बस अब और नहीं: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव क्यो आया-भाग 2

पर आदमी का सोचा हुआ सब कुछ होता कहां है. 12वीं कक्षा का परीक्षाफल भी नहीं निकला था कि अनिता के पिता का स्थानांतरण वाराणसी हो गया और अनिता और अनिरुद्ध द्वारा बनाया गया सपनों का महल ढह कर चूर हो गया. तब न तो टैलीफोन की इतनी सुविधा थी और न ही आनेजाने के इतने साधन. इसलिए समय बीतने के साथसाथ दोनों को एकदूसरे को भुला भी देना पड़ा.

कहते हैं कि स्त्री अपने पहले प्यार को कभी भुला नहीं पाती. आज इतने दिन बाद अनिरुद्ध को अपने सामने पा कर अनिता के प्यार की आग फिर से भड़क गई. अविनाश जितनी बार अनिरुद्ध को सर कहता अनिता शर्म से मानो गड़ जाती. आज वह अनिरुद्ध के सामने खुद को छोटा महसूस कर रही थी. उस के मन के किसी कोने में यह भी खयाल आया कि अगर उस का पहला प्यार सफल हो गया होता, तो आज वही कंपनी के मैनेजर की पत्नी होती. सभी उस का सम्मान करते और उसे छोटीछोटी चीजों के लिए तरसना न पड़ता. यही सब सोचतेसोचते अनिता की आंख लग गई.

अविनाश का सारा काम विज्ञापन विभाग तक ही सीमित था. विज्ञापन विभाग का प्रमुख उस के सारे काम देखता था. अविनाश को यह उम्मीद थी कि अनिरुद्ध अगले ही दिन उसे बुलाएगा और मौका देख कर वह उस के प्रमोशन की बात कहेगा. अनिता से अपने पुराने परिचय का इतना खयाल तो वह करेगा ही. पर धीरेधीरे 1 सप्ताह बीत गया और अनिरुद्ध का बुलावा नहीं आया तो अविनाश निराश हो गया.

लेकिन एक दिन जब अविनाश को अनिरुद्ध का बुलावा मिला तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. वह तत्काल इजाजत ले कर अनिरुद्ध के कमरे में पहुंच गया. अनिरुद्ध ने उसे बैठने के लिए इशारा किया और बोला, ‘‘उस दिन काफी भीड़ थी, इसलिए कायदे से बात न हो पाई. ऐसा करो, कल छुट्टी है अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, आराम से बातें करेंगे. एक बात और दफ्तर में किसी को भी पता न चले कि हम लोग परिचित हैं. यह जान कर लोग तुम से अपने कामों की सिफारिश के लिए कहेंगे और मुझे दफ्तर चलाने में दिक्कत आएगी. समझ रहे हो न ’’

‘‘जी सर,’’ अविनाश अभी इतना ही कह पाया था कि चपरासी कुछ फाइलें ले कर अनिरुद्ध के कमरे में आ गया. अविनाश वापस अपनी सीट पर लौट आया पर आज वह बहुत खुश था.

घर लौट कर अविनाश अनिता से बोला, ‘‘आज मैनेजर साहब ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था. कह रहे थे कि भीड़ के कारण कायदे से बातें नहीं हो पाईं, कल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आओ, इतमीनान से बातें करेंगे.’’

अनिरुद्ध से मुलाकात होने के बारे में सोच अनिता खुश तो बहुत हुई पर अपनी खुशी छिपा कर उस ने पूछा, ‘‘अरे, अपनी प्रमोशन की बात की कि नहीं ’’

‘‘कहां की. एक तो फुरसत नहीं मिली फिर कोई आ गया. खुद की प्रमोशन की बात मैं कैसे कह दूं, यह मेरी समझ में नहीं आता. ऐसा है, कल चलेंगे न तो मौका देख कर तुम्हीं कहना. तुम्हारी बात शायद मना न कर पाएं. मैं मौका देख कर थोड़ी देर के लिए कहीं इधरउधर चला जाऊंगा.’’

‘‘मुझ से नहीं हो पाएगा,’’ अनिता ने बहाना बनाया.

‘‘अरे, तुम मेरी पत्नी हो. मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकतीं. सोचो, प्रमोशन मिलते ही वेतन बढ़ जाएगा और अन्य सुविधाएं भी मिलेंगी. हमारी जिंदगी आरामदेह हो जाएगी. अभी तुम जिन छोटीछोटी चीजों के लिए तरस जाती हो, वे सब एक झटके में आ जाएंगी. मौके का फायदा उठाना चाहिए. ऐसे मौके बारबार नहीं आते. तुम एक बार कह कर तो देखो, मेरी खातिर.’’

‘‘ठीक है, मौका देख कर जरूर कहूंगी,’’ अनिता समझ गई कि अविनाश प्रमोशन के लिए कुछ भी कर सकता है. यह कायदे से मुझ से बात नहीं करता, लेकिन प्रमोशन के लिए मुझ से इतनी गुजारिश कर रहा है.

अगले दिन अविनाश, अनिता अपने 16 वर्षीय बेटे प्रमोद के साथ अनिरुद्ध के घर पहुंचे. अनिरुद्ध का कोठीनुमा घर देख कर अनिता की आंखें चुंधिया गईं. हर कमरे की साजसज्जा देख कर वह आह भर कर रह जाती कि काश मेरा घर भी ऐसा होता… अंजलि ने घर पर सहेलियों की किट्टी पार्टी आयोजित कर रखी थी, इसलिए अनिरुद्ध अपने कमरे में अलगथलग बैठा हुआ था. अंजलि ने अविनाश और अनिता का स्वागत तो किया पर यह कह कर किट्टी पार्टी चल रही है, उन्हें अनिरुद्ध के कमरे में ले जा कर बैठा दिया. हां, जातेजाते उस ने यह जरूर कहा कि जाइएगा नहीं, पार्टी खत्म होते ही मैं आऊंगी.

अविनाश के साथ ही प्रमोद ने भी अनिरुद्ध को नमस्कार किया और अविनाश ने बताया कि यह मेरा बेटा प्रमोद है. बस, यही एक लड़का है.

अनिरुद्ध ने वहीं बैठेबैठे आवाज लगाई, ‘‘पिंकी… पिंकी.’’

थोड़ी ही देर में प्रमोद की समवयस्क एक किशोरी प्रकट हुई और अनिरुद्ध ने उस का परिचय कराते हुए बताया कि यह उन की बेटी है.

फिर कहा, ‘‘पिंकी बेटे, प्रमोद को ले जा कर अपना कमरा दिखाओ, खेलो और कुछ खिलाओपिलाओ,’’ अनिरुद्ध का इतना कहना था कि पिंकी प्रमोद का हाथ पकड़ उसे अपने साथ ले गई. उस का कमरा सब से पीछे था एकदम अलगथलग.

इधर अनिरुद्ध के कमरे में थोड़ी ही देर में नौकर चायनाश्ता ले आया. इधरउधर की औपचारिक बातों के बीच चायनाश्ता शुरू हुआ. अनिता अधिकतर चुप ही रही. वह अविनाश को यह भनक नहीं लगने देना चाहती थी कि उस की कभी अनिरुद्ध के साथ घनिष्ठता थी. वह चुपचाप अनिरुद्ध को देख रही थी कि कितना बदल गया है वह.

इसी बीच अविनाश के मोबाइल की घंटी बजी. वह तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में था. उस ने अनिरुद्ध से कहा, ‘‘सर, बुरा मत मानिएगा. मैं अभी थोड़ी देर में आ रहा हूं, एक जरूरी काम है.’’

अनिरुद्ध के ‘ठीक है’ कहते ही अविनाश तेजी से बाहर निकल गया. एक पल के लिए अनिता का मन यह सोच कर कसैला हो गया कि आदमी अपने स्वार्थ के आगे इतना अंधा हो जाता है कि अपनी बीवी को दूसरे के पास अकेले में छोड़ जाता है. पर अगले ही पल वह अपने पुराने प्यार में खो गई.

अब कमरे में केवल अनिरुद्ध और अनिता रह गए. थोड़ी देर के लिए तो वहां एकदम शांति व्याप्त हो गई. दोनों में से किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या कहे. वक्त जैसे थम गया था.

बात अनिरुद्ध ने ही शुरू की, ‘‘मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि हम फिर मिलेंगे.’’

‘‘मैं ने भी.’’

अनिरुद्ध खड़ा हो गया था, ‘‘तुम नहीं जानतीं कि मैं ने तुम्हारी याद में कितनी रातें रोरो कर बिताईं. पर क्या करता मजबूर था. पढ़ाई पूरी करने और नौकरी करने के बाद मैं तुम्हारी खोज में एक बार वाराणसी भी गया था. वहां पता लगा तुम्हारी शादी हो गई है. इस के बाद ही मैं ने अपनी शादी के लिए हां की,’’ अनिरुद्ध भावुक हो गया था.

अनिता की आंखों से आंसू झरने लगे थे. उस ने बिना एक शब्द कहे अपने आंसुओं के सहारे कह दिया था कि वह भी उस के लिए कम नहीं रोई है.

अनिरुद्ध ने देखा कि अनिता रो रही है, तो उस ने अपने हाथों से उस के आंसू पोंछ कर उसे सांत्वना दी, ‘‘जो कुछ हुआ उस में तुम्हारा क्या कुसूर है  मैं जानता हूं कि तुम मुझे आज भी इस दुनिया में सब से ज्यादा प्यार करती हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अनिता को गले लगा कर उस के अधरों का एक चुंबन ले लिया.

बस अब और नहीं: अनिरुद्ध के व्यवहार में बदलाव क्यो आया-भाग 1

उस दिन जब अविनाश अपने दफ्तर से लौटा तो बहुत खुश दिख रहा था. उसे इतना खुश देख कर अनिता को कुछ आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह दफ्तर से लौटे अविनाश को थकाहारा, परेशान और दुखी देखने की आदी हो चुकी थी. अविनाश का इस कदर परेशान होना बिना वजह भी नहीं था. सब से बड़ी वजह तो यही थी कि पिछले 10 सालों से वह इस कंपनी में काम कर रहा था, पर उसे आज तक एक भी प्रमोशन न मिला था. वह कंपनी के मैनेजर को अपने काम से खुश करने की पूरी कोशिश करता, पर उसे आज तक असफलता ही मिली थी.

प्रमोशन न होने के कारण उसे वेतन इतना कम मिलता था कि मुश्किल से घर का खर्च चल पाता था. उस की कंपनी बहुत मशहूर थी और वह अपना काम अच्छी तरह से समझ गया था, इसलिए वह कंपनी छोड़ना भी नहीं चाहता था.

अनिता अविनाश के दुखी और परेशान रहने की वजह जानती थी, पर वह कर ही क्या सकती थी.

उस दिन अविनाश को खुश देख कर उस से रहा नहीं गया. वह चाय का कप अविनाश को पकड़ा कर अपना कप ले कर बगल में बैठ गई और उस से पूछा, ‘‘क्या बात है, आज बहुत खुश लग रहे हो ’’

‘‘बात ही खुश होने की है. तुम सुनोगी तो तुम भी खुश होगी.’’

‘‘अरे, ऐसी क्या बात हो गई है  जल्दी बताओ.’’

‘‘कंपनी का मैनेजर बदल गया. आज नए मैनेजर ने कंपनी का काम संभाल लिया. बड़ा भला आदमी है. उम्र भी ज्यादा नहीं है. मेरी ही उम्र का है. पर इतनी छोटी उम्र में मैनेजर बन जाने के बाद भी घमंड उसे छू तक नहीं गया है. आज उस ने सभी कर्मचारियों की एक मीटिंग ली. उस में सभी विभागों के हैड भी थे. उस ने कहा कि यह कंपनी हम सभी लोगों की है. इसे आगे बढ़ाने में हम सभी का योगदान है. हम सब एक परिवार के सदस्यों की तरह हैं. हमें एकदूसरे की मदद करनी चाहिए. कंपनी के किसी भी सदस्य को कोई परेशानी हो तो वह मेरे पास आए. मैं वादा करता हूं सभी की बातें सुनी जाएंगी और जो सही होगा वह किया जाएगा.

‘‘आखिर में उस ने कहा कि इस इतवार को मेरे घर पर कंपनी के सभी कर्मचारियों की पार्टी है. आप सभी अपनी पत्नियों के साथ आएं ताकि हम सब लोग एकदूसरे को अच्छी तरह से जान और समझ सकें. लगता है अब मेरे दिन भी बदलेंगे. तुम चलोगी न ’’

‘‘तुम ले चलोगे तो क्यों नहीं चलूंगी ’’ कह कर मुसकराते हुए अनिता वापस रसोई में चली गई.

कंपनी के कर्मचारियों की संख्या 100 से अधिक थी, जिन के रात के खाने का प्रबंध था. मैनेजर ने अपने घर के सामने एक बड़ा सा शामियाना लगवाया था. मैनेजर अपनी पत्नी के साथ शामियाने के दरवाजे पर ही उपस्थित था और आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहा था. मेहमान एकएक कर के आ रहे थे और मैनेजर से अपना परिचय नाम और काम के जिक्र के साथ दे रहे थे.

अविनाश ने भी मैनेजर से हाथ मिलाया और अनिता ने उन की पत्नी को नमस्कार किया. अचानक मैनेजर की निगाह अनिता पर पड़ी तो उस के मुंह से निकला, ‘‘अरे, अनिता तुम  तुम यहां कैसे ’’

अनिता भी चौंक उठी. उस के मुंह से बोल तक न फूटे.

‘‘पहचाना नहीं  मैं अनिरुद्ध…’’

‘‘पहचान गई, तुम काफी बदल गए हो.’’

‘‘हर आदमी बदल जाता है, पर तुम नहीं बदलीं. आज भी वैसी ही दिख रही हो,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अपनी पत्नी की तरफ संकेत किया, ‘‘अनिता, यह है अंजलि मेरी पत्नी और तुम्हारे पति कहां हैं ’’

अनिता ने अविनाश को आगे कर के इशारा किया और अंजलि को अभिवादन कर उस से बातें करने लगी.

अब तक सिमटा हुआ अविनाश सामने आ कर बोला, ‘‘सर, मैं हूं अविनाश. आप की कंपनी के ऐड विभाग में सहायक.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध ने अंजलि से कहा, ‘‘अंजलि, यह है अनिता. बचपन में हम दोनों एक ही सरकारी कालोनी में रहते थे और एक ही स्कूल में एक ही क्लास में पढ़ते थे. इन के पिताजी पापा के बौस थे.’’

‘‘पर आज उलटा है. आप अविनाश के बौस के भी बौस हैं,’’ कह कर अनिता हंस पड़ी.

‘‘नहीं, हम लोग आज से बौस और मातहत के बजाय एक दोस्त के रूप में काम करेंगे. क्यों अविनाश, ठीक है न  खैर, और बातें किसी और दिन करेंगे, आज तो बड़ी भीड़भाड़ है,’’ कहते हुए अनिरुद्ध अन्य मेहमानों की तरफ मुखातिब हुआ, क्योंकि अब तक कई मेहमान आ कर खड़े हो चुके थे.

पार्टी समाप्त होने पर अन्य लोगों की तरह अविनाश और अनिता भी वापस अपने घर लौट आए. अविनाश बहुत खुश था. उस से अपनी खुशी संभाले नहीं संभल रही थी. सोते समय अविनाश ने अनिता से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि मैनेजर साहब तुम्हारी कालोनी में रहते थे और तुम्हारी क्लास में पढ़ते थे ’’

‘‘इस में झूठ की क्या बात है  जब पिताजी की नियुक्ति जौनपुर में थी तो हमारी कोठी की बगल में ही अनिरुद्ध का क्वार्टर था और अनिरुद्ध मेरी ही क्लास में पढ़ता था. अनिरुद्ध पढ़ने में तेज था, इसलिए वह आज तुम्हारी कंपनी में मैनेजर बन गया और मैं पढ़ने में कमजोर थी, इसलिए तुम्हारी बीवी बन कर रह गई,’’ कह कर अनिता मुसकरा तो पड़ी पर यह मुसकराहट जीवन की दौड़ में पिछड़ जाने की कसक को भुलाने के लिए थी.

अविनाश तो किसी और दुनिया में मशगूल था. उसे इस बात की बड़ी खुशी थी कि मैनेजर साहब उस की पत्नी के पुराने परिचितों में से हैं.

‘‘मैनेजर साहब इतना तो सोचेंगे ही कि मेरा प्रमोशन हो जाए.’’

‘‘पता नहीं, लोग बड़े आदमी बन कर अपना अतीत भूल जाते हैं.’’

‘‘नहीं अनिता, मैनेजर साहब ऐसे आदमी नहीं लगते. देखा नहीं, कितनी आत्मीयता से हम लोगों से वे मिले और यह बताने में भी नहीं चूके कि तुम्हारे पिता उन के पिता के बौस थे.’’

‘‘मुझे नींद आ रही है. वैसे भी कल सुबह उठ कर प्रमोद को तैयार कर के स्कूल भेजना है,’’ कह कर अनिता ने नींद का बहाना बना कर करवट बदल ली. थोड़ी ही देर में अविनाश भी खर्राटे भरने लगा.

नींद अनिता की आंखों से कोसों दूर थी. उस ने कुशल स्त्री की भांति अविनाश को सिर्फ इतना ही बताया था कि वह अनिरुद्ध से परिचित है. वह बड़ी कुशलता से यह छिपा गई कि दोनों एकसाथ पढ़तेपढ़ते एकदूसरे को चाहने लगे थे. 12वीं कक्षा में तो दोनों ने अपने प्यार का इजहार भी कर दिया था. पर दोनों जानते थे कि उन दोनों की आर्थिक स्थिति में बहुत अंतर है और दोनों की जाति भी अलग है, इसलिए घर वाले दोनों को विवाह करने की अनुमति कभी नहीं देंगे. दोनों ने यह तय किया था कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वे दोनों नौकरी तलाशेंगे और उस के बाद अपनी मरजी से विवाह कर लेंगे.

तहखाने: क्या अंशी दोहरे तहखाने से आजाद हो पाई?- भाग 3

अखिल की निगाहें बराबर अंशी पर लगी हैं. वह कई बार उठ कर खुद उस के पास आयागया और इन 4-5 घंटों में 6 बार उसे अपने केबिन में बुला चुका है. शायद उसे आज के ड्रेसप के लिए कोई
काम्पलीमैंट भी दिया है.

अंशी ने इतरा कर अपनी अदा से उसे कोई खास महत्व नहीं दिया है. वह ऐसी गंभीरता का अभिनय कर रही है, जैसे इस दफ्तर की सिलेब्रिटी है और अखिल उस का बौस न हो कर कोई कुलीग है.

दफ्तर के उस हाल में एक धुंध सी है, जिस में सब साफ दिखाई नहीं दे रहा है, मगर ये तय है कि अंशी
अपनी जिंदगी को जी रही है अपनी शर्तों पर, अपनी सुविधा से अपने बनाए नियमों से अपने रास्ते खुद तय कर रही है. वह खुश है, किसी से शिकायत भी नहीं. कभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में मजबूरियों का
दुखड़ा रोते भी नहीं सुना है.

जिंदगी इसी का नाम तो नहीं? नहीं… नहीं… ये सभ्यता नहीं, हमारी परंपराएं इसे आदर से नहीं देखतीं, मर्दों के कंधे पर हाथ रख कर बात करना, बातबात पर ठहाके लगा कर हंस देना… छोटेछोटे कपड़ों से झांकते आमंत्रित करते अंग… लाज का नामोनिशान नहीं… उफ्फ… बेशर्मी को आधुनिकता नहीं कहा जा सकता.

अगर यही है परिवर्तन तो नहीं चाहिए ऐसा बदलाव… अपनों की नजर में न सही, पर अपनी नजर में तो सम्माननीय हूं न, नहीं मिला जीने का सुख तो क्या? आत्मसम्मान से तो धनी हूं मैं… नहीं चाहिए मुझे अंशी जैसी जिंदगी… क्या सचमुच अंशी की जिंदगीखराब है?

क्या वह खुश नहीं? या लोग उस से खुश नहीं? सब तो बैलेंस कर के चलती है वह… फिर क्यों आपत्ति है मुझे या किसी को…? विचारों के झूले पर झूलते मन को दिव्या ने अपने तर्कवितर्क से रोक दिया है और अपने काम में लग गई है.

शाम को अंशी अखिल की गाड़ी में सवार हो कर निकली है. अपनी गाड़ी को उस ने पोर्च में लगा दिया है.
बहुत स्टाइल से वह अखिल के बराबर वाली सीट पर बैठी है और पर्स पीछे वाली सीट पर फेंक दिया है.

दिनभर की थकान से अनमनी सी अंशी जैसे अखिल की गोद में लुढ़क ही जाएगी. अखिल ने उस के हाथ को कस कर पकड़ लिया है और गाड़ी में ही एक जबरदस्त किस अंकित कर दिया. उस की इस हरकत से अंशी बनावटी नाराजगी जाहिर करते हुए कहने लगी है, “इतने बेसब्र मर्द मुझे बिलकुल पसंद नहीं अखिल.”

“ये तो रोमांस का टेलर है मेरी…” बात को अधूरा ही छोड़ दिया है.”

“यही तो कमी है तुम मर्दों में, कि मिल जाए तो औरत को समूचा ही खा लेना चाहते हो तुम लोग?”

“अंशी, नाराज क्यों होती हो जान…”

“माइंड योर लैंग्वेज, मैं कोई जानवान नहीं हूं अखिल… ये सब छलावा है… मैं इसे नहीं मानती.”

“मेरे साथ मेरा रूम शेयर कर सकती हो? ये छलावा नहीं है?”

“मैं अपनी इच्छाओं की मालिक हूं अखिल, जो चाहूं कर सकती हूं. न तुम मुझे रोक सकते हो और न ये
जमाना.”

“मैं तुम्हे चाहने लगा हूं अंशी… बाई गौड…”

“हा… हा… हा… चाहत… किसी से भी… इतनी सस्ती होती है क्या?”

“तुम सस्ती कहां हो अंशी? मेरे दिल से पूछो, कितनी कीमती हो तुम मेरे लिए?”

“अच्छा… कितनी कीमत लगाई है तुम ने मेरी?”

“ओह्ह, बस कर दी न दिल तोड़ने वाली बात…”

“सचाई हकीकत से बहुत अलग होती है.”

“तुम मेरी बगल वाली सीट पर बैठी हो, ये सचाई नहीं है क्या?”

“हां, यह सचाई है, मगर ये पूरी सचाई है कि मैं तुम्हें या तुम मुझे नहीं चाहते हो.”

“अब कैसे दिखाऊं तुम्हें? अंशी, मैं सोतेजागते बस तुम्हारे ही बारे में ही सोचता रहता हूं, यकीन करो
मुझ पर…”

“हा… हा… हा… दूसरा छलावा… कोई शादीशुदा मर्द अपनी खूबसूरत बीवी की गैरहाजिरी में किसी लड़की को घर में लाता है. उस के साथ अय्याशी करता है. बीवी के आते ही चूहे की तरह दुबक जाता है और कहता है कि वह चाहने लगा है… हा… हा… हा.”

“तुम भी तो अपने पति को धोखा दे रही हो अंशी… तुम भी तो शादीशुदा हो… बताओ… मैं झूठ बोल रहा हूं क्या?””तुम बेवकूफ हो अखिल… जरूरत को चाहत समझ बैठे हो… तुम्हारा साथ, तुम्हारी कंपनी. मेरी जरूरत है बस और कुछ नहीं… मैं सतीसावित्री नहीं बनना चाहती… न ही बिना अपराध रोज सूली पर चढ़ना चाहती हूं…”

“ये झूठ है, मैं ने तो कभी अपनी पत्नी को सूली पर नहीं चढ़ाया… न ही कोई इलजाम लगाया उस पर.”

“हा… हा… हा… एक संस्कारी औरत का खिताब उस के माथे पर लगा कर बिंदास जिंदगी जी रहे हो और क्या चाहते हो… वो बेचारी अबला तो तुम्हें पति परमेश्वर ही समझती होगी न?”

“यार, तुम भी ये क्या बातें ले कर बैठ गईं?” हारे हुए अखिल को इस गरमाहट के खत्म होने का डर सताने
लगा, तो वह झुंझला उठा.

“अच्छा नहीं करती… बस… सुनो अखिल, रास्ते से बियर की बोतल ले लेना प्लीज…”

“यस डार्लिंग… मुझे याद है…”

“ठंडी बियर…”

“हां.”

शौप से 2 बोतल गाड़ी की पिछली सीट पर डाल कर अखिल ने ड्राइविंग सीट को संभाल लिया है.

घर आने तक बहस की गहमागहमी फिर से रोमांस में तबदील हो चुकी है. चुप्पी ने माहौल को रोमांटिक कर दिया है.

अंशी के स्टैपकट बाल उस के टौप पर पड़े अखिल को अधीर कर रहे हैं. इस बात
से बेखबर अंशी गाड़ी के बाहर लगातार चलती गाड़ियों को देख रही है, जो रुकेंगी नहीं… दौड़ती
रहेंगी… लगातार… यही जिंदगी है… अपनी धुन में दौड़ना… संतुष्टि तक दौड़ते रहना…

14वें माले पर लिफ्ट से पहुंच कर अखिल ने जेब से चाबी निकाल कर दरवाजे का लौक खोला. अंदर आ कर उसी तरह वापस से लौक भी कर दिया.

“तुम्हें शावर लेना है अंशी? चाहो तो फ्रेश हो जाओ… प्रिया की नाइटी ले लेना.”

“तुम जाओ अखिल… मैं देखती हूं,” अंशी ने मोबाइल को स्विच औफ मोड पर डाल दिया है और बैड पर
पर्स फेंक कर पसर गई है.

6 इंची मोटे डनलप के गद्दों ने उस की थकान को छूमंतर कर दिया है. अखिल ने बाशरूम से आ कर म्यूजिक औन कर दिया. उस का मूड एकदम अलग सा दिख रहा है. अब अंशी भी शावर लेने के बाद ब्लैक कलर की औफ शोल्डर नाइटी में है.

अखिल ने सारी लाइट औफ कर दी है और रूम स्प्रे से कमरे को महका दिया है. बैडरूम में हलकीहलकी सी रोशनी है, जो रोमांस में डूबने को मचल रही है. एक रंगीन मोमबत्ती डिजाइनर वाल की सीध में जल रही है, जो हजारों सितारों की तरह रोशनी दे रही है.

अखिल कांच के गिलास में पैग बना रहा है. अंशी उस के करीब आ कर बैठ गई है, बिलकुल करीब. उस की सांसों की गरमाहट अखिल महसूस कर रहा है. चीयर्स कर पहला पैग खत्म किया
है… फिर दूसरा… तीसरा… और चौथा… नशा गहराने लगा है… उस ने अंशी को बांहों में भर लिया. उस की आंखें बंद हैं. उस ने उस की दोनों बंद आंखों पर एकएक चुम्बन अंकित कर दिया है.

अंशी ने अपनी बांहों को उस के गले में डाल कर उस का चेहरा अपने करीब कर लिया है. अखिल के हाथ उस की पीठ पर रेंग रहे हैं.
इसी मुद्रा में लिपटे दोनों बैठे हैं, जरूरत के साधनमात्र… न प्रेम, न चाहत, न कसक, न भावनाएं…

डुबोने के बाद पूरा समंदर एकदम शांत है. अंशी ने हौले से अपने सीने पर रखा अखिल का हाथ हटाया. नाईटी पहन कर वह ड्राइंगरूम में आ गई है.

पर्स से सिगरेट निकाल कर सुलगाई है और सोफे पर बैठ कर पैर टेबल पर फैला लिए हैं. एक गहरा कश लिया है… “लक्ष्य, मेरे पति.. हा… हा… हा… तुम्हारे हाथों की कठपुतली नहीं हूं मैं, अपनी मरजी से जीना आता है मुझे… और तुम्हारी औकात ही क्या है?

मुझ जैसी लड़की को शिकंजे में जकड़ने की? नहीं… लक्ष्य ये कभी नहीं होगा… जाओ, चले जाओ… देखती हूं… कौन तुम्हें अपने दिल में जगह देगी? यहां से वहां चाटते रहना सब की जूतियां… एक दिन सब की
सब छोड़ के चली जाएंगी…

फिर मैं भी थूक दूंगी तुम्हारे मुंह पर… देखो, मैं ने थूक ही दिया है तुम्हारे पूरे मुंह पर… तुम्हारी औकात यही है लक्ष्य… तुम ने मेरा जीना दुश्वार किया है न… अब मेरी भी इच्छाओं के तहखाने खुल गए हैं, जो कब के बंद पड़े थे. मेरे भी सपने हैं, जो उन तहखानों से झांक रहे हैं, खुली हवा में सांस लेने को मचल रहे हैं. अब ये तहखाने कभी बंद नहीं होंगे.

मेरे हौसले की किरणें इस की सीलन को खत्म कर देंगी. घुटघुट कर जीना मेरे हिस्से में नहीं, अब तुम्हारे हिस्से में होगा… अब तुम मेरा इंतजार करोगे… मेरे लिए अपनी सारी सांसें न्योछावर करोगे और बदले में कुछ नहीं मिलेगा. राहत, हमदर्दी का एक लफ्ज भी नहीं…

तुम मेरी मौजूदगी को घर के कोनेकोने में तलाशोगे और मैं अपनी रंगीन दुनिया में ऐश करूंगी… मैं परंपरावादी, संस्कारी, आश्रित और बेचारी नही हूं… सुना तुम ने…? ऐश के रास्ते जितना तुम्हारे लिए खुले हैं, उतना मेरे लिए भी… मैं… मैं हूं… अब मैं नहीं, तुम मुझ से डरोगे… दहशत खाओगे… जैसे मैं खाती हूं… लक्ष्य, मैं नहीं हूं अब… तुम ने मुझे खो दिया है.

तहखाने: क्या अंशी दोहरे तहखाने से आजाद हो पाई? – भाग 2

अब जितना जी चाहे रोपीट ले, कोई मसीहा नहीं आने वाला, बेचारगी को कौन पसंद करता है भला, एक जोरदार ठहाका लगा कर बैड पर पड़ा सफेद फैंसी पर्स उठा कर उस ने कंधे पर टांग लिया और लैपटौप बैग हाथ में ले कर चल दी.

ड्राइविंग सीट पर बैठते ही अंशी ने अपने लहराते बालों को हाथों से संवारा और बालों में फंसेबड़े फ्रेम के ब्रांडेड गौगल्स को आंखों पर चढ़ा लिया. कार स्टार्ट करते ही पहले म्यूजिक औन किया है… नौटी… नौटी.. नौटी.. नौटी… ऐ जी नौटी सिरमौर बालिए… हिमाचली लोकसंगीत की धुन पर झूमते, गुनगुनाते हुए उस ने क्लिच दबा कर गाड़ी का एक्सीलेटर दे दिया है. गाड़ी अपनी स्पीड से दौड़ रही है.

दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ते समय 6 गज की साड़ी में लिपटी दिव्या से उस का आमनासामना हो गया है. सादगी को ओढ़े, दायरों का बौर्डर जिस्म से चिपका, उपस्थित हो कर भी सब से अलग, मुंह में जबान न के
बराबर. हमेशा डरीसहमी सी जैसे दफ्तर न हो कर कोई कब्रगाह हो. इशारों पर नाचती दिव्या से बौस ने
कहा, “ओवर टाइम.”

“यस सर,” उस ने कहा. किसी और की टेबल का काम करने को तो न चाहते हुए भी उसे कहना पड़ा, “यस सर,” फिर भी नौकरी जाने और बौस की नजरों से उतरने का डर.

अंशी ने गर्मजोशी से “हाय” कह कर पहल की और बोली, °बहुत सुंदर साड़ी है आप की, मगर रोजरोज कैसे संभालती हो आप इसे?”

“आदत हो गई है अब तो…”

“दिव्याजी, आप को देख कर मुझे अपनी मम्मा याद आ जाती हैं। बिलकुल आप की हूबहू तसवीर, सेम
पहनावा, सेम व्यक्तित्व और…”

“और… और क्या?”
जवाब में हंस दी वह.

“आदर्शवादी, संस्कारी महिला,” दिव्या अब उत्साहित हो मुसकराई, “हम ने साड़ी को जीवित रखा है आज भी और संस्कारों को भी…” नाक सिकोड़ते हुए अंशी ने लापरवाही से उस की भावनाओं को सहमति दी है.

“चलिए, आ गया हमारा
स्थायी पड़ाव.”

“स्थायी…?”

“हां, कम से कम दफ्तर तो स्थायी ही रहना है रिटायरमेंट तक, बाकी का मुझे भरोसा नहीं.”

“भरोसा तो जिंदगी का भी नहीं है, बस सब जिए जा रहे हैं. या यों कहो, लाठी से हांके जा रहे हैं,” ठहाका लगाते हुए अंशी ने दिव्या को कंधे से पकड़ लिया, “टूटी हुई बातें, बुझा हुआ निराश चेहरा… सब के सब गहने हैं आप जैसी औरतों के, जो एक दिन सांप बन कर न डसे तो कहना.”

“तो और क्या करें? समाज में रहना है, मर्यादा में न रहें तो कौन इज्जत देगा.”

“कौन सी इज्जत दिव्याजी, बताओ तो जरा… बुरा न मानना… कौन इज्जत देता है आप को? या परवाह
करता है घर में या दफ्तर में? आप के बच्चे? आप के पति? या दफ्तर में बौस? क्या कमी छोड़ी है आप ने? फिर भी…”

अंशी की बातों से उस के होंठों ने खामोशी को अख्तयार कर लिया और वह सकपका कर अपनी टेबल की ओर बढ़ गई है. अंशी का बिंदास नजरिया दिव्या को कभी न भाया. उस का पहनावा, देह भाषा और निडरता कुछ भी नहीं, भला शोभा देती है क्या भले घर की औरतों को मर्दों जैसी हरकतें? मन ही मन
बुदबुदा कर दिव्या ने अपना काम संभाला, मगर कहीं न कहीं उस की बातें आज उसे झकझोर रही हैं. सही तो कह रही है

वह, क्या गलत कहा अंशी ने? क्या पाया आज तक उस ने? दिनभर पिलने के बाद घर
में सब की जीहुजूरी, बच्चों को लाड़दुलार करते और दूसरों की पसंद पूछतेपूछते भूल ही गई है कि उसे
क्या पसंद है? और किसी ने पूछा भी कहां कभी? न किसी ने उस की इच्छाएं पूछीं, न सपने.

सपने तो होते ही कहां हैं औरतों के, वह तो परिवार के सपनों पर जीती हैं. सुबह से खटतेखटते आई हूं और जा कर भी आराम कहां? न बनाव, न श्रंगार, जरा सा हंस लूं तो जवाब देही… रो लूं तो उपेक्षा झेलूं… उफ्फ… जरा भी सलीका न सीखा हम ने, हाथों के नाखूनों से जमे आटे को चोरी से साफ करने लगी है.

Raksha bandhan: अब हमारी बारी है-भाइयों ने बनाया बहन को सफल

Story in Hindi

तहखाने: क्या अंशी दोहरे तहखाने से आजाद हो पाई? – भाग 1

रंगों को मुट्ठी में भर कर झुके हुए आसमान को पाना मुश्किल है क्या? या बदरंग चित्रों की कहानी दोहराव के लिए परिपक्व है? इन चित्रों की दहशत अब उस के मन की मेड़ों से फिसलने लगी है.

दौड़ते विचारों के कालखंड अपनी जगह पाने को अधीर हो डरा रहे हैं कि अंशी ने आईने को अपनी तरफ मोड़ लिया है. पूरी ताकत से वह उस कालखंड़ के टुकड़े करना चाहती है. अब चेहरा साफ दिखाई दे रहा है.साहस और आत्मविश्वास से ओतप्रोत. खुद को भरपूर निहार कर जीन्स को ठीक किया है. नैट के टौप के अंदर पहनी स्पैगिटी को चैक किया.

ठुड्डी को गले से लगा कर भीतर की तरफ झांका. सधे हुए उभारों और कसाब में रत्तीभर ढील की गुंजाइश नहीं है. संतुष्टि के पांव पसारते ही होंठों को सीटीनुमा आकृति में मोड़ कर सीधा किया.

लिपिस्टिक का रंग कपड़ों से मेल खा रहा है. ‘ वो ‘ के आकार में आईब्रो फैलाने और सिकोड़ने की कोई खास वजह नहीं है, फिर भी बेवजह किए गए कामों की भी वजह हुआ करती है.

कलाई पर गोल्डन स्टोन की घड़ी को कसते हुए अंशी ने पैर से ड्रायर खोल कर सैंडिल निकाले, उन्हें पहनने का असफल प्रयास जानबूझ कर किया गया. पहनने तक ये प्रयास जारी रहा. इस के पीछे जो भी वजह रही हो, मगर पुख्ता वजह तो व्यस्तता प्रदर्शित करना ही है.

सुरररर… सुररररर कर बौडी
स्प्रे कंधों के नीचे, बांहों पर छिड़का और फिर उस के धुएं से ऊपर से नीचे तक नहा ली है.

इस बार आईने ने खुद उसे निहारा, “गजब, क्या लग रही हो यार?”

सामने लगा ड्रेसिंग टेबल का आईना बुदबुदा उठा… जो भी हो, ऐसा तो होना ही था.

अंशी एक मौडर्न गर्ल है. मौडर्निटी का हर गुण उस के भीतर समाया हुआ है, यही जरूरी है. छोटे कपड़े, परंपरावादी सोच से इतर खुले विचार, मनपसंद कामों की सक्रियता, दबाव के बगैर जिंदगी को जीना और सब से महत्वपूर्ण खुद को पसंद करना, हर बौल पर छक्का जड़ने की काबिलीयत. बौस तो क्या, पूरा स्टाफ चारों खाने चित्त.

खुद की आइडियल खुद,दफ्तर का आकर्षण और दूसरा खिताब झांसी की रानी का. किसी की हिम्मत नहीं कि अंशी को उस की मरजी के बगैर उसे शाब्दिक या अस्वीकारिए नजरिए से छू भी ले. हां, जब मन करे तो वह छू सकती है, खरौंच सकती है सदियों से पड़ी दिमाग में धूल की परतों को.

बोलने की नजाकत और चाल की अदायगी में माहिर हो कर आधुनिकता की सीढ़ियों पर चढ़ना बेहद
आसान है. हालात मुट्ठी में करना कौन सा बड़ा काम है? अपनी औकात का फंदा गले में लगा कर क्यों
मरती हैं औरतें? ढील देती हुई बेचारगी को चौतरफा से घेरे रहती हैं, ताकि ये उन के हाथ में रहे और वह
जूझती रहें ताउम्र अपने ही बुने फंदों में.

औरत बेचारी, अबला सब कोरी बकवास. सब छलावा है जंग में उतरने की पीड़ा से बचने का. और फिर कौन सा बच पाती हैं? एक पूरा तानेबानों का दरिया उन के इर्दगिर्द फैला होता है, जिस में फंसी निकलने की झटपटाहट ताउम्र जीने देती है उन्हें.

वाह री औरत… कौनसी मिट्टी की बनी है रे तू? शिकायत है तुझे उस समाज से, जिस की सृजनकर्ता है तू और उस की डोर को तू ने ही ढीली छोड़ कर अपनी ऊंचाइयों में उड़ने दिया और बैठीबैठी देखती रही हवाओं का रुख.

बड़बोला: कैसे हुई विपुल की बहन की शादी

Story in hindi

एक युग: सुषमा और पंकज की लव मैरिज में किसने घोला जहर?

Story in Hindi

Raksha Bandhan: कड़वा फल- क्या अपनी बहन के भविष्य को संवार पाया रवि?

Story in Hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें