गरीब का डर : बेटी को ले कर परेशान पिता

टैलीविजन और सोशल मीडिया पर जैसे आग लगी हुई है, जब से श्रद्धा और आफताब वाला केस चला है. 35 टुकड़े फ्रिज में रखे गए थे. एकएक कर के वह जंगल में फेंक रहा था.‘‘नराधम, राक्षस, पापी, कुत्ता, नरक में भी जगह नहीं मिलेगी, कीड़े पड़ेंगे बदन में, मर जाए नासपिटा, न जाने कैसी कोख से जन्म लिया है, मांबाप के नाम को कलंक लगा दिया है, ऐसे कपूत से तो बेऔलाद भले…’’ रामआसरे अपनी सब्जी की पोटलियां खोलतेखोलते जोरजोर से बड़बड़ा रहा था.

प्लास्टिक की छोटी बालटी में पानी भरभर कर रामआसरे की पत्नी शारदा प्लास्टिक के छोटे मग से सब्जियों पर पानी छिड़कती जा रही थी. वह जानती थी कि पिछले कई दिनों से आफताब वाले केस को ले कर रामआसरे बड़ा दुखी है. रोज बड़बड़ करता है. घर में भी बेचैन सा रहता है. रोटी भी बेमन से खाता है. वह क्या करे? उस के बस में कुछ नहीं है.

रामआसरे देश का गरीब आदमी है, जिस तक सरकार की कोई योजना का लाभ नहीं जाता है, न ही मिल पाता है. पटरियों पर सब्जी की दुकानें लगाने वाले गरीबों की सुनता कौन है? स्मार्ट सिटी बनाने में सड़कें चौड़ी करने के लिए उन को हर बार लात मार कर भगा दिया जाता है. कभी भी जगह बदल देते हैं, यहां से खाली करो वहां दूसरी जगह दुकान लगाओ.

बेचारे दरबदर होते रहते हैं सब्जी वाले. सड़कें चौड़ी करने के चक्कर में इन की पुरानी ग्राहकी टूट जाती है. बड़ी मुश्किल होती है दुकान जमने में. अब यह परेशानी कौन सुने?सुबह से शाम तक काम ही काम. 2 बच्चों का भरणपोषण, बीमार मां की सेवा… गरीब आदमी है मां को आश्रम में नहीं डालेगा. ये अमीरों के चोंचले हैं.मां चाहे बीमार हो, लेकिन मां तो मां है.

मां के भरोसे ही जवान छोरी को छोड़ कर सब्जी की दुकान में शारदा के साथ बैठ कर शांति से सब्जी बेच पाता है.दोपहर में शारदा घर चली जाती है, तो वह अपनी बेटी की चिंता भी भूल जाता है. मां और पत्नी के घर रहने से बेटी की देखभाल भी हो जाती है.

शारदा 5 बजे शाम को पैट्रोल पंप वाले साहब लोगों के घर खाना बनाने जाती है और 7 बजे वापस भी आ जाती है. बनिया परिवार है. 5 जने हैं घर में. सभी की पसंद का खाना अलगअलग बनता है. कई सारे नौकरचाकर हैं.

शाम का खाना बनाने के लिए शारदा जाती है. सुबह और दोपहर के खाने के लिए दूसरे नौकर रखे हैं. बड़े लोगों की बड़ी बातें.3,000 रुपए महीना मिलते हैं इस बनिया परिवार से. इस के अलावा उन की जवान छोरी के कपड़े भी मिल जाते हैं, जो रामआसरे की जवान छोरी कजरी के काम आ जाते हैं.

होलीदीवाली पर मिठाई का डब्बा, शारदा को नई साड़ी और 1,000 रुपए इनाम में देते हैं. 4 साल से शारदा वहां खाना बना रही है. तब कजरी 15 साल की थी. आज 19 साल की हो गई है.मां की बीमारी की दवा वगैरह भी बनिया परिवार दिला देता है.

एक बार मां ज्यादा बीमार पड़ी थी. साहब ने पहचान के डाक्टर को फोन लगा कर जांच करने को कहा था. इतना अच्छा घर कैसे छोड़े? कितनी मदद मिल जाती है. गरीब आदमी का जीवन चल जाता है.उस दिन तो रामआसरे ने हद कर दी.

जैसे ही टीवी पर श्रद्धा और आफताब की खबर देखी, तो कजरी को डांटने लगा, ‘‘बता तेरा कोई लफड़ावफड़ा तो नहीं है किसी के साथ?’’कजरी डर गई थी बाप का गुस्सा  देख कर. रामआसरे के 2 घर छोड़ कर शकील चाचा का घर था. वहां भी जाना बंद करवा दिया था. शकील चाचा के घर में 2 जवान छोरी और एक जवान छोरा था.

शकील चाचा की पत्नी सायरा और रामआसरे के परिवार के अच्छे संबंध थे. आनाजाना था. बेड़ा गर्क हो आफताब का, जिस ने देश की हवा में जहर घोल दिया था.रामआसरे ने शाम को चाय की टपरी पर बैठना भी बंद कर दिया था शकील चाचा से बचने के लिए. शकील चाचा और रामआसरे के बच्चे साथसाथ खेलकूद कर जवान हुए थे.

रामआसरे को शकील चाचा के घर का जर्दा पुलाव और बिरयानी पसंद थी. जब शकील चाचा के घर से जर्दा पुलाव आता था, तो पूरा घर खुश हो कर खाता था. ऐसे ही होलीदीवाली की गुझिया की खुशबू शकील चाचा को पसंद थी. पूरा परिवार गुझिया पसंद करता था, पर कीड़े पड़ें आफताब को, जिस ने देश का माहौल खराब कर दिया.

रामआसरे ने घर में सख्त मना कर दिया था कि शकील चाचा की दुकान से कोई सामान नहीं आए. शकील चाचा की किराने की छोटी सी दुकान थी. जवान छोरे असलम को किसी गाड़ी के शोरूम में लगवा दिया था. वह सुबह 10 बजे चला जाता था और रात में 9 बजे तक घर आता था. 2 जवान छोरियों के साथ कजरी की दोस्ती थी. वह घर आतीजाती थी.

आफताब और श्रद्धा केस के बाद वह भी बंद करवा दिया था. एक अजीब सी दहशत थी रामआसरे के भीतर, जो गुस्से में कभी भी फट पड़ती थी.रामआसरे के मना करने के बाद भी परिवार के बच्चों में दोस्ती थी. क्या प्यार और इनसानियत के रिश्ते कभी टूट सकते हैं? लेकिन वे रामआसरे की भावनाओं का ध्यान रखते हुए उस के सामने नहीं मिलते थे.

शकील चाचा के छोरे असलम ने महल्ले में आए एक नए परिवार को भी दावत पर बुला लिया था. परिवार क्या था, बस मां और बेटे थे. बेटे का नाम शिवम था. पिता की कुछ साल पहले सड़क हादसे में मौत हो गई थी.उसी दावत में शिवम ने पहली बार कजरी को देखा तो देखता ही रह गया था. कजरी की सादगी उस के मन को भा गई थी.

असलम की बहनों के साथ कजरी कभी किसी काम से बाजार जाती थी, वहीं 1-2 बार उस की शिवम से ‘हायहैलो’ हो गई थी. इस से ज्यादा कुछ नहीं.शिवम सोच रहा था कि बात शुरू कैसे करे? उस ने सोचा कि वह असलम से बात करेगा, इसलिए उस ने असलम को मोबाइल पर अपनी बात बताई.

असलम बोला, ‘‘कुछ सोचते हैं. रामआसरे अंकल के सामने तो मिलने से रहे…’’अचानक असलम को आइडिया सूझा. उस ने शिवम को कहा, ‘‘तू एक काम कर कि रामआसरे अंकल की दुकान से सब्जी खरीदना शुरू कर दे. इस बहाने वे तुझे देखेंगे, फिर धीरेधीरे बात शुरू करना.’’

‘‘उस से क्या होगा?’’ शिवम ने पूछा.‘‘अरे यार, उन से बात तो शुरू हो जाएगी. कभीकभी कजरी खाना देने आती है, उसे देख भी लेना और मौका मिले तो बात भी कर लेना,’’ असलम ने कहा.‘‘यह आइडिया सही है,’’ शिवम खुश हुआ.उसी दिन शिवम सब्जी लेने पहुंच गया.

जानबूझ कर ज्यादा ही सब्जी खरीदी. सब्जी की तारीफ भी की.रामआसरे खुश हो गया और बोला, ‘‘बाबू साहब, सब्जी मंडी से ले कर आता हूं… ताजी हैं.’’शिवम ऐसे ही हर दूसरे दिन कुछ न कुछ सामान रामआसरे की दुकान पर लेने पहुंच जाता. आज शिवम लंच टाइम में गया, तो खुशी के मारे उछल पड़ा. वहां कजरी थी.‘‘कजरी तुम… बापू कहां गए हैं?’’

शिवम को देखते ही कजरी भी खुश हो गई. वह बोली, ‘‘बापू बैंक गए हैं. आप सब्जी लेने आए हो?’’‘‘सब्जी तो ठीक है… आज बड़े दिनों बाद मौका मिला है तुम से बात करने का. कहीं बाहर मिलो न, ढेर सारी बातें करनी हैं… अपना मोबाइल नंबर दो,’’ शिवम बोला.

‘‘मोबाइल नहीं है मेरे पास…’’ कजरी बोली, ‘‘पहले था, पर अब बापू टैंशन में रहते हैं मोबाइल और सोशल मीडिया को ले कर, इसलिए नहीं रखने देते.’’

‘‘ओह, फिर मुलाकात कैसे हो…’’ शिवम बोला.‘‘असलम से बात करना तुम, शायद वह कोई रास्ता बताए,’’ कजरी बोली.‘‘हां, यह ठीक रहेगा,’’

शिवम बोला और वह सब्जी खरीद कर वापस चला गया.रात को ही शिवम ने असलम को फोन पर आज की मुलाकात के बारे में बताया, फिर कजरी से बाहर मिलने के लिए मदद भी मांगी.

असलम बोला, ‘‘सोचता हूं कुछ.’’दूसरे दिन असलम ह्वाट्सएप ग्रुप पर मैसेज देख रहा था. ‘हैप्पी सावन’ के मैसेजों की भरमार थी.

अचानक उसे एक बात ध्यान आई कि 2 दिन बाद ही पीछे खाली मैदान में सावन का मेला लगता है, झूले और तमाम खानेपीने के स्टौल. कजरी को झूला झूलने का शौक है. वहीं मिलवा देगा उन दोनों को.2 दिन बाद हलकीहलकी फुहारें पड़ रही थीं.

कजरी शाहिदा और शमीम के साथ झूला झूलने वालों की कतार में खड़ी थी.सामने वाली चाय की टपरी में शिवम असलम के साथ चाय पी रहा था.

2 झूले खाली हुए ही थे. शाहिदा और शमीम आगे बढ़ी झूले में बैठने के लिए. कजरी भी बैठने की जिद करने लगी कि इतने में शिवम ने पीछे से उस के कंधे पर हाथ रख दिया.कजरी एकदम पलटी और बोली, ‘‘शिवम तुम…’’‘‘हां कजरी, चलो हम दोनों भुट्टा खाते हैं.’’

‘‘कजरी, तुम जाओ और शिवम से बात कर लो,’’ तभी असलम भी आ गया.कजरी शिवम के साथ भुट्टे के ठेले के पास चली गई.‘‘गरम भुट्टे का स्वाद नीबू और नमक के साथ बड़ा ही अच्छा लगता है… क्यों शिवम?’’‘‘बिलकुल कजरी,’’

शिवम बोला, ‘‘उतना ही नमकीन, जितना हमारा प्यार.’’

‘‘प्यार और नमकीन…?’’ कजरी हंसने लगी.

‘‘हां कजरी, जिंदगी में नमक से कभी दूर नहीं हो सकते. तुम मेरी जिंदगी का नमक हो.’

’‘‘अच्छा,’’ यह सुन कर कजरी हंस पड़ी.वे दोनों मेले में घूमते रहे और ढेर सारी बातों के बीच वक्त कब उड़ गया, पता ही नहीं चला.तभी असलम भी अपनी बहनों के साथ आ गया. उन के हाथों में भी भुट्टे थे.‘‘चलें शिवम?’’ असलम ने पूछा.‘‘ठीक है,’’

शिवम बोला.कजरी भी खुश थी इस मुलाकात से.‘‘शिवम, बापू से बात कब करोगे?’’‘‘जल्दी ही कुछ सोचते हैं,’’ शिवम बोला.असलम ने भी उन की हां में हां मिलाई.इस बात के कुछ दिन बाद असलम सुबहसुबह ही रामआसरे के घर पहुंच गया. रामआसरे घर के बाहर झाड़ू लगा रहा था. असलम जानता था कि वह सुबह घर के बरामदे की झाड़ू खुद ही लगाता है,

फिर पानी से छिड़काव करता है, तो मिट्टी की एक सौंधी सी खुशबू फैल जाती है.असलम को देखते ही रामआसरे का मूड खराब हो गया, ‘‘कहां सुबहसुबह आ टपका यह…’’‘‘नमस्ते अंकलजी,’’ असलम ने कहा.‘‘क्या हुआ? क्यों आए हो यहां?’’

रामआसरे पूछ बैठा.‘‘आप से बात करनी है, इसलिए चला आया. सुबह आप मिल जाओगे, नहीं तो सारा दिन आप को टाइम नहीं मिलेगा.’’‘‘कौन सी बात करनी है तुम्हें?’’ रामआसरे बोला.‘‘शादी की…’’ असलम इतना ही बोला था कि रामआसरे गुस्से में चिल्ला उठा, ‘‘अरी ओ शारदा, आ जा… जल्दी से देख तेरी बेटी के लक्षण…’’शारदा आवाज सुन कर दौड़ी चली आई, ‘‘क्या हुआ सुबहसुबह?’’

पर सामने असलम को देखा तो चुप हो गई.‘‘यह देखो शादी की बात करने आया है,’’ रामआसरे बोला.‘‘किस की शादी?’’ शारदा ने पूछा.‘‘कजरी की.’’असलम शांत था.‘‘अब भी बोलेगी कि तेरी लड़की कजरी ने कोई गुल नहीं खिलाया…’’ रामआसरे चिल्लाया.

‘‘अरे, पूरी बात तो सुनो कि यह क्या बोल रहा है…’’ शारदा ने कहा.‘‘अब बचा क्या है सुनने को… मैं तो बरबाद हो गया,’’ रामआसरे बोला.‘‘शांत रहो और पहले असलम की बात सुनो,’’ शारदा बोली.‘‘आंटीजी, एक लड़का है, जो कजरी से शादी करना चाहता है,’’

असलम ने अपनी बात पूरी की.‘मतलब, असलम खुद की शादी की बात नहीं करने आया…’ रामआसरे ने सोचा, फिर बोला, ‘‘तुम खुद की शादी की बात नहीं करने आए थे?’’‘‘मैं कब बोला आप को कि अपनी शादी की बात कर रहा हूं…’’‘‘अच्छाअच्छा… फिर?’’

रामआसरे उत्सुक हो गया.‘‘एक लड़का है शिवम, जो कजरी से शादी करना चाहता है. कजरी भी उसे जानती है,’’ असलम बोला.‘‘मतलब, इश्क वाला मामला है और तू बिचौलिया है. हद हो गई और हमें पता ही नहीं,’’ रामआसरे फिर गुस्साया.‘‘चुप रहो तुम…’’

शारदा बोली, ‘‘असलम, तुम आगे बोलो.’’‘‘आंटीजी, शायद आप उसे जानती होंगी…’’ असलम ने कहा.‘‘मैं कैसे जानूंगी?’’ शारदा हैरानी से बोली.‘‘मांबेटी दोनों एक…’’ रामआसरे बोला.‘‘अंकलजी, वे जो पैट्रोल पंप वाले साहब हैं न… शिवम, उन के पैट्रोल पंप पर काम करता है.’’

‘‘अच्छा… उस का कोई फोटो है?’’ शारदा बोली.‘‘हां आंटीजी,’’ कहते हुए असलम ने मोबाइल में फोटो दिखाया.शारदा ने जैसे ही फोटो देखा तो वह खुशी से चिल्ला पड़ी, ‘‘यह शिवम है…’’‘‘तू जानती है इसे?’’ रामआसरे ने बोलते हुए फोटो पर ध्यान से नजर दौड़ाई.

‘‘हां, कई बार देखा है. बंगले पर काम से आताजाता है. बड़ी पूजा में भी देखा था. नाम नहीं जानती थी,’’ शारदा के चेहरे से खुशी छलक पड़ रही थी.‘‘कजरी… ओ कजरी…’’ शारदा ने आवाज लगाई, पर कजरी कब से दरवाजे पर खड़ी थी और उन की बातें सुन रही थी.

‘‘कजरी, तू इस लड़के को जानती है?’’ रामआसरे ने पूछा.‘‘हां बापू, जानती हूं,’’ कजरी ने जवाब दिया.‘‘तू इसे पसंद करती है?’’ शारदा बोली.‘‘हां मां…’’ कहते हुए कजरी ने मां की पीठ में सिर छिपा लिया.रामआसरे खुश हो गया, फिर वह असलम से बोला,

‘‘बेटा, बाप हूं न… डर जाता हूं कि कहीं कुछ गलत न हो जाए…’’‘‘अंकलजी, कोई बात नहीं. माहौल ही ऐसा है.’’शारदा बोली, ‘‘साहब, लोगों के लिए मिठाई ले कर जाऊंगी आज.’’‘‘हम दोनों साथ चलेंगे,’’ रामआसरे बोला.‘‘और मेरी मिठाई अंकलजी?’’

असलम बोला.‘‘तेरी कोई मिठाई नहीं. मिठाई का डब्बा ले कर आ रहा हूं तेरे घर. शकील से बोलना कि जर्दा पुलाव खाए बहुत दिन हो गए हैं,’’ कह कर रामआसरे हंसने लगा.

 

 

अमीर: बड़े दिलवाला लालू

‘‘उठो… आंगनबाड़ी जाना है न?’’ मां लालू को जगाने की कोशिश कर रही थी.

‘थोड़ी देर और…’’ लालू ने अंगड़ाई लेते हुए कहा.

‘‘मुझे और तेरे बापू को काम पर जाने में रोज देरी होती है. चलो, तैयार हो जाओ,’’ मां झंझला कर बोली, तो लालू को उठना पड़ा.

मां ने बासी और कड़क रोटी चायनुमा पानी में डुबो कर नरम की थी. टिन की थाली में वही रोटी परोस कर लालू के सामने सरका दी.

लालू वही नरम और बासी रोटी बड़े चाव से खाने लगा.

‘‘ढंग से खाओ, कपड़ों पर मत गिराना,’’ मां बोली.

‘‘क्यों डांटती हो? बच्चा ही तो है,’’ बापू लालू की तरफ से बोला.

‘‘कल ही कपड़े धोए हैं,’’ मां के मन में साबुन का हिसाबकिताब चल रहा था.

इस के बाद मां और बापू चाय का पानी पी कर काम पर चले गए.

‘‘तुम ने रोटी नहीं खाई?’’ लालू ने पूछा, ‘‘ठकुराइन के घर की रोटी बहुत अच्छी होती है.’’

‘तुम्हारे उठने से पहले ही खा ली थी बेटा,’ मां और बापू दोनों सफाई से झठ बोल गए.

मां गांव के प्रधान के घर पर झाड़ू, बरतन, सफाई करती थी और बापू उन

के खेतों में मजदूर था. इन के घर में चूल्हा जलता था, तो सिर्फ चाय बनाने के लिए, वह भी गुड़ वाली चाय. वरना जो जूठा, बचा हुआ खाना मिलता, उसी पर वे लोग अपना गुजारा कर लेते थे.

मां और बापू दोनों दिनरात मजदूरी में जुटे रहते. बापू को कभी काम मिलता, तो कभी नहीं. मां को पुराने कपड़े, सामान, बचा हुआ खाना मिलता था.

प्रधान के घर में खाना खा कर मां अपना गुजारा कर लेती और अच्छा खाना मिले भले बासी ही सही, अपने बेटे लालू के लिए बांध कर घर ले आती.     5 साल का लालू इसी साल से आंगनबाड़ी में जाने लगा था.

बापू ने उस को इस जिद से भरती करवाया था कि वे दोनों तो अनपढ़ हैं. अगर वे लिखनापढ़ना जानते, तो वे मजदूर नहीं होते. लेकिन उन का बेटा पढ़ेगा. आगे चल कर वे उसे शहर भेजेंगे. वह पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनेगा, उस के लिए भले ही उन दोनों को सारी जिंदगी भूखे पेट क्यों न रहना पड़े.

लालू को आंगनबाड़ी भेजने की एक और भी वजह थी. सरकारी नियमों के मुताबिक वहां से कौपीकिताबें मुफ्त में मिलती थीं. साल में एक बार 2 जोड़ी कपड़े मिलते थे. अगर छुट्टी न करो, तो हर रोज दोपहर का खाना मिलता था.

देशभर में 15 अगस्त बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था. आंगनबाड़ी में भी खास समारोह होना था.

आंगनबाड़ी को झाड़ू लगा कर साफ कराया गया. फूलों की माला से झंडे का स्तंभ सजाया गया. उस के चारों ओर रंगोली से नक्काशी बनाई गई.

थोड़ी ही देर में गांव के सरपंचजी आए. उन्होंने झंडा फहराया. सभी ने राष्ट्रगान गाया. उस के बाद ‘भारत माता की जय’ का जयघोष हुआ. फिर सरपंचजी ने भाषण किया.

समारोह खत्म होने के बाद सभी बच्चों को एकएक डब्बा दिया गया, जिस में 2 समोसे, 2 लड्डू और कुछ नमकीन थी. सभी बच्चे अपनाअपना डब्बा खोल कर समोसेलड्डू पर टूट पड़े.

लालू ने भी अपना डब्बा खोला. समोसे की बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी. लालू ने नाक के पास ले जा कर वह खुशबू सूंघी. गांव के रतन हलवाई की दुकान के आसपास ऐसी ही खुशबू फैली रहती है.

लालू ने समोसे और लड्डू को प्यार भरी नजरों से देखा, फिर एक बार सूंघा और डब्बा बंद कर दिया.

आज 15 अगस्त होने की वजह से आंगनबाड़ी में छुट्टी थी. नतीजतन, दोपहर का खाना नहीं मिलने वाला था.

सारे बच्चे लड्डूसमोसा खा कर के घर जाने लगे. कुछ बच्चों ने नमकीन अपनी निकर की जेबों में भर ली और खाली डब्बे वहीं फेंक दिए.

लालू के हाथ में अभी भी डब्बा था, भरा हुआ डब्बा. लालू बड़े ध्यान से संभाल कर डब्बा ले कर अपने घर जा रहा था.

दूर खेतों में खड़े अपने झोंपड़े में आ कर लालू ने वह डब्बा ठंडे चूल्हे के पास रख दिया. थोड़ी देर के लिए वह झोंपडे़ में इधरउधर घूमा, फिर डब्बा चूल्हे के पास से उठाया. उसे डर था कि कहीं कोई चूहा या बिल्ली इसे खा न जाए. उस ने वह डब्बा चूल्हे के ऊपर जो तवा था, उस पर रख दिया. अब वह निश्चिंत हो गया और खेलने के लिए झोंपड़े के बाहर चला गया.

वह खेल में मस्त हो गया कि तभी अचानक उसे कुछ याद आया और दौड़ कर झोंपड़े के अंदर चला आया. डब्बा तो तवे पर सहीसलामत था, मगर चींटियों की कतारें उस के अंदरबाहर आजा रही थीं. उस ने झट से डब्बा खोला. अभी ज्यादा चींटियां अंदर नहीं घुसी थीं. उस ने फूंक मारमार कर चींटियों को भगाया.

इस हड़बड़ी में उस के हाथों पर कुछ चींटियां चिपक कर मर गई थीं. लालू ने अपने कपड़ों से लड्डू पोंछ कर साफ किए. वह खुश हुआ, लड्डू सहीसलामत थे.

पर अब क्या करे? उसे एक तरकीब सूझ. उन के पास एक ही खटिया थी, जो झोंपड़े के बाहर पड़ी रहती थी, जिस पर उस का बापू सोता था. खटिया के पाए ढीले हो गए थे, डोरियां ढीली पड़ गई थीं, उन में अच्छाखासा झोल आ गया था. लालू ने उस पर वह डब्बा रख दिया. अब उसे तसल्ली हो गई कि डब्बा एकदम महफूज है.

वह फिर से खेलने लगा. घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था. आज वह खेल में ही अपना ध्यान लगा रहा था, पर खटिया पर रखे डब्बे पर भी नजर रख रहा था कि कहीं कुत्ता मुंह न मारे.

4-5 साल का छोटा भूखा, थका हुआ बच्चा कितनी देर खाने का डब्बा संभालता? आखिरकार डब्बा गोद में लिए वह खटिया पर लुढ़क गया.

शाम ढलतेढलते मांबापू दोनों काम से वापस आ गए. मां ने लालू को जगाया. आंख मलतेमलते वह जाग गया. मांबापू ने देखा कि उस की गोद में एक डब्बा है.

मां ने पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘आज आंगनबाड़ी में हमें यह दिया गया है,’’ लालू ने डब्बा मां के हाथों में देते हुए कहा.

मां ने डब्बा खोल कर देखा. उस में 2 लड्डू, 2 समोसे और नमकीन थी.

‘‘तुम ने खाया क्यों नहीं बेटा? आज तो तुम्हें वहां खाना भी नहीं मिला होगा,’’ बापू कह रहा था. उस की आवाज में नाराजगी थी.

यह नाराजगी लालू के खाना न खाने पर थी या एक वक्त का खाना न मिलने पर थी, यह तो वही जाने.

‘‘क्यों नहीं खाया?’’ मां गुस्से से बोली. उस की आवाज में गुस्से के साथसाथ तड़प भी थी कि उस का बच्चा दिनभर का भूखा है.

मांबापू सोचने लगे, ‘इस ने खाना क्यों नहीं खाया? डब्बा गोद में लिए लेटा रहा… तबीयत तो ठीक है न इस की? क्या हो गया है इसे?’

मांबापू दोनों ने नाराजगी और तड़प भरे दिल से लालू को डांट लगाई, ‘चलो, पहले लड्डू, समोसा खा लो. खाना गोद में लिए कोई सोता है भला?’

लालू बोला, ‘‘मां, मैं ने इसे तवे पर रखा था, तो इस में चींटियां घुस गईं. पर मैं ने लड्डू को पोंछपोंछ कर साफ कर दिया. चूहा, बिल्ली, कुत्ता कोई इसे मुंह न लगाए, इसलिए गोद में ले कर दिनभर संभालता रहा, तुम दोनों के लिए.’’

थकी हुई मां के जिस्म में न जाने कहां से ताकत आ गई. वह ?ाट से उठ गई. दो कदम की दौड़ लगा कर वह अपने बच्चे के पास आ गई. उस ने लालू का चेहरा कई बार चूमा.

झोंपड़े से पीठ टिकाए बैठा बापू मांबेटे का यह प्यारदुलार देख रहा था. उस ने सिर पर बांधा हुआ कपड़ा अपने हाथों से हलके से उतार कर अपनी आंखें पोंछीं. वह अपनी जगह से उठ गया और प्यार से बेटे के पास खटिया पर जा बैठा. उस ने लालू को सीने से लगाया और उस के माथे को चूमा. उस के उन नन्हे हाथों को चूमा, जो खाना खाने के बजाय खाने की हिफाजत कर रहे थे.

लालू ने अपनी मां से वह डब्बा लिया और बड़े प्यार से उस में से एक समोसा उठाया.

‘‘एक कौर मेरी रानी मां का,’’ कहते हुए लालू ने समोसा मां को खिलाया.

मां ने समोसे का छोटा सा टुकड़ा काट लिया. वही जूठा समोसा बापू के मुंह के पास ले जा कर कहा, ‘‘एक कौर मेरे राजा बापू का.’’

बाप ने भी समोसे खा लिया.

मां के गले से सिसकी निकली. बापू का गला रुंध गया. बापू ने समोसे के साथ सिसकी निगल ली.

मांबापू को समोसा खाते देख कर लालू खिलखिला कर हंस पड़ा. मां ने बचा हुआ समोसा बड़े प्यार से अपने लालू को खिलाया.

लालू बोला, ‘‘अब मेरी मां लड्डू खाएंगी, मेरा बापू लड्डू खाएगा. फिर लालू लड्डू खाएगा.’’

तेल में बने उस लड्डू का स्वाद क्या बताएं कि असली देशी घी के लड्डू का स्वाद भी फीका पड़ जाए.

खुले आसमान के नीचे चांदनी की चादर ओढ़े, झलाती हुई खटिया पर रानी मां, राजा बापू और उन का नन्हा राजदुलारा लालू एकदूसरे को टुकड़टुकड़ा खाना खिला रहे थे. तीनों के मुंह समोसे, लड्डू से और दिल खुशी से भरे थे.

अनकही पीड़ा : बिट्टी कैसे खुश रहेगी

आज अजीत कितना खुश था. मां व बिट्टी ने भी बहुत दिनों बाद घर में हंसीखुशी का माहौल देखा.

अजीत ने मेरे पैर छू कर कहा, ‘‘दीदी, अगर आप 4 हजार रुपए का इंतजाम न करतीं, तो यह नौकरी भी हाथ से निकल जाती. आप का यह उपकार मैं जिंदगीभर नहीं भुला सकूंगा.’’

भाई की बातों को सुन कर मुझे कुछ अंदर तक महसूस हुआ. बड़ी हूं न, खुद को हर हाल में सामान्य रखना है.

मैं भाई का गाल स्नेह से थपथपा कर बोली, ‘‘पगले, बड़ी बहन हमेशा छोटे भाई के प्रति फर्ज का पालन करती?है. मैं ने कोई एहसान नहीं किया है.’’

वह भावुक हो उठा, ‘‘दीदी, आप ने इस घर के लिए बहुत सी तकलीफें उठाई हैं. पिताजी की मौत के बाद कड़ा संघर्ष किया है. अपने लिए कभी कुछ नहीं सोचा. अब आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा.’’

मेरे भीतर कुछ कसकता चला गया. अगर इसे पता लग जाए कि कितना कुछ गंवाने के बाद मैं 4 हजार की रकम हासिल कर सकी हूं, तो इस की खुशी पलभर में ही काफूर हो जाएगी और यह भी पक्की बात?है कि उस हालत में यह चोपड़ा का खून कर देने से नहीं हिचकेगा. लेकिन इसे वह सब बताने की जरूरत ही क्या है?

थोड़ी देर पहले बिट्टी चाय ले आई थी. मैं ने उसे लौटा दिया. मैं ने 2 दिन से कुछ नहीं खाया. मां से झूठ बोला कि उपवास चल रहा है.

बिट्टी इस साल इंटर का इम्तिहान दे रही?है. वह ज्यादा भावुक लड़की है. घरपरिवार के विचार मेरे दिमाग को घेरे हुए हैं. गुजरा हुआ सबकुछ नए सिरे से याद आ रहा है.

3 साल पहले जब पिताजी बीमारी से लड़तेलड़ते हार गए थे, तब कैसी घुटती हुई पीड़ा भरी आवाज में कहा था, ‘रेखा बेटी, मौत मेरे बिलकुल पास खड़ी है. मैं जीतेजी तेरे हाथ पीले न कर सका. मुझे माफ कर देना.

‘जिंदगी की राहों में बहुत रोड़े और कांटे मिलेंगे, मगर मुझे यकीन है कि तू घबराएगी नहीं, उन का डट कर मुकाबला करेगी.’

लेकिन क्या सच में मैं मुकाबला कर सकी? पिताजी की मौत के बाद जब अपनों ने साथ छोड़ दिया, तब केवल एक गोपाल अंकल ही थे, जिन्होंने अपनी तमाम घरेलू दिक्कतों के बावजूद हमारी मदद की थी. हमेशा हिम्मत बढ़ाते रहे, एक बाप की तरह.

मैं स्नातक थी. उन्हीं की भागदौड़ और कोशिशों से एक कंपनी में सैक्रेटरी के पद पर मेरी नियुक्ति हो सकी थी.

फार्म का अधेड़ मैनेजर चोपड़ा मुझ से हमदर्दी रखने लगा?था. वह कार में घर आ कर मां से मिल कर हालचाल पूछ लेता. मां खुश हो जातीं. वे सोचतीं कुछ और हड़बड़ी में मुंह से कुछ और ही निकल जाता.

गोपाल अंकल का तबादला आगरा हो गया. इधर अजीत नौकरी के लिए जीजान से कोशिश कर रहा था. वह सुबह घरघर अखबार डालने का काम करता.

अजीत ने अनेक जगहों पर जा कर इंटरव्यू दिया, पर नतीजा जीरो ही रहा. कभीकभी वह बेहद मायूस हो जाता, तब मैं यह कह कर उस का हौसला बढ़ाती कि उसे सब्र नहीं खोना चाहिए. कभी न कभी तो उसे नौकरी जरूर मिलेगी.

एक हफ्ता पहले अजीत ने?घर आ कर बताया था कि किसी फर्म में एक जगह खाली है, पर वह नौकरी 4 हजार रुपए की रिश्वत एक अफसर को देने पर ही मिल सकती?है.

मेरे बैंक के खाते में महज 9 सौ रुपए पड़े थे. मां के जेवर पिताजी की बीमारी में ही बिक गए थे. इतनी बड़ी रकम बगैर ब्याज के कोई महाजन देने को तैयार न था. घर में सब पैसे को ले कर चिंता में थे.

चूंकि मैं रुपयों को ले कर तनाव में?थी, इसलिए काम में गलतियां भी कर गई. पर चोपड़ा ने डांटा नहीं, बल्कि प्यार से मेरी परेशानी का सबब पूछा. उस की हमदर्दी पा कर मैं ने अपनी समस्या बता दी. उस ने मेरी मदद करने का भरोसा दिया.

फिर एक दिन चोपड़ा ने मुझे अपने शानदार बंगले में बुलाया और कहा कि उस की बीवी रीमा मुझ से मिलने को बेताब है. वह मुझे कुछ उपहार देना चाहती?है.

शाम को 7 बजे के आसपास मैं वहां पहुंची, तो बंगला सुनसान पड़ा था.

चोपड़ा ने अपनी फैं्रचकट दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए हंस कर कहा था, ‘रेखा, मेरी बीवी को अचानक एक मीटिंग में जाना पड़ गया. वह तुम से न मिल पाने के लिए माफी मांग गई है और तुम्हारे लिए यह लिफाफा दे गई है.’

मैं ने लिफाफा खोला. अंदर 4 हजार रुपए थे. मैं चकरा कर रह गई थी.

मैं हकला कर बोली, ‘सर, ये रुपए…उन्हीं ने…?’

तब चोपड़ा के चेहरे पर शैतानी मुसकान खेलने लगी. उस धूर्त ने झट दरवाजे की सिटकिनी लगा दी और मुझे ऊपर से नीचे तक ललचाई नजरों से घूरता हुआ बोला, ‘इन्हें रख लो, रेखा डार्लिंग. तुम्हें इन रुपयों की सख्त जरूरत है और मैं ये रुपए दे कर तुम पर मेहरबानी नहीं कर रहा हूं. यह तो एक हाथ ले दूसरे हाथ दे का मामला है. तुम नादानी मत करना. अपनेआप को तुम खुशीखुशी मेरे हवाले कर दो.’

एक घंटे बाद मैं वहां से अपना सबकुछ गंवा कर बदहवास निकली और लड़खड़ाते कदमों से नदी के पुल पर जा पहुंची थी. मुझे खुद से नफरत हो गई थी. मैं जान देने को तैयार थी. मुझे अपनी जिंदगी बोझ सी लग रही थी. ऊपर से नीचे तक मैं पसीने में डूबी थी.

लेकिन उसी समय दिमाग में अजीत, बिट्टी और सूनी मांग वाली मां के चेहरे घूमने लगे थे. मैं सोचने लगी, मेरी मौत के बाद उन का क्या होगा?

मैं ने खुद को संभाला और घर लौट आई.

अजीत को रुपए दे कर मैं तबीयत खराब होने का बहना बना कर लेट गई.

‘‘यह तू क्या सोचे जा रही है, बेटी?’’ अचानक मां की अपनापन लिए प्यार भरी आवाज सुन कर मेरे सोचने का सिलसिला टूट गया.

मैं ने चौंक कर उन की तरफ देखा. मां ने मेरा सिर छाती में छिपा कर चूम लिया. मुझे एक अजीब तरह का सुकून मिला.

अचानक मां ने भर्राई हुई आवाज में कहा, ‘‘मेरी बच्ची, चल उठ और खाना खा ले. हिम्मत से काम ले. हौसला रख. अपने पिता की नसीहत याद कर. निराश होने से काम नहीं चलता बेटी. तू नाखुश व भूखी रहेगी, तो अजीत और बिट्टी भला किस तरह खुश रहेंगे. समझदारी से काम ले, जो बीत गया उसे भूल जा.’’

मेरे कांपते होंठों से निकला, ‘‘मां…’’

‘‘तू मेरी बेटी नहीं, बेटा है,’’ मां ने इतना कहा, तो मैं उन से लिपट गई.

अचानक मेरे दिमाग में खयाल आया कि क्या मां मेरी अनकही पीड़ा को जान गई?हैं?

छूतखोर : एक बाबा की करामात

सुमन लाल की बेटी दामिनी अब तक 18 वसंत देख चुकी थी. वह उम्र के जिस पड़ाव पर थी, उस पड़ाव पर अकसर मन मचल ही जाता है. पर वह एक समझदार लड़की थी. इस बात को सुमन लाल अच्छी तरह से जानता था, फिर भी उस को अपनी बेटी की शादी की चिंता सताने लगी थी.

एक दिन सुमन लाल ने इस बात का जिक्र अपनी पत्नी शीला से किया, तो उस ने भी सहमति जताई.

अब तो सुमन लाल दामिनी के लिए एक पढ़ालिखा वर ढूंढ़ने की कोशिश करने लगा. आखिरकार एक दिन सुमन लाल की तलाश खत्म हुई.

लड़का पढ़ालिखा था और अच्छे खानदान से ताल्लुक रखता था. सुमन लाल को यह रिश्ता जम गया. बात भी पक्की हो गई.

एक दिन लड़के वालों ने लड़की को देखने की इच्छा जताई. सुमन लाल खुशीखुशी राजी हो गया.

लड़के वाले सुमन लाल के गांव पहुंचे. कुछ देर तक इधरउधर की बात करने के बाद किसी ने कहा, ‘‘क्यों

न इन दोनों को बाहर टहलने के लिए भेज दिया जाए. इस से दोनों एकदूसरे को जानसमझ लेंगे.’’

सभी लोगों की सहमति से वे दोनों झल के किनारे चले गए, जो गांव के बाहर थी.

?ाल बहुत खूबसूरत और बड़ी थी. उसे पार करने के लिए लकड़ी का एक पतला सा पुल बना हुआ था.

लड़के ने दामिनी से बातें करते हुए उसी पुल पर जाने की इच्छा जताई. दोनों पुल पर चलने लगे.

थोड़ी देर बाद अचानक एक घटना घट गई. हुआ यों कि गांव का ही एक दबंग लड़का, जो कई दिनों से दामिनी के पीछे पड़ा था, वहां पर आ धमका. उस के एक हाथ में चाकू था.

बातों में खोई दामिनी को उस वक्त पता चला, जब उस दबंग लड़के ने उस का हाथ पकड़ लिया.

दामिनी के होने वाले पति ने कुछ कहना चाहा, पर इस से पहले ही वह चाकू लहराता हुआ बोला, ‘‘अबे, चल निकल… नहीं तो तेरी आंखें बाहर निकाल कर रख दूंगा.’’

दामिनी का होने वाला पति डर के मारे वहां से भाग निकला. दामिनी चिल्लाती रह गई, पर उस की लौटने की हिम्मत न हुई.

वह दबंग लड़का दामिनी के साथ मनमानी करने लगा. दामिनी ने बचाव का कोई रास्ता न देखते हुए उसी पुल से ?ाल में छलांग लगा दी.

धीरेधीरे दामिनी डूबने लगी. यह देख कर वह दबंग लड़का भी वहां से रफूचक्कर हो गया.

इसी दौरान उसी गांव का एक लड़का वहां से गुजर रहा था. जब उस ने दामिनी को पानी में डूबते हुए देखा, तो वह झल में कूद पड़ा.

उस लड़के ने तैर कर डूबती हुई दामिनी को बचा लिया.

थोड़ी देर बाद जब दामिनी को होश आया, तो वह लड़का उसे ले कर उस के घर आ गया.

घर पर जब दामिनी ने सब लोगों को आपबीती सुनाई, तो वे दंग रह गए.

सब लोगों ने उस लड़के से पूछा, तो उस ने अपना नाम सुमित बताया. वह इसी गांव के पश्चिम टोले में रहता था.

तभी अचानक सुमन लाल की भौंहें तन गईं. उस की सारी खुशियां पलभर में छू हो गईं.

सुमन लाल हैरानी से बोला, ‘‘पश्चिम टोला तो केवल अछूतों का टोला है. क्या तुम अछूत हो?’’

सुमित ने ‘हां’ में सिर हिलाया. फिर क्या था. सुमन लाल अब तक जिस लड़के के कारनामे पर फूला नहीं समा रहा था, अब उसी को बुराभला कह रहा था.

पास में खड़ी दामिनी सारा तमाशा देख रही थी. सुमित अपना सिर झकाए चुपचाप सबकुछ सुन रहा था.

फिर अचानक वह बिना कुछ बोले एक बार दामिनी की तरफ देख कर वहां से चला गया.

सुमित के देखने के अंदाज से दामिनी को लगा कि जैसे वह उस से कह रहा हो कि तुम्हें बचाने का क्या इनाम दिया है तुम्हारे पिता ने.

अब तो सब दामिनी को बुरी नजर से देखने लगे थे. गांव में खुसुरफुसुर होने लगी थी.

एक दिन दामिनी ने फैसला किया कि उस की यह जिंदगी सुमित की ही देन है, तो क्यों न वह सारे रिश्ते तोड़ कर सुमित से ही रिश्ता जोड़ ले.

एक दिन दामिनी सारे रिश्ते तोड़ कर सुमित के घर चली गई. वहां पहुंच कर उस ने देखा कि सुमित का छोटा भाई बेइज्जती का बदला लेने की बात कर रहा था.

सुमित उसे समझ रहा था, तभी दामिनी बोली, ‘‘तुम्हारा भाई ठीक ही तो कह रहा है. उन जाति के ठेकेदारों को सबक सिखाना ही चाहिए.’’

दामिनी को अचानक अपने घर आया देख कर सुमित चौंका और हड़बड़ा कर बोला, ‘‘अरे दामिनीजी, आप यहां? आप को यहां नहीं आना चाहिए. आप घर जाइए, नहीं तो आप के मांबाप परेशान होंगे. मुझे आप लोगों से कोई शिकायत नहीं है.’’

दामिनी बोली, ‘‘कौन से मांबाप… मैं तो उन के लिए उसी दिन मर गई थी, जिस दिन तुम ने मुझे नई जिंदगी दी थी. अब मैं यह नई जिंदगी तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं. अगर तुम ने मुझे अपनाने से मना किया, तो मैं अपनी जान दे दूंगी.’’

दामिनी की जिद के आगे सुमित को झकना पड़ा. उस ने दामिनी के साथ कोर्ट मैरिज कर ली.

धीरेधीरे समय बीतने लगा. सुमित ने शादी के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी रखी. आखिरकार एक दिन उस की मेहनत रंग लाई और वह लेखपाल के पद पर लग गया.

एक दिन सुमित गांव के किनारे की जमीन की नापजोख का काम देख रहा था, तभी वहां पर सुमन लाल आ गया.

सुमित ने तो सुमन लाल को एक ही नजर में पहचान लिया था, मगर सुमन लाल की आंखें उसे नहीं पहचान सकीं.

सुमन लाल पास आ कर बोला, ‘‘नमस्कार लेखपाल साहब.’’

जवाब में सुमित ने अपना सिर हिला दिया.

सुमन लाल बोला, ‘‘साहब, यह बगल वाला चक हमारा ही है. इस पर जरा ध्यान दीजिएगा.’’

सुमित ने जवाब में फिर सिर हिला दिया.

सुमन लाल समझ गया कि साहब बड़े कड़क मिजाज के हैं. अब तो वह उन की खुशामत करने में लग गया, ‘‘अरे ओ भोलाराम, साहब के लिए कुछ शरबत बनवा लाओ. देखते नहीं कि साहब को गरमी लग रही है.

‘‘आइए साहब, इधर बगीचे में बैठिए. कुछ शरबतपानी हो जाए, काम तो होता ही रहेगा.’’

सुमित सुमन लाल की चाल को समझ गया था. उस ने सोचा कि सबक सिखाने का यही अच्छा मौका है.

सुमित जा कर चारपाई पर बैठ गया. थोड़ी ही देर बाद शरबत आ गया. सुमित ने शरबत पी लिया, फिर बोला, ‘‘आप का चक मापने का नंबर तो कल ही आएगा.’’

सुमन लाल बोला, ‘‘ठीक है साहब, कल ही सही. सोचता हूं कि क्यों न आज आप हमारे घर ठहर जाएं. एक तो हमें आप की खिदमत करने का मौका भी मिल जाएगा और आप को भी पुण्य कमाने का मौका.’’

‘‘पुण्य कमाने का मौका, पर वह कैसे?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘अरे साहब, हमारे घर पर कई दिनों से एक साधु बाबा पधारे हैं. वे काशी से आए हैं.’’

सुमित बोला, ‘‘ठीक है, पर यह पुण्य का काम तो मेरी पत्नी को ही ज्यादा भाता है. मैं उन्हीं को ले कर आऊंगा बाबाजी के दर्शन के लिए.’’

सुमन लाल बोला, ‘‘बहुत अच्छा रहेगा साहब, जरूर ले आइएगा.’’

घर पहुंच कर सुमित ने दामिनी को सारी घटना कह सुनाई. दामिनी साथ में जाने के लिए मना करने लगी.

सुमित ने उसे प्यार से समझाया कि यही तो मौका है उन जाति के ठेकेदारों को सबक सिखाने का.

दामिनी जाने के लिए राजी हो गई, तो सुमित ने पूछा, ‘‘अरे दामिनी, तुम्हारा देवर कहीं नहीं दिख रहा है.’’

दामिनी बोली, ‘‘मैं तो बताना ही भूल गई कि वह कुछ दिनों के लिए मामा के यहां गया है.’’

अगले दिन शाम होतेहोते सुमित कार ले कर सुमन लाल के घर पहुंच गया.

सुमन लाल ने बताया, ‘‘साहब, यही हैं काशी से आए हुए बाबाजी.’’

सुमित ने अनमने ढंग से बाबा को हाथ जोड़े, तो उस बाबा ने आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘खुश रहो बच्चा.’’

सुमित ने देखा कि सुमन लाल की पत्नी बाबाजी के पैर दबा रही थी और बाबाजी बड़े ठाट से पैर दबवाने का मजा ले रहे थे.

धीरेधीरे सुमन लाल के घर के बाहर भीड़ लगनी शुरू हो गई थी. कुछ लोग अपने खेतों का मसला ले कर सुमित के पास आ रहे थे, तो कुछ बाबाजी के दर्शन करने के लिए.

सुमन लाल ने पूछा, ‘‘साहब, क्या आप की पत्नी नहीं आईं?’’

सुमित बोला, ‘‘हां, आई हैं. वे कार में बैठी हैं.’’

सुमन लाल ने अपनी पत्नी शीला से कहा, ‘‘अरे सुनती हो, जाओ जा कर साहब की पत्नी को ले आओ. बेचारी कब से कार में बैठी हैं.’’

शीला जैसे ही उठ कर चली, सुमन लाल तुरंत बाबाजी के पैर दबाने लगा.

थोड़ी ही देर में कार के पास से रोने की आवाजें आने लगीं. सुमन लाल ने गौर किया, तो पता चला कि शीला और लेखपाल की पत्नी एकदूसरे से लिपट कर रो रही थीं.

सुमन लाल ने जब पास आ कर देखा, तो हैरान रह गया. लेखपाल की पत्नी तो उस की बेटी दामिनी थी.

सुमित बोला, ‘‘सुमन लालजी, मैं वही सुमित हं, जिसे आप ने बेइज्जत कर के अपने घर से भगा दिया था.’’

सारे गांव वाले चुप थे. किसी के पास कोई जवाब नहीं था.

अभी यह सब हो ही रहा था कि तभी बाबाजी की आवाज सुन कर सभी गांव वालों का ध्यान उन की तरफ गया. पर यह क्या… बाबाजी तो एकएक कर के अपनी नकली दाढ़ीमूंछें उतारने लगे और बोले ‘‘मैं सुमित का छोटा भाई हूं.’’

फिर वह सुमन लाल से बोला, ‘‘मेरे भाई ने तो अपनी जान पर खेल कर आप की बेटी की जान बचाई थी, पर एहसान मानने के बजाय आप ने कहा कि उस के छूने से आप की बेटी नापाक हो गई.

‘‘आज सभी गांव वाले डूब मरिए कहीं चुल्लू भर पानी में, क्योंकि आज तो आप का सारा गांव ही नापाक हो गया है. आज तो आप सभी लोगों ने एक अछूत को छुआ है, इसीलिए यह सारा गांव ही ‘छूतखोर’ हो गया है.

‘‘अब मैं यहां पर एक पल भी नहीं रुकना चाहता,’’ सुमित के छोटे भाई का इतना कहना था कि वे तीनों गाड़ी में बैठ गए.

सुमन लाल ने उन लोगों को रोकना चाहा, पर उस की आवाज हलक के बाहर ही नहीं निकली. धीरेधीरे कार सब की आंखों से ओझल होती चली गई.

बड़बोला: कैसे हुई विपुल की बहन की शादी- भाग 5

‘‘बोलो, विपुल, अगर मेरे बस में होगा तो जरूर करूंगा.’’ यहां नवयुग सिटी में सरकार ने प्लाट काटे हैं. डैडी ने नवगांव का मकान बेच कर यहां एक प्लाट खरीदा है और कोठी बनवानी है. आप को मालूम है कि ठेकेदार, मजदूरों के सिर पर बैठना पड़ता है, नहीं तो वे काम नहीं करते. सुबह कुछ देर से आने की इजाजत मांगनी है, शाम को देर तक बैठ कर आफिस का काम पूरा कर लूंगा, कोई काम पेंडिंग नहीं होगा. हम ने यहां किराए पर मकान ले लिया है, शाम को डैडी कोठी के कंस्ट्रेक्शन का काम देख लेंगे. बस, 1 महीने की बात है, सर.’’

मैं ने उस को इजाजत दे दी और सोचने लगा कि 1 महीने में कौन सी कोठी बन कर तैयार होती है, तभी महेश केबिन में आया. ‘‘विपुल अंगरेजों के जमाने का बड़बोला है, जिंदगी में कभी नहीं सुधरेगा.’’

‘‘अब क्या हो गया?’’ ‘‘सर, सेक्टर 20 में तो 25 और 50 गज के प्लाट प्राधिकरण काट रहा है, वहां कौन सी कोठी बनवाएगा. मकान कहते शर्म आती है, इसलिए कोठी कह रहा है. यदि उस की 50 गज में कोठी है, तो सर, मेरा 100 गज का मकान तो महल की श्रेणी में आएगा.’’

मैं महेश की बातें सुन कर हंस दिया और जलभुन कर महेश विपुल को जलीकटी सुनाने लगा. खैर, विपुल ने 1 महीना कहा था, लेकिन लगभग 4 महीने बाद मकान बन कर तैयार हो गया. मकान के गृहप्रवेश पर विपुल ने पूरे स्टाफ को आमंत्रित किया, लेकिन स्टाफ ने कोई रुचि नहीं दिखाई. सब बड़े आराम से आफिस के काम में जुट गए. मेरे कहने पर सब ने एकजुट हो कर विपुल के यहां जाने से मना कर दिया.

‘‘महेश, बड़े प्रेम से विपुल ने गृहप्रवेश पर बुलाया है, हमें वहां जाना चाहिए.’’ ‘‘सर, मुझे चलने को मत कहिए, उस की कोठी मैं बरदाश्त नहीं कर सकूंगा. मैं अपने झोंपड़े में खुश हूं.’’

‘‘महेश, आफिस से 2 घंटे जल्दी चल कर बधाई दे देंगे, उस की कोठी हो या झोंपड़ा, हमें इस से कुछ मतलब नहीं. वह अपनी कोठी में खुश और हम अपने झोंपड़े में खुश.’’

यह बात सुन कर महेश खुशी से उछल पड़ा और बोला, ‘‘कसम लंगोट वाले की, आप की इस बात ने दिल बागबाग कर दिया. अब आप का साथ खुशीखुशी.’’ शाम को 4 बजे हम आफिस से चल कर विपुल की कोठी पहुंचे. 50 गज के प्लाट पर दोमंजिला मकान था विपुल का. महेश ने चुटकी ली, ‘‘यार, कोठी के दर्शन करवा, बड़ी तमन्ना है, दीदार क रने की.’’

‘‘हांहां, देखो, यह ड्राइंगरूम, रसोई, बैडरूम…’’ अपनी आदत से मजबूर साधारण काम को भी बढ़ाचढ़ा कर बताने लगा कि कोठी के निर्माण में 50 लाख रुपए लग गए. ‘‘सुधर जा, विपुल, 5 के 50 मत कर.’’

‘‘नहींनहीं, आप को पता नहीं है कि हर चीज बहुत महंगी है. जिस चीज को हाथ लगाओ, लाखों से कम आती नहीं है,’’ विपुल आदत से मजबूर सफाई देने लगा. ‘‘विपुल, समय बड़ा बलवान है, इतना झूठ बोलना छोड़ दे, एक

दिन तेरा सच भी हम झूठ मानेंगे. सुधर जा.’’ ‘‘बाई गौड, झूठ की बात नहीं है, बिलकुल सच है,’’ विपुल सफाई पर सफाई दे रहा था.

हम ने वहां से खिसकने में ही अपनी बेहतरी समझी. विपुल से बहस करना बेकार था. हम ने उसे शगुन का लिफाफा पकड़ाया और विदा ली. मकान से बाहर आ कर हम दोनों के मुख से एकसाथ बात निकली :

‘‘विपुल कभी नहीं सुधरेगा. बड़बोला था, बड़बोला है और बड़बोला रहेगा.’

बड़बोला: कैसे हुई विपुल की बहन की शादी- भाग 4

‘‘सर, इस में नाराजगी की क्या बात है. आप इतनी दूर से आए हैं, कुछ तो लीजिए,’’ पकौड़ों की प्लेट मेरे आगे करते हुए विपुल ने कहा. एक पकौड़ा खाते हुए मैं सुषमा से बोला, ‘‘छोड़ो नाराजगी, भूखे पेट रहना ठीक नहीं, कुछ खा लो,’’ लेकिन सुषमा टस से मस नहीं हुई. उस ने कुछ नहीं खाया.

सुषमा और महेश ने अपनी नाराजगी विपुल को जाहिर कर दी. बाकी स्टाफ चुप रहा, लेकिन मेरे समेत सभी दुखी थे. हम विपुल के घर गए तो वहां घर के साथ वाला प्लाट खाली था, जहां खाने का प्रबंध था. शहरी वातावरण से बिलकुल उलट दरियों पर बैठ कर खाने का प्रबंध था. शादी का माहौल देख कर पूरा स्टाफ दंग रह गया. तभी बरात आ गई. आतिशबाजी के नाम पर बंदूक के दोचार फायर देखने को मिले.

भूख से बुरा हाल हुआ जा रहा था, इसलिए चुपचाप दरियोें पर बैठ गए, लेकिन सुषमा ने तो जैसे प्रण कर लिया था. वह अपने इरादे से नहीं पलटी. उस ने खाना तो दूर, पानी की एक बूंद भी नहीं ली. विपुल ने काफी आग्रह किया, लेकिन सब बेकार. महेश का मन खाने से अधिक वापस जाने की जुगाड़ में लगा था. अत: गुस्से में भुनभुनाता बोला, ‘‘कसम लंगोट वाले की, ऐसी बेइज्जती कभी नहीं हुई. विपुल से ऐसी उम्मीद नहीं थी. सर, मुझे चिंता वापस जाने की है. यहां रहने का कोई इंतजाम नहीं है, रात को कोई बस भी नहीं जाती है. सुबह आफिस कैसे पहुंचेंगे. स्टाफ की लड़कियां परेशान हैं, उन के घर कैसे सूचना दें कि हम यहां फंस गए हैं.’’

हमारी बातें सुन कर साथ में बैठे वरपक्ष के एक सज्जन बोेले, ‘‘आप कितने व्यक्ति हैं, हमारी एक बस खाना खत्म होने के बाद वापस मेरठ जाएगी. हम आप को नवयुग सिटी के बाईपास पर छोड़ देंगे. शहर के अंदर बस नहीं जाएगी, क्योंकि वहां जाने से हमें देर हो जाएगी.’’

यह बात सुन कर पूरा स्टाफ खुशी से झूम उठा. जहां दो पल पहले खाने का एक निवाला गले के नीचे जाने में अटक रहा था, अब भूख से ज्यादा खाने लगे. ऐसा केवल खुशी में ही हो सकता है. वरपक्ष के उस सज्जन को धन्यवाद देते हुए हम सब बस में जा बैठे. यह उन का बड़प्पन ही था कि बस में जगह न होते हुए भी हम 8 लोगों को बस में जगह दी, स्टाफ की लड़कियों को सीट दी और खुद ड्राइवर के केबिन में बोनट पर बैठ गए. रात के 1 बजे नवयुग सिटी के बाईपास पर बस ने हमें उतारा. चारों तरफ सन्नाटा, सब से बड़ी समस्या बस अड्डे जाने की थी, जहां हमारे स्कूटर खड़े थे. मन ही मन सब विपुल को कोस रहे थे कि कहां फंसा दिया, कोई आटो- रिकशा भी नहीं मिला. आधे घंटे इंतजार के बाद एक रोडवेज की बस रुकी, तब जान में जान आई. हालांकि बस ने पीछे से किराया वसूल किया. उस समय हम कोई भी किराया देने को तैयार थे, हमारा लक्ष्य केवल अपने घरों को पहुंचने का था.

अगले दिन गिरतापड़ता आफिस पहुंचा. पूरे आफिस में सन्नाटा. सिर्फ कंप्यूटर आपरेटर श्वेता ही आफिस में थी. मैं कुरसी पर बैठेबैठे कब सो गया, पता ही नहीं चला. दोपहर के 2 बजे महेश ने आ कर मुझे जगाया. बाकी समय हम दोनों सिर्फ शादी की बातें करते रहे. श्वेता के कान हमारी तरफ थे. हम ने तो अपनी भड़ास कह कर निकाल दी, लेकिन वज्रपात श्वेता पर हुआ, बेचारी के सारे सपने टूट गए. कहां तो उस ने एक राजकुमार से शादी का सपना संजोया था और वह राजकुमार फक्कड़ निकला. बात को बढ़ाचढ़ा कर कहने की आदत तो बहुतों की होती है, लेकिन 1 का 500 विपुल बना गया. श्वेता इस आडंबरपूर्ण झूठ को सह नहीं सकी और उस ने 3-4 दिन बाद त्यागपत्र दे दिया. आफिस में सब विपुल के व्यवहार

से नाराज थे, लेकिन हम कर भी कुछ नहीं सकते थे. जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा वाली कहावत आखिर चरितार्थ हो गई. एक दिन शाम को जब विपुल आफिस से निकला तो श्वेता के भाई ने अपने 3 दोस्तों के साथ उसे घेर लिया और हाकी से उस की जम कर पिटाई करने लगे. विपुल अपने बचाव में जोरजोर से चिल्लाने लगा, लेकिन ऐसे मौके पर लोग केवल तमाशबीन बन कर रह जाते हैं, कोई बचाने नहीं आता. तभी हम और महेश वहां से गुजरे तो भीड़ देख कर महेश रुक गया. विपुल की आवाज सुन कर महेश मुझ से बोला, ‘‘सर, यह तो अपना विपुल है.’’

विपुल को पिटता देख कर हम दोनों उसे बचाने की कोशिश करने लगे. उस के बचाव के चक्कर में हम भी पिट गए. हमारे कपड़े भी फट गए. हमें देख कर भीड़ में से कुछ लोग बचाव को आगे बढ़े तो हमलावर भाग गए. विपुल की बहुत पिटाई हुई थी. आंखें सूज गईं, शरीर पर जगहजगह नीले निशान पड़ गए थे. उसे पास के नर्सिंगहोम में इलाज के लिए ले गए, जहां उसे 2 दिन रहना पड़ा. ‘‘देख लिया अपने बड़बोलेपन का नतीजा, इतनी सुंदर सुशील कन्या का दिल तोड़ दिया. क्याक्या सपने संजो कर रखे थे उस ने, सब बरबाद कर दिया. शुक्र कर हम वहां पहुंच गए वरना तेरा तो क्रियाकर्म आज हो जाता. मैं तो कहता हूं कि अब भी समय है, संभल जा और आज की पिटाई से सबक ले.’’

विपुल चुपचाप सुनता रहा. महेश का भाषण जले पर नमक का काम कर रहा था, लेकिन कड़वी दवा तो पीनी ही पड़ती है. ऐसा आदमी अपनी आदत से मजबूर होता है, फिर उसी रास्ते पर चल पड़ता है. कुछ दिन खामोश रहने के बाद विपुल की बोलने की आदत फिर शुरू हो गई, लेकिन अब स्टाफ के लोग उस की बातों को गंभीरता से नहीं लेते थे. एक दिन विपुल मेरे केबिन में आया और बोला, ‘‘सर, आप की हेल्प की जरूरत है.’’

गृह प्रवेश : जगन्नाथ सिंह का दबदबा

बरामदे में चारपाइयां पड़ी थीं. दक्षिण दिशा में एक तख्त था, जिस पर बिस्तर बिछा हुआ था. बरामदे से उत्तर दिशा में गोशाला थी. वहीं एक बड़ा सा आंगन था, जिसे एक आदमी बहुत देर से पानी की मोटर चला कर धो रहा था. उस के बदन पर एक बनियान थी और वह लुंगी लपेटे हुए था, जिसे घुटनों तक ला कर अपनी कमर में बांधा था.

वे थे कुशघर पंचायत के मुखिया जगन्नाथ सिंह. उन का समाज में काफी दबदबा था. उस पंचायत के लोग उन की इज्जत करते थे या डरते थे. शायद डर कर ही उन्हें लोग ज्यादा इज्जत देते थे.

‘‘मुखियाजी प्रणाम…’’ भीखरा उन के पास आते हुए बोला.

मुखियाजी ने पूछा, ‘‘भीखरा, आज इधर कैसे आना हुआ? सुना है, आजकल तू ब्लौक के चक्कर लगा रहा है… बीडीओ साहब बता रहे थे.’’

‘‘जी हां मालिक, उन्होंने ही मुझे आप के पास भेजा है,’’ भीखरा ने हाथ जोड़े हुए ही कहा.

‘‘किसलिए?’’

‘‘मालिक, सरकार गरीबों के लिए मकान बनाने के लिए पैसा दे रही है.’’

‘‘हां, तो तू इसीलिए बीडीओ साहब के पास गया था.’’

‘‘हां मालिक. अगर आप की मेहरबानी हो जाए, तो हमारा भी एक मकान बन जाए.

‘‘बरसात में तो झोंपड़ी टपकने लगती है और नाली का गंदा पानी ?ोंपड़ी में घुस जाता है.’’

‘‘पर, तू मेरे पास क्यों आया है?’’

‘‘बीडीओ साहब ने कहा है कि दरख्वास्त पर मुखियाजी से दस्तखत करा के लाओ, इसलिए मैं आप के पास आया हूं.’’

‘‘ठीक है, इस दरख्वास्त को मेरे बिस्तर पर रख दे. पहले तू गाड़ी धुलवाने में मेरी मदद कर,’’ मुखियाजी ने कहा. भीखरा ने वैसा ही किया. जब गाड़ी धुल गई, तब मुखियाजी ने कहा, ‘‘गाय का गोबर हटा दे.’’

भीखरा ने गोबर को हटा कर उस जगह को साफ कर दिया. हाथ धो कर वह उन के पास अपने कागज लेने गया.

मुखियाजी ने भीखरा से कहा, ‘‘देखो भीखरा, मैं इस पर दस्तखत तो कर दूंगा, लेकिन तुम्हें     4 हजार रुपए खर्च करने पड़ेंगे.

‘‘वह पैसा मैं नहीं लूंगा, बल्कि बीडीओ साहब को दे दूंगा. सब का अपनाअपना हिस्सा होता है. सरकारी मुलाजिम बिना हिस्सा लिए तुम्हारा काम जल्दी नहीं करेंगे.’’

‘‘मालिक, भला मैं इतना पैसा कहां से लाऊंगा?’’ भीखरा ने कहा.

‘‘यह तो तुम्हारी समस्या है, तुम ही जानो,’’ मुखियाजी ने कहा.

‘‘तब मालिक, आप ही दे दीजिए. मैं आप को धीरेधीरे चुका दूंगा.’’

‘‘देखो भीखरा, मेरे पास इस समय पैसा नहीं है. तुम देख ही रहे हो कि यह गाड़ी मैं ने साढ़े 6 लाख रुपए में खरीदी है और घर का खर्च… इसलिए मैं लाचार हूं. मेरे पास होता, तो मैं तुम्हें जरूर दे देता. तुम कहीं और से उपाय कर लो.’’

‘‘मैं कहां जाऊं मालिक. मैं तो आप के भरोसे यहां आया था. मेरे बापदादा ने इस घर की बहुत सेवा की है मालिक.’’

‘‘तुम कह तो ठीक ही रहे हो, पर इस समय चाह कर भी मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता.’’

मुखियाजी मंजे हुए खिलाड़ी थे. वे जानते थे कि अगले चुनाव में भीखरा की जाति के वोट बड़ी अहमियत रखेंगे और हर चुनाव में वे इन्हीं लोगों के वोट से जीतते आए हैं.

वे भीखरा को नाराज भी नहीं करना चाहते थे, साथ ही अपना कमीशन भी वसूल कर लेना चाहते थे.

इस समय भीखरा पर पक्का मकान बनाने का नशा सवार था, इसलिए वह कहीं न कहीं से उधार जरूर लेगा. बीडीओ साहब के हर आवंटन पर उन का 15 सौ रुपए कमीशन तय था और वे इसे जाने नहीं देना चाहते थे.

‘‘देखो भीखरा, अभी तो तुम कहीं और से कर्ज ले लो और अपना मकान बनवा लो.

‘‘सोचो, पक्का मकान बन जाएगा, तब तुम लोगों को कितना आराम हो जाएगा. बरसात में तुम्हारी ?ोंपड़ी में नाली का पानी नहीं घुसेगा और न झोपड़ी तेज बारिश में टपकेगी.’’

‘‘लेकिन मालिक, मैं रोजरोज मजदूरी करने वाला आदमी इतने पैसे कहां से लाऊंगा?’’ भीखरा ने कहा.

‘‘एक उपाय है. तुम बालमुकुंद पांडे के पास जाओ और मेरा नाम ले कर कहना कि मैं ने तुम्हें भेजा है. उन के पास पैसा है. वे जरूर तुम्हें दे देंगे,’’ मुखियाजी ने उसे समझाते हुए कहा.

भीखरा वहां से उठ कर बालमुकुंद पांडे के पास गया. वे बरामदे में कुरसी पर बैठ कर अपने पोते को खिला रहे थे. भीखरा की झोॆपड़ी और उन का मकान आमनेसामने था. बीच में गली पड़ती थी.

बालमुकुंद पांडे ने उस से बहुत बार कहा था कि वह अपनी जमीन उन्हें बेच दे. उस में वे अपनी गायों को बांधने के लिए गोशाला बनाना चाहते थे, लेकिन भीखरा ने मना कर दिया था.

वैसे, बालमुकुंद पांडे उस से जमीन खरीदना चाहते थे. भीखरा की झोंपड़ी से पांडेजी के मकान की खूबसूरती मिट रही थी. वे रोज सुबहसुबह एक दलित का मुंह भी नहीं देखना चाहते थे.

भीखरा ने जैसे ही उन के बरामदे के नीचे से ‘पंडितजी प्रणाम’ कहा, तभी उन का माथा ठनका कि भीखरा आज इधर कैसे? जरूर कोई बात है.

उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘‘आओ भीखरा, आज तुम इधर कैसे आ गए?’’

‘‘पंडितजी, मुखियाजी ने भेजा है.’’

‘‘क्यों? कोई बात है क्या?’’

‘‘हां पंडितजी,’’ भीखरा ने उन्हें सारी बातें सचसच बता दीं.

बालमुकुंद पांडे बोले, ‘‘भीखरा,  यह मौका हाथ से जाने मत दो,’’ और मन ही मन वे सोचने लगे, ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे.’

फिर उन्होंने पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं?’’

भीखरा ने कहा, ‘‘पंडितजी, मुझे   4 हजार रुपए उधार चाहिए. मैं धीरेधीरे कर के चुका दूंगा.’’

‘‘मैं कहां कह रहा हूं कि तुम नहीं दोगे? मैं तुम्हें पैसे जरूर दूंगा, जिस से तुम्हारे पास पक्का मकान हो जाए.’’

‘‘पंडितजी, आप की बड़ी मेहरबानी होगी. मेरे बच्चे जिंदगीभर आप का एहसान नहीं भूलेंगे.’’

‘‘लेकिन, देखो भीखरा…’’ पंडितजी ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘भाई, यह पैसे के लेनदेन का मामला है. इस के लिए तो तुम्हें कुछ गिरवी रखना पड़ेगा और इस पैसे का ब्याज मैं महीने का

8 रुपए प्रति सैकड़ा के हिसाब से लूंगा.’’

‘‘ब्याज तो मालिक हम हर महीने चुकाते जाएंगे, पर गिरवी रखने लायक मेरे पास है ही क्या?’’ भीखरा ने अपनी मजबूरी बताई.

‘‘तुम्हारे पास जमीन है न, उसी को गिरवी रख दो. सरकार तुम्हें जो पैसा देगी, उसी में से तुम कुछ बचत कर के मु?ो लौटा देना और अपने कागज ले जाना,’’ पंडितजी ने  कहा.

भीखरा तैयार हो गया. उस ने एक सादा स्टांप पेपर पर अपने अंगूठे के निशान लगा दिए. पंडितजी ने गांव के ही 2 लोगों के गवाह के रूप में दस्तखत करा कर भीखरा को पैसे दे दिए.

भीखरा ने वह पैसे मुखियाजी को दे दिए. मुखियाजी ने उसे भरोसा दिलाया कि वे उस का काम बहुत जल्दी कराने की कोशिश करेंगे, पर उस का काम होतेहोते 2 साल लग गए.

आज उस के घर में गृह प्रवेश था. पंडितजी ने कहा, ‘‘अब तुम दोनों एकसाथ घर में प्रवेश करो. पहले मंगली जाएगी और उस के पीछेपीछे तुम.’’

उसी समय न जाने कहां से बालमुकुंद पांडे वहां पहुंच गए और जोर से बोले, ‘‘भीखरा, तुम गृह प्रवेश तब करोगे, जब मेरा पैसा चुका दोगे.’’

भीखरा ने कहा, ‘‘पंडितजी, हम आप का सारा पैसा दे देंगे. अभी तो हमें गृह प्रवेश कर लेने दीजिए.’’

‘‘नहीं, आज मैं किसी की नहीं सुनूंगा. जब से तुम ने पैसा लिया है, तब से एक रुपया भी नहीं दिया है. इस समय मूल पर ब्याज लगा कर 19,369 रुपए होते हैं. ये रुपए मु?ो दे दो और खुशीखुशी गृह प्रवेश करो.’’

‘‘पंडितजी, इतना पैसा कैसे हो गया?’’ भीखरा की पत्नी ने पूछा.

‘‘तुम्हारी सम?ा में नहीं आएगा. ऐ रामलोचन, तुम आओ… मैं तुम्हें सम?ाता हूं,’’ पंडितजी ने रामलोचन को आवाज दे कर कहा.

पंडितजी ने उसे समझाया, तो वह भी मान गया कि पंडितजी सही कह रहे हैं.

भीखरा ने बालमुकुंद पांडे से प्रार्थना की, पर वे नहीं माने. थोड़ी देर में मुखियाजी भी वहां पहुंच गए.

भीखरा ने उन से भी कहा, पर उन्होंने साफ कह दिया कि वे इस में उस की कोई मदद नहीं कर सकते. या तो पंडितजी के रुपए लौटा दो या जमीन छोड़ दो.

‘‘मालिक, लेकिन हम अपने बच्चों को ले कर कहां जाएंगे? अब तो मेरी झोंपड़ी भी नहीं रही,’’ भीखरा ने मुखियाजी से गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘वह तुम सोचो. जिस दिन पंडितजी से तुम ने रुपए उधार लिए थे, उस दिन नहीं सोचा था?’’ मुखियाजी ने कहा.

उस समय वहां पर काफी भीड़ इकट्ठा हो गई थी. सभी भीखरा को ही कुसूरवार ठहरा रहे थे.

भीखरा ने हाथ जोड़ कर पंडितजी से कहा, ‘‘पंडितजी, इस समय हम आप का पैसा देने में लाचार हैं. हम यह गांव छोड़ कर जा रहे हैं. अब यह मकान आप का है और आप ही इस में गृह प्रवेश कीजिए.’’

थोड़ी देर बाद अपनी आंखों में आंसू लिए दोनों पतिपत्नी अपने बच्चों के साथ गांव छोड़ कर चले गए. इधर पंडितजी अपनी पत्नी के साथ उस घर में हंसीखुशी गृह प्रवेश कर रहे थे.

बड़बोला: कैसे हुई विपुल की बहन की शादी- भाग 3

विपुल की बहन की शादी के दिन पूरे आफिस का स्टाफ नए शानदार चमकते कपड़े पहन कर आफिस आया. ऐसा लगा मानो आफिस बरातघर बन गया हो. महेश को संबोधित करते हुए मैं ने पूछा, ‘‘क्या बात है, श्वेता नजर नहीं आ रही?’’

‘‘सर, आप भी क्या मजाक करते हैं, शादी से पहले अपनी ससुराल कैसे जा सकती है. बस, आज बहन की शादी हो जाए, अगले महीने विपुल का भी बैंड बजा समझें.’’ लंच के बाद सभी बस अड्डे पहुंच गए. थोड़ी देर इंतजार करने के बाद नवगांव की बस मिली. लगभग 4 बजे बस चली. बस चलते ही महेश और सुषमा शादी की बातें करने लगे, खासतौर से शादी के इंतजाम के बारे में और मैं उन की पिछली सीट पर बैठा मंदमंद मुसकराने लगा. तभी मेरे साथ सीट पर बैठे सज्जन ने बीड़ी सुलगाई और मेरे से पूछा, ‘‘भाई साब, क्या आप भी इन लोगों के साथ नवगांव जा रहे हैं बिहारी की छोरी की शादी में?’’

‘‘आप की बात मैं समझा नहीं,’’ मैं ने बीड़ी वाले सज्जन से पूछा. बीड़ी का कश लगाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा नाम बांके है. मैं और बिहारी अनाज मंडी में दलाली करते हैं. बिहारी का छोरा नवयुग सिटी में किसी बड़े दफ्तर में काम करता है. ऐसा लगता है कि आप लोग उसी दफ्तर में काम करते हैं और उस की बहन की शादी में जा रहे हैं. मैं आप लोगों की बातों से समझ गया कि आप वहीं जा रहे हो, क्योंकि इतनी लंबी बातें पूरे नवगांव में बिहारी का खानदान ही कर सकता है. अगर इतना ही अमीर होता तो उस का लड़का 3 हजार की नौकरी करता, ठाट से 18 ट्रक चलाता.

‘‘बिहारी के महल्ले में रहता हूं, आप सब जिस दाल मिल की बात कर रहे हैं उसे बंद हुए 10 साल हो गए हैं. मैं और बिहारी उस दाल मिल में नौकरी करते थे. जब मिल बंद हुई तब से अनाज मंडी में दलाली कर रहे हैं,’’ बीड़ी का कश लगाते हुए बांके की आवाज में व्यंग्य था. बांके की बातें सुन कर हम सब सकते में आ गए. सब की बोलती बंद हो गई और भौचक से एकदूसरे की शक्ल देखने लगे. साहस जुटा कर बड़ी मुश्किल से आवाज निकाल कर सुषमा बोली, ‘‘अंकल, आप सच कह रहे हो, कहीं मजाक तो नहीं कर रहे हो.’’

बांके ने एक और बीड़ी सुलगाई, फिर कश लगाते हुए बोला, ‘‘नवगांव पहुंच कर देख लेना. मेरी कोई दुश्मनी थोड़े है. इतना गपोड़ी निकलेगा, पता नहीं था. पूरा नवगांव बिहारी को एक नंबर का गपोड़ी मानता है पर बेटा तो बाप से भी दस कदम आगे निकला.’’

अब बाकी का रास्ता काटना दूभर हो गया. सभी इस सोच में थे कि जल्दी से नवगांव आ जाए और हकीकत से सामना करें. तभी बस एक पुरानी बिल्ंिडग के सामने रुकी. तब बांके ने कहा, ‘‘नवगांव आ गया, यह खंडहर ही दाल मिल है, जहां बिहारी क ा छोरा 18 ट्रक चला रहा है.’’ हम सब टूटे मन से बस से उतरे. अब करते भी क्या, कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था. जो दाल मिल 10 साल से बंद है उस की हालत खंडहर से कम क्या और ज्यादा क्या. कच्ची टूटी सड़क पर हम कारपेट ढूंढ़ते रह गए. अब स्टाफ का सब्र टूट गया, सब विपुल को गालियां निकालने लगे, अपनी झूठी शान के लिए विपुल इतना बड़ा झूठ बोलेगा, इस की उम्मीद किसी को नहीं थी.

तभी सामने से एक तांगे में कुछ कारपेट और कुरसियों के साथ विपुल आता दिखाई दिया. उसे देख कर सुषमा जोर से चिल्लाई, ‘‘विपुल के बच्चे, नीचे उतर. हमें बेवकूफ बना कर कहां जा रहा है. इन टूटी गड्ढे वाली सड़कों पर चल कर हमारी टांगें टूट गई हैं और तू मजे में तांगे की सवारी कर रहा है.’’ हमें देख कर विपुल तांगे से नीचे आ कर बोला, ‘‘आइए सर, कारपेट बिछने के लिए गली में जा रहे हैं. बांके अंकल, तांगे का सामान घर पहुंचवा दो, मैं सर के साथ हवेली जाता हूं.’’

महेश ने विपुल का कालर पकड़ कर पूछा, ‘‘बेटे, इतना झूठ बोलने की क्या जरूरत थी. इतने महंगे कपड़े पहन कर आए, सब खराब करवा दिए, अगर सच बता देता तब भी शादी में आते, तब और ज्यादा खुशी होती. पागल बना कर रख दिया, अब राष्ट्रपति भवननुमा हवेली के दर्शन भी करवा दे, उस को भी देख कर तृप्त हो जाएं.’’ शायद विपुल को हमारे आने की उम्मीद नहीं थी. एक पल के लिए वह हमें देख कर सन्न रह गया, लेकिन हर बड़बोले की तरह चतुराई से बातें बनाने लगा. ऐसे व्यक्ति आदत से मजबूर…हार नहीं मानते. बात को पलटते हुए बोला, ‘‘आइए सर, हवेली चलते हैं. आप सफर में थक गए होंगे, कुछ जलपान कर लेते हैं.’’

थोड़ी देर पैदल चलने के बाद हम सब हवेली में पहुंच गए. हवेली एक पुरानी इमारत निकली. हवेली को देख कर लगता था कि किसी समय जमींदार की रिहाइश रही होगी, जो अब एक धर्मशाला बन कर रह गई है, जिस के 2 तरफ कमरे बने हुए थे और बाकी 2 तरफ खाली मैदान. रोशनी के नाम पर 3-4 खंभों पर बल्ब लटक रहे थे. 2-3 कमरों में कुछ हलचल हो रही थी, जहां वरपक्ष के पुरुष तैयार हो रहे थे, कुछ महिलाएं तैयार हो कर तांगे पर बैठ कर जा रही थीं. तभी विपुल ने सफाई देते हुए कहा, ‘‘हमारे यहां औरतें बरात के साथ नहीं जातीं, इसीलिए पहले हमारे घर जा रही हैं.’’

हलवाई ने विपुल के आग्रह पर कुछ पकौड़े तल दिए और चाय बना दी. जलीभुनी बैठी सुषमा जलीकटी सुनाने लगी, ‘‘विपुल, तू ने यह अच्छा काम नहीं किया, इतना झूठ तो कोई अपने दुश्मन से भी नहीं बोलता. सारा मेकअप खराब हो गया, इतनी महंगी साड़ी धूल से सन गई, ड्राईक्लीनिंग के पैसे तेरे से लूंगी.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ झेंपती हंसी के साथ विपुल बोला.

‘‘इतनी भूख लग रही है और खिलाने को तुझे ये सड़े हुए बैगन और सीताफल के पकौड़े ही मिले थे. नहीं चाहिए तेरी दावत. इस से तो उपवास अच्छा,’’ कहते हुए सुषमा ने पकौड़े की प्लेट विपुल को ही पकड़ा दी. विपुल ने एक पकौड़ा मुंह में डालते हुए कहा, ‘‘सुषमा, नाराज नहीं होते, फाइव स्टार होटल से अच्छे पकौड़े हैं.’’ ‘‘तेरे घर का एक बूंद पानी भी नहीं पीना,’’ सुषमा तमतमाती हुई बोली.

Raksha Bandhan: कड़वा फल -भाग 3

‘‘रवि, अगर तुम्हारे पापा ने मेरे पापा से लिए पुराने कर्ज को वक्त से वापस कर दिया होता, तो शायद बात बन जाती. मेरे पापा की राय में तुम्हारे मम्मीडैडी फुजूलखर्च इनसान हैं, जिन्हें बचत करने का न महत्त्व मालूम है और न ही उन की आदतें सही हैं. मेरे पापा एक सफल बिजनेसमैन हैं. जहां से रकम लौटाने की उम्मीद न हो, वे वहां फंसेंगे ही नहीं,’’ अरुण के मुंह से ऐसी बातें सुनते हुए मैं ने खुद को काफी शर्मिंदा महसूस किया था.

दादाजी, चाचाओं और बूआओं से हमारे संबंध ऐसे बिगड़े हुए थे कि पापा की उन से इस मामले में कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं पड़ी.

मम्मी ने भी अपने रिश्तेदारों व सहेलियों से कर्ज लेने की कोशिश की, पर काम नहीं बना. यह तथ्य प्रमाणित ही है कि जिन की अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है उन्हें बैंक और परिचित दोनों ही आर्थिक सहायता देने को तैयार रहते हैं. मेरी राय में अगर मम्मीपापा के पास अपनी बचाई आधी रकम भी होती, तो बाकी आधी का इंतजाम कहीं न कहीं से वही रकम करवा देती

अंतत: मैडिकल कालेज में प्रवेश लेने की तिथि निकल गई. उस दिन हमारे घर में गहरी उदासी का माहौल बना रहा. पापा ने मुझे गले लगा कर मेरा हौसला बढ़ाने की कोशिश की, तो मैं रो पड़ा. मेरे आंसू देख कर मम्मीपापा और छोटी बहन शिखा की पलकें भी भीग उठीं.

कुछ देर रो कर मेरा मन हलका हो गया, तो मैं ने मम्मीपापा से संजीदा लहजे में कहा, ‘‘जो हुआ है, उस से हमें सीख लेनी होगी. आगे शिखा के कैरियर व शादी के लिए भी बड़ी रकम की जरूरत पड़ने वाली है. उस का इंतजाम करने के लिए हमें अपने जीने का ढंग बदलना होगा, मम्मीपापा.’’

‘‘मेहनती और होशियार बच्चे अपने मातापिता से बिना लाखों का खर्चा कराए भी काबिल बन जाते हैं. रवि, तुम अपनी नाकामयाबी के लिए न हमें दोष दो और न ही हम पर बदलने के लिए बेकार का दबाव बनाओ,’’ मम्मी एकदम से चिढ़ कर गुस्सा हो गईं.

पापा ने मेरे जवाब देने से पहले ही उदास लहजे में कहा, ‘‘मीनाक्षी, रवि का कहना गलत नहीं है. छोटे मकान में रह कर, फुजूलखर्ची कम कर के, छोटी कार, कम खरीदारी और सतही तड़कभड़क के आकर्षण में उलझने के बजाय हमें सचमुच बचत करनी चाहिए थी. आज हमारी गांठ में पैसा होता, तो रवि का डाक्टर बनने का सपना पूरा हो सकता था.’’

‘‘ऐसा होता, तो वैसा हो जाता, ऐसे ढंग से अतीत के बारे में सोचने से चिंता और दुखों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता है,’’ मम्मी भड़क कर बोलीं, ‘‘हमें भी अपने ढंग से जिंदगी जीने का अधिकार है. रवि और शिखा को हम ने आज तक हर सुखसुविधा मुहैया कराई है. कभी किसी तरह की कमी नहीं महसूस होने दी.

‘‘डाक्टर बनने के अलावा और भी कैरियर इस के सामने हैं. दिल लगा कर मेहनत करने वाला बच्चा किसी भी लाइन में सफल हो जाएगा. कल को ये बच्चे भी अपने ढंग से अपनी जिंदगी जिएंगे या हमारी सुनेंगे?’’

‘‘तुम भी ठीक कह रही हो,’’ पापा गहरी सांस छोड़ कर उठ खड़े हुए, ‘‘रवि बेटा, जैसा तुम चाहो, जिंदगी में वैसा ही हो, इस की कोई गारंटी नहीं होती. दिल छोटा मत करो. इलैक्ट्रौनिक्स आनर्स में तुम ने प्रवेश लिया हुआ है. मेहनत कर के उसी लाइन में अपना कैरियर बनाओ.’’

कुछ देर बाद मम्मीपापा अपने दुखों व निराशा से छुटकारा पाने को क्लब चले गए. शिखा और मैं बोझिल मन से टीवी देखने लगे.

कुछ देर बाद शिखा ने अचानक रोंआसी हो कर कहा, ‘‘भैया, मम्मीपापा कभी नहीं बदलेंगे. भविष्य में आने वाले कड़वे फल उन्हें जरूर नजर आते होंगे, पर वर्तमान की सतही चमकदमक वाली जिंदगी जीने की उन्हें आदत पड़ गई है. उन से बचत की उम्मीद हमें नहीं रखनी है. हम दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर अपनीअपनी जिंदगी संवारेंगे.’’

मैं ने शिखा को गले से लगा लिया. देर तक वह मेरा कंधा अपने आंसुओं से भिगोती रही. अपने से 5 साल छोटी शिखा के सुखद भविष्य का उत्तरदायित्व सुनियोजित ढंग से उठाने के संकल्प की जड़ें पलपल मेरे मन में मजबूत होती जा रही थीं.

 

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