बबूल का पेड़: जब बड़ा भाई अपने छोटे भाई से पराया हुआ

कमरे में प्रवेश करते ही नीलम को अपने जेठजी, जिन्हें वह बड़े भैया कहती थी, पलंग पर लेटे हुए दिखाई दिए. नीलम ने आवाज लगाई, ‘‘भैया, कैसे हैं आप?’’

‘‘कौन है?’’ एक धीमी सी आवाज कमरे में गूंजी.

‘‘मैं, नीलम,’’ नीलम ने कहा.

बड़े भैया ने करवट बदली. नीलम उन को देख कर हैरान रह गई. क्या यही हैं वे बड़े भैया, जिन की एक आवाज से सारा घर कांपता था, कपड़े इतने गंदे जैसे महीनों से बदले नहीं गए हों, दाढ़ी बढ़ी हुई, जैसे बरसों से शेव नहीं की हो, शायद कुछ देर पहले कुछ खाया था जो मुंह के पास लगा था और साफ नहीं किया गया था. हाथपैर भी मैलेमैले से लग रहे थे, नाखून बढ़े हुए. उन को देख कर नीलम को उन पर बड़ा तरस आया. तभी नीलम का पति रमन भी कमरे में आ गया. बड़े भाई को इस दशा में देख कर रमन रोने लगा, ‘‘भैया, क्या मैं इतना पराया हो गया कि आप इस हालत में पहुंच गए और मुझे खबर भी नहीं की.’’

भैया से बोला नहीं जा रहा था. उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए और कहने लगे, ‘‘किस मुंह से खबर करता छोटे, क्या नहीं किया मैं ने तेरे साथ. फिर भी तू देखने आ गया, क्या यह कम है.’’

‘‘नहीं भैया, अब मैं आप को यहां नहीं रहने दूंगा. अपने साथ ले जाऊंगा और अच्छी तरह से इलाज करवाऊंगा,’’ रमन सिसकते हुए कह रहा था.

नीलम को याद आ रहे थे वे दिन जब वह दुलहन बन कर इस घर में आई थी. उस के मातापिता ने अपनी सामर्थ्य से ज्यादा दहेज दिया था लेकिन मनोहर भैया हमेशा उस का मजाक उड़ाते थे. उस के दहेज के सामान को देख कर रमन से कहते, ‘क्या सामान दिया है, इस से अच्छा तो हम लड़की को सिर्फ फूलमाला पहना कर ही ले आते.’

उन की शादी अमीर घर में हुई थी, लेकिन रमन की ससुराल उतनी अमीर नहीं थी. इसलिए वे हमेशा उस का मजाक उड़ाते थे. रोजरोज के तानों से नीलम को बहुत गुस्सा आता, पर रमन के समझाने पर वह चुप रह जाती. फिर भी बड़े भैया के लिए उस के दिल में गांठ पड़ ही गई थी. उन से भी ज्यादा तेज उन की पत्नी शालू थी जो बोलती कम थी पर अंदर ही अंदर छुरियां चलाने से बाज नहीं आती थी.

मातापिता की मृत्यु के बाद घर में मनोहर भैया की ही चलती थी. सब कुछ उन से पूछ कर होता था. एक तो मनोहर बड़े थे, दूसरे, वे एक अच्छी कंपनी में अच्छे पद पर थे. उन की शादी भी पैसे वाले घर में हुई थी जबकि रमन न सिर्फ छोटा था बल्कि एक छोटी सी दुकान चलाता था. उस की शादी एक साधारण घर में हुई थी. उस की घरेलू स्थिति ठीक नहीं थी. रमन को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, वह न सिर्फ अपने बड़े भाई को बहुत प्यार करता था बल्कि उन की हर बात को मानना अपना कर्तव्य भी समझता था. मनोहर अपने छोटे भाई को वह प्यार नहीं देते थे जिस का वह हकदार था, बल्कि हमेशा उस की बेइज्जती करने के बहाने ढूंढ़ते रहते. वे हमेशा यह जतलाना चाहते थे कि घर में सिर्फ वे ही श्रेष्ठ हैं और बाकी सब बेवकूफ हैं.

‘‘नीलम, कहां खो गईं. चलो, भैया का सामान पैक करो, इन को हम अपने साथ ले जाएंगे,’’ रमन की आवाज सुन कर नीलम वापस वर्तमान में आ गई.

‘‘भैया, प्रिया नहीं आती क्या आप से मिलने?’’ नीलम ने पूछा.

‘‘आती है कभीकभी, लेकिन वह भी क्या करे. उस की अपनी गृहस्थी है. हमेशा तो मेरे पास नहीं रह सकती न,’’ भैया रुकरुक कर बोल रहे थे.

‘‘और राजू और पल्लवी कहां हैं?’’ नीलम ने पूछा.

‘‘राजू तो औफिस गया होगा और पल्लवी शायद किसी ‘किटी पार्टी’ में गई होगी,’’ भैया शर्मिंदा से लग रहे थे.

नीलम को इसी तरह के किसी जवाब की उम्मीद थी. उसे अच्छी तरह याद है वह दिन जब उस की छोटी बहन सीढि़यों से गिर गई थी तो वह हड़बड़ाहट में बिना किसी को बताए अपनी मां के घर चली गई थी. बस, इतनी सी बात पर मनोहर भैया ने बखेड़ा खड़ा कर दिया था कि ऐसा भी किसी भले घर की बहू करती है क्या कि किसी को बगैर बताए मायके चली जाए.

उन दिनों भैया ही सारा घर संभालते थे. रमन भी अपनी सारी कमाई भैया के हाथ में दे देता था और कभी भी नहीं पूछता था कि भैया उन पैसों का क्या करते हैं जबकि भैया सब से यही कहते फिरते थे कि छोटे का खर्च तो वही चलाते हैं. छोटे की तो बिलकुल भी कमाई नहीं है.

नीलम की सारी अच्छाइयां, सारी पढ़ाईलिखाई, सारे गुण सिर्फ एक कमी के नीचे दब कर रह गए कि एक तो उस का मायका गरीब था, दूसरे, पति की कमाई भी साधारण थी. सारे रिश्तेदारों, दोस्तों में शालू और मनोहर नीलम और रमन को नीचा दिखाने का प्रयास करते. नीलम को अपनी इस स्थिति से बहुत कोफ्त होती पर वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती थी क्योंकि रमन उसे कुछ भी बोलने नहीं देता था.

एक बड़े पेड़ के नीचे जिस तरह एक छोटा पौधा पनप नहीं सकता वैसी ही कुछ स्थिति रमन की थी. पिता की मृत्यु के बाद मनोहर घर के मुखिया तो बन गए लेकिन उन्होंने रमन को सिर्फ छोटा भाई समझा, बेटा नहीं. बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति जो फर्ज होता है वह उन्होंने कभी नहीं निभाया.

नीलम समझ नहीं पाती थी कि क्या करे? वैसे वह बहुत समझदार और शांत स्वभाव की थी, लेकिन कभीकभी शालू और मनोहर के तानों से इतनी दुखी हो जाती कि उसे लगता कि वह रमन को ही छोड़ दे. रमन का चुप रहना उसे और परेशान कर जाता, लेकिन रमन को छोड़ना तो इस समस्या का हल नहीं था. रमन तो बहुत अच्छा था. बस, उस की एक ही कमजोरी थी कि वह बड़े भाई की हर अच्छी या बुरी बात मानता था और आंख बंद कर उन पर विश्वास भी करता था.

रमन के इसी विश्वास का मनोहर ने हमेशा फायदा उठाया. उस ने पुश्तैनी मकान भी अपने नाम करवा लिया और एक दिन नीलम और रमन को अपने ही घर से जाने को कह दिया.

इतना कुछ होने पर भी रमन कुछ नहीं बोला और अपनी 4 साल की बेटी और पत्नी को ले कर चुपचाप घर से निकल पड़ा. उस दिन नीलम को अपने पति की कायरता पर बहुत गुस्सा आया, लेकिन जब रमन ही कुछ करने को तैयार नहीं था तो वह क्या कर सकती थी, पर मन ही मन उस ने सोच लिया था कि वह इस घर में अब कभी वापस नहीं आएगी और इस घर से बाहर रह कर ही अपनी और अपने परिवार की एक पहचान बनाएगी.

अब नीलम की अग्निपरीक्षा शुरू हो गई थी. घर में पैसों की तंगी बनी रहेगी, यह तो नीलम को मालूम था क्योंकि संयुक्त परिवार में बहुत से ऐसे खर्चे होते हैं जिन का पता नहीं चलता, लेकिन एकल परिवार में उन खर्चों को निकालना मुश्किल हो जाता है. फिर भी नीलम ने हार नहीं मानी और जुट गई अपना एक समर्थ संसार बनाने में. सुबह मुंहअंधेरे उठ कर घर का कामकाज करती, उस के बाद कई बच्चों को घर पर बुला कर ‘ट्यूशन’ पढ़ाती और फिर रमन के साथ दुकान पर चली जाती.

नीलम के अंदर दुकान चलाने की गजब की क्षमता थी जो शायद अभी तक उस के अंदर सुप्त पड़ी थी. उस ने अपने मीठे व्यवहार, ईमानदारी और मेहनत से न सिर्फ अपनी दुकान को बढ़ाया बल्कि रमन का आत्मविश्वास बढ़ाने में भी उस का साथ दिया.

बड़े भाई से अलग रह कर रमन को भी एहसास हो गया था कि वह कितना बुद्धू था और बड़े भाई ने उस का कितना फायदा उठाया.

मनोहर ने सोचा था कि रमन कभी भी घर से नहीं जाएगा और अगर जाता है तो जाते वक्त उस के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाएगा या फिर नीलम ही कुछ भलाबुरा कहेगी पर वह हैरान था कि दोनों ने कुछ भी नहीं कहा बल्कि चुपचाप एकदूसरे का हाथ पकड़ कर घर से चले गए. वैसे भी वे रमन से चिढ़ते थे कि उस की पत्नी हमेशा उस का कहना मानती थी जबकि वह इतना समर्थ भी नहीं था और एक उन की पत्नी शालू है, जिस ने उन का जीना मुश्किल किया हुआ था. हर वक्त उसे कुछ न कुछ चाहिए. उस की फरमाइशें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं.

मनोहर ने रमन को घर से तो निकाल दिया पर उन के अंदर आत्मग्लानि का भाव पैदा हो गया था. एक दिन रात को शराब के नशे में धुत्त हो कर मनोहर ने रमन को फोन किया, ‘चल छोटे, घर आजा, भूल जा सब कुछ.’ लेकिन नीलम और रमन ने सोच लिया था कि अब उस घर में वापस नहीं जाना है. अब मनोहर को एक नया बहाना मिल गया था अपनेआप को बहलाने का कि उस ने तो उन दोनों को वापस बुलाया था पर वे ही वापस नहीं आए और गाहेबगाहे वे अपने रिश्तेदारों को कहने लगे कि वे दोनों अपनी मरजी से घर छोड़ कर गए हैं. नीलम तो हमेशा से ही रमन को उन से दूर करना चाहती थी, पर अंदर की बात तो कोई भी नहीं जानता था कि यह सब कियाधरा मनोहर का ही है.

रमन और नीलम ने दिनरात मेहनत की. धीरेधीरे उन की दुकान एक अच्छे ‘स्टोर’ में बदल गई थी. अब उस ‘स्टोर’ की शहर में एक पहचान बन गई थी. रमन और नीलम का जीवनस्तर भी ऊंचा हो गया था. उन के बच्चे शहर के अच्छे स्कूलों में पढ़ने लगे थे. अब मनोहर उन से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश करते पर वे दोनों तटस्थ रहते.

रमन के घर छोड़ने के बाद दोनों भाइयों का आमनासामना बहुत ही कम हुआ था. एक बार मनोहर के बेटे राजू की शादी में वे मिले थे, तब रमन ने महसूस किया था कि बड़े भाई की अब घर में बिलकुल भी नहीं चलती है. जो कुछ भी हो रहा था, वह बच्चों की मरजी से ही हो रहा था. बड़े भाई के बच्चे भी उन पर ही गए थे. वे बिलकुल ही स्वार्थी निकले थे. दूसरी मुलाकात मनोहर की बेटी प्रिया की शादी में हुई थी. बड़े भैया को अनेक रोगों ने घेर लिया था. वे बहुत ही कमजोर हो गए थे. तब भी उन को देख कर रमन को बहुत दुख हुआ था पर उस वक्त वह कुछ नहीं बोला था, लेकिन शालू भाभी के जाने के बाद तो जैसे भैया बिलकुल ही अकेले पड़ गए थे. उन का खयाल रखने वाला कोई भी नहीं था. शालू जैसी भी थी, पर अपने पति का तो खयाल रखती ही थी. राजू को अपने काम और क्लबों से ही फुरसत नहीं थी. वैसे भी उसे पिता के पास बैठ कर उन का हाल जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अगर वह अपने पिता का ध्यान नहीं रख सकता था तो पल्लवी को क्या पड़ी थी इन सब बातों में पड़ने की? वह भी ससुर का बिलकुल ध्यान नहीं रखती थी.

एकएक बात रमन के दिमाग में चलचित्र की तरह घूम रही थी. पुरानी घटनाओं का क्रम जैसे ही खत्म हुआ तो रमन बोला, ‘‘बड़े भैया, कल ही किसी से पता चला था कि आप गुसलखाने में गिर गए हैं. मुझ से रहा नहीं गया और आप का हाल पूछने चला आया.’’

रमन का दिल रोने लगा कि खामखां ही वह इतने दिनों तक भैया से नाराज रहा और उन की खबर नहीं ली, लेकिन अब वह उन को अपने साथ जरूर ले जाएगा, लेकिन बड़े भैया ने जाने से इनकार कर दिया, ‘‘मुझे माफ कर दे छोटे, सारी जिंदगी मैं ने सिर्फ तेरा मजाक उड़ाया है और अब जब मैं बिलकुल ही मुहताज हो चुका हूं और मेरे अपने मुझे बोझ समझने लगे हैं, इस वक्त मैं तेरे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहता.’’

‘‘नहीं भैया, ऐसा मत कहो. क्या मैं आप का अपना नहीं, मैं ने आप को अपना भाई नहीं बल्कि पिता माना है और एक बेटे का कर्तव्य है कि वह अपने पिता की सेवा करे, इसलिए आप को मेरे साथ चलना ही पड़ेगा,’’ रमन ने विनती की.

तभी नीलम भी बोल पड़ी, ‘‘भैया, आप को हमारे साथ चलना ही पड़ेगा, हम आप को इस तरह छोड़ कर नहीं जा सकते.’’

अब तक पल्लवी भी घर पहुंच चुकी थी. उस ने चाचा और चाची को देख कर इस तरह व्यवहार किया जैसे वह उन दोनों को जानती ही नहीं. उस को इस बात की भी चिंता नहीं थी कि दुनियादारी के लिए ही कुछ दिखावा कर दे. उस का व्यवहार इस बात की गवाही दे रहा था कि अगर मनोहर को कोई अपने साथ ले जाता है तो उसे कोई परवा नहीं है. अभी तक मनोहर को आशा थी कि शायद पल्लवी उसे कहीं भी जाने नहीं देगी और उसे रोक लेगी, पर उस की बेरुखी देख कर मनोहर भैया उठ खड़े हुए, ‘‘चल छोटे, मैं तेरे साथ ही चलता हूं, लेकिन उस से पहले तुझे मेरा एक काम करना पड़ेगा.’’

‘‘वह क्या, भैया?’’ रमन ने पूछा.

‘‘तुझे एक वकील लाना पड़ेगा क्योंकि मैं यह बंगला तेरे नाम करना चाहता हूं जो धोखे से मैं ने अपने नाम करवा लिया था,’’ मनोहर ने कहा.

‘‘लेकिन मुझे यह घर नहीं चाहिए भैया, मेरे पास सब कुछ है,’’ रमन ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं छोटे, तेरे पास सब कुछ है लेकिन जिंदगी ने मुझे यह सबक सिखाया है कि किसी से भी धोखे से ली हुई कोई भी वस्तु सदैव दुख ही देती है. मैं इतने सालों तक चैन से नहीं सो पाया और अब चैन से सोना चाहता हूं इसलिए मुझे मना मत कर और अपना हक वापस ले ले.’’

यह सब सुन कर पल्लवी के तो होश उड़ गए. उसे लगता था कि उस के ससुर का तो कोई अपना है ही नहीं, जो उन्हें अपने साथ ले जाएगा, और इतना बड़ा बंगला सिर्फ उस के हिस्से ही आएगा. लेकिन ससुर की बात सुन कर उसे लगा कि इतना बड़ा घर उस के हाथ से निकल गया है. उस ने फटाफट बहू होने का फर्ज निभाया. उस ने मनोहर को रोकने की कोशिश की, पर मनोहर ने कहा, ‘‘नहीं बहू, अब नहीं, अब मैं नहीं रुक सकता. तुम ने और मेरे बेटे ने मुझे बिलकुल ही पराया कर दिया है. इस बूढ़े और लाचार इंसान को अब अपने मतलब के लिए इस घर में रखना चाहते हो. नहीं, इस घर में तड़पतड़प कर मरने से अच्छा है मैं अपने भाई के साथ कुछ दिन जी लूं, लेकिन फिर भी मैं कहता हूं कि इस में तुम्हारी गलती कम है क्योंकि मैं ने ही बबूल का पेड़ बोया है तो आम की उम्मीद कहां से करूं.’’

कुछ देर बाद नीलम और रमन मनोहर को ले कर अपने घर जा रहे थे और पल्लवी पछता रही थी कि उस ने अपने ससुर को नहीं रोका जिन के जाने से इतना बड़ा घर हाथ से निकल गया.

टेढ़ा है पर मेरा है : नेहा की अग्निपरीक्षा

नेहा को सारी रात नींद नहीं आई. उस ने बराबर में गहरी नींद में सोए अनिल को न जाने कितनी बार निहारा. वह 2-3 चक्कर बच्चों के कमरे के भी काट आई थी. पूरी रात बेचैनी में काट दी कि कल से पता नहीं मन पर क्या बीतेगी. सुबह की फ्लाइट से नेहा की जेठानी मीना की छोटी बहन अंजलि आने वाली थी. नेहा के विवाह को 7 साल हो गए हैं. अभी तक उस ने अंजलि को नहीं देखा था. बस उस के बारे में सुना था.

नेहा के विवाह के 15 दिन बाद ही मीना ने ही हंसीहंसी में एक दिन नेहा को बताया था, ‘‘अनिल तो दीवाना था अंजलि का. अगर अंजलि अपने कैरियर को इतनी गंभीरता से न लेती, तो आज तुम्हारी जगह अंजलि ही मेरी देवरानी होती. उसे दिल्ली में एक अच्छी जौब का औफर मिला तो वह प्यारमुहब्बत छोड़ कर दिल्ली चली गई. उस ने यहीं हमारे पास लखनऊ में रह कर ही तो एमबीए किया था. अंजलि शादी के बंधन में जल्दी नहीं बंधना चाहती थी. तब मांजी और बाबूजी ने तुम्हें पसंद किया… अनिल तो मान ही नहीं रहा था.’’

‘‘फिर ये विवाह के लिए कैसे तैयार हुए?’’ नेहा ने पूछा था.

‘‘जब अंजलि ने विवाह करने से मना कर दिया… मांजी के समझाने पर बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था.’’

नेहा चुपचाप अनिल की असफल प्रेमकहानी सुनती रही थी. रात को ही अंजलि का फोन आया था. उस का लखनऊ तबादला हो गया था. वह सीधे यहीं आ रही थी. नेहा जानती थी कि अंजलि ने अभी तक विवाह नहीं किया है.

मीना ने तो रात से ही चहकना शुरू कर दिया था, ‘‘अंजलि अब यहीं रहेगी, तो कितना मजा आएगा नेहा, तुम तो पहली बार मिलोगी उस से… देखना, कितनी स्मार्ट है मेरी बहन.’’

नेहा औपचारिकतावश मुसकराती रही. अनिल पर नजरें जमाए थी. लेकिन अंदाजा नहीं लगा पाई कि अनिल खुश है या नहीं. नेहा व अनिल और उन के

2 बच्चे यश और समृद्धि, जेठजेठानी व उन के बेटे सार्थक और वीर, सास सुभद्रादेवी और ससुर केशवचंद सब लखनऊ में एक ही घर में रहते थे और सब

की आपस में अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. सब खुश थे, लेकिन अंजलि के आने की खबर से नेहा कुछ बेचैन थी.

अंजलि सुबह अपने काम में लग गई. मीना बेहद खुश थी. बोली, ‘‘नेहा, आज अंजलि की पसंद का नाश्ता और खाना बना लेते हैं.’’

नेहा ने हां में सिर हिलाया. फिर दोनों किचन में व्यस्त हो गईं. टैक्सी गेट पर रुकी, तो मीना ने पति सुनील से कहा, ‘‘शायद अंजलि आ गई, आप थोड़ी देर बाद औफिस जाना.’’

‘‘मुझे आज कोई जल्दी नहीं है… भई, इकलौती साली साहिबा जो आ रही हैं,’’ सुनील हंसा.

अंजलि ने घर में प्रवेश कर सब का अभिवादन किया. मीना उस के गले लग गई. फिर नेहा से परिचय करवाया. अंजलि ने जिस तरह से उसे ऊपर से नीचे तक देखा वह नेहा को पसंद नहीं आया. फिर भी वह उस से खुशीखुशी मिली.

जब अंजलि सब से बातें कर रही थी, तो नेहा ने उस का जायजा लिया… सुंदर, स्मार्ट, पोनीटेल बनाए हुए, छोटा सा टौप और जींस पहने छरहरी अंजलि काफी आकर्षक थी.

जब अनिल फ्रैश हो कर आया, तो अंजलि ने फौरन अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘हाय, कैसे हो?’’

अनिल ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसी हो?’’

‘‘कैसी लग रही हूं?’’

‘‘बिलकुल वैसी जैसे पहले थी.’’

नेहा के दिल को कुछ हुआ, लेकिन प्रत्यक्षतया सामान्य बनी रही. सुभद्रादेवी और केशवचंद उस से दिल्ली के हालचाल पूछते रहे. मीना व अंजलि के मातापिता मेरठ में रहते हैं. नेहा के मातापिता नहीं हैं. एक भाई है जो विदेश में रहता है.

नाश्ता हंसीमजाक के माहौल में हुआ. सब अंजलि की बातों का मजा ले रहे थे. बच्चे भी उस से चिपके हुए थे. यश और समृद्धि थोड़ी देर तो संकोच में रहे, फिर उस से हिलमिल गए. नेहा की बेचैनी बढ़ रही थी. तभी अंजलि ने कहा, ‘‘दीदी, अब मेरे लिए एक फ्लैट ढूंढ़ दो.’’

मीना ने कहा, ‘‘चुप कर, अब हमारे साथ ही रहेगी तू.’’

सुनील ने भी कहा, ‘‘अकेले कहीं रहने की क्या जरूरत है? यहीं रहो.’’

सुनील और अनिल अपनेअपने औफिस चले गए. केशवचंद पेपर पढ़ने लगे. सुभद्रादेवी तीनों से बातें करते हुए आराम से बाकी काम में मीना और नेहा का हाथ बंटाने लगीं.

नेहा को थोड़ा चुप देख कर अंजलि हंसते हुए बोली, ‘‘नेहा, क्या तुम हमेशा इतनी सीरियस रहती हो?’’

मीना ने कहा, ‘‘अरे नहीं, वह तुम से पहली बार मिली है… घुलनेमिलने में थोड़ा समय तो लगता ही है न…’’

अंजलि ने कहा, ‘‘फिर तो ठीक है वरना मैं ने तो सोचा अगर ऐसे ही सीरियस रहती होगी तो बेचारा अनिल तो बोर हो जाता होगा. वह तो बहुत हंसमुख है… दीदी, अनिल अब भी वैसा ही है शरारती, मस्तमौला या फिर कुछ बदल गया है? आज तो ज्यादा बात नहीं हो पाई.’’

मीना हंसी, ‘‘शाम को देख लेना.’’

नेहा मन ही मन बुझती जा रही थी. लंच के बाद अपने कमरे में थोड़ा आराम करने लेटी तो विवाह के शुरुआती दिन याद आ गए. अनिल काफी सीरियस रहता था, कभी हंसताबोलता नहीं था. चुपचाप अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर देता था. नवविवाहितों वाली कोई बात नेहा ने महसूस नहीं की थी. फिर जब मीना ने अनिल और अंजलि के बार में उसे बताया तो उस ने अपने दिल को मजबूत कर सब को प्यार और सम्मान दे कर सब के दिल में अपना स्थान बना लिया. अब कुल मिला कर उस की गृहस्थी सामान्य चल रही थी, तो अब अंजलि आ गई.

नेहा यश और समृद्धि को होमवर्क करवा रही थी कि अंजलि उस के रूम में आ गई.

नेहा ने जबरदस्ती मुसकराते हुए उसे बैठने के लिए कहा, तो वह सीधे बैड पर लेट गई. बोली, ‘‘नेहा, अनिल कब तक आएगा?’’

‘‘7 बजे तक,’’ नेहा ने संयत स्वर में कहा.

‘‘उफ, अभी तो 1 घंटा बाकी है… बहुत बोर हो रही हूं.’’

‘‘चाय पीओगी?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘नहीं, अनिल को आने दो, उस के साथ ही पीऊंगी.’’

नेहा को अंजलि का अनिल के बारे में बात करने का ढंग अच्छा नहीं लग रहा था. लेकिन करती भी क्या. कुछ कह नहीं सकती थी.

अनिल आया, तो अंजलि चहक उठी फिर ड्राइंगरूम में सोफे पर अनिल के बराबर मे बैठ कर ही चाय पी. घर के बाकी सभी सदस्य वहीं बैठे हुए थे. अंजलि ने पता नहीं कितनी पुरानी बातें छेड़ दी थीं.

नेहा का उतरा चेहरा देख कर अनिल ने पूछा, ‘‘नेहा, तबीयत तो ठीक है न? बड़ी सुस्त लग रही हो?’’

‘‘नहीं, ठीक हूं.’’

यह सुन कर अंजलि ने ठहाका लगाया. बोली, ‘‘वाह अनिल, तुम तो बहुत केयरिंग पति बन चुके हो… इतनी चिंता पत्नी की? वह दिन भूल गए जब मुझे जाता देख कर आंहें भर रहे थे?’’

यह सुन कर सभी घर वाले एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

तब मीना ने बात संभाली, ‘‘क्या कह रही हो अंजलि… कभी तो कुछ सोचसमझ कर बोला कर.’’

‘‘अरे दीदी, सच ही तो बोल रही हूं.’’

नेहा ने बड़ी मुश्किल से स्वयं को संभाला. दिल पर पत्थर रख कर मुसकराते हुए चायनाश्ते के बरतन समेटने लगी.

सब थोड़ी देर और बातें कर के अपनेअपने काम में लग गए. डिनर के समय भी अंजलि अनिलअनिल करती रही और वह उस की हर बात का हंसतेमुसकराते जवाब देता रहा.

अगले दिन अंजलि ने भी औफिस जौइन कर लिया. सब के औफिस जाने के बाद नेहा ने चैन की सांस ली कि अब कम से कम शाम तक तो वह मानसिक रूप से शांत रहेगी.

ऐसे ही समय बीतने लगा. सुबह सब औफिस निकल जाते. शाम को घर लौटने पर रात के सोने तक अंजलि अनिल के इर्दगिर्द ही मंडराती रहती. नेहा दिनबदिन तनाव का शिकार होती जा रही थी. अपनी मनोदशा किसी से शेयर भी नहीं कर पा रही थी. कुछ कह कर स्वयं को शक्की साबित नहीं करना चाहती थी. वह जानती थी कि उस ने अनिल के दिल में बड़ी मेहनत से अपनी जगह बनाई थी. लेकिन अब अंजलि की उच्छृंखलता बढ़ती ही जा रही थी. वह कभी अनिल के कंधे पर हाथ रखती, तो कभी उस का हाथ पकड़ कर कहीं चलने की जिद करती. लेकिन अनिल ने हमेशा टाला, यह भी नेहा ने नोट किया था. मगर अंजलि की हरकतों से उसे अपना सुखचैन खत्म होता नजर आ रहा था. क्या उस की घरगृहस्थी टूट जाएगी? क्या करेगी वह? घर में सब अंजलि की हरकतों को अभी बचपना है, कह कर टाल जाते.

नेहा अजीब सी घुटन का शिकार रहने लगी.

एक रात अनिल ने उस से पूछा, ‘‘नेहा, क्या बात है, आजकल परेशान दिख रही हो?’’

नेहा कुछ नहीं बोली. अनिल ने फिर कुछ नहीं पूछा तो नेहा की आंखें भर आईं, क्या अनिल को मेरी परेशानी की वजह का अंदाजा नहीं होगा? इतने संगदिल क्यों हैं अनिल? बच्चे तो नहीं हैं, जो मेरी मनोदशा समझ न आ रही हो… जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं. नेहा रात भर मन ही मन घुटती रही. बगल में अनिल गहरी नींद सो रहा था.

एक संडे सब साथ लंच कर के थोड़ी देर बातें कर के अपनेअपने रूम में आराम

करने जाने लगे तो किचन से निकलते हुए नेहा के कदम ठिठक गए. अंजलि बहुत धीरे से अनिल से कह रही थी, ‘‘शाम को 7 बजे छत पर मिलना.’’

अनिल की कोई आवाज नहीं आई. थोड़ी देर बाद नेहा अपने रूम में आ गई. अनिल आराम करने लेट गया. फिर नेहा से बोला, ‘‘आओ, थोड़ी देर तुम भी लेट जाओ.’’

नेहा मन ही मन आगबबूला हो रही थी. अत: जानबूझ कर कहा, ‘‘बच्चों के लिए कुछ सामान लेना है… शाम को मार्केट चलेंगे?’’

‘‘आज नहीं, कल,’’ अनिल ने कहा.

नेहा ने चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘आज क्यों नहीं?’’

‘‘मेरा मार्केट जाने का मूड नहीं है… कुछ जरूरी काम है.’’

‘‘क्या जरूरी काम है?’’

‘‘अरे, तुम तो जिद करने लगती हो, अब मुझे आराम करने दो, तुम भी आराम करो.’’

नेहा को आग लग गई. सोचा, बता दे उसे पता है कि क्या जरूरी काम है… मगर चुप रही. आराम क्या करना था… बस थोड़ी देर करवटें बदल कर उठ गई और वहीं रूम में चेयर पर बैठ कर पता नहीं क्याक्या सोचती रही. 7 बजे की सोचसोच कर उसे चैन नहीं आ रहा था… क्या करे, क्या मांबाबूजी से बात करे, नहीं उन्हें क्यों परेशान करे, क्या कहेगी अंजलि अनिल से, अनिल क्या कहेंगे… उस से बातें करते हुए खुश तो बहुत दिखाई देते हैं.

7 बजे के आसपास नेहा जानबूझ कर बच्चों को पढ़ाने बैठ गई. मांबाबूजी पार्क में टहलने गए हुए थे. मीना और सुनील अपने रूम में थे. उन के बच्चे खेलने गए थे. तनाव की वजह से नेहा ने यश और समृद्धि को खेलने जाने से रोक लिया था. बच्चों में मन बहलाने का असफल प्रयास करते हुए उस ने देखा कि अनिल गुनगुनाते हुए बालों में कंघी कर रहा है. उस ने पूछा, ‘‘कहीं जा रहे हैं?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाल ठीक कर रहे हैं.’’

अनिल ने उसे चिढ़ाने वाले अंदाज में कहा, ‘‘क्यों, कहीं जाना हो तभी बाल ठीक करते हैं?’’

‘‘आप हर बात का जवाब टेढ़ा क्यों देते हैं?’’

‘‘मैं हूं ही टेढ़ा… खुश? अब जाऊं?’’

नेहा की आंखें भर आईं, कुछ बोली नहीं. यश की नोटबुक देखने लगी. अनिल सीटी बजाता हुआ रूम से निकल गया. 5 मिनट बाद नेहा बच्चों से बोली, ‘‘अभी आई, तुम लोग यहीं रहना,’’ और कमरे से निकल गई. अनिल छत पर जा चुका था. उस ने भी सीढि़यां चढ़ कर छत के गेट से अपना कान लगा दिया. बिना आहट किए सांस रोके खड़ी रही.

तभी अंजलि की आवाज आई, ‘‘बड़ी देर लगा दी?’’

‘‘बोलो अंजलि, क्या बात करनी है?’’

‘‘इतनी भी क्या जल्दी है?’’

नेहा को उन की बातचीत का 1-1 शब्द साफ सुनाई दे रहा था.

अनिल की गंभीर आवाज आई, ‘‘बात शुरू करो, अंजलि.’’

‘‘अनिल, यहां आने पर सब से ज्यादा खुश मैं इस बात पर थी कि तुम से मिल सकूंगी, लेकिन तुम्हें देख कर तो लगता है कि तुम मुझे भूल गए… मुझे तो उम्मीद थी मेरा कैरियर बनने तक तुम मेरा इंतजार करोगे, लेकिन तुम तो शादी कर के बीवीबच्चों के झंझट में पड़ गए. देखो, मैं ने अब तक शादी नहीं की, तुम्हारे अलावा कोई नहीं जंचा मुझे… क्या किसी तरह ऐसा नहीं हो सकता कि हम फिर साथ हो जाएं?’’

‘‘अंजलि, तुम आज भी पहले जैसी ही स्वार्थी हो. मैं मानता हूं नेहा से शादी मेरे लिए एक समझौता था, अपनी सारी भावनाएं तो तुम्हें सौंप चुका था… लगता था नेहा को कभी वह प्यार नहीं दे पाऊंगा, जो उस का हक है, लेकिन धीरेधीरे यह विश्वास भ्रम साबित हुआ. उस के प्यार और समर्पण ने मेरा मन जीत लिया. हमारे घर का कोनाकोना उस ने सुखशांति और आनंद से भर दिया. अब नेहा के बिना जीने की सोच भी नहीं सकता. जैसेजैसे वह मेरे पास आती गई, मेरी शिकायतें, गुस्सा, दर्द जो तुम्हारे लिए मेरे दिल में था, सब कुछ खत्म हो गया. अब मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. मैं नेहा के साथ बहुत खुश हूं.’’

गेट से कान लगाए नेहा को अनिल की आवाज में सुख और संतोष साफसाफ महसूस हुआ.

अनिल आगे कह रहा था, ‘‘तुम भाभी की बहन की हैसियत से तो यहां आराम से रह सकती हो लेकिन मुझ से किसी भी रिश्ते की गलतफहमी दिमाग में रख कर यहां मत रहना… मेरे खयाल में तुम्हारा यहां न रहना ही ठीक होगा… नेहा का मन तुम्हारी किसी हरकत पर आहत हो, यह मैं बरदाश्त नहीं करूंगा. अगर यहां रहना है तो अपनी सीमा में रहना…’’

इस के आगे नेहा को कुछ सुनने की जरूरत महसूस नहीं हुई. उसे अपना मन पंख जैसा हलका लगा. आंखों में नमी सी महसूस हुई. फिर वह तेजी से सीढि़यां उतरते हुए मन ही मन यह सोच कर मुसकराने लगी कि टेढ़ा है पर मेरा है.

 

पीठ पीछे : दिनेश के सामने कैसा सच सामने आया

दिनेश हर सुबह पैदल टहलने जाता था. कालोनी में इस समय एक पुलिस अफसर नएनए तबादले पर आए हुए थे. वे भी सुबह टहलते थे. एक ही कालोनी का होने के नाते वे एकदूसरे के चेहरे पहचानने लगे थे. आज कालोनी के पार्क में उन से भेंट हो गई. उन्होंने अपना परिचय दिया और दिनेश ने अपना. उन का नाम हरपाल सिंह था. वे पुलिस में डीएसपी थे और दिनेश कालेज में प्रोफैसर.

वे दोनों इधरउधर की बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि तभी सामने से आते एक शख्स को देख कर हरपाल सिंह रुक गए. दिनेश को भी रुकना पड़ा. हरपाल सिंह ने उस आदमी के पैर छुए. उस आदमी ने उन्हें गले से लगा लिया.

हरपाल सिंह ने दिनेश से कहा, ‘‘मैं आप का परिचय करवाता हूं. ये हैं रामप्रसाद मिश्रा. बहुत ही नेक, ईमानदार और सज्जन इनसान हैं. ऐसे आदमी आज के जमाने में मिलना मुश्किल हैं.

‘‘ये मेरे गुरु हैं. ये मेरे साथ काम कर चुके हैं. इन्होंने अपनी जिंदगी ईमानदारी से जी है. रिश्वत का एक पैसा भी नहीं लिया. चाहते तो लाखोंकरोड़ों रुपए कमा सकते थे.’’ अपनी तारीफ सुन कर रामप्रसाद मिश्रा ने हाथ जोड़ लिए. वे गर्व से चौड़े नहीं हो रहे थे, बल्कि लज्जा से सिकुड़ रहे थे.

दिनेश ने देखा कि उन के पैरों में साधारण सी चप्पल और पैंटशर्ट भी सस्ते किस्म की थीं. हरपाल सिंह काफी देर तक उन की तारीफ करते रहे और दिनेश सुनता रहा. उसे खुशी हुई कि आज के जमाने में भी ऐसे लोग हैं.

कुछ समय बाद रामप्रसाद मिश्रा ने कहा, ‘‘अच्छा, अब मैं चलता हूं.’’ उन के जाने के बाद दिनेश ने पूछा, ‘‘क्या काम करते हैं ये सज्जन?’’

‘‘एक समय इंस्पैक्टर थे. उस समय मैं सबइंस्पैक्टर था. इन के मातहत काम किया था मैं ने. लेकिन ऐसा बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. चाहता तो आज बहुत बड़ा पुलिस अफसर होता लेकिन अपनी ईमानदारी के चलते इस ने एक पैसा न खाया और न किसी को खाने दिया.’’ ‘‘लेकिन अभी तो आप उन के सामने उन की तारीफ कर रहे थे. आप ने उन के पैर भी छुए थे,’’ दिनेश ने हैरान हो कर कहा.

‘‘मेरे सीनियर थे. मुझे काम सिखाया था, सो गुरु हुए. इस वजह से पैर छूना तो बनता है. फिर सच बात सामने तो नहीं कही जा सकती. पीठ पीछे ही कहना पड़ता है. ‘‘मुझे क्या पता था कि इसी शहर में रहते हैं. अचानक मिल गए तो बात करनी पड़ी,’’ हरपाल सिंह ने बताया.

‘‘क्या अब ये पुलिस में नहीं हैं?’’ दिनेश ने पूछा. ‘‘ऐसे लोगों को महकमा कहां बरदाश्त कर पाता है. मैं ने बताया न कि न किसी को घूस खाने देते थे, न खुद खाते थे. पुलिस में आरक्षकों की भरती निकली थी. इन्होंने एक रुपया नहीं लिया और किसी को लेने भी नहीं दिया. ऊपर के सारे अफसर नाराज हो गए.

‘‘इस के बाद एक वाकिआ हुआ. इन्होंने एक मंत्रीजी की गाड़ी रोक कर तलाशी ली. मंत्रीजी ने पुलिस के सारे बड़े अफसरों को फोन कर दिया. सब के फोन आए कि मंत्रीजी की गाड़ी है, बिना तलाशी लिए जाने दिया जाए, पर इन पर तो फर्ज निभाने का भूत सवार था. ये नहीं माने. तलाशी ले ली. ‘‘गाड़ी में से कोकीन निकली, जो मंत्रीजी खुद इस्तेमाल करते थे. ये मंत्रीजी को थाने ले गए, केस बना दिया. मंत्रीजी की तो जमानत हो गई, लेकिन उस के बाद मंत्रीजी और पूरा पुलिस महकमा इन से चिढ़ गया.

‘‘मंत्री से टकराना कोई मामूली बात नहीं थी. महकमे के सारे अफसर भी बदला लेने की फिराक में थे कि इस आदमी को कैसे सबक सिखाया जाए? कैसे इस से छुटकारा पाया जाए? ‘‘कुछ समय बाद हवालात में एक आदमी की पूछताछ के दौरान मौत हो गई. सारा आरोप रामप्रसाद मिश्रा यानी इन पर लगा दिया गया. महकमे ने इन्हें सस्पैंड कर दिया.

‘‘केस तो खैर ये जीत गए. फिर अपनी शानदार नौकरी पर आ सकते थे, लेकिन इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी ये आदमी नहीं सुधरा. दूसरे दिन अपने बड़े अफसर से मिल कर कहा कि मैं आप की भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सकता. न ही मैं यह चाहता हूं कि मुझे फंसाने के लिए महकमे को किसी की हत्या का पाप ढोना पड़े. सो मैं अपना इस्तीफा आप को सौंपता हूं.’’ हरपाल सिंह की बात सुन कर रामप्रसाद के प्रति दिनेश के मन में इज्जत बढ़ गई. उस ने पूछा, ‘‘आजकल क्या कर रहे हैं रामप्रसादजी?’’

हरपाल सिंह ने हंसते हुए कहा, ‘‘4 हजार रुपए महीने में एक प्राइवेट स्कूल में समाजशास्त्र के टीचर हैं. इतना नालायक, बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. इस की इन बेवकूफाना हरकतों से एक बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में छोड़ कर आना पड़ा. अब बेचारा आईटीआई में फिटर का कोर्स कर रहा है.

‘‘दहेज न दे पाने के चलते बेटी की शादी टूट गई. बीवी आएदिन झगड़ती रहती है. इन की ईमानदारी पर अकसर लानत बरसाती है. इस आदमी की वजह से पहले महकमा परेशान रहा और अब परिवार.’’ ‘‘आप ने इन्हें समझाया नहीं. और हवालात में जिस आदमी की हत्या कर इन्हें फंसाया गया था, आप ने कोशिश नहीं की जानने की कि वह आदमी कौन था?’’

हरपाल सिंह ने कहा, ‘‘जिस आदमी की हत्या हुई थी, उस में मंत्रीजी समेत पूरा महकमा शामिल था. मैं भी था. रही बात समझाने की तो ऐसे आदमी में समझ होती कहां है दुनियादारी की? इन्हें तो बस अपने फर्ज और अपनी ईमानदारी का घमंड होता है.’’ ‘‘आप क्या सोचते हैं इन के बारे में?’’

‘‘लानत बरसाता हूं. अक्ल का अंधा, बेवकूफ, नालायक, जिद्दी आदमी.’’ ‘‘आप ने उन के सामने क्यों नहीं कहा यह सब? अब तो कह सकते थे जबकि इस समय वे एक प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं और आप डीएसपी.’’

‘‘बुराई करो या सच कहो, एक ही बात है. और दोनों बातें पीठ पीछे ही कही जाती हैं. सब के सामने कहने वाला जाहिल कहलाता है, जो मैं नहीं हूं. ‘‘जैसे मुझे आप की बुराई करनी होगी तो आप के सामने कहूंगा तो आप नाराज हो सकते हैं. झगड़ा भी कर सकते हैं. मैं ऐसी बेवकूफी क्यों करूंगा? मैं रामप्रसाद की तरह पागल तो हूं नहीं.’’

दिनेश ने उसी दिन तय किया कि आज के बाद वह हरपाल सिंह जैसे आदमी से दूरी बना कर रखेगा. हां, कभी हरपाल सिंह दिख जाता तो वह अपना रास्ता इस तरह बदल लेता जैसे उसे देखा ही न हो.

दर्द कवि फुंदीलालजी का: फिर न मिल सका अवार्ड

सुबह के 7 बजे होंगे जब हम अपनी सैर खत्म कर के घर को लौट रहे थे. तभी लुंगीबनियान में दूध की थैलियां घर ले जाते कवि श्री फुंदीलालजी से मुलाकात हो गई. वैसे तो उन के चेहरे पर नूर कभीकभार ही झलकता था यानी कि तब, जब किसी पत्रपत्रिका में उन की कोई रचना छपती थी, लेकिन आज उन का चेहरा कुछ ज्यादा ही बेनूर दिख रहा था.

हमें याद आया कि पिछले साल भी राज्य सरकार द्वारा घोषित साहित्य पुरस्कारों की लिस्ट में उन का नाम नदारद था, तब भी उन के चेहरे पर कई दिनों तक मुर्दनी छाई हुई थी.

वैसे, पिछले साल ही क्या, साल दर साल उन का नाम पुरस्कारों की लिस्ट से नदारद ही रहता है, हालांकि अपने साले की प्रिंटिंग प्रैस से उन के आधा दर्जन कविता संग्रह आ चुके हैं.

नमस्ते करने के साथ हम ने पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न? चेहरा एकदम उदास लग रहा है.’’
‘‘ठीक है, लेकिन पता नहीं क्यों एसिडिटी बहुत हो रही है. पेट में जलन है कल से. थोक में दवा खा चुके हैं, लेकिन ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही है,’’ वे बोले.

फिर अचानक उन्होंने हम से पूछा, ‘‘पता चला आप को कि अपनी गली के कवि फलांजी को ‘साहित्यश्री पुरस्कार’ मिला है?’’

‘‘हां, अच्छा लिखते हैं वे, फिर पिछले साल उन का उपन्यास काफी चर्चा में भी रहा था,’’ हम ने कहना चाहा.

‘‘अरे, काहे का अच्छा लिखता है…’’ इस बार उन्होंने उस साहित्यकार के नाम के साथ कई असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा, ‘‘जानते भी हैं कि कुछ संपादकों से उस की दोस्तीयारी है और कुछेक से रिश्तेदारी है. सो, उस ने अपने उपन्यास की तारीफें छपवा ली हैं.

‘‘सुना तो यह भी है कि पुरस्कार समिति में उस के साले का भी दखल है, सो पुरस्कार तो उसे मिलना ही था.’’

‘‘लेकिन पिछले साल का पड़ोसी प्रदेश का पुरस्कार भी तो…’’ हम ने उन्हें समझाना चाहा.
‘‘वही तो, जुगाड़ लगाना कोई उस से सीखे,’’ फुंदीलालजी कुढ़ते हुए बोले.

‘‘आज बंगलादेश से क्रिकेट मैच है अपना,’’ हम ने मुद्दा बदलने की गरज से कहा, मगर उन का ‘जिया जले… जान जले… पुरस्कारों की लिस्ट तले’ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था, सो वे बोले, ‘‘आज अपने प्रदेश के पुरस्कार भी घोषित हुए हैं और उस के कविता संग्रह को भी…’’ वे फिर कुछ असंसदीय शब्द हमारे कान में उड़ेलते हुए बोले.

‘‘होता है फुंदीलालजी, फिर अभी आप ने बताया तो कि पुरस्कार समिति में उन के साले का दखल है,’’ हम ने उन्हें फौरी राहत पहुंचाने की गरज से कहा, ताकि उन की एसिडिटी कुछ कम हो.

‘‘पुरस्कार समिति के शर्माजी और दुबेजी से तो हमारी भी अच्छी बनती है. अभी पिछले महीने ही हम किसी काम से उन की कालोनियों में गए थे, तब अपनी किताब दोनों को दे आए थे, मगर हमें क्या पता था कि किताब के साथ…’’ उन्होंने बात आधी छोड़ दी.

‘‘सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यों है…’ यह गजल शायद उन्हीं की तरह किसी पुरस्कार वंचित कवि के लिए लिखी गई होगी,’ हमारे दिमाग में अचानक यह खयाल आया.

हम समझ नहीं पा रहे थे कि पुरस्कार से वंचित किसी कवि को दिलासा कैसे दी जाए, सो हम ने पिछले दिनों उन के द्वारा सोशल मीडिया पर हमें भेजी किसी अनियतकालीन पत्रिका में छपी उन की रचना की बात छेड़ी और कहा, ‘‘बढि़या रचना थी आप की.’’

‘‘आप जैसे कदरदान हमारी रचनाओं की तारीफ करते हैं, हमारे लिए तो यही राज्य पुरस्कार और यही ज्ञानपीठ पुरस्कार है…’’ वे कुछकुछ राहत महसूस करते हुए बोले, ‘‘बहुत दिनों बाद मिले आप, वैसे किसी अपने से बात कर लो तो बहुत अच्छा लगता है.’’

‘‘जी, वह तो है,’’ हमें अच्छा लगा कि हमारे शाब्दिक मरहम से वे अपने दुख से उबर रहे थे.
‘‘लेकिन इतना अच्छा लिखने के बाद भी पुरस्कार दूसरे ले जाते हैं, तब तकलीफ तो होती ही है न,’’ वे फिर पुरस्कार न मिलने के दुख के सागर में गोता खाने लगे थे.

तभी हमारी कालोनी के गुप्ताजी और श्रीवास्तवजी वहां से गुजरे, जिन्हें फुंदीलालजी ने रोक लिया और कहा, ‘‘आप को पता चला कि अपनी गली के उस फलां को ‘साहित्यश्री पुरस्कार’ मिला है…’’

फुंदीलालजी को रोने के लिए नए कंधे मिल गए थे, सो हम ने मन ही मन गुप्ताजी और श्रीवास्तवजी से कहा कि ‘अब तुम्हारे हवाले पुरस्कार वंचित कवि साथियो’… और फिर हम वहां से खिसक लिए.

 

विकास और विनाश : कौन था एड्स का मरीज

विकास था विवेक और विचार का एक प्रकाश पुंज. जैसे उस के विचार, वैसे ही उस के संस्कार. जब संस्कार वैसे हों, तो उस के बरताव में झलकना लाजिमी है.

विकास की दिनचर्या नपीतुली थी. भगवत प्रेमी, शुद्ध शाकाहार. रोजाना सुबह के जरूरी काम पूरे करने के बाद मंदिर में पूजाअर्चना करना.

विकास का मनोयोग उस के मनोभोग से हमेशा ऊपर रहा, इसीलिए संतमहात्माओं के सत्संग और उन के प्रवचन सुन कर उस ने अपने संयुक्त परिवार में एकांत ध्यानयोग को चुन लिया. अपनी शांति के साथसाथ पूरी दुनिया की शांति की कामना करने वाला 7 साल का बालक आज 17 साल का हो गया.

विकास बालिग होने में एक साल दूर था, पर वह अपनी कर्तव्यनिष्ठा के लिए मशहूर था. बाहरी दुनिया से सरोकार के बगैर भीतरी दुनिया में रमा हुआ बालक रोजाना सुबह घर से मंदिर तक की दूरी पैदल ही तय करता. रास्ते में झाड़ियों से जंगल में हलकीफुलकी उठने वाली हलचल भी उस के ध्यान को नहीं भेद पाती.

वह विकास इसलिए था, क्योंकि उस ने अपनी इंद्रियों को वश में कर के ब्रहृचर्य के विकास में सबकुछ लगा दिया था. उस की निगाहें पाक हो गई थीं, विवेक जाग चुका था और मन शांत और स्वच्छ.

पर यह क्या. आज मंदिर जाने के रास्ते मे विकास की नजर चकरा क्यों गई? उस ने रुक कर  झाड़ियों की ओर देखा. एक जोड़ा इश्क में डूबा एकदूसरे का दीदार कर रहा था. उस ने यह घटना अपनी जिंदगी में पहली बार देखी थी.

विकास ने अपनी आंखों को सम झाया, ‘चलो, मुझे उधर नहीं देखना चाहिए. यह मेरी नजरों का वहम भी हो सकता है,’ ऐसा विचार कर के उस ने अपने कदम मंदिर की ओर बढ़ा दिए.

अगले दिन सुबह जब विकास घर से मंदिर की ओर चला, तो बरबस उसी जगह पर  झाड़ियों के बीच जोड़े को फुसफुसाते हुए देखा. इस बार वह अपनी नजर को न समझा पाया, क्योंकि उस पर उस की बुद्धि हावी हो चुकी थी. उस ने खुद से कहा, ‘जरा, चल कर देखते हैं.’

विकास  झाड़ी के थोड़ा पास गया, तो देखा कि एक लड़का एक लड़की के साथ जिस्मानी संबंध बना रहा था.

विकास ने दोबारा खुद को सम झाया, ‘यह क्या देख रहा हूं?’ उस का मन चुप था, पर बुद्धि बोल रही थी, ‘यही तो दुनिया है. कलियुग का प्यार है, जिस में मजा है,’ उस की बुद्धि ने विचार को कुरेदा. उस ने जैसेतैसे अपने पैरों को मंदिर की ओर बढ़ाया.

जब विकास घर लौटा, तो उस का मन चंचल हो उठा. उस की बुद्धि ने उस के विचार को आह में बदल दिया.  झाडि़यों के सीन उस की आंखों के आगे आने लगे. उस की सारी इंद्रियां ढीली पड़ने लगीं. ब्रह्मचर्य बस में न रहा.

विकास सोचने लगा, ‘क्या है इस दुनिया में? मौजमस्ती ही तो है. वह भी तो इनसान था और मैं भी तो इनसान हूं, तो यह बंधन कैसा?’

अगले दिन विकास पक्का मन कर के मंदिर की ओर चला. इस बार उस ने खुद को रोका ही नहीं और उस ओर मोड़ लिया, जहां पिछले दिन वह जोड़ा जिस्मानी संबंध बनाने में रमा था.

वह जोड़ा आज भी वहीं था. एकाएक अपने सामने विकास को देख कर दोनों अलगअलग दिशा की ओर भागे.

तभी विकास ने दौड़ कर उस लड़की का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘यह जो तुम उस लड़के के साथ मस्ती कर रही हो, क्या मेरे साथ करोगी?’’

लड़की ने हंस कर जवाब दिया, ‘‘क्यों नहीं…’’

इस के बाद वह लड़की विकास के साथ जिस्मानी संबंध बनाने लगी. विकास को इस में काफी मजा आने लगा. अब वह हर रोज घर से मंदिर की ओर निकलता, पर मंदिर न जा कर झाड़ियों में उस लड़की के साथ जिस्मानी संबंध बनाता.

लड़की पेशे से धंधेवाली थी. उसे रोज पैसे चाहिए थे और विकास को मजा.

विकास ने उस लड़की के चक्कर में घर का काफी सारा पैसा बरबाद कर दिया. संयुक्त परिवार के दूसरे सदस्यों को यह बात पसंद नहीं आई, तो उन्होंने गुस्से में विकास के मातापिता को परिवार से अलग कर दिया और मातापिता ने विकास को अपने से.

आज विकास का सबकुछ लुट चुका था. अब वह सड़क पर आ चुका था. वह लड़की तो कई लोगों से जिस्मानी संबंध बनाने के चलते एड्स की बीमारी से मर गई और विकास अब एड्स का मरीज बन कर तड़प रहा है. लोग अब उसे विकास के नाम से नहीं, बल्कि विनाश के नाम से पुकारते हैं.

बकरा: मालिक के चंगुल में मोहन

ठेले वाले ने चिल्ला कर कहा, ‘‘मोहन, माल आ गया है.’’ मोहन ने किराने की दुकान से झांक कर देखा. ठेले पर आटे, चावल और दाल की बोरियां रखी थीं.किराने की दुकान का मालिक दिलीप साव खाते का हिसाबकिताब करने में मशगूल था. उस ने खाते का हिसाब करते हुए कहा,

‘‘मोहन, माल उतार लो.’’दुकान पर 2-3 ग्राहक थे, जिन्हें निबटा कर मोहन बोरियां उतारने लगा. ठेले वाले ने भी बोरियां उतारने में उस की मदद कर दी.बड़ी सड़क के किनारे ही दिलीप साव की किराने की दुकान थी. मोहन उस की दुकान पर काम करता था. वह सीधासादा नौजवान था.

वह अपने काम से मतलब रखता था. दुकान से महीने की तनख्वाह मिल जाती थी. उस से वह गुजारा कर लेता था.दिलीप साव की किराने की दुकान अच्छी चलती थी, जिस से वह खुशहाल जिंदगी जी रहा था. एक साल पहले उस की शादी दीपा से हुई थी.दीपा बेहद खूबसूरत थी.

वह काफी गोरीचिट्टी थी. उस की आंखें हसीन थीं. उस की काली जुल्फें मदहोश कर देती थीं. उस के पतले होंठों पर मुसकान खिली रहती थी. वह एक ताजा कली के समान थी.दिलीप साव का एक छोटा भाई था सुजीत. वह कालेज में पढ़ता था.

दीपा का दिल उस से बहल जाता था. वह अपने देवर के साथ हंसीमजाक कर के मजे से दिन गुजार लेती थी.रात तो दीपा की अपनी थी ही. जब दुकान बढ़ा कर रात को दिलीप साव घर लौटता तब दीपा पति के साथ मौजमस्ती करती थी. वह भी दीपा जैसी पत्नी पा कर बेहद खुश था.

उस की तो मजे से जिंदगी कट रही थी.मोहन किराने की दुकान का काम खत्म कर के घर लौट रहा था. रास्ते में उस का एक दोस्त बिरजू मिल गया. बिरजू नाविक था.

वह सोन नदी में नाव चलाता था. सोन नदी इस इलाके से महज आधा किलोमीटर दूर बहती थी. बिरजू नाव से लोगों को सोन नदी पार कराने का काम करता था.मोहन ने पूछा, ‘‘कैसे हो बिरजू?’’‘‘ठीक हूं. तुम अपनी सुनाओ?’’ बिरजू ने कहा.‘‘कुछ खास नहीं, बस…’’ मोहन ने धीरे से कहा.‘‘कब तक सीधेसादे बने रहोगे. चलो, तुम्हें कोलकाता घूमा दूं,’’ बिरजू ने कहा.‘‘वहां क्यों?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘अरे यार, मैं तुम्हें कोलकाता के सोनागाछी इलाके में ले चलूंगा. उस इलाके में खूबसूरत लड़कियां इशारे कर के बुलाती हैं. उन के नजदीक चले जाओ, फिर मजा ही मजा लूटो.’’मोहन झेंप कर बोला, ‘‘कभी और देखा जाएगा यार.’’‘‘हां, तब तक भोलाभाला बने रहो. देखना एक दिन औरतें और लड़कियां तुझे बुद्धू बना देंगी,’’ बिरजू ने झल्ला कर कहा.मोहन हंसते हुए घर चला गया.

दिलीप साव किराने की दुकान से रात को लौटा था. वह अपने कमरे के पलंग पर लेटा हुआ था. दीपा भी उस के साथ लेटी हुई थी. बत्ती बुझी हुई थी. कमरे में अंधेरा था. अंधेरे कमरे में वे दोनों एकदूसरे को चूमने लगे थे. बदन की आग धीमेधीमे सुलगने लगी थी.

दीपा के उभार उस पर कहर बरपा रहे थे. दोनों ने एकदूसरे को अपनी बांहों में जकड़ लिया था.दिलीप साव ने तकिए के नीचे से कंडोम निकाला और अपने अंग पर पहन लिया.‘‘आप कब तक बच्चा नहीं चाहते हैं?’’ दीपा ने धीमे से पूछा. ‘‘अभी तो हमारी शादी को एक साल ही हुआ है.

मुझे 3 साल के बाद बच्चा चाहिए,’’ दिलीप साव धीमे से बोला.‘‘आप तो परिवार नियोजन के पक्के हिमायती हैं.’’‘‘हां, बिलकुल हूं,’’ दिलीप साव ने कहा.दीपा ने प्यार से हलकी चपत उस के गाल पर लगाई. हलकी चपत लगते ही वे दोनों सैक्स करने लगे. कुछ देर में पतिपत्नी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे. शरीर की भूख मिट जाने के बाद वे दोनों गहरी नींद में सो गए थे.

अगले दिन दिलीप साव के किराने की दुकान पर ग्राहकों की भीड़ थी. मोहन ने सारे ग्राहकों को जरूरत के मुताबिक सामान दे दिया था. दिलीप साव ने अभी गल्ले में रखे रुपयों की गिनती की थी.‘20,000 रुपए,’ दिलीप साव ने मन ही मन सोचा.‘‘ये लो 20,000 रुपए. मालकिन को जा कर दे दो,’’ दिलीप साव ने मोहन से कहा.मोहन रुपए का थैला ले कर मालकिन के पास जा पहुंचा और बोला, ‘‘ये 20,000 रुपए हैं. मालिक ने दिए हैं.’’‘‘ठीक है,’’ दीपा ने रुपए ले लिए और अपने कमरे में चली गई.

दीपा ने कमरे का परदा हटाया तो वहां से उस का देवर सुजीत अपने कमरे की तरफ भागा. मोहन को शक हुआ कि दीपा के कमरे में सुजीत क्या कर रहा है? उसे दाल में काला नजर आाया.अमूमन कालेज के लड़के अपने कमरे में पढ़ते हैं. भाभी के कमरे में जा कर वह कौन सी पढ़ाई पढ़ता है?

लेकिन मोहन चुप लगा गया. उसे दिलीप साव के किराने की दुकान पर नौकरी जो करनी थी. वह वहां से सीधा दुकान पर चला आया.जाड़े के दिन आ गए थे.

शाम को ठंड बढ़ जाती थी, जिस से दिलीप साव को दुकान पर ठंड लगती थी. उस ने घर के स्टोर में एक हीटर रखा हुआ था.‘‘मोहन, मालकिन से हीटर मांग कर लेते आओ. ठंड बढ़ गई है,’’ दिलीप साव ने कहा.‘‘अभी जा कर ले आता हूं,’’ कह कर मोहन हीटर लाने चला गया.

मोहन मालिक के घर पहुंचा. घर का दरवाजा दीपा ने अंदर से बंद कर रखा था. मोहन ने आवाज लगाई, ‘‘मालकिन, दरवाजा खोलिए. मालिक ने हीटर मंगाया है.’’लेकिन दीपा ने दरवाजा नहीं खोला. शायद उस ने सुना ही नहीं था. तब मोहन ने दरवाजे के सुराख से अंदर झांक कर देखा.दीपा के कमरे का दरवाजा खुला था. वह पलंग पर लेटी हुई थी.

सुजीत उसे बांहों में भर कर चूम रहा था. पलभर में दीपा ने अपने कपड़े उतार दिए. उस के उभार देख कर सुजीत उस पर झपट पड़ा और वे दोनों सैक्स करने लगे.मोहन यह देख कर हैरान रह गया. इस सीन में उसे भी मजा आने लगा था. कुछ देर तक दोनों देवरभाभी सैक्स का मजा लेते रहे, फिर संतुष्ट हो कर अलग हो गए.

दीपा ने झटपट कपड़े पहन लिए. अपने बिखरे बालों को ठीक किया. सुजीत अपने कमरे में जा कर किताबें उलटनेपुलटने लगा.

तब मोहन ने फिर से दरवाजा खटखटाया. इस बार दीपा ने दरवाजा खोल दिया.मोहन ने अभी जोकुछ देखा था, उस से वह अनजान ही बना रहा.

‘‘मालिक ने हीटर मांगा है,’’ मोहन ने कहा.‘‘अभी लाती हूं,’’ कह कर दीपा ने स्टोर से हीटर ला कर दे दिया. मोहन हीटर ले कर किराने की दुकान पर पहुंचा.

‘‘यह लीजिए हीटर,’’ कह कर मोहन ने दिलीप साव को हीटर दे दिया.मोहन किराने की दुकान पर ग्राहकों को सामान देने लगा. वह मन ही मन सोचता रहा कि दीपा और सुजीत की कारगुजारी दिलीप साव को नहीं बताएगा, नहीं तो वह उसे दुकान से निकाल देगा.जाड़े की कंपकंपाती ठंड पड़ रही थी.

आधी रात को दीपा दिलीप साव की बांहों में थी. दोनों में सैक्स की भूख जगी थी. सैक्स करने से पहले दिलीप साव ने तकिए के नीचे से कंडोम निकाल कर अपने अंग पर पहना.तब दीपा ने थोड़ा विरोध किया, ‘‘कब तक इसे पहनाते रहेंगे?’’‘‘अभी हम बच्चा नहीं चाहते हैं. प्यार ऐसे ही चलता रहेगा,

’’ दिलीप साव ने कहा.दीपा यह दिलीप साव जवाब सुन कर मुसकरा दी. वह कंडोम पहन कर ही सैक्स करने लगा. संतुष्ट होने के बाद थक कर दोनों सो गए.दिन बीत रहे थे. दीपा की सुजीत के साथ प्रेमलीला बददस्तूर जारी थी.

दीपा दिन में सुजीत के साथ और रात में दिलीप साव के साथ मजे ले रही थी.इस बीच एक दिन जब रात को दुकान बढ़ाने के बाद दिलीप साव घर लौटा, तब दीपा ने उसे खुशखबरी सुनाई, ‘‘मैं मां बनने वाली हूं.’’यह खुशखबरी सुनते ही दिलीप साव के पैरों के तले की जमीन खिसक गई.

‘‘मैं तो कंडोम इस्तेमाल करता था, फिर बच्चा कैसे ठहर गया?’’ दिलीप साव ने दीपा से पूछा.‘‘बच्चा आप का ही है. बेवजह शक मत कीजिए,’’ दीपा ने जोर दे कर कहा. दिलीप साव माथा पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.‘‘मैं ने सोचा कि आप को पता चलेगा तो आप खुश होंगे, लेकिन यहां आप ही मुझ पर इलजाम लगाने लगे,’’ दीपा सुबक कर रोने लगी.दिलीप साव चुप लगा गया.

अगले दिन वह दुकान पर उदास बैठा था. उस के दिल और दिमाग में दीपा की बात गूंज रही थी, ‘मैं मां बनने वाली हूं.’‘आखिर यह किस की करतूत हो सकती है? मेरा भाई सुजीत तो ऐसा नहीं है,’ दिलीप साव गहरी सोच में डूबा था.मोहन ग्राहक को सामान देने में मशगूल था.

दिलीप साव के शक की सूई मोहन पर आ कर ठहर गई.‘‘हां, यही तो रुपए पहुंचाने दीपा के पास जाता था. मुझ से ही गलती हो गई. मैं ही मोहन को घर भेजता था,’’ दिलीप साव बड़बड़ाया.दिलीप साव को अब मोहन पर बेहद गुस्सा आ रहा था. शक की वजह से मोहन उसे बुरा लगने लगा था.‘क्यों नहीं मोहन को दुकान से निकाल दूं?’

दिलीप साव मन ही मन सोच रहा था.तभी मोहन ने कहा, ‘‘मालिक, मुझे 2,000 रुपए एडवांस चाहिए थे. मोबाइल खरीदना है.’’‘‘मोबाइल का क्या करोगे?’’ दिलीप साव ने गुस्से को दबाते हुए पूछा.‘‘मेरा दोस्त बिरजू है न, उस से बात करूंगा. मालकिन को भी घर पर कोई काम रहेगा तो वे मुझे फोन कर देंगी,’’ मोहन निश्छल भाव से बोला.दिलीप साव का शक और भी पुख्ता होने लगा.

‘एक बार तो मोहन मुझे बेवकूफ बना चुका है, अब दीपा से बात कर के वह मजे लेता रहेगा,’ दिलीप साव कुछ सोच कर बोला, ‘‘2-3 दिन बाद रुपए दे दूंगा.’’‘‘अच्छा मालिक,’’ कह कर मोहन अपने काम में लग गया. 2-3 दिन में दिलीप साव एक खतरनाक साजिश का तानाबाना बुन चुका था.

उस समय किराना दुकान पर कोई ग्राहक नहीं था. मोहन इतमीनान से बैठा था. इधरउधर ताक कर दिलीप साव ने मोहन से कहा, ‘‘सोन नदी के उस पार के बाजार से 3-4 बोरियां बासमती चावल लाना है. वहां चावल सस्ता मिलता है. मुनाफा अच्छा मिलेगा.‘‘ये लो 7,000 रुपए हैं. 5,000 रुपए चावल के लिए और 2,000 तुम्हारे एडवांस के रुपए.’’मोहन ने 7,000 रुपए मालिक से ले लिए. वह एडवांस के रुपए पा कर खुश हो गया था. वह अब मोबाइल खरीद सकेगा.‘‘अच्छा, चलता हूं,’’

कह कर मोहन जाने लगा. मोहन जैसे ही जाने लगा तभी एक शख्स लुंगी और ढीलाढाला कुरता पहने किराने की दुकान पर आया.‘‘अरे, रुको मोहन,’’ दिलीप साव ने आवाज लगाई.मोहन रुक गया.‘‘यह माधव है. नाव चलाता है. नाव से तुम्हें सोन नदी पार करा देगा,’’ दिलीप साव ने उस शख्स का परिचय मोहन से कराया.मोहन ने नजर उठा कर ध्यान से माधव को देखा.

एक अनजान सा खुरदरा चेहरा, जिसे उस ने कभी इस इलाके में नहीं देखा था.‘‘अच्छा, हम लोग जाते हैं,’’ मोहन ने कहा. वे दोनों साथसाथ चल दिए. दिलीप साव के होंठों पर एक जहरीली मुसकान खेल गई.वे दोनों सोन नदी के किनारे पहुंचे. किनारे पर माधव की नाव लगी थी.

सोन नदी अपनी मस्त चाल में बह रही थी.‘‘बैठो,’’ माधव खूंटे से बंधी नाव की रस्सी खोलने लगा. मोहन नाव पर बैठ गया.माधव चप्पू के सहारे नाव आगे बढ़ाने लगा. नाव थोड़ी दूर आगे बढ़ी, तब केवल पानी ही पानी नजर आने लगा. पानी का बहाव भी तेज होने लगा.

माधव सधे नाविक की तरह नाव चला रहा था. मोहन सोन नदी के खूबसूरत नजारों में खोया नाव पर बैठा हुआ था.अब नाव सोन नदी के बीच में पहुंच गई थी. पानी के बहाव में और तेजी आ गई थी. माधव दबे पैर उठा और मोहन को जोर से धक्का दे दिया. मोहन सोन नदी की बहती धार में गिर गया. पानी में गिरते ही उस ने नाव को पकड़ना चाहा. लेकिन माधव ने चप्पू को तेज चला कर नाव को उस की पकड़ से दूर कर दिया.‘‘बचाओ… बचाओ…’’ डर के मारे मोहन चिल्लाने लगा.

माधव चप्पू को तेजी से चला कर नाव को भगाने लगा. मोहन से नाव दूर निकल गई.मोहन पानी में हाथपैर मार कर बचने की कोशिश करने लगा, लेकिन वह डूबने लगा था. तभी पानी के बहाव में उसे एक पेड़ की टहनी बहती हुई मिली. उस ने वह टहनी जोर से पकड़ ली और वह टहनी के साथ बहने लगा.

तभी कुछ दूर एक नाव उसे आती हुई दिखी.‘‘बचाओ… बचाओ…’’ मोहन जोर से चिल्लाने लगा. उस की आवाज सन्नाटे को चीरती हुई नाविक तक पहुंच गई. नाव चलाने वाला मोहन का दोस्त बिरजू था.किसी डूबते आदमी को बचाने के लिए उस ने नाव तेजी से चलाई.

वह जल्दी ही मोहन तक पहुंच गया.‘‘अरे, मोहन तुम…’’ बिरजू चिल्लाया. उस ने मोहन को पानी से नाव पर खींच लिया. मोहन बेहद डरा हुआ था.‘‘आखिर, तुम यहां कैसे आए?’’ बिरजू ने मोहन को झकझोरते हुए पूछा.‘‘मालिक ने नदी के उस पार के बाजार से मुझे बासमती चावल लाने भेजा था.

जिस नाव पर मैं सवार था, उसे माधव नाम का नाविक चला रहा था. बीच मझधार में उस ने मुझे धक्का दे कर नदी में गिरा दिया.‘‘मैं डूबने लगा था कि तभी पेड़ की एक टहनी को पकड़ कर कुछ दूर नदी के बहाव के साथ बहा, फिर अपनी ओर एक नाव को आते देखा.

‘‘अगर बिरजू तुम नहीं मिलते तो शायद…,’’ मोहन का गला रुंध गया. बिरजू चप्पू को तेज रफ्तार से चला कर नाव को किनारे तक ले आया.‘‘माधव को तुम पहचानते थे?’’ बिरजू ने पूछा. ‘‘नहीं, मेरा मालिक उसे जानता था,’’ मोहन ने कहा.‘‘अब समझा. माधव भाड़े का अपराधी था. मालिक के इशारे पर तुम्हें नदी में डुबो कर मारना चाहता था,’’ बिरजू ने कहा.‘‘लेकिन मालिक ने ऐसा क्यों किया?’’

मोहन ने मासूमियत से पूछा.‘‘शायद किसी बात के शक में उस ने यह खतरनाक कदम उठाया होगा,’’ बिरजू ने कहा.‘‘किस बात का शक? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है,’’ मोहन ने कहा.‘‘वह अपनी बीवी और तुम्हारे बीच नाजायज संबंध को ले कर शक कर रहा होगा,’’ बिरजू घटना की तह तक जाने लगा.‘‘मोहन, तुम दिलीप साव के घर जाते थे न? कोई नजदीकी आदमी ने उस की बीवी के साथ संबंध बनाया होगा.

उस की बीवी पेट से रह गई होगी और वह तुम पर शक कर बैठा,’’ बिरजू ने अंधेरे में तीर चलाया.‘‘अरे हां, मालिक का भाई सुजीत अपनी भाभी के साथ गलत संबंध बनाता था. मैं ने किवाड़ की सुराख से छिप कर देवरभाभी को मजे लेते अपनी आंखों से देखा था,’’

जैसे मोहन नींद से जागा हो.‘‘मोहन, तुझे दिलीप साव ने बलि का बकरा बना दिया,’’ बिरजू ने हंस कर कहा.‘‘अब हम क्या करें?’’ मोहन खौफ में था.‘‘मालिक को कुछ मत बताना, नहीं तो तबाही की सूनामी आ जाएगी.‘‘देखो, कोई बहाना बना देना. नाव से अचानक नदी में गिर गया था.

जान बच गई, बस,’’ बिरजू ने समझाया.‘‘और अपराधी माधव के बारे में?’’ मोहन ने आगे पूछा.‘‘कह देना कि माधव को पता नहीं चला कि मैं नदी में गिर गया था. वह नाव ले कर कहीं दूर निकल गया,’’ बिरजू बोला.‘‘अब मैं दिलीप साव के किराने की दुकान पर काम नहीं करूंगा,’’

मोहन ने अपना फैसला सुनाया.‘‘इस महीने तक काम कर लो, मगर मालिक से सावधान रहना. इस महीने की तनख्वाह ले कर काम छोड़ देना,’’ बिरजू ने कहा.‘‘उस के बाद मैं क्या करूंगा?’’ मोहन ने पूछा.‘‘मेरे चाचा का ढाबा कोलकाता में है. वहीं चले जाना.

ढाबे पर एक आदमी की जरूरत है,’’ बिरजू ने कहा.मोहन और बिरजू बातें करते हुए अपने घर चले गए.दूसरे दिन मोहन किराने की दुकान पर पहुंचा.

दिलीप साव उसे जिंदा देख कर घबरा गया. माधव ने तो उसे नदी में डुबा दिया था.दिलीप साव ने संभल कर पूछा, बासमती चावल का क्या हुआ?’’‘‘मैं नदी में गिर गया था. बस, जान बच गई. ये लीजिए, आप के 5,000 रुपए,’’ मोहन ने रुपए दे दिए.‘‘अरे बाप रे, बड़ी घटना घट जाती तो… चलो, जान तो बच गई,’’ दिलीप साव के बोल बड़े मीठे थे.

तब तक दुकान पर 1-2 ग्राहक आ गए थे. मोहन उन्हें सामान देने लगा.रात को दिलीप साव दुकान बढ़ा कर घर पहुंचा. वह पलंग पर दीपा के साथ लेटा हुआ था. वह सोना चाहता था, लेकिन उस की आंखों से नींद गायब थी. मोहन का जिंदा वापस लौट आना उस की चिंता का सबब था.दीपा ने बांहों में भर कर दिलीप साव को चूम लिया. ‘‘चलो हटो, मुझे सोने दो,’’ दिलीप साव ने बेरूखी से कहा.‘‘मुझ से नाराज लग रहे हैं,’’ दीपा ने उसे अपने ऊपर खींच लिया,

‘‘हां, अब तो अपना काम कर के सोओ,’’ उस ने प्यार से कहा.दिलीप साव ने इस बार तकिए के नीचे से कंडोम नहीं निकाला. अब इस की जरूरत ही कहां थी.

वह सैक्स करने लगा. दोनों संतुष्ट हो कर गहरी नींद में सो गए.महीना बीत चुका था. आज पहली तारीख थी. मोहन ने दिलीप साव से महीने की तनख्वाह मांगी.‘‘मालिक, आज एक तारीख है. महीने की तनख्वाह चाहिए थी,’’ मोहन ने मालिक से खुशामद की.

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ दिलीप साव ने गल्ले से रुपए निकाल कर मोहन को दे दिए. उस ने अपनी तनख्वाह संभाल कर रख ली.‘‘मालिक, आज रात मेरी कोलकाता जाने की ट्रेन है. टिकट हो गया है,’’ मोहन ने कहा.‘‘तुम कोलकाता क्यों जा रहे हो?’’ मालिक ने पूछा.‘‘मेरी कोलकाता में नौकरी लगी है. कमाने जा रहा हूं.’’ मोहन ने कहा.‘‘तब यहां दुकान में कौन काम करेगा?’’

मालिक घबरा कर बोला.‘‘यह सब मैं क्या जानूं. यह अब आप को समझना है.’’इतना कह कर मोहन किराने की दुकान से बाहर निकल गया. मालिक ठगा सा उसे जाते देखता रह गया.रात में मोहन को रेलवे स्टेशन पर छोड़ने बिरजू आया था. कोलकाता जाने वाली टे्रन स्टेशन पर लगी हुई थी. थोड़ी देर में टे्रन ने जोरदार सीटी बजाई.ट्रेन धीमी रफ्तार से स्टेशन पर आगे बढ़ने लगी.

बिरजू ने ट्रेन की खिड़की के पास बैठे मोहन को समझाया, ‘‘कोलकाता में भोलाभाला बन कर मत रहना, नहीं तो कोई भी लड़की, औरत तुझे बुद्धू बना देगी. फिर बिरजू क्या करेगा…’’मोहन और बिरजू ठहाका लगा कर हंसने लगे.हंसतेहंसते बिरजू स्टेशन पर अकेला रह गया. ट्रेन स्टेशन से चली गई थी. वह उदास दिल से घर लौट आया.

दिलीप साव अकेले किराने की दुकान संभालने लगा था. उस की परेशानी तब बढ़ जाती थी, जब वह ग्राहकों की भीड़ में घिर जाता था. तब उसे मोहन खूब याद आता था.इस तरह 9 महीने बीत गए. आज दिलीप साव के घर खुशियां लौटी थीं.

दीपा ने एक खूबसूरत बच्चे को जन्म दिया था.‘‘यह लीजिए, आप का खूबसूरत बेटा,’’ दीपा ने बच्चे को दिलीप साव के गोद में दे दिया. उस ने बच्चे को प्यार से चूम लिया. बच्चे का चेहरा उस के छोटे भाई सुजीत से हूबहू मिल रहा था.दिलीप साव के चेहरे पर एक अनकहा दर्द उभर आया.

उस ने मोहन पर बेवजह शक किया. यह तो सुजीत की करतूत निकली. दिलीप साव की आंखों में बेबसी के आंसू भर आए.सुजीत भाभी के साथ खुशियां मना रहा था. अब दिलीप साव कर भी क्या सकता था. वह भी बुझे मन से सब के साथ खुशियों में शामिल हो गया.

सुन्नी तुन्निसा: क्या थी चबूतरे की कहानी

घूमतेघूमते मैं लालकिले में शाहजहां के संगमरमर वाले बरामदे के नीचे पहुंचा. उस बरामदे के नीचे एक टूटाफूटा चबूतरा था, जिस की इंटें बिखरी हुई थीं. उस चबूतरे को देख कर मैं ने गाइड से उस के बारे में कुछ जानना चाहा.

पर गाइड के यह कहने पर कि चबूतरे की ऐतिहासिक अहमियत नहीं है, मैं चुपचाप आगे बढ़ गया. मुझे लगा कि शायद गाइड को ही इस की जानकारी न हो.

जब मैं लालकिले से निकलने लगा तो एक बूढे ने तपाक से सलाम किया.

मैं ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो? क्या चाहिए?’’

वह बोला, ‘‘आप उस चबूतरे के बारे में पूछ रहे थे न? मैं आप को उस के बारे में बताऊंगा. चाहो तो रात को सामने पीपल के पेड़ के नीचे आ जाना,’’ यह कह कर वह चला गया.

खापी कर जब मैं होटल पहुंचा, तो रात के 10 बज चुके थे. सर्दी की रात थी. सोने की कोशिश की तो सो न पाया. रहरह कर उस बूढ़े की बात याद आ रही थी. आखिरकार मैं ने ओवरकोट पहना और उसी पीपल के नीचे जा पहुंचा.

लंबेलंबे उलझे सूखे केश, महीनों बढ़ी हुई लंबी दाढ़ी, मैलाकुचैला बदबूदार लबादा पहने वह बूढ़ा वहां खड़ा था मानो वह मेरा इंतजार कर रहा हो.

‘‘हां, भटकती आत्मा…’’ उस ने कहा, ‘‘पर, तुम डरो नहीं.’’

‘‘चलो, मैं तुम्हारे दिल की ख्वाहिश शांत कर दूं,’’ बूढ़ा बोला. उस ने मुझे पूरी कहानी सुनाई, जो न जाने सच थी या झूठ, पर रोचक जरूर थी:

लालकिले में शाहजहां के संगमरमर वाले झरोखे के सामने वाले फाटक के बाहर टूटाफूटा चबूतरा राजा ने एक खोजा के लिए ही बनवाया था. 1-2 या 4 साल नहीं, इसी चबूतरे पर सिर पटकपटक कर आंसुओं का दरिया बहाते हुए खोजे ने उस पर पूरे 12 साल बिताए थे.

ताजमहल की बगल की कोठी में संगमरमर के कमरे में एक लंबी कब्र है. उस में दफन औरत की आंसुओं में लिपटी दयाभरी कहानी पर कोई गौर नहीं करता.

वह कब्र शाहजहां की बड़ी मलिका सुन्नी तुन्निसा की है. वह शाहजहां की पहली बीवी थी. ताजमहल शाहजहां और मुमताज की मुहब्बत की जीतीजागती यादगार है. पर दरअसल मुगल बादशाहों को मुहब्बत से कुछ लेनादेना नहीं था. मुहब्बत का एहसास कराने वाला उन के पास दिल ही नहीं था.

दरअसल, ये मुगल बादशाह बहुत ही विलासी, ऐयाश और रसिया होते थे. चित्तौड़गढ़, उदयपुर, ग्वालियर में हिंदू महलों में तो जनानी ड्योढ़ी हुआ करती थी, पर मुगल महलों में बेगमों के लिए महल तो क्या, सुंदर कमरे भी नहीं होते थे.

बात यह थी कि मुगल सम्राट औरत जात को इज्जत की नजर से नहीं देखते थे. जिस छत के नीचे राजा सोता था, उस छत के नीचे कोई औरत नहीं सो सकती थी. उन के लिए औरत सिर्फ जिस्मानी रिश्ता कायम करने की चीज थी.

बहुत से लोग अपना दिल बहलाने के लिए पिंजरे में रंगबिरंगी चिडि़या पालते हैं, ठीक उसी तरह ये मुगल राजा अपने जिस्म की आग बुझाने के लिए 50-50 के झुंड में आरामदेह खेमे लगाते थे. सभी हसीन बेगमें इन्हीं खेमों में रहती थीं. इन खेमों की हिजड़े यानी खोजे पहरेदारी करते थे.

शाहजहां जिस बेगम के साथ रात गुजारना चाहते, उस खेमे की बेगम के पास एक पान का बीड़ा पहुंचा देते. बीड़ा पहुंचने के बाद लौंडियां बेगम के सिंगार में जुट जातीं. हर खेमे पर इस के लिए अलग लौंडिया हुआ करती थीं. गुसल कराने वाली लौंडी बेगम को हमाम में ले जाती. लालकिले में ऊंचीऊंची दीवारों से घिरा जनाना गुसलखाना था, जिस में एक बहुत बड़ा हौज था. हमाम हमेशा पानी से लबालब भरा रहता.

नहलाने वाली लौंडी बेगम के बदन से एकएक कर पूरे कपड़े उतार देती. फिर केसर, इत्र और बादाम की पीठी के उबटन से संगमरमर से तराशे बेगम के जिस्म को कुंदन सा दमका देती. दूसरी लौंडी उन के बदन को पोंछती. फिर लौंडियां काजल वगैरह लगातीं. बेगम का सिंगार करतीं और गहने पहना कर कीमती कपड़े पहनातीं.

पूर्णिमा की एक रात थी. आकाश में चांद अपने पूरे शबाब पर था. उस की दुधिया चांदनी जमीन पर दूरदूर तक छिटक रही थी. रात के 9 बज चुके थे. बेगमें भोजन कर चुकी थीं.

ऐसे सुहाने मौसम में मलिका सुन्नी तुन्निसा की आंखों में नींद नहीं थी. उस का मन किसी से गपशप करने को चाह रहा था, इसलिए वे पड़ोस की बेगम के खेमे में चली गईं.

10 बजे रखवाले खोजों की बदली होती थी. उस दिन मलिका सुन्नी तुन्निसा के खेमे पर रातभर पहरा देने की जुन्ना की बारी थी. पहले वाले खोजे से जुन्ना का सलाम हुआ, पर वह जल्दीजल्दी में यह बताना भूल गया कि बेगम पड़ोस के खेमे में गई हुई हैं.

जुन्ना गश्त लगाने के दौरान यह देख कर हैरान था कि बेगम खेमे में नहीं हैं.

बेगम के सोने के कमरे का क्या कहना, ठोस सोने के पायों वाला शीशे का पलंग था. पलंग पर मुलायम बिस्तर. बिस्तर पर बगुले के पंख की तरह

सफेद चादर बिछी हुई थी, जिस के सिरहाने कश्मीरी कसीदे वाले तकिए लगे हुए थे और पैरों की तरफ कश्मीरी लिहाफ रखा था.

ऐसा बिस्तर देख कर जुन्ना का मन उस का जायजा लेने के लिए मचल उठा. वह अपने मन को किसी तरह नहीं रोक पाया. दीवार की ओर पीठ कर उस ने गुदगुदे बिस्तर पर लेट कर गले तक लिहाफ खींच लिया.

अभी वह लिहाफ की गरमाहट का मजा ले ही रहा था कि पलकें भारी हो गईं और जब नींद खुली तो सवेरा हो चुका था. सुबह जब उस ने अपने को बेगम के बिस्तर पर पाया, तो हाथपैर ठंडे हो गए. बदन का जैसे पूरा खून ही जम गया. बदहवास सा वह खेमे से बाहर आया तो देख कर हैरान रह गया कि वहां तो माजरा ही बिलकुल दूसरा था. चारों ओर मौत का मातम छाया हुआ था. सभी चुप और गमगीन थे.

जुन्ना की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. आखिरकार एक पहरेदार से पूछा और उस ने जो बताया, उस से सिर पर जैसे बिजली गिर पड़ी. वह पहरेदार कह रहा था कि रात को मलिका सुन्नी तुन्निसा को फांसी पर चढ़ा दिया गया.

‘‘फांसी पर चढ़ा दिया?’’ जुन्ना बदहवास सा बोला, ‘‘मलिका का कुसूर?’’

‘‘कुसूर. कुसूर था यार से प्यार,’’ वह पहरेदार बोला, ‘‘रात को बादशाह सलामत ने अपनी आंखों से जो मंजर देखा, वैसा नजारा तो कोई दुश्मन भी न देखे, तोबा… तोबा…’’

‘‘पर, आखिर बादशाह सलामत ने ऐसा क्या देखा?’’ जुन्ना पागलों की तरह बोला.

‘‘अपनी बीवी को अपने यार की बगल में देखा… कुछ समझा?’’ पहरेदार बोला.

‘‘रात को घूमतेघूमते हजूरेआला अचानक मलिका के खेमे में पहुंचे. खेमे के अंदर पैर बढ़ाया तो बस सिर पर बिजली गिर पड़ी. काटो तो बदन में खून ही नहीं. गले तक लिहाफ ओढ़े एक मर्द मलिका के बिस्तर पर उन के साथ सो रहा था.

‘‘बड़ी होने के नाते जिस मलिका की वे इतनी इज्जत करते थे, वह इतनी बदचलन, आवारा और बेहया भी हो सकती है… उफ, औरत जात तेरा कोई भरोसा नहीं. गुस्से के मारे बादशाह का चेहरा अंगारे की तरह लाल हो गया. खेमे से दौड़ पड़े और बाहर जाते ही हुक्म दिया कि मलिका को फौरन फांसी पर चढ़ा दिया जाए.

‘‘कहने भर की देर थी कि जल्लाद दौड़ पड़े और उस के पहले कि

मलिका उफ भी करती उसे फांसी पर चढ़ा दिया गया.’’

पलक मारते ही जुन्ना सबकुछ समझ गया. उसे ऐसा लगा, जैसे किसी ने एक झटके से उस की गरदन उड़ा दी हो और उस की लाश फर्श पर छटपटा रही हो. हवा के हर झोंके में मलिका की सिसकती आह उस के कानों से बारबार टकरा रही थी.

जुन्ना पागलों की तरह चीख उठा, ‘‘नहींनहीं, मलिका तो बेगुनाह थीं, गुनाह तो मैं ने किया है. मैं ही असली गुनाहगार हूं. मेरी गरदन उड़ा दो. मुझे इसी वक्त सूली पर चढ़ा दो. मुझे इसी वक्त सूली पर चढ़ा दो… हाय… हाय…’’ और वह दहाड़े मारमार कर रोने लगा.

पहरेदारों ने यह नया हादसा देखा तो फौरन उसे घसीट कर बादशाह के सामने पेश किया.

बादशाह बेगम के गम में उदास और गमगीन थे. उन्होंने कड़क कर पूछा, ‘‘यह कौन बदजात है, जो इस तरह चीख रहा है?’’

पहरेदारों में से एक ने अर्ज किया, ‘‘जहांपनाह, यह खेमे पर गश्त लगाने वाला खोजा है. रात मलिका के खेमे पर यही पहरा लगा रहा था. आलमपनाह, यह पागल हो गया है और कहता है कि मलिका बेगुनाह थीं और अपनेआप को गुनाहगार बता रहा है.’’

बादशाह जैसे आसमान से धरती पर गिर पड़े. डपट कर पूछा, ‘‘क्या बक रहा है?’’

‘‘आलमपनाह, मलिका तो बेगुनाह थीं…’’ वह रोतेरोते बोला, ‘‘कुसूर तो इस गुलाम का है, मलिका तो रात को खेमे में थीं ही नहीं. उन का गुदगुदा बिस्तर देख कर गुलाम का जी मचल उठा और दीवार की ओर मुंह कर के लेट गया. अभी लेटा ही था कि आंख लग गई. असली गुनाहगार तो यह गुलाम है,’’ वह चीखने लगा, ‘‘मेरी खाल खिंचवाओ, सूली पर चढ़ाओ, कुत्तों से मेरी बोटियां नुचवाओ या शेर के पिंजरे में ही छुड़वा दो.’’

बादशाह के आदेश से फौरन जल्लाद बुलाए गए. उन्होंने तसदीक की कि बेगम को पड़ोस के खेमे से लाया जाए, जहां वे बातें करने में मशगूल थीं.

अब बादशाह ने जाना कि कितना बड़ा जुर्म हो गया है. वह निढाल हो कर मसनद पर लुढ़क गए.

सब ने समझा कि अब जुन्ना की गरदन उड़ा दी जाएगी, पर संभलने पर बादशाह ने कहा, ‘‘मलिका की लाश को जमुना से निकाल कर शाही रीतिरिवाजों के साथ दफनाया जाए. इस बदजात को इसी समय हमारी नजरों से दूर करो.’’

पहरेदारों ने घसीट कर जुन्ना को फाटक के बाहर धकेल दिया. वह उस जगह पर बैठ गया जहां लाश फांसीघर से निकाल कर नदी में जाती थी. वहीं पड़ापड़ा बेगम के नाम रोताचीखता रहा.

सामने ही बादशाह संगमरमर के झरोखे से जुन्ना को देखते तो उन के जख्म हरे हो जाते और आंखों से पछतावे के आंसू बहने लगते. कई बार घसीट कर वहां से हटाया गया, पर वह फिर उसी जगह पर बैठ जाता. सिर पटकपटक बेगम का नाम लेते हुए मातम मनाता.

आखिर में बादशाह ने उस के लिए वहीं एक पक्का चबूतरा बनवा दिया. बादशाह के हुक्म से शाही बावर्ची उस के लिए वहीं खाना रख जाता, जिसे वह कभी खाता और कभी इधरउधर फेंक देता.

जुन्ना पूरे 12 साल तक इस चबूतरे पर सिर पटकपटक कर खुद रोता रहा, और बादशाह को भी रुलाता रहा. फिर एक दिन उसी चबूतरे पर ही उस ने दम तोड़ दिया.

कहानी सुनाने के बाद वह बूढ़ा बोला, ‘‘यह वही चबूतरा है, जिस के बारे में तुम पूछ रहे थे.’’

सचमुच मेरी आंखों से आंसू टपक रहे थे. अचानक ही मुंह से निकला, ‘‘बेचारी सुन्नी तुन्निसा.’’

अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक: क्या भरम से निकल पाया नरेन

“देवी, स्वामीजी को गरमागरम फुल्का चाहिए,” स्वामीजी के साथ आए चेले ने कहा.

रोटी सेंकती रवीना का दिल किया, चिमटा उठा कर स्वामीजी के चेले के सिर पर दे मारे. जिस की निगाहें वह कई बार अपने बदन पर फिसलते महसूस कर जाती थी.

“ला रही हूं….” न चाहते हुए भी उस की आवाज में तल्खी घुल गई.

तवे की रोटी पलट, गरम रोटी की प्लेट ले कर वह सीढ़ी चढ़ कर ऊपर चली गई.

आखिरी सीढ़ी पर खड़ी हो उस ने एकाएक पीछे मुड़ कर देखा तो स्वामीजी का चेला मुग्ध भाव से उसे ही देख रहा था. लेकिन जब अपना ही सिक्का खोटा हो, तो कोई क्या करे.

वह अंदर स्वामीजी के कमरे में चली गई.

स्वामीजी ने खाना खत्म कर दिया था और तृप्त भाव से बैठे थे. उसे देख कर वे भी लगभग उसी मुग्ध भाव से मुसकराए, “मेरा भोजन तो खत्म हो गया देवी… फुल्का लाने में तनिक देर हो गई… अब नहीं खाया जाएगा…”

‘उफ्फ… सत्तर नौकर लगे हैं न यहां… स्वामीजी के तेवर तो देखो,‘ फिर भी वह उन के सामने बोली, “एक फुल्का और ले लीजिए, स्वामीजी…”

“नहीं देवी, बस… तनिक हाथ धुलवा दें…” रवीना ने वाशरूम की तरफ नजर दौड़ाई.

वाशबेसिन के इस जमाने में भी जब हाथ धुलाने के लिए कोई कोमलांगी उपलब्ध हो तो ‘कोई वो क्यों चाहे… ये न चाहे‘ रवीना ने बिना कुछ कहे पानी का लोटा उठा लिया, “कहां हाथ धोएंगे स्वामीजी…”

“यहीं, थाली में ही धुलवा दें…” स्वामीजी ने वहीं थाली में हाथ धोया और कुल्ला भी कर दिया.

यह देख रवीना का दिल अंदर तक कसमसा गया. पर किसी तरह छलकती
थाली उठा कर वह नीचे ले आई.

स्वामीजी के चेले को वहीं डाइनिंग टेबल पर खाना दे कर उस ने बेडरूम में घुस कर दरवाजा बंद कर दिया. अब कोई बुलाएगा भी तो वह जाएगी नहीं, जब तक बच्चे स्कूल से आ नहीं जाते.

40 वर्षीया रवीना खूबसूरत, शिक्षित, स्मार्ट, उच्च पदस्थ अधिकारी की पत्नी,
अंधविश्वास से कोसों दूर, आधुनिक विचारों से लवरेज महिला थी, पर पति नरेन का क्या करे, जो उच्च शिक्षित व उच्च पद पर तो था, पर घर से मिले संस्कारों की वजह से घोर अंधविश्वासी था. इस वजह से रवीना व नरेन में जबतब ठन जाती थी.

इस बार नरेन जब कल टूर से लौटा तो स्वामीजी और उन का चेला भी साथ थे. उन्हें देख कर वह मन ही मन तनावग्रस्त गई. समझ गई, अब यह 1-2 दिन का किस्सा नहीं है.

कुछ दिन तक तो उसे इन तथाकथित स्वामीजी की बेतुकी बातें, बेहूदी निगाहें व उपस्थिति झेलनी ही पड़ेगी.

स्वामीजी को सोफे पर बैठा कर नरेन जब कमरे में कपड़े बदलने गया तो वह पीछेपीछे चली आई.

“नरेन, कौन हैं ये दोनों… कहां से पकड़ लाए हो इन को?”

“तमीज से बात करो रवीना… ऐसे महान लोगों का अपमान करना तुम्हें शोभा नहीं देता…

“लौटते हुए स्वामीजी के आश्रम में चला गया था… स्वामीजी की सेहत कुछ ठीक नहीं चल रही है… इसलिए पहाड़ी स्थान पर हवा बदलने के लिए आ गए… उन की सेवा में कोई
कोताही नहीं होनी चाहिए…”

यह सुन कर रवीना पसीनापसीना हो गई, “कुछ दिन का क्या मतलब है… तुम औफिस चले जाओगे और बच्चे स्कूल… और मैं इन दो मुस्टंडों के साथ घर पर अकेली रहूंगी… मुझे
डर लगता है ऐसे बाबाओं से… इन के रहने का बंदोबस्त कहीं घर से बाहर करो…” रवीना गुस्से में बोली.

“वे यहीं रहेंगे घर पर…” नरेन रवीना के गुस्से को दरकिनार कर तैश में बोला, “औरतों की तो आदत ही होती है हर बात पर शिकायत करने की… मुझ में दूसरा कोई व्यसन नहीं… लेकिन, तुम्हें मेरी ये सात्विक आदतें भी बरदाश्त नहीं होतीं… आखिर यह मेरा भी घर है…”

“घर तो मेरा भी है…” रवीना तल्खी से बोली, “जब मैं तुम से बिना पूछे कुछ नहीं करती… तो तुम क्यों करते हो…?”

“ऐसा क्या कर दिया मैं ने…” नरेन का क्रोधित स्वर ऊंचा होने लगा, “हर बात पर तुम्हारी टोकाटाकी मुझे पसंद नहीं… जा कर स्वामीजी के लिए खानपान व स्वागतसत्कार का इंतजाम करो,” कह कर नरेन बातचीत पर पूर्णविराम लगा बाहर निकल गया. रवीना के सामने कोई चारा नहीं था, वह भी किचन में चली गई.

नरेन का दिमाग अनेकों अंधविश्वासों व विषमताओं से भरा था. वह अकसर ही ऐसे लोगों के संपर्क में रहता और उन के बताए टोटके घर में आजमाता रहता, साथ ही घर में सब को ऐसा करने के लिए मजबूर करता.

यह देख रवीना परेशान हो जाती. उसे अपने बच्चे इन सब बातों से दूर रखने मुश्किल हो रहे थे.

घर का नजारा तब और भी दर्शनीय हो जाता, जब उस की सास उन के साथ रहने
आती. सासू मां सुबह पूजा करते समय टीवी पर आरती लगवा देतीं और अपनी पूजा खत्म कर, टीवी पर रोज टीका लगा कर अक्षत चिपका कर, टीवी के सामने जमीन पर लंबा लेट कर शीश नवातीं.

कई बार तो रोकतेरोकते भी रवीना की हंसी छूट जाती. ऐसे वक्तबेवक्त के आडंबर उसे उकता देते थे और जब माताजी मीलों दूर अमेरिका में बैठी अपनी बेटी की मुश्किल से पैदा हुई संतान की नजर यहां भारत में वीडियो काल करते समय उतारती तो उस के लिए पचाना मुश्किल हो जाता.

नरेन को शहर से कहीं बाहर जाना होता तो मंगलवार व शनिवार के दिन बिलकुल नहीं जाना चाहता. उस का कहना था कि ये दोनों दिन शुभ नहीं होते. बिल्ली का
रास्ता काटना, चलते समय किसी का छींकना तो नरेन का मूड ही खराब देता.

घर गंदा देख कर शाम को यदि वह गलती से झाड़ू हाथ में उठा लेती तो नरेन
जमीनआसमान एक कर देता है, ‘कब अक्ल आएगी तुम्हें… शाम को व रात को घर में झाड़ू नहीं लगाया जाता… अशुभ होता है..‘ वह सिर पीट लेती, “ऐसा करो नरेन…एक दिन
बैठ कर शुभअशुभ की लिस्ट बना दो..”

शादी के बाद जब उस ने नरेन को सुबहशाम एक एक घंटे की लंबी पूजा करते देखा तो वह हैरान रह गई. इतनी कम उम्र से ही नरेन इतना अधिक धर्मभीरू कैसे और क्यों हो गया.

पर, जब नरेन ने स्वामी व बाबाओं के चक्कर में आना शुरू कर दिया, तो वह
सतर्क हो गई. उस ने सारे साम, दाम, दंड, भेद अपनाए, नरेन को बाबाओं के चंगुल से बाहर निकालने के लिए, पर सफल न हो पाई और इन स्वामी सदानंद के चक्कर में तो वह नरेन को पिछले कुछ सालों से पूरी तरह से उलझते देख रही थी.

अभी तक तो नरेन स्वयं जा कर स्वामीजी के निवास पर ही मिल आता था, पर उसे नहीं मालूम था कि इस बार नरेन इन को सीधे घर ही ले आएगा.

वह लेटी हुई मन ही मन स्वामीजी को जल्दी से जल्दी घर से भगाने की योजना बना रही थी कि तभी डोरबेल बज उठी. ‘लगता है बच्चे आ गए‘ उस ने चैन की सांस ली. उस से घर में सहज नहीं रहा
जा रहा था. उस ने उठ कर दरवाजा खोला. दोनों बच्चे शोर मचाते घर में घुस गए. थोड़ी देर के लिए वह सबकुछ भूल गई.

शाम को नरेन औफिस से लगभग 7 बजे घर आया. वह चाय बनाने किचन में चली गई, तभी नरेन भी किचन में आ गया और पूछने लगा, “स्वामीजी को चाय दे दी थी…?”

“किसी ने कहा ही नहीं चाय बनाने के लिए… फिर स्वामी लोग चाय भी पीते हैं क्या..?” वह व्यंग्य से बोली.

“पूछ तो लेती… ना कहते तो कुछ अनार, मौसमी वगैरह का जूस निकाल कर दे
देती…”

रवीना का दिल किया फट जाए, पर खुद पर काबू रख वह बोली, “मैं ऊपर जा कर कुछ नहीं पूछूंगी नरेन… नीचे आ कर कोई बता देगा तो ठीक है.”

नरेन बिना जवाब दिए भन्नाता हुआ ऊपर चला गया और 5 मिनट में नीचे आ गया, “कुछ फलाहार का प्रबंध कर दो.”

“फलाहार…? घर में तो सिर्फ एक सेब है और 2 ही संतरे हैं… वही ले जाओ…”

“तुम भी न रवीना… पता है, स्वामीजी घर में हैं… सुबह से ला नहीं सकती थी..?”

“तो क्या… तुम्हारे स्वामीजी को ताले में बंद कर के चली जाती… तुम्हारे स्वामीजी हैं,
तुम्हीं जानो… फल लाओ, जल लाओ… चाहते हो उन को खाना मिल जाए तो मुझे मत भड़काओ…”

नरेन प्लेट में छुरी व सेब, संतरा रख उसे घूरता हुआ चला गया.

“अपनी चाय तो लेते जाओ…” रवीना पीछे से आवाज देती रह गई. उस ने बेटे के हाथ चाय ऊपर भेज दी और रात के खाने की तैयारी में जुट गई. थोड़ी देर में नरेन नीचे उतरा.

“रवीना खाना लगा दो… स्वामीजी का भी… और तुम व बच्चे भी खा लो…” वह
प्रसन्नचित्त मुद्रा में बोला, “खाने के बाद स्वामीजी के मधुर वचन सुनने को मिलेंगे… तुम ने कभी उन के प्रवचन नहीं सुने हैं न… इसलिए तुम्हें श्रद्धा नहीं है… आज सुनो और देखो… तुम खुद समझ जाओगी कि स्वामीजी कितने ज्ञानी, ध्यानी व पहुंचे हुए हैं…”

“हां, पहुंचे हुए तो लगते हैं…” रवीना होंठों ही होंठों में बुदबुदाई. उस ने थालियों में खाना लगाया. नरेन दोनों का खाना ऊपर ले गया. इतनी देर में रवीना ने बच्चों को फटाफट खाना खिला कर सुला दिया और उन के कमरे की लाइट भी बंद कर दी.

स्वामीजी का खाना खत्म हुआ, तो नरेन उन की छलकती थाली नीचे ले आया. रवीना ने अपना व
नरेन का खाना भी लगा दिया. खाना खा कर नरेन स्वामीजी को देखने ऊपर चला गया. इतनी देर में रवीना किचन को जल्दीजल्दी समेट कर चादर मुंह तक तान कर सो गई. थोड़ी देर में नरेन उसे बुलाने आ गया.

“रवीना, चलो तुम्हें व बच्चों को स्वामीजी बुला रहे हैं…” पहले तो रवीना ने सुनाअनसुना कर दिया. लेकिन जब नरेन ने झिंझोड़ कर जगाया तो वह उठ बैठी.

“नरेन, बच्चों को तो छेड़ना भी मत… बच्चों ने सुबह स्कूल जाना है… और मेरे सिर में दर्द हो रहा है… स्वामीजी के प्रवचन सुनने में मेरी वैसे भी कोई रुचि नहीं है… तुम्हें है, तुम्हीं सुन लो..” वह पलट कर चादर तान कर फिर सो गई.

नरेन गुस्से में दांत पीसता हुआ चला गया. स्वामीजी को रहते हुए एक हफ्ता हो
गया था. रवीना को एकएक दिन बिताना भारी पड़ रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी, कैसे मोह भंग करे नरेन का.

रवीना का दिल करता,
कहे कि स्वामीजी अगर इतने महान हैं तो जाएं किसी गरीब के घर… जमीन पर सोएं, साधारण खाना खाएं, गरीबों की मदद करें, यहां क्या कर रहे हैं… उन्हें गाड़ियां, आलिशान घर, सुखसाधन संपन्न भक्त की भक्ति ही क्यों प्रभावित करती है… स्वामीजी हैं तो
सांसारिक मोहमाया का त्याग क्यों नहीं कर देते. लेकिन मन मसोस कर रह जाती.

दूसरे दिन वह घर के काम से निबट, नहाधो कर निकली ही थी कि उस की 18 साला भतीजी पावनी का फोन आया कि उस की 2-3 दिन की छुट्टी है और वह उस के पास रहने
आ रही है. एक घंटे बाद पावनी पहुंच गई. वह तो दोनों बच्चों के साथ मिल कर घर का कोनाकोना हिला देती थी.

चचंल हिरनी जैसी बेहद खूबसूरत पावनी बरसाती नदी जैसी हर वक्त उफनतीबहती रहती थी. आज भी उस के आने से घर में एकदम शोरशराबे का
बवंडर उठ गया, “अरे, जरा धीरे पावनी,” रवीना उस के होंठों पर हाथ रखती हुई बोली.

“पर, क्यों बुआ… कर्फ्यू लगा है क्या…?”

“हां दी… स्वामीजी आए हैं…” रवीना के बेटे शमिक ने अपनी तरफ से बहुत धीरे से जानकारी दी, पर शायद पड़ोसियों ने भी सुन ली हो.
“अरे वाह, स्वामीजी…” पावनी खुशी से चीखी, “कहां है…बुआ, मैं ने कभी सचमुच के स्वामीजी नहीं देखे… टीवी पर ही देखे हैं,” सुन कर रवीना की हंसी छूट गई.

“मैं देख कर आती हूं… ऊपर हैं न? ” रवीना जब तक कुछ कहती, तब तक चीखतेचिल्लाते तीनों बच्चे ऊपर भाग गए.

रवीना सिर पकड़ कर बैठ गई. ‘अब हो गई स्वामीजी के स्वामित्व की छुट्टी…‘ पर
तीनों बच्चे जिस तेजी से गए, उसी तेजी से दनदनाते हुए वापस आ गए.

“बुआ, वहां तो आम से 2 नंगधड़ंग आदमी, भगवा तहमद लपेटे बिस्तर पर लेटे
हैं… उन में स्वामीजी जैसा तो कुछ भी नहीं लग रहा…”

“आम आदमी के दाढ़ी नहीं होती दी… उन की दाढ़ी है..” शमिक ने अपना ज्ञान बघारा.

“हां, दाढ़ी तो थी…” पावनी कुछ सोचती हुई बोली, “स्वामीजी क्या ऐसे ही होते हैं…”

पावनी ने बात अधूरी छोड़ दी. रवीना समझ गई, “तुझे कहा किस ने था इस तरह ऊपर जाने को… आखिर पुरुष तो पुरुष ही होता है न… और स्वामी लोग भी पुरुष ही होते हैं..”

“तो फिर वे स्वामी क्यों कहलाते हैं?”

इस बात पर रवीना चुप हो गई. तभी उस की नजर ऊपर उठी. स्वामीजी का चेला ऊपर खड़ा नीचे उन्हीं लोगों को घूर रहा था, कपड़े पहन कर..

“चल पावनी, अंदर चल कर बात करते हैं…” रवीना को समझ नहीं आ रहा था क्या
करे. घर में बच्चे, जवान लड़की, तथाकथित स्वामी लोग… उन की नजरें, भाव भंगिमाएं, जो एक स्त्री की तीसरी आंख ही समझ सकती है. पर नरेन को नहीं समझा सकती.

ऐसा कुछ कहते ही नरेन तो घर की छत उखाड़ कर रख देगा. स्वामीजी का चेला अब हर बात के लिए नीचे मंडराने लगा था.

रवीना को अब बहुत उकताहट हो रही थी. उस से अब यहां स्वामीजी का रहना किसी भी तरह से बरदाश्त नहीं हो पा रहा था.

दूसरे दिन वह रात को किचन में खाना बना रही थी. नरेन औफिस से आ कर वाशरूम में फ्रेश होने चला गया था. इसी बीच रवीना बाहर लौबी में आई, तो उस की नजर डाइनिंग टेबल पर रखे चेक पर पड़ी.
उस ने चेक उठा कर देखा. स्वामीजी के आश्रम के नाम 10,000 रुपए का चेक था.

यह देख रवीना के तनबदन में आग लग गई. घर के खर्चों व बच्चों के लिए नरेन हमेशा कजूंसी करता रहता है. लेकिन स्वामीजी को देने के लिए 10,000 रुपए निकल गए… ऊपर से इतने दिन से जो खर्चा हो रहा है वो अलग. तभी नरेन बाहर आ गया.

“यह क्या है नरेन…?”

“क्या है मतलब…?”

“यह चेक…?”

“कौन सा चेक..?”

नरेन उस के पास आ गया. लेकिन चेक देख कर चौंक गया, “यह चेक… तुम्हारे पास कहां से आ गया…? ये तो मैं ने स्वामीजी को दिया था.”

“नरेन, बहुत रुपए हैं न तुम्हारे पास… अपने खर्चों में हम कितनी कटौती करते हैं और तुम…” वह गुस्से में बोली. लेकिन नरेन तो किसी और ही उधेड़बुन में था, “यह चेक तो मैं ने सुबह स्वामीजी को ऊपर जा कर दिया था… यहां कैसे आ गया…?”

“ऊपर जा कर दिया था..?” रवीना कुछ सोचते हुए बोली, “शायद, स्वामीजी का चेला रख गया होगा…”

“लेकिन क्यों..?”

”क्योंकि, लगता है स्वामीजी को तुम्हारा चढ़ाया हुआ प्रसाद कुछ कम लग रहा है…” वह व्यंग्य से बोली.

“बेकार की बातें मत करो रवीना… स्वामीजी को रुपएपैसे का लोभ नहीं है… वे तो सारा धन परमार्थ में लगाते हैं… यह उन की कोई युक्ति होगी, जो तुम जैसे मूढ़ मनुष्य की समझ में नहीं आ सकती…”

“मैं मूढ़ हूं, तो तुम तो स्वामीजी के सानिध्य में रह कर बहुत ज्ञानवान हो गए हो न…” रवीना तैश में बोली, “तो जाओ… हाथ जोड़ कर पूछ लो कि स्वामीजी मुझ से कोई
अपराध हुआ है क्या… सच पता चल जाएगा.”

कुछ सोच कर नरेन ऊपर चला गया और रवीना अपने कमरे में चली गई. थोड़ी देर बाद नरेन नीचे आ गया.

“क्या कहा स्वामीजी ने..” रवीना ने पूछा.

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

“बोलो नरेन, क्या जवाब दिया स्वामीजी ने…”

“स्वामीजी ने कहा है कि मेरा देय मेरे स्तर के अनुरूप नहीं है…” रवीना का दिल
किया कि ठहाका मार कर हंसे, पर नरेन की मायूसी व मोहभंग जैसी स्थिति देख कर वह चुप रह गई.

“हां, इस बार घर आ कर तुम्हारे स्तर का अनुमान लगा लिया होगा… यह तो नहीं पता होगा कि इस घर को बनाने में हम कितने खाली हो गए हैं…” रवीना चिढ़े स्वर में बोली.

“अब क्या करूं…” नरेन के स्वर में मायूसी थी.

“क्या करोगे…? चुप बैठ जाओ… हमारे पास नहीं है फालतू पैसा… हम अपनी गाढ़ी कमाई लुटाएं और स्वामीजी परमार्थ में लगाएं… तो जब हमारे पास होगा तो हम ही लगा
लेंगे परमार्थ में… स्वामीजी को माघ्यम क्यों बनाएं,” रवीना झल्ला कर बोली.

“दूसरा चेक न काटूं…?” नरेन दुविधा में बोला.

“चाहते क्या हो नरेन…? बीवी घर में रहे या स्वामीजी… क्योंकि अब मैं चुप रहने वाली नहीं हूं…”
नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बहुत ही मायूसी से घिर गया था.

“अच्छा… अभी भूल जाओ सबकुछ…” रवीना कुछ सोचती हुई बोली, “स्वामीजी रात में ही तो कहीं नहीं जा रहे हैं न… अभी मैं खाना लगा रही हूं… खाना ले जाओ.”

वह कमरे से बाहर निकल गई, “और हां…” एकाएक वह वापस पलटी, “आज
खाना जल्दी निबटा कर हम सपरिवार स्वामीजी के प्रवचन सुनेंगे… पावनी व बच्चे भी… कल छुट्टी है, थोड़ी देर भी हो जाएगी तो कोई बात नहीं…”

लेकिन नरेन के चेहरे पर कुछ खास उत्साह न था. वह नरेन की उदासीनता का कारण समझ रही थी. खाना निबटा कर वह तीनों बच्चों सहित ऊपर जाने के लिए तैयार हो गई.

“चलो नरेन…” लेकिन नरेन बिलकुल भी उत्साहित नहीं था, पर रवीना उसे जबरदस्ती ठेल ठाल कर ऊपर ले गई. उन सब को देख कर, खासकर पावनी को देख कर तो उन दोनों के चेहरे गुलाब की तरह खिल गए.

“आज आप से कुछ ज्ञान प्राप्त करने आए हैं स्वामीजी… इसलिए इन तीनों को भी आज सोने नहीं दिया,” रवीना मीठे स्वर में बोली.

“अति उत्तम देवी… ज्ञान मनुष्य को विवेक देता है… विवेक मोक्ष तक पहुंचाता
है… विराजिए आप लोग,” स्वामीजी बात रवीना से कर रहे थे, लेकिन नजरें पावनी के चेहरे पर जमी थीं. सब बैठ गए. स्वामीजी अपना अमूल्य ज्ञान उन मूढ़ जनों पर उड़ेलने लगे. उन की
बातें तीनों बच्चों के सिर के ऊपर से गुजर रही थी. इसलिए वे आंखों की इशारेबाजी से एकदूसरे के साथ चुहलबाजी करने में व्यस्त थे.

“क्या बात है बालिके, ज्ञान की बातों में चित्त नहीं लग रहा तुम्हारा…” स्वामीजी
अतिरिक्त चाशनी उड़ेल कर पावनी से बोले, तो वह हड़बड़ा गई.

“नहीं… नहीं, ऐसी कोई बात नहीं…” वह सीधी बैठती हुई बोली. रवीना का ध्यान स्वामीजी की बातों में बिलकुल भी नहीं था. वह तो बहुत ध्यान से स्वामीजी व उन के चेले की पावनी पर पड़ने वाली चोर गिद्ध दृष्टि पर अपनी समग्र चेतना गड़ाए हुए थी और चाह रही थी कि नरेन यह सब अपनी आंखों से महसूस करे. इसीलिए वह सब को ऊपर ले कर आई थी. उस ने निगाहें नरेन की तरफ घुमाई. नरेन के चेहरे पर उस की आशा के अनुरूप हैरानी, परेशानी, गुस्सा, क्षोभ साफ झलक रहा था. वह मतिभ्रम जैसी स्थिति में
बैठा था. जैसे बच्चे के हाथ से उस का सब से प्रिय व कीमती खिलौना छीन लिया गया हो.

एकाएक वह बोला, “बच्चो, जाओ तुम लोग सो जाओ अब… पावनी, तुम भी जाओ…”

बच्चे तो कब से भागने को बेचैन हो रहे थे. सुनते ही तीनों तीर की तरह नीचे भागे.

पावनी के चले जाने से स्वामीजी का चेहरा हताश हो गया.

“अब आप लोग भी सो जाइए… बाकी के प्रवचन कल होंगे…” वे दोनों भी उठ गए.

लेकिन नरेन के चेहरे को देख कर रवीना आने वाले तूफान का अंदाजा लगा चुकी थी और वह उस तूफान का इंतजार करने लगी.

रात में सब सो गए. अगले दिन शनिवार था. छुट्टी के दिन वह थोड़ी देर से उठती
थी. लेकिन नरेन की आवाज से नींद खुल गई. वह किसी टैक्सी एजेंसी को फोन कर टैक्सी बुक करवा रहा था.

“टैक्सी… किस के लिए नरेन…?”

“स्वामीजी के लिए… बहुत दिन हो गए हैं… अब उन्हें अपने आश्रम चले जाना
चाहिए…”

“लेकिन,आज शनिवार है… स्वामीजी को शनिवार के दिन कैसे भेज सकते हो तुम…” रवीना झूठमूठ की गभीरता ओढ़ कर बोली.

“कोई फर्क नहीं पड़ता शनिवाररविवार से…” बोलतेबोलते नरेन के स्वर में उस के दिल की कड़वाहट आखिर घुल ही गई थी.

“मैं माफी चाहता हूं तुम से रवीना… बिना सोचेसमझे, बिना किसी औचित्य के मैं
इन निरर्थक आडंबरों के अधीन हो गया था,” उस का स्वर पश्चताप से भरा था.

रवीना ने चैन की एक लंबी सांस ली, “यही मैं कहना चाहती हूं नरेन… संन्यासी बनने के लिए किसी आडंबर की जरूरत नहीं होती… संन्यासी, स्वामी तो मनुष्य अपने उच्च आचरण से बनता है… एक गृहस्थ भी संन्यासी हो सकता है… यदि आचरण, चरित्र
और विचारों से वह परिष्कृत व उच्च है, और एक स्वामी या संन्यासी भी निकृष्ट और नीच हो सकता है, अगर उस का आचरण उचित नहीं है… आएदिन तथाकथित बाबाओं,
स्वामियों की काली करतूतों का भंडाफोड़ होता रहता है… फिर भी तुम इतने शिक्षित हो कर इन के चंगुल में फंसे रहते हो… जिन की लार एक औरत, एक लड़की को देख कर, आम कुत्सित मानसिकता वाले इनसान की तरह टपक
पड़ती है… पावनी तो कल आई है, पर मैं कितने दिनों से इन की निगाहें और चिकनीचुपड़ी बातों को झेल रही हूं… पर, तुम्हें कहती तो तुम बवंडर खड़ा कर देते… इसलिए आज प्रवचन सुनने का नाटक करना पड़ा… और मुझे खुशी है कि कुछ अनहोनी घटित होने से पहले ही तुम्हें समझ आ गई.”

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह उठा और ऊपर चला गया. रवीना भी उठ कर बाहर लौबी में आ गई. ऊपर से नरेन की आवाज आ रही थी, “स्वामीजी, आप के लिए टैक्सी मंगवा दी है… काफी दिन हो गए हैं आप को अपने आश्रम से निकले… इसलिए प्रस्थान की तैयारी कीजिए…10 मिनट में टैक्सी पहुंचने वाली है…” कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह नीचे आ गया. तब तक बाहर टैक्सी का हौर्न बज गया. रवीना के सिर से आज मनों बोझ उतर गया था. आज नरेन ने पूर्णरूप से अपने अंधविश्वास पर विजय पा ली थी और उन बिला वजह के डर व भय से निकल कर आत्मविश्वास से भर गया था.

ऊंचे लोग : क्या स्कूल टीचर का हो पाया शिव

शिव सुबहसवेरे दौड़ लगा रहा था. वह इतना दौड़ चुका था कि पसीने से तरबतर हो कर धीरेधीरे चलते हुए घर लौट रहा था. सुबह के 6 बजे थे. सड़क पर हर उम्र के लोग टहलने के लिए निकल चुके थे. पूर्व दिशा से सूरज मानो किसी छोटे से बालक की तरह सुर्ख लाल रंग में ऊंची इमारत की छत पर से सिर उठा रहा था. शिव यह नजारा अकसर देखता था.

यह इमारत उस स्कूल की थी, जिस में वह नौकरी करता था. स्कूल की छत पर 3 लड़कियों की छाया नाचती हुई दिख रही थीं. यह देख कर वह ठगा सा वहीं खड़ा रह गया. शिव के कदम अपनेआप स्कूल की तरफ बढ़ गए. इन दिनों स्कूल बंद था, इसलिए शादी के लिए किराए पर दिया हुआ था. शिव ऊपर छत पर गया, जहां एक लड़की खड़ी थी.

उस ने सवालिया नजरों से शिव की ओर देखा, लेकिन उस के मुंह से कुछ न निकला. शिव बड़ी देर तक उस नाचने वाली लड़की को देखता रहा. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. ‘‘आप के साथ 2 और भी लड़कियां थीं? वे कहां गईं?’’ शिव ने उस लड़की से सवाल किया. ‘‘वे दोनों नाश्ता करने गई होंगी,’’ उस लड़की ने बताया, ‘‘आप उन के रिश्ते में हैं या…’’

‘‘नहीं, मैं तो आप का नाच देख कर ऊपर चला आया हूं… आप ने बहुत मेहनत की है शायद…’’ ‘‘ऐसा तो नहीं है, पर आप ने हमें कैसे देखा? हम तो छत पर…’’ ‘‘जाने दीजिए… मैं इस स्कूल में टीचर हूं. अग्रवाल साहब ने यह स्कूल शादी के लिए लिया है, पर…

रूटीन चैकअप के लिए स्टाफ में से कोई तो आ ही जाता है… आप का नाम?’’ ‘‘रमा.’’ ‘‘मैं शिव.’’ शिव को पलभर के लिए लगा कि बातचीत का सिरा टूटने वाला है.

इतने में वह लड़की बोली, ‘‘यहां मेहंदी लगाने वाला कोई नहीं है? एक ही औरत आई है और मेहंदी लगवाने वाली कई हैं… आप यहां किसी को जानते हैं?’’

‘‘मैं आप को ले चलूंगा… लेकिन 10 बजे के बाद.’’ ‘‘ठीक है.’’ शिव की तो मानो लौटरी लग गई. दोनों नीचे आए. रमा एक कमरे में गई और बोली, ‘‘हमें यह कमरा दिया है. यहां सब आराम हैं, पर…’’

‘‘किसी बात की परेशानी हो, तो मु झे बताइए?’’ शिव ने कहा. ‘‘यहां नहाने का इंतजाम नहीं है. ये बाथरूम स्कूल के लिहाज से बने हैं. यहां गरम पानी भी नहीं है.’’ ‘‘आप के लिए गीजर का इंतजाम है. आप चलिए मेरे साथ… 2 मकान छोड़ कर ही मेरा मकान है,’’ शिव ने कहा.

यह सुन कर रमा एकदम चलने को राजी हो गई. कमरे से कपड़े ले कर वह उस के साथ ‘धड़धड़’ करती हुई नीचे चली आई. शिव उसे अपने मकान पर ले गया. वह वहां तरोताजा हो कर उस की मोटरसाइकिल पर लौट आई. जब मोटरसाइकिल स्कूल की बिल्डिंग के गेट पर रुकी, उसी समय स्कूल के प्रिंसिपल ने कमरे में कदम रखा. रमा एक नजर प्रिंसिपल पर डाल कर ऊपर जाने लगी. जातेजाते उस ने शिव से कहा, ‘‘10 बजे याद रखना…’’ फिर उस ने शरारत से कहा, ‘‘दिन के 10 बजे… रात के नहीं.’’

शिव चला गया, लेकिन प्रिंसिपल हरिमोहन के दिल पर मानो छुरियां चलने लगीं. वे इस लड़की को बहुत अच्छी तरह से जानते थे. रमा कोठारी उन्हीं के शहर की रहने वाली थी. कालेज के समय में भी हरिमोहन ने रमा को लुभाने की बहुत कोशिश की थी, पर कुछ हाथ न आया. शिव की पत्नी ने 10 बजे घर आने को कहा था, लेकिन 10 बजे रमा को ले कर वह बाजार जाएगा.

वह स्कूल में ही बैठा रहा. 10 बजे रमा सजधज कर शिव के साथ चली गई. बाजार पहुंचते ही शिव ने कहा, ‘‘पहले कुछ खा लेते हैं, क्योंकि बाद में आप के हाथ मेहंदी से भरे होंगे. फिर आप को पानी का गिलास पकड़ने में भी मेहंदी सूखने तक इंतजार करना होगा.’’

मेहंदी वाले ने कहा, ‘‘आप अभी मेहंदी लगवा लो. मेरी बुकिंग है.’’ रमा ने मेहंदी लगवा ली. रैस्टोरैंट में रमा शिव के पास बैठ गई. शिव ने अपने हाथ से उसे बर्गर खिलाया. वे दोनों एकदूसरे से सट कर बैठे थे. यह छुअन उन दोनों में एक राजभरी नजदीकी बढ़ाए जा रही थी.

रमा ने शिव के कंधे पर सिर टिका दिया. उस के होंठ लरज रहे थे, आंखें मुंदी हुई थीं. शिव ने उसे अपनी बांहों में ले कर चूम लिया. जब तक वे शादी वाली जगह पर लौटे, औरतें बैंडबाजे के साथ मंदिर जा चुकी थीं. रमा ने बनावटी गुस्से में कहा, ‘‘तुम ने मु झे लेट करा दिया. अब मैं भाभी को क्या कहूंगी?’’ ‘‘मैं तुम्हें मंदिर छोड़ दूंगा.’’ ‘‘इन कपड़ों में?’’ ‘‘बदल लो.’’

वे दोनों ऊपर आ गए. कमरे में उन दोनों के अलावा कोई नहीं था. ‘‘मेरे हाथों में तो मेहंदी लगी है. तुम इतना भी नहीं सम झते.’’ ‘‘मैं कुछ मदद करूं,’’ कह कर शिव ने रमा को अपनी बांहों में भर लिया. रमा बेसुध शिव की बांहों में लिपटी हुई थी.

कुछ ही पलों में तूफान आ कर चला गया था, लेकिन रमा को जो सुख मिला, वह पा कर निहाल हो गई. बैंडबाजे की आवाज करीब आने लगी, तो वे दोनों संभलने लगे. एक आटोरिकशा के आने की आवाज आई. सीढि़यों पर किसी के चढ़ने की भी आवाज आ रही थी. मेहमान आने लगे थे. इस के बाद शाम और रात भी आ गई, लेकिन शिव को रमा से मिलने का मौका नहीं मिला.

दूसरे दिन सुबह ही मेहमानों के आने के बाद तो सबकुछ शादी की हलचल में खो गया. डिनर पार्टी में बरात आने पर दोनोें ने एकदूसरे को देखा. एक बार तो रमा ने आ कर शिव की प्लेट में से गुलाबजामुन भी उठा लिया. उस के लिए यह मामूली बात थी, लेकिन यह देख कर प्रिंसिपल हरिमोहन के तनबदन में आग लग गई. रमा शादीशुदा थी और दूसरे दिन सुबह उस का पति गोविंद इंदौर से कार से आ पहुंचा. सब लोग उस की आवभगत में लग गए. रमा भी नखरे भूल कर पति के आगेपीछे घूमने लगी.

प्रिंसिपल हरिमोहन ने रमा को इस अंदाज में देखा. उन्हें बहुत हैरानी हुई. उसी समय शिव इठलाता हुआ आया. वह प्रिंसिपल हरिमोहन को अनदेखा करते हुए ऊपर चला गया. उन्हें उत्सुकता हुई कि अब क्या होगा? इस की कल्पना कर के उन्हें खुशी हुई. वे अपने दफ्तर में बैठ गए. अचानक हरिमोहन की नजर टेबल पर रखे कंप्यूटर मौनीटर पर गई, जो गलती से चालू रह गया था.

उन्होंने रिमोट चला कर देखा. ऊपर के सब कमरों में सीसीटीवी कैमरे लगे थे, जिन से यह पता लग जाता था कि कौन सी क्लास में क्या हो रहा है. स्कूल 3 दिन से बंद था. उन्होंने जिज्ञासावश कंप्यूटर चालू किया. सब कमरों में मर्दऔरत नजर आ रहे थे.

एक कमरे में रमा घूमतीफिरती दिखी. उन्हें उत्सुकता हुई. वे उसी कमरे का नजारा देखने लगे. रमा के साथ शिव आया, फिर दोनों की प्रेमलीला शुरू हुई. रासलीला के नजारे आते रहे. कुछ समय के लिए हरिमोहन अपने होश भूल गए, फिर उन्होंने वह नजारा सीडी में लोड कर लिया. शिव ने देखा कि गोविंद रमा को ले कर होटल चला गया.

उस की हिम्मत रमा और गोविंद से बात करने की नहीं हुई. उन्हें देख कर वह सकपकाया और चुपचाप स्कूल की छत पर चला गया. जब रमा और गोविंद कार में बैठ कर चले गए, तब वह हाथ मलता हुआ हारे हुए खिलाड़ी की तरह नीचे उतरने लगा. दफ्तर में बैठे हरिमोहन ने उसे बुला कर उस के जले पर नमक छिड़कने वाली बातें कीं, फिर तैश में आ कर वे बोले, ‘‘यह देखो तुम्हारी करतूत. स्कूल में तुम ने कैसी रासलीला रचाई है. तुम्हें शर्म नहीं आई कि तुम एक टीचर हो.’’

हरिमोहन ने सीडी दिखाई. शिव शर्म से सिर झुका कर खड़ा था. ‘‘मैं तुम्हें एक दिन भी स्कूल में नहीं रखूंगा. निकल जाओ यहां से. ’’ यह सुन कर शिव चला गया. हरिमोहन का गुस्सा ठंडा हुआ. उन का शैतानी दिमाग उधेड़बुन में लग गया. रमा ने अपने से उम्र में छोटे शिव के साथ कैसी रासलीला रची.

2 दिन में लट्टू की तरह उस के आगेपीछे नाचने लगी और पति के आते ही सतीसावित्री बन गई. हरिमोहन ने तय कर लिया कि उन्हें क्या करना है. वे गोविंद के पास गए और कहा,

‘‘मैं आप से आधा घंटे के लिए जरूरी बात करना चाहता हूं.’’ गोविंद ने हां की और हरिमोहन से मिलने स्कूल पहुंचा. हरिमोहन ने कहा, ‘‘मिस्टर गोविंद, आप की पत्नी के किसी पराए मर्द के साथ कैसे रिश्ते हैं, क्या आप जानते हैं? वह आप के साथ धोखा कर रही है.’’

पहले तो गोविंद यह सच मानने को तैयार ही नहीं था. उस ने कहा, ‘‘क्या आप ने मेरा समय बरबाद करने के लिए मु झे यहां बुलाया है?’’ ‘‘ठहरिए, मैं आप को दिखाता हूं,’’ कह कर हरिमोहन ने सीडी चलाई. गोविंद ने रमा को दूसरे मर्द के साथ देखा. उस के चेहरे का रंग बदलने लगा. सीडी दिखाने के बाद हरिमोहन ने कहा, ‘‘कहिए मिस्टर गोविंद, अब क्या बोलेंगे?’’

‘‘मु झे यह सीडी चाहिए. आप को कितनी रकम चाहिए?’’ ‘‘क्या यह नहीं जानना चाहोगे कि यह आदमी कौन है? यह इसी स्कूल का एक टीचर है. रमा से 6 साल छोटा है. यह सीडी इसी स्कूल में बनी है.’’ ‘‘आप ने बनाई है?’’ ‘‘इत्तिफाक से बन गई. हर क्लासरूम में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. इन दोनों को जरा भी होश नहीं था कि कैमरा चालू है. इन दोनों ने स्कूल में ही वासना का खेल खेला.’’

‘‘और इस सीडी से आप मु झे ब्लैकमेल कर रहे हैं?’’ ‘‘जो मौके का फायदा नहीं उठाते, मैं उन बेवकूफों में से नहीं. मु झे 2 लाख रुपए चाहिए.’’ ‘‘मु झे मंजूर है.’’ गोविंद ने 2 लाख रुपए दे कर सीडी ले ली और बोला, ‘‘मैं उम्मीद करता हूं कि अब आप इस बात का जिक्र किसी से नहीं करोगे.’’

‘‘मैं वादा करता हूं…’’ हरिमोहन ने कहा, ‘‘मैं एक बात पूछना चाहता हूं कि रमा ने आप के साथ धोखा किया है, तो आप उसे तलाक क्यों नहीं दे देते? अपनी इज्जत बचाने के लिए 2 लाख रुपए में सीडी ले ली. क्या आप इसे रमा को दिखाएंगे?’’ ‘‘यह बात जान कर वह शर्मिंदा होगी, दुखी होगी, जो मैं नहीं चाहता. इस सीडी को मैं लव चैनल को दूंगा, जो केवल होटल के डीलक्स कमरों में दिखाया जाता है. ‘‘मैं ने लाखों रुपए कमाने के लिए आप को 2 लाख रुपए दिए हैं.

मेरे लिए बेवफा बीवी कमाई का एक जरीया है, इस से ज्यादा कुछ नहीं.’’ प्रिंसिपल हरिमोहन गोविंद की बात सुन कर हैरान रह गए. वे सोचने लगे कि क्या ऊंचे लोग ऐसे भी होते हैं?

ईंट का जवाब पत्थर: गणेश ठेकेदार का लालच

सूरज हुआ अस्त और मजदूर हुआ मस्त. शाम के 6 बजते ही कारीगर, मजदूर और कुली का काम करने वाली मजदूरिनें अपने हाथपैर धोने लगीं. मजदूर तसला, बालटी व फावड़ा उठा कर समेटने लगे. मुंहलगी कुछ मजदूरिनें ठेकेदार की मोटरसाइकिल के आसपास मधुमक्खियों की तरह मंडराने लगीं.

गणेश ठेकेदार नखरे से भरी उन की अदाओं को देख रहा था और शिकायतभरी मनुहारों को सुन रहा था. गुरुवार के दिन स्थानीय बाजार लगने के चलते कारीगरों को मजदूरी मिलती थी, लेकिन जरूरत के मुताबिक मजदूर बाजार के दिन से पहले भी ठेकेदार से पैसे मांग लेते थे. कमला ठेकेदार से पैसे मांग रही थी और वह आनाकानी कर रहा था.

दूसरी कुली मजदूरिनें भी तकादा करने लगी थीं, लेकिन गणेश का ध्यान तो अपनी मोटरसाइकिल के शीशे पर था, जिस में उसे एक नई मजदूरिन का चेहरा दिखाई दे रहा था. बेला नाम की यह मजदूरिन 4-5 दिन से ही काम पर आ रही थी. सांवला रंग, तीखे नैननक्श और गदराई देह वाली बेला गणेश को गजब की हसीन लगी थी. गणेश का ठेका 3-4 जगहों पर चल रहा था, इसलिए वह शाम को ही इधर आया करता था.

जब उस ने पहली बार बेला को देखा, तो बरबस उस के मुंह से निकला था, ‘यह हीरा इस कोयले के ढेर में कहां से आया?’ गणेश ने एडवांस मांगने वालों को 50-50 रुपए दिए. कमला ने उस का नोटों से भरा बटुआ देखा, तो ललचाई नजरों से वह बोली, ‘‘बटुए में इतने रुपए भर रखे हैं और हमें 50 रुपए देने में भी बहाने करते हो.’’ ‘‘लेकिन मना तो नहीं करता कभी…’’

गणेश ने कहा, फिर बेला को सुनाने के लिए जोर से बोला, ‘‘अरे मुनीमजी, और किसी को एडवांस चाहिए क्या?’’ लेकिन बेला ने तो जैसे कुछ सुना ही नहीं था. तब गणेश ने उस की ओर देख कर कहा, ‘‘तु?ो चाहिए क्या 100-50 रुपए?’’

‘‘मैं तो परसों पूरे साढ़े 3 सौ रुपए लूंगी,’’ बेला ने दोटूक बात कही और तसला उठा कर चली गई. वह गणेश की ललचाई आंखों को भांप गई थी. बेला की कमर पर नाचती हुई चोटी को देख कर गणेश का मन हुआ कि वह मोटरसाइकिल से उतर कर भीतर जाए और उसे मसल कर रख दे, लेकिन वह डरता था, क्योंकि बेला हीरा की मंगेतर थी और हीरा उस का सब से भरोसे का व मेहनती मजदूर था.

हीरा जितना ईमानदार और स्वामीभक्त था, उतना ही निडर और स्वाभिमानी भी था. ऐसे भरोसे के आदमी को गणेश खोना नहीं चाहता था. रविवार के दिन बेला अपनी ?ाग्गी के बाहर ?ाड़ी की ओट में बैठी कपड़े धो रही थी. उधर गणेश भी किसी मजदूर से बात कर रहा था.

अनजान बेला ने नहाने के लिए एकएक कर के अपने कपड़े उतारे. भरपूर जवानी से गदराई उस की देह की एक ?ालक पा कर गणेश कामातुर हो गया. बेला की पीठ को देख कर वह अपने पर काबू नहीं रख सका. उस की रगों का खून गरमाने लगा. तभी पीछे से आ कर मुनीम बोला, ‘‘ठेकेदार, यह चिडि़या ऐसे हाथ नहीं आएगी.’’ ‘‘तब मुनीमजी, तुम्हीं कोई तरकीब बताओ.

तुम भी तो पुराने शिकारी हो,’’ गणेश मुनीम की चिरौरी करने लगा. मुनीम ने दूसरे दिन बेला की ड्यूटी नई कालोनी में लगा दी, जहां एक नए सैक्टर में कुछ मकान बन चुके थे, कुछ बन रहे थे. बेला को दीवारों पर पानी से छिड़काव करने के काम पर लगाया गया था. एकएक मकान पर छिड़काव करते हुए जब वह 5वें मकान पर पहुंची, तो वहां एक चारपाई पर ठेकेदार गणेश लेटा हुआ था.

उसे देख कर बेला सहम गई. बेला कुछ सम?ा पाती, उस से पहले ही गणेश बाज की तरह उस पर ?ापटा. गणेश ने बेला के मुंह को दबा कर उसे चारपाई पर डाल दिया. अपनी देह की आग को ठंडी कर के गणेश बेशर्मी से हंसने लगा और बेबस बेला अभी तक सहमी हुई थी.

वह तन और मन की पीड़ा से अभी छूट नहीं पाई थी. अपने कपड़े संभालते हुए उस की आंखों से आंसू बह निकले. उस की ओर सौ रुपए का नोट फेंक कर गणेश बोला, ‘‘रख लो मेरी जान, काम आएगा.’’ ठेकेदार गणेश की मुराद पूरी हो गई. वह बहुत खुश था. उस ने मुनीम को भी खुश हो कर 50 रुपए दिए. मुनीम ने कहा, ‘‘ठेकेदारजी, अगर बेला ने हीरा से कह दिया,

तो गजब हो जाएगा.’’ ‘‘अरे मुनीम, तू तो बेकार में डरता है. बेला उस से कुछ नहीं कहेगी. दिनभर सिर पर तसला ढोती है, तब कहीं 50 रुपए मिलते हैं. मैं ने तो उसे छूने के सौ रुपए दिए हैं. क्या बिगड़ा है उस का.’’ मुनीम ने कहा, ‘‘पर बेला और तरह की औरत है.’’

‘‘अरे, सब औरतें एकजैसी होती हैं,’’ गणेश ने लापरवाही से कहा. दूसरे दिन बेला काम पर आई, तो गणेश का बाकी शक भी जाता रहा. उस ने एकांत पा कर पूछा, ‘‘बेला, तू खुश तो है न?’’ बेला कुछ बोलने के बजाय मुसकरा कर रह गई. गणेश की बांछें खिल गईं.

उस ने बेला का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा, तो बेला बोली, ‘‘आज नहीं कल. मेरी बात का भरोसा रखो.’’ गणेश बहुत खुश हुआ. बेला जैसी सुंदरी अपनी इच्छा से कल का वादा कर रही थी. उस ने फिर जोरजबरदस्ती करना ठीक नहीं सम?ा.

कल के सुहाने सपने संजोए गणेश घर आया. उस की बीवी राधा खड़ी थी. उस की आंखें सूजी हुई थीं, जैसे वह काफी देर तक रोती रही हो. गणेश का माथा ठनका. उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘कुछ नहीं,’’ राधा का स्वर बु?ा हुआ था. ‘‘कोई बुरी खबर आई है क्या?’’ ‘‘नहीं, हीरा आया था.’’ हीरा का नाम सुनते ही ठेकेदार गणेश चौंक पड़ा. उस ने पूछा, ‘‘क्यों आया था?’’ ‘‘यह नोट और कंघा दे गया है.’’ ठेकेदार सहम गया. उस ने कहा, ‘‘अरे हां, यह कंघा गिर गया था. लेकिन यह नोट तुम्हारे पास कैसे आया?’’ उस की बीवी ने बताया, ‘‘तुम ने बेला को दिया था न?’’ ‘‘हां, उस ने मजदूरी के मांगे थे, पर हीरा तुम्हें क्यों दे गया?’’ ठेकेदार ने हैरानी से पूछा. कुछ देर राधा चुप रही, फिर बोली, ‘‘मु?ो भी वह मजदूरी दे गया.’’

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