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इस मौके का फायदा उठा कर जयकुमार संध्या के नजदीक जाने की कोशिश करने लगा. जिस के चलते उस ने धीरेधीरे संध्या से उस की तारीफ करनी शुरू कर दी. किशोर उम्र में अपनी तारीफ सुनना हर एक लड़की को अच्छा लगता है, इसलिए संध्या को लगने लगा कि जयकुमार सारा काम छोड़ कर दिन भर उस के सामने बैठ कर उस के रूप का गुणगान करता रहे. वह जयकुमार से बात करने के लिए कभीकभी उसे अपने निजी काम भी बताने लगी, जिसे जयकुमार एक पैर पर खड़ा हो कर करने भी लगा.

जब जयकुमार को लगा कि लोहा गरम है, चोट की जा सकती है तो उस ने एक दिन डरने की एक्टिंग करते हुए संध्या से कहा, ‘‘मुझे आप से एक बात कहनी है छोटी ठकुराइन.’’

‘‘कहो, क्या कहना है?’’ संध्या बोली.

‘‘नहीं डर लगता है कि आप नाराज हो जाएंगी.’’ जयकुमार ने कहा.

‘‘नहीं होऊंगी, बोलो.’’ संध्या बोली.

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‘‘छोडि़ए छोटी ठकुराइन, मुझ जैसे गरीब का ऐसा सोचना भी पाप है.’’ कह कर जयराम ने बात अधूरी छोड़ दी. क्योंकि वह जानता था कि अधूरी बात संध्या के मन पर जितना असर करेगी, उतना पूरी नहीं.

हुआ भी यही. जय कुमार का बात अधूरी छोड़ना संध्या को बुरा लगा. क्योंकि सच तो यही है कि खुद संध्या मन ही मन जयकुमार से प्यार करने लगी थी. इसलिए उसे लग रहा था कि बुद्धू अपने मन की बात बोल देता तो कितना अच्छा होता.

अगले कुछ दिनों तक जयकुमार के आगेपीछे घूम कर उसे अपने दिल की बात कहने का मौका देने की कोशिश करने लगी. लेकिन अपनी योजना के अनुसार जयकुमार चुप रहा, जिस से संध्या का गुस्सा बढ़ता जा रहा था. एक दिन जयकुमार ने जब उसे छोटी ठकुराइन कह कर पुकारा तो वह फट पड़ी, ‘‘मत बोल मुझे छोटी ठकुराइन.’’

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