वाकिआ 8 नवंबर, 1996 का है. गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश में एक ऐनकाउंटर की गूंज सुनाई दी. पुलिस की बहादुरी पर सभी को नाज हो रहा था. इस मुठभेड़ को भोजपुर थाने में तैनात पुलिस वालों, थाना प्रभारी लाल सिंह, सबइंस्पैक्टर जोगेंद्र, कांस्टेबल सुभाष, सूर्यभान और रणवीर ने अपनी जान पर खेल कर अंजाम दिया था.दरअसल, जोकुछ सामने आया, उस के मुताबिक, उस शाम पुलिस कुछ आरोपियों को ले कर जा रही थी, तभी उन्हें एक ईंख के खेत के नजदीक  4 बदमाश नजर आए. उन की हरकत ठीक नहीं लग रही थी. लिहाजा, उन्होंने पोजीशन ले ली और अपनी जान की परवाह किए बगैर बहादुरी का परिचय दे कर जवाबी फायरिंग की.

कुछ देरे तक तो दोनों तरफ से फायरिंग होती रही, उस के बाद गोलियों की तड़तड़ाहट बंद हुई. तब तक पुलिस चारों बदमाशों को ढेर कर चुकी थी. उन में से 2 ईख के खेत में और 2 रास्ते में पड़े थे. ऐनकाउंटर में मारे गए बदमाशों के पास से पुलिस को तमंचे भी मिले. मारे गए बदमाश कौन थे, इस की शिनाख्त नहीं हो सकी थी. बहादुरी और सटीक निशानेबाजी का आलम यह था कि जान पर खेलने वाले एक भी पुलिस वाले के जिस्म पर खरोंच तक नहीं आई थी.

पूरे पुलिस महकमे में बहादुर पुलिस वालों के चर्चे थे. यह तय हो गया था कि इस के एवज में उन्हें मैडल के साथसाथ तरक्की यानी प्रमोशन भी मिलेगी. क्योंकि ऐसी बहादुरी दिखाने वालों को अकसर समय से पहले ही तरक्की मिल जाती है.

जब पोल खुली तो...

 उस ऐनकाउंटर में शामिल पुलिस वालों ने भले ही सभी की आंखों में धूल झोंक दी थी और वे अपनी पीठ थपथपा रहे थे, लेकिन एक दिन बाद ही उन की कहानी में कई छेद नजर आए. मारे गए नौजवान, जिन्हें पुलिस ने शातिर बदमाश बताया था, उन की शिनाख्त हुई, तो हर कोई पुलिस की हैवानियत पर दंग रह गया.

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