राख अभी ठंडी नहीं हुई : जब लक्ष्मी की शादी किशन से हुई

लक्ष्मी के पति लक्ष्मण की चिता की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि वह अपने प्रेमी किशन के घर में बैठ गई. सारी जातबिरादरी में उस की थूथू हो रही थी. लक्ष्मी की गोद में अभी सालभर की बेटी थी. एक बूढ़ी सास थी. परिवार में और कोई नहीं था. वह अपनी बेटी को भी साथ ले गई थी.

दरअसल, लक्ष्मी और किशन के बीच इश्कबाजी बहुत पहले से चल रही थी. जब वह लक्ष्मण से ब्याह कर आई थी, उस के पहले से ही यह सब चल रहा था. वह लक्ष्मण से शादी नहीं करना चाहती थी. एक तो लक्ष्मण पैसे वाला नहीं था, दूसरे वह शादी किशन से करना चाहती थी. वह दलित था, मगर पंच था और उस ने काफी पैसा बना लिया था. मगर मांबाप के दबाव के चलते लक्ष्मी को लक्ष्मण, जो जाति से गूजर था, के साथ शादी करनी पड़ी.

लक्ष्मी तो शादी के बाद से ही किशन के घर बैठना चाहती थी, मगर समाज के चलते वह ऐसा नहीं कर पाई थी. पर उस ने किशन से मेलजोल बनाए रखा था.

शादी की शुरुआत में तो वे दोनों चोरीछिपे मिला करते थे. बिरादरी के लोगों ने उन को पकड़ भी लिया था, मगर लक्ष्मी ने इस की जरा भी परवाह नहीं की थी.

जब लक्ष्मी ज्यादा बदनाम हो गई, तब भी उस ने किशन को नहीं छोड़ा. लक्ष्मण लक्ष्मी का सात फेरे वाला पति जरूर था, मगर लोगों की निगाह में असली पति किशन था.

जब शादी के 5 साल तक लक्ष्मी के कोई औलाद नहीं हुई, तब लक्ष्मण को बस्ती व बिरादरी के लोगों ने नामर्द मान लिया था. शादी के 6 साल बाद जब लक्ष्मी ने एक लड़की को जन्म दिया, तब समाज वालों ने इसे किशन की औलाद ही बताया था.

फिर भी लक्ष्मी लक्ष्मण की परवाह नहीं करती थी, इसलिए दोनों में आएदिन झड़पें होती रहती थीं. अब तो किशन भी उन के घर खुलेआम आनेजाने लगा था.

लक्ष्मण कुछ ज्यादा कहता, तब लक्ष्मी भी कहती थी, ‘‘ज्यादा मर्दपना मत दिखा, नहीं तो मैं किशन के घर बैठ जाऊंगी. तू मुझे ब्याह कर के ले तो आया हैं, मगर दिया क्या है आज तक? कभीकभी तो मैं एकएक चीज के लिए तरस जाती हूं. किशन कम से कम मेरी मांगी हुई चीजें ला कर तो देता है. तू भी मेरी हर मांग पूरी कर दिया कर. फिर मैं किशन को छोड़ दूंगी.’’

यहीं पर लक्ष्मण कमजोर पड़ जाता. बड़ी मुश्किल से मेहनतमजदूरी कर के वह परिवार का पेट भरता था. ऐसे में उस की मांग कहां से पूरी करे. स्त्रीहठ के आगे वह हार जाता था. अंदर ही अंदर वह कुढ़ता रहता था मगर लक्ष्मी से कुछ नहीं कहता था. मुंहफट औरत जो थी. उस की जरूरतें वह कहां से पूरी कर पाता, इसलिए किशन उस के घर में घंटों बैठा रहता था.

रहा सवाल लक्ष्मी की सास का, तो वह भी नहीं चाहती थी कि किशन उस के घर में आए.

एक दिन उस की सास ने कह भी दिया था, ‘‘बहू, पराए मर्द के साथ हंसहंस कर बातें करना, घर में घंटों बिठा कर रखना एक शादीशुदा औरत को शोभा नहीं देता है.’’

सास का इतना कहना था कि लक्ष्मी आगबबूला हो गई और बोली, ‘‘बुढि़या, ज्यादा उपदेश मत ?ाड़. चुपचाप पड़ी रह. तेरा बेटा जब मेरी मांगें पूरी नहीं कर सकता है, तब क्यों की तू ने उस के साथ मेरी शादी? अगर तेरा बेटा मेरी मांगें पूरी कर दे, तब मैं छोड़ दूंगी उसे.

‘‘एक तो मैं तेरे बेटे के साथ फेरे नहीं लेना चाहती थी, मगर मेरे मातापिता ने दबाव डाल कर तेरे बेटे से फेरे करवा दिए. अब चुपचाप घर में बैठी रह. अपनी गजभर की जबान मत चलाना, वरना मैं किशन के घर में बैठने में जरा भी देर नहीं करूंगी.’’

उस दिन लक्ष्मी ने अपनी सास को ऐसी कड़वी दवा पिलाई कि वह फिर कुछ न बोल सकी.

किशन अब बेझिझिक लक्ष्मी के घर आने लगा. लक्ष्मी की हर मांग वह पूरी करता रहा. वह बनसंवर कर रहने लगी. कभीकभी वह किशन के साथ मेला और बाजार भी जाने लगी.

शुरूशुरू में तो बस्ती वालों ने भी उन पर खूब उंगलियां उठाईं, पर बाद में वे भी ठंडे पड़ गए. बस्ती वाले अब कहते थे कि लक्ष्मी के एक नहीं, बल्कि 2-2 पति हैं. फेरे वाला असली पति और बिना फेरे वाला दूसरा पति, मगर बिना फेरे वाला ही उस का असली पति बना हुआ था.

इस तरह दिन बीत रहे थे. जब शादी के 5 साल बाद लक्ष्मी पेट से हुई तब उस का बां?ापन तो दूर हुआ, मगर एक कलंक भी लग गया. लक्ष्मी के पेट में जो बच्चा पल रहा था, वह लक्ष्मण का नहीं, किशन का था. मगर लक्ष्मी जानती थी कि वह बच्चा लक्ष्मण का ही है.

बस्ती वालों ने एक यही रट पकड़ रखी थी कि यह बच्चा किशन का ही है, मगर जहर का यह घूंट उसे पीना था. बस्ती वाले कुछ भी कहें, मगर सास को खेलने के लिए खिलौना मिल गया, लक्ष्मण पिता बन गया और नामर्दी से उस का पीछा छूट गया.

बस्ती वाले और रिश्तेदार सब लक्ष्मण को ही कोसते कि तू कैसा मर्द है, जो अपनी जोरू को किशन के पास जाने से रोक नहीं सकता. घर में आ कर किशन तेरी जोरू पर डोरे डाल रहा है, फिर भी तू नामर्द बना हुआ है. निकाल क्यों नहीं देता उसे. लक्ष्मण को तू अपनी लुगाई का खसम नहीं लगता है, बल्कि तेरी जोरू का खसम किशन लगता है.

लक्ष्मण इस तरह के न जाने कितने लांछन बस्ती वालों और रिश्तेदारों के मुंह से सुनता था. मगर वह एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता, क्योंकि लक्ष्मी किसी का कहना नहीं मानती थी.

कई महीनों से एक पुल बन रहा था. वहां लक्ष्मण भी मजदूरी कर रहा था. मगर अचानक एक दिन पुल का एक हिस्सा गिर गया. 6 मजदूर उस में दब गए. उन में लक्ष्मण भी था. हाहाकार

मच गया. पुलिस तत्काल वहां आ गई. पत्रकार उस पुल की क्वालिटी पर सवाल उठा कर ठेकेदार को घेरने लगे और फिर गुस्साई भीड़ वहां जमा हो गई.

पुल का टूटा मलबा उठाया गया. उन 6 लाशों का पुलिस ने पोस्टमार्टम कराया और उन के परिवारों को लाशें सौंप दीं.

जब लक्ष्मण की लाश उस की ?ोंपड़ी में लाई गई, तब उस की मां पछाड़ें मार कर रोने लगी. लक्ष्मी लाश पर रोई जरूर, मगर केवल ऊपरी मन से. लोकलाज के लिए उस की आंखों में आंसू जरूर थे, मगर वह अब खुद को आजाद मान रही थी.

समाज की निगाहों में लक्ष्मी विधवा जरूर हो गई थी, मगर वह अपने को विधवा कहां मान रही थी. पति नाम का जो सामाजिक खूंटा था, उस से वह छुटकारा पा गई थी.

लक्ष्मण तो मिट्टी में समा गया, मगर समाज के रीतिरिवाज के मुताबिक तेरहवीं की रस्म भी निकली थी. समाज के लोग जमा हुए. रसोई क्याक्या बनाई जाए. मिठाई कौन सी बनाई जाए, यह सब लक्ष्मण की मां से पूछा गया, तब उस ने अपनी बहू से पूछा, ‘‘बहू, कितना पैसा है तेरे पास.’’

मुंहफट लक्ष्मी बोली, ‘‘तुम तो ऐसे पूछ रही हो सासू मां जैसे तुम्हारा बेटा मुझे कारू का खजाना दे गया है.’’

‘‘तेरा क्या मतलब है?’’ सास जरा तीखी आवाज में बोली.

‘‘मतलब यह है सासू मां, मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है.’’

‘‘मगर, रस्में तो पूरी करनी पड़ेंगी.’’

‘‘तुम करो, वह तुम्हारा बेटा था,’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया.

‘‘जैसे तेरा कुछ भी नहीं लगता था वह?’’ सवाल करते हुए सास बोली, ‘‘करना तो पड़ेगा. बिरादरी में नाक कटवानी है क्या?’’

‘‘देखो अम्मां, तुम जानो और तुम्हारा काम जाने. मैं ने पहले ही कह दिया है कि मेरे पास देने को फूटी कौड़ी नहीं है,’’ इनकार करते हुए लक्ष्मी बोली.

‘‘ऐसे इनकार करने से काम कैसे चलेगा. तेरहवीं तो करनी पड़ेगी. चाहे तू इस के लिए अपने गहने बेच दे,’’ सास बोली.

‘‘मैं गहने क्यों बेचूं, बेटा आप का भी था. आप अपने गहने बेच कर बेटे की तेरहवीं कर दीजिए,’’ उलटे गले पड़ते हुए लक्ष्मी बोली.

सासबहू के बीच लड़ाई सी छिड़ गई. दोनों इसी बात पर अड़ी रहीं. बिरादरी वालों ने देखा, दोनों जानीदुश्मन की तरह अपनीअपनी बात पर अड़ी हुई थीं. लोगों के समझाने का कोई असर

भी नहीं पड़ रहा है, तब वे ‘तुम दोनों मिल कर फैसला कर लेना’ कह कर चले गए.

सास ने कभी अपनी बहू के सामने मुंह नहीं खोला. लक्ष्मी भी कम नहीं पड़ी. एक का बेटा था, तो दूसरे का पति, मगर किसी को लक्ष्मण के मरने का गम नहीं था. तब लक्ष्मी ने एक फैसला लिया. कुछ कपड़े बैग में रखे, साथ में गहने भी और अपनी बच्ची को उठा कर वह बोली, ‘‘अम्मांजी, मैं जा रही हूं.’’

‘‘कहां जा रही है?’’ सास ने जरा गुस्से से पूछा.

‘‘मैं किशन के घर में बैठ रही हूं. आज से मेरा वही सबकुछ है.’’

‘‘बेहया, बेशरम, इतनी भी शर्म नहीं है, अपने खसम की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई और तू किशन के घर बैठने जा रही है. बिरादरी वाले क्या कहेंगे?’’ सास गुस्से से उबल पड़ी थी. आगे फिर उसी गुस्से से बोली, ‘‘जब से इस घर में आई है, न बेटे को सुख से जीने दिया और न मुझे. न जाने किस जनम का बैर निकाल रही?है मुझ से…’’

सास का बड़बड़ाना जारी था. मगर लक्ष्मी को न रुकना था, न वह रुकी. चुपचाप झोंपड़ी से वह बाहर चली गई. सारी बस्ती ने उसे जाते देखा, मगर कोई कुछ भी नहीं बोला.

क्रेजी कल्चर : टीचर की अनकहीं कहानी

इंदौर की एक सरकारी कालोनी के पास वाला मैदान. शाम का समय. एक घने पेड़ के नीचे बैठे हुए बाबा.तभी ‘बचाओबचाओ’ की आवाज आने लगी. एक पेड़ के नीचे ट्यूशन पढ़ते हुए बच्चे और टीचर घबरा गए. बाबा भी घबरा गए. उन्होंने लड़खड़ाते हुए कुरसी से उठने की कोशिश की, तो हड़बड़ा कर गिर गए. बाबा का एक पैर घुटनों के नीचे से कटा जो हुआ था.देखा तो सामने से एक लड़की जलती हुई ‘बचाओबचाओ’ की आवाज लगाते हुए मैदान में यहांवहां भाग रही थी.

खुले मैदान में चलती तेज हवा ने उस आग को भड़का दिया था.मैदान में बचाव का कोई साधन नहीं था. बाबा जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘‘कोई मेरी बैसाखी लाओ रे…

’’टीचर वहीं पास में खड़े थे. उन्होंने बाबा को बैसाखी पकड़ाई. इसी बीच बाबा चिल्लाने लगे, ‘‘कोई मेरी बेटी को बचाओ… बेटी आशु… मेरी बेटी आशु…’’

और वे बैसाखी के सहारे बदहवास से इधरउधर भागने लगे.तभी मैदान के किनारे बने पुलिस थाने से कुछ लोग दौड़ते हुए आए, तब तक आशु जमीन पर गिर चुकी थी.

किसी पुलिस वाले ने उस पर कंबल डाल कर आग बुझाने की कोशिश की…लंबी सुरंग… घुप अंधेरा… मां की हंसी की आवाज… रोने की आवाज… ‘मेरी आशु’… मां की आवाज फिर गूंज रही थी… ‘अगर हम से कोई भूल हुई है और हम उसे बताते नहीं हैं, अगर सुधारते नहीं हैं, तो यह उस से भी बड़ी भूल है…‘ईशा… तुम ऐसी भूल कभी मत करना बेटी. ईशा… सुनो बेटी, मेरी बेटी ईशा…’‘मां…’ मां अचानक उस के नजदीक आईं, फिर एकदम से दूर होती चली गईं.

तभी बाबा की बैसाखी की ‘ठकठक’ नजदीक आती गई. ‘ठकठक’ बढ़ने लगी… और बढ़ने लगी. इतनी बढ़ने लगी कि उस के दिमाग में उस की आवाज गूंजने लगी.‘‘बाबा…’’ ईशा चिल्लाई… चारों तरफ घुप अंधेरा.‘‘मां…’’ ईशा जोर से चिल्लाई.‘‘क्या हुआ ईशा?’’

ईशा की नींद खुल गई. वह पूरी तरह पसीने से भीगी हुई थी. सांसें तेजतेज चल रही थीं. सामने देखा तो बाबा कुरसी पर बैठे थे. उन की बैसाखी पास ही दीवार के सहारे रखी थी. मां ईशा का सिर अपनी गोद में ले कर बैठी थीं. मां घबरा गईं और पूछा, ‘‘क्या हुआ ईशा?

कोई बुरा सपना देखा था क्या, जो डर गई हो?’’ईशा ने देखा कि सुबह के 7 बज रहे थे. मतलब, रात को सपने में वही देख रही थी… आशु को.‘‘मां… मां…’’

कहते हुए ईशा ने मां को कस कर पकड़ लिया और जोरजोर से रोने लगी.मां ने उसे रोने दिया. जब रो कर मन थोड़ा हलका हुआ तो ईशा बोली, ‘‘मां, मैं आशु को नहीं भूल पाती हूं. आज भी रात को मुझे सपने में वह सब दिखा… जलती हुई आशु…’’ ईशा बोली.‘‘ईशा, आशु तेरी बहन थी. हम उसे कैसे भूल सकते हैं… मेरी बेटी थी, तेरी बड़ी बहन थी. उस का दर्द,

उस की तकलीफ हम सब ने अपनी आंखों से देखी है… बाबा को देखो, कैसे हिम्मत से काम लिया उन्होंने. बाबा तो वहीं थे मैदान में.’’तभी ईशा का बड़ा भाई गजेंद्र चाय ले कर आ गया. प्यार से सब उसे गज्जू कहते थे.‘‘नहीं भैया, अभी चाय का मूड नहीं है,’’ ईशा बोली.‘‘चाय पी लोगी, तो मन अच्छा रहेगा. थकीथकी लग रही हो, फ्रैश हो जाओगी,’’ कह कर गज्जू ने चाय का कप ईशा को पकड़ा दिया. ईशा चाय पीने लगी.‘‘ईशा, आज कालेज जाओगी न?

अगर घर पर रैस्ट करने का मूड हो तो रैस्ट करो,’’ मां ने कहा.‘‘जाऊंगी मां…’’ ईशा ने चाय खत्म कर ली थी, ‘‘आज ऐक्स्ट्रा क्लास भी है.’’‘‘तो ठीक है, तू नहा कर तैयार हो जा. मैं तेरे लिए नाश्ता बनाती हूं,’’ कह कर मां किचन में चली गईं.ईशा के गजेंद्र भैया उर्फ गज्जू पुलिस में थे.

नजदीकी थाने में उन की पोस्टिंग थी. वे तैयार हो कर वहां के लिए निकल गए थे.ईशा के बाबा भी पुलिस में थे, पर एक हादसे में एक पैर कटने से उन की नौकरी नहीं रही थी. प्रशासन ने उन के बेटे को पुलिस में नौकरी दे दी थी, इसलिए जो सरकारी मकान बाबा के नाम अलौट था,

वह अब गज्जू के नाम हो गया था.नाश्ता कर के ईशा अपनी सरकारी कालोनी पार कर सड़क पर आटोरिकशा का इंतजार कर रही थी. तकरीबन 18 साल की ईशा देखने में खूबसूरत थी. कदकाठी भी अच्छी थी. रंग गेहुंआ था और उस की मुसकान बड़ी प्यारी थी.

ईशा में एक और बात खास थी, जो उस की खूबसूरती में चार चांद लगाती थी और वह थी उस की घुटनों तक लंबी चोटी. ईशा के बाल बड़े ही काले और घने थे..

ईशा उन का बड़ा ध्यान रखती थी. उसे जींसटीशर्ट पहनना कम पसंद था, जबकि सूटसलवार चाहे रोज पहनवा लो.ईशा जावरा कंपाउंड के देवी अहिल्या गर्ल्स कालेज में पढ़ती थी. कालेज में उस की सहेली मारिया उस का इंतजार का रही थी. वे दोनों बीएससी की पढ़ाई कर रही थीं.लैक्चर खत्म होने के बाद ईशा मारिया के साथ कालेज के गार्डन मे आ गई.

‘‘चल ईशा, कैंटीन में कुछ खाते हैं…’’ मारिया बोली.‘‘नहीं यार, मैं घर से नाश्ता कर के आई हूं. पेट में बिलकुल भी जगह नहीं है,’’ ईशा बोली.‘‘तेरी मां वक्त की बड़ी पाबंद हैं… रोज टाइम पर नाश्ता,’’ मारिया ने कहा.‘‘मां मेरा बहुत ध्यान रखती हैं.’’

‘‘अच्छा, चाय तो पी सकती है न मेरा साथ देने के लिए?’’ मारिया ने पूछा.‘‘ठीक है, चाय पी लेंगे,’’ ईशा ने कहा और मारिया के साथ कालेज की कैंटीन में आ गई. 2 चाय और एक सैंडविच का टोकन ले कर मारिया काउंटर पर पहुंची. और्डर आने पर ईशा ने उस के हाथ से चाय का गिलास ले लिया.ईशा चाय पीने में बिजी हो गई और मारिया सैंडविच खाने में.

थोड़ी देर बाद मारिया बोली, ‘‘यार ईशा, एक बात पूछूं, अगर बुरा नहीं मानेगी तो?’’‘‘बुरा क्यों मानूंगी…’’ ईशा ने चाय का घूंट भरते हुए कहा.‘‘तेरे घर में सब इतना ध्यान रखते हैं तेरा, पर मेरे घर वालों को फुरसत ही नहीं है. मम्मी किटी पार्टियों में ज्यादा बिजी रहती हैं और डैड अकसर टूर पर.

घर का नाश्ता मिले तो महीनों बीत जाते हैं. नौकरों के हाथ का नाश्ता खाखा कर बोर हो जाती हूं…’’‘‘तू पूछ रही है या बता रही है?’’ ईशा ने टोका.‘‘मेरा मतलब यह था कि तेरे घर वाले इतने अच्छे हैं, फिर तेरी बहन आशु ने सुसाइड क्यों किया था? क्या प्रौब्लम थी? लोग बातें बनाते हैं…’’‘‘देख मारिया, इस टौपिक पर बात मत कर… मुझे पसंद नहीं…’’ कहते हुए ईशा चिढ़ गई.‘‘नहीं यार, तू मेरी फ्रैंड है, इसलिए सोचा कि सीधे तेरे से ही पूछ लूं. इधरउधर की बातों से बेहतर है,’’ मारिया थोड़ी सहम गई.ईशा ने कुछ नहीं कहा और कैंटीन से उठ कर कालेज के मैदान में एक पेड़ के नीचे रखी बैंच पर जा कर बैठ गई.

मारिया ने उस के जख्मों को कुरेदना ठीक नहीं समझा और वह वहीं रह गई.ईशा को आशु के साथ बिताए पल याद आने लगे. फास्ट फूड की तरह आशु ने अपनी जिंदगी को भी फास्ट फूड जैसा बना लिया था. उसे हर बात में जल्दी होती है. उसे हर चीज तुरंत चाहिए होती थी.

सीढ़ी दर सीढ़ी मिली कामयाबी में उसे यकीन नहीं था. पर चूंकि वह एक मिडिल क्लास परिवार की थी, तो सब से बड़ी कमी पैसे की थी.कालेज में अमीर घरों की लड़कियों को कार से आतेजाते देख कर आशु को अपनी किस्मत पर बहुत गुस्सा आता था.

उसे महंगे रेश्मी कपड़े पहनना और महंगे ब्यूटी पार्लर में जाना पसंद था. इन खर्चों को पूरा करने के लिए उस ने सेल्स गर्ल का काम चुन लिया था, वह भी घर पर बताए बिना.एक दिन आशु अपने प्रोडक्ट ले कर एक घर में गई. एक अधेड़ आदमी ने बाहर आ कर पूछा,

‘‘बोलो बेबी, क्या काम है?’’‘‘जी अंकल, मेरे पास किचन में काम आने वाले कुछ प्रोडक्ट हैं… आप देखिए न प्लीज और आंटीजी को भी दिखाइए,’’ आशु ने कहा.‘‘आओ… अंदर आ जाओ…’’ वह अधेड़ बोला, ‘‘अरे, सुनती हो…’’ जैसे उस ने अपनी पत्नी को आवाज लगाई हो.आशु ने जैसे ही घर के ड्राइंगरूम के अंदर कदम रखा, उस आदमी ने दरवाजा बंद कर दिया… आशु घबरा गई और वहां से जाने को हुई कि तभी वह आदमी बोला, ‘‘कहां जा रही हो, प्रोडक्ट तो दिखाओ…’’जब अंदर से उस आदमी की पत्नी वहां आई, तो आशु की जान में जान आई और वह तुरंत सोफे पर बैठ गई.तभी वह आदमी भी आशु के पास सोफे पर आ कर बैठ गया और उस ने आशु के गले में अपनी बांहें डाल दीं.

‘‘अंकल, यह क्या कर रहे हैं आप?’’ आशु एकदम से उठने की कोशिश करने लगी.‘‘बैठी रहो चुपचाप…’’ उस आदमी की पत्नी चिल्लाई. तब तक अंकल ने आशु को जकड़ कर उस पर चुम्मों की बरसात कर दी थी. वे बहुत देर तक आशु के शरीर को यहांवहां टटोलते रहे और आंटी अपने मोबाइल फोन से फोटो खींचती रहीं.‘‘चलो, उठो अब यहां से,’’

आंटी आशु से बोलीं.आशु तुरंत उठ गई.‘‘रुको… प्रोडक्ट कितने के हुए?’’ अंकल ने पूछा.घबराई आशु ने धीरे से कहा, ‘‘2,000 रुपए के.’’‘‘ये लो 5,000 पकड़ो… 2,000 तुम्हारे प्रोडक्ट के, 3,000 तुम्हारी टिप… जो चुम्मे दिए अंकल को…’’ आंटी बोलीं, ‘‘क्योंकि ये चुम्मा लेने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते… नामर्द हैं… उम्र हो गई है… ठीक है न…’’

कह कर आंटी ने ‘भड़ाक’ से दरवाजा बंद कर दिया.आशु सोचती रह गई, पर जब वह वापस घर पहुंची तो बड़ी खुश थी. उस के पास 3,000 रुपए जो थे.

उसे याद आया कि कालेज में एक रईसजादा उस पर लाइन मारता है, पर वह उसे भाव नहीं देती है. अगर वह चुम्मे के बदले उस से पैसे वसूले तो… यह सब सोचते हुए आशु को रात को नींद नहीं आई.

उस ने फैसला किया कि पैसे की कमी में वह उन अंकल के पास भी कभीकभी चली जाएगी, लेकिन कल उस कार वाले रईसजादे से ‘हैलो’ से शुरुआत की जाए.

अगले दिन जब आशु कालेज से बाहर निकली तो कार वाला लड़का गेट के बाहर खड़ा था. आशु ने उसे देख कर एक मुसकराहट उछाली. कार वाला लड़का उस के पास पहुंचा और हाथ आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘‘हैलो, मैं नीरज…’’‘‘और मैं आशु,’’ कह कर उस ने भी अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.नीरज ने कहा, ‘‘अगर फ्री हो, तो कहीं चल कर कौफी पी जाए?’’

आशु ने ‘हां’ कर दी, तो नीरज ने कार का दरवाजा खोला. आशु ने कार के अंदर बैठ कर खुद को राजकुमारी सा महसूस किया. वह पहली बार किसी लड़के के साथ कार में बैठी थी.कौफी पीने के दौरान नीरज ने बताया कि उस के पापा के कई पैट्रोल पंप हैं और वह एकलौता लड़का है. उस ने यह भी बताया कि वह गुजराती साइंस ऐंड कौमर्स कालेज का स्टूडैंट है.

आशु बड़ी प्रभावित हुई. नीरज ने आशु को पहला गिफ्ट एक मोबाइल फोन दिया. कुछ महीने तक मिलनेमिलाने का सिलसिला चलता रहा.

कभीकभी कार चलाते चलाते सूने रास्तों पर नीरज ने उस के कई बार चुम्मे लिए थे.आशु ने अपने घर पर बताया था कि दोनों बहनों ने बचत कर के यह मोबाइल फोन खरीदा था. इस तरह से ईशा भी उस का राज जान गई थी.एक दिन नीरज आशु को अपने घर ले गया.

उस समय वहां कोई नहीं था. उस ने आशु के लिए एक नाइटी खरीदी थी. पहले तो आशु झिझकी, पर नीरज की अमीरी उस पर हावी थी. वह जैसे ही नाइटी पहन कर बैडरूम में गई, नीरज ने मौके का फायदा उठा कर आशु की इज्जत तारतार कर दी.नीरज ने अपनी हवस का वीडियो बनाया और बोला, ‘‘मेरी जान, हमारे प्यार की याद अमर बनाने के लिए यह वीडियो जरूरी है.

तुम डिजिटल लड़की हो…’’ इस के बाद नीरज के साथसाथ उस के कई दोस्तों ने आशु को अपनी हवस का शिकार बनाया.इधर ईशा को आशु पर शक होने लगा कि वह कुछ गलत कर रही है, क्योंकि रात में जब आशु कपड़े चेंज कर के नाइटी डाल कर बिस्तर पर आती थी, तो उस के गले, पीठ और छाती पर काटने के लाल निशान दिखते थे. धीरेधीरे ईशा को आशु के क्रेजी होने पर नफरत सी होने लगी.एक दिन ऐसा आया कि अचानक आशु ने खुदकुशी कर ली.

सरकारी कालोनी में बाथरूम घर में नहीं बने हो कर, घर के बाहर बने थे. आशु ने बाथरूम में जा कर कैरोसिन छिड़क कर खुद को आग के हवाले कर लिया था… जब सहन नहीं हुआ तो वह बाहर चिल्लाती हुई मैदान में भागने लगी, पर उस की जान नहीं बच पाई.

तभी अचानक ईशा अपनी यादों से बाहर निकल आई. वह पसीने से तरबतर थी. वह तेजी से कालेज से बाहर भागी और सड़क पर आटोरिकशा का इंतजार करने लगी.जब तक ईशा घर पहुंची, तब तक उस का बदन तपने लगा था. वह सीधी अपने बिस्तर में जा घुसी.

‘‘यह कौन सा समय है सोने का…’’ कहते हुए मां ने ईशा के चेहरे से कंबल हटाया, ‘‘चल उठ ईशा, चाय पी ले.’’ईशा ने कोई जवाब नहीं दिया.मां ने जैसे ही ईशा के माथे पर हाथ रखा, तो वे घबरा गईं और तुरंत ही गज्जू को आवाज लगाई. गज्जू और बाबा दोनों कमरे में आ गए.घर से कुछ ही दूर एक क्लिनिक था. गज्जू ईशा को वहीं ले गया. कुछ मैडिसिन ले कर ईशा गज्जू के साथ वापस आ गई.दवा लेने के बाद भी ईशा का बुखार कम नहीं हो रहा था.

आखिर में किसी ने मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह दी और कहा कि शायद ईशा पर किसी घटना का बुरा असर पड़ा है और वह उस बात को भुला नहीं पा रही है.मां बड़ी मुश्किल से राजी हुईं. शहर के मशहूर मनोचिकित्सक डाक्टर रमन जैन के पास ईशा को ले जाया गया.

डाक्टर रमन जैन ने ईशा के बारे में नौर्मल जानकारी ली और ईशा के लंबे बालों की जम कर तारीफ की. उन्होंने ईशा से कहा, ‘‘मेरी बेटी ने तो मौडर्न बनने के चक्कर में अपने बालों को छोटा करवा दिया है. कुछ टिप्स मेरी बेटी को भी देना, ताकि उस के बाल भी लंबे और खूबसूरत हो जाएं.’’

‘‘जी डाक्टर साहब,’’ इतनी देर से चुपचाप ईशा के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गई.‘‘अगली मुलाकात में अपनी बेटी से तुम्हारी बात करवाऊंगा,’’ डाक्टर रमन जैन बोले.जब ईशा घर पहुंची, तो उसे हलकापन महसूस हो रहा था. मां प्यार से उस का सिर सहलाने लगीं. रात को खाना खाने के बाद ईशा ने दवा ली और सो गई. उसे सपने में आशु नहीं दिखी, क्योंकि उस ने नींद आने की दवा भी खाई थी. यह सिलसिला 10 दिनों तक चलता रहा. पूरा परिवार ईशा की देखभाल करता रहा. उसे अकेला नहीं छोड़ा गया.

आज 11वें दिन फिर डाक्टर के पास जाना था.‘‘आज पता है ईशा क्या हुआ?’’ डाक्टर रमन जैन ने कहा.‘‘क्या हुआ…’’ ईशा ने पूछा.‘‘जब मैं क्लिनिक आ रहा था, तब एक डौगी मेरी गाड़ी के नीचे आतेआते बचा…’’ डाक्टर रमन जैन बोले.‘‘ओह…’’ ईशा के मुंह से निकला.

‘‘वह भूखा और कमजोर लग रहा था. मैं ने गाड़ी रोक कर उसे चाय की गुमटी से दूधब्रैड खिलाया…’’‘‘बेचारा…’’ ईशा बोली.‘‘उस को कहीं चोट भी लगी थी… पैर के पास ऊपर,’’ डाक्टर रमन जैन बोले, ‘‘लेकिन, उस का मुंह घाव तक जा सकता था, इसलिए वह चाटचाट कर उसे ठीक कर लेगा.’’‘‘कितने परेशान हो जाते हैं डौगी बेचारे…’’

ईशा के मुंह से निकला.‘‘बिलकुल. लेकिन, वे सुसाइड नहीं करते,’’ डाक्टर रमन जैन ने बात बदली.‘‘मतलब…?’’ ईशा चौंक गई.‘‘मतलब यह कि बहुत से जानवर गाड़ी के नीचे आ कर हाईवे पर कुचले जाते हैं, पर क्या कभी खुद जानवर किसी गाड़ी के नीचे जाते हैं मरने के लिए?’’ डाक्टर रमन जैन ने पूछा.‘‘नहीं, कभी नहीं,’’ ईशा बोली.भैया और मां चुपचाप देख रहे थे.‘‘तो क्या हम जानवरों से भी गएगुजरे हैं, जो संघर्ष को छोड़ कर मौत को गले लगा लें?’’

डाक्टर रमन जैन ने पूछा.‘‘पर, वह आशु…’’ ईशा की आंखों में आंसू भरने लगे.‘‘वह संघर्ष नहीं कर पाई अपने विचारों से और गलत राह पर चलने लगी. अगर किसी टैंशन में रहने लगी थी तो मातापिता से शेयर करती. समाधान जरूर मिलता,’’ डाक्टर रमन जैन ने कहा.‘‘लेकिन, सुखसुविधाओं की उम्मीद करना क्या बुरी बात है?’’ ईशा ने पूछा.‘‘कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन आशु का तरीका गलत था. जितने भी महान लोग हुए हैं, उन सब ने संघर्ष किया है. अच्छा यह बताओ कि जब से तुम बीमार हुई हो, परिवार ने कोई कमी की देखभाल करने में? मां के प्यार में कमी लगी? भैया ने कमी की?’’ डाक्टर रमन जैन ने पूछा.

‘‘नहींनहीं, सब प्यार करते हैं मुझे,’’ कह कर ईशा रोने लगी. मां उठने ही वाली थीं कि डाक्टर ने इशारे से मना कर दिया.थोड़ी देर के बाद डाक्टर रमन जैन फिर बोले, ‘‘कई बच्चे ऐसे भी होते हैं, जिन के जीवन में मातापिता का साया ही नहीं रहता. तुम्हारे साथ ऐसा नहीं है ईशा…

तुम्हारी कालेज की फीस, तुम्हारे दूसरे खर्चों में कोई कमी…?’’‘‘भैया ध्यान रखते हैं मेरा,’’ ईशा बोली.‘‘तो बेटा, परिवार का हक पहले है तुम पर. जिंदगी अनमोल है

. क्या हमारा शरीर आत्महत्या करने के लिए है?’’ डाक्टर रमन जैन ने पूछा.‘‘जी नहीं, बात तो ठीक है आप की,’’ ईशा बोली.‘‘सुधा चंद्रन, तसलीमा नसरीन, महाश्वेता देवी… सभी की जिंदगी में उतारचढ़ाव आए, पर इन्होंने संघर्ष का रास्ता अपनाया,’’ डाक्टर रमन जैन ने आगे बात बढ़ाई.‘‘पढ़ाई के अलावा ऐसा क्या करूं, जिस से मुझे सुकून मिले?’’ ईशा ने पूछा.‘‘तुम्हारी हौबी क्याक्या हैं?’’ डाक्टर रमन जैन ने पूछा.‘‘मतलब…?’’

ईशा बोली.‘‘तुम्हारे बाल खूबसूरत हैं. इन्हें हैल्दी रखने के टिप्स के वीडियो बनाओ और सोशल मीडिया पर अपलोड करो. पैसा भी मिल सकता है आगे जा कर…’’‘‘क्यों नहीं..’’ भैया बोले, ‘‘अब तुम्हारा गिफ्ट नया मोबाइल इंतजार कर रहा है घर पर…’’ यह सुन कर मां भी मुसकराईं.‘‘खूबसूरत बालों के टिप्स सब से पहले मैं सीखूंगी,’’ अंदर से आवाज आई और परदा हटा कर एक मौडर्न लड़की दाखिल हुई.‘‘मेरी बेटी… तुम्हारी पहली कस्टमर,’’ डाक्टर रमन जैन बोले.ईशा मुसकराने लगी. उस की जिंदगी से अंधेरा दूर हो रहा था और उम्मीदों की किरण जगमगाने लगी थी.

संस्कारी बहू : रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा की अय्याशी

पूर्णिमा को लोग रोज दुत्कारते थे. कोई भी उसे अपने दरवाजे पर नहीं ठहरने देता था. फिर भी वह जैसेतैसे इन झोंपडि़यों की बस्ती में एक कोने में जिंदा थी.

एक एनजीओ में काम करने की वजह से वह मेरी नजर में आई थी. मेरे लिए किसी को भूखे रहते देखना गवारा नहीं था. मैं ने बैग से रोटियों का एक पैकेट निकाल कर दिया कि तभी पड़ोस की एक झोंपड़ी से एक औरत ने मेरा हाथ रोक दिया और मुझे अंदर आने को कहा.

मैं ने उसे रोटियां पकड़ाईं और फिर उस औरत की झुग्गी में घुस गई. वहां एक पंडितनुमा जना भी बैठा था. वह बोला, ‘‘व्यभिचारात्तु भर्तु: स्री लोके प्रापोन्ति निन्द्यताम्, श्रृगालयोनिं प्रापोन्ति पापरोगैश्च पीडयते.

‘‘‘मनुस्मृति’ में ऐसा कहा गया है. तुम शहरी लड़कियों को क्या मालूम सनातन धर्म क्या होता है. इस का मतलब है कि जो औरत अपने पति को छोड़ कर किसी दूसरे मर्द के साथ रिश्ता बनाती है, वह श्रृंगाल यानी गीदड़ का जन्म पाती है. उसे पाप रोग यानी कोढ़ हो जाता है.’’

इस बस्ती के लोगों पर उस पंडित का बहुत असर दिख रहा था. ‘मनुस्मृति’ के ही आधार पर उस औरत के संबंध में जो कहानी बताई जा रही थी वह यह थी कि किसी औरत का मर्द कितना भी बदचलन क्यों न हो, औरत को उस की खिलाफत करने का हक नहीं है.

औरत तो गंवार, अनपढ़ और पशु की तरह पीटने लायक ही है. और जब कोई औरत मर्दों के इस अहम की खिलाफत में उतर आती है तो उस का मुकाबला इंद्र के समान कपटी भी नहीं कर सकता.

मैं अपनी एनजीओ का काम बंद नहीं कराना चाहती थी वरना क्या मुझे मालूम नहीं था. भारत में मठाधीशों, गुरुओं और साधुमहात्माओं की करतूतें जगजाहिर हैं.

ये धर्मगुरु अपने शिष्यों को त्याग, बलिदान और मोक्ष के प्रवचन देते हैं और खुद रंगीन जिंदगी बिताते हैं. ये महाशय भी पक्का इसी तरह की जिंदगी जी रहे हैं और इसीलिए पागल की बगल में झोंपड़ी में बैठे हैं.

इस झुग्गीझोंपड़ी के लोग भी निपट बेवकूफ हैं. वे गुरुओं की फौर्चुनर, मर्सिडीज गाड़ी, सोने के सिंहासन और चांदी के बरतनों की ओर खिंचते हैं और अपनी जिंदगीभर की सारी कमाई इन के चरणों में धर देते हैं.

कुछ साल पहले इस बस्ती के ज्यादातर परिवार रघुवीर गुरुजी के भक्त थे. हां, यही नाम बताया था उन त्रिपुंडधारी महाशय ने. रघुवीर गुरुजी ने बस्ती के तालाब के किनारे शिवालय बना कर जमीन पर कब्जा कर के एक विशाल आश्रम बना लिया था.

यह आश्रम नशे, हथियार और ऐयाशी का अड्डा था. बाद में मुझे पता चल गया कि उस पंडित ने नकली चमत्कार दिखा कर बस्ती की भोलीभाली जनता को अपना अंधभक्त बना लिया था. धीरेधीरे मुझे पूरी कहानी पता चली थी.

उस समय रघुवीर गुरुजी के इस आश्रम में हर 2-3 महीने में धर्म की आड़ में नशे और सैक्स के लिए पार्टियों का आयोजन किया जाता था, जिस में इस बस्ती की गरीब कमसिन लड़कियों को बुला कर परोसा जाता था. यह काम पिछले बहुत सालों से चल रहा था.

शहर के अमीर, ताकतवर और सरकारी अफसर रघुवीर गुरुजी के इस कारोबार के मुनाफे में साझेदार थे. रघुवीर गुरुजी के खिलाफ बोलने वाले लोग अकसर एक्सिडैंटों में मारे जाते थे और उन्हें ट्रैफिक तोड़ने वालों की लापरवाही का नाम दे दिया जाता था.

बस्ती की भोलीभाली औरतें अपनी बहूबेटियों को आश्रम की सेवा में भेज देती थीं. कुछ तो रघुवीर गुरुजी का स्वाद खुद भी चख आई थीं और वह उन्हें ब्लैकमेल कर उन की बेटियों को भी बुलाता था.

रघुवीर गुरुजी के शिष्यों द्वारा देवताओं के नाम पर शारीरिक शोषण मनमरजी से किया जाता था और ऊपर से उन की पैसे से मदद की जाती थी.

एक समय यहां एक आश्रम था, जिस का नाम बहुत दूरदूर तक था. रघुवीर गुरु के आश्रम में देशी शराब, अफीम और गांजे के लालच में आसपास का बस्तियों के दर्जनों गुंडे पलते थे. वे गुरुजी के गैरकानूनी साम्राज्य के सैनिक थे. इस तरह रघुवीर गुरुजी के जितने विरोधी थे, उस से ज्यादा उन के पाखंडी समर्थक थे.

पुरुषोत्तम मास में कृष्ण की सखियां बनाने के नाम पर एक महीने तक औरतों को सूरज उगने से पहले आश्रम में बुला कर बिना कपड़ों के स्नान और ध्यान के लिए मजबूर किया जाता था.

लोग कहते थे कि गुरुजी के पास सम्मोहन की कला थी, पर असलियत में औरतों को प्रसाद और धुएं से नशा दिया जाता था. नशे में मदहोश औरतों के पोर्नोग्राफिक वीडियो बना कर औनलाइन बेचे जाते थे.

जिन औरतों ने रघुवीर गुरुजी के जोरजुल्म के खिलाफ बोलने की हिम्मत की थी, उन्हें बदनाम कर दिया जाता था. ऐसी औरतों को अपनी जान या इज्जत गंवाने का खमियाजा भुगतना पड़ता था.

यही वजह थी कि ज्यादातर औरतों ने उस समय आश्रम की रंगीन दुनिया को अपना लिया था. गुरुजी का समर्थन कर के वे न सिर्फ अपने शौक पूरे कर सकती थीं, बल्कि पैसे भी मिलते थे. बदले में उन्हें सिर्फ शर्म छोड़नी होती थी.

जिन औरतों ने गुरुजी के खिलाफ बोलने की हिम्मत की, उन्हें न तो बस्ती के लोग और न उन के ही परिवार वालों ने स्वीकार किया. मतलब पूरी बस्ती ने ही गुरुभक्ति की आड़ में अपने परिवार की इज्जत को ताक पर रख दिया था.

रघुवीर गुरुजी के एक प्रकांड भक्त पांडेयजी, जो मोक्ष, वेद और उपनिषद के ज्ञाता थे, ने अपने लड़के की शादी में भरपूर दहेज लिया था, पर फिर भी वे और ज्यादा दहेज के लिए अपनी बहू पूर्णिमा को सताते थे.

पांडेयजी को अपनी खूबसूरत और पढ़ीलिखी बहू की कोई कद्र नहीं थी. परंपरा के मुताबिक पांडेयजी की बहू को भी शादी के बाद अपना कुंआरापन खोने से पहले 3 दिनों तक आश्रम में देवताओं की उपासना के लिए जाना पड़ा था.

शहर के स्कूल में पलीबढ़ी पांडेयजी की बहू पूर्णिमा ने तुरंत ही आश्रम में पल रहे गिद्धों को पहचान लिया. उस ने अपनी ससुराल और बस्ती के लोगों को रघुवीर गुरुजी के ढोंग से बचाने की भरसक कोशिश की, लेकिन उस की एक न सुनी गई.

पूर्णिमा ने साइंस के प्रयोगों द्वारा रघुवीर गुरुजी के चमत्कारों को समझाने की कोशिश की, लेकिन उसे झुठला दिया गया. इतना ही नहीं, उसे ही आवारा और बदचलन कहते हुए उस के मायके के लोगों को भलाबुरा कहा जाने लगा.

पूर्णिमा की इस करतूत पर गुस्सा हो कर एक दिन पूर्णिमा की सास और पति ने लातघूंसों से पिटाई कर दी, तब जा कर उस का समाज सुधार का भूत उतरा. तब हार कर उसे रघुवीर गुरुजी की बुराई करने के लिए कान पकड़ कर माफी मांगनी पड़ी, पर मन ही मन बदला लेने के लिए वह नागिन की तरह तड़प उठी.

एक बार सालाना जलसे के लिए बस्ती में रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा के घर का चुनाव किया था. पूर्णिमा के पति और सास खुशी से फूले न समा रहे थे. पूर्णिमा को उन्होंने खातिरदारी में कोई कमी न रखने की सख्त हिदायत दी.

पूर्णिमा यह अच्छी तरह जान चुकी थी कि अगर घर से अपनी इस बेइज्जती का बदला चुकाना है तो इस ढोंगी गुरुजी की कृपा हासिल करनी ही होगी.

पूर्णिमा ने गुरुजी के चरण गोद में रख कर पानी से साफ किए. चरणों को अपने उभारों का सहारा देते हुए तौलिया से सुखाया और फिर माथे से लगा लिया. पूर्णिमा के इस बदले हुए मिजाज से सब बहुत खुश हुए.

रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा की सेवा से गदगद होते हुए अपने चरणों की गंदगी से गंदे हुए चरणामृत को ग्रहण करने और पूरे घर में उस गंदे पानी छिड़काव करने का आदेश दिया.

रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा के हाथों से स्वादिष्ट भोजन और प्रसाद ग्रहण किया. वह भी अब तन व मन से उन की खुशामद में लगी हुई थी. अपने साथ दहेज में आए सुहागरात के बिस्तर को उस ने गुरुजी के आराम के लिए तैयार कर दिया.

पति को बाहर के कमरे में सुला कर पूर्णिमा देर रात तक गुरुजी की सेवा करती रही. पहली ही रात में गुरुजी को अपने काबू में लेने के लिए उस ने कामशास्त्र का इस्तेमाल किया.

रघुवीर गुरुजी को सपने में भी अंदाजा नहीं था कि यह शहरी लड़की इतनी धार्मिक हो चुकी हैं. गुरुजी से उम्र में आधी पूर्णिमा ने रात के 12 बजे तक उन्हें स्वर्ग की अप्सरा के जैसा आनंद दिया. उस ने सारे कपड़े उतार कर रख कर दिए, पर उन कपड़ों में मोबाइल छिपा था और उस का वीडियो औन था. 2 घंटे की रिकौर्डिंग हुई.

दोपहर को आराम के समय पूर्णिमा गुरुजी के लिए आम का शरबत ले कर हाजिर हुई तो काम के जोश में गुरुजी ने उसे जबरदस्ती अपनी गोद में बैठा लिया और उस के कपड़ों को हटा कर उस

के शरीर को अपनी प्रेमिका की तरह दुलारना शुरू कर दिया. अगले ही दिन गुरुदीक्षा और समाधि के नाम पर पूर्णिमा को अपने साथ कमरे में बंद कर उन्होंने उस का पूरी तरह फिर उपभोग किया.

इस के बाद तो पूर्णिमा महीनों गुरुजी के आश्रम पर रह कर उन की सेवाभक्ति कर लाभ लेने लगी. अब उसे अपनी ससुराल के कामकाज से भरी हुई जिंदगी अच्छी नहीं लगती थी, बल्कि उसे तो गुरुजी की सखी की तरह रहने में मजा आता था, जहां कोई काम नहीं. सास और पति की दखलअंदाजी भी नहीं. पैसे की कमी नहीं. लेकिन वह लगातार मोबाइल पर वीडियो पर वीडियो बनाए जा रही थी.

पूर्णिमा की इस गुरुभक्ति के चलते पांडेयजी के पूरे परिवार को आश्रम में सब से ज्यादा इज्जत मिलने लगी थी. गुरुजी के आशीर्वाद से पूर्णिमा के बेरोजगार पति को एक फैक्टरी में नौकरी मिल गई थी. पूर्णिमा के धार्मिक संस्कारों की अब हर जगह तारीफ होने लगी थी.

यही वजह थी कि रघुवीर गुरुजी की सभी शिष्याएं अपनीअपनी बहुओं को पूर्णिमा की तरह बनने के लिए उकसाती थीं. पूर्णिमा भी बेवकूफ औरतों का

पूरा फायदा उठाने लगी, पर उन में से उस ने 3-4 जवान बहुओं को अपने साथ मिला लिया.

जैसजैसे युवतियां बढ़ने लगीं, वैसेवैसे रघुवीर गुरुजी के आश्रम पर भौतिक सुखसुविधाओं का अंबार लगने लगा. उन के सोने के कमरे में ऐशोआराम की सभी सुविधाएं आ गई थीं. हमेशा जवान बनाए रखने के लिए चीन से लाई गई मसाज मशीनें खरीद ली गई थीं. अमेरिका से लाया गया एक करोड़ का सोना बाथ आ गया था.

उन के कमरे में सोने और चांदी के गहनों और बरतनों की भरमार थी. चढ़ावे के नोट गिनने की मशीन, सोने को तौलने और गलाने की मशीन लगी हुई थी. रेशम के कालीन और सोने की नक्काशी के परदे टंगे हुए थे. चांदी के रत्नजडि़त अनेक पात्रों में शराब भरी रहती थी.

गुरुजी की गाडि़यों का काफिला, पर्सनल जिम, खेल के सामान, स्विमिंग पूल और दूसरे तमाम ऐशोआराम का इंतजाम पूर्णिमा के हाथों में आने लगा था. उस

की योजना तो अपनी ससुराल वालों को सबक सिखाने की थी, लेकिन यहां तो भोग की अलग ही दुनिया उस का इंतजार कर रही थी.

आश्रम के गर्भगृह में गुरुजी को खुश रखने के लिए भाड़े की कालगर्ल लड़कियों को बुलाया जाता था. पर पूर्णिमा से मिलने के बाद वे पूरी तरह उस पर लट्टू हो चुके थे. उन्होंने पूर्णिमा को आश्रम के गर्भगृह की मल्लिका बना दिया था. आश्रम के सभी सेवकों को उस की आज्ञा के पालन के लिए खड़ा कर दिया था.

एक खास तरह के गुरुजी पर्व के आयोजन की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. आयोजन का सारा इंतजाम गुरुजी के जिन सेवादारों द्वारा किया जा रहा था. वे सभी रघुवीर गुरुजी की तरह ही गोरे, चिकने, लंबी कदकाठी के अमीर और ताकतवर मर्द थे. ऐसे लोग सेवादार बनने के लिए गुरुजी को चढ़ावा चढ़ाते थे.

देवदासियों के नाम पर शहर से कालगर्ल्स को लाया जाता था, जो चुने गए भक्तों को खुश करती थीं, जिन में अफसर और सेठ होते थे. पढ़ीलिखी पूर्णिमा को तुरंत समझ आ गया था कि प्रसाद और अगरबत्तियों के बहाने भांग, गांजे और शराब का नशा कराने के लिए यह आयोजन एक तरह की ‘रेव पार्टी’ थी, जिसे पुलिस से बचने के लिए धार्मिक आयोजन का नाम दे दिया गया था.

पूर्णिमा ने रघुवीर गुरुजी को इस गुरुजी पर्व में अपनी 4 साथियों को साथ रखने के लिए चुटकियों में मना लिया. घर वाले तो इस बात से फूले नहीं समा रहे थे कि उन की पूर्णिमा को मुख्य शिष्या बनाया गया है.

पूर्णिमा के पति को तो इस मामले में उसे रोकने की हिम्मत ही नहीं थी. वह जब भी पूर्णिमा के पास रात को आता, तो वह उसे कपड़ों के बिना धकेल देती थी. उसे कितनी ही रातें बिस्तर के नीचे नंगधड़ंग गुजारनी पड़ी थीं.

गुरुजी पर्व आयोजन के दौरान आश्रम के गर्भगृह में रघुवीर गुरुजी अपने प्रमुख शिष्य और शिष्याओं के साथ पूरी तरह अज्ञातवास में थे. गर्भगृह में सभी दूसरी भक्तनों को केवल एक साड़ी में दाखिल होने की इजाजत थी.

गुरुजी पर्व के दौरान गर्भगृह में देवताओं के राजा इंद्र की सभा की तरह नृत्य, गायन, मद्यपान, सुरा और संभोग का नाटक किया जाता था. पूर्णिमा की साथी, जो वैसे सैक्स वर्कर थीं, गुरुजी के शिष्यों का भरपूर मनोरंजन करती थीं.

अब तक अपने पति के साथ पूर्णिमा की ठीक से सुहागरात भी नहीं हुई थी, जबकि गुरुजी के साथ वह हर रोज 2-4 बार हमबिस्तर होती थी. पूर्णिमा के दूध के समान सफेद और संगमरमर जैसे चिकने बदन को रेशम और सोने के गहनों से ढक दिया गया था. अब वह अपनी ससुराल लौटना ही नहीं चाहती थी. गुरुजी ने उसे अपना उत्तराधिकारी बना कर देवी का दर्जा दे दिया था.

आम जनता के बीच, धार्मिक प्रतीकों और कपड़ों के साथ माला जपते हुए पिता और पुत्री का रिश्ता निभाने वाले रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा भोगविलास के आदी हो चुके थे.

पर जल्द ही उन के बारे लोग कानाफूसी करने लगे थे. गुरु और शिष्या के संबंधों से परेशान पूर्णिमा की ससुराल वाले बाधा पैदा करने लगे थे.

इस बात से गुस्साए गुरुजी ने पूर्णिमा के पति को आश्रम में बंधक बना लिया और पूर्णिमा ने अपने पति के सामने ही गुरुजी के साथ संबंध बनाते हुए अपने पति के सीने में मौत का खंजर उतार दिया. अपने ससुर और सास को आश्रम के तहखाने में भोजन और पानी के लिए तरसाते हुए मार डाला. ससुराल की जायदाद उन की विधवा ‘संस्कारी बहू’ पूर्णिमा के नाम हो गई.

इस के बाद पूर्णिमा ने अपनी ससुराल की पहचान को मिटाते हुए धार्मिक आवरण ओड़ लिया, अपने केश त्याग दिए. पूर्णिमा का आश्रम की गद्दी पर अभिषेक हो गया.

पूर्णिमा अब पूर्णिमा देवी हो गई थी, जिस के मठाधीश बनने के बाद हर महीने पूर्णमासी की रात को आयोजित होने वाले गुरुजी पर्व कार्यक्रम में अलग ही जोश आ गया था. कार्यक्रम को रोचक बनाने के लिए पूर्णिमा देवी ने आसपास के इलाके की कुंआरी लड़कियों और शादीशुदा औरतों को फंसा कर गुरुदीक्षा देना शुरू कर दिया. उस का साथ वे

4 भक्तनें देती थीं. पूर्णिमा का डर उन पहलवान सेवादारों से था, जो गुरुजी से ज्यादा प्यार करते थे. उन सभी के गुरुजी से समलैंगिक संबंध थे.

पूर्णिमा ने बस्ती की और अंधविश्वासी लड़कियों को सबक सिखाने के लिए बहलाफुसला कर गुरुजी पर्व में शामिल होने के लिए सहमत कर लिया.

पूर्णिमा सेवा में हाजिर होने के लिए तैयार सेविकाओं के रूप में तैयार करने का काम बहुत ही दिलचस्पी से कर रही थी. शहर से लाई गई ब्यूटीशियन ने सभी सेविकाओं को 2 दिनों तक रोमरहित करने के बाद हलदी, बेसन और शहद के पानी से स्नान करा कर उन्हें आइसोलेट कर दिया. सेविकाओं की माहवारी रोकने के लिए उन्हें रोजाना दूध के साथ दवाएं दी जा रही थीं.

गुरुजी पर्व की रात को नृत्य और गायन के दौरान बहुत सी लड़कियों को प्रसाद के रूप में भांग पिला दी गई. आश्रम की इस हाईप्रोफाइल पार्टी में इस साल बड़ेबड़े अफसर, तिलकधारी सांसद और मंत्री, अमीर कारोबारी आए हुए थे.

बस्ती की भोलीभाली लड़कियों के आने के बाद नशे और जिस्म की इन पार्टियां में रहस्य और रोमांच और ज्यादा बढ़ गया था.

पूर्णिमा के निर्देश पर शिष्याओं ने आरती के बाद गर्भगृह में मेहमानों का मनोरंजन करना शुरू किया. खुद पूर्णिमा देवी ने जोश में आ कर अपने कपड़े उतार दिए. गुरुजी को अपने पैर, छातियों, जांघों से छूते हुए वह पूजन की ऐक्टिंग करने लगी. गुरुजी और उन के सेवादारों के कपड़े भी धीरेधीरे उतार दिए गए.

रघुवीर ने अपनी पूर्णिमा को चूमने की कोशिश की, लेकिन नशे में चूर पूर्णिमा देवी ने गुरुजी को पहचानने के बजाय उन के सब से खास एक मेहमान के साथ संबंध बनाना शुरू कर दिया और फिर देखते ही देखते नशे में चूर सभी मेहमान गिद्धों के की तरह, देवताओं के मुखौटे में, बस्ती की भोलीभाली अंधविश्वासी लड़कियों की इज्जत को लूटने के लिए टूट पड़े. रघुवीर गुरुजी अपनी इस बेइज्जती पर तिलमिला उठे. यह पूर्णिमा का पहला बदला था.

देवताओं का अभिनय करते हुए रघुवीर गुरुजी और सेवादारों ने दासियों के साथ कामलीला शुरू कर दी. नशे में चूर बस्ती की अनपढ़, भोलीभाली लड़कियों को लग रहा था कि गुरुजी की कृपा से स्वर्ग के देवता धरती पर उतर कर उन के साथ संबंध बना रहे हैं.

लेकिन रघुवीर गुरुजी को नहीं मालूम था कि पूर्णिमा ने उसी समय हाईकोर्ट में एक एप्लीकेशन डलवा रखी थी, जिस में लोकल जजों पर निर्भर रहने की वजह बताते हुए एसपी के नेतृत्व में छापा मारने की रिक्वैस्ट की गई थी.

यह याचिका शाम 6 बजे हाईकोर्ट के एक जज के पास पहुंची. साथ में वीडियो भी थे. जज उदार और सख्त थे. उन्होंने तुरंत और्डर टाइप कराया और जिला जज, जिला मजिस्ट्रेट और एसपी के साथ छापा मारने का हुक्म दिया.

तकरीबन 500 पुलिस वालों ने आश्रम घेर लिया. सेवादार भाग भी नहीं सके थे, क्योंकि पूर्णिमा की साथियों ने सारे कपड़े उठा कर नाले में फेंक दिए थे.

पूर्णिमा के परिवार के गायब होने की खोज पहले से चल रही थी. गुरुजी को पुख्ता सुबूतों के साथ पकड़ लिया गया. उस के बाद पूर्णिमा कहां गई किसी को पता नहीं लगा, पर उस की 4 साथियों ने मुकदमा लड़ा और गुरुजी को आजीवन कारावास की सजा मिली.

आश्रम से मिले कंकालों की गितनी इतनी थी कि डीएनए टैस्ट करने वालों को महीनों लगे.

उम्रकैद के दौरान रघुवीर गुरुजी की मौत हो गई, लेकिन पूर्णिमा कोढ़ की बीमारी से पीडि़त होने के बरसों बाद बस्ती में लौट आई. यह कोढ़ उसे एक सेवादार से लगा था. पूर्णिमा को अपने पर गर्व था, पर शायद ही कोई जानता था कि रघुवीर को जेल उसी ने पहुंचाया था.

उस पागल औरत ने धीधीरे मुझे यह सारी कहानी सुनाई थी, क्योंकि मैं रोज उसे खाना देने लगी थी, जबकि गांव वालों को भी बुरा लगता था और रघुवीर गुरुजी के उजड़े आश्रम के एक कोने को दबोचे था वह पंडितनुमा जना जो मुझे रोक रहा था.

पूर्णिमा ने बताया कि उस लड़के को 10 साल की उम्र में कहीं से पकड़ कर लाया गया था. पर वह सालों ड्रग्स लेने के चलते बहुत सी बातों को आज भी याद नहीं कर पा रहा.

पुल : ईमानदारी की सजा

‘‘शुक्रिया जनाब, लेकिन मैं शराब नहीं पीता,’’ मुस्ताक ने अपनी जगह से थोड़ा पीछे हटते हुए जवाब दिया.

‘‘कमाल की बात करते हो मुस्ताक भाई, आजकल तो हर कारीगर और मजदूर शराब पीता है. शराब पिए बिना उस की थकान ही नहीं मिटती है और न ही खाना पचता है.

‘‘कभीकभार मन की खुशी के लिए तुम्हें भी थोड़ा सा नशा तो कर ही लेना चाहिए,’’ ऐसा कहते हुए ठेकेदार ने वह पैग अपने गले में उड़ेल लिया.

‘‘गरीब आदमी के लिए तो पेटभर दालरोटी ही सब से बड़ा नशा और सब से बड़ी खुशी होती है. शराब का नशा करूंगा तो मैं अपना और अपने बच्चों का पेट कैसे भरूंगा?’’

‘‘खैर, जैसी तुम्हारी मरजी. मैं ने तो तुम्हें एक जरूरी काम के लिए बुलाया था. तुम्हें तो मालूम ही है कि इस पुल के बनने में सीमेंट के हजारों बैग लगेंगे. ऐसा करना, 2 बैग बढि़या सीमेंट के साथ 2 बैग नकली सीमेंट के भी खपा देना. नकली सीमेंट बढि़या सीमेंट के साथ मिल कर बढि़या वाला ही काम करेगी.

‘‘इसी तरह 6 सूत के सरिए के साथ 5 सूत के सरिए भी बीचबीच में खपा देना. पास खड़े लोगों को भी पता नहीं चलेगा कि हम ऐसा कर रहे हैं,’’ ठेकेदार ने उसे अपने मन की बात खोल कर बताई.

रात का समय था. पुल बनने वाली जगह के पास खुद के लिए लगाए गए एक साफसुथरे तंबू में ठेकेदार अपने बिस्तर पर बैठा था. नजदीक के एक ट्यूबवैल से बिजली मांग कर रोशनी का इंतजाम किया गया था.

ठेकेदार के सामने एक छोटी सी मेज रखी हुई थी. मेज पर रम की खुली बोतल सजी हुई थी. पास में ही एक बड़ी प्लेट में शहर के होटल से मंगाया गया लजीज चिकन परोसा हुआ था.

‘‘ठेकेदार साहब, यह काम मुझ से तो नहीं हो सकेगा,’’ मुस्ताक ने दोटूक जवाब दिया.

‘‘क्या…?’’ हैरत से ठेकेदार का मुंह खुला का खुला रह गया. हाथ की उंगलियां, जो चिकन के टुकड़े को नजाकत के साथ होंठों के भीतर पहुंचाने ही वाली थीं, एक   झटके के साथ वापस प्लेट के ऊपर जा टिकीं.

ठेकेदार को मुस्ताक से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद नहीं थी. एक लंबे अरसे से वह ठेकेदारी का काम करता आ रहा था, पर इस तरह का जवाब तो उसे कभी भी नहीं मिला था.

‘‘क्यों नहीं हो सकेगा तुम से यह काम?’’ गुस्से से ठेकेदार की आंखें उबल कर बाहर आने को हो गई थीं.

‘‘साहब, आप को भी मालूम है और मुझे भी कि इस पुल से रेलगाडि़यां गुजरा करेंगी. अगर कभी पुल टूट गया तो हजारों लोग बेमौत मारे जाएंगे. मैं तो उन के दुख से डरता हूं. मुझे माफ कर दें,’’ मुस्ताक ने हाथ जोड़ कर अपनी लाचारी जाहिर कर दी.

खुद का मनोबल बनाए रखने के लिए ठेकेदार ने रम का एक और पैग डकारते हुए कहा, ‘‘अरे भले आदमी, तुम खुद मेरे पास यह काम मांगने के लिए आए थे… मैं तो तुम्हें इस के लिए बुलाने नहीं गया था. तब तुम ने खुद ही कहा था कि तुम अपने काम से मुझे खुश कर दोगे.

‘‘पहले जो कारीगर मेरे साथ काम करता था, उसे जब यह पता चला कि मैं ने तुम्हें इस काम के लिए रख लिया है, तो वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया और मुझे सावधान करते हुए कहने लगा कि यह विधर्मी तुम्हें धोखा देगा…

‘‘पर, मैं ने उस की एक न सुनी… वह नाराज हो कर चला गया… तुम्हारे लिए अपने धर्मभाइयों को मैं ने नाराज किया और तुम हो कि ईमानदारी का ठेकेदार बनने का नाटक कर रहे हो.’’

‘‘मैं कोई नाटक नहीं कर रहा साहब. यह ठीक है कि मैं आप के पास खुद काम मांगने के लिए आया था… आप ने मेहरबानी कर के मुझे यह काम दिया… मैं इस का बदला चुकाऊंगा, पर दूसरी तरह से…

‘‘मैं वादा करता हूं कि मैं और मेरे साथी कारीगर हर रोज एक घंटा ज्यादा काम करेंगे. इस के लिए हम आप से फालतू पैसा नहीं लेंगे… इस तरह आप को फायदा ही फायदा होगा,’’ मुस्ताक ने यह कह कर ठेकेदार को यकीन दिलाना चाहा.

‘‘अच्छा, इस का मतलब यह कि तू चाहता है कि मैं लुट जाऊं… बरबाद हो जाऊं और तू तमाशा देखे… क्यों?’’ ठेकेदार खा जाने वाली नजरों से मुस्ताक को घूर रहा था.

कारीगर मुस्ताक यह देख कर डर गया. उस ने हकलाते हुए कहा, ‘‘नहीं… मेरा मतलब यह नहीं था कि…’’

‘‘और क्या मतलब है तुम्हारा? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि ईमानदारी के रास्ते पर चल कर पेट तो भरा जा सकता है, पर दौलत नहीं कमाई जा सकती. जिस तरह तू काम करने की बात कर रहा है, वह तो सचाई और ईमानदारी का रास्ता है. उस से हमें क्या मिलेगा?

‘‘तुम्हें मालूम होना चाहिए कि इंजीनियर साहब पहले ही मुझ से रिश्वत के हजारों रुपए ले चुके हैं. ‘वर्क कंप्लीशन सर्टिफिकेट’ देने से पहले न जाने कितने और रुपए लेंगे. कहां से आएंगे वे रुपए? क्या तुम दोगे? नहीं न? तब क्या मैं तुम्हारी ईमानदारी को चाटूंगा? बोलो, क्या काम आएगी ऐसी वह ईमानदारी?

‘‘मुस्ताक मियां, मुझे ईमानदारी बन कर बरबाद नहीं होना है. मुझे तो हर हाल में पैसा कमाना है. याद रखना, ऐसा करने से तुम्हें भी कोई फायदा नहीं होने वाला है.’’

मुस्ताक ने जवाब देने के बजाय चुप रहना ही बेहतर समझा. ठेकेदार ने मन ही मन सोचा कि मुस्ताक को उस के तर्कों के सामने हार माननी ही पड़ेगी. आखिर कब तक नहीं मानेगा? उसे भूखा थोड़े ही मरना है.

अपने लिए एक पैग और तैयार करते हुए ठेकेदार ने मुस्ताक से कहा, ‘‘तुम ने जवाब नहीं दिया.’’

‘‘मैं मजबूर हूं साहब,’’ मुस्ताक ने धीरे से कहा.

‘‘मुस्ताक मियां, मजबूरी की बात कर के मुझे बेवकूफ मत बनाओ. मैं जानता हूं कि तुम जैसे गरीब तबके के लोगों की नीयत बहुत गंदी होती है. तुम्हें हर चीज में अपना हिस्सा चाहिए. ठीक है, वह भी तुम्हें दूंगा और पूरा दूंगा.

‘‘इसीलिए तो तुम लोग सच्चे और ईमानदार बनने का नाटक करते हो. घबराओ मत, मैं भी जबान का पक्का हूं, जो कह दिया, सो कह दिया.’’

ठेकेदार अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ. उस ने अपना दायां हाथ मुस्ताक के कंधे पर रख दिया. इस तरह वह उस का यकीन जीतना चाहता था.

मुस्ताक को चुप देख कर ठेकेदार ने कहा, ‘‘पुल के गिरने वाली बात को अपने मन से निकाल दो. अगर यह पुल गिर भी गया, तब भी न तो मेरा कुछ बिगड़ेगा और न ही तुम्हारा.

‘‘मेरे पास तो अपनी 2 कारें हैं, इसलिए मैं कभी भी रेलगाड़ी में नहीं बैठूंगा. रही बात तुम्हारी, तो तुम्हारे पास इतना पैसा ही नहीं होता कि तुम रेल में बैठ कर सफर करो.’’

ठेकेदार को अचानक महसूस हुआ कि वह मुस्ताक के सामने कुछ ज्यादा ही झुक गया है. मुस्ताक इस बात को उस की कमजोरी मान कर उस पर हावी होने की कोशिश जरूर करेगा, इसलिए उस ने अपना हाथ मुस्ताक के कंधे से दूर किया. फिर अपने लहजे को कुछ कठोर बनाते हुए ठेकेदार ने कहा, ‘‘और अगर अब भी तुम यह काम नहीं करना चाहते, तो कल से तुम्हारी छुट्टी. और कोई आ जाएगा यह काम करने के लिए. कोई कमी नहीं है यहां कारीगरों की. अब जाओ, मेरा सिर मत खाओ.’’

ऐसा कहते हुए ठेकेदार बेफिक्र हो कर फिर से अपने बिस्तर पर जा बैठा और प्लेट से चिकन का टुकड़ा उठा कर आंखें बंद कर के चबाने लगा.

‘‘तो ठीक है साहब, कल से आप किसी और कारीगर को बुला लें.’’

अचानक मुस्ताक मियां के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर ठेकेदार को ऐसा लगा, मानो उस के गालों पर कोई तड़ातड़ तमाचे जड़ रहा हो. उस की आंखें अपनेआप खुल गईं. उस ने देखा कि मुस्ताक वहां नहीं था. उस के लौटते कदमों की दूर होती आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी.

पुराने नोट : कालेधन की मार

‘‘यह बुढ़िया भी बड़ी अजीब थी. जाने कहांकहां का… जाने क्यों ये चिथड़ेगुदड़े संभाल कर रखे हुए थी,’’ भुनभुनाते हुए सुमन अपनी मर चुकी सास के पुराने बक्से की सफाई कर रही थी.

तभी सुमन की नजर बक्से के एक कोने में मुड़ेतुड़े एक तकिए पर पड़ी जिस के किनारे की उखड़ी सिलाई से 500 का एक पुराना नोट बत्तीसी दिखाता सा झांक रहा था.

सुमन ने बड़ी हैरत से उस तकिए को उठाया, हिलायाडुलाया, फिर किसी अनहोनी के डर से जल्दीजल्दी उस तकिए की सिलाई उधेड़ने लगी.

अब सुमन के सामने 1000-500 के पुराने नोटों का ढेर था. वह फटी आंखों से उसे हैरानी से देखे जा रही थी. थोड़ी देर तक उस का दिमाग शून्य पर अटक गया, फिर उस की चेतना लौटी.

सुमन ने फौरन आवाज लगाई, ‘‘अरे भोलू के पापा, जल्दी आओ… जरा सुनो तो…’’

‘‘क्या आफत आ गई. अभी खाना दे कर गई है और पुकारने लगी है. यह औरत जरा भी सुकून से खाना नहीं खाने देती है,’’ पति  झुंझलाया.

‘‘अरे, जल्दी आओ,’’ सुमन ने दोबारा कहा.

‘‘पता नहीं, कोई सांपबिच्छू तो नहीं है…’’ बड़बड़ाता हुआ पति वहां पहुंचा. सुमन सिर पर हाथ रखे अपने सामने 1000-500 के पुराने नोटों के ढेर को बड़ी हैरानी से देख रही थी.

पति ने यह नजारा देखा तो उस के भी होश उड़ गए. सारा गुस्सा ठंडा हो गया. फिर अटकतेअटकते वह बोला, ‘‘यह सब क्या है सुमन…’’

‘‘तुम्हारी मां ने बड़े अरमान से हमारी गरीबी दूर करने के लिए ये पैसे जोड़जोड़ कर अपने तकिए में रखे थे. लेकिन 2 साल पहले बेचारी मरते समय यह राज हमें न बता पाई. दिल में यही अरमान रहे होंगे कि बहू, बेटे और उन के बच्चों की इन रुपयों से गरीबी दूर हो जाएगी. पर हाय रे नोटबंदी का दानव मेरी सासू मां के सारे अरमानों को खा गया.’’

यह देख पति भारी मन से बोला, ‘‘अम्मां को मैं ही दवादारू के लिए थोड़ेबहुत पैसे देता रहता था, पर मुझे क्या पता था कि वे हमारी गरीबी दूर के लिए पैसे जोड़ रही थीं.’’

सुमन डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘सचमुच अम्मां का दिल बहुत बड़ा था.’’

पति ने कहा, ‘‘हां, शायद हम लोगों से भी ज्यादा बड़ा…’’

सुमन बोली, ‘‘आप सही कहते हो.’’

अब वहां वे दोनों फूटफूट कर रोने लगे, जिसे सिर्फ घर की दीवारें ही सुन पा रही थीं.

नरेंद्र मोदी की सरकार ने सोचा था कि वह नोटबंदी से अमीरों का काला धन निकालेगी, पर यहां तो गोराचिट्टा धन एक रात में काला हो गया था.

बदरंग जिंदगी : दामोदर की अपनी जिंदगी कैसी थी

दामोदर को अहसास हुआ कि उसे फिर से पेशाब लग गया है. पता नहीं, उस का गुरदा खराब हो गया है या शायद कोई और बात है.

ऐसा नहीं है कि दामोदर ने डाक्टर को नहीं दिखाया. उस ने कई डाक्टरों को दिखाया, लेकिन समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है. उसे लगातार पेशाब आना बंद ही नहीं होता है. वह आखिर करे भी तो क्या करे? अब उस का डाक्टरों पर से जैसे विश्वास ही उठ गया है. उसे लगता है कि उस के मर्ज की दवा शायद अब किसी भी डाक्टर के पास नहीं है.

कभीकभी दामोदर को ऐसा भी लगता है कि वह एक ऐसे जंगल में पहुंच गया है, जहां से उसे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ रहा है और वह उसी जंगल में जिंदगीभर भटकता रह कर कहीं मरखप जाएगा.

दामोदर को अपनी जिंदगी में सबकुछ अच्छा लगता है, लेकिन यह अच्छा नहीं लगता कि उसे बारबार पेशाब आए. ज्यादा पेशाब आने से उसे बारबार काम छोड़ कर जाना पड़ता है. उस के कारखाने के मालिक इस हरकत पर बड़ी बारीक नजर रखते हैं और वह तब मन ही मन भीतर से कट कर रह जाता है. महीने की 6,000 रुपए तनख्वाह पाने वाला दामोदर पिछले एक साल से ढंग से काम नहीं कर पा रहा है, तभी तो मालिक उस पर गुर्राते हैं.

कभीकभी तो दामोदर को खुद भी लगता है कि वह काम छोड़ दे और अपने घर पर ही रहे, लेकिन अगर वह इस काम को छोड़ देगा, तो खाएगा क्या?

दामोदर के बेटे अमन की उम्र भी महज 19 साल है. इतनी कम उम्र में ही उस ने पूरे घर की जिम्मेदारी संभाल ली है. ऐसी उम्र में दूसरे बच्चे जब बाप के पैसे पर कहीं किसी कालेज में मौज कर रहे होते हैं, उस समय अमन सारे घर को देखने लगा है. आखिर क्या होता है आजकल 6,000 रुपए में? आज अगर अमन को 15,000 रुपए नहीं मिल रहे होते, तो क्या दामोदर घर चला पाता? बिलकुल भी नहीं.

अमन हर महीने याद कर के दामोदर की दवा औनलाइन खरीद कर भेज देता है, नहीं तो अपनी तनख्वाह में तो दामोदर दवा तक नहीं खरीद पाता.

बाजार से दवा खरीदने जाओ तो बड़ी महंगी मिलती है. आजकल डाक्टर के केबिन के बाहर मरीजों से ज्यादा मैडिकल कंपनी के लड़के ही दिखाई देते हैं. मरीजों को ठेलतेठालते अंदर घुसने को बेताब दिखाई पड़ते हैं.

जो थोड़ीबहुत भी नैतिकता डाक्टरों में बची थी, वह इन कमबख्त दवा कंपनियों ने खत्म कर रखी है. रोज एक दवा कंपनी बाजार में उतर जाती है और उस के ऊपर दबाव होता है अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग का. लिहाजा, डाक्टर भी हथियार डाल ही देते हैं.

रोज एक नया चेहरा डाक्टर के केबिन में दाखिल हो जाता है और न चाहते हुए भी वह उन की दवा मरीजों को लिख देता है. दवाओं पर मनमाना दाम कंपनी लगाती है और कंपनी के टारगेट और मुनाफे के बीच फंस जाते हैं दामोदर जैसे लोग.

दामोदर को लगा कि वह कुछ देर और रुका, तो उस का पेशाब पैंट में ही निकल जाएगा. लोग उस की इस बीमारी पर बुरा मुंह बनाते हैं खासकर उस के साथ काम करने वाले.

दामोदर ने अपनी बहुत देर से दबी हुई इच्छा आखिरकार दिनेश को बताई. दिनेश उस का साथी है. रोज काम करने बैरकपुर से रघुनाथपुर वह दिनेश की मोटरसाइकिल से ही आताजाता है. उस के पास अपनी मोटरसाइकिल नहीं है. उस का घर दिनेश के घर के बगल में ही है.

‘‘दिनेश, मैं आता हूं पेशाब कर के,’’ इतना कह कर दामोदर निबटने के लिए जाने लगा.

‘‘अगर तुम्हें  पेशाब करने जाना ही था, तो कारखाना बंद होने से पहले ही चले जाते. और हां, अभी तुम थोड़ी देर पहले भी तो पेशाब करने

गए थे. पता नहीं, तुम को कितनी बार पेशाब लगता है…

‘‘एक हम लोग हैं, जो कारखाने में घुसने के बाद बहुत मुश्किल से 2 या ज्यादा से ज्यादा 3 बार जाते होंगे, लेकिन तुम को तो दिनभर में न जाने कितनी बार पेशाब लगता है. पता नहीं क्या हो गया है तुम्हें. किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते?’’

दामोदर के चेहरे पर जमानेभर की उदासी उभर आई. उस के सूखे हुए बदरंग चेहरे पर नजर पड़ते ही दिनेश का दिल भी डूबने लगा और वह उस की परेशानी को सम?ाते हुए बोला, ‘‘ठीक है जाओ, लेकिन जरा जल्दी आना. आज मुझे अपने बेटे को पार्क ले कर जाना है. वह पिछले कई हफ्तों से कह रहा है.

‘‘अखिर इन मालिक लोगों के लिए सुबह 9 बजे से रात को 9 बजे तक काम करतेकरते अपने बालबच्चों को कहीं घुमाने का समय ही नहीं मिल पाता.’’

‘‘हां, आता हूं,’’ कह कर दामोदर जल्दी से पान मसाले की एक पुडि़या फाड़ कर अपने मुंह में डालता हुआ पेशाब करने चला गया.

दामोदर सेठ घनश्याम दास के यहां पिछले 20 सालों से काम कर रहा था. दिनेश अभी नयानया है. दोनों मोटरसाइकिल पर बैठे और अपने घर की ओर चल पड़े.

बात के छोर को दिनेश ने पकड़ा, ‘‘तुम्हें यह बीमारी कब से हुई है? तुम इस का इलाज क्यों नहीं कराते हो?’’

दामोदर बोला, ‘‘अरे भाई, इलाज की मत पूछो. कुछ दिन पहले मैं अपनी सोसाइटी के गेट पर खड़ाखड़ा ही बेहोश हो कर गिर पड़ा था. वह तो बगल के एक दुकानदार ने देख लिया और सोसाइटी के गार्ड की मदद से मुझे मेरठ के एक हौस्पिटल में भिजवाया.

‘‘7 दिनों तक हौस्पिटल में रहा. एक दिन का 15,000 रुपए चार्ज था वहां का. केवल 7 दिनों में ही एक लाख रुपए से ज्यादा उड़ गए. फिर मेरे लड़के ने दूसरे हौस्पिटल में मुझे भरती कराया, तब जा कर अभी मेरी हालत में कुछ सुधार आया. अगर वह दुकानदार और गार्ड़ न होते, तो आज मैं तुम्हारे सामने जिंदा न खड़ा होता.’’

‘‘और सारा खर्चा कहां से आया? सेठजी ने कुछ मदद की या नहीं?’’ दिनेश ने पूछा.

‘‘अरे, मुझे कहां होश था. लड़का बता रहा था कि उस ने मालिक को फोन कर के पैसे मांगे थे, लेकिन मालिक की सूई 2,000 रुपए पर अटकी हुई थी. बड़ी हीलहुज्जत के बाद उन्होंने 5,000 रुपए दिए थे.’’

‘‘बाकी के पैसों का इंतजाम कैसे हुआ?’’

‘‘कुछ अगलबगल से कर्ज लिया और बाकी मेरे ससुरजी ने तकरीबन 4 लाख रुपए दे कर मेरी मदद की. तब जा कर मेरी जान बची.’’

मोटरसाइकिल एक मैडिकल स्टोर के बगल से गुजरी. दामोदर ने दिनेश को गाड़ी रोकने के लिए कहा और वह लपकता हुआ मैडिकल स्टोर की तरफ बढ़ गया. उस की दवा खत्म हो गई थी.

दामोदर ने दुकानदार को परची दिखाई. दुकानदार ने परची को बड़े गौर से देखा और दवा निकाल कर उस ने काउंटर पर रख दिया और दामोदर से बोला, ‘‘इस बार भी कंपनी ने दवा का दाम बढ़ा दिया है. पिछली बार यह 250 रुपए की थी, अब 270 रुपए लगेंगे.’’

दामोदर ने जेब में हाथ डाला और पैसे गिने. उस के पास 200 रुपए थे. उसी में उसे रास्ते में घर के लिए एक लिटर दूध भी लेना था. पैसा नहीं बचेगा.

दामोदर ने दुकानदार से कहा, ‘‘फिलहाल तो मुझे 2 दिन की 2 गोली दे दो, बाकी जब तनख्वाह मिलेगी, तब आ कर ले जाऊंगा.’’

दवा ले कर बाकी पैसे दामोदर ने जेब के हवाले किए और वापस आ कर मोटरसाइकिल पर बैठ गया. रास्ते में उस ने एक लिटर दूध भी लिया.

घर पहुंच कर दामोदर ने हाथमुंह धोए और पलंग पर लेट गया. तब तक उस की पत्नी रुचि चाय बना कर ले आई. एक प्याली उस ने दामोदर को दी और दूसरी प्याली खुद ले कर चाय पीने लगी.

चाय पीतेपीते रुचि बोली, ‘‘आज मकान मालिक आया था और घर का किराया मांग रहा था. कह रहा था कि 2 महीने का किराया तो पूरा हो ही गया है और अब तीसरा महीना भी लगने वाला है. आप लोग जल्दी से जल्दी किराया दीजिए, नहीं तो घर को खाली कर दीजिए.’’

‘‘यह हरीश भी अजीब आदमी है. वह जानता है कि हम लोग दानेदाने को तरस रहे हैं. एक तो राशन की परेशानी, उस पर हर महीने का किराया.

‘‘इन ढाई महीनों में मैं पहले ही अपने जानपहचान के सभी लोगों से कर्ज ले चुका हूं. उस को भी सोचना चाहिए. दुकान बंद है. जब मालिक से पैसा मिलेगा, तब उस को किराया भी मिल ही जाएगा. हम कौन सा भागे जा रहे हैं?’’

दामोदर को लगा जैसे उस के सीने पर किसी ने बहुत भारी पत्थर रख दिया हो, जैसे उस की सांस फूलने लगी हो और उस का दम घुट जाएगा, वह वहीं पलंग पर खत्म हो जाएगा. लिहाजा, वह उठ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘आज मां का फोन भी आया था. कह रही थीं कि एक बार में न सही, किस्तों में ही 4 लाख रुपए थोड़ेथोड़े कर के लौटा दे. मेरी छोटी बहन निम्मो की शादी तय हो गई है. अगले साल कोई अच्छा सा लगन देख कर पिताजी निम्मो की शादी कर देना चाहते हैं. तुम से सीधेसीधे कहते नहीं बना तो उन्होंने मां से फोन कर के कहलवाया है,’’ रुचि ने डरतेडरते धीरे से कहा.

‘‘ठीक है, उन का भी कर्ज हम लोग चुका देंगे, लेकिन थोड़ा समय चाहिए,’’ दामोदर छत को घूरते हुए बोला.

रात काफी गहरा चुकी थी. रुचि कब की सो गई थी, लेकिन दामोदर को नींद नहीं आ रही थी. रहरह कर वह बदरंग हो चुकी दीवार और छत को घूरता जा रहा था. उसे कभीकभी यह भी लगता है कि दीवार और छत की तरह ही उस की जिंदगी भी बदरंग हो गई है. एकदम बेकार पपड़ी छोड़ती और सीलन से भरी हुई.

क्या पाया आज दामोदर ने 55 साल की उम्र में? कुछ भी तो नहीं. ताउम्र खटता रहा, लेकिन उस के हाथ क्या लगा? जीरो. एक ऐसी जिंदगी, जो खुशी से ज्यादा उसे दुख ही देती रही.

अचानक दामोदर को लगा कि उसे फिर से पेशाब लग गया है, तो वह उठ कर फारिग होने चला गया. आ कर वापस लेटा तो रुचि की नींद खुल गई.

रुचि ने उबासी लेते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? नींद नहीं आ रही है क्या?’’

‘‘नहीं. लगता है कि पलंग में खटमल हो गए हैं और मुझे काट रहे हैं,’’ दामोदर बिछौना ठीक करता हुआ बोला.

रुचि ने ‘अच्छा’ कहा और उबासी लेते हुए फिर सो गई. दामोदर के बगल वाला कमरा उस की बेटी प्रीति का है. पापा के आने की आहट पा कर उस ने जल्दी से अपने कमरे की बत्ती बंद कर ली, लेकिन दामोदर के दिमाग में एक नई चिंता ने घर करना शुरू कर दिया.

आखिर इस साल प्रीति का 25वां लगने वाला है. आखिर कब तक जवान लड़की को कोई घर में रखेगा. कल को कुछ ऊंचनीच हो गई तो…

तमाम चिंताओं के बीच दामोदर रातभर करवटें बदलता रहा, लेकिन उसे नींद नहीं आई.

 बसंती: शातिर भोला के चंगुल में एक अंधविश्वासी

गांव का एकलौता पुरोहित भोला इस बात से पूरी तरह वाकिफ था कि मरने से पहले बसंती की मां बेटी के पास कुछ चांदी के सिक्के व जेवरात छोड़ गई है, जिसे किसी बहाने से हासिल कर के वह कुछ दिनों के लिए अपनी बदहाली तो दूर कर ही सकता है.

थोड़ी देर में ही पूजा का काम खत्म कर उस ने एक गहरी नजर से बीमार सुमन की ओर देखा. फिर बसंती की ओर मुखातिब हो कर बोला, ‘‘तेरी बेटी को कोई प्रेतात्मा परेशान कर रही है. अब इसे बचाना बड़ा मुश्किल है. अच्छा होगा कि तू इस मनहूस बच्ची का मोह छोड़ कर फिर से गोद भरने की कोशिश करे.’’

पुरोहित से ऐसा जवाब सुन कर बसंती दुखी आवाज में बोली, ‘‘बाबा, अगर मेरी एकलौती बेटी मर गई, तो फिर मैं अपनी सूनी गोद ले कर यह पहाड़ सी जिंदगी कैसे काट पाऊंगी?’’

बसंती की इस कमजोरी से पुरोहित को अपने अंधविश्वास का तीर सही निशाने पर लगने का एहसास हुआ. उस ने सहज ही यह जान लिया कि अब देरसवेर वह उस की ?ोली में जरूर आ गिरेगी.

पुरोहित भोला मन ही मन मुसकराते हुए मीठी आवाज में बोला, ‘‘तेरी मां अपने मन में धनदौलत का मोह लिए ही मर गई, इसलिए उस की आत्मा प्रेतलोक में बेचैन भटक रही है. अब वही बेचैन आत्मा प्रेतलोक से लौट कर इस घर में आ बैठी है, जिस के असर से तेरी गोद और सुमन की जिंदगी दोनों खतरे में है.’’

‘‘तो फिर इस प्रेतात्मा से पीछा छुड़ाने का कोई उपाय बताइए बाबा?’’ बसंती ने सहमते हुए पूछा.

‘‘तुम फौरन अपनी मां के सारे जेवरात और चांदी के सिक्के अपने हाथ से छू कर किसी ब्राह्मण को दान कर दो. उसी दान की बदौलत सुमन को एक नई जिंदगी मिलेगी और तुम्हें मां बनने का सुनहरा मौका.’’

पुरोहित की कही बात पर गंवार बसंती ने पूरी तरह यकीन कर लिया. फिर भी वह अपनी लाचारी जाहिर करते हुए बोली, ‘‘लेकिन बाबा, मैं तो बेटी की बीमारी दूर होने की उम्मीद पर पहले से ही अपने सारे जेवर बेच चुकी हूं, अब इस हाल में मां के जेवर भी दान में दे दूंगी, तो फिर वक्त पड़ने पर किस के आगे हाथ पसारने जाऊंगी? कौन सहारा देगा मु?ो?’’

बसंती की मजबूरी को सुन कर पुरोहित को अपना खेल बिगड़ता नजर आया. लेकिन तुरंत ही लोभ का दूसरा पासा फेंकते हुए वह बोला, ‘‘क्या तेरे मन में बेटा पाने की तनिक भी लालसा नहीं है?’’

‘‘लालसा तो कब से लगी है…’’ बसंती ?ोंपती हुई बोली, ‘‘सिर्फ एक बेटे की कमी से मेरी पूरी जिंदगी बो?ा जैसी बन गई है. एक बेटा पाने के लिए मैं कब से तरस रही हूं.’’

‘‘तो ठीक है, कल सुबह तुम अपनी मां के सारे जेवर मुझे दान में दे देना.

फिर देखना, मैं तेरे अंधेरे घर में कितनी जल्दी उजाला कर देता हूं,’’ इतना कहते हुए भोला की नजर बसंती की देह से फिसलती हुई वहां जा कर ठहर गई, जहां लोहे की पुरानी संदूकची पड़ी हुई थी.

अब बसंती को पुरोहित की नीयत सम?ाने में जरा भी देर नहीं हुई, पर घर में अकेली और देह से कमजोर बसंती मन मसोस कर रह गई.

‘‘अब क्या सोचने लगी?’’ भोला ने उसे टोका, ‘‘क्या मेरा सु?ाव ठीक नहीं लगा?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ बसंती ने ऊंची आवाज में नफरत से कहा, ‘‘अपनी गोद दोबारा भरने के लिए मां के कीमती जेवर किसी और के हाथ में देने की हिम्मत मु?ा में नहीं है.’’ बसंती के इस रूखे बरताव ने पुरोहित के लहलहाते अरमानों पर ओले बरसा दिए.

फिर भी पुरोहित ने हार नहीं मानी और धीमी आवाज में बोला, ‘‘जब बेटी की बीमारी दूर होने की उम्मीद पर तुम ने अपने जेवर बेच दिए, तो दोबारा मां बनने की उम्मीद में तुम अपनी मां के पुराने गहने पुरोहित को दान में नहीं दे सकतीं? जानती नहीं, पुरोहित को दिया हुआ दान लोकपरलोक दोनों को सुधारता है?’’

पुरोहित ने एक बार फिर उस संदूकची की ओर देखा, तो बसंती का रोमरोम एक अनजाने खौफ से सिहर उठा.

अभी वह खामोश खड़ी थी कि पुरोहित की पत्नी कमला पति को तलाशती हुई वहां आ पहुंची और तेज आवाज में बोली, ‘‘क्योंजी, यजमानी के इस काम से जो आमदनी होती है, उसे आप शराब और गांजा पीने में उड़ा देते हैं, फिर यह धंधा सिर पर ढोने से क्या फायदा, जब घर में बीवीबच्चे रोटी के लिए तरस रहे हों?’’

‘‘ठीक है, आज का ‘सीधा’ बसंती बहू से ले लो और घर जा कर भोजन बनाओ,’’ पुरोहित ने पत्नी को टालने की नीयत से कहा और जल्दी से पोथीपतरा समेट कर दूसरे यजमान के घर कथा बांचने चला गया. भोला के जाते ही ‘सीधा’ लेने के लिए ठहरी कमला बसंती को उदास देख कर संजीदगी से पूछ बैठी,

‘‘इस पूजापाठ के पीछे तेरी क्या मुराद है बहू?’’

‘‘मासूम बेटी की सलामती, जो अब मुमकिन नहीं लगती.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’ कमला उतावली हो कर पूछ बैठी, ‘‘क्या इस पूजापाठ पर तु?ो बिलकुल भरोसा नहीं?’’

‘‘भरोसा तो है चाची, लेकिन आज के पुरोहित पूजापाठ की ओट में अपने यजमान को उलटा पाठ पढ़ाना शुरू कर दिए हैं. धर्मकर्म के नाम पर अब ये ढोंगी अपने यजमान का धन और धर्म दोनों लूट लेना चाहते हैं.’’

‘‘यह तुम क्या बकने लगी बहू?’’ कमला हैरत से बोली, ‘‘मैं ने क्या पूछा और तू जवाब क्या देने लगी?’’

‘‘सच कहती हूं चाची…’’ बसंती का गला भर आया, ‘‘बेटी की लंबी बीमारी ने मु?ो बुरी तरह से ?ाक?ोर दिया है और इसी आफत में पुरोहितजी दोबारा गोद भरने का लालच दे कर मेरा सबकुछ ठग लेना चाहते हैं.’’

बसंती की पीड़ा सुन कर कमला का दिमाग ?ान?ाना उठा. उस के हाल पर तरस खा कर वह बोली, ‘‘ठीक है बहू, इस समय मैं खाना बनाने जा रही हूं. लेकिन शाम को इस बारे में तुम से फिर बात करूंगी.’’

शाम को कमला बसंती से मिल कर उस की आपबीती से पूरी तरह वाकिफ हो चुकी थी.

दूसरे दिन सुबह पुरोहित जैसे ही कथा बांचने के लिए बसंती के घर पहुंचा, तो उस के पीछेपीछे कमला भी आ गई.

पत्नी को इस तरह आया देख पुरोहित अपनी लाल आंखों से उसे घूरते हुए रूखे स्वर में बोला, ‘‘आज सुबह से ही तुम मेरे पीछे क्यों पड़ी हो? क्या चाहती हो तुम?’’

‘‘बस यही कि अब आप यह यजमानी का पेशा छोड़ दीजिए.’’

‘‘वह क्यों?’’ भोला ने हैरत से पूछा.

‘‘क्योंकि अब यह पेशा शरीफ ब्राह्मणों का सुकर्म नहीं, बल्कि खातेपीते ब्राह्मणों का कुकर्म बन गया है. अब यह पेशा पुरोहित और यजमान के पाक रिश्ते के बीच एक ऐसी दरार पैदा करता जा रहा है, जो आने वाले दिनों में दोनों की शराफत पर एक सवालिया निशान लगा सकता है,’’ कमला ने पति की ओर देख कर संजीदगी से कहा.

पुरोहित ने जोर से चीख कर कमला को एक जबरदस्त धक्का दिया, जिस से वह सामने की दीवार से जा टकराई और उस का सिर लहूलुहान हो गया.

कमला फूटफूट कर रो पड़ी, लेकिन भोला पर इस का कोई असर नहीं हुआ. वह गुस्से में अपनी पत्नी को और भी भलाबुरा कहने लगा.

पति की घुड़की से बेअसर कमला बरसती आंखों से उसे देखती हुई बोली, ‘‘आज मु?ो भी पता चल गया है कि पुरोहित कितना नीच और घटिया इनसान होता है, जो अपने यजमान की मजबूरी पर तरस खाने के बजाय उस की दौलत व इज्जत लूटने को तैयार हो जाता है.

‘‘अब मेरे लिए विधवा की जिंदगी जी लेना आसान है, मगर किसी ढोंगी, लोभी, पाखंडी, ठग और धर्मकर्म का पेशा करने वाले पुरोहित की सुहागन बन कर जी लेना आसान नहीं.’’

इतना कह कर कमला जैसे ही वहां से चलने को हुई कि अचानक पुरोहित के भीतर का इनसान जाग उठा और कमला के सिर पर हाथ रखते हुए भरे गले से बोला, ‘‘तेरी कसम, यह पूजापाठ, हवन, जाप, लोकपरलोक व पुरोहितयजमान सब बनावटी बातें हैं.

‘‘अब इस गलत काम को मैं कभी नहीं दोहराऊंगा. ऐसे दकियानूसी विचारों में कोरे अंधविश्वास व दिमागी वहम के सिवा कुछ और नहीं है. तुम आखिरी बार मु?ो माफ कर दो.’’ फिर कमला बिना पति की ओर देखे बसंती की बीमार बेटी सुमन को गोद में उठा कर तेज कदमों से डाक्टर के पास चल पड़ी.

औक्टोपस कैद में : कैसे थे मंत्री के कारनामे

सुभांगी जब मंत्री के कमरे से जल्दी बाहर निकल कर आई, तो उस का चेहरा तमतमाया हुआ था. उस की आंखें अंगारे बरसा रही थीं और बदहवास सी वह वंदना को ढूंढ़ रही थी.

ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडूंगी.’’

‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.

‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.

वंदना समझ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह समझौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे झुक लिया जाए. मुझे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’

वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.

उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मुझे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’

उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.

जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.

अर्चना ने वंदना को समझाया था, ‘औरत को तो हर जगह झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं. झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर समझोता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’

अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए  मनोरंजन का साधन बनी रही.

अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.

वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उलझ कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी झिझक नहीं हुई.

मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.

बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.

‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’

वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मुझे अपने रास्ते चलने दो.’

यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.

वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.

तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.

वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.

अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.

सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जरूर थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.

वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.

एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’

‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.

‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.

सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.

उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.

सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’

‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’

सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’

मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.

देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.

इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.

मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई सम?ा चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.

एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.

अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.

पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार समझाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ समझ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.

वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.

दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.

आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.

उस को खुशी है तो इस बात कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह समझौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था.

मुझ से दूर रहो : कैसा था मूलक का जीवन

तकरीबन 10 साल गांव से दूर रहने के बाद मूलक दोबारा लौटा था. जब वह यहां से गया था, तब यह गांव 20-30 झोंपड़ियों वाला एक छोटा सा डेरा था.

गांव के ज्यादातर मर्द कोयले और लोहे की खदानों में काम करते थे. दिनभर बदनतोड़ मेहनत के बाद कोई ताड़ी तो कोई कच्ची शराब पी कर नमकभात खा कर पड़ जाते थे. किसीकिसी परिवार की औरतें भी खदानों में काम करती थीं.

यह गांव मध्य प्रदेश के उस इलाके में था, जो अब छत्तीसगढ़ में आता है. जब मूलक गांव वापस लौटा, तब छत्तीसगढ़ बन चुका था. ज्यादातर गांव अभी भी मुख्य शहरों से बस कच्ची सड़कों से ही जुड़े थे. चारों ओर वही जंगली घास और बीहड़ थे.

गांव के कच्चे रास्तों पर सवारी के साधनों की अभी भी पूरी तरह कमी थी. संचार के साधन भी अभी तक केवल अमीरों को ही सुलभ थे. गरीब तो आज भी चिट्ठीपत्री के ही भरोसे पर थे.

भिलाई से गांव पहुंचतेपहुंचते मूलक को अच्छीखासी रात हो चुकी थी. दीए बुझ चुके थे और चारों तरफ घनघोर अंधेरा पसरा हुआ था. कहींकहीं एकाध जुगनू झिलमिल कर के मूलक को यहां की पगडंडी दिखा देता था.

यह पगडंडी बिलकुल भी नहीं बदली थी. एकदम वैसी ही एकडेढ़ गज चौड़ी, दोनों ओर जंगली बेर की कंटीली झाडि़यां और भुलावा की बेल…

‘अरे, यहां तो भुलना की बेल होती हैं. अगर उन पर मेरा पैर पड़ गया, तो मैं सब भूल जाऊंगा,’ अचानक चलतेचलते मूलक को बचपन में सुनी हुई बात याद आई और उस के कदम ठिठक गए.

‘‘भुलना की बेल… भला बेल भी किसी को रास्ता भुला सकती है?’’ मूलक ने खुद से कहा और तेजी से चलने लगा. अब सामने घना जंगल था और उस जंगल के उस पार नदी किनारे पर उस का गांव.

अभी मूलक मुश्किल से 20-30 कदम ही चला होगा कि अचानक उसे किसी चीज से ठोकर लगी और वह मुंह के बल झाडि़यों के ऊपर गिर पड़ा. उस के गिरते ही जंगली घास की उस झाड़ी से किसी औरत के चीखने की बहुत तेज आवाज आई, ‘‘आह… दूर रहो मुझ से.’’

औरत की आवाज सुन कर मूलक की जैसे सांस अटक गई. वह डर से सूखे गले को थूक निगल कर तर करने की कोशिश करते हुए मिमिया कर बोला, ‘‘कौन…? कौन हो तुम…?’’

 

‘‘चुड़ैल हूं मैं. दूर रहो मुझ से, नहीं तो तुम्हारा भी खून पी जाऊंगी,’’ वह औरत उसे डराने की कोशिश करतेहुए चीखी.

अब तक मूलक उठ कर खड़ा हो चुका था और गिरने और उठने के बीच वह यह जान चुका था कि यह कोई जवान औरत है. उस के हाथ उस जिस्म को महसूस कर चुके थे, लेकिन ऐसे अचानक इस अंधकार में इस झाड़ी में औरत के होने की कल्पना तो कोई सपने में भी नहीं कर सकता था, ऊपर से उस ने कहा था. ‘चुड़ैल…’

मूलक डर से कांप उठा, लेकिन फिर भी वह हिम्मत जुटा कर खड़ा हुआ.‘‘उठो यहां से, यहां झाड़ी में छिपी क्या कर रही हो तुम?’’ मूलक उसे पकड़ कर झकझोरते हुए बोला.‘‘भाग जा यहां से, कह तो दिया चुड़ैल हूं. जा, चला जा इस से पहले कि तुझ पर मेरा साया पड़ जाए, जान बचा ले अपनी,’’ वह औरत उसे डराने की कोशिश करते हुए बोली, पर उस की इस धमकी के बीच उस औरत की आवाजमें दर्दभरी सिसकी मूलक ने साफ सुन ली थी.

इस सिसकी ने न जाने क्यों मूलक के दिल की धड़कन बढ़ा दी थी. उसे न जाने क्यों इस सिसकी में किसी अपने का दर्द महसूस हुआ

मूलक ने उस औरत का हाथ पकड़ कर ऊपर उठाया और खींचते हुए उसे उठाने लगा, ‘‘चलो, उठो यहां से और उधर चल कर बताओ कि कौन हो तुम और तुम्हारे साथ क्या हुआ है?’’

वह गांव के बाहर एक उजाड़ ढाबे की ओर इशारा करते हुए बोला, जो इस जंगल के अंदर ही नदी के इस पार बना हुआ था.

‘‘आह… छोड़ो मुझे. तुम्हें समझ नहीं आता, दूर रहो तुम मुझ से. उधर ले जा कर तुम भी सब की तरह मुझे चुड़ैल होने की सजा दोगे.

‘‘तुम भी सब की तरह मुझ पर जुल्म करोगे. मेरी इज्जत से खेलोगे… अब मेरे पैरों में खड़े होने की ताकत नहीं बची और न ही जिस्म में किसी से जिस्मानी होने की ताकत.

‘‘जाओ, छोड़ दो मुझे. मैं मान तो रही हूं कि मैं चुड़ैल हूं. चले जाओ यहां से,’’ वह औरत घबरा कर हाथ जोड़ते हुए बोली.

उस औरत के उठने और हाथ जोड़ने के बीच मूलक यह जान चुका था कि उस के पैर घायल हैं और वह बहुत घबराई हुई है.

मूलक ने न जाने किस प्रेरणा से आगे बढ़ कर उसे उठा कर अपने कंधे पर डाल लिया और उसे ले कर ढाबे की ओर चल दिया. वह औरत निढाल हो कर उस के कंधे पर ऐसे लुढ़की हुई थी, मानो कोई बेजान लाश हो.

उस के मुंह से बारबार बस यही निकल रहा था, ‘‘दूर रहो मुझ से, मैं चुड़ैल हूं. मुझे सजा मत दो, मैं अब किसी का खून नहीं पीऊंगी. मेरे जिस्म से मत खेलो, मेरी इज्जत मत लूटो.’’

मूलक उस औरत को ले कर ढाबे में आ गया. वहां उस ने इधरउधर से कुछ लकडि़यां जमा कीं और फिर अपनी जेब से माचिस निकाल कर आग जला दी.

आग जलने से वहां उजाला फैल चुका था. अब मूलक ने उस औरत को ध्यान से देखा. वह बहुत कमजोर, काली सी, बिलकुल हड्डियों का ढांचा भर थी. उस के शरीर पर कपड़े के नाम पर थोड़े से पुराने चिथड़े थे, जिन से बड़ी मुश्किल से उस का एकचौथाई बदन ढक पा रहा था. उस के शरीर पर धूलमिट्टी की ऐसी मोटी परत चढ़ी हुई थी, मानो कई साल से वह नहाई न हो.

मूलक उसे देख कर दया से भर गया और बोला, ‘‘डरो मत तुम. मुझे बताओ कि तुम कौन हो और तुम्हारे साथ क्या हुआ है? तुम्हें कोई सजा नहीं देगा. डरो मत.’’

‘‘मैं चुड़ैल हूं, मुझ से दूर रहो. मैं तुम्हें लग जाऊंगी. तुम्हारा खून पी जाऊंगी, फिर तुम मर जाओगे. मैं चुड़ैल हूं, मुझ से दूर रहो,’’ उस औरत ने रटारटाया रिकौर्ड सा बजाया.

‘‘भूख लगी है तुम्हें? तुम कुछ खाओगी?’’ मूलक ने अपने थैले से केले निकाल कर उस की ओर बढ़ाते हुए धीरे से प्यारभरी आवाज में कहा.‘‘मैं चुड़ैल हूं, खून पीती हूं, मुझ से दूर रहो, मैं चुड़ैल हूं,’’ वह औरत सहमी सी बस यही दोहराती रही.

‘‘अच्छा, डरो मत. ये केले खाओ, मैं पानी ले कर आता हूं,’’ मूलक ने केले उस औरत के हाथ में पकड़ाते हुए कहा और ढाबे से एक पुरानी बालटी उठा कर नदी की ओर पानी लेने के लिए बढ़ गया.

जब मूलक पानी ले कर लौटा तो देखा कि वह औरत 2 केले खा कर आग के पास बैठी थी.

‘‘इधर आओ… लो, मुंह धो लो. इस से तुम्हें अच्छा लगेगा,’’ मूलक ने बालटी ढाबे के चबूतरे पर रखते हुए कहा.

लेकिन, वह औरत अपनी जगह से जरा भी नहीं हिली.

मूलक ने फिर उसे सहारा दे कर उठाया, लेकिन उस औरत के पैरों में तो जैसे जान ही नहीं थी. मूलक ने ध्यान से देखा कि उस औरत के दोनों पैर नीचे से ऊपर तक बुरी तरह घायल थे. पैर ही क्या उस के सारे बदन पर चोटों के नएपुराने न जाने कितने ही घाव थे.

मूलक ने उसे चबूतरे के पास बिठा कर उस के बदन से उस के चिथड़े हटाए और हाथ से पानी डाल कर उसे नहलाने लगा.

‘‘रहने दो मुझे सड़ा. मैं चुड़ैल हूं, मुझ से दूर रहो,’’ चिथड़े हटते ही वह औरत फिर से कांप उठी और सिसकने लगी.

मूलक ने जैसे ही उस औरत के मुंह को धोया, उस का काला रंग उतरने लगा. दूर जल रही आग के उजाले में उस का लाल गेहुंआ रंग दमकने लगा.

जैसेजैसे उस औरत का असली चेहरा नजर आ रहा था, मूलक के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

जैसे ही पूरा मुंह धुलने के बाद मूलक ने आग के उजाले में उस का चेहरा देखा, उस के मुंह से तेज चीख निकल गई, ‘‘मनका… यह तुम हो मनका… क्या हो गया?’’ वह आंसुओं से रोने लगा, ‘‘मनका, इधर देख… मैं मूलक… तेरा अपना मूलक… देख मुझे मनका… पहचान मुझे.’’

‘‘मुझ से दूर रहो, मुझे छोड़ दो, मैं चुड़ैल हूं.’’ वह अभी भी यही शब्द दोहरा रही थी.‘‘होश में आ मनका और बता मुझे कि क्या हुआ तेरे साथ?’’ कहते हुए मूलक ने बालटी का सारा पानी उस के ऊपर डाल दिया और जल्दी से और पानी भर लाया.

मूलक ने कुछ देर अच्छे से मलमल कर मनका को नहलाया और फिर अपने थैले में से निकाल कर उसे अपना कुरता पहनाया. अपनी जींस भी दी. उसे उठा कर फिर आग के पास ले आया और उसे घास पर लिटा कर उस का सिर अपनी गोद में रख कर उस के बाल सहलाते हुए प्यार से बोला, ‘‘मनका, पहचान मुझे. और बता कि क्या हुआ तेरे साथ? कैसे हुई तेरी यह हालत? अरे भूल गई तू, ब्याह हुआ था हमारा 10 साल पहले.

‘‘और जब हमारा मुन्ना हुआ, तो खर्चे की फिक्र और मुन्ने को अच्छी जिंदगी देने की लालसा में मैं रुपए कमाने शहर चला गया था…

‘‘और मुन्ना…? अरे, मुन्ना कहां है मनका? बोल मनका, मुन्ना कहां है हमारा?’’ मूलक उसे झकझोरते हुए बोला.

‘‘मुन्ना… चुड़ैल खा गई. उसे, मैं उस का खून पी गई. मैं चुड़ैल हूं न, मुझ से दूर रहो. मैं अपने मुन्ना को खा गई, खून पी गई उस का,’’ मनका खोखली हंसी हंसने की कोशिश करतेकरते रोने लगी.

‘‘होश में आ मनका. बता मुझे यहां यह सब क्या हुआ है? क्या हुआ हमारे मुन्ना को? उन सारे रुपयों का क्या हुआ, जो मैं ने तुम्हें भेजे थे? और मेरी चिट्ठी? कहां हैं सब मनका?’’ मूलक रोते हुए मनका को झकझोर रहा था.

‘‘मैं चुड़ैल हूं, मुझे छोड़ दो, मैं सब को खा गई,’’ मनका जैसे इस के अलावा कुछ बोलना जानती ही नहीं थी.

‘‘होश में आओ मनका. मैं मूलक हूं तुम्हारा पति, तुम्हारे मुन्ना का पिता. बताओ क्या हुआ है यहां?’’ मूलक ने एक जोरदार तमाचा अपनी मनका के गाल पर मारा, जिस से उसे जोर का झटका लगा और वह रोने लगी.

मूलक ने उसे गले लगा लिया और प्यार से सहलाते हुए बोला, ‘‘होश में आजा मनका, देख मैं तेरा मूलक हूं.’’न्ना के बापू… कहां चले गए थे तुम… तुम्हारे पीछे तुम्हारे बड़े भाई और भाभी ने मुझ पर बहुत जुल्म किए, मेरा खानापानी बंद कर दिया और हमारे मुन्ना को न जाने क्या खिला कर मार डाला. उन्होंने लोगों से कहा कि मैं चुड़ैल हूं और अपने बेटे को खा गई.

‘‘उन्होंने मुझे तुम्हारा भेजा कोई पैसा कभी नहीं दिया. जब मैं ने उन से मनीऔर्डर के बारे में पूछा, तो उन्होंने पंचायत बुला कर मुझे चुड़ैल कह कर मारपीट कर गांव से निकाल दिया.

‘‘अब तो 2-3 साल हो गए मुन्ना के बापू, मैं यहीं जंगल में अपने दिन पूरे कर रही हूं. दिन में मैं जंगली झाडि़यों में छिपी रहती हूं और रात को निकल कर जंगली फलों से अपना पेट भरती हूं.

‘‘रात में जब कभी कोई मर्द मुझे पकड़ लेता है, तो चुड़ैल की सजा के नाम पर मेरे साथ…’’ मनका अब मूलक के गले लग कर रो रही थी.

‘‘ओह… यह सब क्या हो गया. अच्छा मनका, तुम ये बिसकुट खाओ और पानी पी कर आराम करो. हमें आधी रात के बाद बहुत दूर निकलना है,’’ इतना कह कर मूलक नदी की ओर बढ़ गया.

इधर मनका बदले की आग में सुलग रही थी. उसे रहरह कर अपने मुन्ना की याद आ रही थी. तभी अचानक वह उठी और एक जलती हुई लकड़ी उठा कर गांव की तरफ चल दी.

जब तक मूलक वापस आया, तब तक मनका भी लौट आई थी. मूलक को जरा भी अंदाजा नहीं था कि उस के पीछे से मनका ने क्या कांड कर दिया है. मूलक तो बस अपनी मनका को कंधे पर उठा कर बड़ी सड़क की ओर बढ़ गया.

अगले दिन अखबारों में छपा था, ‘एक चुड़ैल ने रात को एक पूरे परिवार समेत 20 लोगों को जला कर मार डाला. यह चुड़ैल बहुत दिन से गांव के बाहर जंगल में रह रही थी. घटना के बाद से चुड़ैल को किसी ने नहीं देखा. सरकार ने जंगल को खतरनाक मानते हुए लोगों को दूसरी जगह बसाने का फैसला लिया है और यह रास्ता बंद कर दिया है’

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