51 हजार रुपए के डोनेशन से बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला मिल गया. बड़ा हो कर जरूर वह भी काबिल अफसर बनेगा यानी ईमानदारी और मेहनत की कमाई को हाथ नहीं लगाएगा. इस तरह घूस, घूस नहीं एक इन्वैस्टमैंट है.

दावे भी बेअसर

आजादी के बाद जब लोकतंत्र वजूद में आया तो मुफ्त की कमाई का एक और जरिया बन गया जिस का नाम रखा गया सरकार. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को कुरसी संभालते ही समझ आ गया था कि महान भारत के लोग भक्त टाइप के हैं. चढ़ावा उन की नसनस में भरा हुआ है, इसलिए क्यों न इस गंगा का रुख सरकारी दफ्तरों की तरफ मोड़ दिया जाए.

देखते ही देखते मंदिरों के बराबर ही सरकारी दफ्तर भी चढ़ावे से मुटाने लगे. मंदिरों में पंडे थे तो दफ्तरों में बाबू और अफसर थे. एक जगह घूसखोरी का काम खुलेआम श्रद्धा और आस्था से होता था. दूसरी जगह चोरीछिपे टेबल के नीचे से होने लगा. धीरेधीरे इतना खुलापन और बेशर्मी आने लगी कि जज के सामने बैठा बाबू तारीख दे कर लाखों बनाने लगा और इंसाफ करने वाले जज साहब बेचारगी या मरजी से यह गुनाह होते देखते रहे.

दूसरे महकमों में भी यह रिवाज लागू हो गया. बड़े साहब इस पाप की कमाई को हाथ नहीं लगाते, उन्हें शंकराचार्य या महामंडलेश्वर कहने में हर्ज नहीं. छोटा साहब या बाबू पुजारी बन घूस समेटने लगा और बंगले यानी मठ में हिस्सा पहुंचाने लगा. इस सिस्टम में वक्तवक्त पर बदलाव होते रहे जिस पर हल्ला कभी नहीं मचा. जो भी सिस्टम सरकारी मुलाजिमों ने बना दिया, उसे लोगों ने खुशीखुशी अपना लिया.

जब नास्तिकों की तादाद बढ़ने लगी तो सरकारों और नेताओं को चिंता होने लगी. लिहाजा, उन्होंने घूस देने जैसे पुण्य काम को जुर्म घोषित कर दिया. कहा जाने लगा कि घूस लेना और देना दोनों अपराध हैं. इस लिहाज से पूरा देश और सवा अरब की आबादी बगैर कुछ किएधरे मुजरिम हो गई और किसी के मन में पाप का डर नहीं रह गया कि सिर्फ वही पापी है.

इस तरह घूसखोरी को मंजूरी मिल गई पर जब उस की इंतहा हो गई तो अन्ना हजारे जैसे समाजसेवियों ने इस का विरोध भी किया. इस बात पर धरनेप्रदर्शन और आंदोलन हुए तो लोगों को यह खुशफहमी भी हो आई कि अब सचमुच की क्रांति आ रही है जो घूसखोरी बंद करवा कर ही छोड़ेगी.

नोटबंदी से कम नहीं हुई

अन्ना के आंदोलन का असर सिर्फ सियासी हुआ जिस से 2 नए अवतार या देवता नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल पुजने लगे. कांग्रेसी संप्रदाय के मुखिया मनमोहन सिंह को लोगों ने चलता कर दिया. यह बड़ा सुनहरा दौर था जब लोगों को लग रहा था कि अब कोई समस्या नहीं रही.

2014 के लोकसभा चुनावप्रचार में नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार को कोसतेकोसते इस वादे के साथ सत्ता पर काबिज हो गए कि वे घूसखोरी से छुटकारा दिलाएंगे. लोगों ने बेमन से उन पर भरोसा किया और अब पछता रहे हैं कि वे भी वैसे ही निकले क्योंकि दीगर समस्याओं सहित घूसखोरी ज्यों की त्यों है.

नरेंद्र मोदी समझ रहे थे कि लोगों का भरोसा उम्मीद से कम वक्त में उन पर से उठ रहा है तो उन्होंने नोटबंदी लागू कर दी और कहा कि इस से आतंकवाद, भ्रष्टाचार सहित घूसखोरी भी बंद हो जाएगी. इस बाबत उन्होंने पूरा ब्योरा भी पेश किया कि ऐसा कैसे होगा.

लेकिन जिस तरह धर्म की दुकान कभी बंद नहीं होती, वैसे ही घूसखोरी की दुकान भी चल रही है और आज शान से चल रही है. लोगों ने घूस देना और लेना छोड़ा नहीं. बाबुओं की ताकत नोटबंदी से कम नहीं हुई. 8 महीनों में कुछ नहीं हुआ. नोटबंदी का गुबार आ कर गुजर गया पर घूसखोरी का बाजार चमक रहा है.

इस सरकार के पास भी आतंकवाद और नक्सली हिंसा की तरह घूसखोरी का कोई इलाज नहीं है. जो अब तक हुआ, वह नीमहकीमी साबित हुआ. ऐसे में अपनी बेवकूफी पर पछताते लोगों ने

फिर घूसधर्म अपनाने में ही भलाई समझी. अब सबक लेते लोग सालोंसाल घूसखोरी के बारे में चूं भी नहीं करेंगे तो यह उन की गलती भी है और मजबूरी भी जिस के जिम्मेदार एक हद तक वे खुद भी हैं जो अपनी परेशानियों को वादों के ठेकेदारों को बेच कर बेफिक्र हो जाते हैं.

सावधान : कल पता नहीं किस से क्या करवा दे

कुछ साल पहले की बात है. जयपुर, राजस्थान के प्रताप नगर हाउसिंग बोर्ड में रहने वाली प्रियंका तुनकमिजाज थी. वह अपने पिता के दोमंजिला मकान की ऊपरी मंजिल में किराए पर रह कर पढ़ाई करने वाली लड़कियों से बेवजह ही अपना मकान खाली करवा लेती थी.

एक दिन प्रियंका एमबीए कर रही एक 22 साला नेहा से इतनी ज्यादा नाराज हुई कि उस ने उस के दूसरे दिन ही कमरा खाली करने को कह दिया.

यह सुन कर नेहा गिड़गिड़ाते हुए उस से बोली, ‘‘दीदी, इन दिनों मेरे इम्तिहान चल रहे हैं. इतनी जल्दी मैं कमरा कैसे खाली कर सकती हूं?’’

यह सुनते ही प्रियंका आगबबूला हो गई. वह तुनकते हुए बोली, ‘‘नेहा, मेरा नेचर  सलमान खान की तरह है. एक बार मैं ने जो कह दिया, उस के बाद मैं अपने दिल की भी नहीं सुनती.’’

झल्लाई नेहा प्रियंका से बोली,  ‘‘कल आप को भी अगर किसी के मकान में किराए पर रहना पड़ जाए, तब समझ में आएगा.’’

प्रियंका ने नेहा की किसी बात पर ध्यान नहीं दे कर दूसरे दिन ही उस से अपना कमरा खाली करवा लिया.

कुछ महीने बाद प्रियंका के बड़े भाई की शादी हुई. ससुर ने शादी के कुछ दिनों बाद ही अपनी बेटी को दहेज के लिए परेशान करने का आरोप लगा कर उन के खिलाफ मामला दर्ज कराने की धमकी देना शुरू कर दिया.

इन धमकियों से परेशान हो कर प्रियंका के परिवार वालों ने ऊपरी मंजिल का मकान बेच कर उन्हें रकम दे कर उन से अपना पीछा छुड़ाया.

अब प्रियंका और उस का परिवार किराए के मकान में रहता है. अब वह नेहा की उस बात को समझ चुकी है कि भविष्य का कुछ पता नहीं है कि वह कब किस से क्या करवा दे.

50 साला वीरेंद्र सिंह का एक स्कूल था. वे खूबसूरत लड़कियों को ही अपने यहां नौकरी पर रखते थे और जब चाहे तब उन्हें अपने यहां पर बुलवा कर उन का यौन शोषण करते रहते थे. जो लड़की ऐसा करने से इनकार करती थी, वे उसे नौकरी से हटाने की धमकी दे देते थे.

एक दिन एक लड़की ने उन से कहा, ‘‘अगर कभी कोई आप की बेटी के साथ यह सब करने की धमकी दे तो…?’’

‘‘मुझे ऐसी धमकी कोई नहीं दे सकता,’’ कह कर उन्होंने उस लड़की का मुंह बंद कर दिया.

कुछ सालों के बाद वीरेंद्र सिंह के स्कूल में एक ऐसा घोटाला पकड़ा गया कि उसे रफादफा कराने के लिए उन्हें न सिर्फ लाखों रुपए देने पड़े, बल्कि अपनी बेटियों को भी सरकारी अफसरों के साथ भेजना पड़ा.

एक तहसीलदार दिनरात शराब पी कर ऐयाशी करता था. वह अपने चपरासियों को बरखास्त कराने की धमकी दे कर उन की बहनबेटियों और बीवियों को भी आएदिन अपनी हवस का शिकार बनाता था.

एक बार वह तहसीलदार विभागीय जांच में इतनी बुरी तरह फंस गया कि उस की नौकरी भी खतरे में पड़ गई. उस जांच से बचने के लिए उस तहसीलदार ने लाखों रुपए दे कर जैसेतैसे अपनी नौकरी बचाई थी. बाद में उसे एड्स की बीमारी हो गई थी. काफी इलाज के बाद भी वह तड़पतड़प कर मर गया.

कहने का मतलब यह है कि कभी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जिस से किसी को कोई परेशानी हो, क्योंकि जिंदगी का कुछ पता नहीं है कि वह हम से कब क्या करवा दे.

अंधविश्वास : छलनी जिस्म और पोंगापंथ का ठहाका

बिहार की राजधानी पटना के पुराने इलाके पटना सिटी के रानीपुरबेगमपुर ब्लौक के बभनगांवा गांव के सावित्रीसत्यवान मंदिर के पास हर साल अप्रैल के महीने में अंधविश्वास का एक मेला लगता है. ‘पंजर भोकवा’ के नाम से मशहूर इस मेले में अंधभक्तों का जमावड़ा लगता है और पोंगापंथ का जम कर नंगा और खूनी नाच चलता है. पोंगापंथियों का जत्था लोदीकटरा, हरनाहा टोला और नून का चौराहा से नाचतेगाते निकलता है. कई महल्लों से घूमता हुआ यह जत्था सावित्रीसत्यवान मंदिर पहुंचता है. इस जत्थे में शामिल लोगों में कोई अपनी जीभ के बीचोंबीच धारदार चाकू घुसा कर नाच रहा होता है, तो कोई पेट में नुकीली बरछी घोंप कर उछलकूद कर रहा होता है. कोई बांहों में तीर घुसेड़ कर अपने सिर को गोलगोल घुमा रहा होता है, तो कोई अपने गालों में खंजर चुभो कर ठहाके लगा रहा होता है.

भगवान को खुश करने के नाम पर अपने जिस्म के कई हिस्सों में धारदार हथियारों को चुभाने का पाखंड खुल कर चलता है. मर्द अपने जिस्म के अलगअलग हिस्सों में तीर और चाकू जैसी धारदार चीजें घोंप कर पागलों के अंदाज में नाचते हैं और औरतें गीत गा कर उन के अंधविश्वास को बढ़ावा देती हैं.

कानून और प्रशासन को ठेंगा दिखाने वाले इस मेले को हर साल कराया जाता है और परंपरा की दुहाई दे कर प्रशासन और पुलिस भी पोंगापंथियों की मदद करती है यानी उन के लिए रास्ता साफ करती चलती है. सड़कों और गलियों में लगे जाम से पुलिस वालों का कोई लेनादेना नहीं होता है. पुलिस और प्रशासन के अफसर धर्म और अंधआस्था के नाम पर चुपचाप पाखंड के इस तमाशे को सालों से देखते आ रहे हैं.

इस मेले के पीछे अंधविश्वास से भरी एक कहानी बताई जाती है कि राजा ध्रुतसेन के बेटे सत्यवान ने अपने पिता का राजपाट छीनने के बाद अपनी पत्नी सावित्री के साथ बभनगांवा गांव में आ कर कुछ दिन बिताए थे. उसी की याद में ‘पंजर भोकवा’ मेला कराया जाता है.

हैरान करने वाली बात यह है कि नुकीली चीजों को जिस्म में घुसा कर मर्द लहूलुहान हो जाते हैं और उन की बीवियां अपने पति की लंबी उम्र के लिए दुआएं मांगती हैं.

ऐसे लोगों से बात करने पर साफ हो जाता है कि उन के दिमाग में अंधविश्वास का अंधकार किस कदर बना हुआ है. इन जाहिलों को शायद पता ही नहीं है कि आज तकनीकी रूप से तरक्की करती दुनिया के बीच ऐसे ही लोग तरक्की में रोड़ा बने हुए हैं. ये लोग पोंगापंथ के चक्कर में फंस कर उसे बढ़ावा देने में लगे हुए हैं.

पिछले 19 सालों से ‘पंजर भोकवा’ मेले में भाग ले कर अपनी देह में बरछी और तीर घोंप कर नाचने वाला सकलदेव राय बताता है कि भगवान को खुश करने के लिए वह ऐसा करता है. शरीर में बरछी घुसाने के बाद भी न दर्द महसूस होता है और न ही खून निकलता है.

अपनी जीभ में चाकू घोंप कर नाचने वाला 42 साल का काशीनाथ बताता है कि वह पिछले 12 सालों से यह कर रहा है और आज तक उसे कोई परेशानी नहीं हुई.

जीभ, पसली, होंठ, कान, नाक, पेट, हथेली, उंगली, जांघ वगैरह में तीर, बरछी, चाकू वगैरह घोंप कर अंधविश्वास के नशे में नाचते लोगों को देख कर दिल दहल उठता है. शरीर के कई हिस्सों में लटके तीरों और चाकुओं को देख कर सिर चकरा जाता है. पोंगापंथ की घुट्टी पीने के बाद पागलपन की हद पार करने वालों के दिमाग के इलाज की जरूरत है.

मशहूर डाक्टर दिवाकर तेजस्वी कहते हैं कि शरीर के किसी भी हिस्से में छोटी सी सूई या कील चुभ जाती है, तो इनसान चीख पड़ता है, लेकिन ‘पंजर भोकवा’ मेले में अंधविश्वास के नाम

पर अंधे लोग तीरचाकू, लोहे की छड़ और बरछी शरीर में घोंप लेते हैं और हंसतेनाचते रहते हैं. यह दिमागी दिवालियापन के अलावा कुछ नहीं है.

बाबाओं के कहने पर ऊपर वाले को खुश करने के इस मेले में ज्यादातर जाहिल लोग ही शामिल होते हैं, जिन्हें आसानी से धर्म की घुट्टी पिलाई जा सकती है.

हर साल 14 से 16 अप्रैल तक ‘पंजर भोकवा’ मेला कराया जाता है. इन 3 दिनों के दौरान तंत्रमंत्र, झाड़फूंक, ओझाई के नाम पर बाबाओं और ओझाओं का मजमा लगता है. भूतप्रेत झाड़ने और डायन को पकड़ने का जम कर ड्रामा चलता है. खुलेआम तीर, भाला, छुरा, बरछी, तलवार, कटार वगैरह का प्रदर्शन किया जाता है और पुलिस प्रशासन भी आंखों पर पट्टी बांध कर अंधविश्वास को बढ़ावा देने में लगा रहता है.

अपने शरीर में धारदार चीजें चुभाने वालों का मानना है कि ऐसा करने से रुपएपैसे के साथसाथ सुखशांति मिलती है, पर ऐसे पागलपन में साल दर साल शामिल होने वाले अब भी गरीबी से जूझ रहे हैं. यह बात उन लोगों की समझ में नहीं आती है और न ही दूसरों के समझाने से वे समझने की कोशिश करते हैं.

अब इस देश में जवानों का बोलना मना है

‘जय जवान, जय किसान’ का नारा भारत के प्रधानमंत्री रह चुके लाल बहादुर शास्त्री ने दिया था. उन्होंने माना था कि देश जवानों और किसानों से चलता है. उस के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने ‘जय जवान, जय किसान’ के साथसाथ ‘जय विज्ञान’ को भी जोड़ा यानी टैक्नोलौजी की भी बातें होने लगीं. लेकिन आज ‘जय जवान, जय किसान’ और ‘जय विज्ञान’ से जुड़े तीनों समूहों का हाल बेहाल है.

जवानों को दिमागी रूप से पंगु बना कर उन के वेतनमान में बढ़ोतरी तो की गई, लेकिन उन की हालत भी एक नए गुलामों की तरह ही है. वहीं किसानों और मजदूरों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि उन की हालत और भी खराब होती जा रही है.

हमारे देश के वैज्ञानिकों और विज्ञान के छात्रों की हालत भी कुछ खास ठीक नहीं है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज में भौतिक शास्त्र व रसायन शास्त्र के बजाय ज्योतिष शास्त्र पढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है.

नई आर्थिक नीति लाने वाली कांग्रेस सरकार ने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ के सपनों को मटियामेट कर दिया.

कांग्रेस शासित नरसिंह राव व मनमोहन सिंह द्वारा नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद किसानों की जमीनें पूंजीपतियों को दी जाने लगीं. बड़े पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए किसानों पर दबाव बनाया गया कि वे नई तरह की खेती करें. इस नई खेती के चलते बहुत से किसान कर्ज के जाल में फंस कर खुदकुशी करने लगे.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 1995 से ले कर अब तक तकरीबन साढ़े 3 लाख किसान खुदकुशी कर चुके हैं, जबकि गैरसरकारी आंकड़े इस से भी ज्यादा हैं. सरकारी नीतियों ने इन किसानों को ‘जय किसान’ की जगह ‘मर किसान’ बना दिया.

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद किसानों की हालत सुधरी नहीं, बल्कि बदतर ही हुई और उन्हीं के शासन में जवानों के शव उठाने वाले ताबूत का घोटाला हो गया.

‘जय विज्ञान’ का नारा देने वाली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने श्रम कानूनों में संशोधन किया और ठेकेदारी प्रथा को लागू किया. मजदूरों को न्यूनतम वेतन से भी आधे पैसों पर काम करना पड़ रहा है और उन की मेहनत की कमाई लूट बन कर ठेकेदारों को मालामाल कर रही है. हालत यह हो गई कि सभी सरकारी दफ्तरों में फोर्थ क्लास के कर्मचारी ठेके पर रखे जाने लगे. यहां तक कि डाक्टर और मास्टर भी ठेकेदारी प्रथा के शिकार हो गए. यही हालत ‘श्रमेव जयते’ की भी है.

मोदी सरकार के आने के बाद देश में ऐसा माहौल बनाया गया कि जवान ही ‘देशभक्त’ हैं और उन्हीं की बदौलत हम सुरक्षित और जिंदा हैं. आप उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते, क्योंकि इस से उन का मनोबल गिरता है. वहां कोई भ्रष्टाचार नहीं है, जाति और धर्म का भेदभाव नहीं है. नतीजतन, ड्यूटी के बाद बैंक या एटीएम की लाइन में अपनी तकलीफ जाहिर करने पर भी किसी शख्स को ड्यूटी पर तैनात जवानों के साथ जोड़ कर देशभक्ति का पाठ पढ़ाते कुछ सिरफिरे मिल जाते हैं. झूठी देशभक्ति के जज्बे दिखा कर सही सवालों को हमेशा छिपाया गया है.

ऐसा नहीं है कि तेज बहादुर यादव का वीडियो वायरल होने से पहले मंत्रियों, अफसरों, मीडिया वालों को इस तरह के गलत बरताव का पता नहीं था. इस वीडियो के आने से पहले भी जवानों की खुदकुशी, डिप्रैशन, अफसरों के बुरे बरताव, छुट्टियां नहीं मिलने व अपने साथियों पर गोली चलाने की खबरें कई बार आ चुकी हैं. यहां तक कि वीके सिंह ने भी माना है कि सेना का जनरल रहते हुए रक्षा सौदों में उन्हें घूस का औफर मिला था. डीजल बेचने या दूसरे सामान की हेराफेरी के मामले भी आ चुके हैं. दबी जबान में औरतों के साथ होने वाली हिंसा की बातें भी सामने आती रही हैं.

तेज बहादुर यादव ने अपनी बात को लोगों तक पहुंचाने के लिए सोशल साइट का इस्तेमाल किया, लेकिन यही बात सीमा सुरक्षा बल के अफसरों को नागवार गुजरी. वे इसे अनुशासनहीनता और तय की गई गाइडलाइंस का उल्लंघन मान रहे हैं.

यहां तक कि सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक रह चुके जनरल प्रकाश सिंह का भी कहना है, ‘‘जवान ने नियमों का उल्लंघन किया है. कमांडैंट से शिकायत करनी चाहिए थी. डीआईजी, आईजी से शिकायत की जा सकती थी.’’

पूर्व महानिदेशक जनरल प्रकाश सिंह को यह डर है कि जवान इस तरह से करने लगेंगे, तो अनुशासन छिन्नभिन्न हो जाएगा.

तेज बहादुर यादव का कहना है कि इस की सूचना उस ने अपने कमांडैंट को पहले दी थी और बारबार कहने पर भी ऐक्शन नहीं लिया गया. क्या यही सब बातें ‘अनुशासनहीनता’ में आती हैं?

सीमा सुरक्षा बल के जम्मू फ्रंटियर के आईजी डीके उपाध्याय ने यह बयान दिया है कि वीडियो वायरल करने वाला जवान आदतन अनुशासनहीन है. उस के खिलाफ नशे में धुत्त रहने, सीनियर अफसरों के साथ बदसुलूकी करने, यहां तक कि सीनियर अफसर पर बंदूक तानने की शिकायतें आती रही हैं.

तेज बहादुर यादव का साल 2010 में कोर्ट मार्शल किया गया था, लेकिन उस के परिवार वालों को ध्यान में रखते हुए बरखास्त करने के बजाय 89 दिनों की कठोर सजा सुनाई गई.

इस तरह के आरोप के जवाब में तेज बहादुर यादव कहता है, ‘‘मुझे गोल्ड मैडल समेत 14 पदक मिल चुके हैं. मैं ने अपने कैरियर में कुछ गलतियां भी की हैं, लेकिन बाद में उन में सुधार भी किए हैं.’’

तेज बहादुर यादव के परिवार वालों का कहना है कि जब भी वे घर आते थे, तो खाने को ले कर शिकायत करते थे. उन की पत्नी शर्मिला यादव अफसरों को कठघरे में खड़ा करते हुए पूछती हैं, ‘‘मेरे पति दिमागी तौर पर बीमार या अनुशासनहीन थे, तो उन को देश के संवेदनशील इलाके में बंदूक क्यों थमाई गई?’’

तेज बहादुर यादव की ही तरह बाड़मेर के जागसा गांव के खंगटाराम चौधरी सीमा सुरक्षा बल में थे, जिन्होंने 30 दिसंबर को वीआरएस ले ली थी.

खंगटाराम कहते हैं, ‘‘जवानों को ऐसा खाना खाने को दिया जाता है, जिसे आम आदमी नहीं खा सकता है. उस खाने को जवान मजबूरी में खाते हैं.’’

खंगटाराम के पिता एसके चौधरी का कहना है, ‘‘पहले खुशी हुई थी कि बेटा फौज में गया है, लेकिन वहां की परेशानियों को देख कर लगता है कि अच्छा हुआ कि वह यहां आ गया है और अब साथ में खेती का काम करेगा, तो कम से कम भरपेट खाना तो खाएगा.’’

तेज बहादुर यादव द्वारा लगाए गए आरोप को जब मीडिया ने लोगों से जानने के लिए बात की, तो श्रीनगर में सुरक्षा बलों के कैंपों के आसपास रहने वाले लोगों ने कहा कि बाजार से आधे रेट पर पैट्रोल, डीजल, चावल, मसाले जैसी चीजें मिल जाती हैं.

फर्नीचर के एक दुकानदार ने बताया कि फर्नीचर खरीदने की जिन लोगों की जिम्मेदारी है, वे कमीशन ले कर उन लोगों को और्डर देते हैं, पैसों के लिए सामान की क्वालिटी से भी समझौता करने को तैयार हो जाते हैं.

तेज बहादुर यादव का वीडियो आने के बाद केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, वायु सेना और सेना के जवानों ने भी अपनीअपनी बात रखी.

रोहतक के वायु सेना के एक पूर्व जवान ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख कर मौत की गुहार लगाई है, ताकि उसे जलालत भरी जिंदगी से छुटकारा मिल सके.

इस जवान का आरोप है कि वायु सेना के अफसरों को 14 हजार रुपए नहीं देने पर उसे कई झूठे आरोप लगा कर नौकरी से निकाल दिया.

इसी तरह केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, मथुरा के जवान जीत सिंह ने मिलने वाली सुविधाओं में भेदभाव का आरोप लगाया है.

सेना के जवान यज्ञ प्रताप ने वीडियो जारी कर सेना के अफसरों पर आरोप लगाया है कि अफसर सैनिकों से कपड़े धुलवाते हैं, बूट पौलिश कराते हैं, कुत्ते घुमाने और मैडमों के सामान लाने जैसे काम करवाते हैं. यह खबर जब मीडिया में आ रही थी, तो उसी समय यह खबर भी आई कि बिहार के औरंगाबाद में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के जवान बलवीर कुमार ने इंसास राइफल से अपने सहकर्मियों की हत्या कर दी.

पुलिस अधीक्षक सत्यप्रकाश ने घटना की जानकारी देते हुए बताया कि बलवीर कुमार ने छुट्टी पर जाने के लिए आवेदन किया था. उसे छुट्टी नहीं मिल पाई और दूसरे जवानों ने उस पर तंज कसा, तो गुस्से में आ कर उस ने गोलीबारी कर दी.

उसी दिन पुलवामा जिले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल  का जवान वीरू राम रैंगर ने खुद को गोली मार कर खुदकुशी करने की कोशिश की थी.

सेनाध्यक्ष ने जवानों से कहा है कि वे अपनी बात सोशल मीडिया पर नहीं उठाएं. उस के लिए सेना मुख्यालय, कमान मुख्यालय व निचले स्तर के कार्यालयों में शिकायत पेटी रखने की घोषणा की और कहा कि इन पेटियों के माध्यम से उठाए गए मुद्दों को मैं खुद देखूंगा.

हम सभी जानते हैं कि जेल, थानों या दूसरे दफ्तरों में इस तरह के बौक्स पहले से ही वहा रखे हैं और उन पर भी यही लिखा होता?है कि आप की पहचान गुप्त रखी जाएगी और इस को अधिकारी ही खोलेंगे. लेकिन हम इस तरह के बौक्स के परिणाम को भी जानते हैं.

सेना के दफ्तरों में शिकायत निवारण बौक्स अभी तक क्यों नहीं था? जवानों के दर्द को गृह मंत्रालय ने बेबुनियाद बता कर खारिज कर दिया है यानी कम शब्दों में कहा जाए, तो गृह मंत्रालय और अधिकारी जवानों को झूठा बता रहे हैं.

यह हैरानी की बात है कि तेज बहादुर यादव और इरफान ने वीडियो बना कर जो सुबूत सरकार और जनता तक पहुंचाए हैं, उन को सरकार मानने से इनकार कर रही है. क्या जवानों के साथ इस तरह का बरताव नहीं होता है?

ऐसा सवाल सोशल मीडिया पर आ जाने से पूंजीवादपरस्त मीडिया घराने भी इस मामले को उठाने के लिए मजबूर हुए. सीमा सुरक्षा बल के एक जवान इरफान ने 29 अप्रैल को वाराणसी में प्रैस कौंफ्रैंस कर के बताया था कि भारतबंगलादेश सीमा पर अधिकारी तस्करी कराते हैं और जो जवान मुंह खोलने की बात करता है, उसे फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाता है.

इरफान ने बताया कि 15 जनवरी, 2016 को 50 बंगलादेशी भारत में आना चाहते थे, तो उस ने घुसपैठ कराने से इनकार कर दिया. इसी बीच एक घुसपैठिए ने सीमा सुरक्षा बल के कमांडर को फोन कर के इरफान से बात कराई. कमांडर ने इरफान को सभी घुसपैठियों को आने देने के लिए आदेश दिया.

इरफान ने इस घटना की शिकायत जब अधिकारियों से की, तो उसे चुप रहने की नसीहत दी गई. 19 जनवरी की रात जब गेट खोला गया था, तो उस का वीडियो इरफान ने बनाया था. उस की शिकायत भी अधिकारियों से की गई, लेकिन कोई असर नहीं हुआ.

इरफान ने सीमा की बाड़ को काटते और जोड़ते हुए भी कुछ घुसपैठियों को पकड़ा था. उन लोगों ने भी कमांडर के आदेश पर ऐसा करने की बात कबूली थी. इस का वीडियो भी इरफान ने मीडिया के सामने दिखाया था.

इरफान का कहना है कि सीमा सुरक्षा बल के अधिकारी सीमा पार तस्करी कराते हैं. साथ ही, उस ने यह भी बताया कि लंगर में बंगलादेशी घुसपैठियों को उस ने काम करते हुए देखा था और पूछने पर उसे बताया गया कि कमांडर ने रखा है.

इरफान आगे बताता है कि जब अधिकारियों के सामने तस्करी की कलई खोली थी, तो उसे कमरे में बंद कर के पीटा गया था और सिगरेट से दागा गया था. उस के बाद इरफान सीमा सुरक्षा बल की नौकरी छोड़ कर अपने गांव आ गया.

इरफान ने बताया कि अधिकारी उस के पीछे पड़े हुए हैं और उसे भगोड़ा घोषित करने की धमकी दे रहे हैं. वह सीमा सुरक्षा बल में नहीं जाना चाहता. उस के बाद इरफान के साथ क्या हुआ, किसी को नहीं पता है.

तेज बहादुर यादव, खंगटाराम, जीत सिंह या इरफान का न तो यह पहला मामला है और न ही आखिरी. ऐसा होता रहा है और होता रहेगा.

जब किसान अपनी खेती की जमीन को तथाकथित तरक्की के लिए पूंजीपतियों को नहीं देना चाहते, तो इन्हीं जवानों को भेजा जाता है कि जाओ तुम ‘देशभक्त’ होने का परिचय दो. मजदूर जब अपनी मांगों को ले कर धरनाप्रदर्शन करते हैं या आदिवासी, दलित अपनी जीविका के साधन की मांग करते हैं, तो इन्हीं ‘देशभक्तों’ द्वारा उन का कत्लेआम कराया जाता है. उस समय इन जवानों को ‘देशभक्त’ का तमगा दे दिया जाता है.

जब यही ‘देशभक्त’ जवान अपनी मांगों को उठाते हैं, तो इन को भगोड़ा, अनुशासनहीन, नशेड़ी बना कर सजा मुकर्रर की जाती है. ये जवान उन्हीं मजदूरकिसान के बेटे हैं, जिन पर अफसरों के कहने पर वे लाठियां और गोलियां बरसाते हैं.

अफसरों का वर्ग अलग होता है. वे सांसदों, विधायकों, मंत्रियों, नौकरशाहों के घरों से आते हैं, जिस की न तो जमीन जाती है और न ही जान. इस समाज में जवान, किसान और विज्ञान से जुड़े तीनों समूहों को मिल कर लड़ना होगा, तभी वे जीत सकते हैं, नहीं तो किसी दिन किसान मारा जाएगा, जवान मारा जाएगा और विज्ञान को टोकरी में फेंक दिया जाएगा.

खेती के कचरे को बनाएं कमाई का जरीया

चावल निकालने के बाद बची धान की भूसी पहले भड़भूजों की भट्ठी झोंकने में जलावन के काम आती थी, लेकिन अब मदुरै, तिरूनवैल्ली और नमक्कन आदि में उस से राइस ब्रान आयल यानी खाना पकाने में काम आने वाला कीमती तेल बन रहा है. इसी तरह गेहूं का भूसा व गन्ने का कचरा जानवरों को चारे में खिलाते थे, लेकिन अब उत्तराखंड के काशीपुर में उस से उम्दा जैव ईंधन 2जी एथनाल व लिग्निन बन रहा है.

फिर भी खेती के कचरे को बेकार का कूड़ा समझ कर ज्यादातर किसान उसे खेतों में जला देते हैं, लेकिन उसी कचरे से अब बायोमास गैसीफिकेशन के पावर प्लांट चल रहे हैं. उन में बिजली बन रही है, जो राजस्थान के जयपुर व कोटा में, पंजाब के नकोदर व मोरिंडा में और बिहार आदि राज्यों के हजारों गांवों में घरों को रोशन कर रही है. स्वीडन ऐसा मुल्क है, जो बिजली बनाने के लिए दूसरे मुल्कों से हरा कचरा खरीद रहा है.

तकनीकी करामात से आ रहे बदलाव के ये तो बस चंद नमूने हैं. खेती का जो कचरा गांवों में छप्पर डालने, जानवरों को खिलाने या कंपोस्ट खाद बनाने में काम आता था, अब उस से कागज बनाने वाली लुग्दी, बोर्ड व पैकिंग मैटीरियल जैसी बहुत सी चीजें बन रही हैं. साथ ही खेती का कचरा मशरूम की खेती में भी इस्तेमाल किया जाता है.

धान की भूसी से तेल व सिलकान, नारियल के रेशे से फाइबर गद्दे, नारियल के छिलके से पाउडर, बटन व बर्तन और चाय के कचरे से कैफीन बनाया जाता है यानी खेती के कचरे में बहुत सी गुंजाइश बाकी है. खेती के कचरे से डीजल व कोयले की जगह भट्ठी में जलने वाली ठोस ब्रिकेट्स यानी गुल्ली अपने देश में बखूबी बन व बिक रही है. खेती के कचरे की राख से मजबूत ईंटें व सीमेंट बनाया जा सकता है.

जानकारी की कमी से भारत में भले ही ज्यादातर किसान खेती के कचरे को ज्यादा अहमियत न देते हों, लेकिन अमीर मुल्कों में कचरे को बदल कर फिर से काम आने लायक बना दिया जाता है. इस काम में कच्चा माल मुफ्त या किफायती होने से लागत कम व फायदा ज्यादा होता है. नई तकनीकों ने खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल करने के कई रास्ते खोल दिए हैं. लिहाजा किसानों को भरपूर फायदा उठाना चाहिए.

1. कचरा है सोने की खान

अमीर मुल्कों में डब्बाबंद चीजें ज्यादा खाते हैं, लेकिन भारत में हर व्यक्ति औसतन 500 ग्राम फल, सब्जी आदि का हरा कचरा रोज कूड़े में फेंकता है. यानी कचरे का भरपूर कच्चा माल मौजूद है, जिस से खाद, गैस व बिजली बनाई जा सकती है. खेती के कचरे को रीसाइकिल करने का काम नामुमकिन या मुश्किल नहीं है.

खेती के कचरे का सही निबटान करना बेशक एक बड़ी समस्या है. लिहाजा इस का जल्द, कारगर व किफायती हल खोजना बेहद जरूरी है. खेती के कचरे का रखरखाव व इस्तेमाल सही ढंग से न होने से भी किसानों की आमदनी कम है.

किसानों का नजरिया अगर खोजी, नया व कारोबारी हो जाए, तो खेती का कचरा सोने की खान है. देश के 15 राज्यों में बायोमास से 4831 मेगावाट बिजली बनाई जा रही है. गन्ने की खोई से 5000 मेगावाट व खेती के कचरे से 17000 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है. उसे नेशनल ग्रिड को बेच कर किसान करोड़ों रुपए कमा सकते हैं. 10 क्विंटल कचरे से 300 लीटर एथनाल बन रहा है. लिहाजा खेती के कचरे को जलाने की जगह उस से पैसा कमाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए किसानों को उद्यमी भी बनना होगा.

फसलों की कटाई के बाद तने, डंठल, ठूंठ, छिलके व पत्ती आदि के रूप में बहुत सा कचरा बच जाता है. खेती में तरक्की से पैदावार बढ़ी है. उसी हिसाब से कचरा भी बढ़ रहा है. खेती के तौरतरीके भी बदले हैं. उस से भी खेती के कचरे में इजाफा हो रहा है. मसलन गेहूं, धान वगैरह की कटाई अब कंबाइन मशीनों से ज्यादा होने लगी है. लिहाजा फसलों के बकाया हिस्से खेतों में ही खड़े रह जाते हैं. उन्हें ढोना व निबटाना बहुत टेढ़ी खीर है.

गेहूं का भूसा, धान की पुआल, गन्ने की पत्तियां, मक्के की गिल्ली और दलहन, तिलहन व कपास आदि रेशा फसलों का करीब 5000 टन कचरा हर साल बचता है. इस में तकरीबन चौथाई हिस्सा जानवरों को चारा खिलाने, खाद बनाने व छप्पर आदि डालने में काम आ जाता है. बाकी बचे 3 चौथाई कचरे को ज्यादातर किसान बेकार मान कर खेतों में जला कर फारिग हो जाते हैं, लेकिन इस से सेहत व माहौल से जुड़े कई मसले बढ़ जाते हैं.

जला कर कचरा निबटाने का तरीका सदियों पुराना व बहुत नुकसानदायक है. इस जलावन से माहौल बिगड़ता है. बीते नवंबर में दिल्ली व आसपास धुंध के घने बादल छाने से सांस लेना दूभर हो गया था. आगे यह समस्या और बढ़ सकती है. लिहाजा आबोहवा को बचाने व खेती से ज्यादा कमाने के लिए कचरे का बेहतर इस्तेमाल करना लाजिम है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बागबानी महकमे ने ऐसे कई तरीके निकाले हैं, जिन से कचरा कम निकलता है.

2. चाहिए नया नजरिया

उद्योगधंधों में छीजन रोक कर लागत घटाने व फायदा बढ़ाने के लिए वेस्ट मैनेजमेंट यानी कचरा प्रबंधन, रीसाइकलिंग यानी दोबारा इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. कृषि अपशिष्ट प्रबंधन यानी खेती के कचरे का सही इंतजाम करना भी जरूरी है. कचरे को फायदेमंद बनाने के बारे में किसानों को भी जागरूक होना चाहिए. इंतजाम के तहत हर छोटी से छोटी छीजन को रोकने व उसे फायदे में तब्दील करने पर जोर दिया जाता है.

अपने देश में ज्यादातर किसान गरीब, कम पढ़े व पुरानी लीक पर चलने के आदी हैं. वे पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलोजी यानी कटाई के बाद की तकनीकों की जगह आज भी सदियों पुराने घिसेपिटे तरीके ही अपनाते रहते हैं. इसी कारण वे अपनी उपज की कीमत नहीं बढ़ा पाते, वे उपज की प्रोसेसिंग व खेती के कचरे का सही इंतजाम व इस्तेमाल भी नहीं कर पाते.

ज्यादातर किसानों में जागरूकता की कमी है. उन्हें खेती के कचरे के बेहतर इस्तेमाल की तनकीकी जानकारी नहीं है. ऊपर से सरकारी मुलाजिमों का निकम्मापन, भ्रष्टाचार व ट्रेनिंग की कमी रास्ते के पत्थर हैं. लिहाजा खेती का कचरा फुजूल में बरबाद हो जाता है. इस से किसानों को माली नुकसान होता है, गंदगी बढ़ती है व आबोहवा खराब होती है.

प्रदूषण बढ़ने की वजह से सरकार ने खेतों में कचरा जलाने पर पाबंदी लगा दी है. उत्तर भारत में हालात ज्यादा खराब हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व उत्तर प्रदेश के खेतों में कचरा जलाने वाले किसानों से 15000 रुपए तक जुर्माना वसूलने व खेती का कचरा निबटाने के लिए मशीनें मुहैया कराने का आदेश दिया है. अब सरकार को ऐसी मशीनों पर दी जाने वाली छूट बढ़ानी चाहिए.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने खेती का कचरा बचाने के लिए राष्ट्रीय पुआल नीति बनाई थी. इस के तहत केंद्र के वन एवं पर्यावरण, ग्रामीण विकास व खेती के महकमे राज्यों को माली इमदाद देंगे, ताकि खेती के कचरे का रखरखाव आसान करने की गरज से उसे ठोस पिंडों में बदला जा सके. लेकिन सरकारी स्कीमें कागजों में उलझी रहती हैं. खेती के कचरे से उम्दा, असरदार व किफायती खाद बनाई जा सकती है.

अकसर किसानों को दूसरी फसलें बोने की जल्दी रहती है, लिहाजा वे कचरे को खेतों में सड़ा कर उस की खाद बनाने के मुकाबले उसे जलाने को सस्ता व आसान काम मानते हैं. मेरठ के किसान महेंद्र की दलील है कि फसलों की जड़ें खेत में जलाने से कीड़ेमकोड़े व उन के अंडे भी जल कर खत्म हो जाते हैं, लिहाजा अगली फसल पर हमला नहीं होता.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के वैज्ञानिक खेतों में कचरा जलाना नुकसानदायक मानते हैं. चूंकि इस से मिट्टी को फायदा पहुंचाने वाले जीव खत्म होते हैं, लिहाजा किसान खेती का कचरा खेत में दबा कर सड़ा दें व बाद में जुताई कर दें तो वह जीवांश खाद में बदल जाता है. रोटावेटर मशीन कचरे को काट कर मिट्टी में मिला देती है.

आलू व मूंगफली की जड़ों, मूंग व उड़द की डंठलों और केले के कचरे आदि से बहुत बढि़या कंपोस्ट खाद बनती है. खेती के कचरे को किसी गड्ढे में डाल कर उस में थोड़ा पानी व केंचुए डालने से वर्मी कंपोस्ट बन जाती है, लेकिन ज्यादातर किसान खेती के कचरे से खाद बनाने को झंझट व अंगरेजी खाद डालने को आसान मानते हैं.

3. ऐसा करें किसान

तकनीक की बदौलत तमाम मुल्कों में अब कचरे का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इस में अरबों रुपए की सालाना खरीदफरोख्त होती है. लिहाजा बहुत से मुल्कों में कचरा प्रबंधन, उस के दोबारा इस्तेमाल व कचरे से बने उत्पादों पर खास ध्यान दिया जा रहा है. अपने देश में भी नई तकनीकें, सरकारी सहूलियतें व मशीनें मौजूद हैं. लिहाजा किसान गांव में ही कचरे की कीमत बढ़ाने वाली इकाइयां लगा कर खेती से ज्यादा धन कमा सकते हैं.

खेती के कचरे से उत्पाद बनाने के लिए किसान पहले माहिरों व जानकारों से मिलें, कचरा प्रबंधन व उसे रीसाइकिल करने की पूरी जानकारी हासिल करें, पूरी तरह से इस काम को सीखें और तब पहले छोटे पैमाने पर शुरुआत करें. तजरबे के साथसाथ वे इस काम को और भी आगे बढ़ाते जाएं.

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन आदि के बारे में खेती के रिसर्च स्टेशनों, कृषि विज्ञान केंद्रों व जिलों की नवीकरणीय उर्जा एजेंसियों से जानकारी मिल सकती है. पंजाब के कपूरथला में सरदार स्वर्ण सिंह के नाम पर चल रहे जैव ऊर्जा के राष्ट्रीय संस्थान में नई तकनीकों के बारे में बढ़ावा व ट्रेनिंग देने आदि का काम होता है.

4. पूंजी इस तरह जुटाएं

किसान अकेले या आपस में मिल कर पूंजी का इंतजाम कर सकते हैं. सहकारिता की तर्ज पर इफको, कृभको, कैंपको व अमूल आदि की तरह से ऐसे कारखाने लगा सकते हैं, जिन में खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके. खाने लायक व चारा उपज के अलावा होने वाली पैदावार व खरपतवारों से जैव ऊर्जा व ईंधन बनाने वाली बायोमास यूनिटों को सरकार बढ़ावा दे रही है. लिहाजा सरकारी स्कीमों का फायदा उठाया जा सकता है.

केंद्र सरकार का नवीकरण ऊर्जा महकमा भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास संस्था, इरेडा, लोधी रोड, नई दिल्ली फोन 911124682214 के जरीए अपनी स्कीमों के तहत पूंजी के लिए माली इमदाद 15 करोड़ रुपए तक कर्ज व करों की छूट जैसी कई भारीभरकम सहूलियतें देता है. जरूरत आगे बढ़ कर पहल करने व फायदा उठाने की है.

औरतें अपने पैरों पर खड़ी हों : प्रज्ञा भारती

साल 2003 में हैल्थ सैक्टर से समाजसेवा का काम शुरू करने वाली प्रज्ञा भारती आज बिहार में अच्छीखासी पहचान और इज्जत हासिल कर चुकी हैं. प्रज्ञा भारती साल 2005 से औरतों की तरक्की के लिए भी लगातार काम कर रही हैं. वे अब तक बिहार के 10 जिलों में 5 हजार औरतों को हुनरमंद बना चुकी हैं और 2 हजार औरतों को रोजगार दिला चुकी हैं. वे ‘परिहार सेवा संस्थान’ के तले औरतों को हुनरमंद बनाने के साथसाथ उन्हें रोजगार देने की मुहिम में लगी हुई हैं. साथ ही, वे पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा रही हैं.

प्रज्ञा भारती कहती हैं कि औरतों को हुनरमंद बनाने के साथसाथ उन्हें रोजगार से जोड़ना जरूरी है. जब तक काम करने के बाद औरतों के हाथ में पैसा नहीं आएगा, तब तक उन के मन में अपने पैरों पर खड़ा होने का भाव नहीं आएगा.

फिलहाल प्रज्ञा भारती ‘वुमन फूड वैंडर योजना’ पर काम कर रही हैं. इस योजना में औरतों को ही रखा गया है. कैटरिंग से ले कर सर्विस तक के काम में औरतों को ही लगाया गया है. औरतें ही खाना पकाएंगी, परोसेंगी, पैक करेंगी और उसे पहुंचाएंगी. इस के लिए फिलहाल सौ औरतों को ट्रेंड किया गया है.

प्रज्ञा भारती कहती हैं कि घरेलू औरतों को उन के घर में ही काम देने की जरूरत है. इस से वे कमाई के साथसाथ अपने बच्चों और परिवार की भी देखरेख कर सकेंगी.

प्रज्ञा भारती बाल सुधारगृह के बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए स्पैशल ट्रेनिंग देने में लगी हुई हैं. इस से बाल सुधारगृह से बाहर निकल कर बच्चे रोजगार में लग सकेंगे.

प्रज्ञा भारती बताती हैं कि उन्होंने पटना कालेज से बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मास कम्यूनिकेशन में एमए किया था. उस के बाद कुछ दिनों तक पत्रकारिता की, पर उस में मन नहीं रमा, क्योंकि वे समाजसेवा और औरतों को मजबूत करने की दिशा में कुछ ठोस काम करने के सपने देख रही थीं और साल 2003 में वे इस मुहिम में लग गईं.

सब से पहले उन्होंने पटना के स्लम एरिया कमला नेहरू नगर, कौशल नगर और कुम्हार टोली की औरतों के हालात का जायजा लिया और उन्हें हुनरमंद बनाने के काम में लग गईं.

इस के बाद प्रज्ञा भारती जहानाबाद और अरवल जैसे नक्सली पैठ वाले इलाकों में भी अपने दलबल के साथ पहुंच गईं और वहां की औरतों को काम सिखाने लगीं.

सिकरिया जैसे नक्सली इलाके, जहां पुलिस भी जाने से खौफ खाती थी, में पहुंच कर प्रज्ञा भारती ने औरतों के मन से मर्द के भरोसे बैठ कर जिंदगी गुजार देने के भाव को मिटाने में कामयाबी हासिल की.

प्रज्ञा भारती को औरतों और कमजोर लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की सीख अपने मातापिता से मिली. उन के पिता बचपन से ही पोलियो के शिकार हो गए थे, इस के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और सांख्यिकी महकमे के डायरैक्टर पद तक पहुंचे.

प्रज्ञा भारती की मां ने भी शारीरिक रूप से कमजोर होने के बावजूद अपना कारोबार खड़ा किया. ह्वीलचेयर पर बैठ कर ही उन्होंने अपने कारोबार को आगे बढ़ाने में कामयाबी पाई. उन की मां की सोच है कि वे किसी के सहारे जिंदगी न गुजारें. इसी सोच ने प्रज्ञा भारती को.

मजदूर ही नहीं खेतिहर भी हैं महिला किसान

महिला किसानों को ले कर आमतौर पर यह सोचा जाता है कि वे केवल खेती में मजदूरी का ही काम करती हैं. असल में यह बात सच नहीं है. आज महिलाएं किसान भी हैं. वे खेत में काम कर के घर की आमदनी बढ़ा रही हैं. बैंक से लोन लेने के साथ ही साथ ट्रैक्टर चलाने, बीज रखने, जैविक खेती करने, खेत में खाद और पानी देने जैसे बहुत सारे काम करती हैं. ऐसी महिला किसानों की अपनी सफल कहानी है, जिस से दूसरी महिला किसान भी प्रेरणा ले रही हैं. जरूरत इस बात की है कि हर गांव में ऐसी महिला किसानों की संख्या बढे़ और खेती की जमीन में उन को भी मर्दों के बराबर हक मिले.

महिलाओं की सब से बड़ी परेशानी यह है कि खेती की जमीन में उन का नाम नहीं होता. इस वजह से बहुत सी सरकारी योजनाओं का लाभ महिला किसानों को नहीं मिल पाता है. खेती की जमीन में महिलाओं का नाम दर्ज कराने के लिए चले ‘आरोह’ अभियान से महिलाओं में एक जागरूकता आई है. आज वे बेहतर तरह सेअपना काम कर रही हैं. तमाम प्रगतिशील महिला किसानों से बात करने पर पता चलता है कि वे किस तरह से अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ीं.

मुन्नी देवी शाहजहांपुर की रहने वाली हैं. उन के परिवार में 2 बेटे व एक बेटी है. लेकिन घर के हालात कुछ ऐसे बदले कि मुन्नी देवी का परिवार तंगहाली में आ गया. घर में बंटवारा हुआ. पति के हिस्से में जो जमीन आई, उस से गुजारा करना मुश्किल था.

मुन्नी देवी को आश्रम से जुड़ने का मौका मिला. हिम्मत जुटा कर उन्होंने पति से बात कर आश्रम में वर्मी कंपोस्ट बनाने का प्रशिक्षण ले कर बाद में खुद ही खाद बनाने का काम शुरू कर दिया.

आर्थिक उन्नयन के लिए मुन्नी देवी फसलचक्र व फसल प्रबंधन को बेहद जरूरी मानती हैं. 3 बीघे खेत में सब्जी व 5 बीघे खेत में गेहूं 4 बीघे खेत में गन्ने की फसल उगा रही हैं. गन्ने के साथ मूंग, उड़द, मसूर, लहसुन, प्याज, आलू, सरसों वगैरह की सहफसली खेती करती हैं, जिस से परिवार की रसोई के लिए नमक के अलावा बाकी चीजों की जरूरत पूरी कर लेती हैं.

इसलावती देवी अंबेडकरनगर से हैं. उन्होंने कहा कि हम ने मायके में देखा था कि मिर्च की खेती किस तरह होती है और यह लाभप्रद भी है, उसी अनुभव से हम ने मिर्च की खेती शुरू की और आज हम अपने 7 बीघे खेत में सिर्फ सब्जी और मेंथा आयल की फसल उगाते हैं. मिर्च की खेती एक नकदी फसल है. दूसरी सब्जियां भी महंगे दामों में बिक जाती हैं. खेत में हमारा पूरा परिवार कड़ी मेहनत करता है. खेती कोई घाटे का काम नहीं है, अगर खुद किया जाए तो. मैं पिछले साल से अब तक 1 लाख रुपए का मेंथा आयल और 40000 रुपए की मिर्च बेच कर शुद्ध लाभ कमा चुकी हूं. जहां रोज 1000 रुपए की मिर्च, 200 रुपए का दूध बेच लेते हैं, वहीं मेंथा हमारा इमर्जेंसी कैश है. आरोह मंच से जुड़ने के बाद तो जैसे उन के स्वाभिमान में भी बढ़ोतरी हुई है.

कुंता देवी सहारनपुर की एक साहसी, जुझारू व संघर्षशील महिला किसान हैं. 1 दिन जब वे पशुओं के लिए मशीन में चारा काट रही थीं, तो उन का हाथ घास की गठरी के साथ मशीन में चला गया और पूरी बाजू ही कट गई. कुंता ने उसे ही अपना नसीब समझा और सबकुछ चुपचाप सह लिया. लेकिन यहीं कुंता के दुख का अंत नहीं था. उस के देवर व जेठ की बुरी नजर उस पर थी. कुंता का पति मानसिक रोगी था, जिस के कारण कुंता का देवर धर्म सिंह उस का फायदा उठाना चाहता था. वह कुंता पर लगातार दबाव डालने लगा कि पति के साथसाथ वह देवर के साथ भी रहे.

एक दिन जब कुंता पति के साथ अपने खेत में काम कर रही थी, तभी उस का जेठ जय सिंह वहां आया और उस के पति को जबरदस्ती पेड़ से बांध दिया और कुंता के साथ जबरदस्ती करने लगा. लेकिन कुंता बहुत हिम्मतवाली महिला है. उस ने खेत में ही डंडा निकाल कर अपने जेठ को पीटना शुरू कर दिया. उस का जेठ वहां से जान बचा कर भाग गया.

मीरा देवी गोरखपुर की एक लघु सीमांत महिला किसान हैं. आरोह अभियान से पिछले 10 वर्षों से जुड़ी हैं. ग्राम जनकपुर की आरोह महिला मंच की अध्यक्ष भी हैं. आरोह अभियान से जुड़ने के बाद मीरा में जो साहस व हिम्मत आई है, वह एक मिसाल है.

8 साल ही विवाह के हुए थे कि पति की अचानक मौत हो गई. अब मीरा की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे खेती, परिवार व बच्चे कैसे संभाले  इसी  बीच आरोह मंच द्वारा गांव में काम शुरू किया गया, जिस से मीरा जुड़ी.

स्वयं सहायता समूह बना, जिस में मीरा अध्यक्ष के रूप में चुनी गई. समूह की बैठक में भाग लेने से और अन्य गतिविधि जैसे किसान विद्यालय की बैठक, संघ की बैठक वगैरह में जाने के कारण मीरा को अपनी बात कहने का साहस आया.

जगरानी देवी ललितपुर की एक महिला किसान हैं. उन की शहरी आदिवासी पट्टे की जमीन पर वर्षों से दंबगों का कब्जा था, जिस पर इन को कब्जा नहीं मिल रहा था. जब यह आरोह अभियान से जुड़ीं, उस के बाद आरोह अभियान द्वारा जनसुनवाई की गई, जिस में एसडीएम आए तब इन्होंने उन के सामने अपनी समस्या रखी. उस के बाद एसडीएम ने उन्हें कब्जा दिलाया. अब जगरानी देवी अपने खेत में सब्जी की खेती करती हैं और अपनी सब्जी को खुद ही बाजार में बेचती हैं.

समाज को है सोच बदलने की जरूरत

अमेरिका के चुनावी माहौल में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन की खबरें कुछ कम हो गईं पर असलियत यही है कि लिंग, रंग, जाति, रेस के मिश्रण से बना महान अमेरिका न केवल आज अपनी गलतियों को उजागर करने में लगा हुआ है, लगातार उन में सुधार भी करना चाह रहा है. भारत में भी आज यही स्थिति है. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह से दक्षिणी अमेरिका से विधिवत या गैरकानूनी आए लोगों का भय दिखा कर वोट लिए हैं वैसा ही भारत में होता रहा है. यहां कभी बंगलादेशियों को तो कभी पाकिस्तानियों को ले कर देशभक्ति का गुणगान कर वोटरों को अपने पक्ष में वोट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. डोनाल्ड ट्रंप की काली जनता के खिलाफ बोलने की खुल्लमखुल्ला हिम्मत तो नहीं हुई पर जब वे औरतों और लैटिनों के खिलाफ बोलते थे तो उस के पीछे अश्वेतों के प्रति जहर भी छिपा रहता था. यह जहर बहुत से गोरों के मन में सदियों से भरा है, वे अश्वेतों को आज भी गुलाम समझते हैं.

यही भारत में हो रहा है. यहां ‘दलित लाइव्स मैटर’ जैसे आंदोलन की जरूरत है क्योंकि यहां आज भी गलीगली, गांवगांव में, 1932 के अंबेडकर-गांधी पैक्ट के बावजूद, दलित गरीब, बीमार, अंधविश्वासी, बेसहारा, भूखे और शोषित हैं.

आरक्षण का लाभ भारत की जनसंख्या के बहुत छोटे से हिस्से को मिला. वह अपनी पहचान व आत्मविश्वास को नहीं बना पाया और इसी कारण उस का अर्थव्यवस्था में वह योगदान नहीं हो रहा जो उस की मेहनत, योग्यता, उपयोगिता आदि से संभव है. दलितों, पिछड़ों, शक की निगाहों से देखे जाने वाले अल्पसंख्यक मुसलिमों, सभी अन्य वंचित आदिवासी जातियों व धर्मों की औरतों को यदि अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में नहीं लाया गया तो देश कभी वांछित तरक्की नहीं कर पाएगा. यह तभी संभव है जब धर्म के अंधविश्वास, जो इन जातियों, वर्गों व ऊंचे शक्तिशाली संपन्न वर्गों के बीच दीवारें खड़ी करते हैं, तोड़े जाएं. भारत में दलित व मुसलिम रंग या शारीरिक बनावट में अलग नहीं हैं, यह एक सुखद बात है. पर इस के बावजूद उन के साथ भेदभाव होता है तो धार्मिक कारणों से. दलितों और पिछड़ों को धर्मजनित वर्णव्यवस्था अलग करती है और मुसलमानों को इसलाम व उस पर बने पाकिस्तान व बंगलादेश.

चीन और अमेरिका यदि सफल हुए तो इसलिए कि उन्होंने सभी रंगों, जातियों, औरतों को दुनिया के अन्य समाजों के मुकाबले बराबरी का ज्यादा हक दिया. भारत को उन्नति की सीढ़ी पर अगला कदम रखना है तो समाज की सोच बदलनी होगी. देश को अलगाववादी सोच पर हमला करना होगा और अलगाववाद केवल कश्मीर में ही नहीं है, हमारे दिलों में भी बैठा है, यह हमें पैदाइशी गुणों के रूप में मिल रहा है.

युवाओं के सपने चूर करती अमेरिकी वीजा नीति

अमेरिका की प्रस्तावित नई वीजा नीति से दुनियाभर में खलबली मची हुई है. इस से अमेरिका में रह रहे एच1बी वीजा धारकों की नौकरी पर संकट तो है ही, वहां जाने का सपना देखने वाले युवा और उन के मांबाप भी खासे निराश हैं. एच1बी नीति का विश्वभर में विरोध हो रहा है. अमेरिकी कंपनियां और उन के प्रमुख, जो ज्यादातर गैरअमेरिकी हैं, विरोध कर रहे हैं. खासतौर से सिलीकौन वैली में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे हैं. सिलीकौन वैली की 130 कंपनियां ट्रंप के फैसले का खुल कर विरोध कर रही हैं. ये कंपनियां दुनियाभर से जुड़ी हुई हैं. वहां काम करने वाले लाखों लोग अलगअलग देशों के नागरिक हैं. उन में खुद के भविष्य को ले कर कई तरह की शंकाएं हैं. हालांकि यह साफ है कि अगर सभी आप्रवासियों पर सख्ती की जाती है तो सिलीकौन वैली ही नहीं, पूरे अमेरिका का कारोबारी संतुलन बिगड़ जाएगा.

इस से उन कंपनियों में दिक्कत होगी जो भारतीय आईटी पेशेवरों को आउटसोर्सिंग करती हैं. कई विदेशी कंपनियां भारतीय कंपनियों से अपने यहां काम का अनुबंध करती हैं. इस के तहत कई भारतीय कंपनियां हर साल हजारों लोगों को अमेरिका में काम करने के लिए भेजती हैं.

आप्रवासन नीति पर विवाद के बीच अमेरिका की 97 कंपनियों ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ मुकदमा ठोक दिया है. इन में एपल, गूगल, माइक्रोसौफ्ट भी शामिल हैं. इन में से अधिकतर कंपनियां आप्रवासियों ने खड़ी की हैं. उन्होंने अदालत में दावा किया कि राष्ट्रपति का आदेश संविधान के खिलाफ है. आंकड़ों का हवाला दे कर कहा गया है कि अगर इन कंपनियों को मुश्किल होती है तो अमेरिकी इकौनोमी को 23 प्रतिशत तक का नुकसान हो सकता है.

कई देश ट्रंप प्रशासन के आगे वीजा नीति न बदलने के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं. भारत भी अमेरिका में रह रहे अपने व्यापारियों के माध्यम से दबाव बना रहा है कि जैसेतैसे मामला वापस ले लिया जाए या उदारता बरती जाए. भारत के पक्ष में लौबिंग करने वाले एक समूह नैसकौम के नेतृत्व में भारतीय कंपनियों के बड़े अधिकारी इस मसले को ट्रंप प्रशासन के सामने उठाना चाह रहे हैं.

नई वीजा नीति से भारत सब से अधिक चिंतित है. 150 अरब डौलर का घरेलू आईटी उद्योग संकटों से घिर रहा है. भारत के लाखों लोग अमेरिका में काम कर रहे हैं. तय है वहां काम  कर रहे भारतीय पेशेवरों पर खासा प्रभाव पड़ेगा. इस से टाटा कंसल्टैंसी लिमिटेड यानी टीसीएल, विप्रो, इन्फोसिस जैसी भारतीय आईटी कंपनियां भी प्रभावित होंगी. आईटी विशेषज्ञ यह मान कर चल रहे हैं कि यह नीति अमल में आती है तो यह बड़ी मुसीबत के समान होगी. अगर ऐसा हुआ तो अमेरिका दुनिया को श्रेष्ठ आविष्कारक देने वाला देश नहीं रह जाएगा.

यह सच है कि दुनियाभर की प्रतिभाएं अमेरिका जाना चाहती हैं. वर्ष 2011 में आप्रवासन सुधार समूह ‘पार्टनरशिप फौर अ न्यू अमेरिकन इकोनौमी’ ने पाया कि फौर्च्यून 500 की सूची में शामिल कंपनियों में 40 प्रतिशत की स्थापना आप्रवासियों ने की. अमेरिका में 87 निजी अमेरिकन स्टार्टअप ऐसे हैं जिन की कीमत 68 अरब डौलर या इस से अधिक है. कहा जाता है कि यहां आधे से अधिक स्टार्टअप ऐसे हैं जिन की स्थापना करने वाले एक या उस से अधिक लोग प्रवासी थे, उन के 71 प्रतिशत एक्जीक्यूटिव पद पर नियुक्त थे.

गूगल, माइक्रोसोफ्ट जैसी कंपनियों के प्रमुख भारतीय हैं जो अपनी योग्यता व कुशलता से न सिर्फ इन कंपनियों को चला रहे हैं, इन के जरिए तकनीक की दुनिया में एक नए युग की शुरुआत भी कर चुके हैं. इन कंपनियों ने हजारों जौब उत्पन्न किए हैं और पिछले दशक में इन्होंने न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी से निकाला बल्कि अरबों डौलर कमाई कर के उसे मजबूत भी बनाया. ये वही कंपनियां हैं जिन के संस्थापक दुनिया के अलगअलग देशों के नागरिक हैं.

1. क्या है एच1बी वीजा

एच1बी वीजा अमेरिकी कंपनियों को अपने यहां विदेशी कुशल और योग्य पेशेवरों को नियुक्त करने की इजाजत देता है. अगर वहां समुचित जौब हो और स्थानीय प्रतिभाएं पर्याप्त न हों तो नियोक्ता विदेशी कामगारों को नियुक्ति दे सकते हैं.

1990 में तत्कालीन राष्ट्रपति जौर्ज डब्लू बुश ने विदेशी पेशेवरों के लिए इस विशेष वीजा की व्यवस्था की थी. आमतौर पर किसी खास कार्य में कुशल लोगों के लिए यह 3 साल के लिए दिया जाता है. एच1बी वीजा केवल आईटी, तकनीकी पेशेवरों के लिए नहीं है, बल्कि किसी भी तरह के कुशल पेशेवर के लिए होता है. 2015 में एच1बी वीजा सोशल साइंस, आर्ट्स, कानून, चिकित्सा समेत 18 पेशों के लिए दिया गया. अमेरिकी सरकार हर साल इस के तहत 85 हजार वीजा जारी करती आई है. कहा जा रहा है कि फर्स्ट लेडी मेलानिया ट्रंप भी अमेरिका में मौडल के रूप में स्लोवेनिया से एच1बी वीजा के तहत आई थीं.

2. प्रस्तावित आव्रजन नीति

ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी युवाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश जारी किया और सिलीकौन वैली के डैमोके्रट जोए लोफग्रेन द्वारा संसद में हाई स्किल्ड इंटिग्रिटी ऐंड फेरयनैस ऐक्ट-2017 पेश किया गया. इस के तहत इन वीजाधारकों का वेतन लगभग दोगुना करने का प्रस्ताव है. अभी एच1बी वीजा पर बुलाए जाने वाले कर्मचारियों को कंपनियां कम से कम 60 हजार डौलर का भुगतान करती हैं. विधेयक के ज्यों का त्यों पारित होने के बाद यह वेतन बढ़ कर 1 लाख 30 हजार डौलर हो जाएगा. विधेयक में कहा गया है, ‘‘अब समय आ गया है कि हमारी आव्रजन प्रणाली अमेरिकी कर्मचारियों के हित में काम करना शुरू कर दे.’’

दरअसल, अब अमेरिका में यह भावना फैलने लगी थी कि विदेशी छात्र स्थानीय आबादी का रोजगार खा रहे हैं. ट्रंप इसी सोच का फायदा उठा कर सत्ता में पहुंच गए. उन्होंने चुनावी सभाओं में अमेरिकी युवाओं से विदेशियों की जगह उन के रोजगार को प्राथमिकता देने का वादा किया था.

वास्तव में भारतीय आईटी कंपनियां अमेरिका में जौब भी दे रही हैं और वहां की अर्थव्यवस्था में योगदान भी कर रही हैं. भारतीय आईटी कंपनियों से अमेरिका में 4 लाख डायरैक्ट तथा इनडायरैक्ट जौब मिल रहे हैं. वहीं, अमेरिकी इकोनौमी में 5 बिलियन डौलर बतौर टैक्स चुकाया जा रहा है. भारत से हर साल एच1बी वीजा तथा एल-1 वीजा फीस के रूप में अमेरिका को 1 बिलियन डौलर की आमदनी हो रही है.

अमेरिका पिछले साल जनवरी 2016 में एच1बी और एल-1 वीजा फीस बढ़ा चुका है. एच1बी वीजा की फीस 2 हजार डौलर से 6 हजार डौलर और एल-1 वीजा की फीस 4,500 डौलर कर दी गई थी. हाल के वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने यह नियम बना लिया कि विदेशों से प्रतिवर्ष केवल एक लाख छात्र ही ब्रिटेन आ सकते हैं. उस ने वीजा की शर्तें बहुत कठोर कर दीं. लगभग इसी समय अमेरिका ने उदारवादी शर्तों पर स्कौलरशिप दे कर भारतीय छात्रों को आकर्षित किया. वहां पार्टटाइम काम कर के शिक्षा का खर्च जुटाना भी आसान था. अनेक भारतीय छात्र,  जिन्होंने अमेरिका में शिक्षा प्राप्त की थी, वहीं बस गए. अमेरिकी संपन्न जनता को भी सस्ती दरों पर प्रशिक्षित भारतीय छात्र मिल जाते थे जो अच्छी अंगरेजी बोल लेते थे और कठिन परिश्रम से नहीं चूकते थे.

एच1बी वीजा नीति को ले कर भारतीय आईटी कंपनियों में नाराजगी है. उन का तर्क है कि आउटसोर्सिंग सिर्फ उन के या भारत के लिए फायदेमंद नहीं है बल्कि यह उन कंपनियों व देशों के लिए भी लाभदायक है जो आउटसोर्सिंग कर रहे हैं.

नए कानून से भारतीय युवा उम्मीदों को गहरा आघात लगेगा. सालों से जो भारतीय मांबाप अपने बच्चों को अमेरिका भेजने का सपना देख रहे हैं, उन पर तुषारापात हो गया है. इस का असर दिखने भी लगा है. आईटी कंपनियां कैंपस में नौकरियां देने नहीं जा रही हैं. भारत के प्रमुख इंजीनियरिंग और बिजनैस स्कूलों के कैंपस प्लेसमैंट पर अमेरिका के कड़े वीजा नियमों का असर देखा जा रहा है. जनवरी से देश के प्रमुख आईआईएम और आईआईटी शिक्षण संस्थानों समेत प्रमुख कालेजों में प्लेसमैंट प्रक्रिया शुरू हुई पर उस में वीजा नीति का असर देखा जा रहा है.

3. प्रतिभा पलायन क्यों?

सवाल यह है कि भारतीय विदेश में नौकरी करने को अधिक लालायित क्यों है? असल में इस के पीछे सामाजिक और राजनीतिक कारण प्रमुख हैं. लाखों युवा और उन के मांबाप अमेरिका में जौब का सपना देखते हैं. बच्चा 8वीं क्लास में होता है तभी से वह और उस के परिवार वाले तैयारी में जुट जाते हैं.

इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट व अन्य डिगरियों पर लाखों रुपए खर्र्च कर मांबाप बच्चों के बेहतर भविष्य का तानाबाना बुनने में कसर नहीं छोड़ते. आईआईटी, मैनेजमैंट में पढ़ाने वाले शिक्षक भी बच्चों के दिमाग में विदेश का ख्वाब जगाते रहते हैं. इन विषयों का सिलेबस ही विदेशी नौकरी के लायक होता है.

वहीं, मांबाप के लिए विदेश में रह कर नौकरी करने का एक अलग ही स्टेटस है. इस से परिवार की सामाजिक हैसियत ऊंची मानी जाती है. विदेश में नौकरी कर रहे युवक के विवाह के लिए ऊंची बोली लगती है. परिवार, नातेरिश्तेदारी में गर्व के साथ कहा जाता है कि हमारे बेटेभतीजे विदेश में रहते हैं. इस से सामान्य परिवार से हट कर एक खास रुतबा कायम हो जाता है.

60 के दशक में पहले अमीर परिवारों के भारतीय छात्र अधिकतर ब्रिटेन जाते थे. वहां के विश्वविद्यालय बहुत प्रतिष्ठित थे. कुछ विश्वविद्यालयों में यह प्रावधान था कि छात्र कैंपस से बाहर जा कर पार्टटाइम नौकरी कर सकते थे जिस से पढ़ाई का खर्च निकल सके पर धीरेधीरे ब्रिटिश सरकार ने पार्टटाइम काम कर के पढ़ाई की इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना शुरू कर दिया. फिर ब्रिटेन में यह धारणा बनने लगी कि ये लोग स्थानीय लोगों का रोजगार छीन रहे हैं. लेकिन भारतीय आईटी इंडस्ट्री का मानना है कि अमेरिका में आईटी टैलेंट की बेहद कमी है. भारतीयों को इस का खूब फायदा मिला.

4. बदहाल सरकारी नीतियां

विदेशों में पलायन की एक प्रमुख वजह भारत की सरकारी नीतियां हैं. भारतीय प्रतिभाओं का  पलायन सरकारी निकम्मेपन, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार की वजह से हुआ. सरकार उन्हें पर्याप्त साधनसुविधाएं, वेतन नहीं दे सकी. सरकार ब्रेनड्रेन रोकना ही नहीं चाहती. इस के लिए कानून बनाया जा सकता है पर हमारे नेताओं को डर है कि इस से जो रिश्वत मिलती है वह बंद हो जाएगी.

अमेरिका जैसे देश में युवाओं को अच्छा वेतन, सुविधाएं मिल रही हैं. वे वापस लौटना नहीं चाहते. कई युवा तो परिवार के साथ वहीं रह रहे हैं और ग्रीनकार्ड के लिए प्रयासरत हैं. कई स्थायी तौर पर बस चुके हैं. सब से बड़ी बात है वहां धार्मिक बंदिशें नहीं हैं. भारतीय दकियानूसी सोच के चंगुल से दूर वहां खुलापन, उदारता और स्वतंत्रता का वातावरण है.

दरअसल, किसी भी देश के नागरिक को दुनिया में कहीं भी पढ़नेलिखने, रोजगार पाने का हक होना चाहिए. प्रकृति ने इस के लिए कहीं, कोई बाड़ नहीं खड़ी की. आनेजाने के नियमकायदे तो देशों ने बनाए हैं पर यह हर व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है. बंदिशें लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ हैं. इस से अमेरिका ही नहीं, दूसरे देशों की आर्थिक दशा पर भी असर पड़ेगा. तकनीक, तरक्की अवरुद्ध होगी.

इस तरह की रोकटोक से कोई नया आविष्कार न होने पाएगा. दुनिया अपने में सिकुड़ जाएगी. कोलंबस, वास्कोडिगामा अगर सीमाएं लांघ कर बाहर न निकलते तो क्या दुनिया एकदूसरे से जुड़ पाती. शिक्षा, ज्ञान, तकनीक, जानकारी, नए अनुसंधान फैलाने से ही मानव का विकास होगा, नहीं तो दुनिया कुएं का मेढक बन कर रह जाएगी. विकास से वंचित करना विश्व के साथ क्या अन्याय नहीं होगा.

अलग धार्मिक पहचान के मारे आप्रवासी

अमेरिका के कैंसास शहर में 22 फरवरी को 2 भारतीय इंजीनियरों को गोली मार दी गई. इस में हैदराबाद के श्रीनिवास कुचीवोतला की मौत हो गई और वारंगल के आलोक मदसाणी घायल हैं. गोली एक पूर्व अमेरिकी नौसैनिक ने मारी और वह गोलियां चलाते हुए कह रहा था कि आतंकियो, मेरे देश से निकल जाओ. इसे नस्ली हमला माना जा रहा है. नशे में धुत हमलावर एडम पुरिंटन की दोनों भारतीय इंजीनियरों से नस्लीय मुद्दे पर बहस हुई थी.

इसी बीच, 27 फरवरी को खबर आई कि व्हाइट हाउस में हिजाब पहन कर नौकरी करने वाली रूमाना अहमद ने नौकरी छोड़ दी. 2011 से व्हाइट हाउस में काम करने वाली रूमाना राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की सदस्य थीं. वैस्ट विंग में हिजाब पहनने वाली वे एकमात्र महिला थीं.

खबर में यह तो साफ नहीं है कि रूमाना अहमद ने नौकरी क्यों छोड़ी लेकिन उन की बातों से स्पष्ट है कि अलग धार्मिक पहचान की वजह से उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा. वे बुर्का पहनना नहीं छोड़ना चाहती थीं. तभी उन्होंने कहा कि बराक ओबामा के समय में उन्हें कोई परेशानी नहीं थी.

भारतीय संगठन ने अमेरिका में रह रहे भारतीयों के लिए जो एडवाइजरी जारी की है उस में अपनी स्थानीय भाषा न बोलने की सलाह तो दी गई है पर यह नहीं कहा गया कि वे अपनी धार्मिक पहचान छोड़ कर ‘जैसा देश, वैसा भेष’ के हिसाब से रहें.

आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्लीय हिंसा 115 प्रतिशत बढ़ी है. ट्रंप की जीत के 10 दिनों के भीतर ही हेट क्राइम के 867 मामले दर्ज हो चुके थे. वहां आएदिन मुसलमानों, अश्वेतों, भारतीय हिंदुओं व सिखों के साथ धार्मिक, नस्लीय भेदभाव व हिंसा होनी तो आम बात है लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्ली घटनाओं में तेजी आई है. 11 फरवरी को सौफ्टवेयर इंजीनियर वम्शी रेड्डी की कैलिफोर्निया में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. जनवरी में गुजरात के हर्षद पटेल की वर्जीनिया में गोली मार कर जान ले ली गई थी.

सब से ज्यादा हमले मुसलमानों पर हो रहे हैं. काउंसिल औफ अमेरिकन इसलामिक रिलेशंस के अनुसार, पिछले साल करीब 400 हेट क्राइम दर्ज हुए थे जबकि ट्रंप के सत्ता में आने के बाद 2 महीने में ही 175 मामले सामने आ चुके हैं.

ये घटनाएं तो हाल की हैं. असल में अमेरिका की बुनियाद ही धर्म आधारित है. ब्रिटिश उपनिवेश में रहते हुए वहां ब्रिटेन ने क्रिश्चियनिटी को प्रश्रय दिया पर ईसाइयों में यहां शुरू से ही प्रोटेस्टेंटों और कैथोलिकों के बीच भेदभाव, हिंसा चली. धार्मिक आधार पर कालोनियां बनीं. बाद में हिटलर के यूरोप से यहूदी शरणार्थियों के साथ भेदभाव चला.

1918 में यहूदी विरोधी भावना का ज्वार उमड़ा और फैडरल सरकार ने यूरोप से माइग्रेंट्स पर अंकुश लगाना शुरू किया. अमेरिका में उपनिवेश काल से ही यहूदियों के साथ भेदभाव बढ़ता गया. 1950 तक यहूदियों को कंट्री क्लबों, कालेजों, डाक्टरी पेशे पर प्रतिबंध और कई राज्यों में तो राजनीतिक दलों के दफ्तरों में प्रवेश पर भी रोक लगा दी गई थी. 1920 में इमिग्रेशन कोटे तय होने लगे. अमेरिका में यहूदी हेट क्राइम में दूसरे स्थान पर होते थे. अब हालात बदल रहे हैं. माइग्रेंट धर्मों की तादाद दिनोंदिन बढ़ रही थी.

अमेरिका में 1600 से अधिक हेट क्राइम ग्रुप हैं. सब से बड़ा गु्रप राजधानी वाशिंगटन में है जिस का नाम फैडरेशन औफ अमेरिकन इमिग्रेशन रिफौर्म है. यह संगठन आप्रवासियों के खिलाफ अभियान चलाता है. इस की गतिविधियां बेहद खतरनाक बताई जाती हैं. सोशल मीडिया पर भी इस का हेट अभियान जारी रहता है. यह मुसलमानों, हिंदू, सिख अल्पसंख्यक आप्रवासियों और समलैंगिकों के खिलाफ भड़काऊ सामग्री डालता रहता है.

आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका 15,000 से अधिक धर्मों की धर्मशाला है और करीब 36,000 धार्मिक केंद्रों का डेरा है. अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 के बाद मुसलमानों के प्रति 1,600 प्रतिशत हेट क्राइम बढ़ गया. नई मसजिदों के खिलाफ आंदोलन के बावजूद 2000 में यहां 1,209 मसजिदें थीं जो 2010 में बढ़ कर 2,106 हो गईं. इन मसजिदों में ईद व अन्य मौकों पर करीब 20 लाख, 60 हजार मुसलमान नियमित तौर पर जाते हैं. अमेरिका में 70 लाख से अधिक मुसलिम हैं.

अमेरिकी चरित्र के बारे में 2 बातें प्रसिद्ध हैं. एक, वह ‘कंट्री औफ माइग्रैंट्स’ और दूसरा, ‘कंट्री औफ अनमैच्ड रिलीजियंस डायवर्सिटी’ कहलाता है. इन दोनों विशेषताओं के कारण वहां एक धार्मिक युद्ध जारी रहता है. इस के बीच कुछ बुद्धिजीवी हैं जो धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को प्रश्रय देने की मुहिम छेड़े रहते हैं.

पिछले 3-4 दशकों में भारत से अमेरिका में हिंदू, सिख और मुसलिम लोगों की बढ़ोतरी हुई. अन्य देशों से भी मुसलमान अधिक गए. ये लोग अपनेअपने धर्म की पोटली साथ ले गए. वहां मंदिर, गुरुद्वारे, मसजिदें, चर्च बना लिए. वहां रह रहे करीब 5 लाख सिखों के यहां बड़े शहरों में कईकई गुरुद्वारे हैं. ये गुरुद्वारे भी ऊंचीनीची जाति में बंटे हुए हैं उसी तरह जिस तरह वहां ईसाइयों में गोरेकाले, प्रोटेस्टेंटकैथोलिकों के अलगअलग चर्च बने हुए हैं.

हिंदुओं के 450 से अधिक बड़े मंदिर बने हुए हैं. बड़ेबड़े आश्रम और मठ भी हैं. इन में स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इंटरनैशनल सोसायटी फौर कृष्णा कांशसनैस, चिन्मय आश्रम, वेदांत सोसायटी, तीर्थपीठम, स्वामी नारायण टैंपल, नीम करोली बाबा, इस्कान, शिव मुरुगन टैंपल, जगद्गुरु कृपालु महाराज, राधामाधव धाम, पराशक्ति टैंपल, सोमेश्वर टैंपल जैसे भव्य स्थल हैं. इन मंदिरों में विष्णु, गणेश, शिव, हनुमान, देवीमां और तरहतरह के दूसरे देवीदेवताओं की दुकानें हैं. सवाल है कि आखिर किसी को धार्मिक पहचान की जरूरत क्या है? सांस्कृतिक पहचान के नाम पर धर्म की नफरत को बढ़ावा दिया जाता है.

असल में नस्ली भेदभाव, हिंसा का कारण है. विदेश में जा कर लोग अपनी अलग धार्मिक पहचान रखना चाहते हैं. पूजापाठ, पहनावा, रहनसहन धार्मिक होता है. हिंदू पंडे अगर तिलक, चोटी, धोती रखेंगे तो दूसरे धर्म वालों की हंसी के साथ नफरत का शिकार होंगे ही. सिख पगड़ी, दाढ़ी और मुसलमान टोपी, दाढ़ी रखेंगे तो टीकाटिप्पणी झेलनी पड़ेगी ही. पलट कर जवाब देंगे तो मारपीट होगी. फिर शिकायत करते हैं कि उन के साथ नस्ली भेदभाव होता है, हिंसा होती है.

इस भेदभाव की वजह अमेरिका में बड़ी तादाद में फैले हुए धर्मस्थल हैं. हजारों मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे, चर्च बने हुए हैं. भारतीय लोग वहां इन धर्मस्थलों को बनाने में तन, मन और धन से भरपूर सहयोग देते हैं. चीनियों, जापानियों, दक्षिण कोरियाई लोगों के साथ न के बराबर भेदभाव व हिंसा होती है क्योंकि वे किसी धर्म के पिछलग्गू नहीं हैं. वे विदेशों में रह कर उन्हीं लोगों के साथ हिलमिल कर मनोरंजन का आनंद लेते हैं. उन की अपनी चीनी संस्कृति भी है पर उस में धर्म नहीं है. उन की संस्कृति में मनोरंजन है जिस में दूसरे देशों के लोग भी हंसीखुशी आनंद उठाते हैं.

बढ़ रहे तलाक के मामले, माहौल गरमाया

देश में तीन तलाक के मुद्दे पर सियासी और सामाजिक माहौल गरमाया हुआ है. मजहबी कट्टरपंथी मुसलिम पर्सनल ला में किसी भी तरह के बदलाव का विरोध कर रहे हैं जबकि हिंदूवादी संगठन और केंद्र सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने को आमादा दिख रही है. यह ठीक है कि मुसलमानों में तलाक को ले कर मुसलिम महिलाएं बहुत त्रस्त हैं. केवल 3 बार तलाक कह कर औरत को छोड़ दिया जाता है. इस मामले में हिंदू संगठनों को खुश होने की जरूरत नहीं है. देश में हिंदुओं में भी तलाक के मामले बढ़ते जा रहे हैं. वह भी ऐसे में जब सगाई से ले कर फेरे तक धर्म के रीतिरिवाजों द्वारा आस्थापूर्ण तरीके से विवाह संपन्न कराए जाते हैं.

हम सुनते आए हैं कि जोडि़यां आसमान से बन कर आती हैं. सच तो यह है कि जोडि़यां टूटती धरती पर हैं. तलाक का रोग अब धीरेधीरे भारत में भी फैलता जा रहा है. हालांकि पश्चिमी देशों की तुलना में तलाक के मामले अभी भी यहां बहुत कम हैं. भारत में तलाक के ज्यादातर मामले बड़े शहरों कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, लखनऊ आदि में नजर आए हैं. पिछले एक दशक में कोलकाता में तलाक के मामले लगभग 350 प्रतिशत बढ़े हैं. मुंबई और लखनऊ में तो पिछले 5 वर्षों में यह 200 प्रतिशत बढ़ा है. तलाक के बढ़ते मामलों को देखते हुए बेंगलुरु में 2013 में 3 नए फैमिली कोर्ट खोलने पड़े थे. शादी के 5 साल के अंदर ही तलाक चाहने वाले ज्यादातर युवाओं के तलाक के हजारों मामले कचहरी में लंबित पड़े हैं.

आखिर हमारे देश में भी तलाक के मामले क्यों बढ़ रहे हैं? हम शादी के फेरे लेते समय तो सात जन्म तक साथ रहने की कसमें खाते हैं. पर फिर ऐसा क्या हो जाता है जो तलाक की नौबत आ जाती है. तलाक के अनेक कारण हो सकते हैं जैसे पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक समस्याएं आदि. सब से पहले तो हमें यह समझना होगा कि औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण की दौड़ में अब संयुक्त परिवार टूट कर बिखर चुके हैं. तरक्की के मामले में अब गांव कसबा बन गया है, कसबा शहर और शहर मैट्रो. जहां सरसों के खेत थे, भैंसें बंधी होती थीं, उस जमीन पर अब मौल्स, शौपिंग कौंप्लैक्स, अपार्टमैंट्स और आईटी कंपनियों के दफ्तर बन गए हैं खासतौर से गुड़गांव में. यही हाल बाकी शहरों का भी है. साथ ही तलाक के मामले भी बढ़ रहे हैं.

तलाक के बढ़ते मामलों की सब से बड़ी वजह धर्म है. प्रेम, शादी और तलाक के बीच धर्म की गहरी घुसपैठ है. भला ब्याहशादी में धर्म का क्या काम? पंडे, पादरी, मुल्लामौलवी बीच में क्यों? किसी भी जोड़े के बीच सब से पहले धर्म, जाति, गोत्र का सवाल सामने आता है. अगर कोई जोड़ा धर्म की इन बाधाओं को पार कर के शादी कर भी लेता है तो परिवार, समाज का सामना करना उन के लिए मुश्किल होता है और आखिर नौबत रिश्ता टूटने तक आ जाती है.
हर धर्म के अपनेअपने पर्सनल ला बने हुए हैं. विवाह, तलाक, संपत्ति, उत्तराधिकार जैसे मामलों में धर्म की दखलंदाजी है. वहीं, महिला पहले की अपेक्षा अब पढ़लिख रही है, तरक्की कर रही है.

  1. रूढि़वादी बंधन : पहले की अपेक्षा स्त्रियों की शिक्षा दर में काफी वृद्धि हुई है. अब लगभग 46 प्रतिशत महिलाएं स्नातक या 12वीं पास हैं, पीएचडी में 40 प्रतिशत, 28 प्रतिशत इंजीनियरिंग में, 40 प्रतिशत आईटी में, 32 प्रतिशत वकालत में और 35 प्रतिशत मैनेजमैंट में लड़कियां पढ़ाई कर रही हैं. इन कोर्सेज की पढ़ाई पर काफी पैसा खर्च होता है. जाहिर है इतना खर्च कर के पढ़लिख कर वे घर में तो नहीं बैठेंगी. वे भी नौकरी करने लगती हैं तो उन में कुछ आत्मसम्मान, स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता की भावना आना भी स्वाभाविक है. वे कठोर या रूढि़वादी बंधन अब बरदाश्त नहीं कर सकती हैं. ऐसे में आपसी टकराव और रंजिशें बढ़ने लगती हैं. अब औरत भी रिश्ते में बराबरी चाहती है पर धर्म उसे बेडि़यों में जकड़े रखना चाहता है.
    2. सासससुर का दखल : एक तरफ जहां बेटे की शादी के बाद भी अकसर मां बेटे पर पहले जैसा ही अधिकार समझती है तो दूसरी तरफ पत्नी का भी पूर्ण अधिकार अपने पति पर होना स्वाभाविक है. कभी बेटी के मातापिता पतिपत्नी के बीच के छोटेमोटे विवाद में अपनी बेटी का जरूरत से ज्यादा पक्ष लेते हैं. इस से विवाद बढ़तेबढ़ते बड़ा रूप ले लेता है. परिवार अपनी बहू से लड़का ही चाहता है. लड़की होने पर बहू का तिरस्कार किया जाता है. कदाचित तलाक के एक ऐसे केस में अदालत को और्डर देना पड़ा था कि 6 महीने तक पतिपत्नी को साथ रहने दिया जाए, इस बीच दोनों में किसी के मातापिता उन से कोई संपर्क नहीं रखें. 6 महीने साथ रहने के बाद भी अगर वे तलाक चाहते हैं तो कोर्ट उस पर विचार करेगा.

3. इच्छा के विरुद्ध शादी : मातापिता अपनी संतान की शादी उन की इच्छा के विरुद्ध अपनी मरजी से कर देते हैं, कभी तिलक की रकम तो कभी जातपात या धर्म के चलते. इस के चलते पतिपत्नी में प्रेम का अभाव होता है.

4. सासबहू का झगड़ा : सास अपनी बहू पर ज्यादा रोब जमाने लगती हैं. धार्मिक परंपराओं को निभाने का दबाव डालती है. एक या दो पीढ़ी पहले उन की सास उन के साथ रहा करती होंगी लेकिन आजकल की पढ़ीलिखी कमाऊ बहू को यह बरदाश्त नहीं है और वह विद्रोह करती है. इस से घर में तनाव पैदा होता है और पति के साथ भी रिश्ता बिगड़ जाता है.

5. धारा 498 ए और घरेलू हिंसा के नियम का दुरुपयोग : कुछ वर्ष पहले औरतों को दहेज विरोधी उपरोक्त नियम से कुछ विशेष अधिकार मिले थे ताकि उन को पति या ससुराल का कोई सदस्य दहेज न मिलने या कम मिलने के चलते प्रताडि़त न करे. इस की आड़ में छोटीमोटी बातों को तोड़मरोड़ कर पत्नी, पति के विरुद्ध मुकदमा इस धारा के तहत दायर कर देती है. आगे चल कर मुकदमे का अंजाम ज्यादातर तलाक ही होता है.

6. साजिश के तहत शादी : कभी कोई गरीब या साधारण घर की लड़की बहुत अमीर घर के लड़के से शादी कर लेती है. आगे चल कर ब्लैकमेल कर मोटी रकम ले कर तलाक कर समझौता कर लेती है. स्थिति इस के विपरीत भी हो सकती है यानी कोई गरीब लड़का और अमीर लड़की.

7. प्यार में कमी आना : लड़कालड़की प्रेमविवाह तो कर लेते हैं पर कभीकभी उसे निभा नहीं पाते हैं. शादी के कुछ अरसे बाद उन का प्यार कम होने लगता है और वे अलग होना ही बेहतर समझते हैं. क्योंकि वे धर्म और जाति की रूढि़वादी परंपराओं में अलगअलग रह नहीं पाते.

8. व्यभिचार का होना : कभीकभी तो पति या पत्नी का व्यभिचारी होना भी तलाक का कारण बन जाता है. हमारा कोर्ट भी इसे तलाक के लिए जायज मुद्दा मानता है और साबित हो जाने पर इस आधार पर तलाक मंजूर हो जाता है.

9. किसी प्रकार की मृगमरीचिका : कभीकभी पति या पत्नी को यह वहम होता है कि उस का वर्तमान साथी उसे वह खुशी नहीं दे पा रहा है जो कोई दूसरा पुरुष या महिला उस को दे सकती है. ऐसी कल्पना मात्र से दोनों के एकदूसरे के प्रति प्रेम और रुचि में कमी आ जाती है.

10. मायके से ज्यादा नजदीकी : शादी के बाद भी औरत अगर ससुराल को नजरअंदाज कर मायके को प्राथमिकता देती है तो यह पति या ससुराल वालों को अच्छा नहीं लगता है. औरत अपनी कमाई का ज्यादा हिस्सा मायके पर खर्च करे, तो ससुराल वालों को आपत्ति होती है. इस से कमाऊ पत्नी नाराज हो जाती है. इस के अतिरिक्त हजारों ऐसे मामले भी हैं जहां पति या पत्नी एकदूसरे से बिना तलाक के अलग रह रहे हैं. वे चाहे कितनी भी लंबी अवधि तक अलग रहें, यह तलाक का आधार नहीं हो सकता है. हां, जहां पति या पत्नी ने पहले से ही तलाक की अर्जी दे रखी है, कोर्ट उन को एक खास समय के लिए कानूनी अलगाव की मंजूरी देता है ताकि वे एकदूसरे से अपने रिश्ते के बारे में पुनर्विचार करें. इस अवधि में वे कानून की नजर में शादीशुदा रहेंगे. फिर अगर वे साथ रहने का फैसला लेते हैं तो कोर्ट उन की तलाक की अर्जी खारिज कर सकता है. अगर वे साथ न रहना चाहें तो कानून के अंतर्गत उन की तलाक याचिका सुनी जाएगी.

जो भी हो, तलाक पति या पत्नी किसी के लिए अच्छा नहीं है. मानसिक तनाव तो दोनों को होता है. अगर उन के बच्चे हुए तो स्थिति और भी बदतर हो जाती है. हमारा कोर्ट भी तलाक के मामले में अंत तक पतिपत्नी को मिलाने का प्रयास करता है. एकदूसरे की छोटीमोटी गलतियों या कमियों को उजागर न कर के, उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है ताकि रिश्ते में माधुर्य बना रहे और बात घर से बाहर निकल कर कोर्टकचहरी तक पहुंचने की नौबत न आए. पतिपत्नी में परस्पर विश्वास बना रहे, वे एकदूसरे की भावना और पारिवारिक जिम्मेदारी को महत्त्व दें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें