लेखक-  शैलेंद्र कुमार ‘शैल’

जब सारे सुख त्याग कर किसी गुमनाम सी गली में मुंह छिपा कर जीने के लिए मजबूर हो जाएगा और लोग उसे भगोड़े की संज्ञा से नवाजेंगे.45 वर्षीय मोहम्मद मंसूर खान बेंगलुरु के शिवाजीनगर का रहने वाला था. उस ने सन 2006 में बेंगलुरु के शिवाजीनगर में 6 निदेशकों नासिर हुसैन, नाविद अहमद, निजामुद्दीन अजीमुद्दीन, अफसाना तबस्सुम, अफसर पाशा और अरशद खान के साथ मिल कर आई मोनेटरी एडवाइजरी के नाम से एक इसलामिक बैंक की नींव डाली थी.

इसलामिक बैंक की नींव डालने के पीछे उस का मकसद था कि इस बैंक में मुसलिम समाज का ही पैसा जमा हो.इस के लिए उस ने ऐसे लोगों को टारगेट कर के एक पोंजी स्कीम चलाई कि अगर वह उस की आईएमए कंपनी में पैसा निवेश करेंगे तो कंपनी उन्हें मूल धन के साथ हर महीने ढाई से 3 प्रतिशत और साल में 14 से 18 प्रतिशत का मुनाफा देगी.

वे खुद भी कंपनी के मालिक होंगे और उन की कंपनी में अच्छी हिस्सेदारी होगी, उस ने इस स्कीम को ब्याजमुक्त हलाल निवेश का नाम दिया था.

आज भी मुसलिम समाज में अधिकांश लोग ऐसे हैं जो ब्याज को हराम समझते हैं. जो लोग सूद को हराम समझते थे, उन्हें लगा कि एक तरह से वह कंपनी के हिस्सेदार हैं, मालिक हैं और हिस्सेदारी भी अच्छी भली है. लिहाजा कर्नाटक राज्य में रहने वाले सिर्फ मुसलिम समुदाय के तमाम लोगों ने अपनी बड़ीबड़ी रकम मोहम्मद मंसूर खान की आईएमए कंपनी में निवेश करनी शुरू कर दी.

समय आने पर कंपनी ने अपने निवेशकों को वादे के अनुसार मुनाफे के साथ पैसे लौटाए. इस से कंपनी के प्रति निवेशकों का भरोसा बढ़ गया और कंपनी में रकम जमा करने वालों की संख्या भी बढ़ गई. 4-5 साल के भीतर कंपनी में निवेशकों की संख्या करीब 40 हजार हो गई थी.

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